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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
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द्रव्य रखा उसका उल्लेख उपाशकदशांगसूत्र में है जप्त पाठ को प्रतिक्रमण में घुसेड़ दिया जो बिल्कुल असंगत है । कारगा आनन्द ने तो एक दिन व्रत लिये, बाद उनके अतिचारों का प्रतिक्रमण किया था पर अज्ञानी लोगों ने तो उन व्रतोच्चारण का पाठ हमेशा कहना शुरू कर दिया कि जिसका कुछ मतलब ही नहीं और न उस पाठ का प्रतिक्रमण के साथ कुछ भी सम्बन्ध है। इस कारण
आपका प्रतिक्रमण शास्त्रानुसार नहीं पर मन कल्पित नाम मात्र का छोटा प्रतिक्रमण है। इतना ही क्यों पर आपके जो प्रावश्यक सूत्र हैं उसमें न तो श्रावक के सामायिक, पोसह और प्रतिक्रमण हैं न साधुओं का पूरा प्रतिक्रमण है । इतना ही क्यों पर
आपके आवश्यक में तो साधु-श्रावक के पञ्चक्खानों का भी सिलसिलेवार विधान नहीं है । इससे स्पष्ट है कि आपके प्रतिक्रमण नहीं पर एक कल्पति ढ़ांचा है और इसका कारण मात्र इतना ही कि सौधर्माचार्य के प्रतिक्रमण में अरिहन्त चैत्य का विधान पाता है उसको नहीं मानना ही है। जैनियों में राई, देवसी, पक्खी, चौमासी और संवत्सरी एवं पांच प्रतिक्रमण हैं तब आप केवल कल्पित कलेवर से ही काम चलाते हैं । जैनियों में राइ देवसी प्रति. क्रमण में ४ लोगस्स, पाक्षी में १२, चौमासी में २०, और संवत्सरी में ४० लोगस्स के काउस्सग्ग शास्त्रानुसार करते हैं, तब आपके कई समुदाय में तो इसी भांति, पर कई में संवत्सरी के प्रायश्चित्त में भी हमेशा की मुवाफिक ४ लोगस्स और कई टोलों में १६ लोगस्स का काउस्सग्ग करते हैं । यदिशास्त्रानुसार प्रतिक्रमण होता तो यह भेद क्यों ? अभी अजमेर के साधू सम्मेलन में तो ४-१६.४० लोगस्स को किनारे रख, २० लोगस्स मुकर्रर किया है । जहाँ मन
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