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प्रकरण तीसरा होते हुये जहाँ सिद्धायतन था तहाँ आया, प्राकर सिद्धायतन के पूर्व द्वार से प्रवेश किया जहाँ देव छन्दा में जिनप्रतिमा थी वहाँ
आया जिनप्रतिमा को देखते ही प्रणाम नमन किया, प्रणाम कर मौर पीछी की पूँजनी हाथ में ग्रहण की जिनप्रतिमा को मौर पींछी की पूंजनी से प्रमाजी, प्रमार्जन कर जिनप्रतिमा को सुगन्धित पानी कर स्नान कराया, स्नान करवाकर गोशीर्ष चन्दन कर गात्र को अनुलिप्त किया, जिनप्रतिमा को महयं चढ़ाया, देव दूष्य वस्त्र पहनाये फूल चढ़ाये, माला पहनाई, सुगन्धी द्रव्य चढ़ाया, वर्णक चढ़ाया,सुगन्धी चूर्ण चढ़ाया, ध्वजा चढ़ाई,आभरण चढ़ाये, ऊपर चन्द्रवा बाँधा, नीचे भूमिका स्वच्छ की, फूल की माला पहनाई, जिस प्रकार स्त्री के सिर के बन्धे हुये बालों को पुरुष प्रहन
ॐ सत्र में वस्त्र चढ़ाना लिखा है पर ऋषिजी ने वस्त्र पहनाये लिख दिया है पर यह लिखते समय इतना ही विचार नहीं किया कि गोशीर्ष चन्दन का लेपन कर वस्त्र कैसे पहनाये ? ऐसा तो एक विवेक शून्य मनुष्य भी नहीं करते है तो वे महाविवेकी देव क्यों करेंगे । वास्तव में वस्त्र चढ़ाये अर्थात् अर्पण किये जैसे आज भी पूजा में वस्त्र अर्पण किया जाता है जिसको अंग लुहने कहते हैं।
ऋषिजी ने इस पाठ का अर्थ जिनप्रतिमा को वस्त्र पहनाकर फुट नोट में लिखा है कि तीर्थकर वस्त्र नहीं रखते हैं इसलिए यह प्रतिमा तीर्थङ्करों की नहीं हैं पर आपके ही सहचारीतीर्थङ्करों के मुंह पर मुहपत्ती बंधाने के कल्पित चित्र बनाये हैं वे तो ऋषिजी की मान्यता मुभाफिक बिलकुल मिथ्या ही ठेरते है न ? क्योंकि तीर्थकर वस्त्र ही नहीं रखते थे तब वस्त्र के साथ डोरा कहाँ से आया पर यह मत न तीर्थङ्करों का है न तीर्थकरों की आज्ञा पालन करने वालों का है पर गुरुगम्य विहिन लोगों में नैसी जिसके दिल में आई वह ऐसी ही घसीट मारते हैं।
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