SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण तीसरा ५२ " कर जिणमतीए कह जी, मेयं कइ धम्मत्ति कटुगेरहंति " लौंका० वि० सं० टब्बा कई जिनवर नी भक्ति ने ली कई पोता ना जीत आचार ने लीधे अने कई धर्म जाणि ने जिन दाडो कावे छे। स्था. अमोल हिन्दी अनु. कितनेक देव तीर्थकरों की भक्ति के वस से कितनेक अपना जीताचार समझ के और कितनेक धर्म जानकर ( दडों ) ग्रहन किया ! 'जम्बु ० प० पृष्ठ 'जम्बुद्धि० प० पृष्ठ १०० हमारे ऋषिजी जैसे जिनप्रतिमा को कामदेव की प्रतिमा कहने वाले इन तीर्थंकरों की दाडों को भी कहीं कामदेव की दाडों कहने का दुःसाहस नहीं कर डालेंगे ? पर आश्चर्य तो इस बात का है कि इस सत्यता के युग में भी इस समाज में कितनी अन्ध परम्परा चल रही है कि ऋषिजी अपने हाथों से लिखते हैं कि देवता तीर्थकरों की दाड़ों भक्ति आचार और धर्म समझ कर प्रहण करते हैं फिर अपना ही लिखा - मानने में कैसा हटवाद करते हैं । समझदारों को सोचना चाहिये कि तीर्थंकरों के शरीर के अंगोपांग को अस्थि प्रति उन देवताओं की इतनी भक्ति और पूज्य भाव है वे कामदेव जैसे भव वृद्धक को देव समझ शिर झुकावे एव नमोत्थूणं कहकर वन्दन करेंगे ? नहीं! कदापि नहीं !! हरगिज नहीं !!! वे तीर्थंकरों के परम भक्त, तीन ज्ञान संयुक्त, सम्यग्दृष्टि महाविवेकी इन्द्रादि तीर्थंकरों को अपने उपासनीय देव समझ उनकी मूर्ति या दाड़ो को ही वन्दन पूजन करते हैं । देवताओं Jain Education International • For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy