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मु० पू० वि० प्रश्नोत्तर द्रव्य शुभ क्षेत्र में अवश्य लगता है, जिससे शुभ कर्मों का संचय होता है । ओर सुख पूर्वक धर्म साधन भी कर सकता हैं।
(५) मन्दिर जाकर पूजा करने वालों का चित्त निर्मल और शरीर अरोग्य रहता है, इससे उसके तप, तेज और प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है। - (६ ) मन्दिर की भावना होगी तो वे नये २ तीर्थों के दर्शन और यात्रा भी करने अवश्य जायंगे। जिस दिन तीर्थयात्रा निमित्त घर से रवाने होते हैं उस दिन से घर का प्रपश्च छूट जाता है । और ब्रह्मचर्य व्रत पालन के साथ ही साथ, यथाशक्ति तपश्चर्या या दान आदि भी करते है, साथ ही परम निवृत्ति प्राप्त कर ज्ञान-ध्यान भी किया करेगा ।
(७) आज मुट्ठी भर जैन समाज की भारत या भारत के बाहिर जो कुछ प्रतिष्ठा शेष है वह इसके विशालकाय, समृद्धिसम्पन्न मंदिर एवं पूर्वाचार्य प्रणीत प्रन्थों से ही है।
(८) हमारे पूर्वजों का इतिहास, और गौरव इन मन्दिरों से ही हमें मालूम होता है।
(९) यदि किसी प्रान्त में कोई उपदेशक नहीं पहुँच सके वहाँ भी केवल मंदिरों के रहने से धर्म अविशेष रह सकता है, नितान्त नष्ट नहीं होता है।
(१०) आत्म कल्याणमें मंदिर मूर्ति मुख्य साधन है। यथारूची सेवा पूजा करना जैनों का कर्तव्य है चाहे द्रव्य पूजा करे एवं भाव पूजा पर पूज्य पुरुषों को पूजा अवश्य करे। ... (११) जहां तक जैन समाज, मन्दिर-मूत्तियों का भाव भक्ति से उपासक था वहाँ तक, आपस में प्रेम, स्नेह, ऐक्यता,
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