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क्या ती. मुं. मुं० बान्धते थे।
वन लपेटा जावे उसको रजत्राण कहते हैं, अर्थात् ये दोनों काम में आ सकते हैं, गोचरो के बाद में पाने बांध कर ऊपर से ऊंन का वन खंड बांधने में आता है, उसको गोच्छा कहते हैं, तथा दो सूत की घ एक ऊन की कम्बल ऐसो तीन चहर रखने में आती हैं, और रजोहरण, चोलपट्टा, मुंहपति श्रादि यह उपकरण संयम के आधार भूत होने से परिग्रह रूप नहीं हैं।
श्री प्रश्नव्याकरण पृष्ट १४८ .. इस मूल पाठ-टीका और भाषा में साधु को एक मुँहपत्ती रखनी लिखी है यही बात स्था० साधु अमोलखषिजी ने अपने हिन्दी अनुवाद में लिखी है और श्वे स्था० तेरह पन्थियों की मान्यता है कि जैन साधु एक मुँहपत्ती रखते हैं अब देखिये
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* स्था• साधु अमोलखर्षिजी ने इस प्रभव्याकरण सूत्र का हिन्दी अनुवाद किया है परन्तु आप शब्दोंका अर्थ करने में भी अभी अनभिज्ञ है कारण 'गाच्छाओं' का अर्थ होता है पात्रों पर ऊन के दो टुकड़े जो गुच्छा. कार कर बांधा जाता है कि जिसमें जोवादि की विराधना न हो, आपने अर्थ किया है। पात्र पूजने की पुजनी, जो पहिले पान केसरिका मा चुकी है। 'पिडलाई' का अर्थ है गोचरी के समय पात्रों की झोली पर जीव रक्षा निमित डाला जाता है आपने इसका अर्थ किया है पात्रों के लपेटा जो रजस्तान आगे अलग कहा है 'पदठवणं' का अर्थ होता है ऊंन का खण्ड कपड़ा कि जिसपर माहार के पात्र रक्खे जाते हैं स्वामीजी ने 'पाद ठवणं' को अर्थ किया है पाट पटला, तो क्या अन्य उपकरणों की भांति स्वामीजी पाट पाटला रख कर ग्रामों-ग्राम साथ लिये फिरते होंगे? इत्यादि पर इस अन्ध परम्परा में पुच्छता है कौन, न तीर्थंकरों की भाज्ञा न आचार्यों की आज्ञा जिसके दिल में आया वह स्वेच्छा घसीट मारता है।
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