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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
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करते हैं, भक्तों की प्रधान मनोकामना मोक्ष की होती है और सब से बढ़ कर लाभ भी यही है, यदि पार्श्वनाथ परचो नहीं देवे तो फिर उनकी माला क्यों फेरते हो ? स्तवन क्यों गाते हो ! तथा लोगस्स में हरवक्त उनका नाम क्यों लेते हो ? अभिलाषा तो लाभ की ही है न ? |
प्र० -- सूत्रों में चार निक्षेप बतलाए, जिसमें एक भाव निक्षेप ही वन्दनीय है ! तो स्थापना निक्षेप को वन्दन करने में क्या फायदा है ?
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उ०- यदि ऐसा ही है तो फिर नाम क्यों लेते हो ? अक्षरों में क्यों स्थापना करते हो, अरिहन्त मोक्ष जाने के बाद सिद्ध होते हैं, वे भी तो अरिहन्तों के द्रव्य निक्षेप हैं, उनको नमस्कार क्यों करते हो ? बिचारे भोले लोगों को भ्रम में डालने के लिए ही कहते हो कि एक भाव निक्षेप ही वन्दनीय है, यदि ऐसा ही है तो उपरोक्त तीन निक्षेपों को मानने की क्या जरूरत है, परन्तु करो क्या ? न मानों तो तुम्हारा काम ही न चले, इसोसे लाचार हो तुम्हें मानना ही पड़ता है । शास्त्रों में कहा है कि जिसका भाव निक्षेप वन्दनीय है उसके चारों निक्षेप वन्दनीय है । और जिस का भाव निक्षेप अवन्दनीय है उसके चारों निक्षेप भी अवन्दनीय है । एक श्रानन्द श्रावक का ही उदाहरण लीजिए, उसने अरिहन्तों को तो वन्दनीय माना और अन्यतीर्थियों के वन्दन का त्याग किया। यदि अरिहन्तों का भाव निक्षेप वन्दनीय और तीन निक्षेप वंदनीय है तो अन्यतीथियों का भाव निक्षेप वन्दनीय और शेष तीन निछेप वन्दनीय ठहरते हैं, पर ऐसा नहीं होता, देखिये
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