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________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २७६ बादिसूरि, वृद्धबादीसूरि, देवऋद्धिखमासणा, जिनभद्रगणि, हरिभद्रसूरी, उद्योतनसूरि, नेमिचन्दसरि, अभयदेवसूरि, आर्यरक्षितसूरि, स्कंदलाचार्य, पादलीप्तसूरि, यक्षदेवसूरि, कक्कसरि, देवगुप्तसूरि, सिद्धसूरि, सर्वदेवसरि, यशोदेवसूरि, यशोभद्रसूरि, विजयहीरसूरि, आदि सैकड़ों आचार्यों ने हजारों लाखों प्रन्थों की रचना की, एवं शासन सेवा कर शासन को स्थिर रखा और हजारों लाखों मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा के धर्म का गौरव बढ़ाया। इन आचार्यों के उपासक बड़े २ राजा महाराजा श्रेष्ठवर्य्य एवं साहुकार हुए कि जिन्होंने तन मन और धन से शासन की प्रभा. वना की इत्यादि । जब वि० सं० १५३० में भस्मगृह उत्तरा तो उसी समय श्रीसंघ की राशी पर धूमकेतु नामक विग्रह उत्पादक गृह आ बैठा जिसके प्रभाव से ही लौंकाशाह जैसा निन्हव पैदा हुआ और उसने जैन-धर्म के अन्दर कुसम्प और अशान्ति पैदा कर सर्वनाश करने का दुःसाहस किया पर शासन के स्थंभाचार्यों के सामने उनका कुछ भी नहीं चला । जहाँ जैन साधुओं का विहार कम था, वहाँ के अज्ञ लोगों को अपने जाल में फंसा के सद्धर्म से पतित बनाने के सिवाय लौंका और उनके अनुयायिओं ने कुछ भी नहीं किया और इष्ट-भ्रष्ट आदमी कुछ कर भी तो नहीं सकते हैं। प्र०-प्रतिक्रमण के छः श्रावश्यक सबके एक होने पर भी आपका प्रतिक्रमण बड़ा और हमारा प्रतिक्रमण इतना छोटा क्यों है ? ... उ०-आपका प्रतिक्रमण शास्त्रानुसार नहीं पर मन-कल्पित है। प्र०-ऐसे तो हम भी कह सकते हैं कि आपका प्रतिक्रमण मनकल्पित है, पर क्या आप कुछ प्रमाण से साबित कर सकते हो ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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