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प्रकरण पाँचवाँ
१७८ चला दे, परंतु यह कार्य करते समय जो उसके हृदय में वेदना होती है, इसके खेद में जो उसके मुँह से उद्गार निकलते हैं समाज में जो क्षोभ होता है, उससे यही मालूम होता है कि
आर्यसमाजियों के हृदय भी साधारण मूर्तिपूजक मनुष्य के समान ही हैं। यही बात स्थानकवासियों, तारन पथियों, ब्राह्मसमाजियों, व प्रार्थनासमाजियों आदि के लिए भी कही जा सकती है"
"सत्य सन्देश पाक्षिक वर्ष ११ अं १५ पृ. ३७० । यदि कोई व्यक्ति अज्ञता से यह प्रश्न करे कि मूर्ति तो हम मानते हैं पर जल चंदनादि से उस जड़ मूर्ति की हम पूजा नहीं कर सकते हैं । यह कहना नितान्त अनप्लमम और पक्षपातपूर्ण है क्योंकि जब उस जड़ मूर्ति को हम ईश्वर या अपने इष्ट आराध्य पूज्यपुरुषों की मूर्ति समझते हैं तो ऐसा कौन कृतघ्नी होगा कि जो शक्ति के होते हुए भी उसकी भक्ति न करे, अर्थात् जहाँ तक बन सके वहाँ तक तन, मन, और धन से ईश्वर की भक्ति करनीचाहिए देखियेः मुसलमान लोग ताजिया, (तायूत) मसजिदें और पीरों के तकियों पर पुष्प, नारियल चढ़ाते हैं, लोबान का धूप देते हैं। ईसाइयों के गिरजाघरों में होली वर्जिनादि की मूर्तिएँ रक्खी जाती है और उन पर हीरा,पन्ना,माणक, मोती का जड़ाव किया जाता है तथा उन मूर्तियों के आगे भक्ति-भाव पूर्वक घुटने टेक नमस्कार करते हैं । वहाँ पर अनेकों मोमबत्तिएँ जलाई जाती हैं । स्थानकवासी भाई भले ही जैनमंदिर में जाकर पूजा नहीं करते हों पर अपने गुरु की मूर्ति को नारियल आदि चढ़ाते हैं । ये हनुमानजी को रोट और रामदेवजी को चूरमा भी जरूर चढ़ाते हैं । फिर यह क्यों कहा जाता है कि हम मूर्तिपूजा नहीं करते हैं ? । क्या
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