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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर वान महावीर के बाद २००० वर्षों से जैन मूर्ति नहीं मानने वाला सबसे पहले लौकाशाह ही हुआ पर जो लोग कहते हैं कि हम महावीर की वंश परम्परा से चले आते हैं और कल्पित नामों की पट्टावलियां भी बनाई हैं, पर वे इस ऐतिहासिक युग में मिथ्या ठहरती हैं कारण महावीर के बाद २००० वर्षों में केवली, चतुर्दश पूर्वधर, और श्रुतवली सैकड़ों धर्म धुरंधर महान् प्रभाविक आचार्य हुए। वे सब मूर्ति उपासक ही थे यदि उनके समय में मूर्ति नहीं मानने वाले होते तो वे मूर्ति का विरोध करते पर ऐसे साहित्य की गन्ध तक भी नहीं पाई जाती है जैसे दिगम्वर श्वेताम्बर अलग हुए तो उसी समय उनके खण्डन मण्डन के अन्य बनगये पर मूर्ति मानने, नहीं मानने के विषय में वि० सं० १५०८ पहिले कोई भी चर्चा नहीं पाई जाती, इसी से यह कहना ठीक है कि जैन मूर्ति के उत्थापक सबसे पहिले लौकाशाह ही हैं। यदि वीर परम्परा से आने का दावा करते हो तो लौंकाशाह के पूर्व का प्रमाण बतलाना चाहिये कारण जैनाचार्यों ने हजारों लाखों मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई हजारों लाखों ग्रन्थों की रचना की, अनेक राजा महाराजाओं को जैन धर्म में दीक्षित किये, ओसवालादि जातिएँ बनाई इत्यादि । भला! एकाध प्रमाण तो वे ही बतलावें कि लौकाशाह पूर्व हमारे साधुओं ने अमुक ग्रन्थ बनाया या उपदेश देकर अमुक स्थानक बनाया या किसी अजैनों को जैन बनाया। कारण जिस समय जैनाचार्य पूर्वधर थे उस समय मूर्ति नहीं मानने वाले सबके सब अज्ञानी तो नहीं होंगे कि उन्होंने कोई ग्रन्थ व ढाल चौपाई कवित्त छन्द का एक पद भी नहीं रचा हो ? बन्धुओ! अब जमाना यह नहीं
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