SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धों की मूर्तियों के मु० कु० । ३६८ लिखा है कि तीर्थकर बिलकुल वस्त्र नहीं रखते थे, इसी प्रकार और भी अनेक सम्प्रदायों का इसमें विरोध है । यदि स्वामीजी मुनि सम्मेलन में इस बात के लिये सबकी सम्मति लेते तो कम से कम स्थानकमार्गी तो इस बात का विरोध नहीं करते कि तीर्थंकर मुँहपर मुँहपत्ती नहीं बाँधते थे । कई एक सज्जन यह सवाल करते हैं कि यदि मूर्ति पूजकों ने सिद्धों की मूर्ति को मुकुट कुण्डल पहना दिये तो हमने उन्हें मुँहपर मुँहपत्ती बधां दी इसमें बुरा क्या किया ? इसके उत्तर में प्रश्नकर्त्ता को पहिले मूर्ति पूजकों से यह समझाना चाहिए कि वे मुकुट कुण्डल क्यों पहनाते हैं ? सुनिये:- मूर्ति-पूजक मूर्ति में चारों अवस्थाओं का आरोप करते हैं । स्नात्र के समय जन्मावस्था, मुकुट-कुण्डल के साथ राजावस्था, अष्ट प्रतिहार के समय अरिहन्ताऽवस्था, और ध्यान के समय सिद्धावस्था, ये चारों अवस्थाएं क्रमशः तीर्थंकरों की थीं और शास्त्रों में इसका उल्लेख है । पर तीर्थकरों के मुँहपर डोराडाल मुँहपत्ती बांधना यह कौनसी अवस्था तथा किस शास्त्र का उल्लेख है ? क्योंकि तीर्थकरों ने गृहस्थावास में छदमावस्था में, या कैवल्यावस्था में कभी मुँहपत्ती नहीं बांधी थी । फिर समझ में नहीं आता है कि तीर्थकरों के मुँहपर मुँहपत्ती किस अवस्था की है ? जगत् पूज्य विश्वोपकारी तीर्थकरों की सूरत नाहक भद्दी बनाना यह केवल अपनी संकीर्ण वृत्ति का ही परिचय है । एवं अपने क्षुद्राभिप्रायों का दोष महापुरुषों पर लगाना महान् निन्द्य कर्म है । क्या हमारे स्थानकमार्गी भाई इस संकीर्णता को दूर कर कभी इस बात को समझेंगे १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy