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जैनशास्त्रों का प्रमाण
मुखवस्त्रिका के विषय शास्त्रीय 'प्रमाण'
सबसे पहिला यह निर्णय कर दिया जाय कि स्थविर कल्पी साधुओं को कितने उपकरण विशेषमें कितनी मुँहपक्षियों रखनी चाहिये । यथा
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" समस्स सुविहियस तु पडिग्गह धारिस्स भवति भाभंडोवहि उवकरणं, पडिग्गहो १, पादबंधणं २, पादकेसरिया ३, पाठवणं ४ च, पडलाई तिन्नेव ५, यत्ताणं च ६, गोच्छश्रो ७, तिन्निव य पच्छाका १०, रोहरणं ११, चोलपट्टकं १२, मुहांतकमादीयं १३, इयंपिय संजयस्स उवबूहणढाए "
उपरोक्त पाठ में सुविहित-संयमी साधू को संयम धर्म की रक्षा करने के लिए उपकरण रखने को कहा है सो पात्र, व पात्रों को बांधने को कपड़े की झोली, पात्रों को प्रमार्जन करने के लिए ऊन के कपड़े का टुकड़ा जिसको पात्र केशरिका कहते हैं, कंबल के खड पर पात्र रक्खें उसको पात्र स्थापन कहते हैं । गौचरी जावें तब झोली व पात्रों के ऊपर आच्छादन करने के लिये कम से कम तीन पड वाले वस्त्र को पडले भेद से पाँच या सात पडवाले पडले रखने में सुचित्रा रज, छोटा बड़ा जीव या जलादि वस्तु आहार पर गिरने न पावे इसलिये गौचरी जावें तब पडलों से पात्रों को अवश्य श्र च्छादित करें, गौचरी लाकर पात्रे रक्खे तब उपर से ढ़कने के वस्त्र को रजस्त्राण कहते हैं, अथवा पात्रों को बांधने के बीच में
कहते हैं, ऋतु
श्राते हैं, उससे
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