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प्रकरण चतुर्थ
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साहार मान लिया और श्राप नहीं मानते हैं इसका कारण क्या है ? तो श्रापको स्पष्ट ज्ञात हो जायगा कि सिवाय पक्षपात के और कोई भी तथ्य नहीं है।
कई लोग भद्रिक जैनों को यों पहका देते हैं कि जम्बुद्वीप के बाहर लवणसमुद्र है उनकी बेल का पानी १६००० योजन ऊंचा है सो क्या चारण मुनि नन्दीश्वरादि द्वीप में जाते हैं तो पानी के अन्दर से जाते हैं पर इस सवाल से तो जैन शास्त्रों की मनमिलता ही सिद्ध होती है क्योंकि सूत्रों में धारणमुनियों की गात इस प्रकार फरमाई हैं।
"इमीसणं रयणप्पभाए पदवीए पह समरमाणिज्जाउ भूमि भागाउ सातरगाई सतरस्स जोयण सहस्साई उई उप्पतिता ततो पच्छाचारणाणं तिरिमगती पवातती।"
समवायोगसूत्र पृष्ट १९-५. रम्बा-ऐहीज रत्नप्रभा पृध्विी ने विषेपणी रमणीकसमो भूमिभाग के ते यकी माझेरो बी फोम अधिक सत्तर बोजन सहस्त्र लगे उठचोउत्पति उडने एतले लवणसमुद्नो शिखा लगे ऊंचो उत्पतो तिवारे पच्छी जंघाचारण विद्याचारण नी तिरछी गति प्रवृते तिरछई दीपे-रुचफवरदीपे एम नन्दी भरदीपे जिनप्रतिमा वांदवा जावई।
लौकागच्छीय संशो• समवायांग सूत्र पृष्ट ४९ पही सत्र पाठ अपिजी ने अपने अनुवादित समवायांग सूत्र में दिया है।
इस लेख से पारण मुनियों की गति सत्रह हमार योजन जब अधिक ऊँची बतलाई है और वे जिनप्रतिमा पन्दन को
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