________________
२७७
मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
... उ०-आप ही अन्तरदृष्टि से सोचें कि प्रतिक्रमण अतिचार की आलोचना है । पर श्राप तो अतिचार के स्थान हमेशा व्रतोच्चारण करते हो, जैसे आप कहते हो कि___ "पहला थुल प्रणातिपात त्रस जीव बेन्द्रिय तेन्द्रिय चौरि. न्द्रिय पंचेन्द्रिय जाणी पीच्छी उदेरी संकुटी बिना अपराध त्रसजीव हणणे का पञ्चक्खाण जाव जीवाए दुविहं तिविहिणं नकरेमि नकरावेमि मणसा वायसा कायसा + + . अब इस पर जरा विचार करें कि दोय करण, तीन योग अर्थात् तेवीस का अंक और चालीसवाँ भाँगा से आपके समाज का प्रत्येक श्रावक पञ्चक्खाण करता है, उस पर भी तुर्रा यह कि इस पञ्चक्खाण में जावजीव का पाठ बोलने पर भी हमेशा पचखाण करना यह पञ्चक्खाण क्या एक बच्चों का खेल है ? क्या दो करण तीन योग से जावजीव व्रत कोई भी श्रावक इस समय पाल सकता है जो दो घड़ी की सामायिकमें भी दोकरण तीन योग स्थिर नहीं रहता है तो जावजीव दोकरण तीनयोग कैसे पले ? यदि नहीं पले तो हमेशा यह बात कहना पागल की पुकार और गेहली का गीत ही हुआ। आगे सातवां व्रत में २६ बोलों के नाम लेकर जिन्दगी भर में २६ द्रव्य रखते हो ? क्या कोई श्रावक ने आजपर्यन्त यह विचार किया है कि हमने २६ द्रव्यों का नियम जावजीव तक किया है तो आज तक कितने द्रव्य लगे यदि नहीं तो यह कल्पित एवं पोप क्रिया के सिवाय और क्या है ? मित्रो! वास्तव में आपका प्रतिक्रमण आवश्यक सूत्रअनुसार नहीं पर आनन्द श्रावक ने महावीरप्रभु के पास व्रतोच्चारण किया और उन्होंने अपनी जिन्दगी में जो व्रत लिया एवं जा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org