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भी ज्या का त्या यहा नाभानरश को आज्ञा स अक्षरश: 'नकल देकर इस विषय को सर्वाङ्ग परिपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया गया है। इससे भी वास्तविक सत्यता पर अच्छा प्रकाश पड़ेगा इसमें कोई सन्देह नहीं है। - अन्त में मुझे यह कह देना समुचित होगा कि मुनिवर्य ने इस अनुपम प्रन्थराज का निर्माण कर जैन समाज उसमें भी स्थानकमार्गी समाज पर महान् उपकार किया है । इस प्रन्य को आद्योपांत पढ़ कर पाठक महाशय अवश्य लाभ उठावें ।
पुस्तक के पढ़ने से यह भी ज्ञात होता है कि प्रूफ संशोधन में कहीं कहीं अशुद्धियां रह गई हैं उन्हें दूसरी आवृत्ति में सुधारले का यथासाध्य प्रयत्न किया जाय। इत्यलम्
वि० सं० १९९३ कार्तिक शुक्ला "
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-दर्शनविजय
अजमेर
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