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जैनागमों की प्रमाणिकता
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मण्डन नामक ग्रन्थ के मात्र पृष्ठ नम्बर लिख देता हूँ कि एक प्रन्थ लिखने में इतने स्थान पर नियुक्ति टीका चूर्णि भाष्यादि के प्रमाण दिये हैं जैसे पृष्टसंख्या। ५, ५, ६, ६, ८, २८, ४२, ४६, ४८, ५०, ५५, ६४, ६५, ६६, ६८, ७३, ९२, ९३, १०४, १०७, १०९, ११७, १२२, १२५, १४९, १५२, २३२, २३५, २३९, २४३, २४४, २४५, २५१, २५३, २५५, २६८, २७५, २७६, ३२४, ३४३ ३५२, ३६२, ३६३, ३६९, ३८४, ४११, ४१२, ४१३, ४२०. ४३२, ४३६, ४५१, ४५४, ४५५, ४८७, ४८७, ४८८, ४९०, ४९३, ४९४, ४९५, ४९६, ४९७, ४९८, ४९९, ५०४, ५६०, ___इनके अलावा 'सद्धर्ममण्डन' ग्रन्थ के पृष्ठ ३६८ पर तो श्रीमान् पूज्यजी ने तेरहपन्थियों को बड़े ही जोर से दबाया है जैसे आप फरमाते हैं कि
"इस चूणि की आधी बात को मानना और श्राधी बात को नहीं मानना यह दुराग्रह के सिवाय और कुछ नहीं है।" ___यदि हमारे तेरह पन्थी भाई यही सवाल पूज्य जवाहरलालजी महाराज से कर लेते तो हमारे पज्यजी इसका उत्तर यह तो शायद ही दें कि हम चूर्णि की बातों को सर्वाश से मानते हैं ? फिर तो पूज्यजी के लिए भी वही दुराग्रह का सवाल आकर खडा हो जायगा। ___'सद्धर्म मन्डन ग्रन्थ' में श्रीमान् पूज्यजी ने तेरहपन्थियों से बहुत से सवाल ऐसे भी किये हैं कि वे आपके लिए भी इतने ही बाधित होते हैं उन प्रश्नों के लिए स्थानकवासी या तेरहपन्थियों को बिना मूर्तिपूजक आचार्यों का शरण लिये छुटकारा हो नहीं
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