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स्तूप पर की जिनप्रतिमा
प्रणाम, पूजा, और नमोत्थूणं वहाँ नहीं दिये । परन्तु जहाँ स्तूप की मणिपीठिका पर जिनप्रतिमा है वहाँ प्रणाम पूजा और नमोत्थुणं दिया है, जैसे कि सिद्धायत में विधिपूर्वक किया था इससे सिद्ध होता है कि देवता जिनप्रतिमा की पूजा कल्याणार्थ ही करते हैं।
जिनप्रतिमा की द्रव्य भाव पूजाकर सूर्याभदेव, भगवान महावीरदेव को वन्दन करने को जाता है और वह अपने लिये प्रश्न पूछता है कि
अहन्न भंते । सुरियाभे देवे किं भवसिद्धिएं किं अभव सिद्धिए ? सम्माद्दडी मिच्छादिट्टी ? परितसंसारिए अणंत संसारिए ? सुलभबोहिए, दुलभ बोहिए ? श्राराहते, विराहते ? चरमे, अचरमे ? सूरियाभाए । समणे भगवं महावीरं सारयाभे देवं एवं वयासी-सरियामा ? तुमेणं भवासीद्धिए णो अभवासद्धिए जाव चरमे णो अचरमे ॥ ___ ऋषिजी का हिन्दी अनुवाद. अहो भगवान । मैं सूर्याभदेव क्या भव्य सिद्धि हूँ ? कि अभव्य सिद्धि हूँ ? सम्यक दृष्टि हूँ कि मिथ्या दृष्टि हूँ ? परत्त संसारी हूँ कि अनंत संसारी हूँ ? सुलभ बोधी हूँ कि दुर्लभ बोधी हूँ ? आराधिक हूँ विराधिक हूँ ? चरम हूँ कि अचरम हूँ ? अर्थात् यह मेग देव सम्बन्धी भव अन्तिम है कि और भी मुझे भव करना पड़ेगा ? श्रमण भगवन्त श्री महावीर स्वामी सूर्याभदेव से यों बोले-सुर्याभ । तू भव्यसिद्धिक हैं परन्तु अभव्यसिद्धिक नहीं है तूं सम्यग्दृष्टि है परन्तु मिथ्या दृष्टि नहीं हैं, तू परत (अल्प) संसारी है परन्तु अनंत संसारी नहीं है तूं सुलभ बोधी ( सहज समझने वाला) है परन्तु दुर्लभ बोधी
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