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________________ २२९ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३० - दर्शन की प्रस्तुत भावना में, शत्रुंजय, गिरनार, अष्टापदादि तीर्थों की यात्रा करना श्राचारांगसूत्र भद्रबाहु स्वामि कृत नियुक्ति में बतलाया है और मूर्ति के अतिचार रूप ८४ श्राशातना चैत्यवन्दन भाष्यादि में बतलाई है, यदि मूर्त्ति पूजा ही इष्ट नहीं होती तो तीर्थयात्रा और ८४ आशातना क्यों बतलाते ? प्रः -- तीन ज्ञान ( मति श्रुति और अवधि ज्ञान ) संयुक्त तीर्थकर गृहवास में थे, उस समय भी किसी व्रतधारी साधु श्रावक ने वन्दन नहीं किया, तो अब जड़ मूर्ति को कैसे वंदन करें ? उ०- तीर्थकर तो जिस दिन से तीर्थकर नाम कर्म बांधा उसी दिन वंदनीय हैं जब तीर्थकर गर्भमें आये थे, तब सम्यक्त्व घारी, तीनज्ञान संयुक्त शक्रेंद्र ने “नमोत्थुणं" देकर वंदन किया। ऋषभदेव भगवान् के शासन के साधु या श्रावक जब चौवीस्तव (लोगस्स ) कहते थे, तब अजितादि २३ द्रव्य तीर्थंकरों को नमस्कार एवं वंदना करते थे, "नमोत्थुणं" के अन्त में पाठ है कि: जे या सिद्धा, जे भविस्संतिणागये काले | संपय वडूमाणा, सव्वे तिविहेण वन्दामि ॥ इसमें कहा गया है कि जो तीर्थकर होराये हैं, और जो होने वाले हैं और जो वर्तमान में विद्यमान हैं, इन सबको मन वचन, काया से नमस्कार करता हूँ। फिर भी आप तेरह पंथियों से तो अच्छे ही हो, क्योंकि तेरह पन्थी तो भगवान को चूकाबतलाते हैं, श्राप अवन्दनोय बतलाते हैं, कदाच आप शास्त्र में इसी खण्ड के पृष्ठ ११० से पाठ देखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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