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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
३०६ अपने धर्म की रक्षा के लिये प्राणों के रहते हुए उन मन्दिरों का रक्षण किया है। मूर्ति उस्थापक एवं मूर्ति भंजकों के हमलों से मन्दिर मूर्तिएँ कम नहीं हुये, पर बढ़ते ही गये इससे आप अनुमान लगो सकते हैं कि मन्दिर मूर्तियों के बनाने में आर्यों की सम्पत्ति बढ़ी है या घटी। अब जरा मूर्ति नहीं मानने वालों की ओर भी देखिये। आज सैकड़ों वर्षों से जो लोग मूर्ति नहीं मानते हैं
और मन्दिर मूर्तियों के लिए जिन्होंने अपना द्रव्य व्यय नहीं किया है वे कितने धनाढ्य बन गये ? शायद देश की दारिद्रता का कारण उन कंजूम-मक्खी-चूम [जियों की शूमताही तो नहीं है कि वे स्वयं कंजूस होते हुए भी दूसरे उदारवृत्ति वालों की निन्दा कर देश के पुण्य को हटा रहे हैं ! फिर भी देश में अभी मन्दिर मूर्तियों के उपासक लोग विस्तृत संख्या में विद्यमान हैं और उनके घरों से प्रतिदिन थोड़ा बहुत द्रव्य,शुभ कार्यों में निकलता ही रहता है,और उसी पुण्य से उदार तो क्या पर कंजूस भी पैसा पात्र है एवं देश थोड़ा बहुत हराभरा नजर आता है। दूसरा तो क्या पर एक केवल श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय के एक साल भर का साढ़े तीन करोड़का खर्चा है, जो ३५० लखपति साल भर के धर्म कार्य में व्यय होते है अब हम थोड़ा आपसे भी पूछ लेते हैं कि हमारी तीर्थ यात्रा और मन्दिर तो आपकी कांनी आँख में खटक रहे हैं पर
आपके यहाँ बड़े-बड़े स्थानक बँधाये जाते हैं, साधुओं की समाधियाँ, पादुकाएँ, और फोटू या चित्र बनाये जाते हैं, पूज्यनी के . दर्शनार्थी हज़ारों भक्त श्राते-जाते हैं लाखों करोड़ों रु० रेल्वे को
किराया के दिये जाते हैं इत्यादि । इसका अर्थ क्या होता है ? । क्या देश की दरिद्रता में वृद्धि करने का तो इरादा नहीं है न!
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