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________________ ऐतिहासिक प्रमाण। ३९० . (१४) तीर्थ श्री कापरडाजी का भीमकाय मन्दिर के रंग मण्डप में एक आचार्य को पाषणमय व्याख्यान देते हुए की मूर्ति है उसके भी हाथ में मुँहपती है। यह प्राकृति सत्रहवीं शताब्दी की बतलाई जाति है वहाँ तक मुँहपत्ती हाथ में ही रखी जाती थी। . (१५) इस तरह विक्रम पूर्व चौथी शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक के सैंकड़ों प्रमाण आज विद्यमान हैं और मुंहपत्ती सभी के हाथों में ही है । क्या हमारे स्थानकमार्गी भाई एक भी ऐसा प्रमाण पेश करसकते हैं कि जो ऐतिहासिक होने के साथ २ स्था० मार्गियों की मान्यता मानने वाले भाइयों को अपनी मान्यता पर विश्वास रखाने को समर्थ हो सके ? यदि नहीं तो फिर नाहक की “मैं मैं तूं हूं" में अमूल्य समय और अलभ्य मनुष्य जन्म को न गँवा सीधे जैनधर्म की ही शरण आना चाहिए जिससे वे अपना तथा पर का कल्याण साधने में सशक्त हों। (१६) स्थानकमागियों के अन्दर ऐसे बहुत से मुमुक्षु हुए हैं कि जिन्होंने, शास्त्र, इतिहास और अनुभव से सत्य का संशो. धन कर मुँहपत्तो का डोरा त्याग कर शाखाऽनुसार मुँहपत्ती हाथ में रखने का मार्ग स्वीकार किया है, वे भी साधारण श्रेणी के नहीं किन्तु पूज्य बूंटेरायजी महाराज, पूज्य मूलचन्दजी महाराज पूज्य वृद्धिचन्दजी महाराज, पू० आत्माराम जी महाराज, धर्मसिंहजी म०, सोहन वि० म०, अजीतसागरजी महा०, रत्नचन्द्रजी महा० सरीखे सैंकड़ों मुनिवर हुए हैं, जिनका अमर नाम और यश आज भी जैन साहित्याऽऽकाश में ही सुरक्षित और चमत्कृत नहीं वरन् गर्जना कर रहा है। इन सबके चित्र आगे लौकाशाह के जीवन में दिये जायेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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