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क्या० ती. मुं. मुं. बांधते थे ? विशेष जिनज्ञा की उपेक्षा करना यह दया नहीं पर दया को ओट में मिथ्यात्व का पोषण है ।।
सज्जनों! स्वामीरत्नचन्दजी शताऽवधानी ने अर्धमागधी कोष प्रथम भाग में एक श्रावक के उत्तरासन का फोटो दिया है । उसे देख कर आश्चर्य होता है कि एक शाताऽवधानी जैसे विद्वान् को भी पक्षपात का कितना मोह है, कि उस उत्तरासन में न तो मूर्ति और न मुँहपत्ती का विषय है किन्तु फिर भी समझ में नहीं आता कि शास्त्र का नाम लेकर ऐसा भद्दा चित्र क्यों प्रकाशित करवाया गया है ? श्रावक का उत्तरासन अच्छा शोभनोय होता है, परन्तु शताऽवधानोजो ने तो एक कपड़े को गले में डाल मुँह पर धाटा सा लगा दिया है । समझ नहीं पड़ता कि ऐसी भद्दी आकृति किस आधार से बनाई है। जैनों में दो दो हजार वर्षों की प्राचीन उत्तरापन की बहुत सी प्राकृतिएं हैं। पर ऐसा उत्तरासन तो कहीं भी देखने में नहीं आया। हमारे स्थानकमार्गी भाईयों को मुँहपर मुँहपत्ती बाँधने का समर्थक कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिला तो उन्होंने कई एक स्वकपोल कल्पित चित्र बनवा कर सचित्रप्रन्थ छपवा, खास तीर्थङ्करों के मुँहपर डोराडाल मुँहपत्ती बँधे हुए चित्र छपा दिये हैं । ऐसा करने में पूज्य जवाहिरलालजी, * प्र०व० चौथमलजी + और मुनि शंकरलालजी का नाम विशेष प्रसिद्ध है। इन महानुभावों ने भगवान ऋषभदेव, बहुबलर्षि, प्रश्नचन्द्रमुनि, पाँच गण्डव, केशीश्रमण और महावीर प्रभु के मुँहपर डोरा.
सचित अनुकम्पा विचार + प्रभु महावीर संदेश सचित्र मुख वास्त्रिका निर्णायादि पुस्तकों । जो मुझे हाल ही में मिली उनके उत्तर रूप में ही प्रस्तुत पुस्तक लिखी जा रही है।
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