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________________ १७९ मूर्तिपूजा का महत्व आपके उपर्युक्त विधान मूर्तिपूजा सूचक नहीं हैं ? यदि हां, तो फिर गुड़खाना और गुलगुलों से परहेज रखना कहां की योग्यता है । ____ अंत में मैं यह कह देना चाहता हूँ कि संसार भर में जितने मतमतान्तर हैं उनमें से अधिक लोग ईश्वर को निराकार मानते हैं फिर भी उनकी उपासना करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं, परन्तु निराकार ईश्वर की उपासना कैसे की जाय ? यह उनकी बुद्धि के बाहिर की बात है। क्योंकि निराकार ईश्वर या ईश्वर के गुणों का जब कोई आकार ही नहीं तो उनकी उपासना कोई कैसे कर सकता है ? । यदि कोई कहे कि हमें मन्दिर मूर्तियों की क्या जरूरत है ? । हम तो हमारे हृदय में निराकार ईश्वर की कल्पना कर उपासना कर सकते हैं। परन्तु यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन है। ऐसा कहने वाले लोग अभी निरे अज्ञ हैं और पक्षपात के दलदल में फंसे हुए हैं । क्योंकि हृदय में ईश्वर की कल्पना करना यह भी तो एक प्रकार की श्राकृति ( मूर्ति ) पूजा ही है । जब ईश्वर निराकार है और उसके आकार की कल्पना की जाती है तो उस समय जो श्राकार है वही मूर्ति है। दूसरा सवाल यह है कि अच्छा, यदि हमने मूर्ति मान भी ली और उसके प्रति पूज्य भाव रखना भी कबूल कर किया परन्तु उसकी पुष्पादि से पूजा करना क्या हेतु रखता है ? यह बात रुचि और अधिकार पर निर्भर है। जैसे किसी मनुष्य के घर एक परोपकारी पुरुष चला जावे, और घर वाले को उस पुरुष से भविष्य में महान् लाभ होने की आशा हो जावे, तो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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