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म० पू० वि० प्रश्नीत्तर है नहीं तो आडम्बर, श्रारम्भ, और धामधूम से आप भी बिल्कुल बेदाग नहीं बच सके हो किन्तु उससे सराबोर ही हो । देखिये जिस स्वामिवात्सल्य और प्रभावना की आपके समाज में एक दिन तीब्र निन्दा की जाती थी; उनको आज प्रोत्साहित करते हो;
और जिन मन्दिर मतियों के बनाने में पाप समझते होआज श्राप भी वे आलीशान स्थानक, और पौषधशाला बनाने में, साधुओं के फोटू उतारने में पुस्तक छपवाने में श्रारंभ के होते हुए भी पुण्य एवं सत्कार्य समझने लगे हो। और पूर्वोक्त कार्यों में द्रव्य देने वालों को लंबे चौड़े विशेषणों से भाग्यशाली और पुण्योपार्जन करने वाले कहते हो जिन्हें कि ( सुकृत कार्य में द्रव्य व्यय करने वालों को) तुम स्वयं पाप कार्य कहते थे, जैसे कि आज तेरह पन्थी बता रहे हैं परन्तु सज्जनों इस आडम्बर से तेरहपन्थी भी नहीं बच सके हैं, इनके पूज्यजी के चातुर्मास में कितना प्रारंभ होता है यह सब जानते हैं । माघ शुक्ल ७ को जहां कहीं पूज्यजी होते हैं वहाँ हजारों आदमी आते हैं । प्रारंभ करते हैं हजारों रुपये रेलवे किराया के देते हैं । उन पैसों से पञ्चेन्द्रिय जीवों तक की हिंसा होती है । क्या स्वामी भीषमजी ने किसी भक्त को नियम दिलाया था कि, साल में एक बार पूज्यजी का दर्शन अवश्य करना ? जो तेरहपन्थी श्राज कर रहे हैं । अभी संवाद मिला है कि गंगापुर में तेरहपन्थी पूज्य कालूरामजी का देहान्त हुआ उस समय हजारों रुपये खर्च किए इतना ही क्यों पर उस पूज्यजी के मृत शरीर (यानी मिट्टी) की सोना चांदी के फूलों से पूजा की
और उनके दाह स्थान पर चौतरा बनाया क्या यह मूर्तिपूजा का रूपान्तर नहीं है । ? तेरहपन्थी लोग अपने स्वधर्मी भाइयों को
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