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मू० पू० वि० प्रश्नोत्र
है ? अब बत्तीस सूत्रों का हाल भी सुन लीजिये । ३२ सूत्रों में ११ अंग तो गणधर कृत हैं पर शेष २१ सूत्र तो स्थविरों के बनाये हुये हैं । जब श्यामाचार्य कृत प्रज्ञापना सूत्रों को मानना
और भद्रबाहु कृत नियुक्ति को नहीं मानना यह अज्ञानता नहीं तो और क्या है ? यदि यही इरादा हो कि मूर्ति नहीं मानने के कारण ही ३२ सूत्र माने गये हैं तो ३२ सूत्रों के मूलपाठ में मूत्ति विषयक बहुत उल्लेख हैं फिर अथाह ज्ञान का समुद्र छोड़ कर केवल ३२ सूत्रों को मानने का अर्थ क्या हुआ ? यदि ३२ सूत्र ही मानते हो तो मूलपाठ मानते हो या पञ्चाङ्गी सहित ?
प्र०-हम ३२ सूत्र मूलपाठ मानते हैं और मिलती हुई टीका वगैरह भी मानते हैं ? | ___उ०-मिलती का क्या अर्थ होता है ? जब एक वस्तु के सामने दूसरी वस्तु रक्खी जाती है तब मिलती, नहीं मिलती कही जा सकती हैं सो तो आपके पास कुछ है नहीं, फिर किससे मिलाके मानते हो ? सज्जनो! आप जानते हो वृक्ष का मूल धूल में रहता है और शाखा प्रतिशाखा पत्र फल में रस मिलता है इसी भाँति मूल सूत्र सूची मात्र है पर उनका भावार्थ पञ्चाङ्गी द्वारा ही समझा जाता है यदि आपका यही दुराग्रह है कि हम तो ३२ सूत्र मूल ही मानते हैं तो बतलाइये कि आपके माने हुए ३२ सूत्रों के मूल में
' (१) स्याद्वाद "जो जैनियों का मूल सिद्धान्त है," का खरूप किस मूल सूत्र में है ?
(२) जैनयों की सप्तभंगी का अन्य समाज में बड़ा ही महत्व है जिसका वर्णन किस मूल सूत्र में है ?
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