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________________ प्रकरण पहिला में ही स्वनामधन्य श्रेष्ठिवर्य करके पुनः शत्रुञ्जय को स्वर्ग दिया, इससे पाठक स्वयं समझ समय में भी आर्य लोगों की श्रद्धा थी । समरसिंह ने करोड़ों द्रव्य व्यय सदृश मंदिरों से विभूषित कर सकते हैं कि उन अनायों के मंदिर - मूर्तियों पर कैसी अटूट किन्तु विक्रम की सोलहवीं शताब्दी भारत के लिए महादुःख और भीषण कलंक का समय थी। कई व्याक्तियों पर दूषित अनार्य संस्कृति ने अपना अशुद्ध असर उस समय डाल ही दिया था, और फल स्वरूप उन अज्ञात व्यक्तियों ने बिना कुछ सोचे समझे अनार्य संस्कृति का अन्धानुकरण कर आर्यमंदिर - मूर्तियों की ओर क्रूर दृष्टि से देखना भी शुरू कर दिया था । O उस समय भारत में क्या हिन्दू, क्या जैन, सब लोग अपने २ इष्ट देवताओं की मूर्तिएँ पूज कर अपना कल्याण कर रहे थे । पर बदनसीबी के कारण कई श्रज्ञ लोगों ने इस पवित्र प्रवृत्ति में भी अनेक प्रकार के उत्पात मचाने शुरू कर दिए। जैसेजैन श्वेताम्बर समुदाय में लौंकाशाह, दिगम्बरों में तारण स्वामी, जुलाहों में कबीर, सिक्खों में गुरु नानक, वैष्णवों में रामचरण, और अंग्रेजों में ल्यूथर, प्रभृति व्यक्तियों ने विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में अनार्य संस्कृति के बुरे प्रभाव से प्रभावित हो श्रार्यधर्म के आधारस्तंभ रूप मन्दिर - मूर्तियों के विरुद्ध घोषणा कर दी कि, ईश्वर की उपासना के लिए इन जड़ पदार्थों की क्या आवश्यकता है, इत्यादि । परन्तु इस लेख के साथ श्रीमान् लौंकाशाह का ही सम्बन्ध होने से आज मैं यह बतला देना S Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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