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________________ प्रकरण चतुर्थ ७२ इआवई एकेक पूजा जिम पुष्पादि । वान् की भाव पूजा करने कोपूजयइ तिम पूजानेजइ निमितई आवई श्री उववाई सूत्र पृष्ठ १६५ श्रीउबवाई सूत्रपृष्ठ ८७ ____ श्रीमान् ऋषिजी को पूछा जाय कि 'वंदनवत्तियं' पाठका अर्थ तो आपने वन्दना स्तुति कर दिया जिसको श्राप भाव पूजा मानते हो ! फिर 'पूयणवतिया' का क्या अर्थ होता है ? यदि आप भाव पूजा ही कहोगे तो आपके अनुवाद में पुनरुक्ति दोष आवेगा क्योंकि वन्दन का अर्थ आपने भाव पूजा किया है इस लिये, 'पूर्वणवतियं,' का अर्थ भाव पूजा हो नहीं सकता है। यदि आपके पूर्वन अमृतचन्द्रसूरि ने 'पूयणवतियं' का अर्थ पुष्पादि से पूजा किया है इसको आप मान भी लो तो क्या हर्ज है कारण भगवान के समवसरण में गाडोंबद्ध पुष्प तो आप मानते ही हैं जो कि पाप समवायांग सूत्र में अतिशयों के अधिकार में लिखा भी है और श्री राजप्रश्नी सुत्र में पुष्पों से प्रथित मालाओं तथा खुले पुरुषों से परमेश्वर की पूजाकरना आपने स्वीकार करके अपने हाथों से लिखा भी है तो फिर भगवान के भक्तजनों का थोड़े मे पुष्पों से भगवान की पूजा मानने में आपको किसी प्रकार की आपत्ति आती है ? कुछ भी नहीं। और 'पृयणवतिय' का अर्थ पुष्पादिसे द्रव्य पूजा के सिवाय दूसरा हो ही नहीं सकता है। बत्तीस सूत्रों के अनुवाद करते समय श्रीमान् ऋषिजी ने एक ही स्थान पर सूत्र के अर्थ को नहीं पलटाया है पर आपने तो ऐसे अनेक जगह पर अर्थ का अनर्थ कर डाला है । नमना के तौर पर कतिपय उदाहरण यहां बतला दिये जाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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