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प्रकरण चतुर्थ
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कार में भी ऋषिजी ने बड़ा भारी अन्याय किया है उस पर भी जरा दृष्टि डालकर देखिये
जिस समय पार्श्वनाथ भगवान् के ५०० मुनि लुंगिया नगरी के उद्यान में पधारे उस समय का जिक्र है कि उन श्रावकों ने इस बात को श्रवण की ।
“अण्णमण्णस्स अंतिए एयमठ्ठे पडिसुरांति पडिणित्ता जेणेव साईं गेहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छता राहया कयबालिकम्मा कय कोउय मंगल पापच्छिता सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिया अप्पमहग्धाभरणालंकिया सरीरा "
लौकागच्छीय वि० सं० शो टब्बा | स्था० साधु० मो० हि० अनु० एक एक ने पासे एहवो अर्थ सांभली अन्योन्य आपस में यह अर्थ सुन अंगीकार करी जिहां आपणा घर कर अपने गृह तहां आकर स्नान के तिहां आवे तिहां आवी मे स्नान किया पीठी लगाई कोगले किये किधु आपणा धरना देवताने किधा तिलक किया शुद्ध प्रवेश करने योग्य वलिकर्म जेणे किधा छे कौतुक शृंगार मंगलीक वस्त्र पहन कर अल्पमूल्य माहे मंगलिक अक्षत द्रोग्यादि वंत आभरण पहिनकर शरीर तिलक चाँदला, जेणे किधा छे । शुद्ध अलंकृत किया + मंगल प्रधान वस्त्र पहिरे अल्पखोज भने बहुमूल्य वस्त्र भूषण पहरी शरीर अलंकृत किघो छे ।
+ देवपूजा को विलकुल उड़ा दिया यह तो आपकी योग्यता है ।
श्री भगवती सूत्र पृष्ट १८७ श्री भगवती सूत्र पृष्ट ३४२ ऋषिजी का अनुवाद आप की योग्यता का ठीक परिचय करा रहा हैं आप ने मूल सूत्र में जिसकी गन्ध तक नहीं होने
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