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________________ जैन शास्त्रों के प्रमाण ३७४ आज कई समझदार जानते हुए भी मात्र मतपक्ष के कारण भूट 'मूट चला रहे हैं श्रागे देखिये " जे भिख्खुवा भिख्खुणी वा ऊसासमाणे वा णीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जम्भायमाणे वा उडोपण वा वायणिसग्गे वा करेमाणे पुव्वमेव श्रासयं वा पोसयं वा पाणिया परिपिहित्ता तो संज यामेव उससेज वा जाब वायणिसग्गं वा करेज्जा " श्री आचारोगसूत्र श्रु० भ० ११ उ० ३ पृष्ठ २४७ इस पाठ में साधुसाध्वी को उश्वास, निश्वास लेते, समय खासी, छींक, उबासी, डकार वातोत्सर्ग करते पहिले मुँह व अधोभाग हाथ से ढाक कर पीछे यत्नापूर्वक करने का कहा है, इससे साबित होता है कि साधु साध्वियों के मुँह हमेशा खुले रहते हैं परन्तु बंधे हुए नहीं यदि बंधेहुए होते तो उश्वासादि लेते समय हाथ से मुँह ढांकने को सूत्रकार कभी न कहते और यहां तो खास मूलपाठ में मुँह आगे हाथ रखने का खुला शब्दों में कहा है, इसलिये मुँहपत्ति हाथ में रखना ही निश्चय होता है, यहां पर सूत्र -कार महाराज का खास अन्तर आशय यही है कि उश्वास या छींक वगैरह करते हाथ से मुंह ढांकना, और यही बात शक्रेन्द्र के प्रश्न के उत्तर में कही है जरा निर्पक्ष होकर देखिये “ सकेणं भंते । देविंदे देवराया किं सावज्जं भास, भासति । श्रणवज्जं भासं भासति १ गोयमा सावज्जं पि भासं भासति, अरणवज्जं पि भासं भासति ! से केठठे भंते! एवं बुच्चर - सावज्जं पि जाव ण < Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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