Book Title: Aetihasik Jain Kavya Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Shankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सम्पादक अगर चन्द नाहटा भंवरलाल नाह 2010_05 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ * श्रीअभय जैन ग्रन्थमाला पुष्प ८ वांद ऐतिहासिक जैन-काव्य संग्रह सम्पादक अगरचन्द्र नाहटा भँवरलाल नाहटा प्रकाशव शङ्करदान शुभैराज,नाहटा नं०५-६ आरमेनियन स्ट्रीट, कलकत्ता। प्रथमावृत्ति १०००] वि० सं० १६६४ [ मूल्य १) 2010_05 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ncbse Acccccebook Accessc5c5cccsesses . मुद्रक : विश्वमित्र प्रेस १४।१ ए, शम्भू चटर्जी स्ट्रीट, कलकत्ता। कककककककककककर 2010_05 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 200 AWAR शंकरदानजी नाहटा (ग्रन्थ प्रकाशक) 2010_05 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण AANE परम सहृदय, उदार एवं धर्मनिष्ठ पूज्य ज्येष्ठ भ्राताजी श्रीमान् दानमलजी नाहटा स्वर्गस्थ आत्माको सादर समर्पित। -शङ्करदान नाहटा (ग्रन्थ प्रकाशक) 2010_05 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राककथन जैनोंका प्राचीन इतिहास अस्तव्यस्त बिखरा हुआ है । ताम्रपत्र और शिलालेखों के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत और लोकभाषा के काव्यों में भी प्रचुर इतिहाससामग्री उपलब्ध होती है, उन सबको संग्रहकर प्रकाशित करना नितान्त आवश्यक है । आर्य्य संस्कृति में गुरुका पद बहुत ऊंचा माना गया है उनकी भक्तिका महात्म्य अति विशाल है । धर्माचाय्यका इतिवृत्ति या जीवनचरित्र उनके भक्त शिष्यगुणानुवादरूप काव्यों में लिखा करते हैं, ऐसे काव्य जैनसाहित्य में हजारों की संख्या में हैं परन्तु खेद है कि शोधके अभावसे अधिकांश ( अमुद्रित काव्य ) प्राचीन ज्ञानभण्डारोंमें पड़े-पड़े नष्ट हो रहे हैं और अद्यावधि जैसा चाहिए वैसा इस दिशामें प्रयत्न हुआ ज्ञात नहीं होता । अद्यावधि प्रकाशित ऐ० काव्यसंग्रह ऐतिहासिक भाषा काव्योंके संग्रहरूपसे अद्यावधि प्रकाशित ग्रन्थ हमारे समक्ष केवल ७ ही हैं । जिनमें “ऐतिहासिक रास संग्रह " नामक ४ भाग और “ऐतिहासिक सझायमाला भा १” श्रीविजयधर्मसूरिजी और उनके शिष्य श्री विद्याविजयजी सम्पादित एवं श्री जिनविजयजी सम्पादित " जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय " और मोहनलाल दलीचंद देसाई B. A. L. L. B. संशोधित " जैन ऐतिहासिक रासमाला" नामसे प्रकाशित हुए हैं । 2010_05 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके अतिरिक्त कई ऐतिहासिक काव्य स्वतन्त्र-ग्रन्थ १ रूपमें २ मासिकपत्रोंमें और कतिपय ३रास-संग्रहोंमें भी प्रकाशित हुए हैं। ऐसे रास अभी तक बहुत अधिक प्रमाणमें अप्रकाशित हैं उन्हें शीघ्र प्रकाशित करना आवश्यक है जिससे ऐतिहासिक क्षेत्रमें नया प्रकाश पड़े। आचार्यों एवं विद्वानोंके अतिरिक्त कतिपय सुश्रावकोंके ऐ० काव्य भी उपरोक्त संग्रहोंमें प्रकाशित हुए हैं। तीर्थोके सम्बन्धमें भी ऐसे अनेकों काव्य उपलब्ध हैं जिनका संग्रह भी मुनिराज श्रीविद्याविजयजी सम्पादित "प्राचीन तीर्थमाला” और “पाटणचैत्य परिपाटी" आदि पुस्तकोंमें छपा है एवं "जैनयुग" के अंकोंमें भी कई स्थानोंको चैत्यपरिपाटियाँ और तीर्थमालाएं प्रकाशित हुई हैं। हमारे संग्रहमें भी ऐसे अप्रकाशित अनेकों ऐतिहासिक काव्य हैं जिन्हें यथावकाश प्रकाशित किया जायगा। आवश्यकीय स्पष्टीकरण प्रस्तुत सग्रहमें अधिकांश काव्य खरतरगच्छोय ही हैं, इससे कोई यह समझनेको भूल न कर बैठे कि सम्पादकोंको अन्यगच्छीय काव्य प्रकाशित करना इष्ट नहीं था। हमने तपागच्छीय खोजशोधप्रेमी विद्वान् मुनिवर्योको तपागच्छीय अप्रकाशित काव्य भेचनेको विज्ञप्ति भी की थी, पर खेद है कि किसीकी ओरसे कोई सामग्री नहीं मिली। तब यथोपलब्ध सामग्रीको ही प्रकाशित करना पड़ा। १ यशोविजयरास, कल्याणसागरसूरिरास, देवविलास । २ जैनयुगके अङ्कोंमें। ३ प्राचीन गूर्जरकाव्यसंग्रहमें, रास संग्रहमें । 2010_05 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III राजपूताना प्रान्त बीकानेरमें विशेषकर खरतरगच्छका ही प्रचार और प्रभाव रहा है। अतएव हमें अधिकांश काव्य इसी गच्छके प्राप्त हुए हैं। तपागच्छीय काव्य एकमात्र "श्रीविजय सिंह सूरि विजयप्रकाश रास” उपलब्ध हुआ था वह और तत्पश्चात् उपाध्यायजी श्रीसुखसागरजी महाराजने पालोतानेसे "शिवचूला गणिनी विज्ञप्तिगीत" भेजा था उन दोनोंको भी प्रस्तुत ग्रन्थमें प्रकाशित कर दिया है । हमारे संग्रहमें कतिपय पार्श्वचंदगच्छीय ऐ० काव्य हैं, जिन्हें प्रकाशनार्थ मुनिवर्य जगत्चंद्रजी कनकचंद्रजीने नकल करली है अतः हमने इस संग्रहमें देना अनावश्यक समझा। प्रस्तुत ग्रन्थमें अधिकांश खरतरगच्छीय भिन्न-भिन्न शाखाओंके काव्योंका संग्रह है, एकही ग्रन्थमें एक विपयकी प्रचुर सामग्री मिलनेसे इतिहास लेखकको सामग्री जुटानेमें समय और परिश्रमकी बड़ी भारी बचत होती है। इस विशेषताकी ओर लक्ष्य देकर हमने अद्यावधि उपलब्ध सारे खरतरगच्छीय ऐ० काव्य प्रस्तुत संग्रहमें प्रकाशित कर दिये हैं, जिससे प्रत्युत विषयमें यह ग्रन्थ पूर्ण सहायक हो गया है। मूल पुस्तक छप जानेके पश्चात् श्रीजिनकूशलसूरि कृत श्रीजिनचन्द्रसूरि चतुःसप्ततिका और श्रीसूरचन्द्रगणि कृत श्रीजिनसिंहसूरिरास उपलब्ध हुए हैं, ग्रन्थके बड़े हो जानेके कारण उनको मूल प्रकाशित न करके ऐतिहासिकसार यथास्थान दे दिया है। संग्रहकी दृष्टिसे और शुद्ध प्रतियें मिल जानेसे पाठान्तर भेद सहित कतिपय अन्यत्र प्रकाशित काव्य भी इस ग्रन्थमें प्रकाशित किये हैं।* * देखें प्रति-परिचय । 2010_05 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IV कई महत्वपूर्ण त्रुटक और अपूर्ण कृतिएं १ भी जो हमें उपलब्ध हुई प्रकाशित कर दी गई हैं, यदि किसी सज्जनको उनकी पूर्ण प्रतियां मिलें तो हमें अवश्य सूचित करें । ऐ० काव्योंकी प्रचुरता जैसलमेर भण्डारकी सूची २ से ज्ञात होता है कि वहां भी एक त्रु० प्रति ३ में श्रीजिनपतिसूरि, जिनबल्लभसूरि के अपभ्रंश गाहामें वर्णन, जिनप्रबोध मुनिवर्णन, जिनकुशलसूरि वर्णन ( प्रति नं० ५२२ में) शेष श्रीजिनपतिसूरि स्तूपकलश ( नं० ३५८ के अन्तमें) और श्रीजिनलब्धिसूरि गुरुगीत ( पत्र २ नं० १५८६ में ) विद्यमान हैं, परन्तु अद्यावधि हमें ये उपलब्ध नहीं हुए, सम्भव है कि कुछ कृतिए वेही हों जो इस ग्रन्थमें प्रकाशित हैं* । खरतरगच्छका काव्य - साहित्य बहुत विशाल है । अपनीअपनी शाखाका साहित्य उनके श्रीपूज्योंके पास है आद्यपक्षीय १ श्रीजिनराजसूरिगस आदिकी गा० ९ ( पृ० १५०), श्रीजिनदत्तसूरि छप्पय आदि अन्त विहीन ( पृ० ३७३), श्रीकीर्तिरत्नसूरिफान आदिकी गा० २७ ( पृ० ४०१ ), श्रीजिनचन्द्रसूरिंगीत अपूर्ण ( पृ० १०१ ), विद्यासिद्धिगीत आदि त्रुटक ( पृ० २१४ ) । २ जेसलमेर के यतिवर्य लक्ष्मीचंदजो प्रेषित । ३ खरतरगच्छके आचार्योंके ऐतिहासिक गुण वर्णनात्मक काव्योंकी अन्य एक महत्वपूर्ण प्रति अजीमगंजके भंडार में थी, पर खेद है कि बहुत खोजनेपर भी वह उपलब्ध नहीं हुई । * देखें – “जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास" पृ० ९३७ से ९४६ ॥ - 2010_05 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पाली), लघु आचार्य, भावहर्षी और लखनऊ वालोंके पास खरतरगच्छका बहुतसा ऐतिहासिक साहित्य प्राप्त होनेकी सम्भावना है। हमारे संग्रहमें इधरमें और भी कई ऐतिहासिक काव्य उपलब्ध हुए हैं जो यथावकाश प्रकट किये जायेंगे। प्रस्तुत ग्रन्थको उपयोगिता यह ग्रन्थ दृष्टिकोणद्वयसे विशेष उपयोगी है । एक तो ऐतिहासिक और दूसरा भाषासाहित्य । कतिपय साधारण काव्योंके अतिरिक्त प्रायः सभी काव्य ऐतिहासिक दृष्टिसे संग्रह किये हैं, गुण वर्णनात्मक अनेक गीत, गहूलिये, अष्टक प्रभृति हमारे संग्रहमें है, परन्तु उनमेंसे ऐतिहासिक काव्योंको ही चुन चुनकर प्रस्तुत संग्रहमें स्थान दिया गया है। अद्यावधि प्रकाशित संग्रहोंसे भाषा साहित्यकी दृष्टिसे यह संग्रह सर्वाधिक उपयोगी है; क्योंकि इसमें बारहवीं शताब्दीसे लेकर बीसवीं शताब्दी तक लगभग ८०० वर्षोंके, प्रत्येक शताब्दीके थोड़े बहुत काव्य अवश्य संग्रहीत हैं ।* जिनसे भाषाविज्ञानके अभ्यासियोंको शताब्दीवार भाषाओंके अतिरिक्त कई प्रान्तीय भाषाओंका भी अच्छा ज्ञान हो सकता है। कतिपय काव्य हिन्दी, कई राजस्थानी और कुछ गुजराती प्रभृति हैं। अपभ्रंश भाषाके लिये तो यह संग्रह विशेष महत्वका ही है, किन्तु नमूनेके तौरपर कुछ संस्कृत और प्राकृतके काव्य भी दे दिये गये हैं। काव्यकी दृष्टिसे जिनेश्वरसूरि, जिनोदयसूरि, जिनकुशलसूरि, जिनपतिसूरि, जिनराजसूरि, विजयसिंहसूरि आदिके रास, विवाहला * शताब्दीवार काव्योंका संक्षिप्त वर्गीकरण अन्य स्थानमें मुद्रित है। 2010_05 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VI बड़े सुन्दर और अलङ्कारिक भाषामें है। जिनको पढ़नेसे प्राचीन काव्योंके सजन, सौष्ठव, सुन्दर शब्द-विन्यास और फबती हुई उपमाओंके साथ साथ अनेक शब्दोंका अनुभव होता है। इस संग्रहमें प्रकाशित प्रायः सभी काव्य समसामयिक लिपिबद्ध प्रतियोंसे ही सम्पादित किये गये हैं। इसका विशेष स्पष्टीकरण प्रति-परिचयमें कर दिया गया है। शृङ्खलामें अव्यवस्थाका कारण ___ लगभग २॥ वर्ष पूर्व जब इस ग्रन्थको छपाना प्रारम्भ किया था तब जितने काव्य हमारे पास थे, सबको रचनाकालकी शृङ्खलानुसार ही प्रकाशित करना प्रारम्भ किया था, परन्तु उसके पश्चात् ज्योंज्यों नवीन सामग्री मिलती गई त्यों-त्यों इसमें शामिल करते गये । अतः जैसा चाहिये काव्योंका अनुक्रम ठीक न रह सका। फिर भी हमने पीछेसे ग्रन्थको चार विभागोंमें विभक्त कर चतुर्थ विभागमें अवशेष प्राचीन काव्योंको दे दिया है । रचना समयकी अपेक्षासे काव्य जिस शृङ्खलासे सम्पादन होने चाहिये उनकी स्वतन्त्र तालिका दे दी है, ताकि पाठकोंको शताब्दीवार भाषाओंका अभ्यास करनेमें सुगमता और अनुकूलता मिले। ऐतिहासिक सार-लेखन (शाखा वार ) क्रमिक पद्धतिसे ही हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थको सर्वाङ्ग सुन्दर और विशेष उपयोगी बनानेका भरसक प्रयत्न किया गया है। जो लोग प्राचीन राजस्थानी और अपभ्रंश भाषासे अनभिज्ञ हों उनके लिये “कठिन शब्दकोश" और शृङ्खलाबद्ध ऐतिहासिकसार दे दिया है। इसके अतिरिक्त स्थान 2010_05 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VII स्थानपर प्राचीन सुन्दर चित्र, विशेष नाम सूची, अनेक आवश्यक बातोंका स्पष्टीकरण (प्रति परिचय, कवि परिचय, चित्र परिचय आदि ) कर दिया गया है। अशुद्धियोंका आधिक्य ___ काव्योंको यथाशक्ति संशोधन पूर्वक प्रकाशित करनेपर भी इस ग्रन्थमें अशुद्धियोंका आधिक्य है। इसका प्रधान कारण अधिकांश काव्योंकी एक-एक प्रतिका ही उपलब्ध होना है। जिनकी एकसे अधिक प्रतियें प्राप्त हुई हैं वे पाठान्तर भेदोंके साथ-साथ प्रायः शुद्ध ही छपे हैं। खेद है कि कतिपय अशुद्धियां प्रेस दोष और दृष्टि दोषसे भी रह गयी हैं। शुद्धिपत्र पीछे दे दिया गया है, पाठकोंसे अनुरोध है कि उससे सुधारकर पढ़ें। अधिकांश शुद्धिपत्र जालौरसे पुरातत्त्व-वेत्ता मुनिराज श्री कल्याणविजयजीने बनाकर भेजा था । अतएव हम पूज्यश्रीके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं। रास-सार काव्योंका ऐतिहासिक सार अति संक्षिप्त और सारगर्भित लिखा गया है। पहले हमारा यह विचार था कि काव्योंके अतिरिक्त इतर सामग्रीका सम्पूर्ण उपयोग कर सार-परिचय विस्तृत लिखा जाय, परन्तु ग्रन्थ बहुत बड़ा हो जानेके कारण ऐसा न करके संक्षेपसे ही लिखना पड़ा। अयोग्यता यह ग्रन्थ किसी विद्वानके सम्पादकत्वमें प्रकट होता तो विशेष 2010_05 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIII सुन्दर होता, क्योंकि हमारेमें एतद् विषयक ज्ञान और अनुभवका अभाव है, परन्तु अनुभवी विद्वानका सहयोग प्राप्त न होनेपर हमने अपनी अत्यधिक साहित्यरुचि और अदम्य उत्साहसे प्रेरित हो यथासाध्य सम्पादन किया है। इस कार्यमें हमें कहां तक सफलता मिली है, यह निर्णय विद्वान पाठकों पर ही निर्भर है । हम विद्वान नहीं हैं, अभ्यासी हैं, अतः भूलोंका होना अनिवार्य है। अतएव अनुभवी विद्वानोंसे योग्य सूचना चाहते हुए क्षमा प्रार्थना करते हैं। प्रकाशनमें विलम्ब प्रस्तुत ग्रंथका "युगप्रधान जिनचंद्रसूरि" ग्रंथके साथ ही मुद्रण प्रारम्भ हुआ था परन्तु हमारे व्यापारिक कार्यो में व्यस्त रहने व अन्यान्य असुविधाओंके कारण प्रकाशनमें विलम्ब हुआ है। अपने व्यवसायिक कार्यों से समय कम मिलनेसे हम इसका सम्पादन मनोज्ञ और सुचारु नहीं कर सके। यदि इसकी द्वितीयावृत्तिका अबसर मिला तो ग्रंथकी सुसम्पादित व्यवस्थित आवृत्ति की जायगी। आभार प्रदर्शन इसकी प्रस्तावना श्रीयुक्त हीरालालजी जैन M.A. L. L.B. (प्रोफेसर एडवर्ड कालेज, अमरावती) महोदयने लिख भेजनेकी कृपा की है, अतएव हम आपके विशेष आभारी हैं। इस ग्रन्थके “कठिन शब्द कोष" का निर्माण करनेमें माननीय ठाकुर साहेब रामसिंहजो M. A. विशारद और स्वामी नरोत्तम दासजीM.A.विशारदसे पूर्ण सहायता मिली है। सोलहवीं शताब्दीके पहलेके काव्योंका अन्तिम प्रूफ संशोधन श्रीमान् पं० हरगोविन्द 2010_05 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IX दासजी सेठ "न्याय व्याकरणतीर्थ' ने कर देनेकी कृपा की है। श्रीयुक्त मिश्रीलालजी पालरेचा महोदयसे भी हमें संशोधनमें पूर्ण सहायता मिली है। श्रीयुक्त मोहनलाल दलोचन्द देसाई B.A.L.L.B. ( वकील हाईकोर्ट, बम्बई ) ने भी समय समयपर सत्परामर्श द्वारा सहायता पहुंचाई है। इसी प्रकार कतिपय काव्य उ० सुखसागरजी, मुनिवर्य रत्नमुनिजी, लब्धिमुनिजी एवं जैसलमेरवाले यतिवर्य लक्ष्मीचन्दजीने और कतिपय चित्र-ब्लाक विजयसिंहजी नाहर, साराभाइ नवाब, मुनि पुण्यविजयजी आदिकी कृपासे प्राप्त हुए हैं, एतदर्थ उन सभी, जिनके द्वारा यत्किञ्चित भी सहायता मिली हो, सहायक पूज्यों व मित्रों के चिर कृतज्ञ हैं। निवेदकअगरचन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा। 2010_05 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यरचनाकालका संक्षिप्त शताब्दी अनुक्रम * १२ वींका शेषाद्ध। कवि पाल्ह कृत खरतर पट्टावली ( पृष्ठ ३६५ से ३६८ ) । १३ वींका शेषार्द्ध । जिनवल्लभसूरिगुणवर्णन (पृष्ठ ३६६ से ३७२), जिनपतिसूरिधवल गीतादि (पृष्ठ ६ से १०)। १४ वींका पूर्वाद्ध । जिनेश्वरसूरिरास (पृष्ठ ३७७ से ३८३), गुरुगुणषट्पद (पृष्ठ १ से ३)। शेषाद्ध : जिनकुशलसूरिरास (पृष्ठ १५ से १८), जिनपद्मसूरिरास (पृष्ठ २० से २३), जिनप्रभसूरि-जिनदेवसूरिगीत (पृष्ठ ११ से १४)। २५ वींका पूर्वार्द्ध । जिनोदयसूरिगुणवर्णन (पृष्ठ ३६ से ४०), जिनोदयसूरि रासद्वय (पृ० ३८४ से ३८६), जिनप्रभसूरि गुर्वावली (पृ० ४१-४२)। शेषाद्ध : खरतरगुरुगुणछप्पय (पृ० २४ से ३८), खरतरगच्छगुर्वावली (पृ० ४३ से ४८), कोतिरत्नसूरि फाग (पृ० ४०१-२),भाव* कई कृतियोंका रचनाकाल अनुमानिक है। 2010_05 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XI प्रभसूरिगीत (पृ० ४६-५०), शिवचूला विज्ञप्ति (पृ० ३३६), बेगड़पट्टावली (पृ० ३१२)। १६ वींका पूर्वाद्ध । क्षेमराजगीत (पृ० १३४ )। १६ वीं का शेषाद्ध जिनदत्त स्तुति (पृ०४ ), जिनचंद्र अष्टक (पृ०५), कीर्तिरत्नसूरि चौ० (पृ०५१), जिनहंससूरि गीत (पृ०५३), क्षेमहंस कृत गुर्वावली (पृ० २१५ से २१७ ) १७ वीं का पूर्वाद्ध देवतिलकोपाध्याय चौ० (पृ० ५५), भावहर्ष गीत (पृ० १३५), पुण्यसागर गीत (पृ० ६७), पूज्यवाहण गीतादि (पृ० ८६, ६४. ११० से ११७), जयतपदवेलि आदि साधुकीर्ति गीत (पृ० ३७ से ४५), खरतर गुर्वावलि (पृ० २१८ से २७), कीर्तिरत्न सूरि गीत (पृ० ४०३ ), दयातिलक (पृ० ४१६), यशकुशल, करमसी गीतादि (पृ० १४६, २०४), आदि । शेषाद्धजिनचंद्रसूरि, जिनसिंह, जिनराज, जिनसागर सूरि गीत रासादि (पृ० ५८ से १३२, १५० से २३०, ३३४, ४१७ ), खरतर गुर्वावलि (पृ० २२८ ), पि० खर० पट्टावली (पृ० ३१६), गुणप्रभ सूरि प्रबन्ध (पृ० ४२३), विजयसिंह सूरि रास (पृ० ३४१), पद्महेम (पृ० ४२), समयसुन्द गीत (पृ० १४६), छप्पय (पृ० ३७३ आदि । 2010_05 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XII १८ वों का पूर्वाद्ध जिनरंग (पृ० २३१), जिनरत्नसूरि (२३४ से २४४, ४१८), जिनचंदसूरि गीत (पृ० २४५), जिनेश्वर सूरि (पृ० ३१४ ), कीर्तिरत्न सूरि छन्द (पृ० ४०७ ), जिनचंद्र (पृ० ४३०), जिनधर्म (पृ० ३३५), भावप्रमोद (पृ० २५८), सुखसागर (पृ० २५३ ), समयसुन्दर गीत (पृ० १४८ ) आदि । शेषाद्धजिनसुख-जिनहर्षसूरि (पृ० २६१ से २६३ ), शिवचंद्रसूरि रास (पृ० ३२१), जिनचंद्र (पृ० ३३७ ), कीर्तिरत्न सूरि (पृ० ४१३) आदि। १६ वीं का पूर्वाद्ध देवविलास (पृ० २६४ से २६२), जिनलाभ-जिनचंद्र (पृ०० २६३ से २६६ तथा ४१४ से ४१६) जयमाणिक्य छंद (पृ० . ३१०) आदि। शेषाद्ध जिनहर्ष, जिनसौभाग्य, जिनमहेन्द्रसूरि गीत (पृ० ३०० से ३०४ ), ज्ञानसार (पृ० ४३३ ) आदि । 2010_05 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन-काव्य संग्रह -कीप्रस्तावना - -** -- जैन-धर्म भारतवर्षका एक प्राचीनतम धर्म है । इस धर्मके अनुयायियोंने देशके ज्ञान-विज्ञान, समाज, कला-कौशल आदि वैशिष्ट्यके विकासमें बड़ा भाग लिया है। मनुष्यमात्र, नहीं-नहीं प्राणीमात्र में परमात्मत्वकी योग्यता रखनेवाला जीव विद्यमान है। और प्रत्येक प्राणी, गिरते-उठते उसी परमात्मत्वकी ओर अग्रसर हो रहा है । इस उदार सिद्धान्तपर इस धर्मका विश्वप्रेम और विश्वबन्धुत्व स्थिर है । भिन्न-भिन्न धर्मों के विरोधी मतों और सिद्धांतोंके बीच यह धर्म अपने स्याद्वाद नयके द्वारा सामजस्य उपस्थित कर देता है । यह भौतिक और आध्यात्मिक उन्नतिमें सब जीवोंके समान अधिकारका पक्षपाती है तथा सांसारिक लाभोंके लिये कलह और विद्वषको उसने पारलौकिक सुखकी श्रेष्ठता द्वारा मिटानेका प्रयत्न किया है। ___ जैन-धर्मकी यह विशेषता केवल सिद्धान्तोंमें ही सीमित नहीं रही। जैन आचार्यों ने उच्च-नीच, जाति-पांतका भेद न करके अपना उदार उपदेश सब मनुष्योंको सुनाया और 'अहिंसा परमो 2010_05 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XIV धर्म:' के मन्त्र द्वारा उन्हें इतर प्राणियोंकी भी रक्षाके लिये तत्पर बना दिया। स्याद्वाद नयकी उदारता द्वारा जैनियोंने सभीकी सहानुभूति प्राप्त कर ली । अनेक राजाओं और सम्राटोंने इस धर्मको स्वीकार किया और उसकी उदार नीतिको व्यवहारमें उतारकर चरितार्थ कर दिखाया । इन्हीं कारणोंसे अनेक संकट आनेपर भी यह धर्म आज भी प्रतिष्ठित है। किन्तु दुखकी बात है कि धार्मिक विचारोंमें उदारता और धर्म प्रचारमें तत्परताके लिये जैनी कभी इतने प्रसिद्ध थे, वे ही आज इन बातोंमें सबसे अधिक पिछड़े हुए हैं। विश्वभरमें बन्धुत्व और प्रेम स्थापित करनेका दावा रखनेवाले जैनी आज अपने ही समाजके भीतर प्रेम और मेल नहीं रख सकते । मनुष्यमात्रको अपनेमें मिलाकर मोक्षका मार्ग दिखानेवाले जैनी आज जात-पांतकी तंग कोठरियों में अलग-अलग बैठ गये हैं, एक दूसरेको अपनाना पाप समझते हैं । अन्य धर्मों के विरोधोंको भी दूर कर उनमें सामजस्य उपस्थित करनेवाले आज एक ही सिद्धान्तको मानते हुए भी छोटी-छोटी-सी बातोंमें परस्पर लड़-भिड़कर अपनी अपरिमित हानि करा रहे हैं। ऐसी परिस्थितिमें यह स्वाभाविक है कि जैन-धर्मकी कुछ अनुपम निधियां भी दृष्टिके ओझल हो जावें और उनपर किसीका ध्यान न जावे । जैनियोंका प्राचीन साहित्य बहुत विशाल, अनेकांगपूर्ण ओर उत्तम है । दर्शन और सदाचारके अतिरिक्त, इतिहासकी दृष्टिसे भी जैन-साहित्य कम महत्वका नहीं है। भारतके न जाने 2010_05 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XV कितने अन्धकारपूर्ण ऐतिहासिक कालोंपर जैन-कथा साहित्य, पट्टावलियों आदि द्वारा प्रकाश पड़ता है। लोक-प्रचारकी दृष्टिसे जैन-साहित्य कभी किसी एक ही भाषामें सीमित नहीं रहा । भिन्न-भिन्न समयकी, भिन्न-भिन्न प्रान्तकी भिन्न-भिन्न भाषाओंमें यह साहित्य खूब प्रचुर प्रमाणमें मिलता है। अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि प्राकृत भाषाओंका जैसा सजीव और विशाल रूप जैन-साहित्यमें मिलता है वैसा अन्यत्र नहीं। किन्तु आज स्वयं जैनी भी इस बातको अच्छी तरह नहीं जानते कि उनका साहित्य कितना महत्वपूर्ण है । उसका पठन-पाठन व परिशीलन उतना नहीं हो रहा है , जितना होना चाहिये। इस अज्ञान और उपेक्षाके फलस्वरूप उसका अधिकांश भाग अभीतक प्रकाशमें ही नहीं आया। ___ वर्तमान संग्रह जैन-गीति काव्यका है। इसमें सैकड़ों गीतस्ग्रह हैं, जो किसी समय कहीं-कहीं अवश्य लोकप्रिय रहे हैं और शायद घर-घरमें या तीर्थ-यात्राओंके समय गाये जाते रहे हैं। विशेषता यह है कि इन गीतोंका विषय-शृङ्गार नहीं, भक्ति है; प्रियप्रेयसी-चिन्तन नहीं, महापुरुष-कीर्ति-स्मरण है और इसलिये पापबन्धका कारण नहीं, पुण्य-निबन्ध हेतु है। ये गीत भिन्न-भिन्न सरस मनोहर राग-रागणियोंके रसास्वादके साथ-साथ परमार्थ और सदाचारमें मनकी गतिको ले जानेवाले हैं। इस संग्रहको सम्पादकोंने 'ऐतिहासिक जैन-काव्य संग्रह' नाम दिया है, जो सर्वथा सार्थक है, क्योंकि इन गीतोंमें जिन सत्पुरुषोंका स्मरण किया गया 2010_05 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XVI है, वे सब ऐतिहासिक हैं। जो घटनायें वर्णन की गयी हैं, वे सत्य हैं और हमारी ऐतिहासिक दृष्टिके भीतरकी हैं। जैन गुरुओं और मुनियोंने समय-समयपर जो धर्म प्रभावना की, राजाओं-महाराजाओं और सम्राटोंपर अपने धर्मकी उत्तमताकी धाक बैठायी और समाजके लिये अनेक धार्मिक अधिकार प्राप्त किये उनके उल्लेख इन गीतोंमें पद-पदपर मिलते हैं। विशेष ध्यान देने योग्य वे उल्लेख हैं. जिनमें मुसलमानी बादशाहोंपर प्रभाव पड़नेकी बात कही गयी है । उदाहरणार्थ जिनप्रभसूरिके विषयमें कहा गया है कि उन्होंने अश्वपति (असपति) कुतुबुद्दीनके चित्तको प्रसन्न किया था। कुतुबुद्दीनने उनसे जन-शासनके विषयमें अनेक प्रश्न किये थे और फिर सन्तुष्ट होकर सुल्तानने गांव और हाथियोंकी भेंट देकर उनका सम्मान करना चाहा था, पर सूरिजीने इन्हें स्वीकार नहीं किया । (पृष्ट १२, पद्य ४, ५)। ___ इन्हीं सूरीश्वरने संवत् १३८५ (ईस्वी सन् १३२८ ) की पौष सुदी ८ शनिवारको दिल्लीमें अश्वपति मुहम्मद शाहसे भेंट की थी। सुल्तानने इन्हें अपने समीप आसन दिया और नमस्कार किया। इन्होंने अपने व्याख्यान द्वारा सुल्तानका मन मोह लिया। सुल्तानने भी ग्राम, हाथी, घोड़े व धन तथा यथेच्छ वस्तु देकर सूरीश्वरका सम्मान करना चाहा, पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया। सुल्तानने उनको बड़ी भक्ति की, फरमान निकाला और जलूस निकाला तथा 'वसति' निर्माण कराई। (पृ० १३, पद्य २-६) ऐसे ही उल्लेख पृ० १४ पद्य २, व पृ० १६ पद्य ६, ७ में भी हैं। 2010_05 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XVII उपर्युक्त दोनों बादशाह खिजली वंशका कुतुबुद्दोन मुबारिकशाह और तुगलक वंशका मुहम्मद तुगलक होना चाहिये । जो क्रमशः सन् १३१६ और १३२५ ईस्वीमें गद्दीपर बैठे थे। इसी समयके बीच खिलजी वंशका पतन और तुगलक वंशका उत्थान हुआ था। सूरीश्वरके प्रभावसे दोनों राजवंशोंमें जैन-धर्मकी प्रभावना रही। ___ एक दूसरे गीतमें उल्लेख है कि जिनदत्तसूरिने बादशाह सिकन्दरशाहको अपनी करामात दिखाई और ५०० बन्दियोंको मुक्त कराया (पृ० ५४, पद्य ११ आदि)। ये सम्भवतः बहलोल लोधीके उत्तराधिकारी पुत्र सिकन्दरशाह लोधी थे, जो सन् १४८६ ईस्वीमें दिल्लीके तख्तपर बैठे और जिन्होंने पहले-पहल आगराको राजधानी बनाया। श्री जिनचंद्रसूरिके दर्शनकी सुप्रसिद्ध मुगल-सम्राट अकबरको बड़ी अभिलाषा हुई। उन्होंने सूरीश्वरको गुजरातसे बड़े आग्रह और सन्मानसे बुलवाया। सूरिजीने आकर उन्हें उपदेश दिया और सम्राट्ने उनकी बड़ी आव-भगत की। (पृ०५८) यह रास संवत् १६२८ में अहमदाबादमें लिखा गया। बादशाह सलेमशाह 'दरसणिया' दीवानपर बहुत कुपित हो गये थे, तब फिर इन्हीं सूरीश्वरने गुजरातसे आकर बादशाहका क्रोध शान्त कराया और धर्मकी महिमा बढ़ाई। (पृ० ८१-८२) ये सूरीश्वर मुलतान भी गये और वहांके खान मलिकने उनका बड़ा सत्कार किया (पृ०६६, पद्य ४) 2010_05 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XVIII इस प्रकारके अनेक उल्लेख इन गीतोंमें पाये जाते हैं, जी इतिहासके लिये बहुत ही उपयोगी हैं। ____ पर इससे भी अधिक महत्व इस संग्रहका भाषाकी दृष्टिसे है । इन कविताओंसे हिन्दीकी उत्पत्ति और क्रमविकासके इतिहासमें बहुत बड़ी सहायता मिल सकती है। इसमें बारहवीं-तेरहवीं शताब्दिसे लगाकर उन्नीसवीं सदीतक अर्थात् सात-आठ सौ वर्ष की रचनायें हैं, जो भिन्न-भिन्न समयके व्याकरणके रूपोंपर प्रकाश डालती हैं। प्राचीन हिन्दी साहित्य अभीतक बहुत कम प्रकाशित हुआ है । हिन्दीकी उत्पत्ति अपभ्रंश भाषासे मानी जाती है। इस अपभ्रंश भाषाका अबसे बीस वर्ष पूर्व कोई साहित्य ही उपलब्ध नहीं था । जब सन् १९१४ में जर्मनीके सुप्रसिद्ध विद्वान् डा० हर्मन याकोबी इस देशमें आये, तब उन्होंने इस भाषाके ग्रंथ प्राप्त करनेका बहुत प्रयत्न किया। सुदैवसे उन्हें एक पूर्ण स्वतन्त्र ग्रन्थ मिल गया। वह था 'भविसत्तकहा' (भविष्यदत्त कथा ), जिसको उन्होंने बड़े परिश्रमसे सम्पादित करके १९१६ में जर्मनीमें ही छपाया। उसके पठन-पाठनसे हिन्दी और गुजराती आदि प्रचलित भाषाओं के पूर्व इतिहासपर बहुत कुछ प्रकाश पड़ा । यही एक स्वतंत्र और पूर्ण ग्रन्थ इस भाषाके प्रचारमें आ सका था । सन् १९२४ में मुझे मध्यप्रान्तीय संस्कृत प्राकृत और हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची तैयार करनेके सम्बन्धमें बरार प्रांतान्तर्गत कारंजाके दिगम्बर जैनशास्त्र भण्डारोंको देखनेका अवसर मिला। यहां मुझे अपभ्रंश भाषा के लगभग एक दर्जन ग्रंथ बड़े और छोटे देखने 2010_05 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XIX को मिले, जिनका सविस्तर वर्णन अवतरणों सहित मैंने उस सूची में दिया जो Catalogue of Sanskrit and Prakrit MSS. in C. P. & Berar के नाम से सन् १६२६ में मध्य प्रान्तीय सरकार द्वारा प्रकाशित हुई । उस परिचय से विद्वत् संसार की दृष्टि इस साहित्य की ओर विशेष रूपसे आकर्षित हुई। इससे प्रोत्साहित होकर मैंने इस साहित्यको प्रकाशित करने तथा और साहित्यकी खोज लगानेका खूब प्रयत्न किया । हर्षका विषय है कि उस प्रयत्न के फलस्वरूप कारंजा जैन सीरीज द्वारा इस साहित्यके अब तक पांच ग्रंथ दशवीं ग्यारहवीं शताब्दिके बने हुए उत्तम रीति से प्रकाशित हो चुके हैं। तथा जयपुर, दिल्ली, आगरा, जसवंतनगर आदि स्थानोंके शास्त्रभण्डारोंसे इसी अपभ्रंश भाषाके कोई ४०-५० अन्य ग्रंथोंका पता चल गया है । यह साहित्य उसकी धार्मिक व ऐतिहासिक सामग्रीके अतिरिक्त भाषाकी दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । यह भाषा प्रचीन मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी आदि प्राकृतों तथा आधुनिक हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगाली आदि प्रांतीय भाषाओं के बीच की कड़ी है। यह साहित्य जैनियोंके शास्त्रभण्डारोंमें बहुत संगृहीत है । यथार्थ में यह जैनियोंकी एक अनुपम निधि है, क्योंकि जैन साहित्यके अतिरिक्त अन्यत्र इस भाषाके ग्रंथ बहुत ही कम पाये जाते हैं । भाषा विज्ञानके अध्येताओंको इन ग्रन्थोंका अवलोकन अनिवार्य है । पर जैनियोंका इस ओर अभी तक भी दुर्लक्ष्य है । यह साहित्य गुजरात, राज 2010_05 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xx पूताना और मालवामें विशेष रूपसे पाया जाता है। इसमें हिन्दी और गुजराती दोनों भाषाओंका पूर्वरूप गुंथा हुआ है। इस भाषाके अध्ययनसे पता चल जाता है कि ये दोनों भाषायें तो मूलतः एक ही हैं। प्रस्तुत संग्रहमें अपभ्रंशका और भी विकसित रूप पाया जाता है और उसका सिलसिला प्रायः वर्तमान कालकी भाषासे आ जुड़ता है। ये उदाहरण डिंगल भाषाके विकास पर बहुत प्रकाश डालते हैं। भाषाकी दृष्टिसे इन अवतरणोंका संशोधन और भी अधिक सावधानीसे हो सकता तो अच्छा था। किन्तु अधिकांश संग्रह शायद एक-एक ही मूल प्रति परसे किये गये हैं। अब इस ग्रंथकी ऐतिहासिक व भाषा सम्बन्धी सामग्रीका विशेष रूपसे अध्ययन किये जानेकी आवश्यकता है । आशा है नाहटाजीका यह संग्रह एक नये पथ-प्रदर्शकका काम देगा। ऐसे ऐसे अनेक संग्रह अब प्रकाशमें आवेंगे और उनके द्वारा देशके इतिहास और भाषा विकासका मुख उज्ज्वल होगा। यह प्रयत्न अत्यन्त स्तुत्य है । किंग एडवर्ड कालेज, हीरालाल जैन अमरावती। एम० ए०, एल० एल० बी०, २१-४-३७ प्रोफेसर आफ संस्कृत। 2010_05 | Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति परिचय प्रस्तुत ग्रन्थमें प्रकाशित काव्योंकी मूल प्रतियां कबकी लिखी हुई और कहांपर हैं ? इसका उल्लेख कई कृतियोंके अन्तमें यथा स्थान मुद्रित हो चुका है। अवशेष काव्योंके प्रतियोंका परिचय इस प्रकार है :(अ) १ गुरुगुण षट्पद, २ जिनपति सूरि धवलगीत, ३ जिनपति सूरि स्तूप कलश, ४ जिनकुशलसूरि पट्टाभिषेकरास, ५ जिनपद्मसूरिपट्टाभिषेकरास, ६ खरतर गुरुगुण वर्णन छप्पय, ७ जिनेश्वरसूरि विवाहलो, ८ जिनोदयसूरि विवाहलो, ह जिनोदयसूरि पट्टाभिषेक रास, १० जिनोदयसूरि गुण वर्णन छप्पय, ये कृतियां हमारे संग्रहकी सं० १४६३ लि० शिवकुञ्जरके स्वाध्याय पुस्तक* (पत्र ५२१ ) की प्रतिसे नकल की गयी है। (आ) १ जिनपति सूरिणाम् गीतम् , २ भावप्रभसूरि गीत, ये दो कृतियें हमारे संग्रहकी १६ वीं शताब्दीके पूर्वार्द्धकी लिखित प्रतिसे नकल की गयी हैं। (इ) जिनप्रभसूरि गीत नं० १, २, ३, जिनदेवसूरि गीत और * ॥९०॥ संवत् १४९३ वर्षे वैशाख मासे प्रथम पक्षे ८ दिने सोमे श्री बृहत् खरतर गच्छे श्रीजिनभद्रसूरि गुरौ विजयमाने श्रीकीतिरत्नसूरीणां शिष्येण शिवकुंजर मुनिना निज पुण्यार्थ स्वाध्याय पुस्तिका लिखिता चिरंनन्दतात् ॥ श्री योगिनीपुरे ॥ श्री ॥ ___ 2010_05 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXII जिनप्रभसूरि परम्परा गुर्वावलीकी मूल प्रति बीकानेर वृहत् ज्ञानभण्डारमें (१५ वीं शताब्दीके पूर्वार्धकी लि०) है। (ई) खरतर-गुरु-गुण-वर्णन-छप्पयकी द्वितीय प्रति, १७ वीं शताब्दी लि० हमारे संग्रहमें है। (उ) पृ० ४३ में मुद्रित खरतरगच्छ पट्टावलोकी मूल प्रति तत्कालीन लि०, पत्र १ हमारे संग्रहमें है। यह पत्र कहीं कहीं उदेइ भक्षित है, अतः कहीं कहीं पाठ त्रुटक था, उसे जिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञानभण्डारस्थ गुटकाकार प्रतिसे पूर्ण किया गया है । हमारे संग्रहका पत्र, सुन्दर और शुद्ध लिखा हुआ है। (ऊ) देवतिलकोपाध्याय चौ०,क्षेमराजगीत; राजसोम, अमृत धर्म क्षमाकल्याण अष्टक-स्तव, जिनरंगसूरि युगप्रधान पद प्राप्ति गीतकी प्रतियें तत्कालीन लि० बीकानेर बृहत् ज्ञानभण्डारमें विद्यमान है। (ए) अकबर प्रतिबोध रासकी प्रति जयचन्द्रजीके भण्डारमें सुरक्षित है। (ऐ) कीर्तिरत्नसूरि गीत नं०२ से है, कृपाचन्द्रसूरि ज्ञान भण्डा रस्थ गुटकाकार प्रतिसे नकल किये गये हैं। (ओ) अन्य प्रेषित प्रतियोंकी नकलें :(a) गुणप्रभसूरि प्रबन्ध, जिनचन्द्रसूरि, जिनसमुद्रसूरि गीत (४२३ से ४३२), जैसलमेरके भण्डारसे नकल कर यतिवर्य लक्ष्मीचन्द्रजोने भेजी है। (b) जिनहंससूरिगीत, समयसुन्दर कृत ३६ रागिणी गर्भित 2010_05 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXIII जिनचन्द्रसूरिगीत, जिनमहेन्द्रसरि और गणिनी शिवचूला विज्ञप्तिगीतकी नकल पालीताणेसे उ० सुखसागर जीने भेजी थी। जिनवल्लभसूरि गुणवर्णनकी नकल रत्नमुनिजी, शिवचन्द्र सूरिरासकी प्रति लब्धि मुनिजी ( यह प्रति अभी हमारे संग्रहमें है ), रत्ननिधान कृत जिनचन्द्रसूरि गीतकी नकल (पृ० १०२), सूरत भण्डारसे पं० केशर मुनिजीने भेजी है। (d) जिनहर्ष गीतद्वय, पाटणसे साहित्य प्रेमी मुनि यश विजयजीसे प्राप्त हुए हैं। (औ) नीचे लिखी हुई कृतियोंके सम्पादनमें भुद्रित ग्रन्थोंकी सहा यता ली गयी है। (a) देवविलास तो अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मण्डलकी ओर से प्रकाशित ग्रन्थसे ही सम्पादन किया गया है। (b) पल्ह कृत जिनदत्तसूरि स्तुति, अपभ्रंश काव्यत्रयी और गणधर सार्द्धशतक भाषान्तर ग्रन्थ द्वयसे पाठा न्तर नौंधकर प्रकाशित की गई है। .. (c) बेगड़ गुर्वावली आदि (पृ० ३१२ से ३१८) की जैन श्वेताम्बर काँन्फरेन्स हेरल्डसे नकल की गई है। (d) पिप्पलक खरतर पट्टावली, जै० गु० क० भा० २ और देवकुल पाटक दोनों ग्रन्थोंसे मिलान कर प्रकाशित की गई है। 2010_05 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXIV ( अं) "श्रीजिनोदयसूरि वीवाहलउ" की ४ प्रतियां प्राप्त हुई हैं। जिनके समस्त पाठान्तर नीचे लिखे संकेतोंसे लिखे गये हैं। (a) प्रति—जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्य सञ्चय (पृ० २३३) (b) प्रति प्राचीन प्रति (सं० १४६३ लि० शिवकुञ्जर स्वाध्याय पुस्तकात् ) हमारे संग्रहमें । (c) प्रति-बीकानेर स्टेट लाइब्रेरी नं० ४६८७ पत्र ३, प्राचीन प्रति (d) प्रति-ऐतिहासिक रास संग्रह भा० ३ + (पृ० ७६) (e) प्रति—के अन्तमें निम्नोक्त श्लोक लिखा है : वर्षे वाण मुनि त्रिचन्द्र गणिते, येषां प्रभूणां जनिः, पक्षाष्टे प्रमिते व्रतं गुरुपद पंचैक वेदैकके स्वर्ग श्री चरणं१ च नेत्र शिवहक् संख्ये बभूवाद्भुतं । ते श्री सूरि जिनोदयाः सुगुरवः कुर्वतु मे मङ्गलम् ॥१॥ श्रीजिनोदयसूरि पट्टाभिषेक रासकी २ प्रतियां(a) प्रति-उपरोक्त (सं० १४६३ लि०) (b) प्रति-जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्य सञ्चय (पृ०२२८) श्रीजिनेश्वरसूरि वीवाहलउ की ३ प्रतें(a) प्रति–उपरोक्त ( सं० १४६३ लि०) (b) प्रति-प्राचीन प्रति (हमारे संग्रहमें ) (c) प्रति—जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्य सञ्चय (पृ० २२४) (अः) इनके अतिरिक्त और सभी काव्योंकी प्रतियां जिनके अन्तमें अन्य स्थानका उल्लेख नहीं है, वे सब प्रतियां हमारे संग्रहमें ( तत्कालीन लिखित ) हैं। 2010_05 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र परिचय .१ -- ग्रन्थ प्रकाशक श्री शंकरदानजी पितामह हैं । नाहटा - सम्पादक के २– खरतरपट्टावलीः- इसी संग्रह में पृ० ३६५ से ६८ में सं० १९७०७१ के लि० प्रतिसे मुद्रित की गई है। इसमें सं० १९७१ लि० प्रतिके फोटु बड़ौदेसे उ० सुखसागरजीने भिजवाये थे उसमें खरतर विरुद प्राप्ति सम्बन्धी उल्लेखवाले पत्रका ब्लोक बनवाकर प्रस्तुत संग्रहमें दिया गया है । खरतर विरुद प्राप्ति के प्रश्नपर यह पट्टावली बहुत महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है । ३ -४ - जिन वल्लभसूरी और जिनदत्तसूरीजी के प्रस्तुत चित्र, जैसलमेर भंडारके प्राचीन ताड़पत्रीय प्रतिके काष्टफलक पर चित्रित थे, उसके ब्लाक बनवाकर ( अपभ्रंश काव्यत्रयी में मुद्रित ) दिये गये हैं। ५ - जिनेश्वरसूरिजीका चित्र खंभातके शांतिनाथ भंडारकी ताड़पत्रीय पर्युसणाकल्प (पत्र ८७) की प्रति, जोकि लिपि आदिके देखनेसे १३ वीं शताब्दी लि० प्रतीत होती है, के आधारसे जैन चित्र कल्पद्रुम (चित्र नं० १०४ ) में मुद्रित हुआ है। श्री सारा भाई नवाबके सौजन्यसे हमें इसको प्रकाशित करने का सुअवसर मिला एतदर्थ उनके आभारी हैं । उक्त ग्रंथमें इस चित्रका परिचय पृ० १४३ में इस प्रकार दिया है -- — 2010_05 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXVI "प्रस्तुत चित्रसे बीजा जिनेश्वरसूरिके जेओ श्री जिनपति सूरिना शिष्य हता, तेओनो होय एम लागे छ । श्रीजिनेश्वरसूरि सिंहासन उपर बेठेलाछे तेओना जमणा हाथ मां मुहपति छे अने डाबो हाथ अभय मुद्राए छ । जमणी बाजुनो तेओश्रीनो खभो खुलो छ। ऊपरना छतनां भागमां चंदरवो बांधेलो छे सिंहासन नी पाछल एक शिष्य उभो छे अने तेओनी सन्मुख एक शिष्य वाचना लेतो बेठो छ । चित्रनी जमणीबाजूए एक भक्त श्रावक बे हाथनी अंजलि जोड़ीने गुरुमहाराजनो उपदेश सांभलतो होय एम लागे छ। ६-योगविधि पत्र १३ की प्रति (सं० १५११ लि०)के अन्तिम पत्रसे ब्लाक बनाया गया है । प्रशस्ति इस प्रकार है:- वत् १५११ वर्ष अषाढ़ वदी १४ चतुर्दश्यां बुधे श्री खरतर गच्छेश श्री श्री जिनभद्र सूरिभिलिखितमिदं ॥१॥ वा० साधुतिलक गणिभ्यो वाचनाय प्रसादी कृतेयं प्रति । - जिनचन्द्रसूरि मूर्तिः-बीकानेरके ऋषभ जिनालयमें युगप्रधान आचार्यश्रीकी सं० १६८६ जिनराजसूरि प्रतिष्ठित मूर्ति है उसीका यह ब्लोक हैं, लेख नकल देखें-युग प्रधान जिन चन्द्रसूरि पृ० १५७।५८ । ८-जिनचंदसूरि हस्तलिपि :-स्व० बाबू पूरणचन्द्रजी नाहरके संग्रह (गुलाब कुमारी लाइब्ररी) को नः ११८ कर्मस्तववृत्तिकी प्रतिसे ब्लाक बनवाया गया है, पुस्तिका लेख इस प्रकार है: संवत् १६११ वर्षे श्री जेसलमेरू महादुर्गे । राउल श्री 2010_05 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXVII मालदेवे विजयिनि । श्री वृहत् खरतरगच्छे। श्रीजिनमाक्यिसूरि पुरंदराणां विनेय सुमतिधीरेण* लेखि स्ववाचनाय ॥श्रावण सुदि त्रयोदश्यां । शनिवारे ॥श्रीस्तात्।। ।।कल्याणंबोभोतु ॥ छ० ॥ 8-जिनराज सूरि-जिनरंग सूरिः-यतिवर्य श्री सूर्यमलजीके संग्रह (कलकत्ते)में शालिभद्र चौपई पत्र २४ की सचित्र प्रतिके अन्तिम पत्र में यह चित्र है । लिपिलेखककी प्रशस्ति इस प्रकार है सं० १८५२ मि० फाल्गुण कृष्ण १२ रविवारे श्री वृहत्खरतर गच्छे उपाध्यायजी श्री विद्याधीरजी गणि शिष्य मुख्य वा० मति कुमार ग० । शिष्य लि । पं० किस्तूरचन्द मु । प्रति यद्यपि समकालीन नहीं है तोभो इसकी मूल आधार भूत प्रतिका समकालीन होना विशेष संभव है। १०--जिनहर्ष हस्तलिपिः-पाटण भंडारमें कविवरके रचित एवं स्वयं लि० स्तबनादिकी पत्र ८० की प्रतिके फोटु मुनिवयं पुण्य विजयजीने भेजे थे उसीसे ब्लाक बनवाकर मुद्रित की गई है। मुनिश्रीने हमें उक्त प्रतिकी नकल करा भेजनेकीभी कृपा की है। ११--ज्ञानसार हस्तलिपिः-हमारे संग्रहके एक पत्रका ब्लोक बनवाकर दिया गया है। खरतर गच्छके आचार्यों एवं विद्वानोंके और भी बहुत चित्र उपलब्ध हैं, जिन्हें हो सका तो खरतरगच्छ इतिहासमें प्रकट करनेकी इच्छा है। * आचार्य पद प्राप्तिके पूर्व मुनि अवस्थाका नाम । देखे यु० जिनचंद्रसूरि पृ० २३ । 2010_05 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह रास सार सूची। नाम खरतरगच्छ गुर्वावलिये बर्द्धमान सूरि जिनेश्वर सूरि अभयदेव सूरि जिनबल्लभ सूरि जिनदत्त सूरि जिनचन्द्र सूरि जिनपति सूरि जिनेश्वर सूरि जिनप्रबोध सूरि जिनचन्द्र सूरि जिनकुशल सूरि जिनपदम सूरि जिनचन्द्र सूरि जिनोदय सूरि पृष्ठ नाम १ जिनराज सूरि ३ जिनभद्र सूरि ३ जिनचन्द्र सूरि ४ जिनसमुद्र सूरि ४ गुरुगुणषटपद जिनहंस सूरि ८ जिनमाणिक्य सूरि ९ यु० जिनचन्द्र सूरि १० जिनसिंह सूरि ११ जिनराज सूरि ११ जिनरत्न सूरि १२ जिनचन्द्र सूरि १४ जिनसुखसूरि १५ जिनभक्ति सूरि १५ जिनलाभ सूरि 2010_05 | Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पृष्ठ नाम जिनचन्द्र सूरि ३३ चन्द्रकोटि जिनहर्ष सूरि ३४ कविवर जिनहर्ष जिनसौभाग्य सूरि ३४ कवि अमरविजय मंडलाचार्य व मुनिमण्डल सुगुरु वंशावली भाषप्रभ सूरि श्रीमद् देवचन्द्रजी कोतिरख सूरि महो० राजसोमा उ० जयसागर वा अमृतधर्म क्षेमराजोपाध्याय उ० क्षमाकल्याण देवविलकोपाध्याय जयमाणिक्य दयातिलक श्रीमद् ज्ञानसारजी महो० पुण्यसागर खरतरगच्छ आर्यामण्डल उ० साधुकीति लावन्यसिद्धि महो० समयसुन्दर सोमसिद्धि यशकुशल ४७ विमलसिद्धि करमसी ४७ गुरुणीगीत सुखनिधान ४८. जिनप्रभ सूरि परम्परा वा० पद्महेम ४८ जिनप्रभ सूरि लब्धिकल्लोल ४९ जिनदेवसूरि विमलकीर्ति ४९ बेगड़ खरतर शाखा बा० सुखसागर ५० जिनेश्वर सूरि बा० हीरकीर्ति ५० गुणप्रभसूरि उ० भावप्रमोद . ५१ जिनचन्द्र सरि 2010_05 | Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III नाम पृष्ठ नाम जिनसमुद्र सूरि जिनचन्द्र सूरि पिप्पलक शाखा जिनचन्द्र सूरि जिनशिवचन्द्र सूरि रंगविजय शाखा आद्यपक्षीय शाखा जिनरंग सरि जिनहर्ष सूरि मंडोवरा शाखा भावहर्षीय शाखा जिनमहेन्द्र सूरि भावहर्ष ८२ तपागच्छीय काव्यसार जिनसागर सूरि शाखा शिवचूला गणिनी जिनसागर सूरि ८३ विजयसिंह सूरि जिनधर्म सूरि ९० संक्षिप्त कविपरिचय 2010_05 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र सूची। * पृष्ठ शंकरदानजी नाहटा खरतरगच्छ पट्टावलि जिनबल्लभ सरि जिनदत्त सरि जिनेश्वर सूरि जिनभद्र सूरि-हस्तलिपि १ जिनचन्द्र सूरि ३ जिनचन्द्र सूरि-हस्तलिपि २१ ४ । जिनराज सूरि ५। जिनहर्ष-हस्तलिपि १० उ० क्षमाकल्याण १८ ज्ञानसार-हस्तलिपि 2010_05 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र - सूची में परिवर्तन चित्रोंको प्रथम रास - सारमें देनेका विचार था, पर फिर मूलमें देना उचित समझ वैसा किया गया है, तथा चित्रोंकी संख्या पूर्व १२ थी पर फिर कई अन्य आवश्यक चित्र प्राप्त हो जानेसे ६ और बढ़ा दिये गये हैं । कुल १८ चित्रोंकी सूची इस प्रकार है : १. शङ्करदानजी नाइटा-समर्पण पत्रके सामने खरतरगच्छ पट्टावली- -रास सारके प्रारम्भमें ३. श्री जिनदत्तसूरि २. ४. जिनभद्रसूरि हस्तलिपि ५. जिनचन्द्रसूरि और सम्राट अकबर ६. जिनचन्द्र सूरिजीको हस्तलिपि ७. जिनचन्द्रसूरि मूर्ति ८. जिनराजसूरि-जिन रंगसूरि ९. जिनसखसूरि १०. जिनभक्तिसूरि ११. कविवर जिन हर्ष - हस्तलिपि १२. जिनलाभसूरि १३. जिनहर्षसरि १४. क्षमा कल्याण १५. जिनवल्लभसूरि १६. जिनेवरसूरि १७. ज्ञानसारजी हस्तलिपि १८. ज्ञानसारजी और ато जयक मूल पृ० १ ३६ ५८ 2010_05 ५९ ७९ १५० २४९ २५२ २६१ २९३ ३०० ३०८ ३६९ ३७७ ४३२ ४३३ छ चित्रोंके बढ़ जानेसे मूल्य में भी १1) के स्थान में १॥ करना पड़ा पुस्तकके अन्तमें भी दो नीचे लिखी बातें और जोड़ दी गइ है:१. सम्पादकोंकी साहित्य प्रगति पृष्ट ४९९ अभयजैन ग्रन्थमालाकी प्रकाशित पुस्तकें ५०३ २. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल काव्य-अनुक्रमणिका । गाथा कर्ता १ श्री गुरुगुणषटपद २ श्री जिणदत्त सूरि स्तुति ३ श्री जिनचन्द्र सूरि अष्टकम् ९ पुण्यसागर ४ श्री जिनपति सूरि धवल गीतम् २० शाह रयण श्रीमजिनपति सुरीणां गोतम् २० कवि भत्तउ श्री जिनपति सूरि स्तूपकलशः ४ ४ श्री जिनप्रभ सूरि (परम्परा) गीतम् श्री जिनप्रभ सूरि गीतम् श्री जिनप्रभ सूरीणां गीतम् १० श्री जिनदेव सूरिंगीतम् ८ जेनकुशल सरि पट्टाभिरेकरास ३८ धर्मकलश अनपदुम सूरि पट्टाभिषेकरास २९ सारमूर्ति तरगुरु गुणवर्णन छप्पय ३२-१६ अभयतिक यती 'जनोदय सूरि गुणवर्णन ६ पहराज जिनप्रभ सूरि परम्परा गुर्वा- . वली, छप्पय १४-१ ow N WWW 2010_05 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ श्री युगप्रधान निर्वाण रास २४ युगप्रधान आलजागीतम् २५ श्री जिनचन्द सूरि गीतानि १६ खरतरगच्छ पट्टावली १७ श्री भावप्रभ सूरि गीतम् १८ श्री कोर्त्तिरल सूरि चौपइ १९ जिनहंससूरि गुरुगीतम् २० श्री देवतिलकोपाध्याय चौपइ २१ महो० श्री पुण्यसागर गुरुगीतम् ६ २२ श्री जिनचन्द सरि अकबर प्रति बोध रास १३६ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ "" "" "" " "3 35 " 23 "" " 27 "" 33 19 गाथा ३० २ m 30 VI नं ०१ ११ w ७ १५ १८ "" ( पंचनदी साधन ) ३३ श्री जिनचन्द सूरि गीत नं० ९ १८ १५ ६९ १० ઢ ५ ५ ११ 30 ४ m ८ १५ 4 कर्त्ता सोमकुंजर x पृष्ठ ४३. ४९ कल्याणचन्द्र ५१ भक्तिलाभ ५३ पद्ममंदिर ५५ हर्ष कुल ५७ लब्धिकलोल रचना सं० १६५८ जे० ब० १३ अह मदावाद समय प्रमोद समयसन्दर कनकसोम सं० १६२८ लि० स्वयं ८९ ९० ९१ ९२ ९.३ ९४ समय प्रमोद सं० १६४९ चैत्र ९ ९४ ९७ ९६ श्री सुन्दर साधुकीर्त्ति गुणविनय श्री सुन्दर समतिकोल पदमराज साधुकीर्त्ति ५८ ७९ ૮૭ 2010_05 ९७ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ ४४ ३४. श्रीजिनचन्द्रसूरि गीत नं० १० ३.५. ११ દ १२ ४ ३७ १३ ८ ३८ १४ १३॥ ३९ जिनचन्द सूरि गोतानि नं० १५ ४० 99 ,, १६ ( ६ राग ३६ रागिणी गीतम् ) ४१ श्रीजिनचन्दसूरिगीतानि नं० १७ ४२ 39 " १८ ,, १९ २० (आलजा),, २१ " ४६ श्रीपूज्य वाहण गीतम् नं० २२ ४७ श्री जिनचन्द सूरि गीत नं० ४५ 59 ५३ ५४ "" "" " "" 39 99 99 39 "" " 39 "" "" " "" 31 79 "" 23 23 93 99 नं० २४ ४९ विधि स्थानक चौपई नं० २५ ५० श्री जिनचन्दसूरि गीतम नं० २६ नं० २७ ५१ नं० २८ ५२ नं० २९ नं० ३० 99 "" 99 33 "" "" " 23 99 "" 39 95 39 VII गाथा ९ २३ कर्त्ता लब्धिशेखर गुणविनय mr "" कल्याणकमल अपूर्ण १७ रत्ननिधान १५ समय सुन्दर ३. 25 ," " 39 99 १० ६७ कुशललाभ ४ जयसोम ९ १७ ३ लब्धि मुनि ४ "" 39 स्वयं लि० ३ २ लब्धि कल्लोल ३ रaafनधान "" 2010_05 पृष्ठ ९८ ९८ ९९ १०० १०१ १०२ १०४ १०७ १०७ १०७ १०८ १०८ ११० ११८ ११८ ११९ १२१ १२१ १२२ १२२ १२३ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ श्री जिनचन्द सूरि सुयश गीतनं० ३१ ५६ श्री जिन सिंह सरि गीतम् नं० १ ५७ नं० २ ५८ नं० ३ ५९ ४ ६० जिनसिंह सूरि गीतम् ६१ बधावा ક્ गीतम् ६३ चौमासा ६४ गीतम् ६५ ६६ ६७ 33 ६८ श्रीक्षेमराज उपाध्याय गीतम् ७३ ७४ "" 22 "" 33 99 "" "" .. .99 "" "" "" "" "" "" 79 "" हिंडोलणा नं० 93 " ६९ श्रीभावहर्ष ७० सुखनिधान गुरु गीतम् ७१ श्री साधुकीर्त्तिजयपताकागी ० नं०१ ७२ ९ ,,गुरुवाणी महिमा १० ० ,, गच्छनायकगीत ११ निर्वाणगीतम् १२ 93 97 गहूंली कवित्त 37 VIII 59 "" ६ 39 33 ८ ७५ जइत पद वेलि ७६ श्री साधुकीर्त्ति स्वर्गगमन गीत ,,,, ३ ४ २ कर्त्ता ४ हर्षनन्दन ३ गुणविनय ५ समयसन्दर गाथा 39 34 ९ समय सन्दर ६ १५ 12 91 95 ५ राज समुद्र ५ हर्षनन्दन १२ " ४ कनक " २ गुणसेन ८ जल्ह ७ खइपति ४ देवकमल १ ४९ कनकसोम १० जयनिधान 2010_05 पृष्ठ १२३ १२५ १२५ १२७ १२७ १२८ 19 १२९ १३० १३१ १३१ १३२ १३२ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३९ १३९ १४० १४५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IX १४७ १४८ - १७४ १७५ ~ गाथा कर्ता ७७ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायगीतम् १ ७ हर्ष नन्दन - , , , २ ७ देवीदास ९ , , , ३ १२ राजसोम ८० श्री यशकुशल गीतम् ५ मुखरतन श्री जिनराज सूरि रास २५४ श्रोसार __, ,, गीतम् (१) ८ गुण बिनय ८३ " ,, ,, सवैया (२) ४ ८४ , , , गीतम् (३) ९ सहजकीर्ति ८५ . , , , (४) ९ ॥ ८६ " " , " ७ आनन्द ८७ , , , ,, (६) ६ सुमति विजय ८८ श्रोजिनसागर सूरि रास १०२ धर्मकीर्ति , सधैया ,, ,, निर्वाणरास ८ सुमति वल्लभ ढाल गाथा ,, अष्टकम् (१) ८ समयसन्दर , अवदात ५ हर्षनन्दन गीत (२) ९३ , , गीत (३) ५ , ९४ , , गीत (४) ५ , १५ , , गीत (६) ६ , ९६ श्री करमसी संथारा गीतम ६ सोम मुनि (?) १७७ १७८ - २०१ ० ० ० ० 2010_05 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २०६ ० . गाथा कर्ता १२ ललित कीति २ कुशलधोर ८ विमलरत्न ६ आनन्द विजय १८ हेमसिद्धि १८ , ७ विद्यासिद्धी १६ खेमहंस २१ चारित्र सिंह ४ नयरग ८ समयसुन्दर ३१ गुणविनय ७ राजहंस ५ ज्ञानकुशल २१४ २१५ २१८ २२६ ९७ लब्धिकल्लोल सुगुरु गीतम् ९८ सुगुरु वंशावली ९९ श्रीविमल कीर्ति गुरु गीतम् (१) १०० . , , , (२) १०१ लावण्यसिद्धि पहुत्तणो गीतम् १०२ सोमसिद्धि साध्वीनिर्वाण गीतम् १०३ गुरुणी गोतम् १०४ श्री गुर्वावलो फाग १०५ , २) १०६ , १०७ खरतर गुरु पट्टावली १०८ खरतर गच्छ गुर्वावली (६) १०९ श्रीजिनरंग सूरि गीतम् (१) ११० , , (२) १११ , , युगप्रधान ___ गीतम् (३) ११२ श्री जिनरतन सूरि निर्वाणरास ११३ श्रीजिनरतनसूरि गोतानि (१) ११४ , , (२) ११५ , , , (३) ११६ , , , (४) ११० ,, ,, निर्वाण (६) २२७ २२८ m M. . १२ कमल रत २५ कमल हर्ष ७ रूपहर्ष ७ क्षेमहर्ष ९ , ७ कनक सिंह ९ विमलरत्न २४१ २४२ २४३ २४४ 2010_05 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रीजिनचन्द्र सूरि गीतानि (१) ११९ (२) १२० १२१ १२२ १२३ वाचक अमर विजय कवित्त १२४ श्रीजिनसुख सूरि गीतम् (१) १२५ (2) 99 निर्वाण (३) 95 १३७ १३८ "" "" "" " 95 "" १, $9 67 "" (३) (४) ,, पंचनदीसा० (५) 55 १२६ 29 १२७ श्रीजिनभक्ति सूरि गीतम् १२८ वाचनाचार्य उगसागर गीतम् १२९ वा० हीरकीर्त्ति परम्परा १३० १३१ उ० भावप्रमोद १३२ जैनयति गुण वर्णन १३३ कविवर जिनहर्ष गीतम् १३४ देवविलास १३५ श्रीजिनला भसूरि गीतानि (१) १३६ (२) (३) निर्वाण (४) "" 29 "" 99 39 15 99 स्वर्गगमन गीतम् " " XI 93 गाथा ७ १ १ ६ ९ २ १७ १२ १ २३ ११ ८ १० ८ कर्त्ता विद्याविलास हर्षचन्द्र करमसो कल्याणहर्ष सुमतिविमल धरमसी वेलजी धरमसी समयहर्ष राजलाभ खेती कवियण 57 मुनिमाणक देवचन्द वसतो क्षमा कल्याण 2010_05 पृष्ठ २४५ २४५ २४६ २४७ ૨૪૮ ૨૦૮ २४९ २५० २५१ २६२ २५३ २५५ २५६ २५८ २६० २६१ २६४ २९३ २९४ २९५ २९६ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ जिनलाभरि पट्ट े जिनचन्द्र सूरि गीत (१) (२) १४० १४१ जिनहर्ष सूरि गोतम् १४२ श्रीजिन सौभाग्य सूरि भास १४३ श्रीजिनमहेन्द्र सूरि भास (१) (2) "" 39 "" XII رو 19 १४४ " -१४५ महोपाध्याय राजसोमाष्टकम् १४६ वाचनाचार्य अमृतधर्माष्टकम् ८ १४७ उपाध्याय क्षमाकल्याणाष्टक ९ १४८ निर्वाणस्तवः १४९ जयमाणिक्यजीरोछन्द -१५० जैन न्यायग्रन्थ पठन सम्बन्धी सवैया "" गाथा १६ ११ १७ १३ ११ १ कर्त्ता चारित्रनन्दन १८५० वै० ६०८ कनकधर्म महिमा हंस राजकरण राज क्षमा कल्याण 99 सेवग सरूपचन्द 2010_05 पृष्ठ २९७ २९८ ३०० ३०१ ३०२ ३०३ ३०५ ३०७ ३०८ ३०९ ३१० ३११ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पृष्ठ ७ XIII ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (द्वितीय विभाग) गाथा कर्ता पृष्ठ १५१ बेगड़ खरतरगच्छ गुर्वावली ३१२ १५२ श्री जिनेश्वर सूरि गीतम् ३१४ १५३ श्री जिनचन्द्र सूरि गीतम् ७ श्री जिन समुद्र सरि ३१६ १५४ श्री जिनसमुद्र सूरि गीतम् माइदास ३१७ १५५ पिप्पलक खरतर पट्टावली १९ राजसुन्दर १५६ श्री जिन शिवचन्द्र सूरि रास शाहलाधा (१७९५) ३२१ १५७ आद्यपक्षीय जिनचन्द्र पट्टे जिन हर्ष सूरि गीत ५ कीरतिवर्द्धन १५८ श्री जिनसागर सूरि गीतम् ८ जयकीरति १५९ श्री जिनधर्म सूरि गीतम् (१) ९ ज्ञानहर्ष ३३६ १६० , , (२) ७ , ३३६ १६१ , पट्टे जिनचन्द्र सूरिगीतम् . पुण्य ३३७ १६२ जिनयुक्ति सूरि पट्टे ,, ,, ३३० आलम ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (तृतीय विभाग) १६३ शिवचूलागणिनी विज्ञप्ति २० राजलच्छि १६४ विजयसिंह सूरि विजय २१३ गुणविजय ३४१ प्रकाश रास ३३९ - - - 2010_05 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XIV . ३८४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (चतुर्थ विभाग) गाथा कर्ता पृष्ठ १६५ श्री जिनदत्त सूरि स्तुतिः १० कविपल्ह (११७०लि.) ताडपत्रीय ३६५ १६६ श्री जिनबल्लभ सूरि गुणवर्णन ३५ नेमिचन्द्र भांडारी । ३६९ १६७ श्री जिनदत्त सूरि अवदात छप्पय (अपूर्ण) २१-३४ ज्ञानहर्ष ३७३ १६८ श्री जिनेश्वर सूरि संयम श्री विधाह वर्णन रास ३३ सोममूर्ति ३७७ १६९ श्री जिनोदय सूरि पट्टाभिषेक रास ३७ ज्ञानकलस १७० , विवाहलउ ४४ मेरुनन्दन १७१ श्रीजयसागरोपाध्याय प्रशस्ति ४ १७२ श्री कीर्तिरत्नसूरि फागु (त्रुटक २८१३६ , गीतम् (२) १४ साधुकीर्ति ४०३ ,, , (३) ९ ललितकीर्ति १७५ , , (४) १२ चन्द्रकीर्ति उत्पत्तिछंद (१) सुमतिरंग १७७ , , (६) ७ जयकीर्ति ४११ १७८ , , (७) १२ , ४११ १५ अभयविलास १८० , , (९) १ १८१ श्रीजिनलाभसूरि विहारानुक्रम ३४ ० ० ० ४०४ ४०५ ४०७ ४१२ ४१३ ४१४ 2010_05 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XV गाथा कर्त्ता ९ हर्षबल्लभ ११ जिनचन्द सूरि ४१७ ४१८ ४१९ ४२० १८२ श्रीजिनराज सूरि गीतम् १८३ जिनरतन सूरि गीतम् १८४ दयातिलक गुरु गीतम् १८५ बा० पद्महेम गीतम् १८६ चन्द्रकीर्ति कवित्त १८७ घिमलसिद्धि गुरुणी गीतम् १८८ श्री गुणप्रभ सूरि प्रबन्ध । १८९ जिनचन्द सूरि गीतम् १९० , , नं० २ १९१ जिनसमुद्र सूरि गीतम् । १९२ ज्ञानसार अवदात दोहा ४२२ १३ सेवकसुन्दर २ समतिरंग विवेकसिद्धि ६१ जिनेश्वर सूरि ७ महिमसमुद्र १३ , ३ महिमाहर्ष www a da a m mmm 9 0 0 0 ~NY 0 ~ Nm ४३० ४३१ ९ पाहा परिशिष्ट ४३५ १९३ :कठिन शब्दकोष १९४ विशेष नामोंकी सूची १९५ शुद्धाशुद्धि पत्रक ४९० 2010_05 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 9a2 kl 1922]K klebele of dodd oh E21201 WHEE ) Lleh Ba 2010_05 For Private & Personarose Only kl 214 LE BIBLE Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह काव्योंका ऐतिहासिक सार सुधर्मा प्रस्तुत ग्रन्थमें प्रकाशित (पृ० १२८ से २२६ में ) खरतर गच्छ गुर्वाधलियोंमें भगवान महावीरसे पट्ट-परम्परा इस प्रकार दी गयी है :गुर्वावलि नं० २ गुर्वावलि नं०५ गुर्वावलि नं०२ गुर्वावलि नं० ५ १ वर्द्धमान १ आर्यशान्ति ११ सुस्थित गौतम २ गौतम हरिभद्र १२ इंद्र दिन्न ३ सुधा श्यामाचार्य १३ दिन्न सूरि जम्बू ४ जम्बू आर्य संडिल्ल १४ सिंहगिरि प्रभव ५ प्रभव | रेवती मित्र १५ वयर स्वामी शय्यम्भव ६ शय्यम्भव आर्य धर्म १६ वज्रसेन यशोभद्र ७ यशोभद्र आर्य गुप्त १७ चंद्र सूरि संभूति विजय ८ संभूतिविजय आर्य समुद्र १८ समंतभद्रसूरि भद्रबाहु । आर्यमंगु १६ वृद्धदेव सूरि स्थूलिभद्र स्थूलिभद्र | आर्य सोहम २० प्रद्योतन सुरि आर्यमहागिरी हरिबल २१ मानदेवसृरि आर्यसुहस्ति* १० आर्यसुहस्ति भद्रगुप्त २२ देवेन्द्र सूरि * यहांतक दोनों गुर्वावलियों के नामोंमें साम्य है। नं०२में भद्रबाहु और आर्यमहागिरिके नाम अधिक है , इसका कारण नं० २ युगप्रधान परम्परा और नं० ५ गुरु शिष्य परम्पराको दृष्टिसे रचित है। इससे आगेका क्रम दोनोंमें मिन्न २ है, इसका कारण सम्भवतः नं० २ के प्राचीन अव्यवस्थित पट्टावलियोंका अनकरण. और नं. ५ के संशोधित होनेका है। 2010_05 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सिंहगिरि २३ मानतुंग | नार्गाजुन ३३ रविप्रभ वयर स्वामी २४ वीर सूरि गोविन्दवाचक ३४ यशोभद्र आर्य रक्षित २५ जयदेव सूरि संभूतिदिन्न ३५ जिनभद्र दुर्बलिकापुष्य २६ देवानन्द लोकहित ३६ हरिभद्र आर्य नंदि ___ २७ विक्रमसरि दूष्यगणि ३७ देवचन्द नागहस्ति २८ नरसिंह सूरि उमाखाति ३८ नेमिचंद्र रेवंत २६ समुद्र सूरि जिनभद्र ३६ उद्योतन ब्रह्मदीपी ३० मानदेव । | हरिभद्र संडिल्ल ३१ बिबुधप्रभ | देवाचार्य * हेमवंत ३२ जयानन्द नेमिचन्द्र उद्योतन: उद्या * यहांतकका क्रम भिन्न २ पट्टावलियों में भिन्न मिन्न प्रकारसे पाया जाता है। पर इसके पश्चातका क्रम सभी खरतर गच्छकी पट्टावलियों में एक समान है । नं० ५ को पट्ठावलीका (संशोधित) क्रम वजसेन तकका नंदिसून स्थिरावली आदि प्राचीन प्रमाणोंसे प्रमाणित है, पीछेके क्रमको ऐतिहासिक दृष्टिसे परीक्षा करना परमावश्यक है पुरातत्वविद् विद्वानोंका हम इल भोर ध्यान आकर्षित करते हैं । * यहां तकके आचार्योंका गुर्वावलियों में नाममात्र ही उल्लेख है । ऐतिहासिक परिचय नहीं। फिर भी इनके नामोंके साथ जो ऐ० विशेषण दिये गये हैं, वे ये हैं:-जम्बूः--९९ कोटि द्रव्य त्याग, संयम ग्रहण । स्थूलिभद्रः-कोश्या प्रतिबोधक, महागिरी -- जिन कल्प तुलना कारक, मुहस्तिः --संप्रति नृपके गुरु, श्यामाचार्य:--पन्नवणा कर्ता, वजूसेनः-१६वर्षायु व्रत ग्रहण, वृद्धदेवःकुमदचन्द्र विजेता, मानदेव:--शान्ति स्वघ कर्ता,मानतुग:-भक्तामर, भयहर स्त्रोत्रकर्ता, वयर स्वामीः-१०पूर्वधर, उमास्वाति:--५०० प्रकरणकर्ता । 2010_05 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार. वर्द्धमान सूरि (पृ०४४) उपरोक्त उद्योतन सूरिजीके आप मुख्य शिष्य थे । आपने आबू गिरिपर छः महीनेतक तपस्या करके सूरि मन्त्रकी साधना (शुद्धि) की, पातालवासी धरणेन्द्रदेव प्रगट हुआ, उसके सूचनानुसार वहाँ आदिजिनकी वज्रमय प्रतिमा प्रगट हुई । इससे मंत्रीश्वर विमल दण्ड नायकको अतिशय आनन्द हुआ और गुरुश्रीके उपदेशसे उन्होंने वहां नंदीश्वर प्रसादके समान, चिरस्मरणीय यशःपुज स्वरूप 'विमल वसही' बनाई । पूज्य श्रीके अतिशय प्रभावसे मिथ्यात्वीयोगो आदि हतप्रभाव हुए और जैन शासनका जयवाद फैला, आपका विशेष परिचय गणधर सार्द्धशतक वृहद् वृत्ति, पट्टावलियों और युगप्रधान जिनचन्द्र सूरि (पृ०६) में देखना चाहिये । जिनेश्वर सूरि (पृ०४४) श्री वर्धमान सूरिजीके आप सुशिष्य थे। आपने गुजरातके अणहिल्लपाटणके भूपति दुर्लभराजके सभामें ८४ मठपति (चैत्यवासी) आचार्योंको, जो कि मन्दिरोंमें रहा करते थे, परास्त कर चैत्यवासका उत्थापन और वसतिवास-सुविहित मुनिमार्ग का स्थापन किया था । नृपति दुर्लभराज आपके गुणोंसे प्रसन्न होकर कहने लगे कि:-इस कलिकालमें कठिन और खरे चारित्रधारक साधु आप ही हैं । नृपतिके वचनानुसार तभीसे खरतर विरुदकी प्रसिद्धि हुई। विशेष चरित्र सामग्री और ग्रन्थ निर्माणकी सूचि देखें :-युग प्रधान जिनचन्द सूरि पृ० १० 2010_05 | Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अभय देवसूरि (पृष्ट ४५) आप श्री जिनेश्वर सूरिजीके शिष्य थे। आपने ६ अंग-सूत्रों पर वृत्ति बनाई और जयतिहूअण स्त्रोत्रकी रचना कर स्तंभनपार्श्वनाथजीकी प्रतिमा प्रकट की। श्रीमंधर स्वामीने आपके गुणोंकी प्रशंसा की और धरणेन्द, पद्मावती आपकी सेवा करते थे। विशेष देखें: यु० जिनचंद्रसूरि पृ० १२ ___ जिनवल्लभसूरि पृ० १,४६ ___ आप अभयदेवसूरजीके पट्टधर थे। पिन्डविशुद्धि प्रकरणकी आपने रचना की थी एवं बागड़ देशमें धर्म प्रचार कर १० हजार (नये ) जैनश्रावक बनाये थे। चितौड़में चमुंडा देवीको आपने प्रतिबोध दिया था। सं० ११६७ के आषाढ़ शुक्ला षष्टीको चित्तौड़के महावीर चैत्यमें आपको देवभद्र सूरिजीने आचार्य पद प्रदान कर श्रीजिन अभयदेव सूरिके पदपर स्थापित किया । विशेष चरित्रके लिये गण० शा० वृत्ति और कृतियोंके लिये युगप्रधान जिनचन्द सूरि पृष्ट १२ देखना चाहिये। जिनदत्त सूरि (पृ० १४, ४६, ३७३) वाछिग मन्त्री (धुन्धुका वास्तव्य ) की धर्मपत्नी बाहड़ देवीकी कुक्षीसे सं० ११३२ में आपका जन्म हुआ। सं० ११४१ में दीक्षा ग्रहण की। सं ११६६ वै० कृ० ६ चित्तौड़के वीर जिनालयमें 2010_05 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार जिनवल्लभ सूरिजी पदपर देवभद्राचार्यने ( पद ) स्थापना की । उज्जयन्त पर अम्बिका देवीने अंबड (नाग देव ) श्रावकके आराधनु, करनेपर उसके हाथमें स्वर्णाक्षर लिख दिये और कहा कि जो इन्हें पढ़ सकेंगे उन्हींको युगप्रधान जानना । अंबड़ सर्वत्र घूमा, पर उन अक्षरोंको कोई भी आचार्य न पढ़ सके । आखिर पाटणमें जिनदत्त सूरिजीने अंबड़के हाथपर वासक्षेपका प्रक्षेपन कर उन अक्षरोंको शिष्य द्वारा पढ़ सुनाये, तभीसे आप युगप्रधान बिरुदसे प्रसिद्ध हुए । आपने चौसठ योगिनी और बावन वीरों ( क्षेत्रपाल ) को जीता था और भूत -: - प्रेत आदि तो आपके नामस्मरण मात्रसे पास नहीं आ सकते, सूरि मन्त्रके प्रभावसे धरणेन्द्रको साधन किया था और एक लाख श्रावक श्राविकाओंको प्रतिबोध दिया था । विक्रमपुरमें सर्वसंघको मारिरोग निवारण कर अभय दान दिया और ऋषभ जिनालय की प्रतिष्ठा की । त्रिभुवन गिरिके नृपति कुमारपालको प्रतिबोध दिया |५०० व्यक्तियों को जैनमुनियोंको दीक्षा दी। उज्जैनीमें योगिनी ( ६४ ) चक्रको ध्यानबलसे प्रतिबोधा । आज भी आपके चमत्कार प्रत्यक्ष है और स्मरण मात्र से मन-वांच्छित फल प्रदान करते हैं । सांभर (अजमेर) नरेश ( अर्णोराज ) को जैन-धर्मका प्रतिबोध दिया था । आपके हस्त दीक्षित साधुओंकी संख्या १५०० थी ( : ४६ ) । इस प्रकार आप अपने महान व्यक्तित्वसे यशस्वी जीवन द्वारा चिरस्मीरणीय होकर सं: १२९१ के आषाढ़ शुक्ला ११ को अजमेर नगरमें स्वर्ग सिधारे । 2010_05 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह्न पृ०३७३ से ३७६ में प्रकाशित अवदात छप्पयों के अपूर्ण x (आदि अंत त्रु० ) होनेके कारण वर्णित विषयका स्पष्टीकरण नहीं हो सकता । अतः अन्य साधनोंके आधारसे इस विषय में जो कछ जाना गया है, उसका अति संक्षिप्त सार यहां दिया जाता है : कनौजमें सीहोजी + नामक भूपति राजा राज्य करते थे, एक बार उन्होंने यात्रार्थ द्वारिका जानेका विचार कर राज्यभार अपने छोटे भाईको देकर कुंअर आसथान ( जो कि उनके यदुवंशी राणीके पुत्र थे ) एवं ५०० सैनिकोंके साथ प्रस्थान किया । सिहांजी जब मारवाड़ पधारे तो राणीने एक स्वप्न देखा । x X X इधर मारवाड़ प्रान्तके पाली शहर में ब्राह्मण यशोधर राज्य करते थे । उस समय खेड़ नगरके गुहलवंशी राजा महेशने - पालीपर चढ़ाई कर दी, इससे भयभ्रान्त हो यशोधर नगर रक्षणका उपाय सोचने लगे कि किसी सिद्ध पुरुषकी शरण ली जाय । परामर्श करनेपर ज्ञात हुआ कि खरतर गच्छ नायक श्री जिनदत्त सूरिजीका यहीं चतुर्मास है और वे बड़े ही चमत्कारी हैं। उनके मुख्य कार्यकलाप ये हैं : ६ छप्पयोंकी पूर्ण प्रति किसी सज्जनको कहीं प्राप्त हो तो हमें भेजने की कृपा करें । छप्पयोंकी आदि अन्aकी संख्या, सम्बन्ध व प्रतिके पत्रसंख्या के हिसाब से यह वर्णन बहुत बड़ा होना सम्भव है । + आधुनिक इतिहासकारोंके मतसे सौंहोजीका जन्म सं० १२५१ कन्नौज से आना १२६८ और स्वर्ग सं० १३३० है । अतः जिनदत्तसूरिका उनके साथ सम्बन्ध होना कहांतक ठीक है, नहीं कहा जा सकता । 2010_05 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार १:-मुलतानमें पांच नदीके पांचो पीर आपके सेवक बने । माणिभद्र यक्ष एवं बावन वीर भी आपकी सेवामें हाजिर ., रहा करते थे। २:-मुल्तानमें प्रवेशोत्सव समय (भीड़में कुचलकर ) मूगलपुत्र मर गया था , उसे आपने पुनः जीवित कर सबको आश्चर्या न्वित कर दिया। ३ :-चोसठ योगनियोंके स्त्री रूप धारण कर व्याख्यानमें छलनेको आने पर उन्हें मन्त्रित पाटों पर बैठाकर, कीलित कर दिया। आखिर वे गुरुजीसे प्रार्थना कर मुक्त हो, जाते समय ७ वरदान दे गई, जो इस प्रकार हैं : (१) प्रत्येक ग्राम और नगरमें एक श्रावक ऋद्धिवंत होगा। (१) आपके नाम लेनेवालेपर बिजली नहीं गिरेगी। (३) सिन्धु देशमें आपके श्रावकोंको विशेष लाभ होगा। (४) आपके नाम स्मरणसे भूत-प्रेत एवं चौरादिका भय, ज्वरादि रोग दूर होंगे। एवं शाकिनी नहीं छल सकेगी। (५) खरतर श्रावक प्रायः निर्धन न होगा और कुमरणसे नहीं मरेगा। (६) आपके स्मरणसे जलसे पार उतर जायगा, पानीमें नहीं डूबेगा। (७) बालब्रह्मचारिणी साध्वीको ऋतुधर्म नहीं आयगा। 2010_05 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ४ :-उज्जैनीके स्तम्भमेंसे ध्यानबलसे विद्यामन्त्रकी पुस्तक ग्रहण की, उसमेंसे स्वर्णसिद्धि आदि विद्यायें ग्रहण कर चित्तौड़के भंडारमें स्थापित की। उस पुस्तकको हेमचन्द्राचार्य के कथनसे कुमारपाल नृपतिने मंगाई, पर उसे खोलनेका ( ग्रन्थके ऊपर ) निषेध लिखा हुआ होनेपर भी हेमचन्द्राचार्यकी बहिन-साध्वीके पुस्तकके बन्डलको खोलनेपर वे नेत्रहीन हो गयीं और पुस्तक उड़कर जेसलमेरके भण्डारमें जा गिरी। वहां चोसठ योग नियां उनकी रक्षा करती हैं। ५:-प्रतिक्रमणके समय पड़ती हुई बिजलीको रोक दी। ६ :-विक्रमपुरमें मृगीके उपद्रव होनेपर 'तंजयउ' स्त्रोत्र रचकर शांति की। वहां महेश्वरी, डागा, लुणिया आदि १५०० श्रावकोंको प्रतिबोध दिया। इस प्रकार गुरुजीकी प्रशंसा सुनकर उनसे यशोधरने राज्य रक्षण की प्रार्थना की। गुरुजीने उपरोक्त सिंहोजीको वहांका राज्य दिलवाकर उस राज्यकी रक्षा की, तभीसे राठोड़, खरतर आचार्यों को अपना गुरु मानने लगे। जिनचन्द्र सूरि __ सं० ११६७ भाद्र शुक्ला ८ को रासलकी पत्नी देहल्णदेकी कुक्षिसे आप जन्मे थे । सं० १२०३ फाल्गुन शुक्ला ह को ६ वर्षकी लघुवयमें ही जिनदत्त सूरिके समीप दीक्षा ग्रहण की। सं० १२०५ वैशाख शुक्ला षष्ठीको विक्रमपुरमें श्री जिनदत्त सूरजीने अपने पढ़ें 2010_05 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यों का ऐतिहासिक सार पर स्थापित किया था। कहा जाता है कि आपके भालस्थलपर मणि श्री । अतः नरमणिमण्डित ( भाल स्थल ) नाम (संज्ञा) से आपकी सर्वत्र प्रसिद्धि है । सं० १२२३ भाद्र कृष्ण चतुर्दसीको दिल्लीमें आपका स्वर्गवास हुआ । जिनपति सूरि ( पृ० ६ से १० ) मरुस्थलके विक्रमपुर निवासी माल्हू यशोवर्द्धनकी भार्या सूहवदेकी कुक्षिसे सं० १२१० चैत्र कृष्ण अष्टमीके दिन आपका जन्म हुआ था। आपका जन्मका शुभ नाम 'नरपति' रखा गया । सं० १२१८ फाल्गुन कृष्ण १० को जिनचन्द्र सूरिजीके पास भीमपल्ली में आपने दीक्षा ग्रहण कर सर्व सिद्धान्तोंका अध्ययन किया । सं० १२२३ कार्तिक शुक्ला १३ बब्बेरकपुरमें जयदेवाचार्यने श्री निचन्द्र सूरके पदपर स्थापन कर आपका नाम जिनपति सूरि रखा, इसके पश्चात आपने अपनी अद्वितीय मेधा व प्रतिभासे ३६ वादों में अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज एवं जयसिंह आदिके राज्यसभामें विजय प्राप्त की । वादी रूपी हस्तियोंके विदीर्णार्थं आप सिंहके समान थे। आपने बहुत से शिष्यों को दीक्षा दी। अनेकों जिन विम्बों आदि की प्रतिष्ठायें की। शासन देवी आपके पादपद्मोंकी सेवा करती थी और जालन्धरा देवीको आपने रन्जित किया था । खरतर गच्छकी मर्यादा ( विधि ) आपने ही सुव्यवस्थित की थी । 2010_05 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह __ मरुकोट निवासी भण्डारी नेमचन्द्रजी (षष्टि शतककर्ता) सद्गुरुके शोधमें १२ वर्ष तक पर्यटन करते हुए पाटण पधारे और आपके सद्गुणोंसे प्रतिबोधको प्राप्त हुए। इतना ही नहीं, भण्डारीजीके पुत्रने आपके पास दीक्षा ग्रहण की थी। वास्तवमें आप युग-प्रधान आचार्य थे। इस प्रकार स्वपर क्ल्याण करते हुए सं० १२७७ आषाढ़ शुक्ला १० को पाल्हणपुरमें स्वर्ग सिधारे । वहाँ संघने स्तूप बनवाया। जिनेश्वर सूरि (पृ० ३७७) मरुस्थलके शिरोमणि मरोट कोट निवासी भण्डारी नेमचन्द्रकी भार्या लक्ष्मणीकी कुक्षिसे सं० १२४५ मार्गशीर्ष शुक्ला ११ को आपका जन्म हुआ था। अम्बिका देवीके स्वप्नानुसार आपका जन्म नाम 'अम्बड़' रखा गया । श्री जिनपति सूरिजीके सदुपदेशसे वैराग्य वासित होकर आपने अपने माता-पितासे प्रवज्या ग्रहण करनेकी आज्ञा मांगी, माताश्रीने संयमकी दुर्द्धरता बतलाई पर उत्कट वैराग्यवानको वह असार ज्ञात हुई; क्योंकि आपका ज्ञान-गर्भित वैराग्य संसारके दुखोंसे विलग होनेके लिये ही हुआ था। सं० १२५८ चैत्र कृष्णा २ खेड़ नगरके शान्ति जिनालयमें श्री जिनपति सूरजीने दीक्षित कर आपका नाम वीरप्रभ रखा, आप सर्वसिद्धान्तोंका अवगाहन कर श्री जिनपति सूरिके पदपर सुशोभित हुए । आचार्य पद प्राप्तिके पश्चात् आप जिनश्वर सूरि नामसे 2010_05 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ काव्योंका ऐतिहासिक सार । प्रसिद्ध हुए । आपने अनेक देशोंमें विहार कर बहुतसे भव्यात्माओंको प्रतिबोध दिया। इस प्रकार धर्म प्रचार करते हुए आप जालोर पधारे और अपने आयुष्यका अन्त निकट जानकर अपने सुशिष्य वाचनाचार्य प्रबोध मूर्तिको अपने पदपर स्थापित कर जिनप्रबोध सूरि नाम स्थापना की और वहीं अनशन आराधना कर सं० १३३१ के आश्विन कृष्णा ६ को स्वर्ग सिधारे । जिन प्रबोध सूरि उल्लेख :-गुर्वावलियोंमें जिनचन्द्र सूरि , " श्री जिन कुशलसूरिजी विरचित 'जिनचन्द्र सूरि चतुःसप्ततिका' प्राप्त हुई है। ग्रन्थ विस्तार भयसे उसे प्रगट नहीं की गयी, मात्र उसका सार नीचे दिया जाता है । मारवाड़ प्रान्तमें समीयाणा (सम्माणथणि ) नगरके मन्त्री देवराजकी पत्नी कोमल देवीकी रत्नगर्भा कुक्षिसे सं० १३२४ मार्गशीर्ष शुक्ला ४ को आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम खंभराय रखा गया। खंभराय क्रमशः वयके साथ-साथ गुणोंसे भी बढ़ते हुए जब ६ वर्षके हुए तब श्री जिबप्रबोध सूरिकी देशना श्रवणका सुअवसर मिला। उनके उपदेशसे प्रतिबोध कर सं० १३३२ के जेठ शुक्ला ३ को गुरुश्रीके समीप प्रव्रज्या ग्रहण की। पूज्य श्रीने आपका नाम "क्षेमकोति” रखा । दीक्षाके अनन्तर आपने व्याकरण, छंद, नाटक, सिद्धान्त आदिका अध्ययन कर विद्वता प्राप्त की। 2010_05 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह विक्रमपुर स्थित महावीर प्रतिमाके ध्यान बलसे अपने आयुष्यका अन्त निकट जानकर श्री जिनप्रबोधसूरिजी जावालपुर पधारे और वहां क्षेमकीर्तिजीको स्वहस्त कमलसे सं० १३४१ वै० शु० ३ अक्षय तृतीयाको वीर चैत्यमें बड़े महोत्सवपूर्वक आचार्य पद प्रदान कर गच्छभार सौंपकर जिनप्रबोधसूरिजी स्वर्ग सिधारे । आचार्य पदके अनन्तर आपका शुभ नाम जिनचन्द्रसूरि प्रसिद्ध किया गया । आपके रूप लावण्य और गुण सचमुच सराहनीय थे । श्रीकर्णदेव जैत्रसिंह, और समरसिंहजी भूपति त्रय आपकी सेवा करनेमें अपना अहोभाग्य समझते थे। आपने बिम्ब प्रतिष्ठा, दीक्षा एवं पद प्रदानादि कर अनेकानेक धर्मप्रभावनाकी । शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थोकी यात्रा की। एवं गुजरात, सिन्ध, मारवाड़, सवालझदेश, बागड़, दिल्ली आदि देशोंमें विहार कर धर्म प्रचार किया। सं० १३७६ के आषाढ़ शुक्ल ६ को राजेन्द्र चन्द्र सूरिजीको अपने पदपर कुशल कीर्तिको स्थापन करने आदिकी शिक्षा देकर अनशन आराधनापूर्वक स्वर्ग सिधारे। जिनकुशल सूरि (पृ० १५ से १६) अणहिल्ल पटणाधीश दुर्लभराज ( की सभामें चैत्यवासियोंको परास्त कर ) के समय बसतिमार्गप्रकाशक जिनेश्वर सूरि ( प्रथम ) के पट्टपर संवेगरंगशालाके कर्ता जिनचन्द्र सूरि, नवांगीकृतिकर्ता अभयदेव सूरि कि जिन्होंने (स्तम्भन) पार्श्वनाथके प्रसादसे धरणेन्द्र पद्मावती आदि देवोंको साधित किये, उनके पट्टपर संवेगीशिरोमणि 2010_05 | Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यों का ऐतिहासिक सार १३ और चितौडस्थ चामुण्डा देवीको प्रतिबोध देनेवाले जिनवल्लभसूरि और उनके पट्टधर योगिराज जिनदत्त सूरि हुए कि जिन्होंने ज्ञानध्यान के प्रभावसे योगिनियां आदि दुष्ट देवोंको किंकर बना लिये थे । उनके पदपर सकल कला सम्पन्न जिनचन्द्र सूरि और उनके पट्टधरवादियों रूप गजों के विदारण में सिंह साहश (वादी मानमर्दन ) जिनपति सूरिजी हुए । जिनपति सूरि के जिनेश्वर सूरि उनके पट्टधर जिनप्रबोध सूरि और उनके पट्टधर जिनचन्द्र सूरि हुए, जिन्होंने बहुत देशों में सुविहित विहारकर त्रिभुवन में प्रसिद्धी प्राप्त की एवं सुरताण ( सम्राट् ) कुतबुद्दीनको रंजित किया था, उनके पट्टधर जिनकुशल सूरि हुए, जिनके पदस्थापनाका वृतान्त इस प्रकार है: दीनोद्धारक कल्पतरु और महान् राज्य प्रसादप्राप्त मन्त्री देवराजके पुत्र जेल्हेकी पत्नि जयत श्री के पुत्ररत्न कि जिनका दीक्षित नाम वाचनाचार्य कुशलकीर्त्ति था, को राजेन्द्रचन्द्र सूरिने पाटण में जिन - चन्द सूरिके पदपर स्थापित किया । उस समय दिल्ली वास्तव्य महती - या ठक्कुर विजय सिंह एवं पाटणके ओसवाल तेजपाल व उनका लघुभ्राता रूद्रपालने श्रीराजेन्द्रचन्द्र सूरि और विवेकसमुद्रोपाध्याय से पद महोत्सव करनेका आदेश मांगा और उनकी आज्ञा प्राप्तकर सर्वत्र कुंकुंम पत्रीकाएं प्रेषित कर बड़ा महोत्सव प्रारम्भ किया । सं० १३७७ के ज्येष्ठ कृष्णा एकादशीके दिन जिनालयको देवविमानके सादृश सुशोभित कर जिनेश्वर प्रभुके समक्ष राजेन्द्रचन्द्र सूरिने वा० कुशलकीर्त्तिको जिनचन्द्र सुरिके पदपर स्थापित कर 'जिनकुशल 2010_05 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Parvru.vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सूरि' नाम स्थापना की, उस समय अनेक देशोंके संघ आये थे, वाजित्रोंके नादसे आकाशमण्डल. व्याप्त हो गया था । महतीयाण विजय सिंहने खूब गुरुभक्ति की, देश-विदेश विख्यात सामलवंशी वीरदेवने स्वधर्मीवात्सल्य किया। उस समय ७०० साधु, २४०० साध्वीयोंको तेजपाल, रुद्रपालने अपने घर आमंत्रित कर वस्त्र परिधापन किया । अणहिल्ल पाटणकी शोभा उस समय बड़ी दर्शनीय और चित्ताकर्षक थी। महोत्सव करनेवाले तेजपालको सभी लोग बड़ी उत्सुकतासे देख रहे थे । इस प्रकार युगप्रधान पद महोत्सव कर सचमुच तेजपालने बड़ी ख्याति प्राप्त की। __ आपका विशेष परिचय खरतरगच्छ गुर्वावली और पट्टावलियोंमें पाया जाता है । उक्त गुर्वावलो यथावसर हमारो ओरसे सानुवाद प्रकाशित होगी। आपकी रचित "चैत्यवंदन कुलक वृत्ति" प्रकाशित हो चुकी है। जिनपद्मसूरि (पृ० २० से २३) उपरोक्त श्री जिनकुशल सूरिजी महिमंडलमें विचरते हुए देरावर पधारे। वहां व्रत ग्रहण, मालाग्रहण, पदस्थापन आदि अनेक धर्मकृत्य हुए।सूरिजीने अपना आयुष्यका अन्त निकट ज्ञातकर (तरुणप्रभ) आचा र्यको अपने पद (स्थापन) आदि की समस्त शिक्षा देकर स्वर्ग सिधारे । इसी समय सिन्धु देशके राणु नगर वास्तव्य रीहड श्रावक पुनचन्दके पुत्र हरिपाल देरावर पधारे और युगप्रधान पद-महोत्सव करनेकी आज्ञाके लिये तरुणप्रभाचार्यसे विनोत प्रार्थना को और आज्ञा प्राप्त 2010_05 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार १५ कर दशोंदिशाओंके संघोंको कुंकुम-पत्रीयों द्वारा आमंत्रित किये, संघ आये। प्रसिद्ध खीमड कुलके लक्ष्मीधरके पुत्र आंबाशाहकी पत्नीकी 'कुक्षि सरोवरसे उत्पन्न राजहंसके सादृश पद्मसूरिजी को सं०१३८६ ज्येष्ठ शुक्ला षष्ठी सोमवारको ध्वजा पताका, तोरण वंदनमालादिसे अलंकृत आदीश्वर जिनालयमें नांन्दिस्थापन विधिसह श्री सरस्वती कंठाभरण तरुण प्रभाचार्य (षडावश्यक बालावबोधकर्ता) ने जिनकुशल सूरिजीके पदपर स्थापित कर जिनपद्म सूरि नाम प्रसिद्ध किया। उस समय चारों ओर जयजय शब्द हो रहा था। रमणियां हर्षसे नृत्य कर रहीं थीं। लोगोंके हृदयमें हर्षका पार न था। शाह हरिपालने संघभक्ति (स्वामिवात्सल्यादि) एवं गुरुभक्ति ( वस्त्रदानादि) के साथ युगप्रधान पद महोत्सवं बड़े समारोहके साथ किया। पाटण संघने आपको (बालधवल) कुर्चाल सरस्वती विरुद्ध दिया । (पृ० ४७) जिनचन्द्र सूरि (उ० गुर्वावलिमें) जिनोदय सूरि (पृ० ३८४ से ३६४) चन्द्रगच्छ और वज्रशाखामें श्री अभयदेवसूरिजी हुए उनके पट्टानुक्रममें सरस्वती कण्ठाभरण जिनवल्लभ सूरि, विधिमार्ग प्रकाशक जिनदत्तसूरि, कामदेव सादृश रूपवान् जिनचन्दसूरि, वादिगज केशरी जिनपत्ति सुरि, भक्तजन कल्पवृक्ष जिनेश्वर सूरि, सकलकला सम्पन्न जिनप्रबोध सूरि, भवोदधिपोत जिनचन्द्र सूरि, सिन्धुदेशमें विहित 2010_05 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह विहार कर जिनधर्म प्रचारक जिनकुशल सूरि, सुरगुरु अवतार जिनपद्म सूरि, शासन शृङ्गार जिनलब्धि सूरिके पट्ट प्रभाकर तेजस्वी जिनचन्द्रसूरि ज्ञाननीर वर्षाते हुए खंभाते पधारे और ( आयुष्यका अन्त जान, तरुण प्रभ ) आचार्य को गच्छ और पद स्थापनादिकी समस्त शिक्षा देकर स्वर्ग सिधारे । इसी समय दिल्ली वास्तव्य श्रीमाल रुद्रपाल, नींबा सधराके पुत्र संघवी रतना पूनिग सदगुरुवर्यको वन्दनार्थ खंभात आये और उन्होंने श्री तरुणप्रभाचार्यको वन्दनकर पद महोत्सवकी आज्ञा ले ली । सं० १४१५ के आषाढ़ कृष्ण १३ को हजारों लोगोंके समक्ष अजितजिनालय में आचार्यश्रीने वाचनाचार्य सोमप्रभको गच्छनायक पद देकर जिनोदय सूरि नाम स्थापनाकी । संघवी रतना, पूनाने उस समय बड़ा भारी उत्सव किया। लोगोंके जयजयारवसे गगन मण्डल व्याप्त हो गया । वाजित्र बजने लगे, याचक लोग कलरव (शोर ) करने लगे, कहीं सुन्दर रास (खेल) हो रहे थे, कहीं मृदुभाषिणी कुलाङ्गनायें मङ्गल गीत गा रही थीं। इस प्रकार वह उत्सव अतिशय नयनाभिराम था। संघवी रतना पूना और शाह वस्तपालने याचकोंको वांछित दान दिया, चतुर्विध संघकी बड़ीभक्ति और विनयसे पूजाकी, साधर्मी वात्सल्यादि सत्कार्यों में अपन चपला लक्ष्मीको खुले हाथ व्ययकर जीवनको सार्थक बनाया, उस समय साल्डिंग और गुणराजने भी याचकोंको बहुत दान दिये । उपरोक्त वर्णन ज्ञानकलश कृत रासके अनुसार लिखा गया है । 2010_05 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार मेरुसदन कृत विवाहलेके अनुसार श्रीजिनोदयसृरिका विशेष परिचय इस प्रकार है गूर्जरधरा रूपी सुन्दरीके हृदयपर रत्नोंके हारके भांति पाहणपुर नगर है। उसमें व्यापारी मुख्य माल्हू शाखाके (शाह रतनिग कुल मण्डल ) रुद्रपाल श्रेष्ठि निवास करते थे। सं० १३७५५ में उनकी भार्या धारल देवीके कुक्षि सरोवरसे राजहंसके सदृश पुत्र उत्पन्न हुआ। माता पिताने उसका शुभ नाम समरा रखा । चन्द्रकलाके भांति समरा कुमर दिनोदिन वृद्धिको प्राप्त होने लगा। .. इधर पाल्हणपुरमें किसी समय श्री जिनकुशलसूरिजी का शुभागमन हुआ । धर्म-प्रेमी रुद्रपालने सपरिवार गुरुजीको वन्दन कर धर्म श्रवण किया । सूरिजीने समरा कुमरके शुभ लक्षणोंको देख (आश्र्चान्वित होकर ) रुद्रपालको उसे दीक्षित करनेका उपदेश देकर आप भीमपल्ली पधारे। इधर माताके खोलेमें बैठे कुमरने सूरिजीके पास दिक्षा कुमारीसे विवाह करानेकी प्रार्थना की। माताने संयम पालनकी दुष्करता, उसकी लघु अवस्था आदि बतलाकर बहुत समझाया, पर वैरागी समराने अपना दृढ़ निश्चय प्रगट किया। अतः इच्छा नहीं होते हुए भी पुत्रके अत्याग्रहसे रुद्रपालने सपरिवार भीमपल्ली जाकर वीर जिनालयमें नांदिस्थापन कर जिनकुशलसूरिके हस्तकमलसे समरा कुमरको सं० १३८२ में दीक्षा दिलाई। कालिकाचार्यके साथ सरस्वती बहनने दीक्षा ग्रहण की थी उसी प्रकार समराकुमरके साथ उसकी बहिन कील्हूने दीक्षा ग्रहण की। गुरुने समरेकुमरका नाम 'सोमप्रभ' रखा। सोमप्रभ मुनि अब बड़े 2010_05 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मनोयोगसे विद्याध्यन करने लगे और समस्त शास्त्रोंके पारंगत बने । सोमप्रभकी योग्यतासे प्रसन्न हो गुरुश्रीने सं० १४०६ में जेसलमेरमें 'वाचनाचार्य' पद प्रदान किया। वाचनाचार्यजी सुविहित बिहार करते हुए धर्म प्रचार करने लगे। इस प्रकार धर्मोन्नति करते हुए सोमप्रभजीको सं० १४१५ आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशीको खंभातमें श्री तरुणप्रभाचार्यने जिन चंद्रसूरिके पदपर स्थापित किये । पदस्थापनका विशेष वर्णन ऊपर आ ही चुका है। __ आचार्यपद प्राप्तके अनन्तर श्री जिनोदय सूरिजीने सिंध, गुजरात, मेवाड़ आदि देशोंमें विहार कर सुविहित मार्गका प्रचार किया। पांच स्थानोंमें बड़ी प्रतिष्ठायें की, २४ शिष्यों १४ शिष्यणियोंको दीक्षित किये, अनेकोंको संघवी, आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य महत्तरा आदि पदसे अलंकृत किये। इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुए सं० १४३२ के भाद्र कृष्णा एकादशीको पाटणमें लोकहिताचार्यको शिक्षा देकर स्वर्ग सिधारे । संघने आपके अन्तक्रिया स्थलपर सुन्दर स्तूप बनाकर भक्ति प्रदर्शित की। जिनराज मूरि उ० गुर्वावलियोंमें जिनभद्र सूरि जिनचन्द्र सूरि पृ० ४८ साहु शाखाके वच्छराजकी भार्या स्याणीके कुक्षिसे आप जन्मे थे। - जिन समुद्रसूरि ___उ० गुर्वावलियोंमें 2010_05 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार १६ खरतर गुरुगुण छप्पय और गुरुगुण षट्पदका सार प०१ से ३ एवं २४ से ४० नाम पदस्थापनासंवत मिती स्थान जिनालय पददाता जिजवल्लभः-सं०११६७ आषाढ़ शुक्ला ६चित्तौड़, महावीर, देवभद्रसूरि जिनदत्तः-सं० ११६६ वैशाख कृष्णा ६ , , , जिनचन्द्रः--सं० १२०५ बैशाख शुक्ला ६ विक्रमपुर, ,, जिनदत्तसूरि जिनपतिः-सं०१२२३ कार्तिक शुक्ला १३ बबेरेपुर, जयदेवसूरि जिनेश्वरः-सं० १२७८ माह शुक्ला ६ जालौर, ,, सर्वदेवसूरि जिनप्रबोध-सं० १३३१ आश्विन (कृष्णा) ५ ,, जिनचन्द्रः-सं० १३४१ वैशाख शुक्ला ३ ,, जिनकुशल:--सं० १३७७ ज्येष्ठ कृष्णा ११ पाटण, जिनपद्मसूरिः-सं० १३६० ज्येष्ठ शु० ६ देरावर, जिनलब्धिः-सं० १४०० आषाढ़ कृष्णा १ जिनचन्द्रः-सं० १४०६ माह शुक्ला १० जैसलमेर, जिनोदयः-सं० १४१५ आषाढ़ कृष्णा १३ खंभात, अजित, जिनराजः-१४३३ फाल्गुण कृष्णा ६ पाटण, शांति, लोकहिताचार्थ जिनभद्र-सं० १४७५ माह (शु० १५)भाणशल्लि, अजित, सागरचंद्राचार्य अन्य महत्वके उल्लेख:-(गा २० ) सं० १०८० पाटग दुर्लभ सभा चैत्यवासी विजय, जिनेश्वर सूरिको खरतर विरुद प्राप्ति,(गा० २१) गौतमके १५०० तापसोंका प्रतिबोध, (हिगा २२)कालिकाचार्यका चतुर्थीको पयूषण करना,(गा २३)में जिनदत्त सूरिका युगप्रधानपद,(गा० ३०)में दशारणभद्रका 2010_05 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जिनहंससूरि पृ०५३ जिनहंस सूरिजीका सूरिपद महोत्सव करमसिंहने एक लाख. पीरोजी खरचकर बड़े समारोहसे किया । आचार्य पद प्राप्तिके अनन्तर अनेक देशों में विहार करते हुए आप आगरे पधारे । श्रीमाल डुंगरसी और उनके भ्राता पामदत्तने अतिशय हर्षोत्साहसे प्रवेशोत्सव बड़े धूमधामसे किया, सजावट बड़ी दर्शनीय की गई, लोगोंकी भीड़से मार्ग संकीर्ण हो गये, पातशाह स्वयं हाथीके होदे उम्बर खान, वजीर इत्यादि राज्यके अमलदारोंके साथ सामने आये, वाजिन बज रहे थे। श्राविकायें मंगलकलश मस्तकपर धारण कर गुरुश्रीको मोतियोंसे बधा रहीं थीं। रजत मुद्रा (रुपये) के साथ पान (ताम्बूल) दिये गये, इससे बड़ा यश फैला और दिल्लीपति सिकन्दर पातशाहको यह जान बड़ा आश्चर्य उत्पन्न हुआ। उन्होंने सूरिजीको राजसभा (दीवानखाना) में आमंत्रित कर करामात दिखाने को कहा, क्योंकि सम्राटके खरतर जिनप्रभसूरिजीके करामात (चमत्कार) की बातें, पहिले लोगोंसे सुनी हुई थी। पूज्यश्रीने तपस्याके साथ ध्यान करना प्रारम्भ किया, यथासमय जिनदत्तसूरिजीके प्रसाद एवं ६४ योगिनीयोंके सानिध्यसे किसी चमत्कार विशेषसे सिकन्दर वीर चन्दन (गा० २३) पीछेकी १ गाथामें सं० १४१२ फा० व १४ अभयतिलकके रचनाका लेख है, (द्वि० गा० २३) में जिनलब्धि सूरिको मवलक्ष गोत्रीय धणसिंहके भार्या खेताहोके कुक्षिसे उत्पन्न होना और बाल्यवयमें व्रत लेना, लिखा है। - 2010_05 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार २१ पातशाहका चित्त चमत्कृत कर ५०० वन्दीजनोंको कारावास ( वाखरसी) से छुड़ाकर महान सुयश प्राप्त किया। कवि भक्तिलाभने गुरुभक्तिसे प्रेरित होकर इस यशगीतकी रचना की- वि० आपके रचित आचाराङ्गदीपिका (सं० १५८२ बीकानेर) उपलब्ध है। जिनमाणिक्य सूरि (उ० गुर्वावलियोंमें ) युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि (पृ० ५८ से १२४ ) जिनसिंह सरि (पृ० २२५ से १३३) । श्री जिनचन्द्र सूरिजी एवं जिनसिंह सूरिजीके सम्बन्धी गीत, रास आदि काव्योंका सर्व सारांश "युगप्रधान जिनचन्द सूरि" में दिया है। अतः यहां दुहराकर ग्रन्थके कलेवरको बढ़ाना उचित नहीं समझा गया। जिनचन्द्र सूरि सम्बन्धी दो बड़े रास हैं, उनमेंसे "अकबरप्रतिबोध रासका सार उक्त मन्थके छठे, सातवें प्रकरणमें एवं निर्वाण रासका सार ११, १२ वें प्रकरणमें दे दिया गया है। - श्री जिनसिंह सूरिजीका ऐतिहासिक परिचय उक्त ग्रन्थके पृ० १७४ से १८२ तकमें लिखा गया है। आपके सम्बन्धमें हमें सूरचन्द कृत एक रास अभी और नया उपलब्ध हुआ है, पर उसमें हमारे लि० चरित्रके अतिरिक्त कोई विशेष नवीनता नहीं, और अन्थ बहुत बढ़ा हो जानेके कारण उसे प्रकाशित नहीं किया गया। सूरचन्द्र कृत रासमें नवीन बातें ये हैं : 2010_05 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (१) जिनसिंह सूरिजीके पिताका निवास स्थान 'बीठावास' लिखा है । (२) पाटणमें धर्मसागर कृत ग्रन्थको अप्रमाणित सिद्ध किया। संघवी सोमजीके संघ सह शत्रुंजय यात्रा की । (३) इनके पदमहोत्सवपर श्रीमाल टांक गोत्रीय राजपालने १८०० घोड़े दान किये थे । ( ४ ) अकबर सभामें ब्राह्मणोंको गंगा नदीके जलकी पवित्रता एवं सूर्यकी मान्यतापर प्रत्युत्तर देकर, विजय किया था । जिनराज सूरि ( पृ० १५० से १७७, ४१७ ) राजस्थानमें बीकानेर एक सुसमृद्ध नगर है, वहां राजा रायसिंह जी राज्य करते थे, उनके मन्त्री करमचन्दजी वच्छावत थे । जिन्होंने सं० १६३५ के दुष्कालमें सत्र्रकार ( दानशाला ) स्थापित कर डोलती हुई पृथ्वीको ( दान देकर ) स्थिर कर दी थी एवं लाहौर में जिनचन्द सूरिजीके युग प्रधान पद एवं जिनसिंह सूरिजी के आचार्य पदके महोत्सवपर क्रोड द्रव्य और नव ग्राम, नव हाथी आदिका महान दान किया था । २२ उस समय बीकानेर में बोथरा कुलोत्पन्न धर्मशी शाह निवास करते थे, उनकी धर्मपत्नीका शुभ नाम धारल देवी था । सांसारिक भोगोंको भोगते हुए दम्पत्ति सुखसे काल निर्गमन करते थे । हमारे संग्रहके प्रबन्धमें आपके ७ भाइयोंके नाम इस प्रकार हैं :१ राम, २ गेहा, ३ खेतसी, ४ भैरव, ५ केशव, ६ कपूर, ७ सातड, 2010_05 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार २३ इस प्रकार विषय भोगोंको भोगते हुए धारल देवीकी कुक्षिमें सिंह स्वप्न सूचित एक पुण्यवान जीव अवतरित हुआ। - ज्योतिषियोंको स्वप्न फल पूछनेपर उन्होंने सौभाग्यशाली पुत्र उत्पन्न होनेकी सूचना दो। यथा समय (गर्भ वृद्धि होनेके साथसाथ अच्छे-अच्छे दोहद उत्पन्न होने लगे, अनुक्रमसे गर्भ स्थिति परिपूर्ण होनेसे) सं० १६४७ वैसाख सुदी ७ बुधवार, छत्र योग श्रवण नक्षत्रमें धारलदेवीने पुत्र जन्मा । ___ दशूठण उत्सवके अनन्तर नवजात शिशुका नाम खेतसी रखा गया, वृद्धिमान होते हुए खेतसी * कलाभ्यास करने लगा अनुक्रमसे ६ भाषा, १८ लिपि, १४ विद्या, ७२ कला, ३६ राग और चाणक्यादि शास्त्रोंका अध्ययन कर प्रवीण हो गया। इसी समय अकबर बादशाह प्रशंसित जिन सिंह सुरिजी बीकानेर पधारे। लोक बड़े हर्षित हुए और सूरिजीका धर्मोपदेश श्रवणार्थ सभी लोग आने लगे, ( अपने पिताके साथ ) खेतसी कुमार भी व्याख्यानमें पधारे । और धर्म श्रवणकर वैराग्यवासित होकर घर आकर अपनी माताजी से दीक्षा की अनुमति मांगी । पर पुत्रका स्नेह सहज कैसे छूट सकता था। माताने अनेक प्रकारसे समझाया पर खेतसी कुमार अपने दृढ़ निश्चयसे विचलित नहीं हुए और सं० १६५६ मार्गशीर्ष शुक्ला १३ को जिनसिंह सूरीजीके समीप दीक्षा ग्रहण की। इस समय धर्मसी शाहने दीक्षाका बड़ा उत्सव किया, नव दीक्षत मुनि अब गुरुश्री के प्रदत्त राजसिंहके नामसे परिचित होने लगे। * एक पट्टावलीमें लिखा है कि आपके लघु भ्राता भैरवने भी आपके साथ दीक्षा लो। 2010_05 | Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह दीक्षाके अनन्तर सूरिजी शीघ्र ही अन्यत्र विहारकर गये । राज सिंहके मण्डलतप बहन कर चुकनेके सम्वाद पाकर श्री जिनचन्द्र सूरिजीने उन्हें बड़ी दीक्षा (छेदोपस्थापनीय) दी और नाम राजसमुद्र प्रसिद्ध किया। राजसमुद्र थोड़े ही समयमें कुशाग्र बुद्धिबलसे सूत्रों को पढ़कर गीतार्थ हो गये। श्री जिन सिंह सूरिजी स्वयं आपको शिक्षा देते थे, श्री जिनचन्द्र सूरजीने आपको वाचनाचार्य * पदसे अलंकृत किया। आपके प्रबल पुन्योदयसे अम्बिकादेवी प्रत्यक्ष हुई। जिसके प्रत्यक्ष फलस्वरूप घंघाणीके (प्राचीन) लिपीको आपने पढ़ डाली । जेसलमेरमें राउल भीमके समक्ष आपने तपागच्छीयों*को परास्त किये थे। ____इधर सम्राट जहांगीरने मान सिंह (जिन सिंह सूरि) से प्रेम होनेसे उन्हें निमन्त्रणार्थ, अपने वजीरोंको फरमान-पत्रके साथ बीकानेर भेजा। वे बीकानेर आये और फरमान पत्र सूरिजीकी सेवामें रखा । सङ्घने पढ़ा तो सूरिजीको सम्राट्ने आमन्त्रित किया जानकर सभी प्रसन्न हुए। सम्राटके आमन्त्रणसे सुरिजी विहार कर मेड़ते पधारे । वहां एक महीनेकी अवस्थिति की, फिर वहांसे एक प्रयाण किया पर, आयुका अन्त निकट ही आ चुका था, अतः मेड़ते पधारे और वहीं * हमारे संग्रहके प्रबन्धमें जन्मका वार बुधकी जगह शुक और दीक्षा सं० १६५७ मोगसर सुदी १ बीकानेर, लिखा है। घणारसपद सं० १६६८ आसाउलमें लिखा है। . 2010_05 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार २५ स्वयं संथारा उच्चारण कर सं० १६७४ पौष शुक्ला १३ को प्रथम देवलोक सिधारे । ___ संघने एकत्र हो पट्टधरके योग्य कौन है इसका विचारकर राजसमुद्रजीको योग्य विदित कर उन्हें गच्छनायक और सूरिजीके अन्य शिष्य सिद्धसेन मुनिको आचार्य पदसे विभूषित किये। ये दोनों जिनराज सूरि और जिनसागर सूरिजीके नामसे प्रसिद्ध हुए। पदमहोत्सवपर संघवी आसकरण चोपड़ेने बहुत द्रव्य व्यय किया । १६७४ फाल्गुन शुक्ला ७* को पदस्थापना बड़े समारोहसे हुई। गच्छनायक पद प्राप्तिके अनन्तर आपने अनेक जगह विहारकर अनेकानेक धर्म प्रभावनायें की, जिनमेंसे कुछ ये हैं :-(सं० १६७५ मिगसर सुदी १२ को) जेसलमेर (लोद्रवे) गढ़में (भणसाली थाहरूकारित) सहस्त्रफणापार्श्वनाथकी प्रतिष्ठा की। (सं० १६७५ वै० शु० १३ क) शत्रुजय पर (सोमजी पुत्र रुपजीकारित) अष्टमोद्धारके ७०० प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा की। भाणवटमें बाफणा चांपशी कारित अमीझरा पार्श्वनाथजीकी प्रतिष्ठाकी,मेड़तेमें चौपड़ा असकरण कारित शान्ति जिनालयकी (सं० १६७७ जे० कृ०५) प्रतिष्ठाकी। अम्बिका देवी एवं ५२ वीर आपके प्रत्यक्ष थे, सिन्धमें विहारकर (पांच नदीके) पाँच पीरोंको आपने साधित किये। ठाणांग सूत्रकी विषम पदार्थ वृत्ति बनाई। * प्रबन्धमें उपाध्याय सोमविजयका नाम भी है। + प्रबन्धमें द्वितीया लिखा है। सूरिमन्त्र पुनमीया हेमाचार्यने दिया लिखा है। 2010_05 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह इस प्रकार शासनका उद्योत करनेवाले गच्छ नायकके गुणकीर्तन रूप यह रास श्रीसार कविने सं० १६८१ अबाढ़ कृष्ण १३ को सेत्रावामें रचा। क्षेमशाखाके रत्नहर्षके शिष्य हेमकीर्तिने यह प्रबन्ध बनवाया। गच्छ नायकके गुणगान करते समय (वर्षा) भी अच्छी हुई। उपरोक्त रास रचनाके पश्चात् (सं० १६८६ मार्गशीर्ष कृष्णा ४ रविवारको आगरेमें सम्राट शाहजहाँसे आप मिले थे और वहां ब्राह्मणोंको वादमें परास्त किये एवं दर्शनी लोगोंके विहारका जहां कहीं प्रतिषेध था वह खुला करवा कर शासनोन्नति की। राजा गजसिंहजी, सूरसिंहजी, असरपखान, आलमदीवान आदिने आपकी बड़ी प्रशंसा की। - यह सवैये (पृ० १७३ ) से स्पष्ट है। गीत नं०५ में लिखा है कि मुकरबखान ने आपके शुद्ध और कठिन साध्वाचारकी बड़ी प्रशंसा की। ___ आपके रचित १ शालिभद्र चौ० २ गजसुकमाल चो० ३ चौवीसी ४ बीशी ५ प्रश्नोत्तर-रत्नमाला बीशी ६ कर्म बतीसी ७ शील बतीसी बालावबोध ८ गुणस्थानस्त और अनेक पद उपलब्ध हैं। नैषधकाव्य पर भी आपके ३६ हजारी वृत्ति बनानेका उल्लेख है। डेकन कालेजमें इसकी दो प्रतियां विद्यमान हैं।* * हमारे संग्रहके जिनराज सूरि प्रबंधमें विशेष बातें यह हैं :___ आपने ६ मुनियोंको उपाध्याय, ४१ को वाचक पद और १ साध्वीजी को प्रवर्तनी पद दिया, ८ बार शत्रुञ्जयकी यात्रा की, पाटणके संघके साथ गौडीपार्श्वनाथ, गिरनार, आबू, राणकपुरकी यात्रा की, नवानगरके 2010_05 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यों का ऐतिहासिक सार जिनरतन सूरि ( पृ० २३४ से २४७ ) मरुधर देशके सेरुणा ग्राममें ओशवाल लुणिया गोत्रीय तिलोकसी शाहकी पत्नी तारा देवीकी* कुक्षिसे ( सं० १६७० ) में आपका जन्म हुआ था । आठ वर्षकी लघुवयमें ही आपको वैराग्य उत्पन्न हुआ और जिनराज सूरिके पास अपने बान्धव और माताके साथ ( सं० १६८४ ) में दीक्षा ग्रहण की। थोड़े दिनोंमें ही शास्त्रोंका अध्ययन कर देश- विदेशों में बिहार कर भव्य जनोंको प्रतिबोध देने लगे । आपके गुणोंसे योग्यताका निर्णय कर जिनराज सूरिजीने. अहमदाबाद बुलाकर आपको उपाध्याय पढ़से अलंकित किया । इस समय जयमल, तेजसीने बहुत-सा द्रव्य व्यय कर उत्सव किया था । २७ सं० १७०० में जिनराजलूरिजीका चतुर्मास पाटण था । उन्होंने स्वहस्तसे जिनरतन सूरिजीको पद स्थापना की, और अषाढ़ शुक्का ६ को वे स्वर्ग सिधारे । चतुर्मास के समय में दोसी माधवादि ने ३६००० जमसाइ व्यय की, आगरेमें १६ वर्षकी अवस्था चिन्तामणि शास्त्रका पूर्ण अध्ययन किया, पालीमें प्रतिष्ठा की, राउल कल्याणदास और राय कुंवर मनोहरदास के आमन्त्रणसे जैसलमेर पधारे, संघवी धाहरूने प्रवेशोत्सव किया । आपके शिष्य-प्रशिष्यों की संख्या ४१ थी । x १ नाहटा थे ( देखो पृ० २४६ में ) * गीत नं० ५ में तेजस हैं। देखो पृ० २४७ x गीत नीः ४ में सदामी लिखा है । 2010_05 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ _ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पाटणसे विहार कर जिनरतन सूरिजी पाल्हणपुर पधारे, वहां संघने हर्षित हो उत्सव किया। वहांसे स्वर्णगिरिके संघके आग्रहसे बहां पधारे । श्रेष्ठिपीथेने प्रवेशोत्सव किया, वहांसे मरुस्थलमें विहार करते संघके आग्रहसे बीकानेर पधारे , नथमल वेणेने बहुत-सा द्रब्य व्यय कर (प्रवेश-) उत्सव किया, वहांसे उग्र विहार विचरते वीरमपुरमें (सं० १७०१ ) में संघाग्रहसे चतुर्मास किया। चतुर्मास समाप्त होते ही बाहड़मेर (सं० १७०२) में आये, संघके आग्रहसे चतुर्मास वहीं किया । वहांसे विहार कर कोटड़में(सं०१७०३) चौमासा किया । चौमासा समाप्त होनेपर वहांसे जेसलमेरके श्रावकोंके आग्रहसे जैसलमेर पधारे, शाह गोपाने प्रवेशोत्सव किया एवं याचकों को दान दे अपनी चंचल लक्ष्मीको सार्थक की। जेसलमेरके संघका धर्मानुराग और आग्रह सविशेष देख आचार्य श्रीने चार चतुर्मास ( सं० १७०४ से १७०७ तक ) वहीं किये । इसके पश्चात् आगरे संघके अत्याग्रहसे वहां पधारे। संघ बड़ा हर्षित हुआ, मानसिंहने बेगमकी आज्ञा प्राप्त कर प्रवेशोत्सव बड़े समारोहसे किया। बतग्रहणादि धर्मध्यान अधिकाधिक होने लगे। तीन चौमासा (सं० १७०८ से १७१०) करनेके पश्चात् चौथे चतुर्मासको (सं० १७११) भी संघने आग्रह कर वहीं रखे। वहां अशुभ कर्मोदयसे असमाधि उत्पन्न हुई। अषाढ़ शुक्ला १० से तो वेदना क्रमशः वृद्धि होनेसे औषधोपचार कराया गया, पर निष्फल देख आपने अपने आयुष्यका अन्त ज्ञात कर अपने मुखले अनशनोच्चार एवं ८४ लाख जीक्योनियोंसे क्षमत क्षमणा कर समाधिपूर्वक श्रावण बदी ७ सोमवारको 2010_05 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार २६ हर्षलाभको पदस्थापन कर स्वर्गवासी हुए । संघमें शोक छा गया, पर भावोपर जोर भी नहीं चल सकता। आखिर अन्त्येष्टि क्रिया बड़ी धूमसे कर. दाहस्थलपर सुन्दर स्तूप निर्माण कर श्रावक संघने शुरुभक्तिका आदर्श परिचय दिया, भक्ति स्मृतिको चीरंजीक्त की (जिनराज सूरि शि०) मानविजयके शिष्य कमलहर्णने भी सं० १७११ श्रावण शुक्ला ११ शनिवारको आगरेमें यह निर्वाण रास रचकर गुरुभक्ति द्वारा कवित्व सफल किया। जिनचन्द्र सूरि (पृ० २४५ से २४८) बीकानेर निवासी गणधर-चोपड़ा गोत्रीय सहसमल (सहसकरण) की पत्नी राजल दे ( सुपीयार दे ) के आप पुत्ररत्न थे। आपने १२ वर्षकी लघुवयमें वैराग्यवासित होकर जिनरत्न सूरिके हाथसे जेसलमेरमें दीक्षा ग्रहण की। श्रीसंघने उत्सव किया, १८ वर्षकी वयमें (सं० १७११) जिनरत्न सूरिजी आगरेमें थे और आप राजनगरमें थे, वहां) जिनरत्न सूरिके बचनानुसार पद प्राप्त हुआ और नाहटा जयमल, तेजसी (जिनरत्नपद महोत्सवकर्ता) की माता कस्तूरांने पदोत्सव किया। (गीत नं०२) ___ नं०५ कवित्तसे ज्ञात होता है कि आपने पंचनदी साधन की थी। आपके रचित कई स्तवनादि हमारे संग्रहमें हैं। सं० १७३५ आषाढ़ शुक्ला ८ खम्भातमें आपने २० स्थानक तप करना प्रारम्भ किया था। तत्कालीन गच्छके यतियोंमें प्रविष्ट शिथि 2010_05 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह लताको निवार्थ सं० १७१८ आसू सुदी १० सोमवार बीकानेरमें (१४ बोलोंकी) व्यवस्था की थी, प्रस्तुत व्यवस्थापन हमारे संग्रहमें है। जिनमुख सूरि (पृ० २४६ से २५१) बोहरा गोत्रीय ( पीचानख ) रुपचन्द शाहकी भार्या रतनादे (सरुप दे) की कुक्षिसे आपका जन्म हुआ था। आपने लघुवयमें दीक्षा ग्रहण की थी। सं० १७६२ आषाढ़ शुक्ला ११ को सूरतमें जिनचन्द सूरिने आपको स्वहस्तसे श्री संघ समक्ष गच्छनायक पद प्रधान किया था। उस समय पारख सामीदास, सूरदासने पद महोत्सव बड़े धूमसे किया था । रात्रिजागरण श्रावकस्वामीवात्सल्य यति वस्त्र परिधापनादिमें उन्होंने बहुत-सा द्रव्य व्ययकर भक्ति प्रदर्शित को। सं० १७८० के ज्येष्ठ कृष्णाको अनशन आराधन कर रिणीमें जिनभक्ति सूरजीको अपने हाथसे गच्छनायक पद प्रदानकर स्वर्ग सिधारे । श्री संघने अन्त्येष्टि क्रियाके स्थानपर स्तूप बनाया और उसकी माघ शुक्ला षष्टीको जिनभक्तिसूरिजीने प्रतिष्ठा की थी। आपके रचित जेसलमेर-चैत्यपरिपाटी स्तवनादि एवं गद्य (भाषा) में (सं० १७६७ में पाटणमें रचित ) जेसलमेर श्रावकोंके प्रश्नोंके उत्तरमय सिद्धान्तीय विचार ( पत्र ३५ जय० भ०) नामक ग्रन्थ उपलब्ध है। 2010_05 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार जिनभक्तिसूरि (पृ० २५२) सेठिया हरचन्दकी पत्नी हरसुखदे की कुक्षिसे आपका जन्म हुआ था । आपने छोटी उम्रमें ही चारित्र लेकर सदगुरुको प्रसन्न किया था। जिनसुख सूरिजीने आपको सं० १७७६ ज्येष्ठ कृष्णा तृतीयाको रिणीमें स्वहस्तसे गच्छनायक पद प्रदान किया था। उस समय रिणी संघने पद-महोत्सव किया। आपके रचित कई स्तवनादि प्राप्त हैं। जिनलाभरि (पृ० २६३ से २६६ एवं ४१४ से ४१६) विक्रमपुरनिवासी बोथरे पंचाननकी धर्मपत्नी पदमा दे ने आपको जन्म दिया। आपने लघु वयमें जिनभक्ति सूरिजीके पास दीक्षा ग्रहण की। आपके गुणोंसे प्रसन्न होकर सूरिजीने मांडवी बंदरमें आपको अपने पदपर स्थापन किया था । सं० १८०४ भुज, वहांसे गुढ़ होकर १८०५ में जैसलमेर पधारे, वहां १८०८।१० तक रहे। उसके पीछे बीकानेरमें ( १८१० से १८१५ तक) ५ वर्ष रहकर सं० १८१५ को वहांसे बिहारकर गारबदेसर शहरमें (१८१५) चोमासा किया। वहां ८ महीने विराजनेके पश्चात् (मि० वि० ३) विहारकर थली प्रदेशको वंदाते हुए जैसलमेरमें प्रवेश किया। वहां (१८१६-१७-१८-१९) ४ वर्ष अवस्थितीकर लोद्रवे तीर्थमें सहस्त्रफणा पार्श्वनाथजीकी यात्रा की। वहांसे पश्चिमकी ओर विहारकर गोडीपार्श्वनाथकी यात्रा कर 2010_05 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह गुढे (सं० १८२० ) में चौमासा किया। चतुर्मासके अनन्तर शीघ्र बिहारकर महेवा प्रदेशको वंदाकर महेवेमें नाकोड़े पार्श्वनाथकी यात्रा की, वहांसे बिहारकर जलोलमें (सं० १८२१ ) में चतुर्मास किया। वहांसे खेजडले, खारिया रह कर रोहीठ, मंडोवर, जोधपुर, तिमरी होकर मेड़ते ( १८२३) पधारे । वहां ४ महीने रहकर जैपुर शहर पधारे, वह शहर क्या था मानो स्वर्ग ही पृथ्वीपर उतर आया हो, वहां वर्ष दिनकी भांति और दिन घड़ीकी भांति व्यतीत होते थे। जैपुरके संघका अत्याग्रह होनेपर भी पूज्यश्री वहां नहीं ठहरे और मेवाड़की ओर विहारकर यश प्राप्त किया। उदयपुरसे १८ कोसपर स्थित धूलेवामें ऋषभेशकी यात्राकर उदयपुर ( १८२४ ) पधारें और विशेष विनतीसे पालीवालै (१८२५) पाट विराजे नागौर (का संघ) बीचमें अवश्य आयगा, यह जानते हुए भी साचौर (अपने मनकी तीव्र इच्छासे (१८२६) पधारे । इस समय सूरतके धनाड्योंने योग्य अवसर जानकर विनती पत्र भेजा और पूज्यश्री भी उस ओर बिहार करनेसे अधिक लाभ जान, (१८२७) सूरत पधारे । वहांके श्रावकोंको प्रसन्न कर आप पैदल विचरते हुए (१८२६) राजनगर पधारे। वहां तालेवरने बहुत उछव किये और २ वर्ष तक रात दिन सेवा की । वहांसे श्रावक संघके साथ शत्रुजय गिरनारकी,यात्रा कर ( १८३०) वेलाउलके संघको वंदाया। वहांसे मांडवी (१८३१) पधारे। वहां अनेकों कोट्याधीश और लक्षाधिपति व्यापारी निवास करते थे। समुद्रसे उनका ब्यापार चलता मार्गशीर्ष महिनेमें भाबगिरिकी यात्रा कर चतुर्मास बीलाड़े (१८२३) रहे। 2010_05 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार था। उन्होंने १ वर्ष तक खूब द्रव्य किया। वहांसे अच्छे महूर्तमें विहार कर भुज ( १८३२) आये। वहांके संघने भी श्रेष्ट भक्ति की। इस प्रकार १८ वर्ष नवीन नवीन देशोंमें विचरे । कवि कहता है,कि अब तो बीकानेर शीघ्र पधारिये। अन्य साधनोंसे ज्ञात होता है, कि भुजसे विहार कर १८३३ का चौमासा मनरा-बन्दर कर सं० १८३४ का चौमासा गुढ़ा किया और वहीं स्वर्ग सिधारे (गीत नं० ४)। ___ गहुंली नं० १ में पूज्यश्रीके पधारनेपर बीकानेरमें उत्सव हुआ, उसका वर्णन है। ___ गहुँली नं० २ में कवि कहता है कि कच्छसे आप यहां पधारते थे, पर जैसलमेरी संघने बीच में ही रोक लिया। वहांके लोग बड़े मुंह मीठे होते हैं, अतः पूज्यश्रीको लुभा लिया। पर बीकानेर अब शीघ्र आवें । ___ आत्म-प्रबोध प्रन्थ आपका रचित कहा जाता है । आपके रचित कइ स्तवनादि हमारे संग्रहमें हैं, और दो चोवीशीयें प्रकाशित भी हो चुकी हैं। जिनचन्द्र सूरि (पृ० २६७ से २६६) ___ रूपचन्दकी भार्या केशरदेके आप पुत्र थे। आपने मरुस्थलमें लघु वयमें ही दीक्षा ली थी और गुढ़ेमें जिनलाभ सुरिजीने स्वहस्तसे आपको गच्छनायक पद प्रदान किया था, उस ग्मय श्रीसंघने उत्सव किया था। 2010_05 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह गहुंली नं० १ सिन्धु देश-हालां नगर स्थित कनकधर्मने सं० १८३४ माधव मासमें बनाई है। गहुंली नं०२ चारित्रनन्दनने सं० १८५० वैशाख बदी ८गुरुवारको बीकानेरमें बनाई है। उस समय पूज्यश्री अजीमगंजमें थे, गहुंलीमें उसके पूर्व उनके सम्मेतशिखर, पावापुरीकी यात्रा करनेका उल्लेख कियागया है, एवं बीकानेर पधारनेके लिये विज्ञप्ति की गयी है। जिनहर्ष सूरि (पृ० ३००) बोहरा गोत्रीय श्रेष्टि तिलोकचन्दकी भार्या तारादेके कुक्षिसे आपका जन्म हुआ था। कवि महिमाहंसने आपके बीकानेर पधारनेके समयके उत्सव वर्णनात्मक यह गहुंली रची है। गहुंलीमें बीकानेरके प्रसिद्ध देवालय चिन्तामणि और आदीश्वरजीके दर्शन करनेको कहा गया है। जिनसौभाग्य सूरि (पृ० ३०१) आप कोठारी कर्मचन्दकी पत्नी करणदेवीकी कुक्षिसे उत्पन्न हुए थे। सं० १८४२ मार्गशीर्ष शुक्ला ७ गुरुवारको जिनहर्षसूरिजीके पद पर नृपवर्य रतनसिंहजी आदिके प्रयत्नसे विराजमान हुए थे। उस समय खजानची लालचन्दने पद स्थापनाका उत्सव किया था, और याचकोंको दान दिया था। . हमारे संग्रहके एक पत्रमें लिखा है कि जिनहर्षसूरिजीके स्वर्ग सिधारनेके पश्चात् पद किसको दिया जाय, इसपर विवाद हुआ। जिन-सौभाग्य सूरिजी उनके दीक्षित शिष्य थे और 2010_05 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www . ~ ~ ~ ~ काव्योंका ऐतिहासिक सार महेन्द्र सूरिजी अन्य यतीके शिष्य थे, पर जिनहर्षसूरिजीने उन्हें अपने पास रख लिया था। अतः अन्तमें यह निर्णय किया गया कि दोनोंके नामकी चिट्ठियां डाल दी जाँय, जिसके नामसे चिट्ठी उठे उसे ही पद दिया जाय । यह बात निश्चित होनेपैर सोभाग्य सूरिजी वयोबृद्ध और गच्छके मुख्य यतियोंको लेनेके के लिये बीकानेर आये। पीछेसे चिट्ठी डालनेके निश्चित दिनके पूर्व ही कुछ यतीओं और श्रावकोंके पक्षपातसे जिनमहेन्द्र सूरिजीको पद दे दिया गया। इधर आप मुख्य यतियोंके साथ मंडोवर पहुंचे और वहांका वृतान्त ज्ञात कर बीकानेर वापिस पधारे। यहांके यतिवों श्रावकों और राजा रत्नसिंहजोका पहलेसे ही इन्हें पद देनेका पक्ष था, अतः दे दिया गया। इन्हीं बातोंके संकेत इस गहुंलीमें पाये जाते हैं। . __ इनके पश्चात् पट्टधरोंका क्रम इस प्रकार है : जिनहंससूरि-जिनचंद्रसूरि-जिनकीर्तिसूरि, इनके पट्टधर जिनचारित्रसूरिजी अभी विद्यमान है। भूल सुधार जिनेश्वरसूरि (प्रथम) के शि० जिनचंद्रसूरिजीका नाम छूट गया है। उनका रचित 'संवेग-रंगशाला' ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। 2010_05 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडलाचार्य और विद्वद मुनि मंडल भावप्रभसूरि ( पृ० ४६ ) माल्हू शाखा के लुणिग कुल में सव्व शाहकी भार्या राजलदे के आप. पुत्र रत्न थे । श्री जिनराज सूरि ( प्रथम ) के आप ( दीक्षित ) सुशिष्य तथा सागरचन्द्रसूरिजी के पट्टधर थे, आप साध्वाचार का प्रशंसनीय पालन करते थे और अनेक सद्गुणोंके निवासस्थान थे । कीर्त्तिरन सूरि ( पृ० ५१-५२, पृ० ४०१-४१३ ) ओसवंशके संखवाल गोत्रमें शाह कोचर बड़े प्रसिद्ध पुरुष हो गये हैं, उनके सन्तानीय ( वंशज ) आपमल्ल और देपा हुए। इनमें देपाके देवलदे नामक धर्मपत्नी थी, जिसकी कुक्षिसे लक्खा, भादा,केल्हा, देल्हा ये चार पुत्र उत्पन्न हुए । इनमें देल्हा कुंवरका जन्म: सं० १४४६ में हुआ था, १४ वर्षकी लघु वयमें (सं० १४६३ आषाढ़ वदी ११ ) में आपने दीक्षा ग्रहण की थी। श्री जिनबद्ध 'न सूरिजीने आपका शुभ नाम 'कीर्त्तिराज' रखा और शास्त्रोंका अध्ययन भी स्वयं आचार्यश्री ने कराया । विद्वान होनेके पश्चात् सं० १४७० में वाचनाचार्य पद ( जिनवर्द्धन सूरिजीने) और सं० १४८० में उपाध्याय पद महेवेमें जिनभद्र सूरिजीने प्रदान किया, अतः माता देवलदेको बड़ा हर्ष हुआ । सिन्धु और पूर्व देशोंकी तरफ विहार करते. 2010_05 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार हुए आप जैसलमेर पधारें। वहां गच्छनायक जिनभद्र सूरिजीने योग्य जानकर सं० १४६७ माघ शुक्ला १० को आचार्य पद प्रदान किया और “कीर्तिरत्न सूरि" के नामसे प्रसिद्धि की। उस समय अापके भ्राता लक्खा और केल्हाने विस्तारसे पद महोत्सव किया । ____सं० १५२५ वैशाख बदी ५ को २५ दिनकी अनशन आराधना कर समाधि पूर्वक वीरमपुरमें आप स्वर्ग सिधारे । जिस समय आपका स्वर्गवास हुआ, आपके अतिशयसे वहांके वीर जिनालयमें देवोंने दीपक किये और मन्दिरके दरवाजे बन्द हो गये । वहां पूर्व दिशामें संघने स्तूप बनवाया जो अब भी विद्यमान है। वीरमपुर, महेवेके अतिरिक्त जोधपुर, आबू आदि स्थानोंमें भी आपकी चरणपादुकाएं स्थापित की गयीं। जयकीर्ति और अभैविलास कृत गीत नं०७८ से ज्ञात होता है कि सं० १८७६ वैशाख ( आषाढ़) कृष्णा १० को गड़ाले (नाल-बीकानेरसे ४ कोस ) में आपका प्रासाद बनवाया गया था। गीत नं०५ (सुमतिरंग कृत छंद) और नं०८ में कुछ नवीन बातोंके साथ विस्तारसे वर्णन हैं जिनका सार यह है: जालंधर देशके संखवाली नगरीमें कोचर शाह निवास करते थे, उनके दो भार्यायें थीं, जिनमें लघु पत्नीके रोलू नामक पुत्र हुआ, उसे एक दिन अर्द्धरात्रिके समय काले सर्पने डंक मारा । विषसे अचेतन होनेसे कुटम्बीजन उसे दहनार्थ, स्मशान ले गये, इसी समय खरतर गच्छनायक जिनेश्वरसूरिजी वहीं थे उन्होंने अपने आत्मबलसे उसे निर्विष कर दिया । रोलू सचेत हो 2010_05 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह घर आया, कुटम्बमें आनन्द छा गया और कोचर शाह तभी से ( सं० १३१३ ) खरतर गच्छानुयायी श्रावक हो गये और उन्होंने जिनेश्वरसूरिजीके हस्तकमल से जिनालयकी प्रतिष्ठा करवाई। इसके बाद कोचर शाह कोरटेमें जा बसे वहां उनके कुलगुरु (पूर्वके गुरू, अन्य गच्छीय ) के पुनः अपने गच्छमें आनेके लिये बहुत " अनुरोध करनेपर भी आप विचलित न हुए । -- वहां सत्तूकार- दानादि शुभ कृत्य करते हुए आनन्दपूर्वक रहने लगे । रोलूके आपमल्ल और देपमल्ल नामक दो पुत्र हुए। इनमें देपमल्लकी भार्या देवलदेकी कुक्षिसे १ लक्खा, २ भादा, ३ केल्हो, ४ देल्हा ये ४ पुत्र उत्पन्न हुए । इनमें लक्खोको लक्ष्मीने प्रसन्न हो ७ पीढ़ियोंतक रहनेका वरदान दिया और वे वीसलपुर में रहने लगे भादा जैसलमेर, केल्हा महेवा रहने लगा और चौथे लघु पुत्र देल्हेका वृतांत यह है:- सं० १४४६ में आपका जन्म हुआ, १३ वर्षकी अवस्थामें विवाह करनेके लिये आप बरात लेकर राद्रह जाने लगे। मार्ग में खीमजथलके समीप जान ( बरात ) ठहरी वहां एक खेजड़ीका वृक्ष था उसे देखकर एक राजपूतने कहा कि इस वृक्षके ऊपरसे जो बरछी निकाल देगा मैं उससे अपनी पुत्रीका पाणिग्रहण कर दूंगा । देल्हे कुमारके इशारेसे उनके सेवक (नाई ने राजपूतके कथनानुसार कर दिखाया पर इस कार्यको करनेमें अधिक परिश्रम लगनेसे उसका प्राणान्त हो गया, इस घटनासे + *अन्य प्रमाणोंमें इसका कारण और ही पाया जाता है पर उन सबका विचार स्वतंत्र निबंध में करेंगे । 2010_05 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार. ३६ देल्ह-कुमारको वैराग्य उत्पन्न हो गया और (खरतर) श्री क्षेमकीर्तिजीको वंदनाकर ( अपने ) दीक्षा ग्रहण करनेके भाव प्रकट किये । एवं उनके कथनानुसार जिनवर्द्धन सूरिजीके पास सं० १४६३ में दीक्षा ग्रहण की, दीक्षा ग्रहण करनेके अनन्तर आपने शास्त्रोंका अध्ययन कर गीतार्थता प्राप्त की। सं० १४७० में आपकी योग्यता देखकर जिनवर्द्धनसूरिजीने आपको वाचक पद प्रदान किया। ___ इधर जैसलमेरके जिनालयसे क्षेत्रपालके स्थानान्तर करनेके कारण जिनवर्द्धनसूरिजीसे गच्छभेद हुआ और उनकी शाखा पीपलिया नामसे प्रसिद्ध हुई, नाल्हेने जिनभद्र सूरिजीको स्थापित किया जिनवर्द्धन सूरिजीने कीर्तिराजजी (देल्हकुमार) को अपने पास बुलाया, पर आपको अर्द्धरात्रिके समय वीर (देवता) ने कहा कि उनका आयुष्य तो मात्र ६ महीनेका ही है और जिनभद्र सूरिजीकी भावी उन्नति होने वाली है। इससे आपने जिनवर्द्धन सूरिजीके पास न जाकर चार चतुर्मास महेवेमें ही किये । इसके पश्चात् जिनभद्र सूरिजीके बुलानेपर आप उनके पास पधारे । उन्होंने सं० १४८० में आपको पाठक पद प्रदान किया । शाह लक्खा और केल्हा महेवेसे जैसलमेर आये और गच्छनायकको आमंत्रित कर उन्होंने सं० १४६७ में कीर्तिराजजीको सूरि पद दिलवाया। लक्खा और केल्हाने प्रचुर द्रव्य व्यय कर, महोत्सव किया । लक्खे केल्हेने शंखेश्वर, गिरनार, गौडीपार्श्वनाथ और सोरठ (शत्रुजय आदि) के चैत्यालयोंकी यात्रा की, सर्वत्र लाहिण की एवं आचार्य श्रीको चातुर्मास कराया। कीर्ति 2010_05 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह रत्न सूरिजीके ५१ शिष्य थे, सं० १५२५ बै० शु० ५ को आपका स्वर्गवास हुआ। आपने अपने कुटम्बियोंको ७ शिक्षायें दी जो इस प्रकार हैं:-१ मालवा, थट्टा, सिंध और संखवाली नगरी न जाना, २ गच्छभेदमें शामिल न होना, ३ पाटभक्त होना, ४ दीक्षा न लेना, ५ कोरटे और जैसलमेरमें देहरे बनवाना, ६ जहां बसो, नगरके चौराहेसे दाहिनी ओर बसना ७....... ..............। आपके रचित 'नेमिनाथ काव्य' प्रकाशित है एवं और भी कई स्तवनादि उपलब्ध हैं । आपकी शाखामें अभी जिनकृपाचन्द्र सूरिजी एवं कई यतिगण विद्यमान हैं। उ० जयसागर (पृ० ४००) उजयंत शिखर पर नरपाल संघपतिने 'लक्ष्मी तिलक' नामक विहार बनाना प्रारम्भ किया, तब अम्बा देवी, श्री देवी आपके प्रत्यक्ष हुई और सरसा पार्श्व जिनालयमें श्रीशेष, पद्माक्ती सह प्रत्यक्ष हुआ था। मेदपाट-देशवर्ती नागद्रहके नवखण्डा-पावचैत्यालय में श्री सरस्वती देवी आप पर प्रसन्न हुई थी। श्री जिनकुशल सूरिजी आदि देवता भी आप पर प्रसन्न थे, आपने पूर्व में राजगृह नगर ( उदंड) विहारादि, उत्तरमें नगरकोट्टादि, पश्चिममें नागद्रह आदि की राज सभाओंमें वादिवृन्दोंको परास्त कर विजय प्राप्त की थी आपने संदेहदोलावली वृति, पृथ्वीचन्द्र चरित्र, पर्वरत्नावली, ऋषभ स्तव, भावारिवारण · वृत्ति एवं संस्कृत प्राकृतके हजारों 2010_05 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार स्तवनादि बनाये । अनेकों श्रावकोंको संघषति बनाये और अनेक शिष्योंको पढ़ाकर विद्वान बनाये । वि० आपके शिक्षागुरु श्री मिनराज सूरिजी और विद्यागुरु मिनवर्द्धन सूरिजी थे। सं० १४७५ के लगभग जिनभद्र सूरजीने आपको उपाध्याय पद दिया था। आपने अनेकों देशोंमें विहार किया और अनेकों कृतियां रची थीं, जिनमें मुख्य ये हैं : (१) पर्वरत्नावली कथा (१४७८ पाटण, गा० ३२१) (२) विज्ञप्ति त्रिवेणी (सं० १४८४ सिन्धु देश मल्लिकवाहणपुरसे पाटण -सूरिजीको प्रेषित), (३) पृथ्वीचन्द्र चरित्र (सं० १५०३ प्रल्हादनपुर शि० सत्यरुचिकी प्रार्थनासे रचित), (४) संदेहदोलावली लघुवृति सं० १४६५, (५-६-७) गुरुपारतन्त्र वृत्ति, उपसर्गहर, भावारिवारणवृत्ति (८) भाषामें-वयरस्वामी रास (गा० ३६ सं० १४६०) (६), कुशल सूरि चौ० (१४८१ मल्लिकवाहणपुर) और संस्कृत भाषाके स्तवनादि (सं० १५०३ लि० पत्र १२ जय० भं०) भी अनेकों उपलब्ध हैं। आपके शिष्य परम्परादिके लिये देखें :--विज्ञप्ति त्रिवेणी, जैनसाहित्यनोसंक्षिप्तइतिहास और युगप्रधान-जिनचन्द्र मूरि (पृ० २०३), जैनस्त्रोत्रसन्दोह भा० २। प्रस्तुत ग्रन्थके पृ० १३ में मुद्रित खरतर पट्टावली भी आपके आदेशसे रचित है। क्षेमराजोपाध्याय (पृ० १३४) छाजहड़ गोत्रीय शाह लीलाकी पत्नी लीलादेवीके आप पुत्र थे। 2010_05 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सं० १५१६ में गच्छ नायक जिनचन्द्र सूरिजीने आपको दिक्षा दी थी। बा० सोमध्वजके आप सुशिष्य थे और उन्होंने ही आपको विद्याध्ययन कराया था। आपके रचित साहित्यकी संक्षिप्त सूची इस प्रकार है :-- . (१) उपदेश सप्ततिका (सं० १५४७ हिसारकोट वास्तव्य श्रीमाली पटु पर्पट दोदाके आग्रहसे रचित, जैनधर्म प्रसारक सभासे प्रकाशित)। (२) इक्षुकार चौ० गा० ५० (६५) हमारे संग्रहमें नं० २५० (३) श्रावक विधि चौ० गा० ७० ( सं० १५४६) हमारे संग्रहमें नं० ७६४। (४) पार्श्वनाथ रास (गा० २५) ५ श्रीमंधरस्तवन, जीरावलास्त०, पार्श्व १०८ नाम स्तोत्र, वरकाणास्त०, ज्ञानपंचमीस्त०, वीरस्त०, समवसरण स्तवन, उत्तराध्यनन सझायादि उपलब्ध हैं। सं० १५६६ आश्विन सु० २ को इनके पास कोटड़ा वास्तव्य मं० लोला श्रावकने व्रत ग्रहण किये थे, जिसकी: नोंध १ गुटकेमें है। अन्य साधनोंसे आपकी परम्परा इस प्रकार ज्ञात होती है : (१) जिनकुशल सूरि, (२) विनयप्रभ (३) विजय तिलक . (४) क्षेमकीर्ति ( इन्होंने जीरावला पार्श्वनाथके प्रसाद ११० शिष्य किये ) इनके नामसे क्षेम शाखा प्रसिद्ध हुई, (५) क्षेमहंस, (६) सोमध्वजजीके (७) आप शिष्य थे। आपके मुख्य ३ शिष्य थे, जिनमेंसे प्रमोदमाणिक्य शि० जयसोम और उनके शि० गुणविनयके लिये देखें युगप्रधान जिनचन्द्र सूरि (पृ० १६७) 2010_05 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यों का ऐतिहासिक सार देवतिलकोपाध्याय [ पृ० ५५ ] भरतक्षेत्रके अयोध्या - बाहड़ गिरि नामक प्रसिद्ध स्थानमें ओशवाल वंशीय भणशाली गोत्रके शाह करमचन्द निवास करते थे और उनकी सुहाणादे नामक पत्नीसे आपका जन्म हुआ था । ज्योतिषीने आपका जन्म नाम 'देदो' रखा । देदा कुमर अनुक्रमसे बड़े होने लगे और ८ वर्ष की वयमें सं० १५४१ में दीक्षा ग्रहण की एवं सिद्धान्तोंका अध्ययन कर सं० १५६२ में उपाध्याय पदसे विभूषित हुए । सं० १६०३ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ को जैसलमेर में अनशन आराधनापूर्वक आपकी सद्गति हुई । अग्नि संस्कार के स्थलपर आपका स्तूप बनाया गया, जो कि बड़ा प्रभावशाली और रोगादि दुःखोंको विनाश करनेवाला है । ४३ सं० १५८३-८५ में आपने दो शिलालेख - प्रशस्तियें रची थी, देखें जै० ले० सं० नं० २१५४/५५ आपके लिखित एवं संशोधित अनेकों प्रतियां बीकानेरके कई भण्डारोंमें विद्यमान हैं । आपके हस्ताक्षर बड़े सुन्दर और सुवाच्य थे । आपके सुशिष्य हर्ष प्रभ शि० हीरकलशकृत कृतियोंके लिये देखें यु० जिनचन्द्र सूरि चरित्र पृ० २०६ एवं आपके शि० विजयराज शि० पद्ममन्दिरकृत प्रवचनसारोद्धार वालावबोध ( सं० २६५१ ) श्री पूज्यजीके संग्रहमें उपलब्ध है । 2010_05 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rrrrrrrrrrrrrrrrrrr ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री देवतिलकोपाध्यायजीकी गुरुपरम्परा इस प्रकार थी। सागर चन्द्र सूरि (१५ वी) शि० महिमराज शि० दयासागरजी केशि० ज्ञानमन्दिरजीके आप सुशिष्य थे। महिमराजके शि० सोमसुन्दरकी परम्परामें सुखनिधान हुए, जिनका परिचय आगे लिखा जायगा । दयातिलकजी [पृ० ४१६] आप उपरोक्त क्षेमराजोपाध्यायजीके शिष्य थे । आपके पिताका नाम वच्छाशाह और माताका वाल्हादेवी था। आप नव-विध परिग्रहके त्यागी और निर्मल पंचमहाव्रतोंके पालनेमें शूरवीर थे। महोपाध्याय पुण्यसागर [पृ० ५७ ] उदयसिंहजीकी भार्या उत्तम दे ने आपको जन्म दिया था। श्रीजिनहंस सूरिजीने स्वहस्तकमलसे आपको दीक्षा दी थी। आप समर्थ विद्वान और गीतार्थ थे। आपके एवं आपके शिष्य पद्मराज कृत कृतियों आदि का परिचय युगप्रधान जिनचंद्र सूरि प्रन्थके पृष्ट १८६ में दिया गया है। उपाध्याय साधुकीर्तिजी [पृ० १३७ ] ओशवाल वंशीय सचिंती गोत्रके शाह वस्तिगकी पत्नी खेमलदेके आप पुत्र थे। दयाकलशजीके शिष्य अमरमाणिक्यजीके आप 2010_05 | Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार . सुशिष्य थे। आप बड़े विद्वान थे। सं० १६२५ मि० ५० १२ आगरेमें अकबर सभामें तपागच्छवालोंको पोषहकी चर्चामें निरुत्तर किया था और विद्वानोंने आपकी बड़ी प्रशंसाकी थी, संस्कृतमें आपका भाषण बड़ा मनोहर होता था। सं० १६३२ माधव (वैशाख) शुक्ला १५ को जिनचन्द्र सूरिजीने. आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था और अनेक स्थानों में विहार कर अनेक भव्यात्माओंको आपने सन्मार्गगामी बनाया था । सं० १६४६ में आपका शुभागमन जालोर हुआ, वहां माह कृष्ण पक्षमें आयुष्यकी अल्पताको ज्ञातकर अनशन उचारण पूर्वक आराधना की और चतुर्दशीको स्वर्ग सिधारे । आपके पुनीत गुणोंकी स्मृतिमें वहां स्तूप निर्माण कराया गया उसे अनेकानेक जन. समुदाय वन्दन करता है। ___ सं० १६२५ के शास्त्रार्थ विजयका विशेष वृतांत आपके सतीर्थं कनक सोम कृत जयतपदवेलिमें विस्तारसे है। सरल और विरोधी होनेसे इसका सार यहां नहीं दिया गया, जिज्ञासुओंको मूल वेलि पढ़ लेनी चाहिये। ___ आपके एवं आपके शिष्य प्रशिष्योंके कृतियोंकी सूची युक जिनचन्द्र सूरि ग्रन्थके पृ० १६२ में दी गयी है। आपकी परम्परामे कविवर धर्मवर्धन अच्छे कवि हो गये हैं, जिनका परिचय "राजस्थान" पत्र (वर्ष २ अंक २) में विस्तारसे दिया गया है। महोपाध्याय समयसुन्दर (पृ० १४६ से १४८) पोरवाड़ ज्ञातीय रूपशी शाहकी भार्या लीलादेकी कुक्षिसे 2010_05 .. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह साचौरमें आपका जन्म हुआ था । नवयौवनावस्थामें यु० जिनचन्द सूरिजी हस्तकमलसे आप दीक्षित हुए थे । श्री सकलचन्द्रजीके आप शिष्य थे और तर्क व्याकरण एवं जैनागमोंका उच्चतम अभ्यास कर (गीतार्थता - ) पांडित्य प्राप्त किया था । सम्राट अकबरको एक पद (राजा नो ददते सौख्यम्) चमत्कृत ८ लाख अर्थ बतलाकर के ( रञ्जित) किया था । विद्वद् समाज और श्री संघमें आपकी असाधारण ख्याति थी । लाहौर में जिनचन्द्र सूरिजीने आपको वाचक पद प्रदान किया था । आपके महत्वपूर्ण कार्यकलाप ये हैं: (१) जैसलमेरके रावल भीमको प्रसन्न कर मयणों द्वारा मारे जानेवाले सांडा - जीवोंको छुड़ाया था । (२) शीतपुर ( सिद्धपुर) में मखनूम महमद शेखको प्रतिबोध देकर पांच नदीके ( जलचर ) जीवों - विशेषतया गायोंकी रक्षाका पटह बजवानेका प्रशंसनीय कार्य किया था (३) मंडोवराधिपतिको रञ्जित कर मेडतेमें बाजे बजवाने द्वारा शासन प्रभावना की थी । (४) परोपकारार्थ अनेकों ग्रन्थों - भाषा काव्योंकी ( वृत्तियें, गीत, छन्द) प्रचुर प्रमाणमें रचना की थी । (५) गच्छके सभी मुनियोंको (गच्छ) पहिरामणी की थी । (६) सं० १६६१ में क्रिया - उद्धारकर कठिन साध्वाचार पालनका आदर्श उपस्थित किया था । (७) आपका शिष्य - परिवार बड़ा विशाल और विद्वान् था । वादी हर्षः नन्दन जसे आपके उद्भट विद्वान शिष्य थे । श्री जिनसिंह 2010_05 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Arnavimun काव्योंका ऐतिहासिक सार ४७ सृरिजीने लवेरेमें आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था। सं० १७०२ के चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको अहमदाबादमें अनशन आराधनापूर्वक आप स्वर्ग सिधारे । आपके विस्तृत कृति-कलापकी संक्षिप्त सूची यु० जिनचन्द्र सूरि प्रन्थके पृ० १६८ में दी गयी है। यश कुशल (पृ० १४६) .. श्री कनकसोमजीके आप शिष्य थे। हमारे संग्रहके (अन्य) गीत द्वयसे ज्ञात होता है कि हाजीखानड़ेरे (सिंध) में आपका स्वर्गवास हुआ था । वहां आपका स्मृति मंदिर है आपके शिष्य भुवनसोम शि० राजसागरके गीतानुसार आप बड़े चमत्कारी थे और आपके परचे (चमत्कार) प्रत्यक्ष और प्रसिद्ध हैं। राजसागरने सं० १७५६ फाल्गुन शुक्ला ११ को वहांकी यात्रा की । आपके गुरू कनकसोमजीका परिचय देखें:-युग० जिनचन्द सूरि पृ० १६४ । करमसी (पृ० २०४) आपकी जन्मभूमि जेसलमेर है। आपके पिताका नाम चांपा शाह, माताका चांपल दे और गोत्र चोपड़ा था। आप बड़े तपस्वी थे। २५० बेले ( छ? भक्त याने २ उपवास) और निवी आम्बिलादि तो अनेकों किये थे। बैशाख शुक्ला ७ को आपने संथारा किया था और आपका गच्छ खरतर था। 2010_05 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सुखनिधान ( पृ० २३६ ) आप हुंबड गोत्रीय और श्री समयकलशजोके सुशिष्य थे । आपके लिखित अनेकों प्रतियां हमारे संग्रहमें हैं, जिनसे ज्ञात होता. है कि आप सागरचन्द्रसूरि - सन्तानीय थे । आपकी परम्परा के नाम ये हैं: - (१) सागरचन्द्रसूरि, (२) वा० महिमराज, (३) वा० सोमसुन्दर, (४) वा० साधुलाभ, (५) वा० चारुधर्म, (६) वा० समयकलशजीके आप शिष्य थे । आपके शिष्य गुणसेनजीके रचित भी कई स्तवनादि उपलब्ध हैं और उनके शिष्य यशोलाभजी तो अच्छे कवि हो गये हैं। उनके लिखित और रचित अनेकों कृतियां हमारे संग्रहमें हैं । विशेष परिचय यथावकाश स्वतन्त्र लेखमें दिया जायगा । वाचनाचार्य पद्मम ( पृ० ४२० ) आप गोल्छा गोत्रीय चोलगशाहकी पत्नी चांगादेकी कुक्षिसे अवतरित हुए थे। आपको लघुवयमें युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरिजीने अपने कर-कमलोंसे दीक्षित कर श्री० तिलककमलजीके शिष्य बनाए । ३७ वर्ष पर्य्यन्त निर्मल चारित्र - रत्नका पालन करते हुए सं० १६६१. में वालसीसर पधारे, चातुर्मास वहींपर किया । ज्ञानबलसे अपना अन्त समय निकट जानकर विशेष रूपसे आराधना और पभ्वपरमेष्टिका ध्यान करते हुए छः प्रहरका अनशन व्रत पालनकर मिती भाद्रव कृष्णा १५ को मध्याह्नके समय स्वर्गलोकको प्रयाण कर गए। ४८ 2010_05 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार लकिल्लोल ( पृ० २०६ ) ४६ .7 1 श्रीकीर्तिरत्नसूर शाखाके विमलरंगजीके आप शिष्य थे । आप श्रीमाली लाड़णशाहकी पत्नी लाडिमदेके पुत्र थे । सं० १६८१ में गच्छपतिके आदेशसे आप भुज पधारे। वहां कार्तिक कृष्णा षष्टीको अनशन आराधनापूर्वक आपका स्वर्गवास हुआ । शाह पीथा - हाथीरामसिंह मांडण आदि भुज नगरके भक्तिवान श्रावकोंके उद्यमसे पूर्व दिशा की ओर आपकी चरणपादुकाएं मार्गशीर्ष कृष्णा ७ को स्थापित की गयी । आपका विशेष परिचय यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० २०६ में दिया गया है । विमलकोर्ति ( पृ० २०८ ) हुबड़ गोत्रीय श्रीचन्दशाहको पत्नी गवरादेवी आपकी जन्मदातृ थी । आपने सं० १६५४ माह शुक्ला ७ को साधुसुन्दरोपाध्यायके पास दीक्षा ग्रहण की। श्रीजिनराजसूरिजीने आपको वाचक पदसे अलंकृत किया था । सं० १६६२ में ( मुलताण चतुर्मास आये ) किरहोर - सिन्ध में आप स्वर्ग सिधारे । आपकी कृतियोंकी सूची युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पृ० १६३ में दी गई है । सं० १६७६ मि० सु० ६ जिनराजसूरिजीके उपदेशसे बा० विमलकीर्तिजीके पास श्राविका पेमाने १२ व्रत ग्रहण किये । ४ 2010_05 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वाचनाचार्य सुखसागर ( पृ० २५३ ) वाचनाचार्यजी साध्वाचार की कठिन क्रियाओंको पालन करनेमें बड़ा यत्न करते थे । सं० १७२५ में गच्छनायक के आदेशसे और स्तम्भ तीर्थकी यात्राके लिये खम्भातमें चतुर्मास किया । चतुर्मास सानन्द पूर्ण हुआ । सर्व नर-नारी आपके वचनकलासे प्रसन्न थे । चतुर्मास अनन्तर ज्ञानबलसे अपना आयुष्य अल्प ज्ञातकर अनशन आराधना पूर्वक मार्गशीर्ष कृष्णा १४ सोमवारको स्वर्ग सिधारे । उस समय आप सावचेती के साथ उतराध्ययन सूत्रका श्रवण कर रहे थे, श्रावक समुदाय आपके सन्मुख बैठा था । स्वर्गप्राप्ति के पश्चात् वहां आपकी पादुकाऐं स्थापित की गई । वा० हीरकीर्ति ५० ( पृ० २५६ ) युग० श्रीजिनचन्द्रसूरिके शिष्य वा० तिलककमल शि०पद्महेमके शिष्य दानराज, निलयसुन्दर, हर्षराजादि थे । इनमें दानराजजीके शिष्य हीरकीर्ति गोलछा गोत्रीय थे । सं० १७२६ में जोधपुरमें आपका चतुर्मास था। वहीं श्रावण शुक्ला १४ को ८४ लाख जीवायोनियोंसे क्षमतक्षामणाकी, दो प्रहरके अणशण आराधनापूर्वक आपका स्वर्गवास हुआ । आपकी स्मृतिमें इसी संवतमें माघ कृष्णा १३ सोमवारको (१) पद्मम, (२) दानराज, (३) निलयसुन्दर, (४) हर्ष राजकी पादुकाओंके साथ आपकी पादुकाएं भी स्थापित की गई । 2010_05 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार आपकी परम्परादिके विषयमें युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ग्रन्थ (पृ० १७३) देखना चाहिये । . उ० भावप्रमोद (पृ० २५८) 'श्रीजिनराजसूरि (द्वितीय) के शि० भावविजयके शिष्य भावविनयजीके आप सुशिष्य थे । बाल्यावस्थामें ही आपने चारित्रका ग्रहण किया था। श्रीजिनरत्नसूरिजीने आपके विमलमतिकी प्रशंसा की थी और उनके पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरिजी तो आपको (विद्वतादि गुणोंके कारण ) अपने साथ ही रखते थे। आप बड़े प्रभावशाली और उपाध्याय पदसे अलंकृत थे। सं० १७४४ माघ कृष्णा ५ गुरुवारके पिछले प्रहर, अनशन (भवचरिम-पचक्खाण ) द्वारा समाधिपूर्वक आप स्वर्ग सिधारे । ____ आपके शि० भावसागर रचित सप्तपदार्थी वृति (१७३० भा० सु० बेनातट, पत्र ३७ ) कृपाचन्द्र सूरि भं० (बं० नं० ४६ नं० ६११) में उपलब्ध है। चंद्रकीर्ति (पृ० ४२१) सं० १७०७ पोष कृष्ण १ को बिलाड़ेमें आपका अनशन आराधन सह स्वर्गवास हुआ। यह कवित्त आपके शि० सुमतिरंगने रचा है , जो कि अच्छे कवि थे । देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० २०६, ३१५ . कविवर जिनहर्ष - (पृ० २६१) खरतर गच्छीय शान्तिहर्षजीके शिष्य कविवर जिनहर्ष अट्ठा 2010_05 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह . रहवीं शताब्दीके सुप्रसिद्ध कवि थे। आपने मंद-बुद्धियोंके लाभार्थ शत्रुजय-महात्म्य जैसे अनेकों विशाल ग्रंथोंकी भाषा चौपाइ रचकर बहुत उपगार किया । आप साध्वाचार पालनेमें सदा उद्यम करते रहते थे, और आपके व्रत नियम अन्तिम अवस्था तक खड़ित थे। आपके अनेकानेक सद्गुणोंमें १ गच्छममत्वका त्याग (जिसके उदाहरण स्वरूप सत्यविजय पन्यास रास प्रकाशित ही है)२ जन समुदाय अनुवृत्तिका त्याग ३ ऋजुता ४ राग द्वेषका उपशम आदि मुख्य है। आप रास चौपाई आदि भाषा काव्योंके निर्माण करनेमें अप्रमत्त रह, ज्ञानका बड़ा विस्तार करते रहते थे। ___ आपके गच्छममत्व परित्यागके सदगुणसे तपागच्छीय वृद्धिविजयजीने आपके व्याधि उत्पन्न होनेके समयसे बड़ी सेवा-भक्ति और वैयावच्चकी थी और अन्तिम आराधना भी उन्होंने ही कराइ थी। पाटणमें आप बहुत वर्षों तक रहे थे, आपका स्वर्गवास भी वहीं हुआ, श्रावकोंने अंत-क्रिया ( मांडवी रचनादि) बड़ी भक्तिसे की। आपके विशाल कृतियों नोंध जै० गु० क० भा० २ में देखनी चाहिये । उसके अतिरिक्त और भी कइ रास आदि हमें उपलब्ध हैं, उनमें मुख्य ये हैं:-१ मृगापुत्रचौ०(१५१५ मा०व० १० सत्यपुर) (२) कुसम श्री रास (१७१७ मि० १३) (३) यशोधर रास (१५४७ वै० सु० ८ पाटण) (४) कनकावती रास (अपूर्ण) ५ श्रीमतीरास ( १७६१ :मा० सु० १० पाटण, ढाल १४, रामलालजी यतिका संग्रह ) और स्तवन सज्ञायादि अनेक उपलब्ध है। 2010_05 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार कवि अमरविजय (पृ० २४८) .. आप वाचक उदय तिलक (जिनचंद्रसूरिशि०) के शिष्य थे। आप अच्छे विद्वान और सुकवि थे, आपके रचित कृतियोंकी संक्षिप्त नोंध इस प्रकार है : १ रात्रि भोजन चौ० (सं० १७८७ द्वि० भा० सु० १ बु० नापासर, शांतिविजय आग्रह) २ सुमंगलारास (प्रमाद विषये) सं० १७७१ ऋतुराय पूर्णतिथि । ३ कालाशबेली चौ० ( १७६७ आखातीज, राजपुर ४ धर्मदत्त चौ० ( १८०३ धनतेरस राहसर, पत्र ६६) ५ सुदर्शनसेठ चौ० ( १७६८ मा० सु० ५ नापासर ) ६ मेताराज चौ० (१७८६ श्रा० सु० १३ सरसा) जय० भं० ७ सुकमाल चौ० (बृहत् ज्ञानभंडार-बीकानेर) ८ सम्यक्ख ६७ बोलसझाय (सं० १८००) जय० भं० ६ अरिहंत १२ गुणस्तवन (१७६५) गा० १३ जय० भं० १० सिद्धाचल स्तवन ( १७६६ ) गा० १५ जय० भं० ११ सुप्रतिष्ठ चौ० ( १७६४ मि० मरोट) जै० गु० कविओ भा०२ पृ०५८२ __ १२ केशी चौ० ( १८०६ विजयदशमी गारबदेसर ) रामलाल जी संग्रह। . १३ मुंछ माखड कथा पत्र ६ (सं० १७७५ विजयदशमी) हमारे संग्रहमें नं० २२८ । 2010_05 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री अमर विजयजीके शि० लक्ष्मीचन्द कृत सुबोधिनीवैद्यकादि ग्रन्थ उपलब्ध है और द्वि०शि० उ० ज्ञानबर्द्धन शि० कुशलकल्याण शि० दयामेरुकृत ब्रह्मसेन चौ० ( सं० १८८० जेठ सु० १ बु, भावनगर ) उपलब्ध है। आपकी परम्परामें यतिवर्य जयचंदजी अभी विद्यमान है। सुगुरुवंशावली (पृ० २०७) जिनभद्र-जिनचन्द्र, जिनसमुद्र-जिनहंससूरिजीके पट्टधर जिनमाणिक्यसूरिजी थे। उनके पारखवंशीय वा० कल्याणधीर नामक शिष्य थे। उनके भणशाली गोत्रीय वा० कल्याण लाभ और कल्याणलाभके उ० कुशललाभ नामक विद्वान शिष्य थे। इनका विशेष परिचय यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० १६४ में देखना चाहिये । श्रीमद देवचन्द्रजी (पृ० २६४) बीकानेर नगरके समीपवर्ती एक रमणीय ग्राम था, वहां लुणिया शाह तुलसीदासजी निवास करते थे, उनके धनवाइ नामक शीलवती पत्नी थी। एक समय खरतर वा० राजसागरजी वहां पधारे । दम्पतिने भावसे उन्हें वंदना की और धनबाइने जो कि उस समय गर्भवती थी, कहा कि यदि मेरे पुत्र होगा तो आपको वहरा दूंगी।गर्भ दिनों-दिन बढ़ने लगा, उत्तम गर्भके प्रभावसे असाधारण स्वप्न और उत्तम दौहद उत्पन्न होने लगे । इसी समय वहां जिनचन्द्र सूरिजी का शुभागमन हुआ इस समय धन बाइके एक पुत्र तो विद्यमान 2010_05 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nary काव्योंका ऐतिहासिक सार था और गर्भवती थी। लक्षणोंसे गुरुश्रीने उनके फिर भी पुत्र होने का निश्चय किया और "इस द्वितीय पुत्रको हमें देना” कहा, पर धनबाई वाचकश्रीको इससे पूर्व ही वचन दे चुकी थी। सं० १७४६ में पुत्र उत्पन्न हुआ, गर्भके समय स्वप्नमें इन्द्र आदि देवों द्वारा मेरु पर्वतपर प्रभुका स्नात्र महोत्सव किये जानेका दृश्य देखा था। उसीके स्मृति सूचक नवजात बालकका शुभ नाम. 'देवचन्द्र' रखा । अनुक्रमसे वृद्धि पाते हुए जब वह बालक ८ वर्षका हुआ, उस समय वा० राजसागरजीका फिर वहीं शुभागमन हुआ दम्पत्ति (धनबाइ) ने अपने वचनानुसार अपने होनहार बालकको मुरु श्रीके समर्पण कर दिया । गुरु श्रीने शुभ मुहूर्त देख सं० १५५६ • में लघु दीक्षा दो। यथासमय जिनचन्द्र सूरिजीके पास बड़ी दीक्षा दिलाई गई, सूरिजीने नव दीक्षित मुनिका नाम 'राजविमल' रखा। राजसागरजीने प्रसन्न होकर आपको सरस्वती मन्त्र प्रदान किया, श्रीदेवचन्द्रजीने बेनातट ( बिलाड़ा ) ग्रामके भूमिग्रहमें रहकर उस का साधन किया, देवी सरस्वती आपपर प्रसन्न हुई जिसके फल स्वरूप थोड़े ही समयमें आप गीतार्थ हो गये।। ___ गुरुश्रीने स्वपरमतके सभी आवश्यक और उपयोगी शास्त्र पढ़ाकर आपके प्रतिभामें अभिवृद्धि की। उन शास्त्रोंमें उल्लेखनीय ये हैं -षडावश्यकादि जैन आगम, व्याकरण, पञ्चकल्प, नैषध, नाटक, ज्योतिष, १८ कोष, कौमुदीमहाभाष्य, मनोरमा, पिङ्गल, स्वरोदय, तत्वार्थ, आवश्यक बृहदवृत्ति, हेमचन्द्रसूरि, हरिभद्रसूरि और यशोविजयजी कृत ग्रन्थ समूह, ६ कर्म ग्रन्थ, कर्म प्रकृति इत्यादि । 2010_05 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सं० १७७४ में वाचक राजसागर और १७७५ में उपाध्याय ज्ञानधर्मजी स्वर्ग सिधारे । मरोटमें देवचन्दजीने विमलदासजी की पुत्री माइजी, अमाइजीके लिये 'आगमसार' ग्रन्थ बनाया । सं० १७७७ में आप गुजरात-पाटण पधारे, वहां तत्वज्ञानमय स्यादवाद युक्त आपके व्याख्यान श्रवणार्थ अनेकों लोग आने लगे । इसी समय श्रीमाली ज्ञातीय नगरसेठ तेजसी दोसीने जो कि पूर्णिमा गच्छीय श्रावक थे, अपने गुरु श्रीभावप्रभसूरि ( जिनके पास विशाल ग्रन्थ भण्डार था, और अनेकों शिष्य पढ़ते थे) के उपदेश से सहस्त्रकूट जिनालय निर्माण कराया था। एक बार देवचन्द्र जी उक्त नगर सेठ जीके घर पधारे और उनसे सहस्त्रकूटके १०००जिनोंके नाम आपने अपने गुरुश्रीसे श्रवण किये होंगे ? पूछा । श्रेष्ठिने चमत्कृत होकर प्रत्युत्तर दिया कि भगवन् ! नहीं सुने । इसी अवसरपर ज्ञानविमल सूरिजी पधारे । श्रष्टिने उन्हें वन्दन कर सहस्त्रकूटके १००० नाम पूछे। उन्होंने नाम व उल्लेख-स्थान फिर कभी वतलानेका कहकर श्रेष्ठिकी जिज्ञासा शान्ति की । अन्यदा पाटण - साहीपोलके चौमुख वाड़ी पार्श्वनाथजीके मन्दिरमें सतरह भेदी पूजा पढ़ाई गई उसमें श्रीदेवचन्द्रजी और ज्ञानविमल सूरिजी भी सम्मिलित हुए । इसी समय सेठ भी दर्शनार्थ वहां पधारे और मूरिजीको देख फिर पूर्व जिज्ञासा जागृत हुई, अतः सूरिजीको सहस्रकूट जिन के नामोंकी पृच्छा की, उन्होंने उत्तर में 'प्राय: सहस्त्रकूट जिन नामोंकी नास्ति ( विच्छेद ) ज्ञात होती है, सम्भव है कोई शास्त्रमें हो, कहा' । इन बचनोंको श्रवण कर देवचन्द्रजीने उनसे कहा ५६ 2010_05 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यों का ऐतिहासिक सार ५७ कि आप तो श्रेष्ठ विद्वान कहलाते हैं फिर ऐसे अयथार्थ कैसे कहते हैं, और ऐसे बचनोंसे श्रावकोको प्रतीति भी कैसे हो सकती है । यह सुनकर ज्ञानविमलसूरिजी कुछ तड़ककर बोले:- तुम मरुस्थलके वासी हो, शास्त्रके रहस्यको क्या जानो ! जिसने शास्त्रोंका अभ्यास किया है, वही जान सकता है । इसी समय श्रेष्ठिने कहा, सूरिजी मुझे इस बातका निर्णय करना है । तब सूरिजीने देवचन्द्रजीसे कहा कि तुम्हें व्यर्थका विवाद पसन्द ज्ञात होता है | ( मारवाड़ी कहावत "बेंवती लड़ाइ मोल लेबे") अन्यथा यदि तुम्हें सहस्त्रकूट के नाम ज्ञात हो तो बतलाओ । देवचन्द्रजीने शिष्यकी ओर देखा, तब विनयी शिष्य मनरुपजीने रजोहरणसे सहस्त्रकूट के नामोंका पत्र निकालकर गुरुश्रीके हाथमें दिया | ज्ञानविमलसूरिजीने उसे पढ़कर आश्चर्यान्वित हो देवचन्द्र जीसे पूछा कि आपके गुरुश्रीका नाम शुभ नाम क्या है ? उत्तरः- उपाध्यायराजसागरजी । तब सूरिजीने कहा, आपकी परम्परा ( घराना) तो विदू परम्परा है, तब भला आप विद्वान कैसे नहीं होंगे, इत्यादि मृदुवाक्यों द्वारा बहुमान किया । श्रेष्ठि तेजसीका मनोरथ पूर्ण हुआ, सहस्त्रकूट नामोंकी देवचन्द्रजीने प्रसिद्धि की । प्रतिष्ठादि अनेक उत्सव हुए । इसके बाद देवचन्द्रजीने परिग्रहका सर्वथा परित्याग कर क्रियाउद्धार किया। सं० १७७७ में आप अहमदाबाद पधारे, नागौरी सराय में अवस्थिति की । आपकी अध्यात्म रसमय देशना श्रवण कर श्रोताओंको अपूर्व आल्हाद उत्पन्न हुआ । श्रीमद् देवचंद्रजी 2010_05 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह भगवती सूत्रके गम्भीर रहस्योंको उद्घाटन करने लगे। आपके उपदेशसे माणिकलालजी दूढ़ियेने मूर्ति पूजा स्वीकार की, इतना हो नहीं उन्होंने नवीन चैत्य कराके गुरुश्रीके हाथसे प्रतिष्ठा भी करवाई। श्रीमद्ने शान्तिनाथ पोलके भूमिगृहमें सहस्त्रफणादि अनेकों बिम्बों की प्रतिष्ठा की, इन प्रतिष्ठादि कार्योंमें प्रचुर द्रव्य खर्च किया गया और जैन धर्मकी महती महिमा हुई। ____सं० १७७६ में आपने खम्भातमें चौमासा कर अनेक भव्योंको प्रतिबोध दिया। व्याख्यानमें आपने शत्रुञ्जय तीर्थकी महिमा बतलाई, इससे श्रावकोंने शत्रुजयपर कारखाना स्थापित कर नवीन चैत्य और जीर्णोद्धार करवाना आरम्भ किया। सं० १७८१-८२-८३ में कारीगरोंने वहां चित्रकारी आदिका बड़ा ही सुन्दर काम किया । ( वहांसे विहार कर) राजनगर आये, चातुर्मासके लिये सूरतकी विशेष आग्रहपूर्वक विनती होनेसे आप सूरत पधारे । सं० १७८५८६-८७ में पालीताने एवं शत्रुजंयमें वधुशाह कारित चैत्योंकी देवचन्द्रजीने प्रतिष्ठा की और पुनः राजनगर आकर सं० १७८८ का चतुर्मास वहां किया । इस समय वाचक दीपचंदजीके व्याधि उत्पन्न हुई और आषाढ़ शुक्ला २ को वे स्वर्ग सिधारे । तपागच्छीय विनयी विवेकविजयजीको आप विद्याध्ययन कराने लगे और उन्होंने भी आपकी वैयावच्च-सेवा-भक्ति कर गुरु-कृपा प्राप्त की। ___ अहमदाबादमें शाह आणन्दरामजी जो कि रतन भंडारीके अग्रेश्वरी थे, गुरुश्रीसे नित्य धर्म-चर्चा किया करते थे और गुरुश्रीके ज्ञानकी गरिमासे चमत्कृत हो उन्होंने रतन भंडारीके आगे आप 2010_05 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार ५६ की प्रशंसा की, कि मरुस्थलीके ज्ञानी साधु पधारे हैं। उनके बचनोंसे रत्नसिंह भी आपको बंदनार्थ पधारे और गुरुश्रोसे ज्ञान सुधाका सेवन कर बड़े प्रसन्न हुए। देवचन्द्रजीके उपदेशसे रतन भंडारी नित्य जिन पूजनादि करने लगे, एवं वहां बिम्ब प्रतिष्ठा, १७ भेदी पूजा आदि अनेकानेक धर्मकृत्य हुआ करते, उनमें भी भंडारीजी सम्मिलित होने लगे। एक बार राजनगरमें मृगीका उपद्रव हुआ, तब भंडारीजीने उसे निवारणार्थ गुरुश्रीसे विनयपूर्वक विज्ञप्ति की। आपने शासन प्रभावनादि लाभ जानकर जैन मंत्रान्नायसे उसे निवारण कर मनुष्यों का कष्ट दूर किया। इससे जिन-शासन और देवचन्द्रजीकी सर्वत्र सविशेष प्रशंसा होने लगी। ___ इसी समय रणकुजी बहुत सेना लेकर रत्नभंडारीसे युद्ध करने आये। भंडारीजी तत्काल गुरुजीके पास आये, क्योंकि उन्हें गुरुश्रीका पूरा विश्वास था, वे अपने सहायक और सर्वस्व एकमात्र आपको ही मानते थे। अतः गुरुश्रीसे निवेदन किया कि सैन्य बहुत आया है, युद्धमें विजय अब आपके ही हाथ है। गुरुश्रीने आश्वासन देकर जैनमन्त्राम्नायका प्रयोग किया, अतः युद्ध में रणकुजी हारे और भंडारीजीकी विजय हुई। धोलका बास्तव्य श्रेष्ठि जयचंदने पुरुषोतम योगीको गुरुश्रीके चरण कमलोंमें नमन कराया । गुरुश्रीने योगीके मिथ्यात्व शल्यको निवारणकर उसे जैनशासनानुरागी बनाया। सं० १७६५ पालीताने और १७६६-६७ में नवानगरमें चतुर्मास किया। वहां आपने ढुढकोंके 2010_05 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह टोलोंको विजय कर नवानगरके चैत्योंकी पूजा, जिसे ढुढ़कोंने बन्ध करा दी थी पुनः सञ्चालित की। परधरी ग्रामके ठाकुरको आपने प्रतिबोध दिया और वे गुरु आज्ञामें चलने लगे। फिर पालीताना और पुनः नवानगर चतुर्मास कर १८०२-३ में राणाबाबमें पधारे। वहांके अधिपतिके भंगदर रोगको नष्ट किया, अतः वह भी आपका भक्त हो गया। . सं० १८०४ में भावनगर पधारे, वहां मेहता ठाकुरसी कट्टर ढुढ़कानुयायी थे, उन्हें प्रतिबोध दिया एवं वहांके ठाकुरको भी जैनमतानुरागी बनाया। सं० १८०४ में पालीतानेके मृगी उपद्रवको भी आपने नष्ट किया । सं० १८०५ में लीबड़ी पधारे और वहांके श्रावक डोसो बोहरा, शाह धारसी, शाह जयचन्द, जेठा, रहीकपासी आदिको विद्याध्ययन कराया । लीबड़ी, ध्रागंदा, चूड़ा इन तीन गावोंमें ३ प्रतिष्ठाएं की। ध्रागंदामें प्रतिष्ठाके समय सुखानन्दजी आपसे मिले थे। ____ आपके उपदेशसे सं० १८०८ में गुजरातसे शत्रुजंय सङ्घ निकला । गिरिराजपर बड़े उत्सव हुए। वहुतसे द्रव्यका सव्यय हुआ। सं० १८०८-६ का चतुर्मास गुजरातमें किया । १८१० में कचराशाहने शत्रुजंयका सङ्घ निकाला, श्रीदेवचन्द्रजी भी उसके साथ पधारे थे। शाह मोतोया और लालचन्द जैन धर्म में प्रवीण और दानेश्वरी थे। शत्रुञ्जयपर गुरु श्रीने प्रतिष्ठायें की। शाह कचरा, कीकाने ६० हजार रुपये व्यय किये। सं० १८११ में लीबड़ीमें प्रतिष्ठा की । बढ़वाणके दुढ़क श्रावकों 2010_05 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार ६१ को प्रतिबोध देकर मूर्तिपूजक बनायें। उन्होंने सुन्दर चैत्य निर्माण कराये और उनमें अनेकानेक पूजायें होने लगीं। ___श्री देवचन्द्रजीके पास विचक्षण शिष्य मनरूपजी, वादीविजेता विजयचन्द्रजी (एवं अन्य गच्छीय साधु भी आपके पास विद्याध्ययन करते थे) एवं मनरुपजीके वक्तुजो और रायचंदजी नामक शिष्यद्वय रहते थे, एवं गुरु आज्ञामें रहकर गुरुश्रीकी सेवाभक्ति किया करते थे। सं० १८१२ में श्रीमद देवचन्द्रजी राजनगर पधारे , वहां गच्छनायक श्रीपूज्यजीको आमन्त्रित कर उनके द्वारा श्रावक समुदायने बड़े उत्सवसे आपको बाचक पदसे अलंकृत किया। बा० श्री देवचन्दजीकी देशना अमृतके समान थी। आप हरिभद्रसूरि, यशोविजयजीके एवं दिगम्बर गोमट्टसारादि तत्व-ज्ञानके प्रन्थोंका उपदेश देते थे, श्रोताओंकी उपस्थित दिनोंदिन बढ़ने लगी। श्रीमद्ने मुलताण, बीकानेर आदि स्थानों में चतुर्मास किये एवं अनेकों नये ग्रन्थोंकी रचना की, जिनमें देशनासार, नयचक्र, ज्ञानसार अष्टक-टीका कर्मग्रन्थ टीका, आदि मख्य हैं। इस प्रकार शासन उद्योत करते हुए राजनगरके दोसी बाड़ेमें आप विराज रहे थे, उस समय अकस्मात् वायु कोपसे वमनादिकी व्याधि उत्पन्न हुई । श्रीमद्ने अपना आयुष्य निकट ज्ञातकर विनयी शिष्य मनरुपजी और उनके विद्यमान सुशिष्य श्री रायचन्द्रजी (रूपचन्दजी) एवं द्वितीय शिष्य वादी विजयचन्दजी उनके शिष्य द्वय सभाचंद और विवेकचंद्रको योग्य शिक्षा देके उत्तराध्ययन, दशवै 2010_05 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह कालिकादि सूत्र श्रवण करते हुए आत्माराधना कर सं० १८१२ भाद्र कृष्ण अमावस्याको एक प्रहर रात्रि जानेपर स्वर्गवासी हुए। सभी गच्छके श्रावकोंने मिलकर बड़े उत्सवके साथ आपके पवित्र देहका अग्नि-संस्कार किया, गुरुभक्तिमें बहुत द्रव्य व्यय किया गया। श्रीमद्के कार्य और आत्म-जागृतिको देखकर कवि कहता है कि आपको मोक्ष सन्निकट है। ७-८ भवोंके पश्चात् तो अवश्य ही सिद्धिगतिको प्राप्त करेंगे । आपके स्वर्गगमनके समाचारों से देश विदेशमें शोक छा गया। कविके कथनानुसार आपके मस्तक में मणि थी, वह दहन समय उछल कर पृथ्वीमें समा गई। किसी के हाथ नहीं आई। श्रावक संघने स्तूप बनाकर आपकी पादुओंकी स्थापना की। आपके शिष्य मनरुपजी भी गुरु विरहसे आकुल हो थोड़े ही दिनोंमें आपसे स्वर्गमें जा मिले । अभी (रासरचनाके समयमें) भी रायचन्द्रजी योग्यतानुसार व्याख्यानादि देकर धर्म प्रचार करते हैं। उन्होंने अपने गुरुकी प्रशंसा स्वयं करने से अतिशयोक्ति आदिका सम्भव देख प्रस्तुत रास रचनेके लिये कविसे कहा और कविने सं० १८२५ के आश्विन शुक्ला ८ रविवारको यह 'देवविलास रास', बनाया। आपकी कृतियों श्रीमद् देवचन्द्र भा० १-२ में प्रकाशित है। उनके अतिरिक्तके लिये देखें यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० १८६ और ३११। 2010_05 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार महोपाध्याय राजसोम (पृ० ३०५) १६ वीं शताब्दीके सुप्रसिद्ध विद्वान क्षमाकल्याणजीके आप विद्यागुरु थे, अतः उन्होंने आपके गुण-गर्भित यह अष्टक बनाया है। प्रस्तुत अष्टकमें गुणोंकी प्रशंसाके अतिरिक्त इतिवृत्त कुछ भी नहीं है। ____ अन्य साधनोंके आधारसे आपका ज्ञातव्य परिचय इस प्रकार है-आपके रचित (१) ज्ञान पंचमी पूजा सं० (२) सिद्धाचलस्तवन सं० १७६७ फा०व०७ (३) नवकरवाली १०८ गुणस्तवन आदि उपलब्ध हैं, और आपके लि० कई प्रतियें भी प्राप्त हैं। ___ आप क्षेमकीर्ति शाखाके विद्वान थे, परम्पराका नामानुक्रम इस प्रकार है :___ (१) जिन कुशल सूरि (२) विनय प्रभ (३) उ० विजय तिलक (४) उ९ क्षेमकीर्ति (५) तपोरत्न (६) तेजराज (७) वा० भुवनकीर्ति (८) हर्ष कुंजर () वा० लब्धिमंडण (१०) उ० लक्ष्मीकीर्ति ११ सोमहर्ष ( गुरु भ्राता, प्रसिद्ध विद्वान लक्ष्मीवल्लभ ) १२ वा० लक्ष्मी समुद्र (१३) कपूर प्रियजीके १४ शि० आप थे। आपकी परम्परामें (१५) वा० तत्व क्लभ (१६) प्रीतिविलास (१७) पं० धर्म सुन्दर (१८) वा० लाभ समुद्र (१६) मुनिसिंह (२०) अमृत रंग ( अबीरचन्द ) हुए, जोकि सं० १६७१ में स्वर्ग सिधारे । वा० अमृत धर्म (पृ० ३०७) उपाध्याय क्षमाकल्याणजीके आप गुरुवर्य थे, अतः पाठकजीने 2010_05 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अपने गुरुजीकी भक्ति सूचक इस अष्टककी रचना की है। इसका ऐतिहासिक सार इस प्रकार है :____ कच्छ देशमें उपकेश वंशकी वृद्ध शाखामें आपका जन्म हुआ था, श्री जिनभक्तिसूरिजीके शिष्य प्रीतसागरजी ( जिनलाभ सुरिके सतीर्थ-गुरु भ्राता) के आप शिष्य थे। आपने शत्रुजयादितीर्थों की यात्रा थी एवं सिद्धांतोंका योगोवहन किया था। संवेगेरगसे आपकी आत्मा ओतप्रोत थी (इसीसे आपने परिग्रहका त्याग कर दिया था) । पूर्व देशमें आपके उपदेशसे स्वर्णदंडध्वज कलशवाले जिनालय निर्माण हुए थे। अनेक भव्यात्माओंको प्रतिबोध देते हुए आप जैसलमेर पधारे, और वहीं सं० १८५१ माघ शुक्ला ८ को समाधिसे आपको मृत्यु हुई। स्थानांग सूत्रके अनुसार आपकी आत्मा मुखसे निर्गत होनेके कारण, आप देवगतिको प्राप्त हुए ज्ञात होते हैं। आप आप वाचनाचार्य पदसे विभूषित थे। विशेष परिचय उ० क्षमाकल्याणजीके स्वतंत्र चरित्रमें दिया जायगा । उ० क्षमाकल्याण (पृ० ३०८) गुरुभक्त शिष्यने आपके परलोकवासी होनेपर विरहात्मक और गुणवर्णनात्मक इस अष्टक और स्तवको रचा है। स्तवका ऐति-, हासिक सार यही है, कि सं० १८७३ पौष कृष्णा १४ को बीकानेरमें' आप स्वर्ग सिधारे थे। १६ वीं शताब्दीके खरतर विद्वानों में आप अग्रगण्य थे। आपका ऐ० चरित्र हम स्वतंत्र पुस्तकाकार प्रकाशित करनेवाले हैं, अतः यहां विशेष नहीं लिखा गया । 2010_05 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार उ० जयमाणिक्य (पृ० ३१०) यति हरखचन्दजीके शिष्य जीवणदासजीके आप सुशिष्य थे। १६ वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें आपकी अच्छी ख्याति थो। सेवक स्वरूपचन्दने छंदमें सं० १८२५ वैसाखके शुक्ला ६ को आपने (!) जिनचैत्यकी प्रतिष्ठा करवाई, उसका उल्लेख किया है। आपके सुन्दरदास, वस्तपाल, दोपचन्द अरजुनादि कई शिष्य थे, आपका बाल्यावस्थाका नाम 'घमडा' था । आप कीर्तिरत्न सूरि शाखाके थे। ___ हमारे संग्रहमें आपके (सं० १८५५ मिगसर वदी ३ बीकानेरमें) जीवराशि क्षमापनाको टीप है । अतः यथा संभव इसके कुछ दिनों बाद ही बोकानेरमें आपका स्वर्गवास हुआ होगा। आपको दिये हुए आदेशपत्र और अन्य यतियोंके दिये हुए अनेकों पत्र हमारे संग्रहमें हैं। श्रीमद् ज्ञानसार जी (पृ०४३३) जैगलेवास वास्तव्य सांड ज्ञातीय उदैचन्दजीकी पत्नी जीवणदेने सं० १८०१ में आपको जन्म दिया था, सं० १८१२ बीकानेरमें श्री जिनलाभ सूरिजीके शिष्य रायचन्द ( रत्नराज ) जीके आप शिष्य हुए । बीकानेर नरेश सूरतसिंहजी आपके परम भक्त थे । राजा रत्नसिंहजी भी आपको बड़ी श्रद्धाकी दृष्टिसे देखते थे। आपके सदासुखजी नामक सुशिष्य थे। आप मस्तयोगी, उत्तमकवि और राजमान्य महापुरुष थे। आपके रचित समस्त ग्रन्थोंकी हमने नकलें कर ली है जिसे विस्तृत ऐतिहासिक जीवन चरित्रके साथ यथावकाश प्रकाशित करेंगे । 2010_05 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ आर्यामण्डल लावण्य सिद्धी (पृ० २१०) वीकराज शाहकी पत्नी गुजरदेकी आप पुत्री थीं। पहुतणी रत्नसिद्धिकी आप पट्टधर थीं, साध्वाचारको सुचारुरूपसे पालन करती हुई यु० जिनचन्द्रसूरिजीके आदेशसे आप बीकानेर पधारी और वहीं अनशन आराधना कर सं० १६६२ में स्वर्ग सिधारी । वहां आपके स्मृतिमें धुंभ ( स्तूप) बनाया गया। हेमसिद्धि साध्वीने यह गुणगर्भित गीत बनाया है । सोमसिद्धि (पृ० २१२) नाहर गोत्रीय नरपालकी पत्नी सिंघादेकी आप पुत्री थी, आपका जन्म नाम 'संगारी' था, यौवनावस्था आनेपर पिताश्रीने बोथरा जेठाशाहके पुत्र राजसीसे आपका पाणिग्रहण कर दिया । १८ वर्षकी अवस्थामें धर्म-उपदेशके श्रवण करते हुए आपको वैराग्य उत्पन्न हुआ और श्वास-श्वसुरसे अनुमति ले दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होनेपर आपका नाम 'सोमसिद्धि' रखा गया, आपने आर्या लावन्यसिद्धिके समीप सूत्र-सिद्धान्तोंका अध्ययन किया था और उनने आपको अपने पदपर स्थापित की थी। शत्रुजय आदि तीर्थो की आपने यात्रा की थी। श्रावण कृष्णा १४ वृहस्पतिवारको अनशनकर आप स्वर्ग 2010_05 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार सिधारी । पहुत्तणी (संभवतः आपकी पदस्थ) हेमसिद्धिने आपैकी स्मृतिमें यह गीत बनाया। गुरुणी विमलसिद्धि (पृ० ४२२) आप मुलतान निवासो माल्हू गोत्रीय शाह जयतसीकी पत्नी जुगतादे की पुत्री-रत्न थीं। लघुवयमें ब्रह्मचर्य व्रतके धारक अपने पितृव्य गोपाशाहके प्रयत्नसे प्रतिबोध पाकर आपने साध्वी श्री लावण्यसिद्धिके समीप प्रव्रज्या स्वीकार की थी । निर्मल चारित्रको पालन कर अनशन करते हुए बीकानेरमें स्वर्ग सिधारी । उपाध्याय श्रीललितकीर्तिजीने स्तूपके अन्दर आपके सुन्दर चरणोंकी स्थापना कर प्रतिष्ठा की। साध्वी विवेकसिद्धिने यह गीत रचा। गुरुणी गीत (पृ० २१४) आदिकी १॥ गाथा नहीं मिलनेसे आर्याश्रीका नाम अज्ञात है। साउंसुखा गोत्रीय कर्मचन्दकी ये पुत्री थीं। श्री जिनसिंह -सूरिजीने आपको पहुतणी पद दिया था और सं० १६६६ भाद्रकृष्ण २ को विद्यासिद्धि साध्वीने यह गुरुणीगीत बनाया है। MARA KINAN 2010_05 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गच्छ शाखायें जिनप्रभसूरि परम्परा (पृ० ११, १३, १४, ४१, ४२,) वीर-सुधर्म-जम्बू-प्रभव-शय्यंभद्र यशोभद्र-आर्यसंभूति-भद्रबाहु स्थूलिभद्र-आर्यमहागिरि-आर्यसुहस्ती-शांतिसूरि-हरिभद्रसूरि संडिल्लसूरि-आर्यसमुद्र,-आर्यमंगू-आर्यधर्म-भद्रगुप्त-वज्रस्वामी-आर्यरक्षित-आर्यनन्दि-आर्यनागहस्ति-रेवंत-खण्डिल-हिमवन्त नागार्जुन-गोविन्द-भूतदिन्न लोहदित्य-दूष्यसूरि-उमास्वातिवाचक-जिनभद्रसूरि-हरिभद्रसूरि-देवसरि-नेमिचन्द्रसूरि-उद्योतनसूरि-वर्द्धमानसूरि-जिनेश्वरसूरि-जिनचन्द्रसूरि-अभयदेवसुरि-जिनवल्लभसूरि-जिनदत्तसूरि- जिनचन्द्रसूरि-जिनपतिसूरि-जिनेश्वरसूरि-यहां तक तो अनुक्रम सादृश ही है। इसके पश्चात् जिनेश्वरसूरिके पट्टधर जिनसिंहसूरि-जिनप्रभसूरि जिनदेवसूरि-जिनमेरुसूरि (पृ०११) अनुक्रमसे उनके पट्टधर जिनहितसूरि तकका नाम आता है (पृ०४२) इनमें जिनप्रभसूरि जिनदेवसूरिका विशेष परिचय गीतोंमें इस प्रकार है : जिनप्रभस्मृरि जिनप्रभसूरिजीने महम्मद पतिशाहको दिल्लीमें अपने गुण समूहसे रंजित किया। ___ अट्ठाही, अष्टमी चतुर्थीको सम्राट उन्हें सभामें आमन्त्रित करते थे, कुतुबुद्दीन भी आपके दर्शनसे बड़े प्रसन्न हुए थे। पतिशाह महम्मद शाह आपसे दिल्ली में सं० १३८५ पौष शुक्ला ८ 2010_05 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार । ६६ शनिवारको मिले थे, सुरत्राणने आदरसहित नमनकर आपको अपने पास बिठाया, और उनके मृदु भाषणोंसे प्रसन्न होकर हाथी, घोड़े, राज, धन, देश ग्रामादि जो कुछ इच्छा हो, लेनेके लिये विनती करने लग्रा । पर साध्वाचारके विपरीत होनेसे आपने किसी भी वस्तुके लेनेसे इनकार कर दिया। आपके निरीहताकी सुलतानने बड़ी प्रशंसाकी और वस्त्रादिसे पूजा की । अपने हाथकी निशानी (मोहर छाप) वाला फरमान देकर नवीन वसति-उपाश्रय बनवा दिया और अपने पट्टहस्ति (जिसपर बादशाह स्वयं बैठता है) पर आरोहन कराके मीर मालिकोंसे साथ पोषध-शाला बड़े उत्सवके साथ पहुंचाया। वाजिन बाजते और युवतियांके नृत्य करते हुए बड़े उत्सवसे पूज्यश्री वसतीमें पधारे । पद्मावती देवीके सानिध्यसे आपकी धवल कीर्ति दशोदिश व्याप्त हो गई। आप बड़े चमत्कारी और प्रभावक आचार्य थे। आपके चमत्कारों में १ आकाशसे कुलह (टोपी-घड़ा) को ओघे (रजोहरण) के द्वारा नीचे लाना २ महिष (भैंस) के मुखसे वाद करना ३ पतिशाहके साथ बड़ (बट ) वृक्षको चलाना ४ शत्रुजयके रायण वृक्षसे दुग्ध बरसाना ५ दोरड़ेसे मुद्रिका प्रगट करना ६ जिन प्रतिमासे बचन बुलवाने आदि मुख्य हैं। आपके विषयमें स्वतन्त्र निबन्ध (ला० म० गांधी लिखित) प्रकाशित होनेवाला है उसे, और जैनस्तोत्र सन्दोह भा० २प्रस्तावना पृ०४४ से ५२ एवं ही० रसिक० सम्पादित ग्रन्थ देखना चाहिये । 2010_05 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह A जिनदेवसूरि (पृ० १४) जिनप्रभसूरिजीके पट्टपर आप सूर्यके समान तेजस्वी थे। मेढ़ मंडल-दिल्लीमें आपके बचनामृतसे महम्मद शाहने कन्नाणापुर (कन्यायनीय) मंडण वीर प्रभुको शुभलग्नमें स्थापित किया था। ज्ञानविज्ञान, कला-कौशलके आप भण्डार थे एवं लक्षण, छन्द, नाटक आदिके आप वेत्ता थे। कुलधर (शाह ) के कुलमें वीरणी नामक नारि-रत्नके कुक्षिसे आपका जन्म हुवा था, जिनसिंहसूरिजीके पास आपने दीक्षा ग्रहण की थी। आपके पीछेके आचार्योकी नामावलीका पता (१६ वीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध तकका) हमारे संग्रहके एक पत्र एवं ग्रन्थ प्रशस्तियों से लगा है। जिसका विवरण इस प्रकार है :___ जिनप्रभसूरि—जिनदेवसूरि-पट्टधरद्वय १ जिनमेरुसूरि २ जिनचन्द्रसूरि, इनमें जिनमेरुसूरिके पट्टधर-जिनहितसूरि--जिनसर्वसूरि-जिनचन्द्रसूरि-जिनसमुद्रसूरि-जिनतिलकसूरि (सं० १५११)-जिनराजसूरि-जिनचंद्रसूरि (सं० १५८५)-पट्टधरद्वय १ जिनमेरुसूरि और २ जिनभद्रसूरि—(सं० १६००) जिनभानुसूरि (सं० १६४१) 2010_05 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार बेगड़ खरतरशाखा ( पृ० ३१२ से ३१८ ) गुर्वावलीमें जिनलब्धिसूरि पट्टधर जिनचन्द्रसूरि तक क्रम एक समान ही है, जिनचन्द्रसूरिके पट्टापर भट्ठारक शाखाकी ओर जिनराजसूरि पट्टधर हुए। वे माल्हू गोत्रीय थे, इसीसे बेगड़ गच्छवाले उनकी परम्पराको माल्हूशाखा कहते है । उधर द्वितीय पट्टधर जिनेश्वरसूरि हुए, जो इस शाखाके आदि पुरुष हैं। जिनेश्वरसूरिजी आदिका विशेष परिचय गीतोंमें इस प्रकार है - जिनेश्वरसूरिजी छाजहड़ गोत्रीय झांझणके आप पुत्र थे, आपकी माताका नाम झबकु था, और बेगड़ विरुद्धसे आपकी प्रसिद्ध थी । मालू गोत्रीय गुरु भ्राता के मानको चूर्ण कर अपने गुरु श्री जिनचन्द्रसूरिका पाट आपने लिया । आपने वाराही त्रिरायको आराधना किया था और धरणेन्द्र भी आपके प्रत्यक्ष था, अणहिलवाडे (पाटण) में खानका परचा पूर्ण कर महाजन बन्द ( बन्दियों ) को छुड़ाया था । राजनगर में विहार कर महम्मद बादशाहको प्रतिबोध दिया था और उसने आपका पदस्थापना महोत्सव किया था । आपके भ्राताने ५०० घोड़ोंका (आपके दर्शनपर) दान किया और १ करोड़ द्रव्य व्यय किया था इससे महम्मद शाहने हर्षित हो " बेगड़ा " विरुद्ध प्रदान किया था, ( या उसने कहा आपके श्रावक भी बेगड़ और आप भी बेगड़ हैं ) । एक बार आप साचोर पधारे, बेगड़ और थूलग दोनों गोत्र परस्पर मिले, ( वहां ) राडद्रहसे लखमीसिंह मन्त्रोने सङ्घ सहित आकर गुरु श्री को वन्दन किया । 2010_05 ७१ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह लक्ष्मीसिंहने भरम नामक अपने पुत्रको गुरुश्रीको वहराया और चार चौमासे वही रक्खे। सं० १४३० में संथारा कर शक्तिपुर (जोधपुर) में आप स्वर्ग पधारें और वहाँ आपका स्तूप (थुम्भ) बनाया गया, वह बड़ा चमत्कारी है, हजारों मनुष्य वहां दर्शनार्थ आते हैं। स्वर्गगमन पश्चात भी आपने तिलोकसी शाहको ६ पुत्रियों के ऊपर (पश्चात्) १ पुत्र देकर उसके वंशकी वृद्धि की । पौष शुक्ला १३ को जिनसमुद्रसूरिने स्तूपकी यात्राकर यह गीत बनाया। गुणप्रभ सूरि प्रबन्ध (पृ० ४२३) गुणप्रभसूरि प्रबन्ध और हमारे संग्रहकी पट्टावलीके अनुसार श्री जिनेश्वरसूरिजीका पट्टानुक्रम इस प्रकार है : १-श्री जिनशेखरसूरि २-श्री जिनधर्मसूरि ३–श्री जिनचन्द्रसूरि ४-श्री जिनमेरुसूरि ५-श्री गुणप्रभसूरि हुए। इनका विशेष परिचय इस प्रकार है :. सं० १५७२ में श्री जिनमेरुसूरिजीका स्वर्गवास हो जानेपर मण्डलाचार्य श्री जयसिंहसूरिने भट्टारक पदपर स्थापित करनेके लिए छाजहड़ गोत्रीय व्यक्तिकी गवेषणा की। अन्तमें जूठिल शाखा के मंत्री भोदेवरुके बुद्धिशाली पुत्र नगराज श्रावककी गृहिणी गणपति शाहकी पुत्री नागिलदेके पुत्र वच्छराजने धर्मका लाभ जानकर अपने पुत्र भोजको समर्पण किया। उनका जन्म सं० १५६५ (शाके १४३१) मिगसर शुक्ला ४ गुरुवारके रात्रिमें उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, ऋषियोग, कर्क लान, गण वर्गमें हुआ, सं० १५७५में सूरिजीने 2010_05 | Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार दीक्षा दी । दीक्षित होनेके अनन्तर भोजकुमार गुरुश्रीसे विद्याभ्यास करते हुए संयम मार्ग में विशेष रूपसे प्रवृत हुए । ___ इधर जोधपुरमें राठौर राजा गंगराज राज्य करते थे, वहां काजहड़ गोत्रीय गांगावत राजसिंह, सत्ता, पत्ता, नेतागर आदि निवास करते थे । सत्ताके पुत्र दुल्हण और सहजपाल थे, सहजपाल के पुत्र मानसिंह, पृथ्वीराज, सुरताण थे। जिनकी माताका नाम कस्तूरदे था। सुरताणकी भार्या लीलादेकी कुक्षिसे जेत, प्रताप और चांपसिंह तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। उपरोक्त कुटुम्बने विचारकर गंग नरेशसे ( नेतागरने ) प्रार्थना की, कि हम लोगोंको गुरु महाराजके महोत्सव करनेके लिए आज्ञा प्रदान करें । नृपवर्यका आदेश पाकर देश-विदेशमें चारों तरफ आमन्त्रण पत्रिका भेजी गई, बहुत जगहका संघ एकत्र हुआ और खूब उत्सवपूर्वक सं० १५८२ फाल्गुन शु० ४ श्रीजिनमेरुसूरिके पट्टपर श्री जिनगुणप्रभ सूरिजीको स्थापित किया गया । उन्हें बड़ गच्छीय श्रीपुण्यप्रभ सूरिने सूरि मंत्र दिया संघने गंगरायको सन्मानित किया और राजाने भी संघ और पूज्यश्रीको बहुमान दिया। ___ सं० १५८५ में सूरिवर्याने संघके साथ तीर्थाधिराज सिद्धाचल जीकी यात्रा की, जोधपुरमें बहुतसे भव्योंको प्रतिबोध दिया । इस प्रकार क्रमशः १२ चतुर्मास होनेके पश्चात जेशलमेरके श्रावक देवपाल, सदारंग, जीया, वस्ता, रायमल्ल, श्रीरंग, छुटा, भोजा आदि संघने एकत्र होकर गुरु दर्शनकी उत्कंठासे पांच प्रधान पुरुषों के साथ वीनति-पत्र भेजा, उनके विशेष आग्रहसे सूरिजी विहारकर जैसलमेर 2010_05 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह आये, सं० १५८७ आषाढ़ बदी १३ को समारोहके साथ पुर प्रवेश कर पौषधशालामें पधारे । व्याख्यानादि धर्म कृत्य होने लगे। सं० १५६४ में राउल श्री लूणकर्णने जलके अभावमें अपनी प्रजाको महान कष्ट पाते देखकर दुष्कालकी सम्भावनासे गच्छनायकको वर्षा होनेके उपाय करनेकी नम्र विज्ञप्ति की। राउलजीकी प्रार्थना से सूरिजीने उपाश्रयमें अष्टम तप पूर्वक मंत्र साधना प्रारम्भ की, उसके प्रभावसे मेघमाली देवने घनघोर वर्षा वर्षाइ, जिससे भादवा सुदि १ को प्रथम प्रहरमें सारे तालाव-जलाशय भर गए । सुकाल हो जानेसे लोगोंके दिलमें परमानंद छा गया, सूरि महाराजकी सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशंसा हुई, राउलजीने गुरु महाराजके उपदेशसे वणिक वन्दियोंको मुक्त कर दिया और पंच शब्द, वाजिन आदिके बजवाते हुए बड़े समारोह पूर्वक उपाश्रयमें पहुंचाये । - इस प्रकार सूरिजीने शासनकी बड़ी प्रभावनाकी थी, सं० १६५५ में ज्ञानबलसे अपने आयुष्यका अन्त निकट जानकर राधा (वैशाख) कृष्णा ८ को तीन आहारके त्यागरूप अनशन ग्रहण किया, एकादशीको संघके समक्ष प्रत्याख्यानादि कर डाभके संथारेपर संलेखना कर दी, शत्रु और मित्रपर समभाव रखते हुए, अर्हन्तादि पदोंका ध्याय करते हुए, १५ दिनकी संलेखना पूर्णकर वैशाख सुदि को १० वर्ष ५ मास और ५ दिनका आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग सिधारे । श्री जिनेश्वर सूरिजो ने इनका प्रबन्ध बनाया। जिनचन्द्रसूरि (पृ० ४३०, ३१६) श्री गुणप्रभसूरिजीके शिष्य श्री जिनेश्वर सूरिजीके पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि हुए जिनका परिचय इस प्रकार है। 2010_05 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार - बीकानेर निवासी बाफणा गोत्रीय रूपजी शाहकी भार्या रूपादे की कुक्षिसे आपका जन्म हुआ था, आपका जन्म नाम वीरजी था, लघु वयमें समता रसमें लयलीन देखकर जैसलमेरमें श्री जिनेश्वर सूरि जीने आपको दीक्षितकर, वीर विजय अभिधान दिया। आपपढ़-लिख खूब विद्वान और प्रतापी हुए, आपको श्रीजिनेश्वर सूरिजीने स्वयं अपने पट्टपर स्थापित किये। जैन शासनकी प्रभावनाकरके सं० १७१३ पोष मासकी ११ भृगुवारको अनशन पूर्वक आपस्वर्ग सिधारे । महिमासमुद्रजीने आपके दो गीत रचे, अन्य एक गीतमें समुद्रसुरिजीने आपके साचोर पधारनेपर उत्सव हुआ, उसका संक्षिप्त वर्णन किया है। जिनसमुद्रसूरि (पृ० ३१७, ४३२) . आप श्रीश्रीमाल हरराजकी भार्या लखमादेवीके पुत्र थे, श्री जिनचन्द्रसूरिजीके पट्टपर स्थापित होनेके पश्चात आप सूरत और सांस नगरमें पधारे, जिनका वर्णन माईदास और महिमाहर्षके गीतमें है । सूरतमें छत्तराज शाहने महोत्सव आदि किया था। जिनसमुद्रसूरिके पश्चात पट्टधरोंके नाम ये हैं :-जिनसुन्दर सूरि-जिनउदयसूरि—जिनचन्द्रसूरि-जिनेश्वरसुरि (सं० १८६१) इनके पट्टधरका नाम नहीं मिलता। अन्तिम आचार्य जिनक्षेमचंद्र सूरि सं० १६०२ में स्वर्ग सिधारे । पिप्पलक शाखा (पृ०३१६) गुर्वावली* में जिनराजसूरि (प्रथम )तक तो क्रम एक-सा ही *गुर्वावलीमें नवीन ज्ञातव्य यह है कि:-जिन बर्द्धमान सूरिजीने श्री 2010_05 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह है। उनके पट्टधर जिनवर्द्धनसूरिजीसे यह शाखा भिन्न हुई थी, उनके पट्टधर आचार्योंका नामानुक्रम इस प्रकार है : जिनवर्द्धन सूरि--जिनचन्द्रसूरि-जिन सागर सुरि-(जिन्होंने ८४ प्रतिष्ठायें की थीं और उनका धुंभ अहमदाबादमें प्रसिद्ध है)। जिन सुन्दर सूरि-जिनहर्षसूरि-जिनचन्द्र सूरि-जिनशील सूरि-जिनकीर्तिसूरि-जिनसिंहसूरि-जिनचन्द्रसूरि (सं०१६६६ विद्यमान ) तकका राजसुन्दरने उल्लेख किया है हमारे संग्रह की पट्टावली आदिसे इस शाखाके पञ्चानुवर्ती पट्टधरोंका अनुक्रम यह ज्ञात होता है:-जिनरत्नसूरि-जिनवद्धमानसूरि-जिनधर्म सूरि-जिनचन्द्र सूरि-( अपर नाम शिवचन्द्र सूरि ) इनमें जिनरत्न सूरिके पीछेके नाम प्रस्तुत शिवचन्द्र सूरि रासमें भी पाये जाते हैं। अब रासके अनुसार जिन (शिव) चन्द्र सूरिजीका विशेष परिचय नीचे दिया जाता है : जिन शिवचन्द्रसूरि ४ . (पृ० ३२१). मरुधर देशके भिन्नमाल नगरमें अजीतसिंह भूपतिके राज्यमें ओसवाल रांका गोत्रीय शाह पदमसी रहते थे। उनकी धर्मपत्नीका नाम पदमा था। उसके शुभ मुहूर्तमें एक पुत्र उत्पन्न हुआ, और मंधर स्वामीसे सूरि मंत्र संशोधन कराया। श्रीमंधर स्वामीने आचार्योंके नामकी आदिमें जिन विशेषण लगानेकी सूचना दी, इसीसे पट्टधर आचार्यो ने नाम के आगे जिन विशेषण दिया जाता है। xगृहे १३ साधुपर्याय १३ गच्छ नायक १८ इस प्रकार कुल ४४ घर्ष का आयुष्य पाया। 2010_05 | Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यों का ऐतिहासिक सार उसका नाम शिवचन्द रखा गया। कुंवर दिनोंदिन वृद्धि प्राप्त होने लगा और जब उसकी अवस्था १३ वर्षकी हुई, उस समय उसी नगरमें गच्छनायक जिनधर्मसूरिका शुभागमन हुआ । संघने प्रवेशो सत्व किया, और अनेक लोग गुरुश्रीके व्याख्यानमें नित्य आने लगे । सूरिजीके व्याख्यान श्रवणार्थ पदमसी और शिवचन्द कुमार भीजाने लगे और संसारकी अनित्यताके उपदेशसे कुमारको वैराग्य उत्पन्न हो गया, यावत् माता पिताके पास आग्रह पूर्वक अनुमति लेकर सं० १७६३ में गुरु श्रीकेपास दीक्षा ग्रहण की। मासकल्पके परिपूर्ण हो जानेसे सूरिजी नवदीक्षित शिवचन्द्रके साथ बिहार कर गये । ज्ञानावर्णी कर्मके क्षयोपशमसे नवदीक्षित मुनिने व्याकरण, न्याय, तर्क और आगम ग्रन्थों का शीघ्र अध्ययन कर विद्वता प्राप्त की। जिनधर्म सूरिजी उदयपुर पधारे और वहां शारीरिक वेदना उत्पन्न होनेसे आयुष्यकी पूर्णाहुतिका समय ज्ञातकर सं० १७७६ वैसाख शुक्ला ७ का शिवचन्दजीको गच्छनायक पद देकर (वहीं) स्वर्ग सिधारे। आचार्यपदका नाम नियमानुसार जिनचन्द्रसूरि रखा गया। उस समय (राणा संग्राम राज्ये ) उदयपुरके श्रावक दोसी भीखा सुत कुशलेने पद महोत्सव किया और पहरावणी, याचकोंको दान आदि कार्योंमें वहुतसा द्रव्यका व्यय कर सुयश प्राप्त किया । आचार्य पद प्राप्तिके पश्चात् आपने, शिष्य हरिसागरके आग्रहसे वहीं चतुमास किया, धर्भप्रभावना अच्छी हुई। चौमासा पूर्ण होने पर आपने गुजरातकी ओर विहार कर दिया। सं० १७७८ में (गच्छनायकके) परिप्रहका त्यागकर विशेष वैराग्य भावसे क्रियोद्धार किया और 2010_05 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह आत्म गुणोंकी साधना करते हुए भव्योंको उपदेश प्रदान आदि द्वारा स्वपर हित साधनमें तत्पर हुए। गुजरातमें विचरते हुए शत्रुजय तीर्थ पधारे और वहां ४ महीने की अवस्थित कर हह यात्राएं की। वहांसे गिरनारमें नेमनाथकी यात्राकर जूनागढ़की यात्रा करते हुए खंभात पधारे, वहांकी यात्रा कर चतुर्मास भी वहीं किया। वहां धरम-ध्यान सविशेष हुआ। वहांसे मारवाड़की ओर विहारकर आबू तीर्थकी यात्रा करके तीर्थाधिराज सम्मेतशिखर पधारे । वहां वीश तीर्थंकरोंके निर्वाण स्थानों को यात्रा करके, विचरते हुए बनारसमें पार्श्वनाथजी की यात्राको। रास्तेमें पावापुरी, चम्पापुरी, राजग्रही, वैभारगिरिकी भी संघके साथ यात्राकी और हस्तिनापुरमें शान्ति, कुन्थु और अरिनाथप्रभु की यात्रा कर दिल्ली पधारे, वहां चतुर्मास करके विहार करते हुए पुनः गुजरातमें पदार्पण किया। वहां भणशाली कपूरके पास एक चतुमांस किया और पंचमाङ्ग भगवतीसूत्रका व्याख्यान देने लगे, इति उपद्रव दूरकर सुयश प्राप्त किया। ज्ञान-भक्ति और धर्म प्रभावना अच्छी हुई, शत्रुजयतीर्थकी यात्रा की, यात्राकी भावना पुनः उत्पन्न होनसे राजनगरसे विहारकर शत्रुजय और गिरनाथतीर्थकी यात्राकर दीवबंदरमें चौमासे रहे। वहांसे फिर शत्रुजयकी यात्रा करके घोघारबंदर, भावनगर आदिकी यात्रा करते हुए भी १७६४ के माह महीनेमें खम्भात पधारे । वहांके गुणानुरागी श्रावकोंने आपका अतिशय बहुमान किया, उनके उपकारार्थ आप भी धर्मदेशना देने लगे। इसी समय किसी दुष्ट प्रकृति पुरुषने वहांके यवनाधिपके समक्ष 2010_05 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - काव्योंका ऐतिहासिक सार. ७६ कोई चुगली खाई, अतः उसने अपने सेवकोंको आचार्यजीके पास भेजे। राज्य सेवकोंने पूज्यश्रीको बुलाकर "आपके पास धन है वह हमें देवें" कहा, पर सूरिजी तो बहुत पहलेही परिग्रहका सर्वथा त्याग कर चुके थे, अतः स्पष्ट शब्दोंमें प्रत्युत्तर दिया कि भाई हमारे पास तो भगवत् नाम स्मरणके अतिरिक्त कोई धन माल नहीं है, पर वे अर्थ लोभी भला कब मानने वाले थे। उन्होंने सूरिजीको तंग करना शुरू किया । इतनाही नहीं राज्यसत्ताके बलपर अंधे होकर यवनाधिपतिने सूरिजीकी खाल उतारनेकी आज्ञा दे दी। सूरिजीने यह सब अपने पूर्व संचित अशुभ कर्मोके उदयका ही फल है, विचारकर मरणान्त कष्ट देनेवाले दुष्टोंपर तनिक भी क्रोध नहीं किया। धन्य है ! ऐसे समभावी उच्च आत्म-साधक महापुरुषोंको !! रात्रिके समय दुष्ट यवनने क्रोधित होकर बड़े दुःख देने आरम्भ किये । मार्मिक स्थानोंमें बड़े जोरोंसे मारने (दंड-प्रहार करने) लगा और उस पापीष्टने इतनेमें ही न रुककर सुरिजीके हाथ पैरके जीवित नखोंको उतार असह्य वेदना उत्पन्न की। वेदना क्रमशः बढ़ने लगी और मरणान्त अवस्था आ पहुंची, पर उन महापुरुषने समभाव के निर्मल सरोवरमें पैठ आत्मरमणतामें तलीन्नता कर दी। अपने पूर्वके खंदग-गजसुकमाल-इक्दन्त आदि महापुरुषोंके चरित्रोंका स्मृति चित्र अपने आंखोंके सामने खड़ाकर पुद्गल और आत्माके भिन्नत्व विचाररूप, भेद ज्ञानसे उस असह्य वेदनाका अनुभव करने लगे। यह वृतांत ज्ञात होते ही प्रातःकाल श्रावकगण सूरिजीके पास आये, तब यवन भी सरिजीका धैर्य देख और अपनी सारी दुष्टवृत्ति 2010_05 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ norani ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह की इतिश्री होनेसे उकता गया। और श्रावकोंको उन्हें अपने स्थान ले जानेको कहा । रूपा बोहरा उन्हें अपने घर लाया। नगरमें सर्वत्र हाहाकार मच गया। इस समय नाय (न्याय !) सागरजीने सूरिजीका अन्तिम समय ज्ञातकर उत्तराध्ययन आदि सूत्रोंका श्रवण कराके अनशन आराधना करवाई। श्रावकोंने यथाशक्ति चतुर्थ व्रत, हरित त्याग, १२ व्रतादि के यथाशक्ति नियम लिये । आचार्यजीने गच्छकी शिक्षा अपने शिष्य हीरसागरको देकर, सं० १७६४ बैशाख ६ कविवार सिद्धयोग के प्रथम प्रहरमें जिनेश्वरका ध्यान करते इस नश्वर देहका परित्यागकर (प्रायः ) देवके दिव्य रूपको धारण किया। श्रावकोंने उत्सवके साथ अन्त क्रिया की, और रूपा बोहरेने वहां स्तूप कराया। इसी तरह राजनगरके बहिरामपुरमें भी स्तूप बनवाया गया। हीरसागरके आग्रहसे कडुआमती शाह लाधाने सं० १७६५ के आश्विन शुक्ला ५ बृहस्पतिवारको राजनगरमें इस रासकी रचना की। 2010_05 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार आद्यपक्षीय शाखा जिनहर्षसूरि ( पृ० ३३३ ) आद्य पक्षीय खरतर शाखा ( भेद ) सं० १५६६ में जिनदेव सूरिजी से निर्गत हुई थी। हमें प्राप्त पट्टावलीके अनुसार इन शाखा की पट्ट - परम्परा इस प्रकार है : जिनवर्द्धनसूरि - जिनचन्द्रसूरि - जिनसमुद्रसूरि - पट्टधर जिन देवसूरि ( इस शाखा आदि पुरुष ) जिनसिंहसूरि - जिनचन्द्रसूरि ( पंचायण भट्टारक) के शिष्य जिनहर्षसूरिजी थे । गीतके अनुसार आप दोसी वंशके भादाजीकी भार्या भगतादेके पुत्र थे । अन्य साधनोंसे आपका विशेष वृत्तान्त निम्नोक्त ज्ञात हुआ है:सं० १६६३ में जैतारणमें जिनचन्द्रसूरिका स्वर्गवास हुआ । भंडारी गोत्रीय नारायणने पद महोत्सवकर आपको उनके पट्टपर स्थापित किये, जेतारणमें आपने हाथीको कीलित किया, जिसका वृत्तान्त इस प्रकार है : – सं० १७१२ वर्षे खरतर गच्छ वृद्धाआचार्य क्षेमधाड़ शाखा पंचायण भट्टारक रे पाट सांप्रत विजयमान भ० श्रीजिनहर्षसूरि जी सोजत शहर में हाथी कील्यो, तपा गच्छ हुंती बोल उपर आण्यों इंण बातरो सोजत शहर सिगलो साक्षीभूत थे । हाथी रे ठिकाने अजे सगिड़ो पूजीजे छै कोटवाली चोतरा कने मांडी बिचमें x x x ( इनके शिष्य सुमतिशकृत कालिकाचार्य कथा बालावबोध पत्र १४, यतिवर्य सूर्य्यमलजी के संग्रहमें ) । ६ 2010_05 ८१ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह १७२५ चैत्र कृष्णा ११ को जेतारणमें आपका स्वर्गवास हुआ । इनके पश्चातके पट्टधरोंका क्रम यह है :- १ जिनलब्धि- जिनमाणिक्यजिनचन्द्र - जिनोदय - जिनसंभव - जिनधर्म - जिनचन्द्र - जिनकीर्ति - जिन बुद्धिवल्लभ-जिनक्षमारत्नसूरिके पट्टधर जिनचन्द्रसूरिजी पालीमें अभी विद्यमान हैं। ८२ भावहर्षीय शाखा भावहर्षजी उपाध्याय ( पृ० १३५ ) शाह कोड़ाकी पत्नी कोड़मदेके आप पुत्र थे । श्रीकुलतिलक के आप सुशिष्य थे । संयमके प्रतिपालनमें आप विशेष सावधान रहा करते थे, और सरस्वती देवीने प्रसन्न होकर आपको शुभाशीष दी थी । माह शुक्ला १० को जैसलमेर में गच्छनायक जिनमाणिक्यसूरिजीने ( सं० १५६३ और १६१२ के मध्य में ) आपको उपाध्याय पद दिया था । अन्य साधनोंसे ज्ञात होता है कि आप सागरचन्द्रसूरि शाखा के वा० साधुचन्द्र के शिष्य कुलतिलकजीके शिष्य थे । आप स्वयं अच्छे कवि थे। आपके रचित स्तवनादि बहुतसे मिलते हैं। सं० १६०६ में आपने उ० कनकतिलकादिके साथ कठिन क्रिया- उद्वार किया. था । आपके हेमसार आदि कई विद्वान् और कवि शिष्य थे, आपके द्वारा खरतर गच्छ में ७ वां गच्छ भेद हुआ । और आपके नामसे वह शाखा भावहर्षीय कहलाई । बालोतरेमें इस शाखाकी गद्दी अब भी विद्यमान है। आपके शाखाकी पट्ट परम्परा इस प्रकार 2010_05 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सारं है :-भावहर्षसूरि-जिनतिलक-जिनोदय-जिनचन्द्र-जिनसमुद्र-जिनरत्न-जिनप्रमोद-जिनचन्द्र--जिनसुख---जिनक्षमाजिनपद्म-जिनचन्द्र-जिनफतेन्द्रसूरि हुए, आपकी शाखामें अभी यतिवर्य नेमिचन्द्रजी वालोतरेमें विद्यमान है। विशेष विचार खरतर गच्छ इतिहासमें करेंगे। जिनसागर सूरि शाखा [ लघु आचार्य] जिनसागरसूरि (पृ० १७८-२०३-३३४) मरुधर जंगल देशके बीकानेर नगरमें राजा रायसिंहजी राज्य करते थे। उस नगरमें बोथरा गोत्रीय शाह बच्छा निवास करते थे, उनकी भार्या मृगादेकी कुक्षिसे सं० १६५२ कार्तिक शुक्ला १४ रविवारको अश्विन नक्षत्रमें आपका जन्म हुआ था। आप जव गर्भमें अवतरित हुए थे, तब माताको रक्त चोल रत्नावलीका स्वप्न आया था, उसीके अनुसार आपका नाम “चोला" रक्खा गया, पर लाड ( अतिशय प्रेम ) के नाम सामलसे ही आपकी प्रसिद्धि हुई। एकबार श्रीजिनसिंहसूरिजीका वहां शुभागमन हुआ और उनके उपदेशसे सामल कुमारको वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसने अपनी मातुश्रीसे दीक्षाकी अनुमति मांगी। इसपर माताने भी साथ ही दीक्षा लेनेका निश्चय प्रकट किया। इधर श्री जिनसिंह सूरिजी विहारकर अमरसर पधारे। तब वहां जाकर सामलकुमार ने अपने बड़े भाई विक्रम और माताके साथ सं० १६६१ माह सुदी 2010_05 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ७ को सूरिजीसे दीक्षा ग्रहण की* । उस समय अमरसरके श्रीमाली थानसिंहने दीक्षा महोत्सव किया । - नवदीक्षित मुनिके साथ जिनसिंहसूरिजी प्रामानु-ग्राम विहार करते हुए राजनगर पधारे। वहां युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी को वंदना की, सूरिजीने नवदीक्षित सांमल मुनिको (मांडलके तप बहन कर लिये, ज्ञातकर) बड़ी दीक्षा देकर नाम स्थापना “सिद्धसेन" की। इसके पश्चात सिद्धसेन मुनि आगमके उपधान (तपादि) वहन करने लगे और बीकानेरमें छः मासी तप किया। विनय सहित आगमादिका अध्ययन करने लगे। युगप्रधान पूज्यश्री आपके गुणोंसे बड़े प्रसन्न थे। कविवर समयसुन्दरके सुप्रसिद्ध शिष्य वादी हर्षनन्दनने आपको विद्याध्ययन बड़े मनोयोगसे कराया। __ इस प्रकार विद्याध्ययन और संयम पालन करते हुए श्री जिनसिंहसूरिजीके साथ संघवी आसकरणके संघ सह शत्रुजयतीर्थकी यात्रा की। बहांसे विहारकर खंभात, अहमदाबाद, पाटण होते हुए वडलीमें जिनदत्तसूरिजीकी यात्रा की। वहांसे विहारकर सिरोही पधारे। वहांके राजा राजसिंहने बहुत सम्मान किया और संघने प्रवेशोत्सव किया। वहांसे जालोर, खंडप, द्रूणाड़ा होते हुए घंघाणी के प्राचीन जिन बिम्बोंके दर्शन कर बीकानेर पधारे। शा० बाघ मलने प्रवेशोत्सव किया। जिनसिंहसुरिजीने चतुर्मास वहीं किया । इसी चतुर्मासके समय उन्हें सम्राट् सलेमने मेवड़े दूत भेजकर आमन्त्रित * निर्वाण रासमें मृगादेका दीक्षित नाम माणिक्यमाला और वीकेका नाम विवेक कल्याण लिखा। 2010_05 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार किये । सम्राट्की विज्ञप्तिके अनुसार बहांसे विहारकर वे मेड़ते पधारे, वहां शारीरिक व्याधि उत्पन्न होनेसे आराधना पूर्वक स्वर्ग सिधारे । __इस प्रकार जिनसिंहसूरिजीकी अचानक मृत्यु होनेसे संघको बड़ा शोक हुआ। पर कालके आगे कर भी क्या सकते थे, आखिर शोक निर्वतन करके संघने राजसी (राज समुद्र) जी को भट्टारक (गच्छ नायक) पद और सिद्धसेन ( सामल ) जीको *आचार्य पदसे अलंकृत किये। ___ संघपति (चोपड़ा) आसकरण, अमीपाल, कपूरचन्द, ऋषभदास और सूरदासने पद महोत्सव बड़े समारोहसे किया। (पूनमीया गच्छीय)हेमसूरिजीने सूरिमंत्र देकर सं०१६७४ फाल्गुन शुक्ला को शुभ मुहूर्तमें जिनराजसूरि और जिनसागरसूरि नाम स्थापना की। ___आचार्य पद प्राप्तिके अनन्तर आपने मेड़तेसे बिहार कर राणकपुर, वरकाणा, तिमरी ( पार्श्वनाथजीकी), ओसियां और घंधाणीकी यात्राकर चतुर्मास मेड़ते किया। वहांसे जैसलमेर पधारे। वहां राउल कल्याण और श्रीसंघने वंदन किया और भणसाली जीवराजने (प्रवेश) उत्सव किया। वहां श्रीसंघको ११ अंगोंका श्रवण कराया। शाह कुशलेने मिश्री सहित रुपयोंकी लाहण की। वहांसे संघके साथ लोद्रवा पधारे। (भणसाली ) श्रीमल सुत थाहरुशाहने स्वामी-वात्सल्यादिमें प्रचुर द्रव्य व्यय किया। वहांसे आचार्य जिनसागरसूरि फलवधी पधारे । झाबक मानेने प्रवेशोत्सव किया और * निर्वाण रास गा० ९ और जपकोति कृत गोतके कथनानुसार आपको आचार्य पद, युग प्रधान जिनचन्द्रसूरिजीके वचनानुसार मिला था। 2010_05 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह याचकोंको दान दिया । संघने बड़ी भक्ति की । वहांसे विहारकर करjअई पधारे, वहां संघने भक्तिसे वंदना की। इस प्रकार बिहार करते हुए बीकानेर पधारे, वहां पासाणीने संघके साथ प्रवेशोत्सव किया एवं (मंत्रीश्वर कर्मचन्दके पुत्र ) भागचन्दके पुत्र मनोहरदास आदि सामहीयेमें पधारे। बीकानेरसे बिहारकर (लूनकरण ) सर चतुर्मास कर जालयसर पधारे । वहां मंत्री भगवन्तदासने बड़े उत्सवके साथ पूज्यश्रीको वंदन किया, वहांसे डीडवाणेके संघको वंदाते हुए सुरपुर एवं मालपुर आये, वहां भी धर्म-ध्यान सविशेष हुआ । इस प्रकार विहार करते हुए बीलाईमें चौमासा किया। वहांके कटारिये श्रावक खरतर गच्छ के अनन्य अनुरागी थे, उन्होंने उत्सव किया। बीलाड़ेसे बिहार कर मेड़ते आये वहां गोलछा रायमलके पुत्र अमीपालके भ्राता नेतसिंह भ्रातृपुत्र-राजसिंहने बड़े समारोहसे नान्दि स्थापन कर व्रतोच्चारण किये, श्रीफल नालेरादिके साथ रुपयोंकी लाहण ( प्रभावना) को । वहांके रेखाउत श्रीमल, वीरदास मांडण, तेजा, रीहड़ दरड़ाने भी धार्मिक कार्योंमें बहुतसा द्रव्यका सदव्यय किया । आचार्य श्री वहांसे विहारकर राणपुर और कुम्भलमेरके जिनालयोंको वंदन कर मेवाड़ प्रदेश होते हुए उदयपुर पधारे । वहांके राजा करणने आपका सम्मान किया। और मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र पुत्र लक्ष्मीचन्द्रके पुत्र रामचन्द और रुघनाथके साथ अजायबदेने वन्दन किया। वहांसे विहार कर स्वर्णगिरि पधारे, वहां संघने बड़ा उत्सव किया। साचोर संघने एवं हाथीशाहने बहुत आग्रह कर चतुर्मास साचोरमें कराया। 2010_05 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार इस प्रकार उपरोक्त सारे वर्णनात्मक इस रासको कवि धर्मकीर्ति (यु० जिनचन्द्रसूरि उपाध्याय धर्मनिधानके शि०) ने स० १६८१ के पौष कृष्णा ५ को बनाया। 7 उपरोक्त रास रचनेके पश्चात् सं० १६८६ में गच्छ नायक जिनराजसूरि और आचार्य जिनसागरसूरिके किसी अज्ञात कारण विशेषसे मनोमालिन्य या वैमनस्य* उत्पन्न हुआ। ___फलस्वरूप दोनोंकी शाखायें (शिष्यपरिवार आदि) भिन्न २ हो गई। और तभीसे जिनराजसूरिजीकी परम्परा भट्टारकीया एवं जिनसागरसूरिजीकी परम्परा आचारजीया नामसे प्रसिद्ध हुइ, जो आज भी उन्हीं नामोंसे प्रख्यात है। शाखा भेद होने पर जिनसागरसूरिजीके पक्षमें कौनसे विद्वान और कहांका संघ आज्ञानुयायी रहा। इसका वर्णन निर्वाण रासमें इस प्रकार है :__श्रीजिनसागरजीके आज्ञानुवर्ती साधु संघमें उपाध्याय समयसुन्दरजी ( की सम्पूर्ण शिष्य परम्परा), पुण्य-प्रधानादि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजीके सभी शिष्य, और श्रावक समुदायमें अहमदाबाद, बीकानेर, पाटण, खम्भात, मुल्तान, जैसलमेरके संघ नायक संखवालादि, मेड़तेके गोलछे, आगरेके ओशवाल, बीलाsके संघवी कटारिये एवं जयतारण, जालौर, पचियाख, पाल्हनपुर, भुज्ज, सूरत, दिल्ली, लाहोर, लुणकरणसर, सिन्ध प्रान्तोंमें मरोट, थट्टा, डेरा, मारवाडमें फलोधी, पोकरण आदिके (ओशवाल-अच्छे २ *जयकीर्तिके गीतके अनुसार यह कारण अहमदाबादमें हुआ था। 2010_05 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पदाधिकारी) थे।* उनमेंसे मुख्य श्रावकोंके धर्मकृत्य इस प्रकार है : करमसी शाह संवत्सरीको महम्मदी (मुद्रा ) देते और उनके पुत्र लालचन्द प्रत्येक वर्ष संवत्सरीको संघमें श्रीफलोंकी प्रभावना किया करते थे। लालचन्दकी विद्यमान माता धनादेने पूठियेके उपर के खण्डकी पीटणीको समराइ ( जीर्णोद्धारित की) और उसकी भार्या कपूरदेने जो कि उग्रसेनकी माता थी, धर्मकार्यों में प्रचुर द्रव्य व्यय किया। शाह शान्तिदासने भ्राता कपूरचन्दके साथ आचार्यश्रीको स्वर्णके वेलिये दिये थे, एवं २॥ हजार रुपयोंका खर्च कर सुयश प्राप्त किया था। उनकी माता मानबाइने उपाश्रयके १ खण्डकी पीटणी करा दी थी और प्रत्येक वर्ष आषाढ़ चतुर्मासीके पोषधोपवासी श्रावकोंको पोषण करनेका वचन दिया था। __ शाहमनजीके दीप्तमान कुटुम्बमें शाह उदयकरण, हाथी, जेठमल और सोमजी मुख्य थे । उनमें हाथीशाहने तोरायबन्दी-छोड़ का विरुद प्राप्त किया था। उनके सुपुत्र पनजी भी सुयशके पात्र थे। मूलजी, संघजी पुत्र वीरजी एवं परीख सोनपाल सूरजीने २४ पाक्षिकोंको भोजन कराया था । आचार्य श्रीकी आज्ञामें परीख चन्द्रमाण, लालू, *समयसुन्दरजी कृत अष्टकमें आपके आज्ञानुयायिओंकी सूची मैं इनके अतिरिक्त भटनेर, मेवाड़, जोधपुर, नागौर, बीरमपुर, साचोर, किरहोर, सिद्धपुर, महाजन, रिणी, सांगानेर, मालपुर, सरसा, धींगोटक, भरुच, राधनपुर वाराणपर आदिके संघोंके भी नाम भी आते हैं। 2010_05 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार अमरसी शाह, संघवी कचरमल्ल, परीख अखा, बाछड़ा देवकण, शाह गुणराजके पुत्र रायचन्द गुलालचन्द, इस प्रकार राजनगरका प्रशंसनीय संघ था और धर्मकृत्य करनेमें खंभातके भण्डशाली बंधुका पुत्र ऋषभदास भी उल्लेखनीय था । हर्षनन्दनके गीतानुसार मुकरबखान ( नबाब ) भी आपको सन्मान देता था। इस प्रकार आचार्य श्रीका परिवार उदयवन्त था, गीतार्थ शिष्योंको आचार्यश्रीने यथायोग्य वाचक उपाध्यायादि पद प्रदान किये थे और अपने पदपर स्वहस्तसे अहमदाबादमें जिनधर्मसूरिजीको (प्रथम पछेवड़ी ओढ़ाकर) स्थापन किया । उस समय भणशाली बधूकी भार्या विमलादे, भणशाली सधुआकी पत्नी सहिजलदे (जिसने पूर्व भी शत्रुजय संघ निकाला और बहुतसे धर्मकृत्य किये थे) और श्रा० देवकीने पदमहोत्सव बड़े समारोहसे किया। __ पद स्थापनाके अनन्तर जिनसागरसूरिके रोगोत्पति होनेके कारण आपने बैशाख शुक्ला ३ को शिष्यादिको गच्छकी शिखामण दे, गच्छ भार छोड़ा । बैशाख सुदी ८ को अनशन उच्चारण किया। उस समय आपके पास उपाध्याय राजसोम, राजसार, सुमतिगणि, दयाकुशल वाचक, धर्ममंदिर, समयनिधान, ज्ञानधर्म, सुमतिबल्लभ आदि थे। सं०१७१६ जेष्ट कृष्णा३शुक्रवारको आपस्वर्ग सिधारे और हाथीशाहने अग्नि संस्कारादि अन्त-क्रिया धूमसे की। इसके पश्चात् संघने एकत्र होकर गायें, पाड़े, बकरीये आदि जीवोंकी २००) रुपये खर्चा कर रक्षा की और शान्ति जिनालयमें देववन्दन कर शोकका परित्याग किया। 2010_05 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह उपरोक्त ( वर्णन वाले ) रासकी रचना सुमतिवल्लभने ( सुमतिसमुद्र शिष्य के साथ ) सं १७२० श्रावण शुक्ला १५ को की। आचार्य श्री के रचित वीशी एवं स्तवनादि उपलब्ध है । जिनधर्मसूरि ( पृ० ३३५-३६ ) आप भणशाली गोत्रीय ( रिणमल्ल ) की पत्नी मृगादेके पुत्र थे । पद स्थापनाका उल्लेख ऊपर आही चका है । ज्ञानहर्ष के गीतानुसार आप बीकानेर पधारे, उस समय गिरधरशाहने प्रवेशोत्सव बड़े समारोहसे किया था । विशेष ज्ञातव्य देखें: - खरतरगच्छपट्टावली संग्रह | ६० जिनचन्द्रसूरि ( पृ० ३३७ ) आप जिनधर्मसूरिजीके पट्टधर थे । बुहरा वंशीय सांवलशाह आपके पिता और साहिबदे आपकी माता थी । विशेष ज्ञातव्य देखेंखरतरगच्छपट्टावलीसंग्रह | जिनयुक्ति सूरि पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ( पृ० ३३७-३८ ) उपरोक्त जिनचन्द्रसूरिके ( पश्चात् पट्टावलीके अनुसार ) पट्टधर जिनविजयसूरिके पट्टधर जिनकीर्तिसूरिके पट्टधर जिनयुक्तिसूरिजी हुए, उनके पट्टधर आप थे। रीहड़ गोत्रीय शा० भागचन्दकी भार्या यशोदाकी कुक्षिसे आप अवतरित हुए। बीलाड़े चतुर्मासके समय कवि आलमने यह गीत रचा था । गीतमें प्रवेशोत्सव के समयकी भक्तिका संक्षिप्त वर्णन है । 2010_05 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार जिनचंद्रसूरिजीके पट्टधर जिनउदय - जिनहेम - जिनसिद्धसूरिके पट्टधर जिनचंद्रसूरि अभी विद्यमान हैं। विशेष ज्ञातव्य देखें :( खरतरगच्छपट्टावलीसंग्रह ) । रंगविजयशाखा जिनरंगसूरि ६१ ( पृ० २३१-३३ ) श्रीजिनराजसूरि (द्वि० ) के आप शिष्य थे । श्रीमाली, सिन्धूड़ गोत्रीय सांकरसिंहकी भार्या सिन्दूरदेकी कुक्षिसे आपका जन्म हुआ था। सं० १६७८ फाल्गुन कृष्णा ७ को जैसलमेर में आपने दीक्षा ली थी, दीक्षितावस्थाका नाम रंगविजय रखा गया । श्रीजिनराजसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद दिया था ज्ञानकुशलकृत गीत और जिनराजसूरि गीत नं० ६ में आपको युवराज पदसे संबोधन किया गया है जोकि महत्वका है । कमलरत्नके गीतानुसार पातिशाह ( शाहजहां ! ) ने आपकी परीक्षाकी थी और ७ सूबोंमें ( इनका ) वचन प्रमाण करनेका फरमान दिया था । उसके पाटवीपुत्र दारासको सुलताणने आपको 'युगप्रधान ' पदका निसाण दिया था । सिन्धुड़ नेमीदास - पंचायणने प्रवेशोत्सव ( शाही निसाणके साथ ! ) बड़े समारोहसे किया, सर्व महाजन संघको नारकी प्रभावना दी गई । सं० १७१० मालपुरेमें महोत्सवके साथ 'युगप्रधान ' पद-स्थापन हुआ था । आपके रचित अनेकों स्तवनादि उपलब्ध हैं । उनमें से कई दिल्ली से ( १ छोटा से ग्रन्थमें ) यतिरामपालजीने प्रकाशित किये हैं । 2010_05 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ __ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह आपके रचित कृतियोंमें १-सौभाग्यपंचमी चौ०,२-नवतत्वबाला (श्राविका कनकादेवीके लिये रचित श्रीपूजजी सं० नं० ४११), ३-बहुत्तरी आदि मुख्य हैं। आपके लि० एक प्रति अजीमगंज भंडारमें है। __ जिनरंगसूरिजीके पट्टधर आचार्योंकी नामावलीका क्रम इस प्रकार है :-जिनरंगसूरि-जिनचंद्रसूरि-जिनविमलसूरि-जिनललितसूरि-जिनअक्षयसूरि-जिनचंद्रसूरि-जिननन्दिवर्द्धनसूरि-जिनजयशेखरसूरि-जिनकल्याणसूरि-जिनचंद्रसूरिजीके पट्टधर जिनरत्नसूरि सं०. १६६२ बै० व० १५ को लखनऊमें स्वर्ग सिधारे । इस शाखाकी गद्दी लखनऊमें है। मंडोवरा शाखा जिनमहेन्द्रसूरि (पृ ३०२ से ३०४ ) शाह रुघनाथकी पत्नी सुन्दरा देवीकी कुक्षिसे आपका जन्म हुआ था, श्रीजिनहर्षसूरिजीके आप पट्टधर थे। गीतमें कवि राजकरणने पूज्यश्रीके मरुदेश पधारने पर जो हर्ष हुआ और प्रवशोत्सवकी भक्ति की गई, उसका मुन्दर चित्र अंकित किया है। गहुंली नं० १में उदयपुर नरेशने आपको वहां पधारनेके लिये विनती स्वरूप परवाना भेजने और मेड़ते, अम्बेरगढ़,बीकानेर जैसलमेर संघकी भी विज्ञप्तिये जानेका सूचित किया है । एवं कविने अपनी ओरसे एक बार जोधपुर पधारनेकी विनती की है । __ आपके चरित्रके विषयमें विशेष विचार फिर कभी करेंगे। आपके पट्टधर जिनमुक्तिसूरिजीके पट्टधर जिनचंद्रसूरिजी अभी जयपुर में विह मान हैं। उनके पट्टधर युवराज धरणेन्द्रसूरि विचरते हैं। ___ 2010_05 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छीयकाव्यसार शिवचला गणिनी ( पृ० ३३६ ) पोरवाड़ गेहाकी पत्नी विल्हणदेकी कुक्षिसे जिनकीर्तिसूरि उत्पन्न हुए, उनकी बहिन प्रवर्तिनी राजलक्ष्मी थी। ___सं० १४६३ बैशाख कृष्णा १४ को मेवाड़के देवलवाड़ेमें शिवचूला साध्वीको महत्तरा पद दिया गया, उस समय महादेव संधवीने महोत्सव किया, सोमसुन्दरसूरिने वासक्षेप दिया। रत्नशेखरको वाचक पद दिया गया । और भी पन्यास गणीश स्थापित किए एवं दीक्षा महोत्सव हुए। याचकोंको दान दिया गया, पताकाओंसे नगर सजाया गया और वाजिन बजने लगे। श्रीविजयसिंहमूरि (पृ० ३४१ से ३६४) कवि गुणविजयने सर्व प्रथम सिरोही मण्डण आदिनाथ, ओसवालोंके जिनालयमें श्रीहीरविजयसूरि प्रतिष्ठित श्रीअजितनाथ, शिवपुरीके स्वामी शान्तिनाथ, जीराउला तीर्थपति पार्श्वनाथ, बंभणवाड़ व वीरवाड़के मण्डन श्रीमहाबीर एवं सरस्वती और गुरु श्रीकमलविजयके चरणोंमें नमस्कार करके श्रीहीरविजयसूरिके पट्टधर जेसिंघजी (विजयसेनसूरि ) के पट्टाधीश विजयदेवसूरिके शिष्य विजयसिंहसरिके विजयप्रकाश रासकी रचना प्रारम्भकी हैं, जिन्हें विजयदेवसूरिने अपने पट्टधर स्थापित किया था। 2010_05 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री आदिनाथ के पुत्र मरुदेवके बसाया हुआ मरु नामक देश है जहां ईति, भीति, अनीति, चोरी-चकारी और डकायतीका नामोनिशान भी नहीं है, बड़े-बड़े व्यापारी निवास करते हैं और बेरोकटोक सत्राकार खोल रखे हैं । राजा लोग भी धर्मिष्ठ हैं, परमेश्वर की पूजा कराते हैं, जीवोंका "अमारि" नियम पलाते हैं एवं शिकार भी नहीं खेलते । वहांके सुभट शूर-वीर, लम्बी मूंछोंवाले हैं उनके हांथ में कृपाणी चमकतो है, व्यापारी प्रसन्न वदन रहते हैं और घरघरमें सुभिक्ष सुकाल है । जिस प्रकार मारवाड़ मोटा देश है वैसे वहांके कोश भी लम्बे हैं, निवासी भद्र प्रकृतिके हैं मनमें रोष नहीं रखते, कमरमें कटारी बांधते हैं। बणिक लोग भी जबरे योद्धा हैं हथियार धारण किये रहते हैं । रणभूमिमें पैर पीछा नहीं फेरते स्वधर्मियोंको धर्ममें स्थिर करते हैं । निष्कपट वृद्धाएं भी लम्बा घूंघट रखती हैं, सादगी जीवन और रसोईमें राबकी प्रधानता है, विधवाएं भी हाथमें चूड़ियां रखती हैं। वाहणमें ऊंठकी प्रधानता है, पथिक लोग जहां थकते हैं वही विश्राम लेते हैं परन्तु चोरीका भय नहीं है । शत्रुओंसे अभेद्य मारवाड़ के ये ६ कोट हैं :- १ मण्डोवर ( जोधपुर ) २ आबू ३ जालोर ४ बाहड़मेर ५ पारकर ६ जैसलमेर ७ कोटड़ा ८ अजमेर ६ पुष्कर या फलौदी । ६४ धन्य है मंडोवर देश जहां मंडोबरा पार्श्वनाथ और फलवद्धि पार्श्वनाथका तीर्थ है, कवि कहता है कि उनके दर्शनोंसे मैं सफल और सनाथ हो गया । 2010_05 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्योंका ऐतिहासिक सार ६५. ___ मरु मंडलमें यशश्वी मेड़ता नगर है इसकी उत्पत्तिके लिये यह लोककथा प्रसिद्ध है कि जैसे जैनशासनमें भरतादि चक्रवर्ती हुए वैसे शिवशासनमें मान्धाता नामक प्रथम चक्री हुआ उसकी माताका देहान्त ही जानेसे वह इन्द्रकी देखरेखमें बड़ा होकर महाप्रतापी चक्रवर्ती हुआ उसका आयुष्य कोड़ा कोड़ी वर्षोंका था। उसके लिये कृत युगमें इन्द्रने राज्य स्थापना करके मेड़ता नगर बसाया। ___ मेड़ता नगर अति समृद्धिशाली था, सरोवरादिका वर्णन कविने रासमें अच्छा किया है। निकटवर्ती फलवद्धिं पार्श्वनाथका तीर्थ महामहिमाशाली है, पोष दसमीको मेलेमें जहां एक लाख जनताः एकत्र होती है-दूर-दूर देशोंसे यात्री आते हैं। ____ उस मेड़तेमें ओसवाल जातिके चोरड़िया गोत्रीय शाह मांडण का पुत्र नथमल निवास करता था, उसकी पत्नीका नाम नायकदे था। उसके घरमें लक्ष्मीका निवास था सामग्री भरपूर थी, (उसकी) दादी फुलां धर्म कार्यों में धनका अच्छा सदुपयोग किया करती थी। नथमलके १ जेसो २ केसो ३ कर्मचन्द ४ कपूरचन्द और ५ पंचायण नामक पांच पुत्र थे, पांचो पुत्रोंमें तृतीय कर्मचन्द हमारे चरित्र नायक हैं उनका जन्म वि० सं० १६४४ (शक १५०६ ) फाल्गुन शुक्ला २ रविवारको उत्तरभद्रपदाके चतुर्थ चरण और राजयोगमें हुआ था। ___ एकबार रात्रिमें सेठ नथमल सुख शय्यापर सोये हुए थे, जागृत होकर संसारके सुखोंके मिलनेका कारण विचार करते हुए वैराग्य वासित होकर सुगुरुका संयोग प्राप्त होनेपर कृत पापोंकी-आलोयणा लेनेका विचार किया । दैवयोगसे तपा-गच्छके श्रीकमलविजयजी म० 2010_05 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ . ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ५५ ठाणोंसे विचरते हुए मेड़ता पधारे, उनके समक्ष श्रेष्ठिने आकर आलोयणा लेनेकी इच्छा प्रगट करनेपर मुनिवरने गच्छनायकसे आलोयणा लेनेकी राय दी परन्तु आखिर नथमलजीका अत्याग्रह देखकर २१ अष्टम तप और बहुतसे बेले और उपवासोंकी आलोयणा दी। ____ आलोयणाके अनन्तर विशेष वैराग्य वासित होकर अपनी स्त्री नायकदे और भ्राता सुरताणको भी महाव्रत लेनेके लिए उपदेश देकर, दोक्षाका परामर्श किया, सबके साथ२ कर्मचन्द आदिपुत्रोंने भी स्वीकृति दी। सेठने गच्छनायकके मिलनेपर दीक्षा लेना निश्चित किया। ___ इसी अवसरपर लाहोरमें दो चातुर्मास करके विजयसेनसूरि मेड़ता पधारे । नाथू शाह पांचो पुत्रोंके साथ गुरुश्रीको वन्दनार्थ आया। शुभ लक्षणवाले कर्मचन्दको देखकर गच्छनायकने सोचा कि अगर यह चरित्र ले, तो बड़ा विचक्षण होगा। गुरुश्रीने नाथू शाहसे कहा कि अभी हम हीरविजयसूरिजीके दर्शनार्थ जा रहे हैं तुम यथावसर कर्मचन्द्रादिके साथ आ जाना, ऐसा कहकर मेड़तासे सादड़ी, पर्युषणाके पारणेपर राणकपुर, वरकाणा तीर्थकी यात्रा करते हुए जालोर पधारे वहां कमलविजयजीने उन्हें वन्दना की, बीजोवाका संघ भी आया। वहांसे विहारकर श्री विजयसेनसूरि सिरोही होकर पाटण पधारे और हीरविजयसूरिजीका निर्वाण हुआ जानकर वहीं ठहरे। . . __इधर मेड़तेमें कर्मचन्द आदि दीक्षाकी तैयारियां करने लगे, बहुतसे धर्मकृत्योंको करते हुए जेसा और पञ्चायणको गृह भार संभलाकर १ नाथू २ सुरताण ३ कर्मचन्द्र ४ केसा ५ कपूरचन्द्र 2010_05 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nxnrmmmmm काव्योंका ऐतिहासिक सार (६ नायकदे) ६ व्यक्तियोंने सं० १६५२ माघ (शुक्ला) २ को पाटणमें विजयसेनसूरिके पास दीक्षा ग्रहण की। उनके दीक्षाके नाम इस प्रकार रखे गए-ना) = नेमविजय, सुरताण-सूरविजय, कर्मचन्द्र = कनकविजय, केशा कीर्तिविजय, कपूरचन्द्र = कुंवरविजय, इनमें कनकविजयको सुयोग्य समझकर विजयसेनसूरिने खशिष्य विजयदेवसूरिको सौंप दिया, उन्होंने इनको विद्याध्ययन कराया, श्रीविजयसेनसूरिने अहमदाबादमें सं० १६७० में पंडितपद से विभूषित किया। वीसा और वदाने महोत्सव किया। खंभातमें श्रीविजयसेनसूरिका स्वर्गवास हो जानेसे उनके पट्टधर विजयदेवसूरि हुए, उन्होंने सं० १६७३ में पाटणमें चौमासा किया, पोष वदी ६ को लाली श्राविकाने इनके हाथसे प्रतिष्ठा करवाई, इसी समय कनकविजयको उपाध्याय पद भी दिया गया। सम्राट जहांगीर विजयदेवसूरिसे माण्डवगढ़में मिले और प्रसन्न होकर "महातपा" पद दिया। विजयदेवसूरिने गुर्जर देशमें विहार करते हुए श्री शत्रुजयकी यात्रा की, उसके पश्चात् दो चौमासे दीवमें करके गिरनारकी यात्रा कर नवानगर पधारे, वहां संघने. २०००) जामी व्ययकर साम्हेला किया। तत्पश्चात् उन्होंने पुनः शत्रुजयकी यात्राकर खंभात चातुर्मास किया, वहां तीन प्रतिष्ठाओंमें चौदह हजार खर्च हुए। वहांसे माघ शुक्ला ६ को सावली पधारे । ३ मास तक मौन रहे, वहां सोनी रतनजीने अमारि पालन कराई, उस समय उ० कनकविजयजी ही व्याख्यान देते थे। गुरुने बहुतसे छ? अठ्ठमादि किए और वे आंबिल करके पूर्वदिशिकी ओर ध्यान 2010_05 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह किया करते थे । सूरि मंत्रके आराधनसे वैशाखमें स्वप्न में देवने कनकविजयजीको पद स्थापनका निर्देश किया, उसके बाद पूज्य सावली और ईडर पधारे। वहां दो चौमासे किये, प्रासाद प्रतिष्ठा हुई। उसके बाद राजनगर चातुर्मास करके एक चातुर्मास बीबीपुर में किया । चातुर्मासके अनन्तर सीरोहीके पंजावत तेजपाल और राय अखैराजके पोरवाड़-मंत्री तेजपालने गुरु वन्दना की, गुरुश्री पुनः श्री सिद्धाचलजीकी यात्राकर कमीपुर पधारे । तेजपाल ने पारस्परिक झगड़ा मिटाकर मेल कर लेनेकी विज्ञप्ति की उन्होंने भी स्वीकार कर समझौतेका पत्र लिखा, आचार्य विजयानन्दसूरि उ० नन्दिविजय वा० धनविजय, धर्मविजय आदिने विजयदेवसूरिकी पुनः आज्ञा शिरोधार्य की, तेजपाल पूज्यश्रीको सिरोही पधारनेकी विज्ञप्तिकर वापिस आ गया । पूज्यश्री राजनगरसे विहारकर ईडर आये, वहां तपागच्छीय संघके आग्रह से श्री उ० कनकविजयजीको वै० शु० ६ सोमवारको पुष्प नक्षत्र के दिन सूरिपद देकर स्वपट्ट पर स्थापन किया । उस समय ईडर संघ मुख्य सोनपाल, सोमचन्द्र, सुरजीके पुत्र सार्दूल, सहसमल, सुन्दर, सहजू, सोमा, धनजी मनजी, इन्दुजी और अमीचंद, राजनगर के संघवी कमलसिंह, अहमदपुरके पारख बेलाके पुत्र वापसी, पारख देवजी, सूरजी, थानसिंह, रायसिंह, सा०भामा, तोला, चतुर्भुज, सिंह, जागा, जसु, जेठा - जो गुरुश्रीके भाई थे, कोठारी वच्छराज, रहीआ, कर्मसिंह, धर्मसी, तेजपाल, अखयराज मंत्री समरथ मं० लखू भीमजी, भामा, भोजा, फड़िया मालजी भाणजी लखा चौथिया, गांधी वीरजी, मेघजी 2010_05 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह vvvvvv vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvi काव्योंका ऐतिहासिक सार सा० वीरजी, देवकरण, पारख जस्सू, भाणजी, सूरजी, तेजपाल इत्यादि ईडरका संघ सम्मिलित हुआ इसी प्रकार द्याक्ड़ और अहिमनगरका संघ एवं सावलीका संघ पदमसी, चांदसी आदि एकत्र हुए, सा० नाकर पुत्र सहजूने चतुर्विध संघके साथ पद प्रदानके लिये तपागच्छ नायकको एवं उ० धर्मविजय वा० लावण्यविजय वा० चारित्रविजय पं० कुशलविजय इन चारोंको बुलाया गया। पदस्थापनाके अनन्तर कनकविजयका नाम विजयसिंहसूरि रखा गया, पं० कीर्तिविजय, लावण्यविजयको वाचकपद और अन्य ८ साधुओंको पंडित पद दिया गया। इस उत्सवमें सहजूने पांच हजार महम्मदी व्यय किये, ईडर नरेश कल्याणमल प्रसन्न हुए। ज्येष्ठ मासमें बिम्ब प्रतिष्ठा हुई, शाह रइयाने उत्सव किया, दूसरे यक्षमें अमराउतने सुयश लिया, पारख देवजीके घर पूज्यश्रीने प्रतिष्ठा की, इस प्रकार सं० १६८१में बड़े ही आनन्दोत्सव हुए। राय कल्याणने दोनों आचार्यों को ईडरमें चौमासेके लिए रखा। सीरोहीके शाह तेजपालकी विज्ञप्तिसे चैत्र मासमें सूरिजी आबू पधारे, सं० मेहाजल दोसी, जोधा सन्मुख आए। आबूकी यात्राकी। बभणवाड़के वीर प्रमुकी यात्रा कर चातुर्मासार्थ सीरोही पधारे । मा० तेजपालादिने बहुतसे सुकृत किये । इसी समय विजयादशमी सं० १६८३ को यह विजयप्रकाश रास कमलविजयके शिष्य विद्याविजयके शिष्य गुणविजयने रचा। ऐतिहासिक सझायमाला भा० १ पृ० २७ ( सझाय नं० ३४ लालकुशलकृत ) में कई बातोंका अन्तर व विशेषताएं हैं। 2010_05 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह १ पुत्रोंके नाममें ५ वें पंचायणके स्थानमें प्रथम जेठाका नाम है। २ पांचही व्यक्तियोंके दीक्षा लेनेका लिखा है, सुरताण-सूरविजय का उल्लेख नहीं है। नायकदेका दीक्षा नाम नयश्री लिखा है, एवं दीक्षा सं० १६५४ लिखा है। विशेष-सं० १६८४ पौष शुक्ल ६ बुधवार जालोरके मंत्री जयमलने गुणानुज्ञाका नन्दिमहोत्सव कराया, उस समय जससागर के शिष्य जयसागरको और विजयसिंहसूरिके भाई कीर्ति विजयको वाचक पद दिया। आचार्य विजयसिंहसुरिने राणा जगतसिंहको प्रतिबोध दिया, मेड़तेमें आगरा निवासी बादशाहके मुख्य व्यवहारी हीराचंदकी भार्या मनीने इनके हाथसे प्रतिष्ठा कराई, इसी प्रकार किसनगढ़में राठौर रूपसिंहके महामन्त्री रायसिंहके आग्रहसे चातुमांस कर प्रतिष्ठा की। सं० १७०६ असाढ़ सुदि २ अहमदाबादके नवीनपुरामें उनका स्वर्गवास हुआ। 2010_05 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त कविपरिचय अक्षरानुक्रमसे कवियों के नामोंकी सूची अभयतिलक (३०) जिनपतिसूरि पट्टधर जिनेश्वरसूरिके शिष्य थे, आपके रचित १ सं० १३१२ पालणपुरमें हेमचंद्रसूरिकृत हृयाश्रय ( २० सर्ग) काव्यवृत्ति २ न्यायालङ्कार टिप्पन (पंचप्रस्थ न्यायतर्क व्याख्या ) ३ वीररास (सं० १३१७) विशेष परिचय देखें :-जैनयुग वर्ष २ पृ० १५६ ला० भ० का लेख । १ अभैविलास (४१३) श्रीपालचरित्र कर्ता जयकीर्तिजीके शिष्य प्रतापसौभाग्यजीके आप शिष्य थे। आपकी परम्परामें अभी कृपाचंद्रसूरि विद्यमान हैं। २ आनन्द (१७७ )। ३ आनन्दविजय (२०६)। ४ आलम ( ३३८) कविवर समयसुन्दरकी परम्परामें आसकरणजीके शिष्य थे, आप अच्छे कवि थे, आपके रचित १ मौन एकादशी चौ० ( १८१४ मकसूदाबाद) २ सम्यक्त्व कौमुदी चौ० ३ जीवविचारस्तवन आदि उपलब्ध हैं। 2010_05 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ५ कनक ( १३४ ) आप सम्भवतः उ० क्षेमराजजीके शिष्य थे, आपका पूरा नाम 'कनकतिलक' होगा। ६ कल्याणकमल (१००) देखें :-युगप्रधान जिनचन्दसृरि पृ० १७२। ७ कल्याणचंद्र (५२) कीर्तिरत्नसूरिजीके शिष्य थे। सं० १५१७ में सूरिजीसे आपने आचारांगकी वाचना ली जिसकी प्रति जे० भ० में (नं० २) अब भी विद्यमान हैं। ८ कल्याणहर्ष (२४७) ६ कविदास (१७४) १० कवीयण (२६३-२६२)। ११ कनकसिंह ( २४३) शिवनिधान शिष्य, देखें यु० जि० सू० पृ० ३१३। १२ कमलरत्न ( २३३) देखें यु० जि० सू० पृ० ३१५ । १३ कमलहर्ष ( २४० ) श्रीजिनराजसूरि शिष्य मानविजयजी के आप शिष्य थे, आपके रचित :-१ पांडवरास (१७२८ आ० व० २ र० मेड़ता) २ धना चौ० ( १७२५ आ० सु०६ सोजत) ३ अंजना चौ० (१७३३ भा० सु० २) ४ रात्रि भोजन चौ०, (१७५० मि० लूणकरणसर) ५ आदिनाथ चौढ़ा० ६ दशवैकालिक सझायें इत्यादि उपलब्ध हैं। १४ कनकधर्म (२६६ )। १५ कनकसोम (१०-१४४ ) देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० १६४ १६ करमसी (२४७) 2010_05 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त कविपरिचय १०३ १७ कीर्तिवर्द्धन ( ३३३ ) जिनहर्ष ( आद्यपक्षी ) सूरिजीके शिष्य दयारत्न ( कापर हेडारास कर्त्ता १६६५ ) के आप शिष्य थे, आपके रचित सदयवछसावलिंगा चौ० (१६६७ विजयदशमी ) प्राप्त है । .y १८ कुशलधीर ( २०७ ) देखें युगप्रधान जिनचंद्रसूरि पृ० १६४ । ,, १६६। १६ कुशललाभ ( ११७ ),, २० खइपति ( १३८ ) २१ खेमहंस ( २१७ ) क्षेमकीर्ति ( शाखाके आदि पुरुष ) जीके शिष्य थे, आपकी रचित मेघदूत दीपिका उपलब्ध है। जयसोम, गुणविनय आपहीकी परम्परामें थे । २२ खेमहर्ष (२४२-४३) आपके रचित कई स्तवन हमारे संग्रहमें हैं। "" "" २३ गुणविजय ( ३६४ ) आपके रचित १ विजयप्रशस्ति काव्यके अन्तिम ५ सर्गमूल और समग्रग्रन्थपर टीका २ कल्प | कल्पलता टीका ३ सातसौ बीस जिन स्त० आदि उपलब्ध हैं। २४ गुणविनय ( ६३-६६-१००-१२५-१७२-२३०) देखें' यु० जिनचंद्रसूरि पृ० २०० । २५ गुणसेन (१३६) सागरचंद्रसूरि शाखाके वा० सुखनिधानजी के आप शिष्य थे आपके रचित कई स्तवन हमारे संग्रहमें हैं । आपके यशोलाभ नामक शिष्य थे जो अच्छे कवि थे । २६ चारित्रनंदन ( २६७ )। २७ चारित्रसिंह ( २२५ ) देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० १६७ ॥ 2010_05 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nawwamr १०४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह .. २८ चन्द्रकीर्ति (४०६) देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० २०८ । ... ६ जयकीर्ति (३३४) कविवर समयसुन्दरजीके शि० वादी हर्षनंदनजीके शिष्य थे। ___३० जयकीर्ति द्वि० (४११-१२) आप कीर्तिरत्नसूरि शाखाके अमरविमल शि० अमृत सुन्दरजीके शिष्य थे, आपके रचित १ श्रीपाल चारित्र ( १८६८ जेसलमेर) २ चैत्रीपूनम व्याख्यान आदि उपलब्ध हैं। ३१ जयनिधान (१४५) देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० २०६ । ३२ जयसोम (११८) देखें यु० , पृ० १६७ । ३३ जल्ह (१३८)। ३४ जिनचन्द्रसूरि (४१८) उसी ग्रन्थमें राससार पृ० २६६ ३५ जिनसमुद्रसूरि (३१५-१६) देखें इसी ग्रन्थमें राससार पृ०७५५ ३६ जिनेश्वरसूरि (४३०) बेगड़ गुणप्रभसूरि शि० ३७ देवकमल (१३६ ) इनका नाम जइतपदबेलिमें आता है अतः साधुकीर्तिजीके गुरु-भ्राता होना सम्भव है। ३८ देवचंद (२६४)। ३६ देवीदास (१४७)। ४० धर्मकलश (१६)। ४१ धर्मकीर्ति ( १८६ ) देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० १८३ । ४२ धर्मसी (२५०-५२) देखें राजस्थान पत्र वर्ष २ अंक २ में प्र. मेरा लेख। । ४३ नयरंग ( २२६ ) देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० १६५ । 2010_05 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त कविपरिचय १०५ ४४ नेमिचंद भंडारी ( ३७२ ) पष्टीशतक कर्त्ता, जिनपति शिष्य जिनेश्वरसूरि के पिता । ४५ पुण्यसागर (५) देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० १८८ । ४६ पुण्य ( ३३७ ) यथासम्भव आप समयसुन्दरजीके परम्परामें ( कविवर विनयचंद्र के प्रगुरु ) होंगे और पूरा नाम (पुण्यचंद शि० ) पुण्यविलास होगा । ४७ पदमराज ( १७ ) देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० १६० । ४८ पद्ममन्दिर (५६ ) आपके रचित १ प्रवचनसारोद्धार बाला० ( १५६३ ) उपलब्ध है । ४६ पहराज ( ४० ) ५० पल्ह (३६८ ) इनका नामोल्लेख चर्चरी टीका ( अपभ्रंश काव्यत्रयी पृ० १२ ) में आता है, आप दिगम्बर भक्त और ( जिन दत्तसूरिके) अभिनवप्रबुद्ध श्राद्ध थे, लिखा है । ५१ भत्तर ( ६ ) । ५२ भक्तिलाभ (५४) उ० जयसागरजी के शि० रत्नचंद्रजीके आप सुशिष्य थे, आपके रचित १ कल्पांतरवाच्य २ लघुजातक कारिकाटीका (१५७१ विक्रमपुर ) ३ जीरावला पार्श्वस्त ० संस्कृत स्तोत्र प० ३, ४ सीमंधरस्तवनादि उपलब्ध हैं। आपके शि० चारुचंद्रजी कृत १ उत्तम कुमारचरित्र २ रतिसार चौ० ३ हरिबल चौ० ( १५८१ आ० सु० ३ ) ४ नंदनमणियारसन्धि ( १५८७ ) आदि उपलब्ध हैं आपकी परम्परामें श्रीबलभोपाध्याय हो गये हैं, देखें यु० चरित्र पृ० २०३ | ५३ महिमा समुद्र ( ४३१ - ३२) बेगड़शाखा 2010_05 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ५४ महिमहर्ष ( ४३२ ) बेगड़ शाखा, अच्छे कवि थे । ५५ महिमाहंस ( ३०० ) ५६ माइदास ( ३१८ ) ५७ माणक ( २६४ ) ५८ माधव ( ३३६ ) ५६ मेरुनन्दन ( ३६६ ) जिनोदयसूरि आपके दीक्षागुरु थे । आपके रचित अजितशान्तिस्तवनादि उपलब्ध है । ६० रयणशाह ( ७ ) ६१ रत्ननिधान (१०३ - १२३) देखें यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० १०४ ६२ राजकरण ( ३०३ - ३०४ ) ६३ राजलछी ( ३४० ) ६४ राजलाभ ( २५५-२५७ ) देखें यु० जिनचंद्रसूरि पृ० १७३ ६५ राजसमुद्र ( १३२ ) आचार्य पदके अनन्तर नाम जिनराजसूरि, देखें इसी ग्रन्थमें राससार पृ० २२ ६६ राजसुन्दर ( ३२० ) प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि आप ( जिनसिंहपट्टे ) पिप्पलक जिनचन्द्रसूरिजीके शिष्य थे । ६७ राजसोम ( १४६ ) कविवर समयसुन्दरजीके शि० हर्षनन्दन शि० जयकीर्त्तिजीके शिष्य थे । आपके रचित श्रावकाराधना ( भाषा) २ कल्पसूत्र ( १४ स्वप्न ) व्याख्यान ( सं० १७०६ श्रा० सु० ६ जेसलमेर, जिनसागरसूरि शि० जसवीर पठ०) ३ इरियाविही मिथ्यादुष्कृतस्त० बाला० ४ फारसी स्त० आदि उपलब्ध है । ६८ राजहंस ( २३१ ) 2010_05 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त कविपरिचय १०७ ६६ रूपहर्ष (२४१) आप राजविजयजीके शिष्य थे। ७० लब्धिकल्लोल(७८-१२१-१२२)देखें यु०जिनचन्द्रसूरि पृ०२०६ ७१ लब्धिशेखर (६८) ७२ ललितकीर्ति (२०७-४०५) देखें यु० जिनचन्द्रसूरि पृ०२०६ ७३ लाधशाह (३२१) कडुआमती (कडुवा-खीमो-वीरो-जीवराज तेजपाल-रतनपाल-जिनास-तेज-कल्याण-लघुजी थोभणशि० ) थे। आपके रचित, १ जम्बूरास (१७६४का० सु० २ गुरु सोहीगाम) २ सूरत चैत्य परिपाटी (१७६३ मिव ब० १० गु० सूरत) ३ पृथ्वीचन्द्रगुणसागर चरित्रबाला० ( १८०७ मि० सु०५ रवि० राधणपुर) प्राप्त है। ___ ७४ वसतो ( २६५) आपके रचित् १ लोद्रवास्त० ( १८१७ मि० व ५ र०) २ वीशस्थानक स्त० गा० १६, ३ रात्रिभोजन सझाय, ४ पार्श्वनाथ स्तवनादि उपलब्ध है। ७५ विमलरत्न ( २०८) ७६ विद्याविलास ( २४५) आपके रचित कई संस्कृत अष्टक आदि हमारे संग्रहमें है। ७७ विद्यासिद्धि (२१४) ७८ बेलजी ( २५१) ७६ श्रीसार (६१-६४) देखें युगप्रधान जिनचन्दसूरि पृ० २०७ ८० श्रीसुन्दर ( १७१) , पृ० १७२ ८१ समयप्रमोद (८६-६६) देखें यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० १७२ ८२ समयसुन्दर (८८-१०६-७-८-६-२६-२७-२८-२६-३१ ___ 2010_05 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह २००-२२७) देखें उपरोक्त पृ० १६७ और राससार पृ० ४५ । ८३ समयहर्ष ( २५४) ८४ सहजकीर्ति ( १७५-७६ ) देखें यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० २०६ ८५ सारमूर्ति ( २३) .८६ साधुकीति(६२-६७-४०४)देखें यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० १६२ ८७ सुखरत्न (१४६) ८८ सुमतिकाल्लोल (६४) पृ० १०५ ८६ सुमतिवलभ (१९८) १० सुमतिविजय (१७७ ) ६१ सुमति विमल ( २५०) . १२ सुमतिरंग (४१०-४२१ ) देखें यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० ३१५ .... ६३ विवेकसिद्धि (४२२) ६४ सोमकुंजर (४८) आप उ० जयसागरजीके विद्वान शिष्य थे। विज्ञप्तित्रिवेणी पृ० ६१ से ६३) में आपके रचित कई अलंकारिक पद्य भी पाये जाते हैं। ६५ सोममूर्ति ( ३८७ ) जिनपतिसूरि शि० जिनेश्वरसूरिजीके आप सुशिष्य थे और उ० अभयतिलकजीके आप सतीर्थ थे। देखें जैनयुग वर्ष २ पृ० १६४ । ६६ हर्षकुल (५७) महो०-पुण्यसागरजीके शिष्य थे, उल्लेख यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० १६० १७ हर्षचन्द ( २४६) रूपहर्ष शि०, आपके रचित अन्य एक गहुँली भी संग्रहमें है। . 2010_05 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त कविपरिचय - १०६ १८ हर्षनन्दन(१२४-३२-३३-१४६-२०१-२०३)देखें यु-पृ० १७१ ६६ हर्षवल्लभ (४१७ ) देखें यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० १८५. १०० सेवकसुन्दर (४२०) १०१ हेमसिद्धि (२११-१३) १०२ क्षमाकल्याण (२६६-३०६-७ ) देखें इसी ग्रन्थमें राससार पृ० ६४ १०३ ज्ञानकलश (३२६) १०४ ज्ञानकुशल (२३२) १०५ ज्ञानहर्ष (३३५-३७८) देखें यु० जिनचन्द्रसूरि पृ० ३०५ कवियोंके नामके आगे प्रस्तुत संग्रह (मूल) के पृष्ठोंकी संख्या दी गई है। कइ कवि एकही नामसे एकही समयमें कइ हो गये हैं अतः संदिग्ध परिचय देना उचित नहीं ज्ञात हुआ । 2010_05 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 2010_05 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 2010_05 प्रगट प्रभावी योगीन्द्र युगप्रधानजी जिनदत्त सरिजी (जैसलमेर भाण्डागारीयप्राचीन ताडपत्रीय प्रतिके काष्ठफलकपर चित्रित) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अहम् ॥ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ॥ श्री गुरु गुण पटपद ॥ जिणवल्लह-पमुहाणं, सुगुरूणं जो पढेइ वर-कप्पं । मंगल-दीवंमि कए, सो पावइ मंगलं विमलं ॥१॥ इग्यारह सइ सट्ठसत्त समहिय संवछरि । ___ आसाढइ सिय छट्टि चित्तकौटंमि पवरपुरि । महावीर जिणभवणिट्ठिय संठिउ जिणवल्लह । जिणि उज्जोयउ चंदु गछ पंडिय जिणवलह । गुरु तक्क कन्व नाडय पमुह, विज्जा वास पसिद्ध धर । परिहरवि आवि विहि पयड़ कइ, पुहवि पसंसिजइ सुपरपरि ॥१॥ इग्यारह गुणहत्तरइ किसण वैसाख छट्टि दिणि। चित्तउड़ह वर नयरि संघु मिलियउ आणंदिणि । वद्धमाण जिणभवणिभयउ तहि घणउ महोछवु ।। देवभहि संठियउ सूरि जिणदत्त सुनिछवु । आयस पुणति सूरि भिछ, जिम झाण नाण संतुट्ठ मण । जिणदत्त सूरि पहु सुर गुरवि, थुणवि न सक्कउं तुम्ह गुण ॥ २ ॥ अज्जवि जसु जस पसरु महि छहखंड धरत्तिहि । ... अज्जवि जसु गुण नियरू थुणहि पंडिय बहु भत्तिहि । अज्जवि सुमरिज्जंतु विग्धत्तु अवहरइ पवित्तण । नाम ग्रहणि कुणंति जसु अज्जवि भवियण दिण । 2010_05 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Avvv~ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अज्जवि जु देवु लोइ ट्ठियउ, संघ मणछिउ देइ फलु । जिणदत्त सूरि पहु सुरगुरूवि, धम्मु पयासिउ जिण अमलु ॥३॥ अभयदाणु जिणि दिनु सयल संघह विक्कमपुरि।। किय पयट्ठ जिण उसभ भुवणि बहुविह उछबु भरि । जिणि पडिबोहउ कुमरपालु नरवय तिहुयण गिरि । पंचसत्त मुणि नेमि जेणि वारिउ देसण करि । उज्जेणी वक्कु जोइणि तणउं, जिणि पडिबोहउ झाण बलि। जिणदत्त सूरि पहु सुरगुरवि, हुयउ न होइ सइ इत्थु कलि ॥४॥ बारह पंचुत्तरइ धवल वैसाख छट्टि दिणि । सइ जिणदत्त मुणिंद ठविउ जिनचंदु पट्टि तहि (? जिणि) ।। विक्कमपुरि जिण वीर भुवणि वादिय मणु मोहइ । गणहरु जेम सुहम सामि भवियण दिण बोहइ । जिणचन्द सूरि जसु चन्दु सम, अज्जवि उज्जोयइउ गयणु जिणि । .............................................. ।।५।। बारह सइ तेवीस समइ कत्तिय सिय तेरसि । बबेरेपुरि ठविउ सूरि जिणपत्ति महा रिसि ॥ मंतुं दिनु जयदेव सूरि सूरहि सुपवित्तिण, अत्थाणु पहुविरायह तणउ जिणि रंजवि जयपत्तु लियउ। खरहरय सहि जगि पयडिउ, जुग पहाणु पहुविप्पयउ ।। ६ ।। बारअठ्ठहतरइ माह सिय छट्टि भणिज्जइ । जिणेसर सूरि पइसरइ संघु सयलु विविह सज्जइ । 2010_05 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुरु गुण षटपद सूरिमंतु सिरि सव्वएवसूरहि जसु दिनउ । . जालउरहि जिणवीर भुवणि बहु उच्छव (की) नउ ॥ कंसाल ताल झलरि पडह, वेण वंसु रलियामणउ । सुपढंति भट्ट सुंमहि गहिर, जय जय सद्द सुहावणउ ॥णा जिणवल्लह जिणदत्त सूरि जिणचंदु जु जिणवइ । तुय सुव्वइ आसीस दिति जिणेसरसूरि मुणिवइ । उयहि जाम जलु रहइ गयणि जाम मह दिणेसरु । ताम पयासिउ सूरि धंमु जुगपवरु जिणेसरु ।। विहि संघु स नंदउ दिणगदिगु, वीर तित्थु थिरु होउ धर । पूजन्ति मणोरह सयल तहि, कव्वट्ठ पढंति नारि नर ॥ ८ ॥ [इति षट पदम्] 2010_05 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ॥श्री जिणदत्तसूरि स्तुति ।। SRA PU सिरि सुयदेवि पसाउ करे, गुरु श्रीजिणदत्त सुरि। · वन्निसु खरतर गण गयणि, सूरि जेम गुण पूरि ॥१॥ संवत इग्यारह वरसि, बतीसइ जसु जम्म । वाछिग मंत्री पिता जणणि, बाह (ड) देवि सुरम्म ॥ २ ॥ इगतालइ जिणवय गहिय, गुणहुत्तरइ जसु पाट । वइसाखइ वदि छट्टि दिणि, पय पणमी सुर घाट ॥३॥ अंबड सावय कर लिहिय, सोवन अखर अंबि । जुग पहाण जगि पयडियउ ए, सिरि सोहम पडिबिंब ॥४॥ जिण चोसठि जोगिणी जितिय, खित्तवाल बावन्न । डाइणि साइणि विभूसीय, पहुवइ नाम न अन्न ।। ५ ।। सूरि मंत्र बलि कर सहिय, साहिय जिण धरणिंद । ___सावय सविय लख इग, पडिबोहिय जण वृन्द ॥ ६॥ अरि करि केसरी दुट्ठदल, चउविह देव निकाय । आण न लोपि कोइ जगि, जसु पणमइ नरराय ।। ७ ।। संवत बारह इग्यार समइ, अजयमेरुपुर ठाण । इग्यारसि आसाढ़ सुदि, सग्गिपत्त सुह झाणि ।। ८ ॥ श्री जिणवलह सूरि पए, श्रीजिणदत्त मुणिंदु । . विग्ध हरण मङ्गलकरण, करउ पुण्य आणंदु ॥ ६ ॥ 2010_05 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टकम् श्री पुण्यसागर कृत ॥ श्रीजिनचन्द्रसूरि अष्टकम् ॥ श्रीजिनदत्त सुरिन्दपय, श्रीजिनचन्द्र मुणिन्द । नय (?) र मणि मंडित भाल यस, कुसल कुमुद वणचंद || १|| संवत सिव सत्ताणवयं, सद्दट्ठमि सुदि जम्मु । रासल तात सुमातु जसु, देल्हण देवि सुधम्म ॥ २ ॥ संवत बार तिरोत्तरय, फागुण नवमि विशुद्ध । पंच महव्वय भरि धरिय, बालत्तणि पडिबुद्ध ॥ ३ ॥ बारह सइ पंचोतरइ ए, वैशाखाह सुदि छट्ठि | थापि विकमपुर नयरि, जिणदत्त सूरि सुपट्टि ॥ ४ ॥ तेविस भाद्रव कसिणि, चवदसि सुह परिणामि । सुरपुरि पत्तउ मुणिपवर, श्री जोयणिपुर ठामि ॥ ५ ॥ सुह गुरु पूजा जह करइ ए, नासय तासु किलेस । रोग सोग आरति टलइ ए, मिलइ लच्छि सुविशेष || ६ || नाम मंत्र जे मुख जपइ ए, मणु तणु सुद्धि तिसँझ | मनवंछित सवि तसु हुवई, कज्जारंभ अझ ॥ ७ ॥ जासु सुजसु जगि झिगमिगै ए, चंदुज्जल निकलंक । प्रभु प्रताप गुण विप्फुरइ. हरइ डमर अरि संक ।। ८ ।। इय श्रीजिनचन्द्रसूरि गुरु, संधिणिउ गुणि पुन्न । श्री " पुण्यसागर" वीनवइ, सहगुरु होउ सुप्रसन्न ॥ ६ ॥ इति श्री जिनचन्द्रसूरि महाप्रभावीक अष्टकं संपूर्णम् । (गुलाबकुमारी लायब्रेरीके गुटका नं० १२५ से उद्धृत) 2010_05 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह wwwarwww शाह रयण कृत श्रीजिनापतिसूरि धवल गीतम् वीर जिणेसर नमइ सुरेसर, तस पह पणमिय पय कमले । युगवर जिनपति सूरि गुण गाइसो, भत्तिभर हरसिहि मनिरमले ॥१॥ तिहुअण तारण सिव सुख कारण, वंछिय पूरण कल्पतरो। विधन विणासण पाव पणासण, दुरित तिमिर भर सहस करो ॥२॥ पुहवि पसिद्धउ सूरि सूरिश्वर, शम दम संयम सिरि तिलउ ए। इणि कलिकालहि एह जो जुगपवर, जिणवइ सूरि महिमा निलउ ए॥३॥ अत्थि मरुमण्डले नयर विक्कमपुरे, जसोवर्द्धनु जगि जाणिइ ए। तासुवर गेहिणी सूहव देविय, जासु वर पुत्त वखाणिइ ए ॥ ४ ॥ विक (म) संवच्छरे बार दहोतरे, चैत्र धुरि आठमि जो जाईयउ ए। नयर नर नारि नय(व?)रंग भरि गायो, जसोवरधनु बधावियउ ।।५।। तिणि सुह दिवसहि निय मणि रंगहि, उच्छव करिय नव नविय परे । निरुपम "नरपति" नामु तसु किन्जए, ऋमि क्रमि बाधइ तात घरे॥६॥ बार अढार ए वीर जिणालए, फागुण बदि दसमिय पवरे । वरीय संजम सिरीय भीमपल्लीपुरे, नन्दि वर ठविय जिणचंदसूरे ॥७॥ अह सयल सार सिद्धांत अवगाहए, सजणमण नयण आणंदणउ ए। नाण गुण चरण गुण पयासए, चउ विह संघ सोहामणउ ए ॥८॥ 2010_05 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनपतिसूरि धवलगीतम् बार त्रेवीसए नयरि बब्बेरए, कातिय सुदी दिन तेरसीए । श्री जिणचन्दसूरि पाटि संठाविउ, श्रीजयदेव सूरि आयरीए ॥६॥ गुरुय नामेण जिनपति सूरि उदयउ, चन्द्र कुलंबर चन्दलउ ए। विहरए सयल देसंमि गुण भरिउ,समइ सरोरह (? वर) हंसलउ ए।।१०।। पेखि किरि रूव लावन्न गुण आयार, जण जण जंपए मनि धरी ए। सिरि माल्हूय कुले कमल दिवायर, वादीय गय घड केसरी ए ॥११॥ पामीउ जेत्रु छतीस विवादिहि, जयसिंह पहविय परषद (इ) ए। बोहिय पुहविय पमुह नरिन्दह, जासु वयणि जिण आदर(इ)ए ॥१२॥ दीखिय बहु सीस पयट्ठिय बहु बिब, थापिय रीति खरतर तणी ए। जासु पय पणमए सासणा देवि, देवि जालंधरा रंजिवी ए ॥१३॥ अह मरुकोटहि नेमुचन्द निवसए,(गुरु)गुरु देखि मनु नविगम(इ)ए। जासु मनि निवसए खरउ जिण धम्मु, खरउ आचारि गुरु मनि गम (इ) ए ॥१४॥ तायणु सोपुरि(पुरे) नयरि गामागरे, गुरु २ चि(वि?) रिय जोवइ अपारे भमियउ बारह वरिस भण्डारिय, सुगुरु देखतउ समय सारे ॥१५॥ अह अवर वासरे पट्टणे पुरवरे, श्रीयजिनपतिसूरि पेखि करे । तउ मनि मानिय सयणजण आणिय, आदिरीयउ गुरु हरिस भरे ।१६॥ तासु अंगोल मुनियपय जोगि, जाणिय सयहत्थि दीखि करे।। तयण जिण सासण पभाव पयडंतउ, पहुतउ पाल्हणपुर नयरे ॥१७॥ सुललित वाणि वखाणु करंतउ, भविय बोहंतउ विविह परे । साह(?हू)सावय जण जस्स सेवा करइ, सेव सारइसुर सुपरि परे॥१८॥ अन्नं दिगंतरे बार सतहोतरे, मास असाढि जिण अणसरी ए। मन्न सुह झाणहि सिय दसमी दिवसहि, पहुतउ सूरि अमरापुरी ए।१६ एहु श्री जिणपति सूरि गुरु जुगपवरु, साह "रयण" इम संथुणइ ए । समरइ जे नर नारि निरंतर, तहा घर नविनिधि संपज(इ) ए ॥२०॥ 2010_05 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह कवि भत्तउ कृत श्रीमजिनपतिसूरीणां गीत वीर जिणेसर नमीउ सुरेसर, तस पह पणमिय पय कमले । युगवर जिनपतिसूरि गुण मंडन, गुण गण गाइसो मनि रमले ।१। तिहुअण तारण सिव सुह कारण, वंछिय पूरण कलपतरो। विधन विणाशन पाव पणाशन, दुरित तिमिर न(?भ)र सहस करो।२ काम धेनोत्तम काम कुम्भोपम, पूरण जेमे चिन्तारयण । श्रीय जिण शासणि नव नव रंगिहि, अतुल प्रभाव प्रगटीयकरण ॥३॥ तिहुअण रंजण भव दुह भंजण, दसण नाण चारित्तजुत्तो । सकल जिणागम सोहग सुन्दर, अभिनवउ गोयम उदयवंतो।४। पुहवि प्रसिद्धउ सूरि सूरीसर, चन्द्र कुलंबर चन्दलउ ए। कमल नयण मंगल कुल कारण, गङ्गजल तासु जसु निरमल उ ए ।५। इणि कलिकालिहिं अवरु नवि सुणीइए, सिरिमाल्हूय कुले सिरतिलउ ए सोहम वंसिहि वयरह साखिहिं, जिणवइए सूरि महिमा निलउ ए ।६। अवर वर वासुरि पुन्य भर भासुरे, मूल नक्षत्रि चउथइ जु सारो। थुगई सुर नमई नर चरण चूड़ामणि, जायउ पुत्रु नरवय कुमारो ।' नर वर नारिय घरि घरे गायउ, जसोवरद्धनु बधावीउ ए। तस घरणीय माणव मन हरणीय, उछव गरूअ करावीउ ए। ८ । देसि मुरमुण्डले नयरि विकम पुरे, जसो वरद्धनु जगि जाणीउ ए। सूहवदेविय उयरि ऊपन्नउ, तिहूयण सयलि वखाणीउ ए । । । विकम संवत्सरे बार दहोतरे, चैत्र बहुल आठमि (आठमि ! ) पवरे । 2010_05 | Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमजिनपतिसूरिणां गीतम् सलहीय जय "नरपति"इणि नामिहि, क्रमिक्रमि वाधइ ए तातघरे ॥१०॥ बार अढ़ारह ए वोर जिगालए, फागुण धुरि दसमीय पवरे । वरीय संजमसिरे भीमपल्लीय पुरे, नांदि ठविय जिणचन्दसूरे । ११ । पढय जिणागम पमुह बिजावलोय, दरसणि त्रिभुवनु मोहीऊ ए। कमल दलावल देह सुकोमल, गुणमणि मन्दिर सोहीऊ ए । १२ । रूव कला गण गुण रयणायर, तिहूअण नयण आणंदयंतो। महीयले सोहइ ए भविक जन मोहइ ए, चालइ ए मोह तिमर हरंतो।१३ बार तेवीसइ ए नयरि बबेरइए, कातिक सुदि दिण तेरसी ए । जाणीय जयदेव सूरिहिं थापिय, तिहुअण जण मण उल्हसी ए ।१४। सिरि जिणचन्दह तणय सुपाटिहि, उवसम रस भर पूरीयउ ए । सुवहीय चारु विहार करतंउ, अजयमेरे नयरि सम्मोसरिउ ए ।१५। पामीउ जेतु छत्रीस विवादिहिं, जयसिंह पुहवीय परषदइ ए । बोहिय पुहविय पमुह नरिंदह, निसुणीय वयणि जिण ध्रम्मु करइ ए।१६। दीखिय बहुशीस पयट्ठिय बहुविह बिंब, थापीय रीति खरतर तणोए । प्रभ पय बेवइ ए निसि दिन सेवइ ए, देवी जालंधर रंजिवी.ए ।१७। सुललित वाणि वखाण करंतउ, धवल असाढ सतहत्तरइ ए। मन सुह झाणिहिं दसमिय दिवसिंहिं, पहुतउ सूरि अमरा पुरी ए ।१८। चरण कमल नरवर सुर सेवइ, मङ्गल केलि निवास हुए। थूमह रयण पालणपुरे नयरिहिं, तिहुअण पुरइ ए आस हु ए।१६। लीणउ कमलेहि भमर जिम "भत्तउ", पाय कमल पणमिय कहइ । समरइ ए जे नर नारि निरंतर, तिहां घरे रिद्धि नवनिहि लहइ ए।२०। इति श्रीमजिनपति सूरीणां गीतम् । 2010_05 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्रीजिनपति सूरि स्तूफ कलश: जनितभुवनतोषं रम्यसम्यक्त्वपोषं, घटितकलुषमोषं स्नात्रमत्यस्तदोषम् । प्रभुजिनपतिसुरेः प्रीणितप्राज्यसूरे यंपगतमलगात्रैः सूयते पुण्यपात्रैः ॥ १॥ कनककलशपूरैः कान्तिनिधूतसूरैः कलकमलपिधानैः पुष्पमालाप्रधानैः । जिनपतियतिमूले मज्जनं सज्जनानां, जनयति भवनोदं विश्वविश्वप्रमोदम् ।। २ ॥ श्रीमत्प्रह्लादनपुरवरे प्रोन्नतस्तूपरत्ने, स्फूर्जन्मूर्ति जिनपतिगुरु रत्नसानोजनंदा । क्षीरे नीरे स्नपय सुतरां भव्यलोका अशोकाः, प्रेयः श्रेयः श्रियमनुपमा येन रम्यां लभध्वे ॥३॥ इति जिनपतिसूरिगौतमः श्रीसुधर्मा, प्रभुयुगवरजम्बूस्वामिवत्सप्रतापः । मथितकुपथदर्पो मज्जितः सज्जितश्रीः, सकलकलशराध्या पातु संघाय लक्ष्मीः ॥४॥ ॥इति श्रीजिनपतिसूरीणां स्तूपकलशः ।। 2010_05 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनप्रभसूरि गीतम् ॥ श्रीजिनप्रभसूरि गीतम् ॥ 7 ११ खरतर गच्छि वर्द्धमान- सूरि, जिणेसर सूरि गुरो । अभयदेवसूरि जिणवलह, सूरि जिणदत्त जुग पवरो ॥१॥ सुगुरु परंपर थुणहु तुम्हि, भवियहु भत्ति भरि । सिद्धि रमणि जिम वरइ सयंवर नव नविय परि || आंचली जिणचन्दसूरि जिणपतिसूरि, जिगेस तु (?) गुणनिधानु । तदणुक्रमि उपनले सुगुरु, जिणसिंघ सूरि जुगप्रधानु ||२|| तासु पाटि उदयगिरि उदय ले, जिणप्रभसूरि भाणु । भवि कमल पडिवोहणु, मिछत तिमिर हरणु ॥ ३ ॥ राउ महंमद साहि जिणि, निय गुणि रंजियउं । मेढमंडल दिल्लिय पुरि, जिण धरमु प्रकटु किउं ॥ ४ ॥ तसु गछ घुर धरणु भयल, जिणदेवसूरि सूरिराउ । तिणि थापिड जिणमेरुसरि, नमहु जसु मनइ राउ ॥ ५ ॥ गीतु पवीतु जो गायए, सुगुरु परंपरह | सयल समीहि सिझहिं, पुहविहिं तसु नरह ॥ ६ ॥ 2010_05 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह W # श्रीजिनफ्मसूरि गीतम् ॥ के सलहउ ढीली नयरु है, के वरनउ वखाणू ए । जिनप्रभसूरि जग सलहीजइ, जिणि रंजिउ सुरुताणू ॥१॥ चलु सखि वंदण जाह गुण, गरुवउ जिनप्रभसूरि । रलियइ तसु गुण गाहिं राय रंजणु पंडिय तिलउ | आंचली । आगमु सिद्धंतु पुराणु वखाणिs, पडिवोहह सव्वलोइ ए । जिणप्रभसूरि गुरु सारिखउ हो, विरला दीसउ कोइ ए ॥२॥ आठाही आठ मिहि चरथी, तेडावइ सुरिताणु ए । पुह सितु मुख जिणप्रभ सूरि चलियड, जिमि ससि इंदुविमाणिए ||३ "असपति" "कुतुवदोनु” मनि रंजिउ, दीठेलि जिणप्रभ सूरी ए । एकंति हि मन सासउ पूछइ, राय मणोरह पूरी ए ॥ ४ ॥ -गाम भूरिय पटोला गज वल, तूठउ देइ सुरिताणू ए । जिणप्रभसूरि गुरु कंपिनई छइ, तिहुअणि अमलिय माणू ए || ५|| ढोल दमामा अरु नीसाणा, गहिरा वाजइ तूरा ए । इणपरि जिणप्रभसूरि गुरु आवइ, संघ मणोरह पूरा ए ॥ ६ ॥ 2010_05 * Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभसूरीणां गीतम् १३ श्रीजिनप्रभसूरीणा गीतम् । उदय ले खरतर गछ गयणि, अभिनवउ सहस करो। सिरी जिणप्रभुसूरि गणहरो, जंगम कल्पतरो ॥१॥ वहु भविक जन जिणवाशण, वण नव वसंतो। छतीस गुण संजूत्तो वाइय मयगल दलण सीहो ।आंचली। तेर पंचासियइ पोस सुदि आठमि, सणिहि वारो। भेटिउ असपते "महमदो”, सुगुरि ढीलिय नयरे ।। २॥ आपुणु पास बइसारए, नमिवि आदरि नरिन्दो। अभिनव कवितु बखाणिवि, राय रखइ मुणिंदो।।३।। हरखितु देइ राय गय तुरय, धण कणय देस गामा। भणइ अनेवि जे चाह हो, ते तुह दिउ इमा ॥४॥ लेइ णहु किंपि जिणप्रभसूरि, मुणिवरो अति निरीहो। ___श्रीमुखि सलहिउ पातसाहि, विविह परि मुणि सीहो।।५।। पूजिवि सुगुरु वस्त्रादिकहि, करिवि सहिथि निसाणु । देइ फुरमाणु अनु कारवाइ, नव वसति राय सुजाणु ॥६॥ पाट हथि चाडिवि जुगपवरु, जिणदेव सूरि समेतो। __ मोकलइ राउ पोसाल है वहु, मलिक परि करीतो ॥णा वाजहि पंच सवुद गहिर सरि, नाचहि तरुण नारि । इंदु जम गइंदसहि तु, गुरु आवइ वसतिहिं मझारे ।।८।। धम्म धुर धवल संघवइ सयल, जाचक जन दिति दानु । .. संघ संजूत बहु भगति भरि, नमहिं गुरु गुणनिधान ।।६।। सानिधि पउमिणि देवि इम, जगि जुग जयवन्तो। नंदउ जिणप्रभसूरि गुरु, संजम सिरि तणउ कंतो ॥१०॥ 2010_05 | Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ॥ श्रीजिणदेवसूरि गीत ।। निरुपम गुण गण मणि निधान संजमि प्रधानु । सुगुरु जिणप्रभसूरि पट उदयगिरि उदयले नवल भाणु ॥ १॥ वंदहु भविय हो सुगुरु जिणदेवसूरि ढिल्लिय वर नयरि देसणउ अमियरसि वरिसए मुणिवरु जणु घणु ऊनविउ । आंचली ।। जेहि कन्नाणापुर मंडणु सामिउं वीर जिणु । महमद राइ समप्पिउंथापिउ सुभ लगनि सुभ दिवसि ॥२॥ नाणि विन्नाणी कला कुसले विद्या वलि अजेउ । लखण छंद नाटक प्रमाण वखाणए आगमि गुण अमेउ ॥ ३ ॥ धनु कुल धरु जसु कुलि उपनुं इहु मुणि रयणु । धनु वीरिणि रमणि चूडामणि जिणि गुरु उरि धरिउ ॥४॥ धणु जिसिंघ सूरि दिखियाउ धनु चंद्र गछु । धनु जिणप्रभसूरि निज गुरु जिणि निज पाटिहि थापियउ ॥५॥ हलि सखे घणउ सोहावणिय रलियावणिय ।। देसण जिणदेवसूरि मुणिराय ह जाणउँ नितु सुणउ ।।६।। महि मंडलि धरमु समुधरए जिण शासणिहिं । ___अणुदिण प्रभावन करइ गणधरो, अवयरिउ वयइरसामि ॥७॥ वादिय मयगल दलण सीहो विमल सील धरु । छत्रीस गुणधर गुण कलिउ चिरु जयउ जिणदेव सूरि गुरु ।।८।। ॥ इति श्री आचार्याणां गीत पदानि ॥ 2010_05 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनकुशलसूरि पट्टाभिषेक रास श्रीधर्मकलशमुनि कृत সিলঞ্জুহালহি ঘাঘ হা L n geet IRAMAYRANSKINEAAZINMa R स 3 WUN सयल कुशल कल्लाण वल्ली, घणु संति जिणेसरु । पणमेविणु जिणचंदसूरि, गोयमसमु गणहरु । नाण म होय हि गुण निहाण, गुरु गुण गाए सु। पाट ठवणु जिन कुशलसूरि, वर रासु भणेसु ॥ १।। आसि जिणेसर सूरि पढमु, अणहिलपुर पट्टणि । वसहि मग्ग पयडेण, राउ रंजिउ “दुल्लह" जिणि । तासु पट्टि जिणचंदसूरि, गुणमणि रोहण सम । विहिय जेण संवेग-रंग-साला मालोवम ॥२॥ अभयदेव नव अंग वित्तिकर, पासु पसायणु । पउमएवि धरणिंद पमुह, सुर साहिय सासणु । तउ जिणवल्लभसूरि तरणि, संवेगि सिरोमणि । संबोहिय चित्तउड़ि तेणि, चामुंडा पउमणि ॥ ३ ॥ जोगिराउ जिणदत्तसूरि, उदियउ सहसकरु । ___ नाण झाण जोइणिय दुट्ठ देविय किंकरु करु । रूववंतु पच्चक्खु मयणु, जण नयणाणंदू । 2010_05 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सयल कला संपुन वंदु, जिणचन्द मुणिंदु ॥४॥ वाइ करडि केसरि किसोरु, जिणपत्ति जईसू । पुणवि जिणेसर सूरि सिद्ध, आरंभिय सीसु । सयल शुद्ध सिद्धंत सलिल, सायर अप्पारू । जिणपबोह सूरि भविय कमल, सविया गणधारू ।।५।। तयणं तरु गोयमह सामि, सम लद्धि समिद्धिउ । बहुय देसि सुविहिय विहारि, तिहुअणि सुपसिद्धउ । "कुतबदीन" सुरताण राउ, रंजिउ स मणोहरु । ___ जगि पयडउ जिणचंदसूरि, सूरिहि सिर सेहरु ॥ ६॥ ॥ घातः ॥ चंद कुल निहि चंद कुल निहि, तवइ जिम भाणु । नाण किरण उज्जोय करु, भविय कमल पडिबोह कारणु । कुग्गह गह मच्छिन्न पह, कोह लोह तमहर पणासणु । महि मंडलि अच्छरिय धरो, जिण रंजिउ सुरताणु । सूरि राउ सो सग्गहि गयउ, जाणिउ निय निरवाणु ॥ ७ ॥ त अह डिल्लिय पुर वर नयरि, जिणिचंदसूरि गणधारु । त जयवल्लह गणि तेडियउ, मंतु कियउ सुविचारु । त विजयसीह ठक्कर पवरो, महंतियाण कुलि सारु । तउ नामु ठामि (मु)तसु अप्पियउ, तउ गोलइ(गोयम)सउं गणधारु।। त गुज्जरधर मंडणउ, अणहिलवाडउ नाम । . त मिलिय संघु समुदाउ तहि, महतियाण अभिरामु ॥ ६ ॥ त उसवाल कुल मंडणउ, तेजपाल तहि साहु । त लहु बंधव रूदइ सहिउ, गुरु साहम्मि पसाउ ॥ १० ॥ 2010_05 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनकुशलसूरिपट्टाभिषेक रास १७ ता गुरु राजेन्द्रचन्दसूरि, आचारिज वर राउ । सुय समुद्द मुणिवर रयणु, विवेउसमुद्द उवझाउ ॥ ११ ॥ संघ सयल गुरु विनवए, तेजपालु सुविसेसु । पाट महोच्छव कारविसु, दियइ सुगुरु आएसु ॥१२॥ त संघ वयणि आणंदियउ, जाल्हण तणउ मल्हार । ___ त देस दिसंतर पाठवए, कुंकउती सुविचारु ॥ १३ ॥ सुणिउ उछवु अणहिल्ल पुरे, सुधनवंत सुह गेह । त सयल संघ तिक्खणि मिलिय, पावसि जिम घण मेह ॥१४॥ कंठ ट्ठिउ गोलय सहिउ, गुरु आणा संजुत्तु । ___ वायवंतु वाहड़ तणउ, विजयसीहु संपत्तु ।। १५ ।। त पइसारउ संघह कियउ, वजहि वजंतेहि । जिम रामहि अवडा नयरि, ढक्क बुक्क पमुहेहि ॥ १६ ।। दीण दुहिय किरि कप्पतरो, राय पसाय महंतु।। त धम्म महाधर धुरि धवलो, देवराज पवर मंत्रि ।। १७ ।। त तसु नंदणु जेल्हा घरणि, जयतसिरी बखाणि । त कुसलकीरति तहि कुलि तिलकु, घण गुण रयणह खाणि ॥१८॥ तेरहसय सतहत्तरइ किन्नंग (?कृष्ण) इगारसि जिट्ट । सुर विमाणु किरि मंडियउ, नंदि भुवणि जिणि दिहि ॥१६॥ त राजेन्द्रचन्द्रसूरि, जिणचन्दसूरिहि सीसु । ___ त कुशलकीरति पाटहि ठविउ, मणहर वाणारिस ॥ २० ॥ नाम ठवियउ जिणकुशलसूरि, वज्जिय नंदिय तूर । ___ त संधु सयलु आणंदियउ, मणह मणोरह पूर ।। २१ ॥ 2010_05 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह घातः-सयल संघह सयल संघह केलि आवासु । अणहिलपुर वर नयर गुजरात धर मुखह मंडणु। देस दिसंतरि तहि मिलिय, सयल संघ वरिसंत जिम घणु। पाट धुरन्धर संठविउ, मिलिय मिलावइ भूरि ।। ___ संघ महोछवु कारावइ, वज्जंतइ घणतूरि ॥ २२ ॥ त आदहिए आदिजिणिद भरहु, नेमि जिम नारायणु । ____ पासह ए जिम धरणिंदु, जिम सेणिय गुरु वीर जिणु । तिण परि ए सुह गुरु भत्ति, महतियाणि परि सलहिय ए। पडिवनए तहि परिपुन्न, विजयसीहु जगि जस लियइ ए॥२३॥ संघवइ ए सामल वंशि, देसि विदेसहि जाणिय ए। घण जिम ए घणु वरिसंतु, वीरदेव वखाणिय ए । कारइए जीमणवार, साहमिय वछल्ल वर । संघह ए कप्पड वार, गुरुयभत्ति गुरु पूज कर ॥ २४ ॥ दोसई ए अहिणव बात, पाटणि दरिसण संख हूय । सूरिहि एसउ सउ-सात साहु, साहुणि चउवीस-सय । सदई ए सउ तेजपालि घरि, तेडिउ पहिरावियइ । जइ सई ए दूसमकालि, चन्द्रहि नामउं लिहावियइ ॥ २५ ॥ घर घरि ए मंगल चार, पुन्न कलस घर घरि ठविय । घर घरि ए वंदर वाल, घरि घरि गूडी ऊभविय ॥ २६ ॥ वन्जिय ए तूर गंभीर, अंबरू वहिरिउ पडिरमण । नाचहि ए अबलिय बाल, रञ्जिय सुर धवला रवेहिं ॥ २७ ॥ अणहिलि ए पुर मंझारि, नर नारी जोवण मिलिय । किसउ सु तेजउ साहु, जसु एवडउ उछव रलिय ॥२८॥ 2010_05 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयल संघ सु श्रोजिनकुशलसूरि पट्टाभिषेक रास 'पुणरविए पुणवि सो साहु, संघ सयलि सम्माणिय ए। आ गई ए उच्छव सारु, सिरि चन्द कुलि जगि जाणिय ए ॥२६॥ इण परि ए तेडवि संघु, पाट महोछवु कारविउ । जिण गरूए नव नव भंगि, सयल बिंव सु समुद्धरिउ ॥३०॥ 'घातः-धवल मंगल धवल मंगल कलयलारवे । वज्जत घण तूर वर महुर सहि नचइ पुरंधिय । वसुधारहि वर संति नर केवि मेहु जेम मनहि रंजिय । ठामि ठामि कल्लोल झुणि, महा महोछवु मोय । जुगपहाण पयसंठवणि, पूरिय मग्गण लोय ॥ ३१ ॥ सयल संघ सुविहाण, जिण सासण उज्जोय करो।। __ कोह लोह मय मोह, पाव पंक विधंसियरो ॥ ३२ ॥ उदयाचल जिम भाणु, भविय कमल पडिबोह करो। तिम जिणचंद सूरि पाटि, उदयउ सिरि जिण कुसल गुरो॥३३॥ जिम उगइ रवि बिंबि बि, हरषुहोइ पंथि अह कुलि । जण मण नयणाणंदु, तिम दीठइ गुरु मुह कमलि ॥ ३४ ॥ अणहिलपुर मंझारि, अहिणव गुरु देसण करइ । नाण नीरु वरिसंतु, पाव पंकु जिम घणु हरइ ॥ ३५ ॥ ता महि-मंडलि मेरु, गयणंगणि जा रवि तपए । सिरि जिणकुशल मुणिंदु, जिण-सासणि ता चिरु जयउ ॥३६॥ नंदउ विहि समुदाउ, तेजपालु सावय पवरो। साहमिय साधारु, दस दिसि पसरिउ कित्ति भरो ।। ३७ ।। गुणि गोयम गुरु एसु, पढहि सुणहि जे संथुणहि । अमराउर तहि वासु, धम्मिय "धम्मकलसु" भणइ ।। ३८ ।। नोह मय मोह बोह करो।लगुरो॥३ ____ 2010_05 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह कवि सारमूर्ति मुनि कृत श्रीजिनपद्मसूरि पट्टाभिषेक रासा सुरतरु रिसह जिणिंद पाय, अनुसर सुयदेवी । सुगुरु राय जिणचन्दसूरि, गुरु चरण नमेवी ॥ अमिय सरिसु जिणपदम सूरि, पय ठवणह रासू । सवणंजल तुम्हि पियउ भविय, लहु सिद्धिहि तासू ॥१॥ वीर तित्थ भर धरण धीर, सोहम्म गणिंदु । जंबूस्वामी तह पभव-सूरि, जिण नयणाणंदु । सिज्जंभव जसभडु, अन्ज संभूय दिवायरू । . भहबाहु सिरि थूलभद्र, गुणमणि रयणायरू ।। २ ।। इणि अनुक्रमि उदयउ वद्धमाणु, पुणु जिणेसर सूरी। तासु सीस जिणचन्द सूरि, अजिय गुण भूरी ॥ पासु पयासिउ अभय सूरि, थंभणपुरि मंडणु। . जिणवलह सूरि पावरोर, दुखाचल खंडणु ।। ३ ।। तउ जिणदत्त जईसुनामि, उवसग्ग पणासइ । - रूववंतु जिणचन्द सूरि, सावय आसासय ॥ वाई गय कंठीर सरिसु, जिणपत्ति जईसरू । सूरि जिणेसर जुग पहाणु, गुरु सिद्धाएसु ॥४॥ जिणपबोह पडिबोह तरणि, भविया गणधारू । 2010_05 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनपद्मसूरि पट्टाभिषेक रास २१ rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr निरूवम जिणचन्द सूरि, संघ मण वंछिय कारू । उदयउ तसु पट्टि सयल कला, संपत्तु मयंकू । सूरि मउड चूडावयंसु, जिण कुशल मुर्णिदु ॥५॥ महि मण्डल विहरन्तु सुपरि, आयउ देराउरि । तत्थ विहिय वय गहण माल, पय ठवण विविह परि। निय आऊ पज्जंतु सुगुरु, जिणकुसलु मुणेइ । निय पय सिख समग्ग, सुपरि आयरिह देइ ॥ ६ ॥ ॥धत्ता ॥ . जेम दिनमणि जेम दिनमणि, धरणि पयडेय । तव तेय दिप्पंत तेम सूरि मउडु, जिणकुशल गणहरू । दढ छंद लखण सहिउ, पाव रोर मिछत्त तम हरू । चन्द गच्छ उज्जोय करु, महि मंडलि मुणि राउ। __ अणुदिणु सो नर नमउ तुम्हि, जो तिहुपति वखाउ ॥ ७ ॥ सिंधु देसि राणु नयरे, कंचण रयण निहाणु । तहि रीहडु सावय हुउं, पुनचन्दु चन्द समाणु ॥ ८॥ तसु नंदणु उछव धवलो, विहि संघह संजुत्तु । साहु राय हरिपाल वरो, देराउरि संपत्तु ॥६ ।। सिरि तरुणप्पहु आयरिउ, नाण चरण आधारु । सु पहुचन्दि पुण विन्नवए, कर जोड़वि हरिपालु ॥१०॥ पय ठवणुछव जुगवरह, काराविसु बहु रंगि। ताम सुगुरु आइसु दियए, निसुणवि हरिसिउ अंगि ॥११।। कुंकुवत्रिय पाट ठवण, दस दिसि संघ हरेसु। सयल संघु मिलि आवियउ, छरि करइ पवेसु ।।१२।। 2010_05 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पुहवि पयडु खीमड कुलहि, लखमीधरु सुविचारु । तसु नन्दण आंबउ पवरो, दीण दुहिय साधारु ॥ १३ ॥ तासु धरणि कीकी उयरे, रायहुंसु अवयरिउ । त पदमसूरि कुल कमलु रवे, बहु गुण विद्या भरिउ ॥१४॥ विकम निव संवछरिण, तेरह सइ नऊ एहिं । जिट्ठि मासि सिय छट्टि तहि, सुह दिणि ससिवारेहिं ॥१५।। आदि जिणेसर वर भुवणि, ठविय नन्दि सुविसाल । धय पडाग तोरण कलिय, चउदिसि वंदुरवाल ॥ १६ ।। सिरि तरुणप्पह सूरि वरो, सरसइ कंठाभरणु । सुगुरु वयणि पट्टहि ठविउ, पदमसूरि ति मुणिरयणु ॥१७॥ जुगपहाणु जिणपदम सूरे, नामु ठविउ सुपवित्त । आणंदिय सुर नर रमणि, जय जयकार करंति ॥ १८ ॥ ॥ धत्ता । मिलिउ दसदिसि मिलिउ दस दिसि, संघ अपारू । देराउरि वर नयरि तुर सद्दि गज्जंति अंबरु नच्चंतिय वर रमणि ठामि ठामि पिखणय सुन्दर पय ठवणुछवि जुगवरह विहसिउ मग्गण लोउ जय जय सहु समुछलिउ तिहुअणि हुयउ पमोउ । १६ ।। धन्नु सुवासरु आजु, धन्नु एसु मुहुत्त वरो । अभिनव पुनम चन्दु, महिमंडलि उदयउ सुगुरु ॥ २० ॥ तिहुयणि जय जय कारू, पूरिउ महियलु तूर रवे । घणु वरिसइ वसुधार, नर नारिय अइ विविह परे ॥२१॥ 2010_05 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्री जिनपद्मसूरि पट्टाभिषेक रास संघ महिम गुरु पूय, गुरुयाणंदहि कारवए । साहम्मिय घण रंगि, सम्माणइ नव नविय परे ॥ २२ ॥ वर वत्थाभरणेण, पूरिय मग्गण दीण जण । धवलइ भुवणु जसेण, सुपरि साहु हरिपालु जिइम ॥ २३ ॥ नाचइ अवलीय बाल, पंच सबद बाजहि सुपरे । घरि घरि मंगलचार, घरि घरि गूडिय ऊभविय ॥ २४ ॥ उदयउ कलि अकलंकु, पाट तिलकु जिणकुशल सूरे । जिण सासणि मायंडू. जयवन्तउ जिणपदम सूरे ॥ २५ ॥ जिम तारायणि चन्दु, सहस नयण उत्तिमु सुरह । चिंतामणि रयणाह, 'तिम सुहगुरु गुरुयउ गुणह ॥ २६ ॥ नवरस देसण वाणि, सवणंजलि जे नर पियहि । मणुय जम्मु संसारि, सहलउ किउ इत्थु कलि तिहि ॥२७॥ जाम गयण ससि सूर, धरणि जाम थिरु मेरु गिरि। विहि संघह संजत्तु, ताम जयउ जिणपदम सूरे ॥ २८ ॥ इहु पय ठवणह रासु, भाव भगति जे नर दियहि । ताह होइ सिव वास, “सारमुत्ति" मुणि इम भणइ ॥२६॥ ॥ इति श्रीजिनपद्मसूरि पहाभिषेक रास ॥ 2010_05 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ऐतिहासिक जैन-काव्य-संग्रह mm खरतर गुरुगुणा वर्णन छवय सो गुरु सुगुरु जु छविह जीव अप्पण सम जाणइ । सो गुरु सुगुरु जु सच्चरूव सिद्धंत वखाणइ । सो गुरु सुगुरु जु सील धम्म निम्मल परिपालइ । सो गुरु सुगुरु जुदव्व संग विसम सम भणि टालइ । सो वेव सुगुरु जो मूल गुण, उत्तर गुण जइणा करइ । . गुणवंत सुगुरु भो भवियणह, पर तारइ अप्पण तरइ ॥ १॥ धम्म सुधम्म पहाण जत्थ नहु जीव हणिज्जइ। धम्म सुधम्म पहाण जत्थ नहु कूड़ भणिज्जइ । धम्म सुधम्म पहाण जत्थ नहु चोरी किज्जइ । धम्म सुधम्म पहाण जत्थ परत्थी न रमिज्जइ । सो धम्म रम्म जो गुण सहिय, दान सील तव भाव मउ । भो भविय लोय तुम्हि पर करिय, नरभव आलिम नीगमउ ॥२॥ सिरि वद्धमाण तित्थे जुगवर, सोहम्म सामि वंसंमि । सुविहिय चूडामणि मुणिगो, खरतर गुरुणो थुणस्सामि ॥३॥ सिरि उज्जोयण बद्धमाण सिरि सूरि जिणेसर। सिरि जिनचंद-मुणिंद? तिलउ सिरि अभय गणेसर । १ निलउ 2010_05 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गुरुगुण बर्णन छप्पय जिणवल्लह जिणदत्त सूरि जिणचन्द नमिज्जइ । जिणवय जिणेसर जिणप्रबोह जिणचंद धुणिज्जइ । जिणकुशल सूरि जिणपरम गुरु, जिणलद्वी जिणचंद गुरु । जिउदय पट्टि जिणराजवर, संपय सिरि जिण भद्दगुरु ||४|| अग्यारह सइ सतसइ जिणवल्लह पद दिउ । इग्यारह गुणहत्तरइ तहइ जिणदत्त पसिद्धउ । बारह पंचग्गलइ तहवि जिणचन्द मुणीसरु | बारइ तेवीसइ सहिय जिणपत्ति जईसरु | जोगीस जिणेसर सूरि गुरु, बारह अठहत्तर वरसि । जिrपत्रोह गच्छाह वइ, तेरह इगतीसा वरसि ।। ५ ।। तेरह इगताला वरसि पट्ट जिणचन्दहु लद्वउ । तेरहस्य सत्तहत्तरइ सहिय जिणकुशल पसिद्धउ । तेरह नया एम जाणि जिणपडम गणीसरु । लद्ध नाम जिनलबद्ध सूरि चहदय सय वछरि । जिणचन्द सूरि गच्छह तिलड, चउदह सय छडोत्तरइ । जिउदयसूरि उदयवंत पहु, सय चौउदह पनरोत्तरइ || ६ || अग्यारह सतसठइ जेण वल्लह पद दिद्धरं । आसाढ़ सिय छट्ठि चित्तकोटहि सुपसिद्धउ । किसण छट्टि वइसाख इग्यारह गुणहत्तरि । सूरि राउ जिणदत्त ठविय चित्तउड़ह उप्परि । २५ २ व ३ लबधि, ४ सूरि । 2010_05 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जिणचन्दसूरि वइसाखयइ, सुद्ध छट्ठि विकमपुरहि । ___ जयवंत हुउ जिण सासणहि, सय बारह पंचत्तरहि ।। ७ ।। बव्वेरइ जिणपत्तिसूरि बारह तेवीसइ । कत्तिय सिय तेरसिहि पट्ट जयवंतउ दीसइ। माह छट्टि जालउरि सुद्धतहि ठविय जिणेसर। बारह अठहत्तरइ रुप लावन्न मणोहर ।। जिणपबोह सूरि आसोज पंचमि, जालउरय भयउ । इकतीस वरसि अनुतर सइ, पट्ट तरु इणि परि लयउ ॥ ८॥ तेरह सय इगताल सुगुरु जिणचन्द सुणिज्जय । - वयसाखह सिय तीय नयरि जालउरि थुणज्जय ।। तेरह सय सत्तहत्तरइ सूरि जिणकुसल पसिद्धउ । जिट्ट कसिण इग्यारसहि पटु अणहिलपुरि दिद्धउ ।। जिणपदमसूरि तेहर (रह) नवइ. जिट्ठ मासि उच्छव भयउ । ___ तह सुद्ध छठि देराउरहि, सयल संघ आणंदयउ ।। ९ ।। सय चउदह जिण लबधि सूरि पट्टहि सुपसिद्धउ । आसाढ़ह वदि पडवि तहवि पट्टागम किद्धउ ॥ तासु पट्टि इहु सुगुरु ठविय चउदह सय छडोत्तरि । जेसलमेरह माह दसमि सुद्धइ सुह वासरि ।। नर नारि ताह मंगल करइ, जिण सासणि उछव भयउ । जिणचन्द सूरि परिवार सउं, सयल संघ अणुदिणु जयउ ॥१०॥ खंभ नयरि मझारि चउद पनरोतर वरसहि । दियइ मंतु आयरिय इंद आणंदिय सग्गहि ।। 2010_05 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गुरु गुण वर्णन छप्पय . अजितनाथ वर भवण नंदि मंडिय गुरु वत्थिरि । सयल संघ बहु परि मिलिय रलिय पूरिय मनभिंतरि । जिण कुशल सूरि सीसह तिलउ, जिणचन्दह पटुद्धरणु । जिणचंदसूरि भवियह नमउ, सयल संघ वंछिय करणु ॥१शा गुण गण वेय मयंक वरसि फग्गुण वदि छ?हि । अणहिलपुरि वरि नंदि ठविय संतीसर दिट्ठिहि ।। सिरि लोयआयरिय मंतु अप्पिय सुमुहुत्तहि ।। सिरि जिणउदय मुणिंद पट्ट, उद्धरिय धरित्तहि ।। छतीस गुणावलि परिवरिय, चन्द गच्छ उज्जोय करु । जिणराजसूरि गुरु जगि जयउ, सयल संघ आणंदयरु ॥१२॥ पण सग वेय मयंक' वरसि माहह छण वासरि। भाणुसल्लि वर नयरि अजियनाहह जिण मंदिरि ।। नंदि ठविय वित्थारि सुगुरु सागरचन्द गणहरि । सूरि मंतु जसु दिद्ध' किद्ध मंगलु विवहु प्परि ॥ जिणराजसूरि पट्टह तिलउ, जिणसासण उज्जोयकरु। ___ जा चन्द सूरि ता जगि जयउ, सिरि जिणभह मुणिंद वरु ॥१३॥ मंत मझि नवकार सार नाणह धुरि केवल । देव मझि अरिहन्त सव्व फुल्लह धुरि उप्पलु ॥ रुख मझि वर कप्परुख संघह धुरि मुणिवर । __ पखि मझि जिम राजहंस पव्वय धुरि मंदिर । जिणराजसूरि पटुद्धरण, भविय लोय पडिबोहयर । तिम सयल सूरि चूडारयण, जिणभद्दप्पहु जुग पवर ॥१४॥ १ पुब्धय २ दिट्ट ३ विवह 2010_05 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAANNAPRA २८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मंगल सिरि अरिहन्त देव, मंगल सिरि सिद्धह । मंगल सिरि जुगपवर सूरि, मंगल उवझायह ।। मंगल सुविहिय सव्व साहु, मंगल जिणधम्मह । - मङ्गलु विहरइ सव्व सङ्घ, मङ्गल सन्नाणह ॥ सुयएवि होइ मङ्गलु अमलु, मङ्गलु जिण सासण सुरह । वर सीसह जिणवय सुह गुरुह, मङ्गल सूरि जिणेसरह ।।१५।। माल्हू साख सिंगार साह रतनिग कुलमंडणु। झूदाउत सुख संसि पुहवि धारलदे नंदणु ॥ चउदह सय पनरेतिरइ कसिण आसाढ़ह तेरसि । पट्ट महोच्छव कियड़ साह रतनागर वरसि ।। खरतरह गच्छि उज्जोय करु, जिणचन्द सूरि पटु धरणु । जिणउदय सूरि नंदउ सुपहु, विहिसंघह मङ्गल करणु ॥१६॥ जिम जलहरंमि मोर जिहा वसंतमि कोकिला हुंती । सूरउग्गमणे कमलु तह भविया तुह आगमणे ॥ जिम जलहर आगमणि मोर' हरसिय मण नच्चइ । जिम दिणियर उग्गमणि कमल वणसिरि सिरि विकसइ ।। ससिहर संगम जेम सयल सायरू जल विकसइ । जिम वसंति महियलि हंसंति कोयल मइ मच्चइ ॥ तिम सूरि नाउ जिनउदय गुरु, पट्टाहिव रसि (?वि) उक्कसिय । जिनराजसूरि गुरुदंसणहि भविय नयण मण उल्हसिय ॥१७॥ १ देहलइ 2010_05 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गुरु गुण वर्णन छप्पय वासिग उप्परि धरणि धरणि उप्परि जिम गिरिवर । गिरिवर उप्परि मेह मेहु उप्परि रवि ससिहर ॥ ससिहर उप्परि तियस तियस उप्परि जिम सुर वर । इंदुप्परि नवगीय गीय उप्परि पंचुत्तर ॥ सव्वट्ठसिद्धि तसु उप्परि, जिम तसु उप्परि मुक्ख हलि । तिम सूरि जिणेसर जुगपवर, सूरहिं उप्परि इत्थ कलि ॥१८॥ कुसल बड़ो संसार, कुसल सज्जण जण चाहइ। कुसलइ मइगल वारि लछि कुसलहि घरि आवइ । कुसलहि घण वरसंति कुसलि धण धन रवन्नउ । कुसलहि घोड'घट्टि कुसलि पहिरिय सुवन्नउ ॥ एरिसउ नाम सुह गुरु तणउ, कुसलहि जग रलियामणउ । जिण कुसल सूरि नाम ग्रहणि, घरि घरि होइ वधामणउ ॥१६॥ दस सय चउवीसेहि नयरि पट्टणि अणहिलपुरि। हूयउ वाद सुविहतह चेइवासी सउं बहु परि ॥ दुल्लभ नरवइ सभा समुखि जिण हेलइ जित्तउ। चित्तवास उत्थप्पिय देस गुज्जरह वदित्तउ । सुविहित्त गछि खरतर विरुद, दुल्लभ नरवइ तहि दियइ । सिरि वद्धमाण पट्टह तिलउ, जिणेसर सूरि गुरु गहगहइ ॥२०॥ रवि किरणेहू वलग्गि चडिय अट्ठावय तित्यहि । निय २ वन्न पमाण बिंब वंदिय जिण भत्तिहि । १ सुप्परि २ घोडाथट्ट ३ करि 2010_05 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पनरह सय तापस पबोह दिखिय जिण सत्तिहि । पारावइ इग पत्ति सव्व खीरह घिय खंडहि ॥ अखीण महाणसि लट्ठिवर, गोइम सामिय गुण तिलउ । जसु नामिण सिज्झइ कज्ज सवि, सोझायउ तिहुयण तिलउ ॥२१॥ सो जयउ जेण वहियं पंचमि (घाउ) चउत्थिपजूसरण । . पख चउदसि जाया नम्मविया कालकाइरियो। कालिकसूरि मुणिंद जयउ तिहुअण मण रंजण । उज्जेणो गदभिल्ल राय मूलह निकंदण ।। सरसइ साहुणि कज्जि सिंघ लंछण जिणि रखिय । सोहम्माइवईद सयल आउखउ अखिय ॥ मरहट्ठदेसि पयठाणपुरि, सालवाहण अवरोहपर। सो कालिगसूरि संघह जयउ, चउत्थि पजूसरण विहिय धरि ॥२२॥ जिणदत्त नंदउ सुपहु जो भारहमि जुगपवरो। अंबाएवि पसाया, विन्नाउ नागदेवेण ॥ १॥ नागदेव वर सावएण उज्जित' चडेविणु । पुछिय जुगवर अंब एवि उववास करे विणु ।। तसुर सत्ति तुट्ठाय तीय, करि अखरि लिखिया। भणिउ जवाईय पम्ह सय ४, जुगपवर सुधम्मिय ॥ भमिऊण पहवि अणहिल्लपुरि, जुगपहाण तिणि जाणियउ । जिणदत्तसूरि नंदउ सुपहु, अम्बाएवि वखाणियउ ॥२३।। गह धम्मो देव सिसी फुग्गण कन्नाय च (उ)दसी दिवसे । पंडिय वजयाणंदो निज्जणिय "अभयतिलकेण" ।। १॥ १ उजित चंदेषिणु २ तासु ३ सघाइय ४ सेय 2010_05 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गुरु गुण वर्णन छप्पथ ~rnirmmmmmmmmmmmmwar पाणि तणइ विवादि रज्ज जयसिंघ नरिंदह । ___उज्जेणी वर नयरि भुवणि पहु संती जिणंदह । जिणवलम जिणदत्त सूरि जिणचन्द जईसरु । रंजिय जिणवय सूरि धरह सिरि सूरि जिणेसर ॥ ता ? उन्हउं सीयलु जयह जलु, फासूय थप्पिय विवहप्परि । निन्जिणिउ विजयाणंद ति(लि:)हि, अभयतिलकि चउपट्टि धरि॥२४॥ रयणि रमन रमणि पवेसु न्हवणु नहु, निसहि जिणेसर नं दिन दोसा समय बलि न सव्वरिय विसरुह । नहु जामणहि पवट्ठरत्ति रहु भमइ नभमणह । नहु विहारि वखाणु जत्त तुगी भरि समणह ।। भवियणहु जहिनइ त्तिय अवहि, तह सुयंमि धुयरय करउ । तरु मोहं मूल मूलण गयह, जिणवल्लह पय अणुसरउ ॥२५।। जिणदत्त सुरि मंगल मंगलु, जिणचन्द्रसूरि रायस्स । जिणवय सूरि जिणेसर, मंगलु तह वद्धमाणस्स ॥१॥ वद्धमाण घणगुणनिहाण मंगलु कलि अमिलह । सुगुरु जिणेसर सूरि वसहि पयडण धुरि धवलह । मंगलु पहु जिणचन्द अभयदेवह जिणवल्लह । __ मंगलु गुरु जिणदत्त सूरि मंगलु जिणचन्दह ।। जिणपत्ति सूरि मंगलु अमलु, जास सुजस पसरिय धरह । चउविह सुसंघ संरुल्ह कवि, मंगल सूरि जिणेसरह ।।२६।। कहस चन्द्र निम्मलह कहस तारायण निम्मल । कहस सुपवित्त कहस बगुलउ अय उज्जल ।। 2010_05 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ऐतिहा सक जैन काव्य संग्रह कहस नीर सुरसरीय कहस वाहलोय पवित्तिय । पदमराग कह गुरुय कहस परिय रंगिय ।। जिणपदम सूरि पटु पटुधर, अमिय वाणि देसण वरिस । तुडि कर सुजीह किनगलि पडिसि, जिनलब्ध सूरि गणहरसरसु॥२७॥ एने बेरि खजूरि जतइ सिरिविडि करि भखिय । एन अंब अम्बलिय दख दाडिम जं चखिय । एन जंब जंबूयह सयल पिप्पल जं असियह । ___ बडआरू य उबरन एय एय पसर जबसिय ।। पउमप्पह नारिंग नह सु नयनिमल कोमल महूय । जिणपत्ति सूरि नालियर इह, अररि कोर वंच भंजेय तुय ।।२८।। जिम नसि सोहइ चंद जेम कजलु तरुलछहि । हंस जेम सुरवरहि पुरिस सोहइ जिम लछिहि । कंच' जिम हीरेहि जेम कुल सोहइ पुत्तहि । रमणि जेम भत्तार राउ सोहइ सामंतइ । सुर नाह जेम सोहइ सुरह, जगि सोहइ जिणधम्म भरु । आयरिय मझि सिंहासणहि, तिम सोहइ जिणचन्द गुरु ॥२६॥ दसणभद्द नरनाह वीर आगमि आणंदिय । पभणइ वंदिसु तेम जेम केणावि न वंदिय । रह सजिय गय गुडिय तुरिय पवरिय पलाणिय ।। सुखासण सय पंच वडवि चल्ल धितिहि राणिय ।। बहु छत्त चमर परवारि सउं, जाम सपत्त समोसरणि । ताम इंद तसु मणु मणवि, अयरावइ आदसइ मणि ॥३०॥ 2010_05 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गुरु गुण वर्णन छप्पय इंद वयणि गय गुडिर सहस चउसहि वेउव्विय । ___बारुत्तर सय पंच तीह इक्ककह मुह किय । मुहि मुहि किय अड दंत दंतहि दंतहि अड वाविय । वावि वावि अड कमल कमलि दल लखु लख न(?ना)विय ।। बत्तास बद्ध नाडय घड, पत्ति पत्ति नच्चइ रलिय । इयसिय रिद्धि पिखेवि कर, दसणभह मउ गउ(?य) गलिय ॥३१।। दसणभद्द चिंतेय अहह मइ सुकिय न किद्धउ । तउ मनि धरि संवेगि झत्ति तणि संयमु लिदउ । वोरु पासि सु ज जाइ जामि मुणिराउ बइठ्ठउ । ताम भत्ति सुरराय नमिय सो गुणहि गरहिउ ।। भणय इंदु तय जतु मुणिहु, उहारिय निभंत मइ। जं करउ विनाण आणग थुणि, मइ नि होइ संजम किमइ ॥३२।। ॥ दूसरी प्रतिकी विशेष गाथाएँ ॥ अमरु त जिणवरु गिर त मेरु निसियरु तदसासणु, तरु त अमरतरु धन त धनु महता पंचाणणु । गढ त लंक विसहर त सेसु गह गुरुय त दिवायरु, ___अवल त द्रूयमणि नइ त गंग जल बहुल त सायरु । जिणभुवण त नंदीसर भणउ, तुंगत्तणि त्तापरि गयणु, ___पुणि राउत जगि जिणपत्ति गुरु सूरि मउड़ चूड़ारयणु ॥१७।। जिम तरु सुरतरू महि रयण मझिहिं चिंतामणि, घेणु मझि जिम कामधेणु गह मझि दिवामणि । 2010_05 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह उडगण सऊहिं वंदु इंदु जिम सग्गि पसिद्धउ, गिरवर मझिहिं मेरु राउ जिम रह निरत्तउ । तिम एह भूरि सूरिहिं पवरु जिणपबोहसूरि सीसवरु, जिणचंदसूरि भवियहु नमहु, पहवि पसिद्धउ जुगपवरु ।।१८।। जिण सासण वर रजि चंद गछिहिं समरंगणि, वरण तुरंगमि चडवि खंतिक्खर खग्गु गहेविणु । जिण आणा सिरिसिरकु सीलि संनाहु सुसजिउ, पंच महव्वय राय सबल मुणिपत्ति अगंजिउ । एररिसउ सुहडु जिनकुसल सूरि, पिखेविण रहरियतणु । अणभिडिउ मुडिउ मुणिपय पडिउ मयणमाणु मिल्हेवि पुण ॥१६॥ उत्तर दिसि भद्दवइ मासि जिम गज्जइ जलहरु, जिम हत्थी गडयडइ जेम किन्नरि सरु मणहरु । सायरु जिम कल्लोल करइ जिम सीह गुंजारइ, जिम फुल्लिय सहयार सिहरि कोइल टहकारइ । सघोस घंट जिण जम्मक्खणि, वज्जतिय जिम त्रत्रहइ, जिणपदम सूरि सिद्धंत तिम, वखाणंतउ गहगहइ ।। २१ ॥ जिम अन्तर गोइक दुद्धि अंतरु मणि सुरमणि, जिम अंतरु सुरतरु पलास जिम जंबुय केसरि । जिम अंतरु बग रायहंस जिम दीवय दिणयर, जिम अंतरू गो कामधेण जिम अंत(रु) सुरेसर, जिणपदम सूरि तिम (अ)न्नगुरु, एवड अंतरू भविय मुणि । खरतरह गछि मुणवर तिलउ इथु जीह किम सकउ थुणि ।।२२।। 2010_05 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गुरु गुण वर्णन छप्पय नवलख कुलि घणसोहनंदणु सुप्रसिद्धउ, खेताहि aिय कुखि जाउ बहु गुणह समिद्धउ । बालकालि निज्जणवि मोह संजम सिरि रत्तउ, गोयम चरिय पयास करणु इणि कालि निरुत्तउ । जिण पदम सूरि पटटुद्धरण, वयरसाह उन्नति करु | जिनलबधिसूरि भवियहु नमहु, चंदगछि मुणि जुगपवरु ||२३|| उदय वडउ संसारि उदय सुरवर नर नंदय, उदय कितहु गह गयणि उदय सहसकर वंदय । उदय लगी सवि कज्ज रज्ज सिझंत प्रमाणइ, उदउ अनुपम अचल उदय वलि वलि वखाणइ । धन धणय पुत्त परियण सयल, उदय (ल) गी जैस वित्थरइ । जिणउदय सूरि इणि कारिणर्हि, उदउ सयल संघइ करइ ||२४|| जिम चिंतामणि रयण मझि उत्तम सलहिज्जइ, जिम कणयाचल गिरिह मझि किरि धुरहि ठविज्जइ । जिम गंगाजल जलइ मझि सुपवित्त भणिज्जइ, जिम सोह गह वत्थु मझि ससहरु वन्निज्जइ । जिम तरुह मझि वंछित्त करु, सुरतरु महिमा महमहइ । जिम सूरि मझि जिणभद्दसूरि, जुगपहाण गुरु गहगहइ ||२७|| जिणि उम्मूलिय मोहजाल सुविसाल पयंडिहि, जिणि सुजाणि किवाणि मयणु किउ खंडो खंडिहि । ३५ जसु अगाइ मइ कोह लोह भड किमिहि न मंडिहि, 2010_05 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह गय जिम जिणि भव रुक्ख भग्ग तव सुंडा दंडिहि । सो गछनाह जिणभदगुरु, वंछिय पूरण कप्पतरू, । कल्लाण वल्लि नवधार धरु, वसह मझि जयवंत चिरु ॥२८॥ जिणि दिणि दुल्लभ सभा सखर खरतर जे तिण दिणि, पडिबोहिय चामुण्ड फुडवि खरतर जे तिणि दिणि । जिणीय वाद छट्ठमइ मासि फुड खरतर तिणिदिणि, . ... ..... . .. रंजिय नरवंम नरिंद जिहिं, धारनयर स्युं नरवरा ! जिणभद्रसूरि ते तुझ सवि, अखिल खोणि खरतर खरा ॥३१॥ वेशाखि (षि) का मदांति सांख्य सोगत नैयायक, मीमांसक मुख मुखरवादि गुरु गर्व निवारक । उत्सूत्राविधि मार्ग वर्ग देशक यति व्रजा, करटि घटांकुश कुल विशाल सौधोकल सुध्वज । जन नयन सुधाकर रुचिरकर, मदन महीधर कुलिशधर, जय सूरि मुकुट गत कपट भट, गुरु जिणभद्द युगपवर ॥३२॥ सयल गरूय गुण गण गणिंद गण सीस मउड़ मणि, निय वयणिहिं पर वादि निधड़इ सुतक्खणि। सवि आचार विचार सार विहिमग्ग पयासइ, । भविय जण मण विमल कमल रवि जेम पयासइ । पुरि नयरि देसि गामागरहि, विहरतउ सो होइ सुगुरु । सो जयउ जिणेसर सासणिहि, श्रीजिणभद्र मुणिंदवरु ।।३३।। 2010_05 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 2010_05 माध्यम्प वामानावपनि नामानिमविनवासाकतानविधनाश्रमासंघस्पानि सामाग्यमाम मणं दानाsan कारणानञ्चदव गुणपक विपिगंलागारूनणगयम्मदवलपकारिखमाममणगणनगंजातजामिामामारदमाममलटानामंदिग्दरिणाम युरुनlaवाचावयानमाामाग्रमाममागदा35बाकााअमृदयुपजावदिएपध्यानाउलामाणमहिनायरुनलवभाममपाल दाबावनSyanाना३मम्मरणीपालापाउन्नमिवपावयलाउदिननवामान किमान उमामारदमासमगाणंदान MMSIमारवयमदिमदमाऽगयावयमिागुमनापायदाननममुक्तारमवताहमममवमरणंपलमानापा3amदियरयदराणमिमकि नापऽरिकामांघायनम्नमिरक्षकपरिकवडापरिनिवाराशनरदमाममणंदानउमालपानश्यसाmपश्यसदिमटकासम्ममांकारमिपाव माम मदानंदकावधिप्रामाणनानिमित्कारमिकाउममगाराद्यायनविनियमावनणगुरुमूरिमानणानिमिअनिमान डानसमामातमा ममदासमपन्नाकारणानिमिक्रसमापदान गुम्बासमतपस्विवियनिमिङममायशतनिषद्यामाहतासमवसरशुरुचनिवारा शशिकलाकारागुममाटोहिणधामानममिमिका पानेमीयानपनापलगावलापवंदगवधियदाक्षिणकन्नमयुरूपपरागपमंनयकामा Saरामाननमाामाग्यमाममणादानगsis नाकारण विद्यारकसमापहातमगुरुमिरिक महावनियाचगंधकर मायाधिशादामामाविनाकायलमremnas नयमीमा स्तमाममदानानामहराकानगुम्वामिविज्ञानात समजादावियनामकरानानिमिजानिमन्तमममीसम्म भविशिला ऊत्युपत्रकावणजायनिकायुरुवालमाaamaamsin कारण कामीमानदामन्त्रीपरियास्ववानं दिमाश्यमाएकापकापामादावाददतितिायुरूनियनिमिद्यापरवनियामामायना MaRIगुरूविस्मरमांकामामम्ममाभगमनमपमresia:शाविकाागरिकाद्यनारतिराममहिना मातोयामिाअपनाया maमरासदाकारज्ञानदामनारमयदाकsansयचार्याय नावाम मानवामयपदानाrarwarranालयो emalदेशकमध्यमालाविभ्यमतदानकदानाननवनिादाथिकानमाविककादापनियासमयपपनाalaब तिमिलmoreare raalaanनवरखकरलामदिवाना ॥स्नaan मंगवाषाढदि४३६पाबुक्षत्रीकनगाजिनमाननिमि वाoमाधुनिलकगणिन्यावाचनायसासीकोथतिः॥ शासन प्रभावक श्री जिनभद्र सूरिजीकी हस्तलिपि (सं० १५११ लि. योगविधिका अन्तिम पत्र) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गुरु गुण वर्णन छप्पय ताम तिमिर धरि फुरइ जाम दिणयरु नहु उग्गइ । तां मचगल मयमत्त जाम कसरीय न लग्गइ । ताम चिडां चिगचिगं जां न सिंचांणउ दुद्युइ। - तां गजइ घणु गयणि जाम नहु पवण फुरक्का । तिम सयल वादि निय निय घरिहि, तांम गव्य पव्वइ चड़ई । जिनभद्र सूरि सुह गुरु तणीय, हथु न जां कन्निहिं पडई ॥३४॥ घर पुर नयर निवासि जेय निय गन्त्र पयासई। बोलावंता बहुय बिरुद नहु किंपि विमासई। पहुवि पयउ पमाण लखण वर वखाणई। ___ वादि विवाद विनोदि संक निय चित्त न याणई। एरिस जि केवि भुवणिहि भलई, वादी मयंगल गउयडइं। जिनभद्र सूरि केसरि डरिहिं त धुज्जवि धरणिहिं पड़ई ॥३५।। नाग कुमर नानाह सुरनाहा जेण तिहुयणि जिन्ना । तिहुयण सल्लविरुद्दो विव खाउ एस भूवलए १ भूवलयंमि पसिद्ध सिद्ध जो संकरु भणियउ । गोरी पयतलि रुलिय सोय इणि वाणिहि हणियउ । दानव मानव असुर मरि हेलइ जो लिद्धउ । सो नारायण सोल सहस गोपी वसि किद्धउ । हिव एह अधिक भडि वाउलउ, न मुणिलोयहं कलिहिं । जिणभद्रसूरि इणि कारणिहि, मयण मल्लु जित्तउ बलिहिं ॥३६॥ 2010_05 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह दुर्घट घटना घटित कुटिल कपटागम सूत्कट । . वावाटोत्कट करटि करट पाटन सिंहोदभट । न विट लंपट मुक्त निकट विन तारि भट स्फट, हाटक सुथट किरीट कोटि घृस्ट क्रम नख तर जट, विस्टप वांछित कामघट विघडित दुष्ट घट प्रकट जिनभद्र सूरि गुरुवर किकट, सितपटसिरोमुकुट ॥३०॥ ॥ इति समस्तदेव गुरु षट्पदानि ॥ UI SHA 2010_05 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनादयसूरि गुण वर्णन ३६ ॥ पहराज कवि कृत ॥ # जिनोदयसूरि गुण वर्णन RE किणि गुणि सोववितवणं, सिद्धिहिका भंति तुम्ह हो मुणि। संसार फेरि डहणं, दिखा बालाणए गहणं ॥१॥ बालत्तणि वय गहण सुपुणि मुणिवर संभालियउ । अट्ठ कम्म निजणवि गमण दुग्ग गइ टालियउ ।। उग्गु तवणु जिण तवउ वितु संमतहि रहिउ ।। संजम फरिसु पहाणु मयण समरंगणि बहिउ । जिणउदय सूरि पुय पय नमहि, ति नर मुक्ति रमणी रमइ । "पहराज" भणइ तुइ विन्नउं, अजउ भवणु किणि गुणि तवहि॥१॥ लीलयति सिद्धि पावहि जे नर पणमति एरिसा सुगुरु । मुणिवरह वित्त कलिउ नहु मन्नइ अन्न तियस्स ॥१॥ मुणिवर मनुमय कलिउ भत्ति जिणवरह मनावइ अवर तरुणि नहु गमइ सिद्धिरमणि इह भावइ । करइ तवणि बहु भंगि रंगि आगम वखाणइ । अबुह जीव बोहंत लेत सुभत्थह नाणय ।। जिणउदय सूरि गच्छाहवइ, मुख मग्गि धोरि सुपह । “पहराज" भगइ सुपसाउ करि, सिव मारग दिखाल महु ।।२।। • सुगुरु शिव मग्ग जूय किय कला विसारह मंस भखण परिहरउ सुरा सिउं भेउ निवारइ। वेसन रख कउ पंघ पाउ पारदहि अणंतउ । 2010_05 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह चोरी म करि अयाण रखि दुग्गय जिउ जंतउ ॥ पर रमणि मिल्हि सत्तय वसणि, जीव दय दृढ संग्रहयउ । जिणउदयसूरि सुहगुरु नमहु, सिद्धि रमणि लीलइ लहउ ।।३।। सुगुरु सिद्धि इम भणइ कित्ति तूय तणी थुणिज्जइ । सुगुरु देव इम भणय लीह गणहर तुय दिज्जय । सुगुरु सुविह गण वित्ति अचलु तुय नामहि लग्गउ । ___ तुहत पढइ सिद्धंत सुगुरु जिनभत्ति विलग्गउ ।। जिण उदय सूरि जग जुगपवर, तुय गुण वनउं सहसि फणि । एरसउ सुगुरु हो भवियणह, कहय सिद्धि णन्भन्तमणि ॥४॥ कवणि कवणि गुणि थुणउं कवणि किणि भेय वखाणउ । थूलभद तुह सील लब्धि गोयम तुह जाणउ । पाव पंक मउ मलिउ दलिउ कन्दप्प निरुत्तउ । तुह मुनिवर सिरि तिलउ भविय कप्पयरु पहत्तउ ।। जिणउदयसूरि मणहर रयण, सुगुरु पट्टधर उद्धरणु । “पहुराज" भणइ इमजाणि करि, फल मनवंछिउ सुह करणु ॥५।। फल मनवंछिउ होइ जि किवि तुइ नाम पयासय । तुझ नाम सुणि सुगुरु रोर दारिद पणासइ । नामगहणि तुय तणय सयल श्रावय उस्सासहि । .............॥ जिणउदयसूरि गणहर रयणु, सुगुरु पट्टधर उद्धरणु । "पहुराज" भणइ इम जाणि करि, सयल संघ मंगलु करणु ॥६॥ 2010_05 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रभसूरि परम्परा TETTE श्रीजिनप्रभसरि परम्परा गुबली वंदे सुहंम सामि, जंबू सामि च पभवसूरिं च । सिज्जभव जसभदं, अज्जसंभूयं तहा वंदे ॥ १॥ तह भद्द वाहु सामि च, थूलभदंजइ जिणवरिट्ठ । अज्ज महइरि सूरिं, अज्ज सुहत्थिच वदामि ॥२॥ तह संति सूरि हरिभद्द सूरिं, संडिल्ल सूरि जुगपवरं । अज्ज समुहं तह अज्ज मंगु, अज्ज धम्म अहं वंदे ॥ ३ ॥ भद्दगुत्तं चं वरं च, अज्जरखिय मुणिवरं ।। . अज्ज नंदि च वंदामि, अज्ज नागहत्थि तहा ॥ ४ ॥ रेवय खंडिल्ल हिमवंत, नाग उज्जोय सूरिणो वंदे। ___ गोविन्द भूइदिन्ने, लोहच्चिय दूस सूरीउ ॥ ५ ॥ उमासाइवायगे वंदे, वंदे जिणभद सूरिणो । हरिभद्द सूरिणो वंदे, वंदेहिं देवसूरिपि ।। ६ ।। तह नेमिचन्दसूरि, उज्जोयण सूरि पन्जिइणो वंदे । तह वद्धमाण सूरिं, सूरि सिरि जिणेसरं वंदे ॥७॥ जिणचन्द अभयसूसूरि, सूरि जिण वल्लहं तहा वंदे । जिणदत्तं जिणचंदं, जिणवइय जिणेसरं वंदे ॥ ८ ॥ 2010_05 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह संजम सरसइ निरुयंसु, सुणीण तित्थभर च (ध) रणं । सुगुरु गणहररयणं, वंदे जिणसिंह सूरिमहं ॥ ६ ॥ जिणपह सूरि मुणिंदो, पयडिय नीसेस तिहऊयणाणंदो | संपइ जिणवर सिरि, वद्धमाण तित्थं पभावेइ ||१०|| सिरि जिणपह सूरीणं, पट्टमि पट्टि ओगुण गरिट्ठो । जयइ जिणदेव सूरी, निय पन्ना विजय सूरसूरी ||११|| जिणदेव सूरि पहोदय, गिरि चूडाविभूसणे भाणू । जिण मेरु सूरि सुगुरु, जयउ जए सयल विज्जनिहिं ॥ १२ ॥ जिणहित सूरि मुणिंदो, तप्पजेरविय कुमुयवण चंदो । मणकरिकुम विहडण, दुद्धरपंचाणणो जय ॥ १३ ॥ सुगुरु परंपरा गाहा, कुलय मिणजो पढेइ पञ्चसे । सो लहइ मणोवंछिय, सिद्धिं सव्वंपिभव्वजणे || १४ || ॥ श्रीजिनप्रभसूरि छप्पय ॥ १ गयण थकी जिण कुलह आणि ओघइ उत्तारी । ४२ २ ३ कियो महिष स्युं वाद सुण्यउ नगरी नवबारी ॥ ४ पातिसाह रंजियउ साथि वड़ वृक्ष चलायउ । शत्रुंजय राइण सरिस, वरिस दुद्धइ झड़ ल्यायउ ॥ जिण दोरड़इ मुद्रिका प्रकट कीय, जिन प्रतिमा बुल्लिय वयण । जिणप्रभसूरि खरतर सुगच्छि, भरतक्षेत्र मंडिय रयण ॥ १ ॥ ॥ इति गुरावली गाथा कुलकं समाप्तम् ॥ १ नांखि, २ मुख, ३ नयर पिक्खइ, ४ दिल्लीपति सुरताण पूठि ५ सिहरि | 2010_05 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ पट्टावली खरतरगच्छ पट्टाकली प्रथम श्री(धवल) राग धन' धन जिण (शासन?) पातग नगशन, त्रिभुवन गरुअउं गहगहए । जासु तणउ जसुवाउ गंगाजल, निरमल महियले महमह ए ॥१॥ श्रीवयरस्वामी गुरु अनुक्रमि चिहु दिसे, चंद्रकुल चउपट जाणिइए । गच्छ चउरासीय माहि अति गरुअउ, खरतरगच्छ वक्खाणिइए ।।२।। छंदःवखाणियइ गिरि मांहि गरुअउ, जेम मेरु महीधरो। मणि माहि गिरूयउ जेम सुरमणि, जेम ग्रह गणि दिणयरो॥ जिम देव दानव माहि गरुअ, गज्जए अमरेसरो। तिम सयल गच्छह मांहि गरुअउ, राजगच्छ सु खरतरो ॥३।। राग देशाखः-. खरतरगच्छहिं खरउ ववहार, खरउ आचार मुनि आचरइ ए। खरउ सिद्धांत वखाणेइ सुहगुरु, खरउ विधि मारग वापरइ ए ॥४॥ तसु गच्छ4 मण्डण पाप विहंडण, जे हुआ सुविहित सिरोमणि ए। श्री जयसागर गुरु उपदेसिहिं, गाइसु खरतर गच्छ धणी ए ॥५॥ १ श्रीजिनशासन २ तासु ३ गहगहए ४ कुभवउपट ६ गढ 2010_05 | Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह छंदःगुरु गच्छ धणी हंउ हरखि गाइसु, प्रथम हरिभद सूरि गुरो। तसु वंसि क्रमि उदयउ मुणीसर, देवसूरि सुगणहरो ।। सिरि नेमिचन्द मुणिंद सुंदर, पाट तसु उज्जयाल ए । सिरि सूरि उज्जोयण जईसर, पाव पंक पखालए ॥६॥ रागदेशाख छाया आबुय ऊपरि मास छ सीम, साधिउ सूरिमंत्र लेइ (य) नीम । पायालह पहुतउ धरणिंदो, प्रगटियो वनमय आदिजिणंदो ॥ ७ ॥ मिथ्याती जे जोगो (य) जडिया, सुहगुरु अतिसइ ते सहनडिया । जिणशासन हूउ जयवाउ,' विमल तगइ मनि आणंद जाउ ।। ८ ॥ विमल सुवसहोय विमलि करावी (य), जसु उवएसिहिं (य) त्रिभुवनि भावो । जाणि कि नंदीसर परसादो, परतखि देउल मिसि जसवादो ॥६॥ ॥ छंदः ॥ जसुवाउ जसु उवएसि लीधउ, विमलवर मंतीसरे । ___ कारविय निरुपम विमल वसही, गरुअगिरि आबू सिरे ।। सिरि सूरि मंत्र प्रभाव प्रगटिय, सुविहित मग्ग दिवायरो। सिरि वद्वमाण मुणिंद नंदउ, सयल गुण रयणायरो ॥१०॥ ॥राग राजवलभः ॥ गूजर देसिहिं जाणियइ, पाटण अणहिलपुर नामी ए। राज करइ गजपति तिहां सिरि, दुल्लह नरवइ नामी ए ॥११।। चउरासी मठपति तिहां, आचारिज छइ तिणि कालि ए। जिगवर मंदिरि ते वसइ, इक सुविहित मुनिवर टालि ए ॥१२॥ १ वाद। 2010_05 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गच्छ पट्टावली ४५ rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrram सुविहित नइ मठपति हुउ, ग (?रा)यंगणि वसिहि विवादू ए। सूरि जिणेसरि पामिउ, जग देखत जय जयवादू ए ॥१३।। दससय चउवीसहिं गए, उथापिउ चेइयवासू ए । श्रीजिनशासनि थापिउ वसतिहि, सुविहित मुनि(वर)वासू ए ॥१४॥ गुरू गुणि रंजिउ इम भणइ श्री मुखि दुल्लह नरनाहू ए । इणि कलिकालिहि खरहरा, चारित्रधर एहजि साहू ए ॥१५।। ॥छन्दः ॥ खरहरा चारित्रधर गुरु, एहु विरुद प्रकासिउ । ___ उथप्पिय चियवास सुविहिय, संघ वसहि निवासिउ । रजइउ जिणि राउ दुलह, जयउ सूरि जिणेसरो। तसु पाटि सिरि जिणचन्द गणहर, भविय लोअ दिणेसरो॥१६॥ ॥राग धन्याश्रीः ॥ श्रीजिन शासन उधरिउंए, नव अंगए तणइ वखानि, श्री अभयदेवसूरिजुगपवरो प्रगटिऊ एथंभण पास, श्रीजयतिहुअणि जेणे गुरो ॥१७॥ ॥ छन्दः ॥ गुरु गरुअ खरतर गच्छि उदयड, अभयदेव गणेसरो। जसु पायव वंदइ देविं पदमावतो, धरण सुरेवरो ।। निय वयण सीमंधर जिणेसर, जासु गुण कक्खाण ए। किम मु सरीखउ मूढ़ ते गुरु, वरणवी जगि जाण ए ॥१८॥ १ उवरियपियवास २ वह । 2010_05 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जाणियइ सुविहित सिरोमणि ए। तसु तण ए पाटि सिंगार, पुह विहिं "पिंडविशुद्धि" करो। इणि जुगी ए एक जोगिंद, श्रीजिनवल्लभ सूरि गुरो ॥१६॥ छंदःगुरु गुण तणउ भंडार गणहर, सयल संयम भर धरो। . वागडी देसि वखाणि जिणध्रम, दससहस श्रावक करो। चीत्रउड ऊपरि देवि चामुंड, प्रसिद्ध जिणि प्रतिबोधिया । तिणि सूरि जिण वल्लह जईसरि, कवण लोय न मोहिया ॥२०॥ श्रीजिनदत्त सूरि गुरु नमउ ए । अम्बिका ए देवि आदेसि, जाणियइ चिहुं जुगे जुग प्रधान । सयंभरी ए राय डइ जेहि, दीधउ श्रोजिनधर्म दान ॥२१॥ छंदःजिनधर्म दानिहि पनरसय मुनि, दीखिया जिण निज करे । वखाण सुणिवा देव आवइ, सेव सारइ बहु परे ।। चउसट्ठि योगिणी नामि देवी, जासु आण न लंघ ए। तसु गुरु तणइ सुपसाइ नंदउ, एहु खरतर संघ ए ॥२२॥ श्रीजिनचंद सूरि नर रयण । नरमणी ए जासु निलाडि, झलहलइ जेम गयणहि दिणंदो। तसु तणइ ए पाटि प्रचंड, श्रीसूरिजिनपति सूरिइंदो ॥२३॥ 2010_05 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गच्छ पट्टावली छंदःसिर सुरिंइन्द मुणिंद जिनपति, श्रीजिन शासनि गज्ज ए। छत्री वादइ जयपताका, विरुद जसु जगि छज्ज ए॥ "अहंसि(जि)रि जिणेसर सूरि वंदउ, जिण प्रबोह मुनीसरो। कलिकाल केवलि विरुद गणहर, तयणु जिणचंद सूरि गुरो ॥२४॥ राग धन्याश्री भास:साहेलीए नयरि देरउरि सुरतरु, सुगुरु वर श्रीजिनकुशल सुरे। साहेली ए थूभिहिं प्रणमइ तसुपय, भवियजन२ भगति ऊगंति सूरे । साहेली ए तोह तणे जाइहि दोहग, दुरिअ दालिद दुहसयल दूरे। साहेलीए तीह तणइ मंदिर विलसइ, संपति सय वरसु भरि पूरे ॥२५॥ .. छंदःभरि पूरि आवइ सयल संपय, भविय लोयह नितु घरे । जे थूमि श्री जिनकुसल सुह गुरु, पय नमइ देराउरे । तसु पाटि सिरि जिणपदम गणहर, नमउ पुहवि प्रसिद्धउ । "कूर्चालि सरसती" विरुद पाटणि जासु संघहिं दिद्धउ ॥२६।। साहेली ए इणिगच्छि लब्धिहि गोयम गह गहइ श्रीजिनलब्धि सूरे । साहेली ए चन्द्र गच्छे पूनिमचन्द जिम सोह ए श्रीजिनचंद सूरे ।। साहेली ए श्रीसंघ उदयकर चंदउ नदेन श्रीजिनउदय सूरे । साहेली ए सुरि पुरंदर सुंदर गुरुअउ श्रीजिनराज सूरे ।।२।। १ जैनपति २ जे 2010_05 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह साहेली ए नितु नवतत्व वखाण ए जाण ए सयल सिद्धान्त सारो । साहेली ए मगहर रूपि अनोपम संजम निरमल गुण भंडारो । साहेली ए गोयम जंबु कि अभिनवड अभिनव थूलभद्द वयर गुरि । साहेली ए संपइ प्रणमउ गच्छपति श्रीजिनभद्रसूरि जुग पवरो |२८| साहुसाखह तिलउ बछराज साह मल्हारो | १ स्याणीय कुखंहि अवयरिउ छाजइ खरतर गच्छ भारो । साहेली ए संपय पणमउ गच्छपति श्रीजिनचन्द्र सूरि युगपवरो । दंसणि भवियण मोहए सोहइ सूरि गुणरयण धरो ॥ २६ ॥ छंद: ४८ जुगवर तणा गुणरयण पूरी गरुअ एह गुरावली । श्रीसंघ भाविहिं सांभली ती मन तणी पूरउ रली ॥ आराधतउ विधि खरतर सं इम भणइ भगतिहि सोमकुंजर जाम चंद दिणंद ||३०|| इति श्री विधिपक्षालंकार श्रीखरतर गुरुणा गुर्वावली समाप्ता ॥ ..... ......... 1 ....... 1 नोट: - श्रीजिनकृपाचन्द्र सूरि ज्ञानभण्डारस्य गुटके में २९ वीं गाथा अतिरिक्त मिली है । & ज्ञात होता है उस प्रतिके लिखने के समय जिनचन्द्रसूरि विद्य मान होंगे अतः यह १ गाथा उसीमें वृद्धि कर दी है । १ चंदइ गणधर गरूयउ 2010_05 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भावप्रभसूरि गीतम् श्रीभावप्रभसूरि गीतम् समरवि सुहगुरु पाय अहे, ज(सु) दरसणि मनु उल्सइ ए । थुणीय मुणिवर राय अहे, कलियुगे जसु महिमा वसइ ए ॥१॥ निरमल निय जस पूरि अहे, चन्दन वन जिम महिमहइ ए । श्रीय भावप्रभसूरि अहे, श्रीयखरतरगछे गहगहइ ए ॥ २ ॥ अमिय समाणीय वाणि आहे, नवरस देसण जो करइ ए । समय विवेक सुजाण आहे, समकित रयण सो मनि धरइए || ३ || पंच महव्वधार आहे, पंच विषय परि गंजणू ए । ४६ पालय पंच आचार अहे, पंचमि (ध्यात्व) भंजणूं ए ॥ ४ ॥ भंजणु मोह नरिंदो अहे, मयणु महाभडो वसि कीउ ए । वस की कोहु गयंदो अहे, मानु पंचाननु वन (स?) कीड ए ॥५॥ चमकीउ दलिउ कषाय आहे, लोभ भुजंगमु निरुजणिउ ए । निजणि अरि रागाय आहे, सयल सुरा सुरे सेवीयउ ए ॥ ६ ॥ . सेवइ जसु पय साध आहे, पंकय महूअर रुण उणइ ए । धन धनु जे नरनारि अहे, नित नितु प्रभु गुण गण थुणइ ए ॥७॥ मंगल लछि विलास अहे, पूरइ ए वंछिय सुहकरू ए । निरुवम उवसम वास अहे, रंजण भविअण मुणिवरू ए ॥ ८ ॥ नव रस देसण वाणि अहे, घण जिम ग़ाजइ ए गुहिर सरे । मयण दवानल वारि अहे, नागिहिं जलि वरिसइ सुखरे ॥ ६ ॥ विहरs सुविही याचार अहे, कास कुसुम जसु निरमलउ ए । ४ 2010_05 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह माल्हूअ साख विशाल अहे,लूणिग कुलि महियलि तिलउ ए॥१०॥ लवधिर्हि गोयम सामि अहे, सीयलिहिं साधु सुदरशनु ए। सव्वड़ साह मल्हार अहे, राजल देविय नंदन ए ॥१॥ निरमल गुण भंडारो अहे, श्रीय जिनराजसूरे शीस वरो । संवम सिरि उरि हारो अहे, सागरचन्द्रसूरे पाटु धरो॥१२॥ सुमत्तणु-सुरतरु तेम अहे, सुकृत रसो भरि पूरीउ ए। गुणमणि रयणिहिं जेम अहे, लवणिम मंजरि अंकूरीउ ए ॥१३॥ दिणियर जिम सविकासो अहे, जसं कीयरतिगुण विसतरीए। जगि जयवंतउ सूरे अहे, पूरव गुर सवि उद्धरी ए॥१४॥ उद्धरिय धीरिम मे(रु) गिरि जिम, चन्द्रगछि मुख मंडणो। पंच समतिहिं त्रिहुं गुपिति गुपतउ, दुरित भवभय खंडणो। सिरि आइरिय मुवर कांति दिणियर, भविक कमल सविकासणो। जयवंतु श्रीय गुरु भावप्रभसूरि, जाम ससि गयणंगणो ॥१५॥ ॥ इति श्रीमदाचार्याणां गीतम् ।। श्रीरागि ढाल ॥ छ । 2010_05 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकीर्तिरत्नसूरि चउपइ श्रीकल्याणचन्द्रगणि कृत সীহিলহি অঘ RA OPARSHPAPERIMENa ANTIPS r ma सरसति सरस वयण दे देवि, जिम गुरु गुण बोलिउ संखेवि । पीजइ अमोय रसायण बिंदु, तहवि सरीरिइ हुइ गुण वृन्द ।१॥ महि मंडण पयडउ धण रिद्धि, नयर महेवउ नर बहु बुद्धि । ओसवंश अति घण तिणि ठाण, वसइ मुरद्दम जिम धणदाण ।२। तहि श्री संखवाल गुणवंत, उदयवंत साखा धनवंत । कोचर साह तणइ संतान, आपमल्ल देपा बहु मानि ॥ ३ ॥ सीलिहि सीता रुपइ रंभ, दान देइ न करइ मनि दंभ ।। देप घरणी देवलदे नारि, पुत्त रयण तिणि जन्मा च्यारि ॥४॥ लखउ भादउ साह सुरंग, केल्हउ देल्हउ बंधव चंग ।। धनद जेम धनवंत अनेक, धर्मकाजि जसु अति सविवेक ॥५॥ चउदह गुणपचासह जम्मु, दिखिउ देल्ह त्रेसइ रंमु ॥ श्रीजिनवर्द्धन सूरिहि शास्त्र, कीर्तिराइ सीखविय सुपात्र ॥६॥ हिव वाणारीय पद सत्तरइ, पाठक पद असीयइ उधरइ ।। तयणंतरि आयरिह मंतु, जोगि जाणि गुरि दीधउ मंतु ॥णी लखउ केल्हउ करइ विस्तारि, उछव जेसलमेर मंझारि ।। . श्रीजिनभद्रसूरि सत्ताणवइ, किया श्री कीर्तिरयण सूरिवइ ।।८।। वादो मइंगल ता गड़ अड़इ, जां गुरु केसरि दृष्टि नव चड़इ । जव किरि अम्ह गुरु बोलइ बोल, वादी मूकइ मांन निटोल ॥६॥ 2010_05 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जहि मस्तकि गुरु नियकरु ठवइ, तइ घरि नवनिद्धि संपद हवइ । सुह गुरु जेह भणावइ सीस, ते पंडित हुइ विस्वा वीस ॥१०॥ जिहां जिहां गुणवंता रहइ, तिहां श्रावक रिधिहि गहगहइ ॥ गाम नगर ते अविचल खेम, लबधिवंत जणिजह एम ॥११॥ पनरह पणवीसइ वरसंमि, वइसाखा वदिदिण पंचमि ।। पंचवीस दिण अणसण पालि, सरगि पहुंता पाव पखालि ॥१२॥ रविजिम झगमगि झिगमिग करइ, नवइ तेज तनु अणसण धरइ । अतिसय जिम तित्थंकरतणा, गुरु अनुभवि हुया अतिघणा ।।१३।। सुह गुरु अणसण सीधउं जांम, वीर विहारे देविहि ताम । झल हलंत दीवो पुण कीध, जडिय किमाडिहि लोक प्रसिद्धि ॥१४॥ जिम उदयाचलि उगउ भाणु, तिमपूरव दिसि प्रगट प्रमाणु । थापिउ थूभ सुनिश्चलजाण, श्री वीरमपुर उत्तम ठाणि ।।१५।। श्रीखरतर गणि सुरतर राय, जहि सिरि किर्तिरयण सूरि पाय । आराहउ भवियणइकचित्ति, ते मण वंछित पामइ झत्ति ॥१६॥ चिन्तामणि जिम पूरइ आस, पूजइ जे मनि धरिय उल्लास । तिणि कारणि गुरु चरण त्रिकाल, सेवइ नर नारि भूपाल ॥१७॥ श्री कीर्तिरतन सूरि चउपइ, प्रहउठी जे निश्चल थइ। भणइ गुणइ तिहि काज सरंति, "कल्याणचन्द्र"गणि भगतिभणंति ॥१८॥ ॥ इति श्रीकीर्तिरत्नसूरि चउपइ ।। सं० १६३७ वर्षे शाके १५८२ प्र. ज्येष्ठ मासे शुक्लपक्षे घेष्टा तिथौ गुरुवासरे। श्रीमहिमावती मध्ये श्रीवृहत्खरतर गच्छे श्रीजिन चन्द्रसूरि विजयराज्ये संखवाल गोत्रीय संघभार धुरन्धर साहकेल्हातत्पुत्रसा० धन्ना तत्पुत्रसा० वरसिंघ तत्पुत्र सा० कुवरा तत्पुत्र सा० नव्वा तत्पुत्र सा० सुरताण तत्पुत्रसा० खेतसीह भातृ साह चांपशी पुस्तिका करापिता पुत्र पुत्रादि चिरनंद्यात् । शुभं भवतु ।। [श्रीपूज्यजीके संग्रहस्थ गुटकाके पृ० ४२ से] 2010_05 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनहंससूरि गुरु गीतम् श्रीभक्तिलाभोपाध्याय कृत * श्रीजिनहंससूरि गुरुगीतम् ।। mer UT सरसति मति दिउ अम्ह अतिघणी, सरस सुकोमल वाणि श्रीमन्जिनहंससूरिगुरुगाइसिउं, मन लीणउ गुण जाणि ॥१॥सर० अति घणीयदियउ मति देव सरसति, सुगुरु वंदण जाईइ । 'प्रहउठि श्रीजिनहंससूरि गुरु, भाव भगतिहि गाईइ ॥२॥ पाट उत्सव लाख वेची (पिरोजी) कर, करमसिंह करावए । गुरु ठामि ठामि विहार करता, आगरा जब आवए ॥३॥ तब हरखिउ डुंगरसी घणो, बंधव वली पामदत्त । श्रीमाल चतुर नर जाणियइ, खरतर गुरुगुण रत्त ।।४।। तब हरखिउ डुंगरसी करावइ, सुगुरु पइसारा तणी । बहु परें सजाई सहु सुगज्यो, वात ए छे अति घणी ॥५॥ 'पाखरया हाथी पादसाह, सुगुरु साम्हो संचरइ । गुरु पाय हेठइ कथीपानइ, पटोला बहु पाथरइ ॥६।। पातसाह साहमो आविउ, उंबर खान वजीर । लोक मिलिया पार न जाणियइ, मोरइ काच कपूर ॥णा आवीया साहमा पादसाह सबे वाजा वाजए । जेण सरणाइ जल्लरिसंख वाजइ, ससरिअ अंबर गाजए ॥८॥ मोति वधावइ गीत गावइ, पुण्य कलस धरइ सिरे । सिंगारसारा सब नारी करइ, उच्छव. घर घरे ॥६॥ 2010_05 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह रुपटका सहित तंबोल दियइ, वेंचिउ वित्त अपार । इम पइसारो विस्तार कीयो, वरतिऔ जय जयकार ॥१०॥ तंबोल दिधउ सुजस लीधउ, इसी बात घणी सुणी। श्रीसिकन्दर बादशाह, वडइ दिल्लीनउ धणो ॥११॥ जिसी जिनप्रभसूरि किरामति, पादशाहे जणियइ । एथी सहु लोकमांही, घj घj वखाणीयइ ॥१२॥ दीवान मांहे तेडाविया, कीधी पूछ बहुत । देखाडी किरामती आपणि, गुरुया गुरु गुणवंत ॥१३।। दीवान मांहे घोर तप नइ, जाप सुगुरु मन धरइ । जिनदत्तसूरि पसायइ चौसठि, योगिनी सानिध करइ ॥१४॥ श्रीसिकंदर चित्त मानियउ, किरामत काइ कही। पांचसइ बंदी बाखरसी, छोडव्या इण गुरु सही ॥१५॥ बंदि छोडि विरुद मोटउ हुयउ, तप जप शील प्रमाणि गुरु मोटा करम तणा धणी, जाणिउं इणउ इहनाणि ॥१६॥ बंदि छोडि मोटउ विरुदलाधर, बादशाहे परखिया । श्रीपासनाह जिणंद तुट्ठउ, संघ सकलइ हरखीया ॥१७॥ श्रीभक्तिलाभ उवझाय बोलइ, भगति आणी अति घणी। श्रीजिणहंससूरि चिरकाल जीवउ, गच्छ खरतर सिरधणी ॥१८॥ इति गुरु गीतम् 2010_05 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवतिलकोपाध्याय चौपई श्री पद्ममन्दिर कवि कृत श्री देवतिलकोपाध्याय चौपई ।। nिFHOS SA - - -- पास जिणेसर पय नमुं, निरुपम कमला कंद । सुगुरुथुर्णता पामियइ, अविहड सुख आणंद ॥१॥ भारहवास अजोध्या ठाम, बाहड गिरि बहुधण अभिराम । चवदहसइ चम्माल प्रसिद्ध, निवसइ लोक घणा सुसमृद्ध ॥२॥ ओसवाल भणसाली वंश, निरमल उभय पक्ष । ___ करमचंद सुहकरम निवास, तसुघरि जनम्या गुणह निवास॥३॥ तासु घरणि सोहण जाणियइ, सील सीत उपम आणीयइ । पनरहसइ तेत्रीसइ वास, तसु घरि जनम्या गुणह निवास ॥४॥ दीधउ जोसी देदो नाम, अनुक्रमि वाधइ गुण अभिराम । रामति रमतउ अति सुकमाल, माइ ताइ मन मोहइ बाल ।।५।। इगतालइ संजम आदरि, पाप जोग सगला परिहरी । भणीय सयल सिद्धांतां सार, छासठइ पद लयो उदार ॥६॥ श्रीदेवतिलक पाठक गहगहइ, महियलि महिमा सहुको कहइ । देस विदेशे करी विहार, भवियण नइ कीधा उपगार ॥७॥ ईसनयण नभरस ससि वास, सेय पंचमो मिगसर मास । करि अणशण आराहण ठाण, पाम्यउ अनिमिष तणउ विमाण || 2010_05 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जेसलमेरु धुंभ जाणियइ, प्रगट प्रभाव पुहवि माणीयइ । दरसण दीठइ अति उछाह, समरणि सवि टालइ दुखदाह ।।६।। खास सास जर पमुहज रोग, नाम लियइ नवि आए सोग। । अधिक प्रताप सलहियइ आज, जो प्रणमइ तसुसारइ काज ||१०|| थाल विसाल थापना करी, निरमल नेवज आगलि धरी । केसरि चन्दन पूज रसाल, विरची चाढइ कुसमह माल ॥११॥ मृगमद मेलि अगर घनसार, भोग ऊगाहउ अतिहि उदार । ___ करि साथियउ अखंड तंदु लइ, सुगुणगान कीजइ तिह वलइ ॥१२॥ चित्त तणी सहि चिंता टलइ, मनह मनोरथ ततखिण फलइ । खरतरगणगयणिहि ससि समउ, भाविकलोक करिजोड़ी नम।।१३।। गुरु श्रीदेवतिलक उवझाय, प्रणम्यइ बाधइ सुह समवाय । अरि करि केसरि विसहर चोर, समर्यउ असिव निवारइ घोर ॥१५॥ ए चउपई सदा जे गुणइ, उठि प्रभाति सुगुरु गुण थुणइ । कहइ “पदममंदिर" मनशुद्धि, तसुथाए सुख संपति रिद्धि ।।१५।। 2010_05 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपुण्यसागर गुरु गीतम् मुनि हर्षकुल कृत महो० श्रीपुण्यसागर गुरु गीत राग:---सूहव श्रीजगगुरु पय वंदीयइ, सारद तणइ पसायजो । __ पंचइंद्रिय जिणि वशिकीय, ते गाइसु मुणिरायजी ॥१॥ मन शुद्धि भवियण भावियइ श्रीपुण्यसागर उवझाउ जी। __ पालइ शील सुदृढ़ सदा, मन वंछित सुखदाउ जी । विमल वदन जसु दीपतउ, जिम पूनम नउ चंद जी । मधुर अमृत रस पीवता, थाइ परमाणन्द जी ।।मन॥२॥ दस विधि साधु धरम धरइ, उपशम रस भण्डारी जी क्षमा खड़ग करि जिन हण्यउ, हेलइ मदन विकारो जी ॥३॥मन।। ज्ञान क्रिया गुणि सोहतउ जसु, पणमइ नरवर राउ जी। नामई नव निधि संपजइ, सेवइ मुनिवर पाउ जी ॥४॥म०॥ धन उत्तम दे उरि धरयउ, उदयसिंह कुलि दिनकार जी। जिन शासन मांहि परगड़उ, सुविहित गच्छ सिणगार जी ॥५॥म०॥ श्रीजिनहंस सूरिसरइ सइ हथि दीखिय शीस जी । हरषी "हरष कुल" इम भणइ, गुरु प्रतपउ कोड़ि वरीस जी ॥६॥म०।। ---* 2010_05 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह শ্লী জিলত্রুহি ৰ নিম্ম হা दोहा :-राग असावरी जिनवर जग गुरु मन धरि, गोयम गुरु पणमेसु । ___सरस्वती सद्गुरु सानिधइ, श्री गुरु रास रचेसु ॥ १ ॥ बात सुणी जिम जन मुखइ, ते तिम कहिस जगीस । अधिको ओछो जो हुवइ, कोप(य?) करो मत रीस ॥२॥ महावीर पाटई प्रगट, श्री सोहम गणधार । तास पाटि चउसट्ठिमइ, गच्छ खरतर जयकार ॥ ३ ॥ संवत सोल बारोत्तरइ, जैसलमेरु मंझार । श्री जिन माणिक सूरि ने, थापिउ पाट उदार ॥ ४ ॥ मानियो राउल माल दे, गुण गिरूओ गणधार । महीयलि जसु यश निरमलो, कोय न लोपइ कार ॥ ५ ॥ तेजि तपइ जिम दिनमणि, श्री जिनचन्द्र सूरीश । सुरपति नरपति मानवी, सेव करइ निश दोश ।। युगप्रधान जगि सुरतरू, सूरि शिरोमणि एह। श्री जिन शासनि सिरतिलौ, शील सुनिम्मल देह ॥ ७ ॥ पूरब पाटण पामियो, खरतर विरुद अभंग । संवत सोल सतोतरे, उजवालइ गुरू रंगि ॥ ८ ॥ साधु विहारे विहरतां, आया गुरु गुजराति । करइ चउमासो पाटणे, उच्छव अधिक विख्यात ।। ६ ।। 2010_05 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग प्रधान जिनचन्द्रसूरिजी और सम्राट अकबर ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 2010_05 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह - 2010_05 त्रसुलगजिएश्वश्याणि दियश्सायासायेगयरनेनाछिसतिश्रुतीनांदयाचरिमते योगिगुणवानकक्षमविलागेवटोदशश्कृतीना मेतामनुपात्रिकेवसत्रिकश्यशकमर देयकस्तर सगनामकर्मशिननामकर्मश्नोत्रपावंड्यासातासातयारिकतरब्वेदार एघवानरकानुवादिनाचरमसमयेहादशासननिरअणुशिविरणाबारसश्चरमसमयाम्मिरर विनायनामिविद विदियानमहतसाधवाचघवानरकापूवाविनाधरमसमयेछाद ताटामदास्पता:पकती शपिवा सिकिंगतातवीरनमताकिंविशिष्टचाराविवाद ताकम्पस्दल विस्ता स वत१६श्वीश्रीजसलमेरुमदागाराइल एलवादापावाश्रीदववरयाबाश्रीजिनमाणिकारिपुनंदराविनियामाधार स्वदायावालदिश्यादा पोशनिवा॥श्रीस्त्रान्॥ कला बोला। बर।। युगप्रधान जिनचन्द्र सूरिजीको हस्तलिपि (सं० १६११ लि० कर्म स्तव बृत्तिका अन्तिम पन्न) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनचन्द्रसूरि अकबर - प्रतिबोध रास चालि राग सामेरी 11 20 11 उच्छव अधिक विख्यात, महीयलि मोटा अवदात | पाठक वाचक परिवार, जूथाधिपति जयकार इणि अवसर वातज मोटी, मत जाणउ को नर खोटी । कुमति जे कीधउ ग्रन्थ, ते दुरगति केरउ पंथ ॥ ११ ॥ हठवाद घणा तिण कीधा, संघ पाटण नइ जसलोधा । ५६ कुमति नउ मोड़िउ मांन, जग मांहि बधारित वांन ॥ १२ ॥ पेखी हरि सारंग त्रासर, गुरु नामइ कुमति नासइ । पूज्य पाटण जय पद पायउ, मोतीड़े नारि बधायउ || १३ || गामागर पुरि विहरंता, गुरू अहमदाबाद पहुंता । तिहां संघ चतुर्विध वंदइ, गुरु दरसण करि चिर नंदइ || १४ || उच्छव आडम्बर कीधड, धन खरची लाहउ लीघउ । गुरु जांणी लाभ अनन्त, चउमासि करइ गुणवन्त ।। १५ ।। चउमासि तणइ परभाति, सुह गुरु पहुंता खंभाति । चउमासि करइ गुरुराज, श्री संघ तणइ हितकाज ॥ १६ ॥ खरतर गच्छ गयण दिणंद, अभयादिम देव मुणिंद । प्रगट्या जिण थंभण पास, जागइ अतिसइ जसवास ॥ १७ ॥ श्री जिनचन्द सूरिन्द, भेटचउ प्रभु पास जिणन्द | श्री जिन कुशल सुरीस, वंदया मन धरि जगीस ॥ १८ ॥ हिव अहमदावाद सुरम्म, जोगीनाथ साह सुधम्म । शत्रुंजय भटेणरंगि, तेड्या गुरु वेगि सुवंग ॥ १६ ॥ 2010_05 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मेली सहुसंघ गुरु साथि, परघल खरचइ निजआथि । ___ चाल्या भेटण गिरिराज, संघपति सोमजी सिरताज ॥ २० ॥ राग मल्हार दोहा पूर्व पच्छिम उत्तरइ, दक्षिण चहुं दिसि जाणि । संघ चालिउ शैज भणी, प्रगटी महीयलि वांणि ।। २१ ॥ 'विक्रमपुर मण्डोवरउ, सिन्धु जेसलमेर । सीरोही जालोर नउ, सोरठि चांपानेर ॥ २२ ॥ संघ अनेक तिहां आविया, भेटण विमल गिरिन्द । लोकतणी संख्या नहीं, साथि गुरु जिणचन्द ॥ २३ ॥ 'चोर चरड़ अरि भय हणो, वंदी आदि जिणंद । कुशले निज घर आविया, सानिध श्री जिनचंद ॥ २४ ।। पूज्य चउमासो सूरतइ, पहुंता वर्षा कालि । संघ सकल हर्षित थयउ, फलो मनोरथ मालि ।। २५ ।। वली चौमासो गुरु कीयउ, अहमदावादि रसाल । __ अवर चौमासो पाटणे, कीधो मुनि भूपाल ॥२६॥ अनुक्रमि आव्या खम्भपुरि, भेटण पास जिणंद । संघ करइ आदर घणउ, करउ चउमासि मुणिंद ।। २७ ।। राग धन्याश्रो० ढालउलालानी हिव विक्रमपुर ठाम, राजा रायसिंह नाम । कर्मचन्द तसु परधान, साचउ बुद्धिनिधान ।। २८ ।। ओस महा वंश हीर, वच्छावत बड़ वीर । दानइ करण समान, तेजि तपय जिम भांण ॥ २६ ।। 2010_05 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्रसूरि अकबर - प्रतिबोध रास सुन्दर सकल सोभागी, खरतर गच्छ गुरु रागी । बड़े भागी बलवन्त, लघु बंधव जसवन्त ॥ ३० ॥ श्रेणिक अभय कुमार, तासु तणइ अवतार | मुहतो मतिवन्त कहिय, तसु गुण पार न लहियइ ।। ३१ । पिसुण तणइ पग फेर, मुंकी वीकम नयर । लाहोरि जईय उच्छाहि, सेव्यो श्री पातिशाह ॥ ३२ ॥ मोटर भूपति अकबर, कउण करइ तसु सरभर । चिहुं खण्ड वरतिय आण, सेवइ नर राय रांण ॥ ३३ ॥ अरि गंजण भंजन सिंह, महीयलि जसु जस सीह । धरम करम गुण जांण, साचउ ए सुरताण ॥ ३४ ॥ बुद्धि महोदधि जाणी, श्रीजी निज मनि आणी । ६१ कर्मचन्द तेड़ीय पासि, राखइ मन उलासि ॥ ३५ ॥ मान महुत तसु दोघउ, मन्त्रि सिरोमणि कीधउ । कर्मचन्द शाहि सुं प्रीत, चालइ उत्तम रोति ॥ ३६ ॥ मीर मलक खोजा खांन, दीजइ राय राणा मांन । मिलीया सकल दीवांणि, साहिब बोलइ मुख वाणि ।। ३७ ।। मुंहता काहि तुझ मर्म, देव कवण गुरू धर्म | । भंजर मुझ मन भ्रन्ति, निज मनि करिय एकन्ति ।। ३८ ।। राग सोरठी दोहा वलत मुहत विनव, सुणि साहब मुझ बात । देव दया पर जीव ने, ते अरिहंत विख्यात ॥ ३६ ॥ 2010_05 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ - ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह क्रोय मान माया तजी, नहीं जसु लोभ लगार । उपशम रस में झीलता, ते मुझ गुरु अणगार ॥ ४०॥ शत्रु मित्र दोय सारिखा, दान शीयल तप भाव । जीव जतन जिहां कीजिय, धर्मह जाणि स्वभाव ।। ४१ ।। मई जाण्या हई बहुत गुरु, कुग' तेरइ गुरु पीर । ___ मन्त्रि भणइ साहिब सुणउ, हम खरतर गुरु धीर ॥ ४२ ।। जिनदत्त सूरि प्रगट हइ, श्री जिन कुशल मुणिन्द । तसु अनुक्रमि हइ सुगण नर, श्रीजिनचन्द सुरिंद ।। ४३ ।। रूपइ मयण हराविउ, निरुपम सुन्दर देह । ___सकल विद्यानिधि आगरु, गुण गण रयण सुमेह ।। ४४ ॥ -संभलि अकबर हरखियउ, कहां हइ ते गुरु आज । राजनगर छई सांप्रतइ, सांभलि तु महाराज ॥ ४५ ॥ राग धन्या श्री बात सुणी ए पातिशाह, हरखियउ हीयइ अपार । हुकम कियो महुता भणी, तेडि गुरु लाय म वार ॥ ४६॥ मत वार लावइ सुगुरु तेडण, भेजि मेरा आदमी । अरदास इक साहिब आगइ, करइ मुहतउ सिर नमी ।। ४७ ।। अब धूप गाढि पाव चलिय, प्रवहण कुछ बइसे नहीं। गुजराति गुरु हइ डीलि गिरुआ, आविन सकइ अबसही॥४८॥ वलतउ कहइ मुहता भणी, तेड़उ उसका सीस । दुइ जण गुरु नइ मुकीया, हित करी विश्वा वीस ॥४६ ।। हितकरि मंक्या वेगि दुइजण, मानसिंह इहां भेजीय । जिम शाहि अकबर तासु दरसणि, देखि नियमन रंजीय ॥५०॥ _ 2010_05 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनचन्द्रसूरि अकबर - प्रतिबोध रास महिमराज वाचक सातठाणे, मुकीया लाहोर भणी । मुनि वेग पहुंता शाहि पासइ, देखि हरखिउ नरमणी ॥ ४७ ॥ साहि पूछइ वाचक प्रतई, कब आवइ गुरु सोय । जिण दीठइ मन रंजीय, जास नमइ बहुलोय || लोय प्रणमइ जासु पयतलि, जगत्रगुरु हइ ओ बड़ा । तब शाहि अकबर सुगरु तेड़ण, वेगि मुंकइ मेवड़ा || च मासि नयडी अबही आवइ, चालवउ नवि गुरु तणउ । तब कहि अकबर सुणो मंत्री, लाभ द्यउंगउ तसु घणउ ॥ ४८ ॥ पतशाहि जण अविया, सुह गुरु तेड़ण काजि । बहु ६३ रंजस कुछ ते नवि करइ, गह गहीयउ गच्छराज ॥ गच्छराज दरसणि वेग देखि, हेजि हियड़उ ह्रींस ए । अति हर्प आणो साहि जणते, वार वार सलीस ए ॥ सुरताण श्रीजी मंत्रीजी, लेख तुम्ह पठाविया । हिव मुझ जावउ तिहां सही, तिणवार मिलियउ संघ सघलो, सिर नामी ते जण कहइ गुरु कुं, शाहि मंत्री बोलाविया ॥ ४६ ॥ सुह गुरु कागल बांचिया, निज मन करइ विचार | संघ मिलिउ तिन बार ॥ वइस मन आलोच ए । चउमास आवी देश अलगड, सुगुरु कहउ किम पहुंच ए ॥ समझावि श्रीसंघ खंभपुर थी, सुगुरु निज मन दृढ़ सही । मुनिवेग चाल्या शुद्ध नवमी, लाभ वर कारण लही ||५०|| राग सामेरी दूहाः सुन्दर शकुन हुआ बहु, केता कहुं तस नाम । मन मनोरथ जिण फलइ, सीझइ वंछित काम ॥५१॥ 2010_05 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वंदो वउलावी वलइ, हरखइ संघ रसाल । ____भाग्यबली जिणचंद गुरु, जाणइ बाल गोपाल ॥५२।। तेरसि पूज्य पधारिया, अमदाबाद मंझार । पइसारउ करि जस लीयउ, संघ मल्यो सुविचार ॥५३॥ हिव चउमासो आवियर, किम हुइ साधु विहार । गुरु आलोचइ संघ सुं, नावइ बात विचार ॥५४॥. तिण अवसरि फुरमाणि वलि, आव्या दोय अपार । ___घणुं २ मुहतइ लिख्यो, मत लावउ तिहां वार ॥५५।।. वर्षा कारण मत गिणउ, लोक तणउ अपवाद । निश्चय वहिला आवज्यो, जिम थाइ जसवाद ॥५६।। गुरु कारण जांणी करी, होस्यइ लाभ असंख । संघ कहइ हिव जायवउ, कोय करउ मत कंख ॥५७।। ढालःगौड़ी (निंबीयानी) (आंकडी) परम सोभागी सहगुरु वंदियइ, श्रीजिनचंद सूरिन्दो जी। मान दीयइ जस अकबर भूपति, चरण नमइ नरवृन्दो जी ॥५८॥ संघ वंदावी गुरुजी पांगुरया, आया म्हेसाणे गामो जी। सिधपुर पहुंता खरतर गच्छ घणी, साह वनो तिण ठामो जी ॥ गुरु आडंबर पइसारो कियउ, खरचिउ गरथ अपारो जी। ___ संघ पाटण नउ वेगि पधारियउ, गुरुवंदन अधिकारी जी ॥५६॥ पुज्य पाल्हण पुरि पहुंता शुभ दिनइ, संघ सकल उच्छाहो जी। , संघ पाटण नउ गुरु वांदी वलिउ, लाहिण करिल्यइ लाहो जी ॥६॥ 2010_05 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनचन्द्रसूरि अकबर-प्रतिबोध रास ६५ महुर बधाउ आविउ सिवपुरि, हरखिउ संघ सुजाणो जी। पाल्हणपुर श्रीपूज्य पधारिया, जाणिउ राव सुरताणो जी ॥६१।।प० संघ तेड़ी ने रावजी इम भणइ, आपुं छु असवारो जी। , तेडि आवउ वेगि मुनिवरु, मत लावउ तुम्ह वारो जी ।।६।। श्रीसंघ राय जण पाल्हणपुरि जइ, तेडी आवइ रंगो जी। गामागर पुर सुहगुरु विहरता, कहता धर्म सुचंगो जी ॥६३।। राग देशाख ढाल (इकवीस ढालियानी) सीरोही रे आवाजउ गुरु नो लही, नर-नारी रे आवइ साम्हा उमही। हरि कर रथ रे पायक बहुला विस्तरइ, कोणी(क) जिम रे गुरु वंदन संघ संचरइ ।। संचरइ वर नीसांण नेजा, मधुर मादल बज ए। पंच शब्द झलरि संख सुस्वर जाणि अंबर गज ए॥ भर भरइ भेरी वलि नफेरी, सुहव सिर घटकिज ए। सुर असुर नर वर नारि किन्नर, देखि दरसण रंज ए ॥६॥ वर सूहव रे पूठि थकी गुण गावती, भरि थाली रे मुक्ताफल वधावती । जय २स्वर रे कवियण जण मुख उचरइ, वरनयरी रे माहे इम गुरु संचरइ संचरइ श्रावक साधु साथइ, आदि जिन अभिनंदिया। सोवनगिरि श्रीसंघ आवउ, उच्छव कर गुरु वंदिया। __राय श्रीसुलताण आवी, वंदि गुरु पय वीनवइ । मुझ कृपा कोजइ बोल दीजइ, करउ पजुसण हिवइ ॥६५॥ गुरु जाणि रे आग्रह राजा संघ नउ, पजुसणरे करइ पूज्य संघशुभ मनउ । अट्ठाही रे पाली जीव दया खरी, जिनमंदिर रे पूजइ श्रावक हितकरी। 2010_05 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह हितकरिय कहइ गुरु सुणउ नरपति, जीव हिंसा टालीयइ ॥ किण पर्व पूनिम दिद्ध मंइ तुझ, अभय अविचल पालीयइ । ___ गुरु संघ श्रीजावालपुर नई वेगि पहुंता पारणइ ।। अति उच्छव कियउ साह वन्नइ सुजस लीधो तिणि खिणइ ॥६६॥ मंत्री कर्मचन्द रे करि अरदास सुसाहिनइ । फुरमाणा रे मुक्या दुइ जण पूज्य ने ॥ चउमासउ रे. पूरउ करिय पधारजो। पण किण इक रे पछइ वार म लगाइजो। म लगाड़िजो तिहां बार काइ, जहति जाणी अति घणी ॥ पारणइ पूज्य विहार कोधउ, जायवा लाहुर भणी। श्रीसंघ चउविह सुगुरु साथइ, पातिशाही जण वली ।। गांधर्व भोजक भाट चारण मिला गुणियन मन रली ॥६॥ हिव देछरे गाम सराणउ जाणियइ, भमराणी रे खांडपरंगि वखाणियइ, संघ आवी रे विक्रमपुर नो उमही। गुरु वंद्यारे महाजन मजलइ गहगही ॥ गहि गहीय लाहिण संघ कीधी नयर द्रुणाडइ गयो। __ श्रीसंघ जेसलमेरु नो तिहां वंदो गुरु हरखित थयो । रोहीठ नइरइ उच्छव बहु करि, पूज्य जी पधराविया । साह थिरइ मेरइ सुजस लाधा, दान बहु दवराविया ।।६८॥ संघ मोटउ रे, जोधपुरउ तिहां आवीयउ, करि लाहिण रे शासनि शोभ चढ़ावियो । व्रत चोथौ रे, नांदी करी चिहुं उच्चयों। 2010_05 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्रसूरि अकबर - प्रतिबोध रास तिथि बारस रे, मुंको ठाकुर जस वर्यो । 'जस वर्यो संघइ नयर पाली, आडंबर गुरु मंडियउ । पूज्य वांदिया तिहां नांदि मांडी, दानि दालिद्र खंडियउ । लांबियां ग्रामई लाभ जाणो, सूरि सोझित निरखिया । जिनराज मंदिर देखी सुन्दर, वंदि श्रावक हरखिया ॥ ६६ ॥ ates रे, आनन्द पूज्य पधारोए । पइसारउ रे, प्रगट कीयउ कट्टारीए । जइतारणि रे, आवे बाजा वाजिया | गुरु वेदी रे, दान बलइ संघ गाजिया || गाजियउ जिनचंद्रसूरि गच्छपति, वीर शासनि ए बड़ो । कलिकाल गोतम स्वामि समवड़, नहींय को ए जेवड़उ । विहरता मुनिवर वेगि आवइ, नयर मोटर मेड़तइ । परसरइ आया नयर केरे, कहइ संघ मुंहता प्रतइ ॥ ७० ॥ ॥ राग गौडी धन्या श्री ॥ कर्मचन्द कुल सागरे, उदया सुत दोय चन्द । " भागचन्द मंत्रीसर बांधव लिखमीचन्द | हयगय रह पायक, मेली बहु जन वृन्द । करि सबल दिवाजड, वंदइ श्री जिनचन्द ॥ ७१ ॥ पंच शब्दउ झलरि, बाजइ ढोल नीसांण । भवियण जण गावइ, गुरु गुण मधुरि वाण । तिहां मिलीयो महाजन, दीजइ फोफल दांन । सुन्दरी सुकलीणी, सूक्ष्व करइ गुण गान ॥ ७२ ॥ ६७ 2010_05 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह | गज डम्बर सबलइ, पूज्य पधार्या जाम । मन्त्री लाहिण कीधी, खरची बहुला दाम । याचक जन पोष्या, जग में राख्यो नाम । धन धन ते मानव, करइ जउ उत्तम काम ॥ ७३ ।। व्रत नन्दि महोत्सव, लाभ अधिक तिण ठाण । ततखिण पातशाहि, आव्या ले फुरमाण । चाल्या संघ साथइ, पहुंता फलवधि ठाणि । श्री पास जिणेसर, इंद्या त्रिभुवन भाणि ॥ ७४ ।। हिव नगर नागोरउ रई आया श्री गच्छराज । वाजिन बहु हय गय मेलो श्री सङ्घ साज || आवि पद वंदी करइ हम उत्तम आज । जउ पूज्य पधार्या तर सरिया सब काज ||७|| मन्त्रीसर वांदइ मेहइ मन नइ रङ्ग । __ पइसारो सारउ कीधो अति उच्छरङ्ग । गुरु दरसण देखि बधियो हर्ष कलोल। । महीयलि जस व्यापिउ आपिउ वर तंबोल ।।७६।। गुरु आगम ततखिण प्रगटियो पुन्य पडूर । संघ बीकानेरउ आविउ संघ सनूर । त्रिणसई सिजवाला प्रवहण सई वलि च्यार । धन खरचइ भवियण, भावइ वर नर नारि ॥७७।। अनुक्रम पड़िहारइ, राजुलदेसर गामि । - रस रंग रीणीपुर, पहुंता खरतर स्वामि । 2010_05 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N AVNA श्रीजिनचन्द्रसूरि अकबर-प्रतिबोध गस संघ उच्छव मंडइ आडंबर अभिराम। . संघ आवियो वंदण, महिम तगउ तिण ठाम ॥७८।। खरची धन अरची श्री जिनराय विहार । गुरु वाणि सुणि चित्त हरखिउ संघ अपार । संघ वंदो वलीयउ, पहुंतड़ महिम मंझार । पाटणसरसइ वलि, कसूर हुयउ जयकार ॥६॥ लाहुर महाजन वंदन गुरु सुजगीस। सनमुख ते आविउ चाली कोस चालीस ! आया हापाणइ श्रीजिनचन्द सूरीश। नर नारी पयतलि सेव करइ निसदीस ॥८॥ राग गौड़ी दूहाःवेगि बधाउ आवियउ, कीयउ मंत्रीसर जांण । .. क्रम २ पूज्य पधारिया, हापाणइ अहिठाण ।।८।। दोधी रसना हेम नी, कर कंकण के कांण । दानिइ दालिद खंडियउ, तासु दीयउ बहुमान ।।८।। पूज्य पधायां जांण करि, मेली सब संघात । पहुंता श्री गुरु वांदिवा, सफल करइ निज आथ ।।८३।। तेड़ी डेरइ आंण करि, कहइ साह नई मन्त्रोस। जे तुम्ह सुगुरु बोलाविया, ते आव्या सुरीस ||८४॥ अकबर वलतो इम भणइ, तेड़उ ते गणधार । दरसण तसु कउ चाहिये, जिम हुइ हरष अपार ।।८५।। 2010_05 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह राग गौड़ा बालूडानीःपंडित मोटा साथ मुनिवर जयसोम, कनकसोम विद्या वरू ए। महिमराज रत्ननिधान वाचक, - गुणविनय समयसुन्दर शोभा धरू ए ॥८६॥ इम मुनिवर इकतीस गुरु जी परिवर्या, . ज्ञान क्रिया गुण शोभता ए। संघ चतुर्विध साथ याचक गुणी जण, जय जय वाणी बोलता ए ॥८॥ पहुंता गुरु दीवांण देखी अकबर, आवइ साम्हा उमही ए।। वंदी गुरु ना पाय मांहि पधारिया, सइंहथि गुरु नौ कर ग्रही ए॥८८॥ पहुंता दउड़ो मांहि, सुहगुरु साह जो । धरमवात रंगे करइ ए। चिंते श्रीजी देखी ए. गुरु सेवतां,, . पाप ताप दूरइ हरइ ए॥८९। गच्छपति ये उपदेश, अकबर आगलि मधुर स्वर वाणी करी ए । जे नर मारइ जीव ते दुख दुरगति, - पामइ पातक आचरी ए 080|| 2010_05 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्रसूरि अकबर-प्रतिबोध रास बोलइ कूड़ बहुत ते नर मध्यम, इण परभवि दुख लहइ ए! चोरी करम चण्डाल चिहुं गति रोलवइ, परम पुरुष ते इम कहइ ए ॥११॥ पर रमणि रस रंगि सेवइ जे नर, . दुरगति दुख पावइ वही ए। लोभ लगी दुखहोय जाणउ भूपति, सुख संतोष हवइ सही ए ॥२॥ पंचइ आश्रव ए तजे नर संवरइ, भवसायर हेलां तरइ ए। पामइ सुख अनन्त नर वइ सुरपद, कुमारपाल तणी परइ ए ॥६॥ इम सांभलि गुरु वाणि रंजिउ नरपति, ___श्री गुरु ने आदर करइ ए । धण कंचन वर कोड़ि कापड़ बहु परि, गुरु आगइ अकबर धरइ ए ॥१४॥ लिउ टुक इहु तुम्ह सामि जो कुछ चाहिये, सुगुरु कहइ हम क्या करां ए। देखि गुरु निरलोभ रंजिउ अकबर, बोलइ ए गुरु अणुसरां ए॥१५॥ श्रीपुज्य श्रीजी दोय आव्या बाहिरि, सुणउ दिवाणी काजीयो ए। 2010_05 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह धरम धुरंधर धीर गिरओ गुणनिधि, जैन धर्म को राजीयो ए ॥६॥ ॥राग धन्याश्री॥ सफल ऋद्धि धन संपदा, कायम हम दिन आज । गुरु देखी साहि हरखियो, जिम केकी धन गाज ॥१७॥ घणी भुई चाली करि, आया अब हम पासि । पहुंचो तुम निज थानके, संघमनि पूरी आस ॥१८॥ वाजिब हयगय अम्ह तणा, मुंहता ले परिवार । पूज्य उपासरइ पहुंचवउ, करि आडम्बर सार ।।६।। बलतउ गुरुजी इम भणइ, सांभलि तूं महाराय । हम दोवाज क्या करां, साचउ पुन्य सखाय ।।१०।। आग्रह अति अकबर करी, म्हेलइ सवि परिवार । उच्छव अधिक उपासरइ, आवइ गुरु सुविचार ॥१०१।। राग आशावरी:हय गय पायक बहुपरि आगइ, वाजइ गुहिर निसाण । धवल मंगल द्यइ सूहव रंगइ, मिलीया नर राय राण ॥२॥ भाव धरीने भवियण भेटउ, श्रीजिनचन्दसूरिन्द । मन सुधि मानित साहि अकबर, प्रणमइ जास नरिन्द रे । भ०॥आं।। श्री सङ्घ चउविह सुगुरु साथइ, मंत्रीश्वर कर्मचन्द । पइसारो शाह परबत कीधउ, आणिमन आणंद रे ॥३ । भाव० ।। उच्छव अधिक उपाश्रय आव्या, श्री गुरु द्यइ उपदेश । अमीय समाणि वांणि सुगंता, भाजइ सयल किलेस रे ॥४॥भा०॥ 2010_05 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्रसूरि अकबर-प्रतिबोध रास भरि मुगताफल थाल मनोहर, सूहव सुगुरु बधावइ । याचक हर्षइ गुरु गुण गांता, दान मान तब पावइ रे ।।५।। भा० फागुण सुदि बारस दिन पहुंता, लाहुर नयर मंझारि । ' मनवंछित सहुकेरा फलीया, वरत्या जय जयकार रे ॥६॥भा०|| दिन प्रति श्रीजी मुंवलि मिलतां, वाधिउ अधिक सनेह। गुरु नी सूरति देखि अकबर, कहइ जग धन धन एह रे ॥७॥ भा० कइ क्रोधी के लोभो कूड़े, के मनि धरइ गुमान । षट् दरशन मई नयण निहाले, नहीं कोइ एह समान रे ||भा० हुकम कीयउ गुरु कुं शाहि अकबर, दउढ़ी महुल पधारउ । श्री जिनधर्म सुणावी मुझ कुं, दुरमति दूरइ वारउ रे ॥६|भा० धरम वात (२) गइ नित करता, रंजिउ श्री पातिशाहि । लाभ अधिक हुं तुम कुं आपोस, सुणि मनि हुयउ उच्छाहि रे ।।१०।। रागः-धन्याश्री । ढालः सुणि सुणि जंबू नी अन्य दिवस वलि निज उलट भरई, महुरसउ ऐकज गुरु आगे धरइ। इम धरइ श्री गुरु आगलि तिहाँ अकबर भूपति । गुरुराज जंपइ सुणउ नरवर नवि ग्रहइ ए धन जति । ए वाणि सम्भलि शाहि हरष्यो, धन्य धन ए मुनिवरू । निरलोभ निरमम मोह वरजित रूपि रंजित नरवरू ॥११॥ तब ते आपिउ धन मुंहताभणी, धरम सुथानिक खरचउ ए गणी । एगणीय खरचउ पुन्य संचउ कीयउ हुकम मुंहता भणी । धरम ठामि दीधउ सुजस लीधउ क्धी महिमा जग घणी। 2010_05 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह इम चैत्री पूनम दिवस सांतिक, साहि हुकम मुंहतइ कोयउ। जिनराज जिनचंदसूरि वंदी, दान याचक नइ दीयउ ॥१२॥ सज करी सेना देस साधन भणी, कास्मीर ऊपर चढ़ोयउ नर मणी । गुरु भणोय आग्रह करीय तेड़या, मानसिंह मुनि परवर्या । संचर्या साथइ राय रांणा, उम्बरा ते गुणभर्या ।। वलि मोर मिलक बहु खान खोज, साथि कर्मचन्द मंत्रवो। सब सेन वाटई वहइ सुवधइ, न्याय चलवइ सूत्रवी ।। १३ ।। श्री गुरु वांणि श्रीजी नितु सुणइ, धर्म मूर्ति ए धन धन सुह भणइ । शुभ दिनइ रिपु बल हेलि भंजी, नयर श्रीपुरि ऊतरी । अम्मारि तिहां दिन आठ पाली देश साधी जयवरी। आवियउ भूपति नयर लाहुर, गुहिर वाजा बाजिया । गच्छराज जिनचंदसूरि देखी, दुख दूरइ भाजीया ।। १४ ।। जिनचन्दसूरि गुरु श्रीजी सुं आवि मिली, . एकान्तइ गुण गोठि करइ रली ।। गुण गोठि करनां चित्त धरतां सुणिवि जिनदत्तसूरि चरी! ___ हरखियउ अकबर सुगुरु उपरि प्रथम सई मुख हितकरी । जुगप्रधान पदवो दिद्धगुरु कुं, विविध वाजा बाजिया। बहु दान मानइ गुणह गानइ, संघ सवि मन गाजिया ।। १५ ।। गच्छपति प्रति बहु भूपति वीनवइ । सुणि अरदास हमारो. तुं हिवइ ।। 2010_05 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनचन्द्रसूरि अकबर-प्रतिबोध रास अरदास प्रमु अवधारि मेरी, मंत्रि श्रीजो कहइ वली। __ महिमराज ने प्रभु पाटि थापउ, एह मुझ मन छइ रलो ॥ गुणनिधि रत्ननिधान गणिनई, सुपद पाठक आपीयइ । .... शुभ लगन वेला दिवस लेइ, वेगि इनकुं थापियइ ॥१६॥ नरपति वांणी श्रीगुरु सांभली, कहइ मंइ मानी बातज ए भली । ए बात मांनी सुगुरु वाणी, लगन शोभन वासरई । __मांडियउ उच्छव मंत्रि कर्मचन्द, मेलि महाजन बहुरई॥ पातिशाहि सइमुख नाम थापिउ, सिंह सम मन भाविया । जिनसिंह सूरि सुगुरु थाप्या, सूहवि रंग बधाविया ॥ १७ ॥ आचारज पद श्री गुरु आपिउ, संघ चतुर्विध साखइ थापियउ । व्यापीउ निरमल सुजस महीयलि, सयल श्रीसंघ सुखकरू । चिरकाल जिनचंदसूरि जिनसिंह, तपउ जिहां जगि दिनकरू ॥ जयसोम रत्ननिधान पाठ (क), दोय वाचक थापिया। गुणविनय सुन्दर, समयसुन्दर, सुगुरु तसु पद आपीया ॥ १८ ॥ धप मप धो धों मादल बाजिया, तव तसु नादइ अम्बर गाजिया । बाजिया ताल कंसाल तिवली, भेरि वीणा भृगली । अति हर्ष माचइ पात्र नाचइ, भगति भामिनी सवि मिलो। मोतीयां थाल भरेवि उलटि, वार वार बधावती । इक रास भास उलासि देतो, मधुर स्वर गुण गावती ।। १६ ॥ 2010_05 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह कर्मचन्द परगट पद ठवणो कीयो, संघ भगति करि सयण संतोषीयउ । संतोषिया जाचक दान दे, किद्ध कोडि पसाउ ए । संग्राम मंत्री तणउ नन्दन, करइ निज मनि भाउ ए ।। नव ग्राम गइंवर दिद्ध अनुक्रमि, रंग धरि मन्त्री वली। मांगता अश्व प्रधान आप्या, पांचसइ ते सवि मिली ॥ २० ॥ 'इश परि लाहुरि उच्छव अति घणा, कीधा श्री संघ रंगि बधावणा । इम चोपडा शाख शृङ्गार गुणनिधि, साह चांपा कुल तिलउ । ___धन मात चांपल देइ कहीय, जासु नन्दन गुण निलउ ।। विधि वेद रस शशि मास फागुन, शुक्ल बीज सोहामणी। थापी श्री जिनसिंह सूरि, गुरुद्यउ संघ बधामणी ॥ २१ ।। राग-धन्याश्री ढाल-(जीरावल मण्डण सामो लहिस जी) अविहडिलाहुरि नयर बधामणाजी, बाज्या गुहिर निसांण । पुरि पुरि जी (२) मंत्री बधाऊ मोकल्याजी ।। २२ ।। हर्ष धरी श्रीजी श्रीगुरु भणी जी, बगसइ दिवस सुसात । वरतइ जी (२) आण हमारी, जां लगइ जी ।। २३ ।। मास असाढ़ अठाइ पालवी जी, आदर अधिक अमारी। ___ सघलइ जी (२) लिखि फुरमाण सु पाठवीजी ।। २४ ।। वरस दिवस, लगि जलचर मूकियाजी, खंभनगर अहिठाणि । । गुरु नइ जी (२) श्रीजी लाभ दीयउ घणउजी ।।२५।। 2010_05 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनचन्द्रसूरि अकबर-प्रतिबोध रास ७७. द्यइ आसीस दुनी महि मंडलइजो, प्रतिपइ कोडि वरीस । ए गुरुजी (२) जिण जगिजीव छुड़ाविया जो ॥२६ ।।. राग-धन्याश्री। ढाल:- (कनक कमल पगला ठवइ ए) प्रगट प्रतापी परगडो ए, सूरि बडो जिणचन्द । कुमति सवि दुरे टल्या ए, सुन्दर सोहग कन्द ।। २७ ।। सदा सुहगुरु नमोए, दृइ अकबर जसु मांन । सदा० । आंकणी। जिनदत्तसूरि जग जागतउ ए, गरुने सानिधकार । स० । श्रीजिनकुशल सूरीश्वरू ए, वंछित फल दातार ॥स०॥ २८ ।।। रीहड़ वंशइ चंदलउ ए, श्रीवन्त शाह मल्हार । स०। सिरीयादे उरि हंसलउ ए, माणिकसूरि पटधार |स०॥ २६ ।। गुरु ने लाभ हुया घणां ए, होस्यइ अवर अनन्त । स० । धरम महाविधि विस्तरइ ए, जिहां विहरइ गुणवंत ।। स०॥३०॥ अकबर समवड़ि राजीयउ ए, अवर न कोई जांण ।स०। गच्छपति मांहि गुणनिलउ ए, सूरि वड़उ सुरताण ।। स०।३१।। कवियग कहइ गुण केतलाए, जसु गुण संख न पार । स० । जिरंजीवउ गुरु नरवरू ए, जिन शासन आधार ||स०॥३२॥ जिहां लगी महीयलि सुर गिरीए, गयण तपइ शशि सूर ।स० जिनचन्द रि तिहां लगइ, प्रतपउ पून्य पडूर ॥३३।।स। ३ -- 2010_05 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वसु युग रस शशि बच्छरइ ए, जेठ वदि तेरस जांणि सका शांति जिनेसर सानिधइ ए, रास चड़िउ परमाणि ॥३४॥स०॥ आग्रह अति श्री संघ नइ ए, अहमदाबाद मंझारि ।स। रास रच्यो रलियामणउ ए, भवियण जण सुखकार ॥३५।।स०॥ पढ़इ गु(सु)णइ गुरु गुण रसी ए, पूजइ तास जगीस ।स। __ कर जोड़ी कवियण कहइ, विमल रंग मुनि सीस ॥३६॥स०॥ इति श्री युगप्रधान जिनचन्द्र सूरीश्वर रास समाप्ता मिति । लिखितं लब्धिकल्लोल मुनिभिः श्री स्तम्भ तीर्थे, पं० लक्ष्मीप्रमोद मुनि वाच्यमानं चिरं नंद्यात् यावञ्चन्द्र दिवाकरौ। श्रीरस्तु । 2010_05 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजी की मूत्ति ( बीकानेर के ऋषभ जिनालय में सं० १६८६ प्रतिष्ठित मूर्त्ति ) 2010_05 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री युग-प्रधान निर्वाण रास ६ * कवि समयप्रमोद कृत * ॥ श्रीयुगमकान निर्माण रास दोहा राग (आसावरी) गुणनिधान गुरु पाय नमि, वाग वाणि अनुसार (आधारि)। युगप्रधान निर्वाण नी, महिमा कहेिसुं विचार ॥ १ ॥ युगप्रधान जंगम यति, गिरुआ गुणे गम्भीर । श्री जिनचन्द सुरिन्दवर, धुरि धोरी ध्रम धीर ॥ २ ॥ संवत पनर पंचाणूयइ, रीहड़ कुलि अवतार । __ श्रीवन्त सिरिया दे धर्यउ, सुत सुरताण कुमार ॥ ३ ॥ संवत सोल चड़ोत्तरइ, श्री जिनमाणिक सूरि । सइ हथि संयम आदर्यउ, मोटइ महत पडूरि ॥ ४ ॥ महिपति जेसलमेरु नइ, थाप्या राउल माल । संवत सोल बारोत्तरइ, शत्रु तणइ सिर साल ।। ५ ।। ढाल (१) राग जयतसिरि (करजोड़ी आगल रही एहनी ढाल) आज बधावौ संघ मई, दिन दिन बधते' वानइ रे । पूज्य प्रताप बाधइ घणौ, दुश्मन कीधा कानइ रे ॥६॥ आ० १ गौतम २ देवोनह ३ बाधइ ४ बधइ 2010_05 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सुविहित पद उजवालियउ, पूज्य परिहरइ परिग्रह माया रे। उग्र विहारइ विहरतां, पूज्य गुर्जर खंडइ आया रे ॥ ७ ॥ रिषिमतीयां सुं तिहां थयउ, अति झूठी पोथी वादो रे । पुज्य वखत बल कुमतियां, परगट गाल्यउ नादौ रे ।।८।। ०| पूज्य तणी महिमा सुणी, सन्मान्या अकबर शाहइ रे । __युगप्रधान पद आपियउ, सह लाहउर उच्छाहइ रे ॥६।। आ०॥ कोड़ि सवा धन खरचियउ, मंत्रि क्रमचन्दजी भूपालइ रे । आचारिज पद तिहां थयउ, संवत सोल अड़तालइ रे ॥१०॥आ०॥ संवत सोलसइ बावनइ, पुज्य पंच नदी (सिन्धु) साधी रे। जित कासो जय पामियउ, करि गोतम ज्यु सिधि वाधी रे ।११।आ०|| राजा राणा मंडलो, एतउ आइ नमें निज भावइ रे । श्रीजिनचंदसूरिसरु, पुज्य सुशब्द नित २ पावइ रे ॥१२||आ०| संइ हथि करि जे दीखिया, पूज्य शीश तणा परिवारो रे । __ ते आगम नइ अर्थे भर्या, मोटी पदवीधर सुविचारो रे ।१३।आ० जोगी, सोम, शिवा समा , पूज्य कोधा संघवी साचा रे । ए अवदात सुगुरु तणा, जाणि माणिक होरा जाचा रे ।१४||आ०५ १ इस रासको ३ प्रतियें हमारे पास हैं जिनमें ऐसा ही लिखा है। मुद्रित, 'गणधर सार्ध शतक" में भी इसी प्रकार है। किन्तु पट्टावलि आदि में सर्वत्र सं० १६४९ ही लिखा है। २ आप तणइ ३ वलि 2010_05 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री युग-प्रधान निर्वाण रास || दोहा सोरठी ॥ महा मुणीश्वर मुकुट मणि, दरसणियां दीवांण । च्यारि असी गच्छि सेहरो, शासण नउ सुरतांण ॥१५॥ ८१ 8 अतिशय आगर आदि लगि, झूठ कहुं तर नेम । जिम अकबर सनमानिउ, तिम वलि शाहि सलेम ॥ १६ ॥ ढाल (जतनी ) पातिसाहि सलेम सदोष, कियउ दरसणियां सुं कोप । ए कामणगारा कामी, दरबार थी दूरि हरामी ||१७|| एकन कुं पाग बंधावर, एकन कुं नाआस अणाव । एकन कुं देशवटौ जंगल दीजै, एकन कुं पखाली कीजइ ||१८|| ए शाहि हुकुम सांभलिया, तसु कोप (कउप) थकी खलभलिया । जजमान मिली संयतना, दरहाल करइ गुरु जतना ॥१६॥ के नासि हीई पूंठि पड़ीया, केइ मइवासइ जइ चढ़ीया । के जंगल जाई बइठा, केइ दौड़ि गुफा मांहिं (जाइ) पइठा ||२०|| जे नासत यवने झल्या, ते आणि भाखसी घाल्या । पाणी नै अन्नज पाल्या, वयरीड़ा वयर सुं साल्या ||२१|| इम सांभलि शशन हीला, जिणचंद सुरीश सुशीला । गुजराति धरा थी पधारइ, जिन शाशन वान वधारइ ||२२|| अति आसति वलि गुरु चाली, असुरां भय दूरइ पाली । उग्रसेनपुरइ पउचाइ, पुज्य शाहि तणइ दरबार ||२३|| ४ कथं १ का २ हिंदु ६ 2010_05 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पुज्य देखि दीदारई मिलिया, पातिशाह तगा कोप गलीया । गुजराति धरा क्युं आए, पानिशाहि गुरु बतलाए ॥२४॥ पातिशाहि कुं देण आशोश, हम आए शाहि जग.श । काहे पाया दुःख शरीर, जाओ जउख करउ गुरु पीर ।।२५।। एक शाहि हुकुम जउ पावां, बंदियड़ां बंदि छुड़ावां । पतिशाहि खयरात करीजई, दरशणियां पूरु (दूबउ) दीजई ।। २६ ।। पतिशाहि हुंतउ जे जूठउ, पूज्यभाग बलइ अति तूठउ। - जाउ विचरउ देश हमारे, तुम्ह फिरतां कोइ न वारइ ।। २७ ।। धन धन खरतरगच्छ राया, दर्शनियां दण्ड छुडाया। पूज्य सुयश करि जगि छाया, फिरि सहरि मेडतइ आया ॥२८॥ दूहा (धन्यासिरि) श्रावक श्राविका बहु परइ, भगति करइ सविशेष । आण बहै गुरुराज नी, गौतम समवड़ देखि ॥ २६ ॥ धरमाचारिज धर्म गुरु, धरम तणउ आधार। हिव चउमासउ जिहां करइ, ते निसुणौ सुविचार ॥ ३० ।। ढाल (राग-धवल धन्यासिरी, चिन्तामणिपासपूजिय) देश मंडोवर दीपतउ, तिहां बीलाड़ा नामौ रे । नगर वसै विवहारिया, सुख संपद अभिरामौ रे ।।३१।। दे० ॥ धोरी धवल जिसा तिहां, खरतर संघ प्रधानो रे । कुल दीपक कटारिया, जिहां घरि बहु धन धानो रे ॥३२॥दे०॥ १ बंध, २ दंद, ३ श्रावी, ४ जिहाँ रहै, ५ सहुरमतइ । 2010_05 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री युग-प्रधान निर्वाण रास पंच मिली आलोचिया, इहां पूज्य करै चोमासो रे । __ जन्म जीवित सफलउ हुवइ, सयणां पूजइ आसौ रे ॥३३॥०॥ इम मिली संघ तिहां थकी, आवइ पुज्य दिदारइ रे । महिमा बधारइ मेड़तै, पूज्य वन्दी जन्म समारइ रे ॥३४॥दे०॥ युगवर गुरु पउधारीयइ, संघ करइ अरदासो रे । नयर बिलाड़इ रंग सुं, पूज्यजो करउ चौमासो रे ॥३५॥दे०॥ इम सुणि पूज्य पधारिया, बिलाड़इ रंगरोल रे । संघ महोत्सव मांडियउ, दीजै तुरत तंबोल रे ॥ ३६ ॥ दे० ॥ दोहा ( राग गौडी) पूज्य चउमासो आवियउ, श्री संघ हर्ष उत्साह । विविध करइ परभावना, ल्ये लक्ष्मी नौ लाह ॥ ३७ ।। पूज्य दियइ नित्य देशना, श्रीसंघ सुणइ वखाण । . पाखी पोसहिता जिमइ, धन जीवित सुप्रमाण ।। ३८ ॥ विधि सुं तप सिद्धान्त ना, साधु वहइ उपधान । पूज्य पजूसण पडिकमै, जंगम युगहप्रधान ॥ ३९ ॥ संवत सोलेसित्तरइ, आसू मास उदार । सुर संपद सुह गुरु वरी, ते कहिसुं अधिकार ।। ४० ॥ (ढाल भावना री चंदलियानी) नाणे (न) निहालइ हो पूज्य जो आउख उ रे, तेड़ी संघ प्रधान । जुगवर आपै हो रूड़ी सोखड़ो रे, सुणिज्यो "पुण्य-प्रधान"॥४१॥ना०॥ १गहड, २ रो - 2010_05 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह गुरु कुल वासै हो वसिज्यो चेलडां रे, मत लोपउ गुरु कार। सार अनइ वलि संयम पालिज्यो रे, सूधौ साधु आचार ॥४२॥ना०।। संघ सहु नै धर्मलाभ कागलइ रे, लिखिज्यौ देश विदेश । गच्छाधुरा जिनसिंहसूरिनिर्वाहिस्य रे,करिज्यो तसुआदेश।।४ाना०॥ साधु भणी इम सीख चै पूजजी रे, अरिहन्त सिद्ध सुसाखि । संइमुख अणसण पूज्य जो उच्चरइ रे, आसू पहिले पाखि ॥४४||ना०॥ जीव चउरासि लख (राशि) खामिनै रे, कञ्चन तृण सम निन्द । ममता नै वलि माया मोसउ परिहरी रे, इमनिज पाप निकंद ॥४५॥ना०॥ वयर कुमार जिम अणसण उजलउ रे, पालो पहुर चियार । सुख ने समाधे ध्यानै धरम नइ रे, पहुंचइ सरग मझार ॥४ाना०॥ इन्द्र तणो तिहां अपछर ओलगइ रे, सेव करइ सुर वृन्द । साधु तणउ धर्म सूधौ पालियौ रे, तिण फलिया ते आणंद ॥४७॥ना०॥ दोहा (राग गौड़ी) गंगोदक पावन जलइ, पूज्य पखाली अंग। चोवा चन्दन अरगजा, संघ लगावइ रंग ॥४८॥ बाजा बाजइ जन मिलइ, पार विहूणा पात्र । सुर नर आवै देखवा, पूज्य तणउ शुभ गात्र ॥४६॥ वेश वणावी साधु नउ, धूपि सयल शरीर । बैसाड़ी पालखियइ, उपरि बहुत अबीर ।। ५० ।। ढाल राग-गउड़ो (श्रेणिक मनि अचरिज थयउ एहनी) हाहाकार जगत्र हुयउ, मोटो पुरुष असमानौ रे। बड़ वखती विश्रामियउ, दीवइ जिउ बूझाणउ रे ।। ५१ ।। ____ 2010_05 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री युग-प्रधान निर्वाण रास पुज्य पुज्य मुखि उच्चरइ, नयणि नीर नवि मायइ रे 1 सहगुरु सो ((सा) लइ सांभरइ, हियडुं तिल तिल थायइ रे || ५२ || पूज्य० ॥ संघ साधु इम विलविलइ, हा ! खरतर गच्छि चंद रे । हा ! जिणशासण सामियां, हा ! परताप दिणंदउ रे || ५३|| पूज्य०|| हा ! सुन्दर सुख सागर, हा! मोटिम भंडारउ रे । हा ! रीहड़ कुल सेहरउ, हा ! गिरुवा गणधार रे || ५४ || पूज्य ० || हा ! मरजाद महोदधि, हा ! शरणागत पाल रे । हा ! धरणीधर धीरमा, हा ! नरपति सम भाल रे ।। ५५ ।। पूज्य ० ।। बहु वन सोहइ भूमिका, वाणगंगा नइ तीर रे । आरोगी किसणागरइ, बाजाइ सुरभि समीर रे ।। पू०॥ ५६ ॥ बावन्ना चंदन ठवी, सुरहा तेल नी धार रे । घृत विश्वानर तर पिनइ, कीधउ तनु संस्कार रे || पू०॥ ५७ ॥ वेश्वानर केहनउ सगड, पणि अतिसय संयोग । नवि दाझी पुज्य मुंहपत्ति, देखइ सघला लोग रे ॥ पू०॥ ५८ ॥ पुरुष रत्न विरहइ करी, साथि मरवउ न थावइ रे । शान्तिनाथ समरण करी, संघ सहु घर आवइ रे || पू०॥ ५६ ॥ ढाल: ८५ राग - धन्यासिरी ( सुविचारी हो प्राणी निज मन थिर करि जोय ) सुविचारी हो पूज्यजी, तुम्ह बिनु घड़ी रे छः मास । दरसण दिखाड़उ आपणउ हो, सेवक पूजइ आश || ६०|| सुवि० 2010_05 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह एकरसउ पउधारियइ हो, दीजइ दरशण रसाल। संघ उमाहु अति घणउ हो, वंदन चरण त्रिकाल ॥६क्षा सुवि० वाल्हेसर रलियामणा हो, जे जगि साचा मीत । विण थी पांगरउ पूज्यजी रे, मो मनि ए परतीत ॥६२। सुवि० इणि भवि भवे भवान्तरइ हो, तुं साहिब सिरताज । मातु पिता तुं देवता हो, तुं गिरुआ गच्छराज ॥६॥ सुविक पूज्य चरण नित चरचतां हो, वन्दत वंछित जोइ। __अलिअ विधन अलगा टरइ हो, पगि २ संपत होइ ॥६४|| सुवि० शांतिनाथ सुपसाउलइ हो, जिनदत्त कुशल सूरिन्द । तिम जुगवर गुरु सानिधइ हो, संघ सयल आणंद ।।६५।। सुवि० मीठा गुण श्रीपूज्य ना हो, जेहवी साकर द्राख । रंचक कूड़ इहा त(न?) ही हो, चन्दा सूरिज साख ॥६६॥ सुवि० तासु पाटि महिमागरु हो, सोहग सुरतरु कन्द । सूर्य जेम चढती कला हो, श्री जिनसिंह सुरीद ॥६॥ सुवि० हो युगवर, नामइ जय जय कार । वंश बधावइ चोपड़ा हो, दिन दिन अधिकउ वान । पाटोधर पुहवी तिलउ हो, चिर नन्दउ श्रीमान् ।।६८॥ सुवि० युगवर गुरु गुण गांवतां हो, नव नव रंग विनोद । एह १ आस्या फलइ हो, जंपइ "समयप्रमोद" ॥६६॥ सुवि० ॥ इति युगप्रधान जिनचन्द सूरि निर्वाणमिदं । १ दूसरी हस्तलिखित प्रतिमें रुड़ई है। 2010_05 | Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान आलजा गोतम् ८७ । युगवान आलजा गीतम् ॥ आसू मास वलि आवीयउ, पूज्यनी, आयउ दीवाली पर्व पू० । काती चउमासौ आवीयउ, पूर आया अवसर सर्व ॥१॥ तुम्हे आवौ रे श्रियादे का नंदन, तुमे बिनु घड़िय न जाय पू०। तुम्हे बिन अलजी जाय पूज्य० ॥ तुम्हे०॥ शाहि सलेम वली उंबरा, पू० संभारइ सहु कोइ । __ धर्म सुणावउ आविनइ पू०, जीव दया लाभ होई ॥तु॥२॥ श्रावक आया वांदिवा पू०, ओसवाल नइ श्रीमाल । दरशण घउ इक वार कउ, पू० वाणि सुणावउ विशाल ॥तु०॥३॥ बाजउठ मांड्यउ बसणइ, पू० कमली मांडी सुघाट । वखाण नी वेला थइ पू०, श्रीसंघ जोयइ वाट आपू०॥तु॥४॥ श्राविका मिलि आवी सहु, पू० वांदण बे कर जोड़। वंदावी धर्मलाभ द्यौ पू०, जिम पहुंचइ मन कोड़ि ॥०॥॥५॥ श्राविका उपधान सहु वहै पू०, मांड्यउ नंदि मंडाण । माल पहिरावउ आविनइपू०, जिम हुवै जन्म प्रमाग पू॥तु॥६॥ अभिग्रह वांदण उपरि पूज्य०, कीधा हुंता नर नार । ते पहुंचावउ तेहना, पू० वंदावउ एक वार ॥पू०॥तु०॥७॥ परव पजूसण वहि गया पूज जी, लेख वान्छै सहु कोय । मन मान्या आदेश द्यउ, पू० शिष्य सुखी जिम होय॥०॥तु०॥८॥ 2010_05 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ m ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तुम सरिखउ संसारमें पू०, देखें नहिं को दीदार । नयना तृप्ति पामइ नहीं, पू० संभारू सौ वार ॥पूगातु॥६॥ मुझ मिलवा अलजौ घणौ पूज्य०, तुम्हे तो अकल अलक्ष । सुपनि में आवि वंदावज्यो, पू० हुं जाणिसि परतक्षि ॥पूचातु०॥१०॥ युगप्रधान जगि जागतउ, पू० श्री जिनचन्द मुणिंद । सानिधि करिज्यो संघ ने, पू० समयसुंदर आणंद ॥पूछातु०॥११॥ ॥ इति श्री जिनचन्द्र सूरीश्वराणां आलजा गीतं ॥ स० १६६६ वर्षे श्री समयसुं(द)र महोपाध्याय तच्छिष्यमुख्य श्री वाचनाचार्य श्रीमहिमासमुद्र *गणि तच्छिष्य पं० विद्याविजय गणि शिष्य पं० वीरपालेनालेखि ॥१॥ (पत्र ४ हमारे संग्रहमें ) x पाठक श्री समयसुन्दरजीगणि ने इनके आग्रहसे सं० १६६७ में "श्रावकाराधना" बनाई जिसको अन्त्य प्रशस्ति इस प्रकार है :आराधनां सुगम संस्कृत वार्तिकाभ्यां, चक्र क्रमात् समयसुंदर आदरेण । उच्चाभिधान नगरे महिमासमुद्र शिष्याग्रहेण मुनि षडरस चन्द्र वर्षे ॥ 2010_05 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनचन्द्रसूरि गीतानि ॥ श्रीजिनचन्द्रसूरि गीतानि मन धरोय सासण माइ, तुं मुझकरि सुपसाउ, मन वचन दृढ़ करिकाय, चिदानंद सुं लयलाय, ___ गाइवा श्री गछराउ, मुझ उपज्यौ बहु भाउ ॥ १ ॥ धन धन खरतर गच्छ मंडण, श्रीजिनचंद्रसूरि पय वंदण । टेर। मारवाड़ि देस उदार, जिहां धरम को विस्तार । तिहां खेतसर मंझारि, ओसवंश कउ सिणगार । सिग्वंत साह उदार, तसु सिरीय देवी नार ॥ धन० ॥२॥ सुख विलसतां दिन दिन्न, पुण्यवंत गरभ उपन्न । नव मास जिहां पडिपुन्न, जनमीया पुत्र रतन्न । तिहां खरचीया बहु धन्न, सब लोक कहइ धन धन्न ॥धन०॥३॥ नाम थापना सुलताण, नितु नितु चढ़ते वान । जग माहे अमली मान, सूरिज तेज समान । ___ मतिमंत सब गुण जाण, रूप रंजवइ रायराण ॥ धन० ॥४॥ तिहां विहरता माणिकसूरि, आविया आणंद पूरि । देसणा दिद्ध सनूरी, निसुणइ भवियण भूरि । पूरब पुण्य पडूरि, मोहनी कर्म करि चूरि ॥धन० ॥५॥ 2010_05 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ऐतिहासिक जन काव्य संग्रह सुलताण मनहि विचार, लेइवा संयम भार । सुणि मात निज परिवार, यहु अथिर सब संसार । अनुमति यो सुविचार, हम हांहिंगे अणगार || धन० ।। ६ ।। सुणित तूं सुकमाल, तेरो नव योवन सुर साल | यहु मदन- अति असराल, क्या जाणही तूं बाल । आपण मति संभाल, तब पीछइ चारित्रपाल || धन० ॥ ७ ॥ अब निसुणि मोरी मात, ए छोडि जूठी बात । चारित्र कउ व्याघात, नहु कीजइ कहि तात । संजम्म लेइ विख्यात, लइ जु नीकी भाँति ॥ धन० ॥ ८ ॥ भणिया इम इग्यारह अंग, मन मांहे आणि रंग | गुरु भालि अतिहि उत्तंग, गुरु रूपि विजित अनंग | परवादि वाद अभंग, गुरु वचन गंग तरंग ॥ धन० ॥ ६ ॥ सोलसइ संवत बार, जिनमाणिकसूरि पटधार । जिणि सूरि मन्त्र उचार, पामीयो पुण्य अवतार । सिरिवंत शाह मल्हार, सब लोक मानइ कार ।। धन० ।। १० । सुखकरउ श्रीजिणचंद, सब साधु केरे वृन्द । जां लगि रवि ध्रु चन्द, तां लग तूं चिरनन्द | कहइ कनकसोम मुणिंद, करउ संघ कूं आणंद ॥ धन० ॥ ११ ॥ ।। सं० १६२८ वर्षे पं० कनकसोमैविलेखि | ( २ ) राग - मल्हार भइरी भलइ आज पूज्य पधारइ, विहरता गुरु साधु विहारइ ॥ भ० । जुगवर श्रीजिन शासन जागइ, महियल मोटइ भाग सोभागइ || भ०१॥ 2010_05 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनचन्द्रसूरि गीतानि ११ सूरिमन्त्र गुरु सानिध सोधिउ, पातिमाहि अकबर प्रतिबोधिउ भ०। सब दुनीया मांहे कीधी भलाइ, हफतह रोज अमारि पलाई ।।भा२॥ परतिख पंचे पोर आराधी, संघ उत्य काजि पंचनदी साधी । भ० । नाणी अमृत वखाण सुणावइ, सूत्र सिद्धांत ना अरथि जणावइम॥३ बलिहारी म्हारा पूजजी ने वयगे, बलिहारी अणियाले नयणे भ०। श्रीवन्त-नन्दन सकल सनूाइ, उदयवन्त गुरु अधिक पडूरामा४॥ ? .............. ................. ..........."भ० श्रीजिनमाणिकसूरि पटधारी, वाचक श्रीसुन्दर सुखकारी ।।म।५।। ए मेरउ साजणीयउ सखि सुन्दर सोइ, जो मुझ बात जणावइ रे । किणि वाटड़ियइ मेरउ पूज्य पधारइ, श्रीगुरु सबहि सुहावइ रे । गुरु सबहि सुहावइ, जिणि पुरि आवइ, तिणिपुरि सोह चढ़ावइ । गुरु सोभागी, गुरु विधि आगो, पुण्य उदय स चढ़ावइ । गच्छराउ गुणी जिनचन्द मुणी, जण कार न लोपइ कोइ। ___ आवाजउ गुरु कउ जो जांणइ, मेरउ साजण सोइ ॥१॥ ए जिम मइगलीयउ वण वीझ विनोदो, जिम घन दरसण मोरा रे । ___ रवि दंसणियइ कोक मुरंगी, दरसण चन्द चकोरा रे । जिम चन्द चकोरा रे, तेम अघोरा देखि दरसण तोरा। __ हित संतोषइ पुण्यइ पोषइ, अति हरषित मन मोरा । निरदन्दी श्रीजिनचन्द्र पधारउ, वेगइ होइ प्रमोदी । तुम्हि देखि सहु जण जिम वीझावण, मइगलोयउ सुविनोदी ॥२॥ ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ए गुरु जोवणीयइ विधि मारगि लीणउ इणिगुरि लोहन मायारे । कसि कंचणीयइ जेम परीखा, दिन दिनि वान सवाया रे । नितु वान सवाया मोह न माया, मन्मथ आण मनाया । पद सोहाया कोमल काया, श्री खरतर गच्छ राया । लय लागी रंगीरसि जिउ रमतउ, अलि मकरंदइ पीणउ । भाग बली गुणि वय जोवणि, जो विधि मारग लोणउ ॥३॥ ए मनि आणदियइ साधु कीरति, बोलइ ए गुरु शील उदारा रे । गुरु सहव दे कूखि मराला, श्रीवन्त साह मल्हारा रे। सिरि वंत मल्हारा श्रीजयकारा, रीहडकुलि सिंणगारा । जग आधारा नितु अविकारा, माणिकसूरि पटधारा ।। चउरासी गण महि गणी निहाल्या, कोइ नहीं इणि तोला । चिरनंदउ जिणचन्द मुनीश्वर, साधुकीर्ति इम बोलइ ।। ४ ॥ राग-देशाख श्रीजिनचन्द्रसूरि गुरु वंदउ, सुललित वाणि करइ रे वखान । युगप्रधान जिन शासनि सोहई, अकबर शाहु दीयइ बहुमान ।।१!! गुजर मंडलतें बोलाये, संतन मुखि सुनि जसु गुणगान । बहुत पडूरि सुगुरु पाउधारइ, वखत योगि लाहोर सुथान ॥२॥श्रीor अरथ विचार पूछि सब विध विध, रीझे अकबर साहि सुजान । बहुत २ दरसनि मइ देखे, कौन कहुं या सुगुरु समान ॥श्री०॥३।। भाग सोभाग अधिक या गुरु कउ, सूरति पाक अमृत समवानि। पेस करइ अकबर अणमांग्ये, सबदुनीयां महि अभयादान ।श्री०।४। 2010_05 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ namn श्रीजिनचन्द्रसूरि गीतानि श्रोजिनमाणिकसूरि पटोधर, रोहड़ वंशि चढ़ावत वांन । कहइ गुणविनय पूजजो प्रतपउ, खरतरगच्छ उदयाचलभान।श्री०५॥ राग-सारंग सरसति सामिगी विनवू, मांगु एक पसाय । सखीरी। उलट आणी गाइमुं, श्रीखरतर गच्छराय । स० ॥१॥ श्रीचिणचन्द सूरिश्वरू, कलि गौतम अवतार । स०। सूरि सिरोमणि गुण भयो, सकल कला भंडार ॥श्री०॥ २॥ ओसवंश सिरि सेहरउ, रोहड़ कुलि सिणगार । स० । सिरियादे उरि जन्मोया, श्रीवंत शाह मल्हार ॥श्री०॥ ३ ॥ श्रीजिनशासन परगड़उ, वड खरतरगच्छ ईस । स० । __नर नारी नित जेहनउ, नाम जपइ निशहीस ॥श्री०॥४॥ श्रीजिनमाणिकसूरि नइ, पाटइ प्रगट्यउ भाण । स० । राय राणा मुनि मंडली, मानइ मोटा जाण ।। श्री० ॥ ५ ॥ सोभागी महिमानिलउ, महियल मोहनवेलि । स० । अबझजीव प्रतिबुझाइ, वाणि सुधारम रेलि ॥श्री०॥६॥ जग सगले जस पामीयउ, प्रतिबोधी पानिशाह । स०। खंभाइन दधि माछली, राखी अधिक उच्छाह । श्री०॥७॥ आठ दिवस आषाढ़ के, अट्ठाही निरधारि । स०। सब दुनीयां मांहि सासतो, पालावी अमारि ॥ श्री० ॥ ८ ॥ शील सुलक्षण सोहतउ, सुन्दर साहप धीर । स०। सुविधि सुपरि करि साधीया, पंचनदी पंचपीर ॥श्री०॥६॥ 2010_05 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सूधउ मारग उपदिसी, पाय लगाड्या लाख । स० । दरसण ज्ञान क्रिया धर, सविगच्छ पूरइ साख ॥श्री०॥१०॥ सई हथि अकबर थापिया, सहगुरु युगहप्रधान । स० । श्रीसुन्दर प्रभु चिरजयउ, दिन दिन चढ़तइ वान ॥श्री०॥११॥ श्री अकबर बहुमान, कीधलउ युगप्रधान । कर्मचन्द बुद्धिनिधान । मीर मलिक खोजा खान, काजीमुला परधान । पयनमइ करि गुणगान, दिन चढ़ते वान ।।१।। सब दिन मुझ मन खंति घणी, श्रिय जिणचन्द सूरिसेव तणो। आं। मारवाड़ गुजर बंग, मेवाड़ सिन्धु कलिंग । मालव अपूरव अंग, पूरव सुदेस तिलंग। सब देस मिलि मनरंग, गावइ सुगुरु गुण चंग। जिम केतकि वनभृङ्ग, तिम सुगुरु सुं मुझ रङ्ग ॥२॥सब।। कलि गौतमा अवतार, तजि मोह मदन विकार । निरमाय निरहंकार, धन धन्न ए अणगार। माणिक्यसूरि पटधार, अति रूप वयर कुमार । श्रीवंत शाह मल्हार, 'सुमतिकलाल सुखकार ॥ ३ ॥सब०॥ अकबर भूपति मानीया, तिण मानइ सहु लोइ । जिनचन्दसूरि सुरीश्वर, वन्दै वंछित होइ । वंदता वंछित होइ अहनिसि, देखतां चित हींस ए। __ श्रीपूज्य जिनचन्दसूरि समवड़ि अवर कोइ न दीसए । सम्पति कारक, दुखनिवारक धर्मधारक महाव्रती। मन भाव आणी लाभ जाणो, नमइ अकबर भूपती ।। १ ।। 2010_05 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनचन्द्रसूरि गीतानि ६५ असुरां गुरु प्रतिबोधीउ, दाखी धरम विचार । शासन सोह चढावीयो, माणिकसूरि पट्टधार ॥ पट्टधार माणिकसूरि नइ ए, रीहड़ वंसइ दिन मणी। श्रीवंत श्रीयादेवी नंदन, सुविहित साधु सिरोमणी ॥ गुणरयण रोहण भविय मोहन, कम्म सोहण व्रत लोउ। सुविचार सार उदार भावइ असुरां गुरु प्रतिबोधीयउ ॥ २ ॥ एहवो गुरु वंद्यो नहीं इणि जगि ते अकयथ । ___ अकबर श्रीमुख इम कहइ, खरतर गच्छ मणिमथ ।। मणिमथ खरतर गच्छ केरउ, अभिनवेरउ सुरतरु । मन तणा कामित सयल पूरइ, रुप जेम पुरन्दरु ॥ जसु तणइ दरसणि दुरित नासइ, रिद्धि वासइ घर सही। इम कहइ अकबर तेह अकयथ, जेणि गुरु वंद्यो नहीं ॥३॥ युगप्रधान पदवी भली, आपइ अकबर राज । सइमुख हरखै इम कहइ, ए गुरु सब सिरताज । सिरताज सब गच्छ एह सहगुरु, करइ बगसीस इम वली, गुजरात खभायत मंदरि करउ निरभय माछली। वर्धमान सामि तणइ शासनि, करी उन्नति इम रली। आपइ अकबर अधिक हरणे, युगप्रधान पदवी भली ॥४॥ जां लगि अम्बर रवि शशि, जां सुर शैल नदीस । तां नंदउ ए राजियो, मानइ आण नरेस ॥ जसु आण मानइ राव राणा, भाव बहु हियडै धरी । नन्द बुधिरस शशि वरसि चैत्रह नवमि तिहि अति गुण भरी । 2010_05 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह इम विमल चित्तइ भगइ भत्तइ, समयप्रमोद समुल्लसो । युगप्रवर जिनचन्द्रसूरि वंदो, जाम अम्बर रवि शशि ॥ ५ ॥ (८) ॥ पंच नदी साधन गीत ॥ विक्कम (पुर) नयरे श्री संघ हरषियो एह नी ढाल । श्री गौयम गणधर प्रणमी करी आणी उरट अङ्ग । गुरु गुण गावण मुझ मन गह गहै, थायइ अति उच्छरङ्ग ॥१॥ धन श्रीजिनशासन सलहियै, खरतर गच्छ सिणगार । ___युगप्रधान जिनचन्द जतीसरु, गुरु गोयम अवतार ।।२।।ध०।। लाभपुरे जिनधर्म सुणाविनै, बुझग्यो पातिसाह । श्री गुरु पंचनदी पति साधिवा, कोया मनहि उछाह ॥३॥धन।। संघ साथि मुलताण पधारिया, पइसार्यो सविशेष । देख हरण्या सवि जन पय नमै, खान मलिक तिम सेखाधिन०।। ठामि ठामि हुकुमइ श्री शाहिनै, कहतां धर्म विचार । __ अभयदान महियल वरतावनां, संघ उदय जयकार ।।५।।१०।। आया पंचनदी तट पत्तणइ, चन्द्रबेले अभिधान । __ आंबिल अठ्ठम तप गुरु आदरी, बैठा निश्चल ध्यान ॥६॥धन०।। सोलसय बावनै वच्छरै, पुष्प सहित रविवार । माहधवल बारस तिथि निरमलो, शुभ महूरत तिणि वार ।।अाध०।। बेड़ी बइसी पहुतां जिहां मिलै, पंचनदी भर नीर । अधरति निश्चल नाव तिहां रही, ध्यान धरै गुरु धीर ।।८॥धन०॥ 2010_05 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनचन्द्रसूरि गीतानि शील सत्त तप जप पूजा वस, माणिभद्र प्रमुख सुमन्न । ____ यक्ष सहु जिनदत्तसूरि सानिधै, तेह थया सुप्रसन्न ॥धन०॥ प्रहसमि गुरुजी पत्तणि अविया, वाज्या जेत्र निसाण । ठाम २ ना संघ मिल्या घणा, आपै दान सुजाण ॥१०॥धन०॥ धीरवाड़ वंसे परगड़ा, नानिग सुत राजपाल । सपरिवार तिहां बहु धन खरचिन, लीधो यश सुविशाल ॥१शाधन०॥ तिहां थी उच्चनगर गुरु आविया, वंद्या शान्ति जिणंद । देरावर प्रणम्या जग दोपता, श्रीजिनकुशल मुर्णिद ॥१शाधन० हिव तिहां थी मारग विचि आवतां, सुन्दर धुंभ निवेश । ... पद पंकज जिनमाणिकसूरिना, भेट्या तिणे प्रदेश ॥१३॥ध०।। नवहर पास जुहारी पधारिया, जेसलमेरु मंझार । फागन सुदी बीजै सहु हरषोया, राउल संघ अपार ॥१४॥धन०॥ श्रीजिनचंद यतीश्वर गुणनिलो, प्रतपो युग प्रधान । 'पद्मराज' इम पभणइ मन रसइ. दिन दिन वधतै वान ॥१५|धन०॥ बनी हे सहगुरुकी ठकुराई श्रीजिनचन्द्रसूरि गुरु वंदो, जो कुछ हो चतुराई ।।शाबनी।। सकल सनूर हुकम सब मानति तै जिन्ह कुं फुरमाई। अरु कछु दोष नहीं दिल अंतरि, तिमि सबहों मनिलाई ॥२॥बनी०॥ माणिकसूरि पाट महिमा वरो, लइ जिन स्युं वितणाइ । झिगमिग ज्योति सुगरुकी जागी, 'साधुकीरति' सुखदाइ॥शाबनी०॥ 2010_05 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (१०) राग मल्हार पूज्य आवाज सांभलउ सहिए, हरख्या सगलालोक । मोरउ मन पिण उलस्यउ सहिए, जिम हरि दंसण कोक || १ | इण रे सुगुरु जी जग मांहि जस पडहउ बजाइयउ ॥ ० ॥ पहिलुं अकबर मानीया सहीए, ए गुरु हीरा खाणि । युगप्रधान पद तिण दियउ सहिए, पय लागइ रायराणि ॥ २ ॥ इण० || गच्छ अनेक मई जोइया सहिए, तुम सम अवर न कोई । ६८ हेलइ मयण वसी कीयउ सहिए, शीलइ थूलभद्र जोइ ||३||इण० अनुक्रम श्रीगुरु विहरता सहीए, आव्या पाटण मांहि । 'मास प्रभु तिहां करइ सहीए, मन आणी उच्छाह || ४ ||३०|| लेख आयउ आगरा थको सहीए, जाणो सगलो बात । साहि सलेम को पs चढ़यइ सहोए, कुमतो बांध्या राति ||५|| इ० || मासोकरि पांगुर्या सहीए करता देस विहार । उग्रसेनपुर आविया सहीए, वरत्या जय जयकार || ६ || ३० ॥ श्रीपातिशाह बोलाविया सहीए, जंगम जुगहप्रधान । धरम मरम कहि बूझव्यउ सहीए, तुरत दीया फुरमान ||७|| इ० || जिण शासन उजवालियउ सहीए, साह श्रीवंत कुल चन्द | साधु विहार मुगता कीया सहीए, खरतर पति जिणचन्द ||८||इण सिरिया दे उरि हंसलउ सहीए, तेजइ दीपइ भाण । " लब्धिशेखर " मुनि इम भणइ सहीए, सेवक आपण जाणि ॥६॥ इण० ॥ ( ११ ) राउल श्री भीम इम कहइ जी, जादव वंसि वदीत रे ॥ पूज जी ॥ (पधारो जेसलमेरु नइ जी, प्रीति घरी निज चित्त रे ॥रा०|| १ || 2010_05 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्रसूरिगीतानि वखत बडा गुजराति ना जी, पूज पधार्या जेथ रे। धन धन लोक सहुवलि रे, जेह वसइ छइ तेथ रे ॥२॥रा०॥ पूज तणइ जे श्रीमुखड़ जी, निसुणइ अमृत वाणि रे। __सेव करइ गुरु नी शाश्वती रे, तेहनो जन्म प्रमाणि रे ॥३॥रा० दिवस घणा विचि वउलीया जी, आवण केरी आस रे । हुंसि अछइ माहरइ हियइ जी, इहां जइ करउ चउमासि रे ।४||रा०॥ श्री जेसलगिरि संघ नी जो, अधिक अछइ मन कोडि रे । गुरुजी चरणइ लागिवा, रे त्रिकरण शुद्ध कर जोडि रे ॥५॥ारा॥ साधु नी संगति जउ मिलइ रे, तउ पूजइ मन नी आस रे । चिंतामणि करि जउ चढयइ रे, तउ चित्त थाइ उल्लास रे ॥धारा०॥ मुझ मन हरख घणउ अछइ जी, तुम्ह मिलवा नुं आज रे । तुम्ह आव्यां सवि साध्यस्यां रे, अधिक धरम तणा काज रे पारा॥ इहां विलम्ब नवि कीजियइ जी, श्री खरतर गणधार रे । श्री जिनचन्द्र गुणभणइ रे, "गुणविनय" गणि सुखकार रे ॥८॥रा०|| (स्वयंलिखित-पत्र १ हमारे संग्रह में ) (१२) राग-सामेरी सुगुरु कइ दरसन कइ बलिहारी। श्री खरतरगच्छ जंगम सुरतरु, जिनचन्दसूरि सुखकारी ॥१॥सु०॥ अकबर शाहि हरख करि कोनउ, युगप्रधान पदधारी । . खंभायत मइ शाहि हुकम तई, जलचर जीव उबारी ॥२॥सु०॥ सात दिवस जिनि सब जीवन की, हिंसा दूर निवारी । देश देशि फरमान पठाए, सब जग कु उपगारी ॥३॥सु०॥ 2010_05 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जिनमाणिकसूरि पाट प्रभाकर, कलि गौतम अवतारी । कहइ “गुणविनय" सकल गुण सुंदर, गावत सब नर-नारी ॥४॥०॥ ( कवि के हस्तलिखित पत्र से उद्धृत ) (१३) राग-धन्यासिरी मारूणो सुगुरु मेरइ चिरि जीवउ चउसाल । खम्भायत दरिया की मच्छली, बोलत बोल रसाल शासु०॥ भाग हमारइ तिहां जावत हइ, लाभपुरइ भय टाल । श्रीजी कुं अइसी अरज करेज्यो, जलचर कुं प्रतिपाल ॥२॥सु०॥ एह अरज निसुणी पूज्यां तइ, रंज्यु वर भूपाल ! हुकम करि नइ छाप पठाइ, हरख्या बाल गोपाल |॥३॥सु०। युगप्रधान जिनचन्द यतीसर, छइ जसु नाम विशाल । शाहि अकबर तसु फरमाइ, तिणि झाड़ायाला जाल ॥४॥सु० निशभरि नींद अबइ आवत हइ, मरण तणु भय टाल । जय जय जय आशीस दियत हइ, मिलि जीवन की माल ||५||सु०॥ धन धन धोर हुमाऊं कुं नन्दन, जीवत दान दयाल । ___धन धन श्रीखरतरगच्छ नायक, षटकाया रखवाल ||सु०॥ धन मन्त्री कर्मचन्द वछावत, उद्यम कीउ दरहाल । ____ साहिब नइ साचइ सुप्रसादइ, अलीय विन्न सब टालि ॥णासु।। धन ते संघ इणइ जे अवसर, परघल खरचइ माल । तसु "कल्याण कमल" नो संपद, आपद न हुवइ बाल ||सु०. 2010_05 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनचन्द्रसूरि गीतानि १०१ (१४) अपूर्ण सरस वचन सम्सति सुपसायइ, गाइसु श्री गुरुराय री माइ। युगप्रधान जिनचन्द यतीश्वर, सुर नर सेवे पाय रो माई।। कलियुग कल्पवृक्ष अवतरियो, सेवक जन सुखकार री माई ॥।। जिन शासन जिनचन्द तणो यश, प्रतपै पुहवि मझार री माई। प्रहसम नित नित श्रीगुरु प्रणमो, श्रीखरतर गणधार रो माई ॥२॥ संवत पनर पचाणुं वर्षे, रीहड़ कुल मनु भाण री माई । श्रीवंत शाह गृहणी सिरियादे, जनम्या श्री "सुरताण" री माई ॥३॥ संवत सोल चड़ोतर बरसे, लीधो संयम भार री माई । जिनमाणिक्यसूरि सैं हाथै दिक्षा, शिष्यरत्न सुविचाररी माई ॥४॥क० लघु वय बुद्धि विनाणे जाण्यो, श्रुतसागर नौ सार री माई । अभिनव वयर कुमर अवतारै, सकल कला भंडार री माई ॥५।।क०॥ वखत संयोगे सोल बारोत्तर, जेशलमेर मंझार री माई । पाम्यो सूरीश्वर पद प्रकटयो, श्रीसंघ जय २ कार रो माई ॥६॥क० उग्र विहार आदर्यो श्रीगुरु, कठिन क्रियाउद्धार री माई । चारित्र पात्र महंत मुनीश्वर, रत्नत्रय आधार री माई ॥णाक०।। सतरोत्तर वर्षे पाटण में, अधिक बधारी माम री माई । च्यार असी गच्छ साखै खरतर, विरुद दीपायौ ताम री माई ॥८॥क० हथगाउर सौरीपुर नामै, तीरथ विमलगिरिंद री माई । आबूगढ़ गिरनार सिखर तिहां, प्रणम्या श्रीजिनचन्दरी माई ॥६॥क० आरासण तारंगै तीरथ, राणपुरै गुरुराज री माई। वरकाणा संखेश्वर ग्रामे, प्रणम्या श्री जिनराजरी माई ॥१०॥०॥ 2010_05 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अवर तीर्थ पण श्रीगुरु भेट्या, प्रतिबोध्यो पातिसाह री माई । अकबर अधिको आसति निरखी, दीधौ मौटौ लाह री माई ।।११।। खम्भायत नो खाड़ी केरा, राख्या जीव अनेक री माई। बरस एक लग श्री गुरु वचने, पाम्यो परम विवेकरी माई ॥१२॥क० सात दिवस लगि निज आणा में, वरतावी अमारि री माई। अकबर अवर अपूर्व कारिज, कीधा गुरु उपकाररी माई ॥१३॥०॥ पंचनदी पति परतिख साध्या, माणभद्र विख्यात री माई । ....................................... || (१५) श्री गुरुजी गोत युगवर श्री जिनचन्दजी, जगि जिनशासनि चन्द रे । प्रहसमि उठी पूजियइ, कामित सुरतरु कंद रे ॥१"जुग०।। संवति पनर पंचाणुयइ, श्रीवंत साह मल्हार रे। ___मात सिरियादेवि जनमीयउ, रीहड़ कुल सिणगार रे ।राजुग० संवत सोल चिडोत्तरइ, जाणी जिणि अथिर संसार रे । हाथि जिनमाणिकसूरि नइ, संग्राउ संयम भार रे ।।३।।जुग०।। वयरकुमार तणी परइ, लघुवइ बुद्धि भंडार रे । . गुरुकुल वास वसि पामियउ, प्रवचन सागर पार रे ।४।जुग०. संवत सोल बारोतरइ, जेसलमेरु मझारि रे। भाग्य बलि सूरि पदवी लही, हरखिया सवि नर नारि रे ।५।जुग०। कठिण क्रिया जिण उद्धरि, मांडियउ उग्र विहार रे । - सूरि जिणवल्लभ सारिखउ, चरण करण गुणधार रे दाजुग 2010_05 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनचन्द्रसूरि गीतानि Aanam पाटण सोल सतरोतरइ, च्यारि असी गच्छ साखि रे। खरतर विरुद दीपावियउ, आगम अक्षर दाखि रे ॥ ७॥ जुग० ॥ सौरीपुर हथिणाउरे, विमलिगिरि गढ़ गिरिनार रे। तारङ्ग अर्बुदि तीरथइ, यात्र करि बहु वारि रे ॥ ८॥ जुग०॥ अकबर शाहि गुरु परिखोयउ, कसवटि कंचण जेम रे । पूज्यनी मधुर देसण सुणी, रंजियउ साहि सलेम रे ॥॥ जुग०॥ सात दिवस वरतावियउ, मांहि दुनिया अभयदान रे। पंच नदी पति साधिया, वाधियउ अति घणउ वान रे ॥१०॥जुग०।। राजनगर प्रतिष्ठा करी, सबल मंडाण गुरुराइ रे। संघवी सोमजी लछिनउ, लाह लियइ तिणि ठाइ रे ॥१शाजुग०।। सुप्रसन्न जेहनइ मस्तकइ, गुरु धरइ दक्षिण पाणि रे । तेह घरि केलिकमला करइ, मुखवसइ अविर(ल) वाणि रे ॥१२॥जुग०।। दरसनी जिन मुगता करी, सोल सित्तर वासि रे । ___अविया नगर बिलाड़ए, सुगुरु रह्या चउमासि रे ॥१३॥जुग०॥ दिवस आसु वदि बीजनइ, उच्चरी अणशण सार रे । सुरपुरि सुगुरु सिधारिया, सुर करइ जय जयकार रे ॥१४॥जुग०॥ नाम समरणि नवनिधि मिलइ, सवि फलइ संघनी आस रे । आधि नइ व्याधि दूरइ टलइ, संपजइ लील विलास रे ॥१५॥जुग०॥ केशर चन्दन कुसुम सुं, चरचतां सहगुरु पाय रे । पुन संतान परघल हुवइ, दिन दिन तेज सवाय रे ॥१६॥जुग०॥ श्रीजिनचन्दसूरीसरू, चिर जयउ जुगहप्रधान रे। इणपरि गुरु गुण संथुणइ, पाठक 'रत्ननिधान' रे ॥१णाजुग०॥ (श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार-सूरतस्थ हस्त लिखत ग्रन्थात् प्रेषक पन्यास केशरमुनिजी) ॥ इति श्री गुरुजी गीतं ॥ 2010_05 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (१६) ॥ ६ राग ३६ रागिणी गर्भित् गीत ॥ कीजइ ओच्छव सन्तां सुगुरु केरउ (१) सुललित वयण सुण सखि मेरउ (२) कहउरी संदेस खरा गुरु आवतिया (३) तिणवेला उलसी मेरी छातिया (४) ॥१॥ आएरी सखि श्रीवंतमल्हारा, खरतर गच्छ शृङ्गारहारा। ए आंकड़ी (५) अइसा रंग वधावन कीजइ (६) गुरु अभिराम गिरा अमृत पीजइ. (७) ऐसे सुगुरु कुं नित्य उलगउरी (८) सुन्दर शरीरा गच्छपति अउरी ।।६ ॥ आ० ॥२॥ दु:ख के दार सुगुरु तुम हउ री (१०) गाउं गुण गुरु केदारा गउरी (११) सोरठगिरि की जात्रा करणकं आपणरी गुरु पाय परउ (१२) भाग्यफल्यो ओच्छव लोकणरओ (१३) ॥३॥ तुं कृपापर दउलति दे मोहि हुँ तेरो भगत हु री (१४) गुरुजी तुं उपर जीव राखी रहुंरी (१५) इहु सयनी गुरु मेरा ब्रह्मचारी (१६) हुँ चरण लागुं डर डमर वारी (१७) आ० ॥४॥ 2010_05 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनचन्द्रसूरि गीतानि अहो निकेत नटनराइण कइ आगइ अइसइ नृत्य करत गुरुके रागइ (१८) ऐसे शुद्ध नाटक होता गावत सुंदरी वेणु वीणा मुरज वाजत धुमर घुघरी (१६) ॥५॥ रास मधु माधवइ देति रंभा, सुगुरु गायति वायंति भंभा (२०) तेजपुज जिमसे भेइरवी, जुगप्रधान गुरु पेखउ भवि(२१)आ॥६॥ सबहि ठउर वरी जयतसिरी ( २२ ) गुरुके गुण गावत गुजरी (२३) मारुणि नारी मिली सब गावत सुन्दर रूप सोभागी रे (२४) आज सखि पुन्य दिसा मेरो जागी (२५) ॥७॥ तोरी भक्ति मुज मन मां वसी री ( २६) साहि अकबर मानइ जसु बाबरवंसी (२७) गुरुके वंदणी तरसइसिंधुया (२८) इया सारी गुरुकी मूरतिया (२६) आ० ॥८॥ गुरुजी तुंहिंजकृपाल भूपाल कलानिधि तुहिज सबहि सिरताज(३०) आवइ ए रीतइ गच्छराज (३१) । संकरा भरण लांछन जिन सुप्रसन्न जिनचंदसूरि गुरुकुंनतिकरु (३२) ॥६॥ तेरी सुरतकी बलिहारी, तुं पूरव आस हमारी, तुं जग सुरतरु ए (३३) गुरु प्रणमइरी सुरनर किन्नर धोरणी रे मनवंछित पूरण सुरमणी रे (३४) ॥१०॥ 2010_05 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ऐतिहासिक जन काव्य संग्रह मालवा गउडमिश्री अमृत थइ वचन मीठे गुरु तेरे हइ ताथइ (३५) करउ वंदणा गुरुकुं त्रिकालइ हरउ पंच प्रमाद रे (३६) ____सबइकुं कल्याण सुख सुगुरु प्रसाद रे (३७) आ० ।।११।। बहु परभाति वउ उछव सार (३८) पंचमहाव्रत धर गुरु उदार (३६) हुँ आदेसकार प्रभुतेरा, जुगप्रधान जिनचन्द मुनिसरा, तुं प्रभु साहिब मेरा (४०) ॥१२॥ दुरित मे वारउ गुरुजी सुख करउ रे श्रीसङ्घ पुरउ आशा नाम तुमारइ नवनिधि संपजइ रे लाभइ लोल विलास (४१) ॥१३॥ धन्यासरी रागमाला रची उदार, छः राग छनोसे भाषा भेद विचार, सोलसइ बावन विजय दसमी दिने सुरगुरुवार, थंभण पास पसायई त्रंबावती मजार (२) ध०) ॥१४॥ जुगप्रधान जिनचन्द सूरींद सारा . चिर जयउ जिनसिंघसूरि सपरिवार (३ ध०) सकलचन्द मुणीसर सीस उन्नतिकार, "समयसुन्दर" सदा सुख अपार (घ) ॥१५॥ इति श्रीयुगप्रधान जिनचन्दसूरीगां रागमाला सम्पूर्णा, कृता च०. समयसुन्दरगणिना लिखिता सं० १६५२ वर्षे कार्तिक शुदि ४ दिने श्री स्तंभतीर्थ नगरे । 2010_05 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनचन्द्र सूरि गीतानि १०७ (१७) रागः-आसावरी पूज्यजी तुम्ह चरणे मेरुउ मन लीणउ, ज्यु मधुकर अरविंद । मोहन बेलि सबइ मन मोहियउ, पेखत परमाणंद रे ॥१॥पूज्य०॥ सुललित वाणि वखाण सुणावति, श्रवति सुधा मकरंद रे । भविक भवोदधि तारण बेरी, जनमन कुमदनी चंदरे ।।२।। पूज्य० ॥ रीहड वंश सरोज दिवाकर, साह श्रीवंत कउ नंद रे । "समयसुन्दर"कहइ तुं चिरप्रतपे,श्रीजिणचन्द मुणिंद रे ॥३॥पुज्य०॥ (१८) आसावरी भले री माई श्री जिनचन्द्रसूरि आए। श्रीजिन धर्म मरम बूझण कू, अकबर शाहि बुलाए ॥ १ ॥ सद्गुरु वाणी सुणि शाहि अकबर, परमाणंद मनि पाए । हफतहरोज अमारि पालन कुं, लिखि फुरमान पठाए ॥२॥ श्रो खरतर गच्छ उन्नति कीनी, दुरजन दूर पुलाए । _ "समयसुन्दर" कहै श्रीजिनचन्दसूरि सब जनके मन भाए ॥३॥ (१९) आसावरी सुगुरु चिर प्रतपे तु कोड़ेि वरीस। खंभायत बन्दर माछलड़ो, सब मिलि देत आशीस ॥ १ ॥ सु०. धन धन श्री खरतरगच्छ नायक, अमृतवाणि वरीस । शाहि अकबर हमकुं राखणकुं, जासु करी बकशीस ॥ २ ॥ लिखि फुरमाण पठावत सबही, धन कर्मचन्द्र मंत्रीश । “समयसुन्दर" प्रभु परम कृपा करि, पूरउ मनहि जगीश ॥३॥ ____ 2010_05 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ( २० ) श्री खरतरगच्छ राजीयउ रे माणिक सूरि पटधारो रे । सुन्दर साधु सिरोमणी रे, विनयवंत परिवारो ॥ १ ॥ विनयवंत परिवार तुम्हारउ, भाग फल्यउ सखी आज हमारो । १०८ ए चन्द्रालउ छइ अति सारउ, श्रीपूज्यजी तुम्हे वेगि पधारो ॥ १ ॥ जिणचन्दसूरिजी रे, तुम्ह जग मोहण वेलि । सुणज्यो वीनती रे, आवड आम्हारइ दिसि, गिरूआ गच्छपतिरे || वाट जोवतां आवीया रे हरख्या सहु नर-नारो | संघ सहु उच्छव करइ रे घरि २ मंगलाचारो घरिघरि मंगलवारो रे गोरी, सुगुरु बधावड बहिनी मोरी । ए चन्द्राउलड सांभलज्योरी, हुं बलिहारी पूजजी तोरी ॥ २॥ श्री० अमृत सरिखा बोलड़ा रे, सांभलतो सुख थाज्यो । श्रीपुज्य दरसण देखतां रे, अलिय विघन सवि जाज्यो || अलिय विधन सहु जायइ रे दूरइ, श्रीपूज्य वांदु उगमते सूरइ । ए चन्द्रालउ गांउ हजूरइ, तउ मुझ आस पूलइ सवि नूरइ || ३ || जिणदीठा मन उलसइ रे नयणे अमीय झरंति | ते गुरुना गुण गावतां रे, वंछित काज सरंति ॥ छित काज सरंति सदाइ, श्रीजिणचन्दसूरि वांदउ माई । ए चन्द्राला भास महंगाई, प्रीति "समयसुन्दर" मनिपाई || ४ || श्री ( २१ ) जनचन्दसूरि आलीजा गीत रागः - आस्यासिंधूडो थिर अकबर तुं थापीयड, युग प्रधान जग जोइ । श्रीजिनचन्दसूरि सारिख, सारि० कलिमें न दीसह कोय ॥ १ ॥ 2010_05 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्रसूरि गीतानि १०६ उमाह धरी नइ तातजी हुँ आवियउरे, हो एकरसउ तुं आवि । मनका मनोरथ सहु फल्इ माहरा रे,हो दरसणि मोहि दिखाउ ।।२।। जिनशासनि राख्यउ जिणइ, डोलतउ डमडोल। समझायउ श्री पातिसाह, सदगुरु खाटयउ तई सुबोल । ऊ०॥३॥ आलेजो मिलवा अति घणउ, आयउ सिन्ध थी एथ।। नगर गाम सहु निरखीया, कहो क्युं न दीसइ पूज्य केथ ।उ० ॥४॥ शाहि सलेम सहु अंबरा, भीम सूर भूपाल । चीतारइ तुं नइ चाह सुं, हो पूज्यजी पधारउ किरपाल । ऊ ।।५।। बाबा आदिम बाहुबलि, वोर गौयम ज्युं विलाप । - मेलउ न सरज्यउ माहरउ मा०, ते तउ रह्यो पछताप । ऊमा०१६॥ साह बडउ हो सोमजी गख्यउ कर्मचन्द राज। अकबर इंद्रपुरि आणीयउ हो, आस्तिक वादी गुरु आज । उमा०/७१ मूयइ कहइ ते मूढ़नर, जीवइ जिणचन्दसूरि । __ जग जंपइ जस जेहनउ, जेह० हो पुहवि कीरत पडरि ।ऊमा०८५ चतुर्विध संघ चीतारस्यइ, जां जीविसइ तां सीम । वीसार्या किम विसरइ,विस० हो निर्मल तप जप नीम ।ऊमा०६। पाटि तुम्हारइ प्रगटीयउ, श्री जिणसिंह सूरीस । शिष्य निवाज्या तइ सहु , तइं० रे जतीयां पूरी जगीस ।ऊमा०१०॥ समयसुन्दर कृत अपूर्ण-प्राप्त 2010_05 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि कुशल लाभ कृत " श्रीपूज्य काहणह तिम् ।। Erin - राग-आसावरी पहिलो प्रणमुं प्रथमजिण, आदिनाथ अरिहंत । नाभि नरेश्वर कुलतिलक, आपइ सुख अनंत ॥ १॥ चक्रवर्ती जे पांचमो, सरणागत साधारि । शांति करण जिन सोलमो, शान्तिनाथ सुखकार ॥२॥ बह्मचारो सिर मुकटमणि, यादव वंश जिणिंद । ___नेमिनाथ भावइ नमुं, आणी मन आणंद ॥ ३ ॥ श्री खंभायत मंडणो, प्रणमुं थंभण पास । एक मना आराधतां, पूरइ जन नी आस ॥४॥ शासननायक समरीयई, वर्द्धमान वर वीर । .. तीर्थकर चौवोसमो, सोवन वर्ण शरीर ॥ ५ ॥ च्यारि तीर्थकर शाश्वता, विहरमाण जिन वीश । त्रिण चौवीशी जिन तणा, नाम जपूं निशदीस ॥ ६॥ श्रीगौतमगणधर सधर, नमिसुं लब्धिनिधान । केवलिकमला करि वशइ, महिमा मेरु समान ॥ ७ ॥ समरू शासनदेवता, प्रणमुं सदगुरु पाय । तासु प्रसादे माइस्यु, श्री खरतरगच्छ राय ॥ ८॥ 2010_05 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पूज्य वाहण गीतम् सतर भेद संयम धरइ, गिरुआ गुण छतीस । अधिकी उत्कृष्टी क्रिया, ध्यान धरइ निसदीस ॥ ६ ॥ सूयगडांग सूत्रे कह्या, वीर स्तव अधिकार । भव समुद्र तारण तरण, वाहण जिम विस्तार ॥ १० ॥ आ भव सागर सारिखं, सुख दुख अंत न पार । सदगुरु वाहण नी परइ, उतारइ भवपार ।। ११ ॥ ढाल:-सामरी भवसागर समुद्र समान, राग द्वेष वि नेऊ धाण ?। ... __ ममता तृष्णा जल पूर, मिथ्यात मगर अति क्रूर ।। १२ ।। मोजा ऊंचा अभिमान, विषयादिक वायु समान । संसार समुद्र मंझारि, जीव भभ्या अनंत वारि ॥ १३ ॥ हिव पुण्य तणइ संयोग, पाम्यो सहगुरु नो योगा भवसागर तारणहार, जिन धर्म तणउ आधार ॥ १४ ॥ बाहण नी परि निस्तारइ, जीव दुर्गति पडितो वारइ । ___ कालरि जलि किहांन छीपइ, पर वादी कोइ न जीपइ ।। १५ ।। इहनइ तोफान न लागइ, सुखि वायु वहइ वैरागइ । जल थल सविहुं उपगारइ, भवियण जण हेलां तारइ ॥ १६ ॥ ढाल:-हुसेनी धन्यासिरी श्रीजिनराय नीपाइयउ ए, वाहण समुं जिनधर्म, भविक जनतारवा ए ॥ १७ ॥ 2010_05 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तारइ २ श्रीवंत शाह नो नन्दन वाहण तणी परइ । तारइ २ सिरियादे नो सुत कि, वाहण सिला मती ए। तारइ २ श्रीपूज्य सुसाधु, श्रीखरतरगच्छ गच्छपत्ति ए ॥ आं०॥ अविहड़ वाहण ए सही ए, सविहुं सुख व्यापार । धर्म धन दायकू ए ॥ १८ ॥ तारइ तारइ श्री समकित अति निर्मलो ए। ___पहलउ ते पयठाण, सुमति सूत्रेधों ए ॥ १६ ॥ ता० गुण छतीस सोहामणा ए। विहु दिसि बांक मंडाण, सुकृत दल मलिवा ए॥२०॥ ता० कूया धुंभ चारित्र तणउ ए । जयणा जोडी संधि, सबल सढ तप तणउ ए ।। २१ ।। ता० शोल डबू सो सोभतो ए। ले मत सुगुरु वखाण, दया गुण दोरड़ो ए ।। २२ ।। तारइ तारइ कलमी ते शुद्धी क्रियाए, पुण्य करणी पंतांस, संतोष जलइ भर्याउ रे ॥२३॥ ता० दशविध धर्म वेडूं गवी ए। संवर तेह जना रखि मासरि छत्रडी ए ॥२४॥ ता० सतर भेद संयम तणा ए, __ते आउला अपार । संवेग सुं पंजरी ए ॥२५॥ ता० आझा नालु अणी समोए। पंच समिति पर वांण, कीर्चिधज जह लहइ ए ॥२६॥ ता० विजइ वारह भावनाए। (दा) हांडा शुभ परिणाम, नागर नवतत्त्व तणाए ॥२७॥ 2010_05 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रो पूज्य वाहण गोतम् ११३ . .. ता० करूणा कोलइ लेपीउ ए, ज्ञान निरुपम नोर । झोलउ समरस भर्योए ॥२८॥ ता० शासन नायक हू (क्रू) यउए, मालिम श्री गुरुराज । कराणि मुनिवरुए ॥२६।। ता० जिन भाषित मारग वहइ ए, वाजिननाद सिझाय । सुसाधु खलासीयाए ॥३०॥ तारइ २ ए मारग जिनधर्म तणउए, को डोलइ नहीं लगार । सदा सुखियां करइए ॥३१॥ ता० मल (चा ?) वारी ते काठोया ए, कुमती चोर होनोर । सहु भय टालताए ॥३२॥ ता० पुण्य क्रियाणे पूरीया ए, बहुरति वस्तु अनेक । सुजस पाखर खरीए ॥३३॥ ता० कषाय डूंगर जालाइए, वहत उ ध्यान प्रवाह । सिलामति आवीयोए ॥३४!! ढाल-रामगिरी:धर्ममारग उपदेशता, करता २ विधइ विहार रे। . __ आव्याजो नगर त्रंबावतो, श्री संघ हर्ष अपार रे ॥३५॥ पूज्य आव्या ते आसा फली, श्री खरतरगच्छ गणधार रे । श्री जिनचन्दसूरि वांदोयइ, साथइ २ साधु परिवार रे ॥३६॥पू०।। आगम सूत्र अर्थे भर्या, सुकृत क्रियाण ते सार रे। चारित्र वखारि अति भली(यां), व्रत पचखाण विस्तार रे ॥३७॥ 2010_05 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वस्त अपूर्व वहुरिवा, मिल्या २ भविक नर-नार रे । विनय करि पूज्य नइ वीनवइ, आपउ २ वस्तु उदार रे ॥३८॥पू०।। मोटा २ श्रावक श्राविका, करइ मंडाण अनेक रे । महोत्सव अधिक प्रभावना, जाणइ २ विनय विवेक रे ॥३६॥पू०।। ज्ञान दरशण चारित्र तणा, अमोलक रत्न महंत रे । पुण्य व्यापारि आवि मिल्या, बहुरतां लाभ अनन्त रे ॥४०॥पू०।। दान गुण मोतीय निर्मला, पंच आचार ते पांच रे । ..दश पचखाण ते कहरबउ, अगर ते शीतल वाच रे ॥४शापू०।। सूफ ते सद्दहणा खरी, सुगुरु सेवा सिकलात रे। पोत सुरासुर पोसहा, मकमल प्रवचन मात रे ॥४२॥पू०।। हीर पेटी महोत्सव घणा, इ भ्रा (त्रा ?) मी ते सूत्रनी साख रे । भाव(जाच)परिवार लिय अति भलो, निवृति ते किसमिस दाख रे।४३पू। श्रीफल श्रीगुरु देशणा, वीश थानिक कमखाब रे । नांदि उछव मलीयागरउ, पूज्यनी भगति गुलाब रे ॥४४॥०।। देश विरति ते कचकडउ, चोली(ल) यां ते उपधान रे । दांत(न)? शीलांगरथ उजलउ, राती जगु तेह कंताण रे ॥४५॥पू०॥ शीतल सुकडि भावना, स्नात्र तेकपूर बरास रे । कतीफउ कल्याणिक जाणीयइ, कंस बण्यो सह उपवास रे ॥४६॥पू०।। मासखमण मसझारे समुं (भलु), लारीते लाख नवकार रे । सूत्र ना भेद होरा खरा, उचित नुदान दीनार रे ॥४णापू०॥ पाखर कमण बरीया बिसइ, लवंग ओ(उ)लो विश्वा(सय)वीस रे। नाम आलोयण वाडीया, छठ तप बिसय गुणतीसरे ॥४८॥पू०॥ 2010_05 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पूज्य वाहण गीतम् संसार तारण दु कांवली, चउथो व्रत तेह दस्तार रे । अखोड आंबिल निम जाणत्री, कल (इ) य वेयावच्चसार रे ||४६ | | ० | अठम तप ते टोक (प) रां, अठाही ते सेव खजूर रे । .i ; समवसरण तपते मिरी, सोपारी सामायिक लाहिण माल पहिरावणी, उत्तम क्रियाण ते जोइ रे । पूर ११५ रे || ५० || || परखीय वस्त जे संपड़ी, लाख असंखित होइ रे || ५१ ॥ ५० ॥ श्री गुरु शासण देवता, वाहण ना रखवाल रे । भगति भी सानिध करइ, फलइ मनोरथ माल ||२२|| ५० ॥ रागः - केदार गौड़ी 2010_05 दिन २ महोत्सव अति घणा, श्रसंघ भगति सुहाइ | मन शुद्धि श्रीगुरु सेवयइ, जिणि सेव्यइ शिवसुख पाइ ||५३|| पू०|| भविक जन वंदौ सहगुरु पाय, श्री खरतर गच्छराय || आं०|| प्रमु पाटिए चवीसमइ, श्रीपूज्य जिनचन्दसूरि । उद्योतकारी अभिनवो, उदयो पुन्य अंकूर ॥ ५४ ॥ भ० || -शाह (श्रावक) भंडारी वीरजी, साह राका नइ गुरुराग । वर्द्धमानशाह विनयइ घणो, शाह नागजी अधिक सोभाग || ५५ ||२०|| शाह वछा शाह पदमसो, देवजीने जैतशाह | श्रावक हरखा (घा) हीरजो, भाणर्जी अधिकउ उच्छाह ||५६ ||०|| भंडारी माडण नइ भगति घणी, शाह जाबडने घणा भाव । शाह मनुआने शाह सहजीया, भंडारी अमीर अधिक अछाह रे || ५७॥ तिमिलइ श्रावक श्राविका, संभलइ पूज्य वखाण । हीयड ऊलटइ उलसइ, एम जीव्यो जन्म प्रमाण ||५८ | | ० | Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह आग्रह देखी श्री संघनो, पूज्यजी रह्या चउमास । धर्मनो मार्ग उपदिसइ, इम पहुंतो मननी आश ॥५६॥भ०।। प्रतिमाप्रतिष्टा थापना, दीक्षा दीयइ गुरुराज । इम सफल नर भव तेहनो, जे करइ सुकृत ना काज रे ॥६०भ० राग :-गुड मल्हार आव्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे । जोवइ २ प्रीयडा वाट सकोमल कामिनी रे ।। चातक मधुरइ सादिकि प्रोऊ २ उचरइ रे । वरसइ घण वरसात सजल सरवर भरइ रे॥६॥ इण अवसरि श्रीपूज्य महा मोटा जतो रे। श्रावक ना सुख हेत आया त्रंबावती रे । जोवउ २ अम गुरु रोति प्रतीति वधइ वलो रे।। ___ दिक्षारमणी साथ रमइ मननी रली रे ॥६१।।आं०॥ संवेग सुधारसनीर सबल सरवर भर्या रे। पंच महाव्रत मित्र संजोगइ संचर्या रे। उपशम पालि उतंग तरंग वैरागना रे । सुमति गुप्ति वर नारि संजोग सौभाग्यना रे ॥६॥ प्रवचन वचन विस्तार अरथ तम्वर घगा रे । कोकिल कामिनी गीत गायइ प्रो गुरु तणा रे। गाजइ २ गगन गंभीर श्री पूज्यनो देशना रे । भवियण मोर चकोर थायइ शुभ वासना रे ॥१३॥ ___ 2010_05 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री y पूज्य वाहण गीतम् “सदा गुरु ध्यान स्नान लहरि शोतल वहइ रे । कीर्त्ति सुजस विसाल सकल जग मह महइ रे । - साते खेत्र सुठाम सुबह नोपजइ रे । श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख संपजइ रे ॥६४॥ सामग्री संयोग सुधर्म सहुइ सुणइ रे ! फलीया पुण्य व्यापार आचार सुहामणा रे । २ पुण्य सुगाल हवंति मिल्या श्री पूज्यजी रे । वाहण आव्या खेति बर वाइ हर ? रमजी रे || ६५ || जिहां २ श्रीगुरु आण, प्रवर्ते जिह किगइ रे । दिन २ अधिक जगीस जो थाइज्यों तिह किणइ रे । ज्यां लग मेरु गिरिन्द गयणि तारा घणा रे । तां लगि अविचल राज करउ, गुरु अम्ह तणा रे || ६६ || परता पूरण पास जिणेसर थंभणड र । श्रीगुरु ना गुण ज्ञानहर्ष भवियण भणउ रे || " कुशललाभ " कर जोडि श्रीगुरु पय नमइ रे । ११७ श्री पूज्य वाहण गीत सुणतां मन रमइ रे || ६७ || 2010_05 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह गुरु गीत नं० २३ सभ (ब?) नमइ चक्रवर्ती जिनचन्दसूरि, चतुर (विध)संघ चतुरंग सेन सजि, वारे विघन अरि दूरि । नव तत नवनिधान जिन पाए, आगम गंगा कूरि । चवद विद्या गुण रतन संग करि, नीकउ नीलवट नूरि ॥१॥स०॥ पंच महाव्रत महल (ण?)श्रमण गुण, हइ दरवार हरि । दरसण ज्ञान चरण त्रिण्ह तोरथ, साधि सकति अरि चूरि ॥२॥स। मरुधर गूजर सोरठ मालत्र, पूरब सिंध संपूरि ।। षटखण्ड साधि परम गुरु सानिधि, घुरे सुजस के तूरि ॥३॥स०॥ निरमल वंस उदय फुनि पाए, दरसन अंगि अंकूरि । मुनि"जयसोम"बदति जय २ धुनि, सुगुरु सकति भरपूरि ॥४॥स०॥ जयप्राप्ति गीत (२४) राग :देखउ माई आसा मेरइ मनकी, सफल फलीरे उलटि अंगि न माइ । सुजस जसु देसंतरइ, नवखंडि दीपायउ नाम रे । माम मोटी महि मंडले, सव जन काइ प्रणाम रे ॥१||जीतउ०॥ .. श्रीखरतरगच्छ राजीयउ, श्रीजिनचंद्र मुर्णिदरे । ____ मान मोड्यो कुमति तणउ, त्रिभुवन हुओ आणंद रे ॥२॥ पाटणि भूप दुर्लभ मुखे, बरस दससइअसी मानि रे । सूरि गण पमुह तिहां चउरासो, मढ़पति जीपीआसाणि रे॥३॥जीतउ०॥ दिवस शुभ थान पंचासरइ, करीय परणाम विसार रे । सूरि जिगेश्वर पामोयो, खरतर विरुद्ध उदार रे ॥४॥जोत उ०।। 2010_05 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनचन्द्रसूरि गीतानि ११६ mmmmmmmmmmmmm संवत सोल सतरोत्तरइ, पाटण नयर मझार रे। मेली दरसण सहु संमत, ग्रन्थ नी साखि साधार रे ॥५॥जीतउ०॥ पूर्व बिरुद उजवालियउ, साखि दाखइ सहु लोक रे। तेज खरतर सहगुरु तणउ, ऋषिमती ते थयउ फोकरे ॥ाजोतउ०।। रिगमती (ऋषिमती) जे हुँतउ 'कंकली' वोलतो आल पंपाल रे । ___ खष्ट कोधउ खरतर गुरे, जाणइ बाल गोपाल रे ॥णाजीतउ०॥ निलवट नूर अतिसउ घणउ, खरतर सोह सम जोडि रे । जंबु करिगमता जे भिडइ, जय किम पामइ सोइ रे ॥८॥जीतउ०॥ माणिकसूरि पाटइ तपइ, रिहड कुल सिणगार रे । श्रीजिनचन्द सूरि गुणधा निलउ, सेवक जन सुखकार रे ॥जी० (२५) विधि स्थानक चौपई। गरुवौ गच्छ खरतर तणौ, जेहनै गुरु श्रीजिनदत्तसूरि । - भद्रसूरि भाग्यइ भर्यो, प्रणमन्ता होइ आणंद पूरि कि ॥१॥ सूरि शिरोमणि चिरजयउ, श्रीजिनचन्द्रसूरि गणधारि । कुमति दल जिण भांजियउ, वो जग मांहिं जय २ कार कि ॥२॥ बालपणइ चारित लियउ, विद्या बुद्धि विनय भंडार । __ अविधि पंथ जिण परिहरी, धारइ पंच महाव्रत धार कि ॥३॥ गुण छत्तीस सदा धरइ, कलिकालइ गोयम अवतार । सहु गच्छ माहे सिर धणी, रुपे मयण मनायउ हार कि ॥४॥ सूरि "जिनेश्वर" जगतिलउ, तासु पाटाऽभय देव विख्यात । वृत्ति नवांगि जिणइ करी, तेतो खरतर प्रगटावदात कि ॥५॥ 2010_05 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्रीसेढी तटनी तटइ, प्रगट कियड जिण थंभण पास ! कुष्ट गमाड़यउ देहनो, ते खरतर गच्छ पूरइ आस कि ||६|| संवत सोल सत्तोतर (१६१७), अणहिल पाटण नगर मझार । श्रीगुरु पहुंता विचरता, सहु भवियण मन हर्ष अपार ||७|| केई कुमति कलंकिया, बोलइ सूत्र अरथ विपरीत । निज गुरु भाषित ओलवइ, तिहां कणि श्रीगुरु पाम्यौ जीत कि ||८|| कंकाली मही मूलगी, पंडित तणौ वहै अभिमान । सागर छीतर सम थयो, जिहि उदयौ खरतर गुरु भानि कि ॥६॥ पाटण मांहि पंचासरौ, पाडा पाखलि जे पोशाल । पौल देई पैशी रह्यौ, जे मुखि लावत आल पंपाल कि ||१०|| गच्छ चौरासी मेलवी, पंच शास्त्र नी साखि उदार । जीत्य खरतर राजियौ, ए सहुको जाणै संसार कि ||११|| श्रुति उधाड़ा पौरसी, बहु पड़िपुना कहंतां दोष । मृषावाद इम बोलता, बीजौ व्रत किम पामै पोष कि || १२ || घणा दिवस ना बाकुला, मांडा गोरस लोधा वीर । विधिवादइ साधु लिया, ठामि २ ए दीखै हीर कि ||१३|| वर्धमान जिन वा (पा?) रणे, लोधा वासी शुद्ध आधा (हा ?) र । संघट्टा तेहना तुम्हें, टालो छौ ए कवण आचार कि || १४ || पर्व चारि पोसह तणा, बोलइ सूत्र अरथ नै भाखि । पर्व पर पोसह करौ, तेहनी नवि दीसै किह साखि कि ||१५|| सातवीस झाझेरड़ा, इम पूछइवा छइ बहु बोल | ते सूधी परि सर्दी, भव भ्रामक कांइ (ग) वाओ निटोल कि ||१६|| 2010_05 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनचन्द्रसूरि गीतानि रोस रोस हम मनि नहीं, एक जोभ किम करउं वखाण । श्रोजिनकुशल सूरिन्द्र नै, समरणि लाभै कोड़ि कल्याण कि ||१७|| गहुंलो नं० (२६) रागः - गूजरी । अब मइ पायउ सब गुणजांण । साहि अकवर कहइ ए सुहगुरु, जिनशासन सुलताण || अव० || आंकणी ।। यतीय सती मई बहुत निहाले, नहीं को एह समान । १२१ के क्रोधी के लोभो कूड़ा. केइ मन धरइ गुमान || १ || अव०|| गुरुनी वाणि सुगी अवनिपती, वूझयउ द्यइ सन्मान | देस विदेश जीऊ हिंस्या दली, भेजी निज कुरमान ||२|| अब ०|| श्रीजिनमाणिक सूरि पटोधर, खरतरगच्छ राजान | चिरजीवो जिनचंद यतीश्वर, कहइ मुनि “लब्धि ” सुजान ॥ ३ ॥ अव८॥ गहुंली नं० (२७) रागः – गूजरी । दुनिया चाहइ दौ सुलतान । इक नरपति इक यतिपति सुन्दर, जाने हइ रहमान || दु०|| आंकणी ।। राय राणा भू अरिजन साधी, वरतावो निज आण । बर्जर बंस हुमाऊ नंदन, अकबर साहि सुजांग || १ ||०|| विधि पथ हीलक दुरजन जनके, गाली मह अभिमान । श्रीवंत सुत सब सूरि सिरोमणी, जग मांहि "जुगप्रधान " ||२||दु०॥ सिंहासन हुकुम सुनावति, कौ नवि खंडत आण । मिर 'मलक' बहु उनकुं सेवति, इनकुं मुनि राजान || ३ || दु० || 2010_05 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह इक छत्र सिरु बरि मथाडंबर, धारति दौऊ समान । कहति"लब्धि"जिनचंद धराधर, प्रतिपो जहाँ दोऊ भान ॥भा० दु०॥ गहुंली नं० (२८) रागः-धवल धन्याश्री। नोको नीकउरी जिनशासनि ए गुरु नीको । युगप्रधान जगि जंगम एही,दोयउ जसुअकबर ठो(टो?) कउरी।।जि०|आंक राज काज (आज) हम सुन्दर, सफल भयउ अब नीको । साहि अकबर कहइ जु मोकुं, दरसण थयो गुरुजी कउरी ॥१॥जि०।। मोहन रूप सुगुरु बडभागी, लह्यौ मान श्रीजीउ को। जे गुरु उपर मद मच्छर धरतां, हुउ मुख तिहा फोकउ रो।।२।।जि०॥ श्रीगुरु नामि दुरति हरि भाजइ, नाद सुगो जिउ सीह को। सार (ह?)श्रीवंत सुतन चिर जीवउ, साहित्र “लब्धि" मुनी को ।।३।। गहुंली नं० (२९) रागः-सोरठी। आज उछरंग आणंद अंगि उपनौ, आज गच्छ राज ना गुण थुणोजइ । गाम पुरि पाटणइ रंगि वधावणा, नवनवा उछव संघ कीजइ । आज०||आot हुकम श्री साहि नइ पंच नदि साधिनइ, - उदय कीयउ संघनो सवायौ । संघपति सोमजी, सुणउ मुझ बिनती, सोय जिणचंद गुरु आज आयो ॥१॥आ०॥ 2010_05 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनचन्द्र सूरि गीतानि. १२३३ साहि प्रतिबोधता पंच नदी साधतां, सुजसमइ जास जगि भेर वागी । "लब्धिकलोल" मुनि कहइ (कहति) गुरु गावतां, आज मुझ परम मनि प्रीत जागी ॥२॥आ॥ (३०) गहुँलो सुगुरु मेरउ कामित कामगवी। __मनशुद्र साही अकबर दोनी, युगप्रथान पदवी ॥१॥सु०॥ सकल निसाकर मंडल समसरि, दीपति वदन छवि । महिमंडल मइ महिमा जाकी, दिन प्रति नवीनवी ॥२॥सु०॥ जिनमाणिक सूरि पाटि उदयगिरि, श्रीजिनचंद्र रवी । पेखत ही हरखत भयउ मन मइ, "रत्न निधान" कवी ॥३॥सु०॥ (३१) सुयश गीत ॥राग:-धन्याश्री ॥ नमो सूरि जिणचन्द दादा सदादीपतउ, ___जीपतउ दुरजण जण विशेष । रिद्धि नवनिद्धि सुखसिद्धि दायक सही, पादुका प्रहसमइ उठि देख ॥ १॥ नमो० ॥ सधवट मोटिकउ बोल खाटयउ खरउ, शाहि सलेम जसकोध सेवा । गच्छ चउरासी ना मुनिवर राखिया, ___साखीया सूरिजचन्द देवा ॥ २ ॥ नमो० ॥ 2010_05 | Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ऐतिहासिक जन काव्य संग्रह भाग सोभाग वइराग गुण आगला, जीवता कलियुगि जीव जाण्यउ । अन्तलगि आतम धरम कारिज(क)री, स्वर्ग पहुतां पछी सुर वखाण्यउ ॥ ३ ॥ नमो० ॥ खरतर सेवकां सुरतरू सारिखउ, कष्ट संकट सवि दूर काजइ । "हर्षनंदन" कहइ चतुविध श्रीसंघ, दिन दिन दौलति एम दीजइ ॥ ४ ॥ नमो० ॥ AKA INTMA 2010_05 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री जिन सिंहसूर गीतानि ॥ रागः—बेलाउल ( १ ) शुभ दिन आज बधाइ, धवल मंगल गावो माइ । श्रीजिनसिंहसूरि आचारज, दीपइ बहुत सवाइ ||१|| शुभ० ॥ शाहि हुकम श्रीजिनचन्द्रसूरि गुरु, सहथि दीन बडाइ । मंत्रीश्वर कर्मचंद्र महोच्छव, कोनउ तबहु बनाइ ||२||शु०॥ पातिशाह अकबर जाकुं मानत, जानत सब लोकाइ | कहइ 'गुणविनय' सुगुरु चिरजीवउ, श्रीसंघ कुं सुखदाइ ||३||शु०॥ (२) रागः – मेवाडउ श्री गौतम गुरु पायनमी, गाउँ श्री गच्छराज श्रीजिनसिंघ सूरीसरु, पूरवइ वंछित काज ॥ पूरबड़ वंछित काज सहगुरु, सोभागी गुण सोहइ ए मुनिराय मोहन वेलि ने परे, भविक जन मन मोह ए। चारित्रपात्र कठोर किरिया, धरमकारज उद्यमी, गच्छराजना गुणगाइस्युं जी, गुरु लाहोर पधारिया, तेडाव्या कर्मचंद | श्री गौतम गुरु पनी ||१|| श्री अकबर ने सहगुरु मिल्या, पाम्या परमाणंद | पामीया परमानंद ततक्षण, हुकम दिउ उठो ने कियो । 2010_05 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अत्यंत आदर मान गुरुने, पादशाह अकबर दियउ । धर्म गोष्ठि करतां दया धरता, हिंसा दोष निवारिया। आणंद वरत्या हुआ ओच्छव, गुरु लाहोर पधारिया ॥२॥ श्रीअकबर आग्रह करी, काश्मीर कियो रे विहार, श्रीपुर नगरसोहामणुं ,तिहां वरतावी अमार ॥ अमार वरती सर्व धरती, हुओ जयजयकार ए, गुरु सीत ताप(ना) परीसह, सह्या विविध प्रकार ए। -महालाभ जाणी हरख आणी, धीरपणुं हियडे धरी, काश्मीर देश विहार कोधो, श्रीअकबर आग्रह करी (३) श्री अकबर चित रंजियो, पूज्यने करइ अरदास । आचारिज मानसिंघ करउ, अम मन परमउल्लास अम्ह मन आज उलास अधिकउ, फागुण शुदी बीजइ मुदा । सइहत्थि जिनचंदसूरी दोधी, आचारिज पद संपदा । करमचंद मंत्रीसर महोत्सव, आडंबर मोटो कियो । गुरुराजना............ ............ ॥४॥ गुण देखि गिरुआ, वरीस सह गुरु, चापडां चडती कला । चांपशी साह मल्हार चांपल. देवि माता तन इला, पादसाह अकबरसाहि परख्यो, श्रीजिनसिंघ सूरि चिरजयउ । आसीस पभणइ “समयसुन्दर", संघ सहु हरखित थयउ ॥५॥ इति श्रीजिनसिंहसूरीणां जकडी गीतं समाप्तम् 2010_05 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसिंहसूरि गीतानि (३) गुरु गीतम् आज मेरे मन को आश फली । श्रीजिनसिंहसूरि मुख देखत, आरति दूर टली ॥१॥ श्रीजिनचंद्रसूरि सहत्थइ, चतुर्विध संघ मिली । शाहि हुकम आचारज पदवी, दीधी अधिक भली ॥२॥ - कोडि वरिस मंत्री श्रीकरमचंद्र, उत्सव करत रली । " समय सुन्दर" गुरुके पदपंकज, लीनो जेम अली ||३|| (४) जिनसिंहसूरि हीडोलण गीतं १२७ सरश्वति सामणि वीनवुं, आपज्यो एक पसाय | श्रीआचार्य गुण गाइ, हीडोलणा रे आनंद अंगिन माय || १ || ही ० || वांदs श्रीजिनसिंहसूरि, ही० प्रह उगमत (ल) इ सूरि | ही० | मुझ मन आनंद पूरि, ही० दरसण पातिक दूरि ||०|| मुनिराय मोहण बेलड़ी, महियल महिमा आज । चंद जिन चढ़ती कला हीं० श्रीसंघ पूरवइ आस ||२|| सोभागी महिमा निलड, निलवट दीपइ नूर । नरनारि पाय कमल नमइ, हो० प्रगट्यो पुण्यपडूर ||३||ही०|| चोपड़ा वंशइ परगड, चांपसी शाह मल्हार | ही० मात चांपल दे उरि धर्या, ही० प्रगटयउ पुण्य प्रकार || ४ || ही ० || चौरासी गच्छ सिर तिलड, जिनसिंहसूरि सूरीस । चिरजय चतुर्विध संघ सुं, ही० 'समयसुन्दर' यह आसीस ||५|| ही ० •***:• 2010_05 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (२) जिनसिंहसरि गहुंली चालउ सहेली सहगुरु वांदिवाजो, सखि मुझ मनि वांदिवानो कोड़रे। श्रोजिनसिंहसूरि आवीयाजो, सखा करूं प्रणाम कर जोड़ रे ।।चा० मात चांपलदे उरि धर्याजो, सखो चांपसो शाह मल्हार रे । मनमोहन महिमा निलउजो, सखी चोपड़ा साख शृङ्गार रे ।राचा० वइरागइ व्रत आदर्योजी, सखी पेच महाव्रत धार रे'। सकल कलागम सोहताजी, सखो लब्धि विद्या भंडार रे ॥३॥चा०॥ श्री अकबर आग्रह करिजी, सखी कास्मोर कियउ विहार रे । साधु आचारइ साहि रंजीयउरे, सखो तिहां वरतावि अमारिरे।४ाचार श्रीजिनचंद्रसूरि थापोयउजी, सखी आचारिज निज पटधार रे। संघ सयल आस्या फली, सखी खरतर गच्छ जयकार रे ।५चा० नंदि महोच्छव मंडोयउजी, सखि कर्मचंद्र मंत्रीस रे। नयर लाहोर वित बावरइजो, सखो कवियण कोडि वरीस रे ।६चा गुरुजी मान्या रे मोटे ठाकुरेजो, सखी गुरुजी मान्या अकबरसाहिरे। गुरुजी मान्या रे मोटे उंबरेजो, सखी जसु श त्रिभुवनमांहि रे ।चा मुझ मन मोह्यो गुरुजी तुम गुणेजो, सखि जिम मधुकर सहकार रे । गुरुजी तुम दरसण नयणे निरखतांजी, सखी मुझमनि हर्षअपार रे।८। चिर प्रतपइ गुरु राजीयउजी, सखो श्रीजिनसिंघसूरीस रे। 'समयसुंदर' इम विनवइजी, सखो पूरउ माहरइ मनहीं जगीस रेहाचा बधावा (६) आज रंग बधामणां, मोतीयडे चउक पूरावउ रे । श्रीआचारिज आविया, श्रीजिनसिंहसूरि वधावउ रे ॥१॥आ०॥ 2010_05 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनसिंहसूरि गीतानि जुगप्रधान जगि जाणीयइ, श्रीजिनचंदसूरि मुणिंद रे । सहथि पाटइ थापीया, गुरु प्रतपइ तेज दिमंद रे ||२||०| सुर नर किन्नर हरषीया, गुरु सुललित वाणि वखाणइ रे । पातिशाहि प्रतिबोधियड, श्री अकबर साहि सुजाण रे || ३|| आ०|| बलिहारी गुरु वणयडे ? (वयणडे ) बलिहारी गुरु मुखचन्द रे । बलिहारी गुरु नयणडे, पेखहांत परमाणंद रे ||४||०|| धन चांपल दे कूखड़ी, धन चांपसी साह उदार रे । पुरष रत्न जिहां उपना, श्री चोपड़ा साख श्रृङ्गार रे ||५|| आ०|| श्री खरतर गच्छ राजियड, जिनशासन माहि दीवउ रे । “समयसुंदर" कहइ गुरु मेरड, श्रीजिनसिंघसूरि चिर जीवउ रे || ६आ० इति श्री श्री श्री आचार्य जिनसिंहसूरि गीतम् ॥ श्री हर्षनन्दन मुनिना लिपीकृतम् ॥ -**· ( ७ ) १२६ आज कुं धन दिन मेरउ । पुन्य दशा प्रगटी अब मेरी, पेखतु गुरु मुख तेरउ || १ | आ० ॥ श्री जनसिंहसूर हि (२) मेरे जीउ में, सुपनइ मई नहींय अनेरो । कुमुदिनी चन्द जिसउ तुम लीनउ, दूर तुही तुम्ह नेरउ || २ || आ० । तुम्हारइ दरसण आनंद (मोपइ) उपजती, नयन को प्रेम नवेरउ | “समयसुन्दर" कहइ सब कुं वलभ, जीउ तुं तिन थइ अधिकेर | | ३० 2010_05 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (८) चौमासा गीत। श्रावण मास सोहामणो, महियल बरसे मेहो जी। बापीयड़ारे पिउ २ करइ, अम्ह मनि सुगुरू सनेहो जी ।। अम मन सुगुरु सनेह प्रगट्यो, मेदिनी हरयालियां । गुरु जीव जयणा जुगति पालइ, बहइ नीर परणालियां ।। सुध क्षेत्र समकित बीज वावइ, संघ आनंद अति घणो । जिनसिंघ सूरि करउ चउमासउ, श्रावण मास सोहामणो ॥ १ ॥ भलइ आयउ भादवउ, नीर भर्या नीवाणो जी। गुहिर भोर ध्वनि गाजता, सहगुरु करिही बखाणो जो॥ वखाण कल्पसिद्धांत वांचइ, भविय राचइ मोरड़ा। अति सरस देसण सुणी हरषइ, जेम चंद चकोरड़ा ।। गोरडी मंगल गीत गावइ, कंठ कोकिल अभिनवउ । जिनसिंहसूरि मुणिंद गातां, भलै रे आव्यो भादवउ ॥२॥ आसू आस सहु फली, निरमल सरवर नीरो जी। सहगुरु उपशम रस भर्या, सायर जेम गंभीरो जी ।। गंभीर सायर जेम सहगुरु, सकल गुण मणि सोहए। अति रूप सुंदर मुनि पुरंदर, भविय जण मण मोहए ।। गुरु चंद्रनो परि झरइ अमृत, पूजतां पूरइ रली। सेवतां जिनसिंध सूरि सह गुरु, आसू मास आसा फली ॥३॥ काती गुरु चढती कला, प्रतपइ तेज दिणंदो जो। धरतीयइ रे धान नीपनां, जन मनि परमाणंदो जी ।। जन मनि परमाणंद प्रगट्यो, धरम ध्यान थया घणा ॥ 2010_05 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ श्रोजिनसिंहसूरि गीतानि बलि परब दिवाली महोत्सव, रलीय रंग बधामणा ।। चउमास च्यारे मास जिनसिंघ, सूरि संपद आगला । वीनवइ वाचक "समय सुन्दर", काती गुरु चढ़ती कला ॥४॥ (९) गहुंलो आचारिज तुमे मन मोहियो, तुमे जगि मोहन वेलि । सुन्दर रूप सुहामणो, बचन सुधारस केलि ॥ १ ॥आ०॥ राय राणा सब मोहिया, मोह्यो अकबर साह रे । नर नारी रा मन मोहिया, महिमा महियल मांह रे ॥ २॥आ०॥ कामण मोहन नवि करौ, सुधा दीसो छो साधु रे । मोहनगारा गुण तुम तणा, ए परमारथ साध रे ॥ ३ ॥आ०॥ गुण देखी राचे सहुको, अवगुण राचे न कोय रे । हार सहुको हियड धरै, नेउर पाय तलि होय रे ॥ ४ ॥आ०॥ गुणवंत रे गुरु अम्हतणा, जिनसिंहसूरि गुरुराज रे । ज्ञान क्रिया गुण निर्मला, “समय सुन्दर" सरताज रे ॥ ५ ॥आ०॥ (१०) गुरुवाणी महिमा गीत गुरु वाणी (जग) सगलउ मोहीयउ, साचा मोहण वेलो जी। सांभलता सहुनइ सुख संपजइ, जाणि अमी रस रेलो जो गुरु०॥ बाबन चंदन तई अति सीतली, निरमल गंग तरंगो जी। 'पाप पखालइ भवियण जण तणा, लागो मुझ मन रंगो जी ।२।गुरु०॥ ____ 2010_05 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वचन चातुरी गुरु प्रतिबूझवी, साहि "सलेम" नरिंदो जी। अभयदान नउ पडहो बजावियउ, श्रोजिनसिंह सूरिंदो जी ।३।गुरु०॥ चोपड़ा वंशइ सोभ चढ़ावतउ, चांपसी शाह मल्लारो जी। ___ परवादी गज भंजण केसरी, आगम अर्थ भंडारो जो ।४।गुरु०॥ युगप्रधान सइंहाथइ थापिया. अकबर शाहि हजूरो जी। 'राजसमुद्र' मनरंगइ उचरइ, प्रतपउ जां ससि सूरो जी ।५।गुरु०॥ (११) गच्छपति पद प्राप्ति गीत श्रीजिनसिंहसूरि पाटइ बहठा, श्रीसंघ आव्या (झा?) मान रे । खरतरगच्छपति साही (पदवी) पाइ, वाध्यउ दिन दिन वान ॥ १ ॥ माई ऐसा सदगुरु वंदीयइ, जंगम जुगहपूरधान रे । ___ कोडि दीवाली राज करउ ज्यु, ध्रुवतारा असमान रे ।रामा०।। सूरिमंत्र सिर छत्र विराजइ, क्षमा मुगट प्रधान रे । सुमति गुपति दुइ चामर बोंजइ, सिंहासण धर्मध्यान रे ।३।मा०|| श्रीसंघ रे युगप्रधान पदवी लही, आया "मकुरबखान" रे । __साजण मण चिंत्या हुआ, मल्या दुरजण माण रे ।४।मा०॥ श्रीसंघ रंग करइ अति उच्छव, दीधा बहुला दान रे । दश दिशि कीर्ति कवियण बोलइ, 'हरषनन्दन' गुणगान रे ।५।माई।। । (१२) ।निर्वाण गीतं ॥ ढाल:-निंदलरी . मेडतइ नगरि पधारोया, श्रीजिनसिंह सुजाण हो । पूमजी० । पोस वदि तेरस निसि भरइ, पाम्यउ पद निरवांण हो ।१।पूजजी०॥ 2010_05 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनसिंहसूरि गीतानि १३३ तुम पउढयां माहरे किम सरइ, पउडण नी नही वार हो ।पूजजी०।। नयण निहालउ नेह सुं, बइठउ सहू परिवार हो । आंकणी० ।। दीर्घ नोंद निवारीयइ, धर्म तगइ प्रस्ताव हो । पूजजो० ॥ राइ प्रायच्छित साचवउ, पडिकमणउ शुभ भाव हो ॥२॥०॥ झालर बाजी देहरइ, वाजउ संख पडूर हो । तरवर पंखी जागीया, जागउ सुगुरु सनूर हो ॥शापू०।। प्रहफाटी पगडउ थयउ, हीयउ पिण फाडण हार हो । बोलायां बोलइ नहों, कइ रूठउ करतार हो ॥४॥पू०।। समरइ सगला उंबरा, "मुकुरवखान" नबाब हो ॥पू०।। ___ कागल देस विदेश ना, वांची करइ (उ?) जबाब हो ॥५॥पू०।। लहुडा चेला लाडिला, मी(वि?)नति करइ विशेष हो ॥पू०॥ पाटी परवाडि दीजीयइ, मुहडइ सामउ देख हो ॥६॥पू०॥ 'ए पातिसाही मेवडउ, ऊभो करई अरदास हो ॥पू०।। एक घड़ी पडद्म नहीं, चालउ श्री जो पास हो ॥७॥पू०॥ आवी वांदिवा श्राविका, ओसवाल श्रीमाल हो ॥०॥ यथासमाधि कहइ करउ, एक वखाण रसाल हो ॥८॥०॥ बोलणहारउ चलि गयउ, रह्या बोलावण हार हो ॥पू०॥ ___ आप सवारथ सीझव्यउ, पाम्यउ सुरलोक सार हो ॥धापू०।। मौन ग्राउ मनचितवी, कीधउ कोइ आलोच हो ॥पू०॥ सगला शिष्य नवाजीया, भागउ मूल थी सोच हो ॥१०॥पू०।। पाट तुम्हारइ प्रतपीयउ, श्रीजिनराज सनूर हो ॥पू०॥ आचारिज अधिकी कला, श्रीजिनसागर सूरि हो ॥पू०॥११॥ भवि २ थाज्यो वंदना, श्रीजिनसिंह सूरिंद हो ।पू०।। सानिध करज्यो सर्वदा, 'हरपनन्दन' आणंद हो ॥१२॥पू०॥ - _ 2010_05 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री क्षेमराज उपाध्याय नातं सरसति करि सुपसाउ हो, गाइ सु सुहगुरु राउहो । गाइसु सुह गुरु सफल सुरतरु, गछि खरतर सुहकरो। महियलइ महिमावंत मुणिवर, बालपणि संजम धरो। सिद्धान्त सार विचार सागर, सुगुणमणि वयरागरो। जयवंत श्री उवझाय खेमराज, गाइसु सही ए सुह गुरो ॥१॥ भवियण जण पडि बोहइ हो, छाजहडह कुलि सोहइ हो । छाजहड कुलि अवतरीय सुहगुरू, साह लीला नन्दणो। बर नारि लोलादेवो उयरई, पाप तापह चन्दणो। दिखीया श्री जिनचन्द्रसूरि गुरि, संवत पनर सोलेत्तरइ । सीखविय सुपरइं सोमधज गुरि, भवियण, (जण) संशय हरइ ॥२॥ उपसम रसह भंडारू हे, संजमसिरि उर हारू ए। संजम सिरि उर हार सोहइ, पूरव ऋषि समवडि धरइ । नवतत्त नवरस सरस देसण, मोह माया परिहरइ । जिणआण धरइ हीयडइ, पंच पमाय निवारए । उवझाय श्री खेमराज सुहगुरु, चवद विद्याधारए ॥३॥ कनक भणइ सिरनामी हे, मइ नवनिधि सिद्धि पामी हे । ___पामीय सुहगुरु तणीय सेवा, सयल सिद्धि सुहामणी । चाउले चौक पूरेवि सुहव, वधावउ वर कामिणी। दीपंत दिनमणी समउ तेजइ भबियजण तुम्हि वंदउ । उदिवंता श्री उवझाय खेमराज, 'कनक' भणइ चिरनंदउ ।।४।। गुरु गोतं (वर्द्ध० भ० गुटका से ) १७ वीं सदी लिक - - 2010_05 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रो भावहर्ष उपाध्याय गीतम् श्री भाषहर्ष उपाध्याय गतिं श्रो सरसति मति दिउ घणी, सुहगुरु करउ पसाय । हरष करी हुं वीन, श्रीभावहर्ष उबझाय ॥ १ ॥ श्री भावहर्ष उवझायवर, प्रतपउ कोडि वरीस ।। तूठी सरसति देवता, हरषि दीयइ आसीस ॥२॥ तुडि करीनइ किम तोली(य)इ, धीर गम्भीर गुणेहि । मेरु महासागर मही, अधिका ते गुरु देहि ॥३॥ दिन दिनि संजमि संचडई सायर जिम सित ! पाखि । तप जप खप तेहवो करइ, जिसी न लाभइ लाखि ॥ ४ ॥ सुरुतरु जिम सोहामणा, मन वंछित दातार । हर्ष ऋद्धि सुख संपदा, तरु श्रावण जलधार ॥५॥ राग :-सोरठी जलधर जिउं जगत्र जीवाडइ, मन परम प्रीति पदि चाडइ। देसण रस सरस दिखाडइ, दुख दहनति दूरि गमाडइ ॥ ६॥ श्रावक चातक उछाह, मोर जीम श्री संघ साह । सरवर ते भवियण श्रवण, वाणी रसि भरियइ विवण ॥ ७ ॥ ऊगइ तिहां सुकृत अंकूर, टलइ मिथ्या भर तमल (तिमिर?)पूर । संताप पाप हुइ चूर, जिनशासन बिमवणउ नूर ॥ ८ ॥ श्री भावहर्ष उवझाय, ते जलिहर कहियइ न्याय । उपसम रसि पूरित काय, सोहइ संसारि सछाय ॥ ६ ॥ 2010_05 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह दहा:-श्रीजिन माणिकसूरि गुरु, दीघउ पद उवझाय । जेसलमेरइ माहि सुदि, दसमि नमउ तसु पाय ॥ १०॥ सुगुरु पाय प्रमोद नमीयइ, दुख दुरगति दूरइ गमीयइ । भव सागरि भिमि न भमीयइ, सुख संपति सरिसा रमीयइ ॥११॥ खरतरगछि पूनिम चन्द, गुरु दीठइ मनि आणंद । सेवंता सुरतरु कंद, रंजइ गुरु वचनि नरिंद ॥१२॥ साह कोडा नंदन धन्न, कोडिम दे उयरि रतन्न । 'कुलतिलक' सुगुरु चा सीस, उवझाय सदा सुजगीस ॥१३॥ श्री भावहर्ष हितकारी, सुधउ भुनि पंथ विचारी। पंच समिति गुपति गुणधारी, विहरइ गुरु दोष निवारी ॥१४|| श्री भावहर्ष उबझाया, चिरजीवउ मुनिवर राया। मई हरखइ सुहगुरु गाया, मुझ हीयडइ अधिक सुहाया ।।१५।। (संग्रहस्थ पत्र १ तत्कालीन लि० रचित) सुखनिधान गुरुगीतम् राग धन्याश्री सुगुरु के पणमो भवियण पाया, श्रीसमयकलश गुरु पाटि प्रभाकर, सुखनिधान गणिराया ।१। हुंवड वंस विक्षात सुणीजइ, धइ सुख सम्पति ध्याया। गुणसेन वदति सुगुरु सेवातई, दिन २ तेज सवाया।२। * १ सं० १६८५ चैत्रादि ३ दिने शुक्रवारे पं० गुणसेन लिखोतं ऋषिदेव रतन वाचनार्थ ( श्रीपूज्यजी संग्रह हयगुटकेसे ) 2010_05 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री साधु कीर्ति जयपताका गीतम्। FESSETTE Or A LA ॥ जयपताका गीत ॥ सोलहसइ पंचवीसइ समइ, आगरइ नयरि विशेष रे । पोसहकी चरचा थकी, खरतर सुजस नी रेख रे । १। खरतर जइत पद पामीयउ, साधुकीर्ति जय सार रे । साहि अकवर काउ श्रीमुखई, पण्डित एह उदाररे । खरः "बुद्धिसागर" तणी बुद्धि गइ, भाखीयउ अति अविचार रे । षष्ट थया तपा ऋषिमती, खरतरे लहयउ जयकार रे।२। संस्कृत तपलो न बोलीयउ, थया खिसाण अपार रे। चतुर अकबर मुख पंडिते, करी सागर बुधि हार रे ।३। खर० तर्क व्याकर्ण पढ़यउ नहीं, मरम ए सुण्यउ अखण्ड ए। मलम सागर बुधि ऊघडयउ, जाणीयउ अशुचि नउ पिंड रे ।४।ख० गंगदासि साह धोधू तणइ, मोड़ीयउ कुमत नउ माण रे। ___ बचन पतिशाह ए बोलियउ, बुद्धि सागर अजाण रे ।५। खर० पीतलि मांहि थी नीकली, अहवा रङ्ग पतङ्गरे । ऋषिमती सहु अछइ एहवा, सागर बुद्धि तणइ भंग रे ।६। खर० हुकम करि पातिशाहइ दीया, भेरि दमाम नीसाण रे । गाजतइ बाजतइ आवीया, खरतर सुजस वखाण रे । ७ । खर० 2010_05 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्रीजिनचन्द्रसूरि सानिधइ, "दया कलश" गुरु सीस रे । " साधुकोति” जगि जयत छई, कहइ कवि "जल्ह" जगीस रे | ८|खर० ॥ इति श्री साधुकीरति गुरु जयपताका गीतं । ( २ ) १३८ संवत् दस सय असीयइ पाटणइ, ची ( चैत्य ) वासी मलिमाणो जी । खरतर विरुद लहउ दुर्लभ मुखइ, सूरि जिणेसर जाणोरे । १ । जय पाडयउ (पाम्यो ?) खरतर पुरि आगरइ, साधुकीर्त्ति बहु नूरे जी । पोसह पर्व दिनइ जिण थापीयउ, अकबर साहि हजरे रे |२| जय आगरइ पुरि मिगसरि धुरि बारसी, सोलपंचवीस वरीस जी । पूरव बिरुद सही उजवालियर, साधुकीर्त्ति सुजगीशो रे | ३|ज० च्यारि वरण खरतर (कुं) जय (जय) करि, जाणइ बाल-गोपालजी । बूठा वाट बटाऊ सहु कहर, कुमती सिर पंच तालोजी |४| जय कुबुद्धि षष्ट थयउ तर विण सही, नीलज अनइ "IF तस्कर जिम दुइ भेरि बजाविनइ, आव्यउ रयणी ठामजी |५|ज० चामल मेघदास नेतसी, ले अकवर फुरमाणो जी । पंच शब्द बजावी जय लहयउ, खरतर कोयउ मंडाणो जी | छान श्री जिनदत्त कुशलसूरि सानिधइ, उत्तम पुण्य प्रकारो जो । कर जोडी नइ' खइपति" वीनवइ, खरतर जय-जयकारोजी 19 ज इति श्री जयपताका गीतं ।। श्री । श्रा० भरही पठनार्थ ॥ ( पत्र १ श्रीपुजजी सं० ) 2010_05 ...... Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री साधुकीर्ति सुयश गीतम् १३६ (३) गहुँली राग-असावरी वाणि रसाल अमृत रस सारिखी, मोठ्या भवियण लोइ जी। ___ सूत्र सिद्धंत अर्थ सूधा कहइ, सुणतां सवि सुख होइ जी ।।१।। सहगुरु साधुकीर्ति नितु वन्दीयइ, उपशम रस भंडारो जी। शील सुदृढ़ संजम गुण आगला,सयल संघ सुखकारो जी ।स। पंच सुमति त्रण गुप्ति भलो परइ, पालइ निरतीचारो जी। जे नर-नारी पय सेवा करइ, दुत्तर तरइ संसारो जी ॥२॥स०। वस्तिग नन्दन गुरु चढ़ती कला, ओसवंश सिंगारो जी। धन खेमल दे जिणि उयरइ धर्या,सचिंती कुलि अवतारो जी ।३स० दरसणि नवनिधि सुख सम्पति मिलइ, दयाकलश गुरु सीसोजी। "देवकमल' मुनि कर जोडी भणइ, पूरवउ मनह जगीसो जी।४।स०. ॥सं० १६२५ वर्षे श्रावणसुदि १० आगरा नगरे जिनचन्दसूरि राज्ये हंसकीर्ति लिखितं श्राविका साहिबी पठनार्थ ॥ पत्र १ श्रीपुजजीके संग्रहमें । ( अनाथी, पार्श्व गीतसह ) (४) कवित्त साधुकीर्ति साधु अगस्ति जिसो, सब सागरको नाद उतार्यो । पतिशाह अकबरके दरबार जीतउ जिणवाद कुमति विदार्यो । पीयउ जिण तिण चरुवार भडार दीयउ लघु नीति विगार्यो । सकुच्यउ अद्ध सागर माजि गयो, गरब इक हानि भज गच्छ निकार्यो । 2010_05 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह marva ककि कनकसोम कृत जइतपद् वेलि सरसति सामणी वीनवु, मुझ दे अमृत वाणि । मूल थको खरतर तणा, करिस्युं विरुद बखाणि ॥१॥ श्रावक आवी मिली सुणो, मनधरि अति आणंद । चित्त विषवाद न को धरउँ, साचउं कहइ मुनिंद ॥२॥ सोलहसय पंचीसइ समई, वाचक दया मुनीस ।। चउमासि आया आगरी, बहु परि करि सुजगीस ॥३॥ 'रतनचन्द" वघराग गणि, पण्डित “साधुकीर्ति'। "हीररंग" गुण आगलो, ज्ञाता 'देवकीरत्ति" ॥४॥ तप करि "हंसकोर्त" भलो, "कनकसोम" जसवंत । ___"पुण्यविमल" मनि ध्यान धरि, "देवकमल" बुधिवंत ।।५।। "ज्ञानकुशल" ज्ञाता चतुर, “यशकुशल" हि जस लिंद्ध । ___ "रंगकुशल" अति रंग करी, "इलानंद" सुप्रसिद्ध ॥६॥ वैरागे चारित्र लीयो, "कीरत्ति(वि)मल" सूजाण । वड़ जिम साखा विस्तरौ, दिन २ चढ़ते बान ।। ७ ।। चालि-नितु दिन २ चडतइ वान, श्री संघ दीयइ बहुमान । तपले चरचा उठाइ, श्रावकने बात सुणाइ ॥८॥ मो सरिखो पंडित जोइ, नही मझि आगरै कोइ । तिणि गर्व इसो मन कीधउं, बुद्धिसागर अपयश लीधो ।।६।। 2010_05 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि कनकसोम कृत जइतपद वेलि श्रावक आगै इम बोलई, अम्ह गाथारस (थ ?) कुण खोलइ । श्रावक कहइ गर्व न कीजइ, पूछी पंडित समझीजइ ||१०|| संघवी सतीदास कु. पूछई, तुम्ह गुरु कोइ इहां छइ ! संघवी गाजी नई भाखई, साधुकीर्त्ति छै इम दाखई ॥ ११ ॥ लिखि कागद तिथि इक दीन्हउं, श्रावक वचने न पतीनउं । पोसह तिहि एक प्रकार, भ्रमि भूलउ ते अविचार ||१२|| साधुकीर्त्ति तत्व विचार्यों, तत्वारथ मांहि संभार्यो । १४१ पौषध छई दोइ प्रकार, बूझ्यो नहीं सही गमार ॥ १३ ॥ तिहां लिखत दोष दस दीट्ठा, तपला तब थया निकीट्ठा । मिली पद्मसुंदर नई आखडं, गच्छ त्र्यासीकी पत राखउं || १४ || दूहा - पदम सुंदर इम बोलियउं, वंदन नायडं कांइ । स्वारथ पडीओ आपणई, तरं आयो इण ठांइ ॥ १५ ॥ हिव अपराध खमडं तुम्हें, पडयो बरांसउ एह । हिव सरणे तुम आविया, कांइ दिखाडउ छैह ||१६|| तपले ने संतोषोउ, पिणि सांक्यउं मन मांहि । साधुकीर्त्ति जिहां आविस्यै, तिहां हुं आविसुं नांहि ॥ १७॥ सुणी बात खरतर खरी संघ मिल्यो सब आई । गाल बजाई ऋषिमती, हिव ढीला तुम्ह कांई ||१८|| चालि - ढीला हिव हम्हे न होस्यां, ऋषिमतीयनकी पत खोस्यां । खरतरे तेजसी वोलायो बहु आणंद सुं ते आव्यो ॥ १६ ॥ पंच मिलि बात पतोठी, परगच्छी हुआ वसीट्ठी । चउथान कि चरचा थापों, ते घर लिखि अनइ अम्ह आपडं ||२०|| 2010_05 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ . ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तपला रिष तुं सोचावई, इहां पद्मसुंदर नहीं आवई । करिस्यां पातिसाह हजूर, खरतर घरि वाज्या तूर ॥२१॥ मिगसर बदी छट्ठ प्रभातई, मिलिआ पातिसाह संघातई । वाइमल्ल बोलायउं पिछाणी, साहि बात सहु गुदराणी ॥२३॥ आणंदइ खरतर माल्हई, कविराज कई की आहवालई । निज २ थानक सवि आया, विहाणई कविराज बुलाया ॥२३॥ अनिरुद्ध महादे मिश्र, मिलिया तिह भट्ट सहश्र । साधुकीर्ति संस्कृत भाखड़, बुधिसागर स्युं स्युं दाखई ॥२४॥ पंडित कहइ मूढ गमार, तेरो नाम छै बुद्धि कुठार । पोषह चरचा दिन पंच, साचउं खरतर पक्ष संच ॥२५।। कविराजई निर्णय कीयउं, जूठउं बुद्धि कुठार। ___ साहि पासि जाई कहू. पोषह पर्व विचार ॥२६।। पद्मसुन्दर इम चिंतवई, इणि हाणई मो हानि । साहि पास जाइ कहइं, द्यो हम जीवीदान ॥२७॥ मिगसर वदी बारस दिने, गया साहि आवासि । खरतर पूठइ देवगुरु, तपा गया सब नासि ॥२८॥ साहि हजूर बोलाविआ, श्वेताम्बर क न्याय । हुं करिस ततखिण खरउ, तेड्या पण्डित राय ॥२६।। ढाल हिव तेड्या पंडित रायई, कविराज सभा बोलायई। ___ साधुकीर्ति संस्कृत बोलई,खिरतर कहि केहनइ तोले ॥३०॥ 2010_05 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि कनकसोमकृत जइत पद वेलि साहि सुगत दीयइ साबासि, खरतर मनि अधिक उल्हास । बुद्धिसागर कछु न जाणईं, साहि साधुकीर्त्ति कुं बखाणइ ||३१|| पंडित सभ (ब? भा?) बोलई एम, निर्णय कीधो छै जेम । खरतर गच्छ कउं पक्ष साच, तपला पखि कोइ न राचउ ||३२|| मूढ़ पंडित सम किम होइ, पातिसाह विचार्यो जोइ । तब पद्मसुंदर बोलायड, लुकि रह्यो सभा मांहि नाव्यो ||३३|| चप पोष थाप्यो, खरतर कुं जयपद आप्यो । गजबजीया खरतर लोक, ऋषिमती थया सब फोक ||३४|| विण हुकम भेरि हु (दु ?) इं वावई, तपा राति दीवी ले आवई । पातिसाह सुणी ए बात, तपलाउं करउं निपात ||३५|| चाइमल मेघई छोड़ाया, मान भंग करी कढ़वाया | तपला कहई सर भरि कीजई, दुरि (इ?) भेरि हुकम इन्द दीजई ||३६|| दूहाः— खरतर मनहि विचारीयो, एह बात किम होइ । १४३ जीती वाजी हारीयई, करउं पराक्रमकोइ ||३७|| घोधू चाइमल्ल नेतसी, मेघउ पारस साह । नेमिदास धणराज सहजसिंघ, गंगदास भोज अगाह ||३८|| श्रीचंद श्रीवच्छ अमरसी, दरगह परबत वखाण । छाजमल गढ़मल भारहू रेडउं सामीदास सुजाण ॥ ३६ ॥ atara ( ? ) री तिहि मिल्या, महेवचा संषवाल । श्रावक सभ (ब?) तेडावीया, महिम के कोटीवाल ||४०|| 2010_05 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह चालि: मिलि पहुतावी चापसि, बट्टी छई जिहां आवासि । आदर तह अधि ( क ?) उंदीधउं, गुरु मंत्रि चित्त वसि कीधरं ॥ ४१ ॥ चामल मेघइ वात बनाइ, अकबर रे तिहां लीया बुलाइ । १४४ परवत नेमीदास हजूर, दोजई बाजा हुकम पडूर ||४२ || अउलोमा पातिसाहि तूट्टुडं, सहाथि थापि लीडं पूठई । सभ बाजा जइत बजावउं, अपणां पोरह कुं बधावउँ ||४३|| खोजा छडीदार पट्टाया, खरतर साचा जस पाया । भेरि मद्दल ढोल नीसाणा, वाज्या चढ्यो वोल प्रमाण ||४४ || संघ मेलि मिल्य आणंदई, गुरु सोहइ श्रीसंघ वृन्दई । बाजार आगरई केरइ, पइसारउं कीधउं भलेरई ॥४५॥ खरतरै जइत पद पायो, मागत जन सहु अबुलायडं । पंच वरण व बाइ अनेक, पहिराया संधि विवेक ||४६ || हाय तपलो सहु जाणई, खरतर कं लोक वखाणई । साखी भट्ट छई इण बातई, खरतर परव शुद्ध विख्याते ||४७॥ जिनदत्त कुशल सानिद्धई, जिनभद्रसूरि वंश वृद्धईं । जिनचंद्रसूरि सुप्रसादइ, खरतरे जीतउं इण वाद ॥४८॥ दया "अमर माणिक्य" गुरु सीस, साधुकीर्त्ति लही जगीस । मुनि "कनकसोम" इम आखई, चढविह श्रीसंघकी साख || ४ || ( तत्कालीन लिखित पत्र ३ संग्रह में ) **** 2010_05 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसाधुकीत्ति स्वर्गगमन गीतम् जयनिधान कृत साधुकीर्ति गुरु स्वर्गगमन गतिम् सुखकरण श्रीशांति जिणेसरू, समरी प्रवचन बचनए जी। सोहण सुहगुरु गाईए, नि..............................."नभाए जी ॥शा चतुर सिरोमणि भावई वंदीयइ, 'श्रीसाधुकीरति' उवझायो जी। प्रहसमि भवियण कामित सुरतरू, खरतरगच्छ गुरुरायोजी ॥०॥ संवत सोल बतोसइ सुह दिनइ, 'श्रीजिनचंद्रसूरिंदो' जी । माधव मासई सुदि पुनम थापिया, पाठक पद आणंदो जी ॥ २०॥ सु कुल 'सचिंती' श्रीगुरु उपना, 'खेमलदे' उरि हंसो जी। 'वस्तपाल' पिता जसु जाणिये, मुनिजन महिं अवतंसो जी ॥३॥०॥ नाण चरण गुण सयल कला धरू, जश परिमल सुविसालो जी। 'अमरमाणिक्य' गुरु पाटई दीपता, अठमि शशिदल भालो जी।४ाचा गाम नयर पुरि विहरी महीयलई, पडिवोही जणवृन्दो जी। सोल छयालइ आया संवतइ, पुरि 'जालोर' मुर्णिदो जी ॥५॥०॥ माह बहुल पखि अणसण उच्चरि, आणी निय मन ठामो जी। ......" ॥६॥०॥ आउ पूरी चउदसि दिन भलइ, पहुता तब सुरलोक जी। धुंभ अपूर्व कियउ गुण (रु?)तणउ, प्रणमीजइ बहुलोक जी ।।णाच॥ इण कलिकाले श्रीगुरु जे नमइ, भाव धरी नरनारी जी। समकित निर्मल हुइ वलि तेहनई, धन कण सुत सुखकारी जी चाच०॥ धन धन 'साधुकीर्ति' रलियामणा, सबही नाम सुहाए जी। पाय कमल जुग नितु तस प्रणमतां, घरि घरि मंगल थाए जी।।च०। उलट आणी सहगुरु गाइया, वाचक 'रायचंद्र' सीसि जी । आसा पूरण सुरमणि सुरगवी, 'जयनिधान' सुह दीसि जी ॥१०॥च०॥ 2010_05 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वादी हर्षनन्दनकृत श्री समयसुदर उपाध्यायानां गीतम् ( १ ) राग ( मारूणी ) साच 'सावोरे' सद्गुरु जनमिया रे, 'रूपसीजीरा' नंद । नवयौवन भर संयम संग्रह्योजी, सहथ 'श्रीजिनचंद ' ॥ १ ॥ भले रे विराज्यो उपाध्याय देशमें रे, 'समयसुन्दर' सरदार | अधिक प्रतापी व जिम विस्तरे रे, शिष्य शाखा परिवार || भले || २ | चवदै विद्या आपण अभ्यसी रे, पण्डित राय पडूर । छोड़ाया सांडा मयणे मारता रे, राउल 'भीम' हजूर || भले ||३|| 'लाहाउरे' 'अकबर' रंजियो रे, आठ लाख अरथ दिखाड़ । वाचक पदवी पण पामी तिहां रे, परगड़ वंश 'पोरवाड़' || भले ०||४|| सिन्धु विहारे लाभ लियड घणो रे, रंजी 'मखनूम' सेख | पांचे नदियां जीवदया भरी रे, राखी धेनु विशेष || भले ० ||५|| पहिराया पूरा मुनिवर गच्छ ना रे, प्रणमे भूपति पाय । बजड़ाव्या वाजा ताजा मेड़ता रे, रंजी मंडोवर राय ||भले० || ६ || वाल्हो लागे चतुर्विध संघ ने रे, 'सकलचंद' गणि शीश । 'हर्षनंदन' सुजगीश || भले ० ||७|| बड़वखती वादी सदा रे, 2010_05 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसुन्दर उपाध्यायानां गीतम् १४७ कवि देवीदास कृत (२) रागः-आसावरी सिन्धुड़ो “समयसुन्दर' वाणारस वंदिये, सुललित वाणि वखाणो जी । राय रंजण गीतारथ गुणनिलो जो,महिमा मेरू समाणो जी |स०॥१॥ अरथ करी 'अकबर' मन रीझव्यो, बलि कहूबीजी बातो जी। "जेसलमेर'सांडा जीवछोड़ाव्या, रावल करि रलिआतो जी।स॥२॥ 'शीतपुर' मांहें जिण समझावियो, 'मखनूम' महमद सेखो जी। जीवदया परा पडह फेरावियो,राखी चिहुंखंड रेखो जी ।।साशा दड़ दिवाने सगले दीपता, संघ घणो सोभागो जी। माने मोटा राणा राजिया, वणारीस बडभागो जी ॥स०॥४॥ सद्गुरु सिगलो गच्छ पहिरावियो, लोक मांहे यश लीधो जी। "हर्षनन्दन' सरखा शिष्य जेहने, 'वादो' विरुद प्रसिद्धो जी।।स०॥५॥ जन्मभूमि ‘साचोरे जेहनी, वंश 'पोरवाड़' विख्यातो जी। मातु 'लीलादे' 'रूपसी' जनमिया, एहवा गुरु अवदातो जी।स०॥६॥ (श्री) 'जिनचन्दसूरि' संइहथे दीखिया, 'सकलचन्द' गुरु शीशो जी। 'समयसुंदर' गुरु चिर प्रतपै सदा, चै 'देवीदास' आसीसो जी||साणा ॥ इति श्रीसमयमुंदरोपायायानां गीतद्वयं ॥ [ हमारे संग्रहमें तत्कालीन लि० प्रति, पत्र १ से ] 2010_05 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह राजसोम कृत महोपाध्याय समयसन्दरजी तिम् (३)॥ ढाल हांजरनी॥ नवखंडमें जसु नाम पंडित गिरुआहो, तर्क व्याकर्ण भण्या। अर्थ किया अभिराम पदएकणराहो, आठ लाख आकरा ॥१॥ साधु बड़ो ए महन्त 'अकबर' शाहे हो, जेह वखाणीयो। 'समयसुन्दर' भाग्यवंत पातिशाह पू(तू)ठोहो,थापलि इम कह्योरे।।२।। जीवदया जशलीध राउल रंजी हो, 'भीम' 'जेशलगिरि'। करणो उत्तम कीध 'सांडा' छोड़ाया हो, देशमें मारता ।।३।। 'सिद्धपुर' मांहे शेख 'महम्मद' मोटो हो, जिण प्रतिवोधीयो। सिन्धु देश मांहे विशेष 'गायां' छोडावी हो, तुरके मारती ॥ ४ ॥ सखर वस्त्र पटकूल गच्छ पहरायो, खरतर गरुअडो। बचनकला अनुकूल प्रबंध देखी हो, शास्त्र कीधाघणां ।। ५ ।। पर उपगार निमित्ति कोधो सगलो हो,धन-धन इम कहे। गीत छंद बहु वृत्ति कलियुग माहे हो, जिणे शाको कियो ॥ ६ ॥ जुगप्रधान 'जिनचन्द' स्वयंहस्त वाचक हो, पद 'लाहोरे' दियो। 'श्रीजिनसिंहसूरिंद' शहर 'लवेरे' हो, पाठक पद कीयो ॥ ७ ॥ आगम अर्थ अगाह सम्मुख साचो हो, जेणे प्ररुपीयो। गिरुओ गुरु गजगाह परिवार पूरो हो, जेहनो परगड़ो ।। ८ ॥ कीधो क्रियाउद्धार संवत सोले हो, इक्काणु समे । गौतमने अणुहार पंचाचार पाले हो, घणु वली खप करे ॥ ६ ॥ ____ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समय सुन्दरोपाध्यायानां गीतम् araण करि अणगार संवत सतरे हो, सय बिडोत्तरे । 'अहमदाबाद' मझार परलोक पहुंचा हो, चैत्र शुदि तेरसे ॥ २० ॥ बादीगज दल सींह पाट प्रभाकर हो, प्रतपे तेहने । 'हरषनन्दन' अणवीह पण्डित मांही हो, लीह काढी जिणे ॥ ११ ॥ प्रगट जासु परिवार भाग्यवन्त मोटो हो, वाचक जाणीये । दिन-दिन जय-जयकार जग जिरंजीवो हो,' राजसोम' इम कहे || १२||* [ इति महोपाध्याय समयसुन्दरजी गीतं ] -> १४६ ॥ श्रीयशकुशल सुगुरु गीतम् ॥ ॥ राग काफी ॥ 'श्री यशकुशल' मुनीसर (नागुण) गावो तुम्ह सुखकारी । सहु जनने सुखसातादायक, विघ्न विडारण हारी || १ || २० || ठाम ठाम महिमा सद्गुरुनी, जाणे लोक लुगाइ । तिम वलि इण देशे सविशेषै, कहतां नावै काई ||२||२०|| भर दरियावै समरण करतां, हाथे कर ऊबारै । ध्यान धरै इक मन जे साचौ, तेहना कारज सारै || ३ ||२०|| 'कनकसोम' पाटे उदयाचल, श्री 'यशकुशल' मुणिन्द । दिन दिन अधिको साहिब सोहे, जिम ग्रह माहिं चंद ||४||२०|| महिर करी नइ दीजइ दरिशन, जोजइ सेवक सार । 'सुखरतन' कहै कर जोड़ी नै, भवि भवि तूं ही आधार || ५ ||२०|| * यह गीत बाहड़मेर के यति श्री नेमिचन्द्रजीसे प्राप्त हुआ है । एतद उन्हें धन्यवाद देते हैं । 2010_05 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर श्रीसार कृत श्री जिनराजसूरिरास [ रचना समय सं० १६८१] --***-- ............."तोरण चंग। दीठां सगला दुख हरइ, थायइ अति उछरंग ॥१॥ मेरी। अति सखर सुंदर अति भली, सोहई घणी ध्रमसाल । जिह आवी व्यवहारिया, धरम करइ सुविसाल ॥१०॥ मेरी० । वन वाग वाड़ी अति घणी, तिहां रमइ लोक छयल । सोहइ नगर सुहामणउ, भोगी करइ सयल ॥११॥ मेरी। 'रायसिंघ' राय करावियउ, 'नवउ कोट' अमली माण । कचमहले करि सोभतउ, केहउ करूं वखाण ॥१२॥ मेरी। हिव राज पालइ रंग सेती, राजा तिहां 'रायसिंघ' । ___ क्यरी मृगला भांगिवां, ए सादूलोसिंघ ॥१३॥ मेरी। प्रतिपयउ ‘राठोड़ा' कुलई, सेवकां पूरइ आस । - पट्टराणी साथइ सदा, विलसहि भोगविलास ॥१४॥ मेरी० । तेहनइ 'मुहतउ' मलहपतउ, परदुख काटनहार । 'कर्मचन्द' नामइ दिपतउ, बुद्धई अभयकुमार ॥१५।। मेरी० । डोलती 'राखी' जेण पृथ्वी, दिया दान अपार । 'पैंत्रीसई' मांहि मांडियउ, सगलइ सत्तूकार ॥१६॥ मेरी। 2010_05 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह.. जिनराज सूरिजी-जिन रंगसूरिजी (शालिभद्र चौपइकी प्रतिसे) 2010_05 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनराजसूरि रास १५१ 'कोडि' द्रव्य दीधा याचकां, 'लाहोर' नयर उच्छाह । श्री 'जिनचन्द' युगवर कीया, पत्तगरियउ 'पतिशाहि' ॥१७॥ मेरी। ___'नव' गाम नइ 'नव' हाथीया, तिहां दिया द्रव्य अनेक । श्री जिनसिंहसूरिंद' नइ, आचारिज सविवेक ॥१८॥ मेरी। 'रायसिंघ' राजा राज पालइ, मंत्रवी तिहि 'कर्मचंद' । सहू को लोक सुखइ बसइ, दिन-दिन अधिक आणंद ॥१६॥मेरी०॥ दूहा- वसइ तिहां व्यवहारिउ, सोभागो सिरदार । धर्म धुरन्धर 'धर्मसी', वोहिथ कुल सिणगार ॥१॥ दुखियां नउ पीहर सदा, धर्मी नइ धनवंत । ____ कुल मंडण महिमा निलउ, गुणरागी गुणवन्त ।। २ ।। पतिभक्ता नइ गुणवती, शीयलवती वरियाम । मनहर नारो तेहनइ, 'धारलदे' इणि नाम ॥३॥ भणि जाणइ चउसठि कला, रूपइजीती रंभ। एहवी नारि को नहि, अदूभूत रूप अचम्भ ॥४॥ दोगंदक सुरनी परड, सही सगला संजोग । ___ निज प्रीतम साथइ सदा, विलसइ नव-नव भोग ॥५॥ ढाल वीजी-मांहका जोगना न कहिज्योरे अरदास । ए जाति। उत्तम गृह मांहि (ए) कदा रे, पउठि 'धारल' देवि । प्रीतमजी । पउ० झबकइ मोती झुबका रे, सुख सज्या नित मेव ॥ प्री० सु०।१। प्रीतमजी बोलइ अमृत वाणि, प्रीतमजी बोलइ कोयल वाणि । प्रीतमजी तुं मेरउ सुलताण, प्रीतमजी तुं तो चतुर सुजाण । 2010_05 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह प्रीतमजी दिठउ स्वप्न उदार, प्रीतमजी कहउ नइ तासु विचार। प्रीतमजी थे पण्डित सिरदार ॥ आंकणी० ॥ चोवा चन्दन अरगजा रे, कसतूरि घनसार । प्री० कस्तूरि०। चिहुं दिशि परिमल महमहइ रे, इन्द्र भुवन आकार ॥प्री० इन्द्र॥२ दमणा पाडल केतकी रे, जाइ जुही सुविशाल । प्री० । जा०। फूल तिहां महकइ घणा रे, तिम फुलांरी माल ॥ प्रीति०।३।प्री०बो। दहदिशी दीवा झलहलइ रे, चन्द्रूअडा चउसाल। प्री० चं०। भीतइ चीतर भिख्या भला रे, वारू वन्नरमाल ।। प्री० वा०१४। प्री० मनहर मोती जालियां रे, करइ कली उजास । प्री० क० । पुन्य पखइ किम पामीयइ रे, एहवा सखर आवास । प्री०ए०१५/प्री०। 'धारलदे' पउढि तिहां रे, कोइ न लोपइ लीह । प्री० को० । किउं सूती किउं जागती रे, दीठइ सुहणे सीह ।। प्री० दी०।६। प्री० सुहणउ देखी सुहामणउं रे, पामइ हरख अपार । प्री० पा० । स्वप्न तणउ फल पूछिवा रे, वीनवीयउ भरतार ।। प्री० वि० ॥७॥ प्री० अमृत समो वाणि सुणीरे, जाग्या 'धरमसी' साह । प्री० जा० । पुण्ययोग जाणे मिली रे, साकर दूधहि माहि ॥ प्री० सा० ॥८प्री०। धरि आणंद इसउ कहइ रे, सखरउ लहयउ सुपन्न । प्री० स० । सूरवीर विद्यानिलउ रे, हुइस्यइ पुत्र रतन ॥ प्री० हु०। प्री० । कुलदीपक बोहित्थरां रे, अन्ति हुस्यइ राजांन । प्री० अं० । सिंह तणी परि साहसी रे, थास्यइ पुत्र प्रधान ॥ प्रो० था० ।१०पी०। गरभकाल पूरउ हुस्ये रे, सात दिवस नव मास । प्री० सा०। पुत्र मनोहर जनमिस्यइ रे, फलिस्यै मन नी आस ॥प्री० म०।११प्री० 2010_05 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनराज सूरि रास १५३ हीयडइ हरख थयउ घणउरे, सुणियउ सुपन विचार । प्री० सु० । तहत्ति करी उठि तदारे, पहुंती भुवन मंझार प्री०प० ॥१२॥प्री०वी० दहा-घरि (भुवन?) आवी इम चिंतवइ, अजेसीम बहु रात । धरम जागरि जागतां, प्रकटाणउ परभात ॥ १ ॥ जे भणिया बहुत्तरि-कला, भणिया वेद पुराण । प्रहउगइ घर तेडिया, जोसी ज्योतिष जांण ॥ २ ॥ 'श्रीधर' 'धरणीधर' सही, जोसी 'विठ्ठलदास'। ___ पहरी खीरोदक धोतीया,आव्या मन उल्लासि ॥ ३ ॥ संतोष्या जोसी कहइ, सुपन तणउ फल एह । - कुलदीपक सुत होइस्यइ, कूड कहां तउ नेम ॥४॥ इम फल सुपन तणउ सुणी, किया उच्छव असमान । सनमान्या जोसी सहु, दिया अनर्गल दान ॥५॥ ढालतोजी:-मनि मेघकुमर पछतावी ।। ए जाति । हिव दोजह दान अनेक, परियण मांहे बध्यउ विवेक । सुरलोक थकी सुर चवियउ, धारलदे उरि अवतरिउ ॥ १॥ बधिवा लागउ परिवार, माता हरखि तिणवार । राजा पिण घइ सन्मान, तिग दिन थी वधियउ वान ।। २॥ इम गरभ बधइ सुखदाइ, तसु महिमा कहयि न जाइ । मास त्रीजइ दोहला पावइ, माता मनि घणुं सुहावइ ।। ३ ॥ जाणइ चन्द्र पान करोजइ, भरि धुंट अमिरस पीजइ । ... वलि दान अनर्गल दीजइ, लखमी रो लाहो लीजइ ॥ ४ ॥ जिनवरनी कीजइ जात्र, घरि तेडी पोखं पात्र । खरचीजइ धन असमान, छोड़ावू बन्दीवान ॥५॥ 2010_05 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सुणिय श्री जिनवर वाणि, मन लागी अमिय समाणि । ध्याउ श्री अरिहन्त देव, कीजइ सहगुरुकी सेव ॥ ६ ॥ कर्म रोग गमेवा ओसउ, कीजइ पडिक्रमणउ पोसउ । मनशुद्धि ध्यावु नवकार, दुखियां नइ करू उपगार ।। ७ ।। वन वाग जइ उछरंग, प्रीतम सुं कीजइ रंग | मनमान्या वरसइ मेह, तउ फलइ मनोरथ एह ॥ ८ ॥ 'विमलाचल' नइ 'गिरनार', 'सम्मेतसिखर' सिरदार | ताल: भेटू 'आबू' सुखकारी, पूजा करु 'सतर' - प्रकारी ॥ ६ ॥ -जा 'खाजा' लापसी आही, वलि लाडु लाखणसाही | परसुं खुरसाणि मेवा, कीजइ साहमीनी सेवा ॥ १० ॥ धन खरची नाम लिखावु', 'सात क्षेत्रे' वित्त वावुं । तिम दुखित दोन साधारू, इणि परि आपड निसतारू ||११|| इम डोहला पामइ जेह, 'धरमसी' शाह पूरइ तेह | उत्तम नर गरभइ आयउ, माता पिण आनंद पायउ ।। १२ ।। जब पापी गरभइ आवs तउ मात खिहाला खावइ । कइ ठिकरि ना खाइ खण्ड, कई खायइ भींत लवंड ॥ १३ ॥ एतउ गरभ सदा सुकमाल, फलि मात मनोरथ माल । गुणवन्त हुइ ए आगइ तिन सहको पाये लागइ ॥ १४ ॥ माता मनि घणउ सनेह, सुख देस्यइ नन्दन एह । खाउ खाउ नवि खायइ, इम काल सुखे करि जायइ ||१५|| दित सात अनइ नव मास, पूरउ थयउ गरभावास । फल फूले दहदिशी फलियां, माता मन हुइ रङ्गरलियां ||१६|| GP 2010_05 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनराजसूरि रास अति शीतल वाजइ वाय, दुखियांनइ पिण सुख थाय । गुणवन्त पुरुष जब जायइ, तब सगलउ जग सुख पायइ॥१७॥ मुंह माग्या वरसइ मेह, लोके २ निवड सनेह । - सगलइ जगि हुयउ सुगाल, गुणगावइ बालगोपाल ॥ १८ ॥ इम उच्छव सुं अधरात, सुखसज्या सूती मात । 'धारलदे' नन्दन जायउ, सूरिज जिम तेज सवायउ ॥१६॥ दूहाः-वइसाखा सुदि (सातमा !) दिन,सोलहसय सईताल । __ श्रवण नक्षत्र सुहामणउ, बुधवार (इ) सुविशाल ।।१।। पंच उंच ग्रह आविया, छत्र जोग सुखकार । शुभवेला सुत जन्मयिउ, वरत्यउ जय-जयकार ॥२॥ चन्द्र अनइ सूरिज थकी, सुत नउ अधिकउ तेज। रत्नपुंज जिमि दीपतउ, सोहइ माता सेज ॥३॥ ढाल चौथी, वधावारी :दासी आवि दौड़ति ए, जिण (हां ?) छइ 'धरमसी' शाह । वधाइ पुत्रनी ए-दीधी मन उमाह ॥ १ ॥ फली आसा सहू ए, जायउ पुत्र रतन । फलि० । कीजइ कोडि जतन० फली०, 'धरमसी' साह धन धन्न० ॥फलो०।। उदयउ पूरब पुन्य, फली आस्या सहू ए । आं० । सुत दीठइ दुख वीसर्या ए, वाजइ ताल कंसाल ।। दमामा दुडवडी ए, वाजइ वनर माल |॥ २ ॥ फली० ॥ वाजइ थाली अति भली ए, बाजइ जोगी ढोल | हवइ उच्छव घणाए, गीतां ग रमझोल ॥ ३ ॥ फली० । 2010_05 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह कुंकुं हाथां दीजीयइ ए, सूहव धइ आसीस । कुमर धरमसी तणउए, जीवउ कोडि वरीस ॥४॥ फली० । गलिए फूल विछाइया ए, नाटक पडइ बत्रीस। ___ कुमर भलइ जनमियउ ए, हरख घणउ निसदीस ॥५॥फली० । जन्म महोछव इम करइ ए, खरचइ परघल दाम । सजल जलधर परइ ए, न गिणइ ठाम कुठाम ॥६॥फली०॥ याचक जय-जय उचरइ, सगा लहइ सनमान । . सयण संतोषिया ए, सखियां करइ गुणगान ।। ७ ।। फली। हिव दिन दसमइ आवियइ ए, करइ दसू ठुण प्रेम । सगा सहि निहतरइ ए, असुचि उतारइ एम ॥ ८ ॥फली० । सतर भक्ष भोजन भला ए, सालि दालि घृत घोल । ... सहू संतोषिया ए, उपरि सरस तंबोल ॥ ॥ फली० । एम जमाडि जुगतसुं ए, दिया नालेर सद्रूप । ___ भलउ सहको भणइ ए, उछव कियउ अनूप ॥१०॥ फली० । धन 'धारलदे' मायडी ए, धन्न २ 'धरमसी' साह । कियउ उच्छव भलउ ए, लियइ लखमीरउ लाह ।। ११ ॥ फली० । दूहा:-करि उच्छव रलियामणउ, पुत्र तणउ मुख जोय । __ श्री खेतसी नामउ दियड, दीठां दउलति होय ।। १ ।। सहको लोक इसउ कहइ, सयणां तणइ समक्ख (क्ष )। _ 'धरमसी' साह प्रतई हूयउ, परमेसर परतक्ख ।। २ ॥ कुलदीपक सुत जनमियउ, करिस्यइ कुल उद्धार । इणि नन्दन जाया पछइ, उदय हुअउ संसार ॥ ३॥ 2010_05 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aamanarwww raamanaananarrrrram श्रीजिनराजसूरि रास वखत बलई इम जाणियइ, शास्त्र तणइ बलि न्याय । सहको राणा राजवी, पडिस्यइ एहनइ पाय ॥ ४ ॥ पगे पदम झलकइ भलउ, लखण अंगि बत्रीस । ___कइ गढपति कइ गच्छपति' हुइस्यइ विश्वावीस !! ५ ।। ढाल ५-सुगुण सनेही मेरे लाला । इण जाति । बीज तणउ जिम बाधइ चन्द, तिम बाधइ 'धारलदे' नन्द । मात पिता उमहइ आणंद, देवलोक नउ जिम माकन्द ॥२॥ माता सुत नइ ले धवरावइ, बेटा-बेटा कहिय बुलावइ । उन्हउ नीर लेइ न्हवरावइ, इम माता मनि आणंद पावइ ॥२॥ आउ मेरा नन्दन गोदि खिलावू, बंगू लटु तुंनइ अणावू । ___केलवि काजल घालइ अखियां, खोलइ ले खेलावइ सखियां ॥३॥ कांनि अडगनिया पाइ पन्हइयां, घमकइ पगि घूघरियां वनियां । चंदलउ करि वागउ पहिरावइ, सिरिकसबीकी पाग बनावइ ॥४॥ कइयई माता कंठइ लागई, कइयइ लोटइ माता आगई। कइयइ घडा ना पाणी डोहइ, कइयइ हसि माता मन मोहइ ।।५।। कइयइ दूधनी दोहणी ढोलइ, कइयइ हीचइ चढि हीडोलइ । कइयइ झालइ माखण तरतउ, कइयइ छिपइ माता थी डरतउ॥६॥ कइयइ मा नउ कंचूअउ ताणइ, कइयइ कांधइ चढिय पलाणइ । कइयइ हसि मा साम्हउ जोवइ, कइयइं रूसण मांडी रोवइ ॥णा देखी कुंवर कहइ इम माता, इणि सुत दीठां थायइ साता। मति को पापी नजरि लगावइ, गुली कांठिलउ गलइ बंधावइ ।।८॥ माऊ २ कहतउ पासइ आवइ, कांइ पूत मां एम बुलावइ । प्रेम नजरि माँ साम्ही मेलइ, दूध मांहि जाणे साकर भेलइ ॥४॥ 2010_05 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मणमणा बोलइ बोल अमोल, पहिरयउ वागो रातउ चोल । अंगि शृङ्गार करावइ सोल, माता सूइम करइ रंगरोल ॥१०॥ फेरइ चकरडी माता प्रेरइ, बालूडा बलिहारी तेरइ । बंगू लट्ट फेरइ चंगा, हाथइ गोटा ल्यइ पंचरंगा ॥११॥ उंचउ उपाडइ ले बांहडियां, माता कहइ आउ मेरा नान्हडियां । हाथे घालइ सोवन कडियां, गूंथी द्यइ फलनी दडियां ॥१२॥ मइ सोलही पासा सारई, रमइ पंचेटे विविध प्रकारइ । बीजा बालक सहको हारइ, जीपइ कुमर भाग्य अणुसारइ ॥१३।। इम उच्छव सुं नव-नव केलइ, 'धारलदे' रउ धोटउ खेलइ । रूपइ मयण तणउ अवतार, सात वरस नउ थयउ कुमार ॥१४॥ बुद्धई वीजउ वयर (अभय?) कुमार, आवइ सहु सुणियउ इक वार । मात पिता चिंतइ उल्हासइ, कुमर भणावउ पंडित पासइ ॥१५॥ दूहा:-पुत्र भणइवा मांडियइ, पण्डित गुरुनइ पाय। विद्याआवी तेहनइ, सरसति मात पसाय ।। १॥ भली परइ आवी भले, सिद्धो अनइ समान । "चाणाइक" आवइ भला, नीतिशास्त्र असमान ॥२॥ तेह कला कोइ नहीं, शास्त्र नहीं वलि तेह । विद्या ते दीसइ नहीं, कुमर नइ नावइ जेह ॥ ३ ॥ कला 'बहुत्तरि' पुरषनी, जाणइ राग 'छतीस' । कला देखि सहु को कहइ, जीवो कोडिवरीस ॥४॥ "षड़ भाषा" भाषइ भली, “चवदह विद्या" लाध । लिखइ 'अठारह लिपी' सदा, सिगले गुणे अगाध ।। ५॥ 2010_05 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रीजिनराज सूरि रास ढाल संधिनी छटो-पणमिय पास जिणेसर केरा। इणजाति। कुमर हिवइ जोवन वय आयउ, दिन दिन दिपइ तेज सवायउ । गरुअउ यश तिहुभवणे गायउ, धन धन ,धारलदे' उ(द)र जायउ ।।१।। सूरिज जिम तेजइ करि सोहइ, मेह तणी परि महियल मोहइ। 'क्रिसण' तणो पर सूर सदाइ, दानइ 'करण' थकी अधिकाइ ॥२॥ रूपइ 'मनमथ नउ मद गाल्यउ, काम क्रोध विषयारस टाल्यउ ॥३॥ सायर जिम सोहइ गंभीर, मेरु महीधर नी परि धीर । कल्पवृक्ष जिम इच्छा पूरइ, चिंतामणी जिम चिंता चूरइ ॥४॥ 'विक्रमादित्य' जिसउ उपगारी, अहनिसि सेवक नइ सुखकारी । पांच 'पंडव' जिम बलवंत, सीह तणी परि साहसवंत ।।५।। नयन कमल नी परि अणियाली, सोहइ अधर जाणइ परवाली। करइ हाथ सुं लटका मटका, बोलइ वचन अमी रा गटका ।।६।। काया सोहइ कंचण वरणी, सोहइ हाथे सखर समरणी। लखतवंतो मोहण बेलि, हंस हरावइ गजगेतिगेली ॥णा मस्तक सुंदर तिलक विराजइ, दरसण दीठा भावठि भाजइ । पहिरइ नित २ नवरं वागउ, तेगदार मांहे अधिकउ तागउ ॥८॥ रायराणा सहुको द्यइ मान, धरमध्यान करिवा सावधान । न करइ परनिन्दा परघात, केहा केहा कहूं अवदात ॥६॥ देखि दिन दिन अधिक प्रतापइं, वाकां वयरी थरथर कांपइ। महीयलि सिगले बोलइ पूरउ, इणपरि विचरइ कुमर सनूरउ ॥१०॥ हिव इणि अवसर श्री 'बीकाणई', 'अकवर' जेहनइ आप वखाणइ । खरतरगच्छ मांहे प्रबल पडूर, आव्या गुरु 'श्रीजिनसिंह'सूर।।११।। 2010_05 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सुविहत साधु तणइ परिवारई, दे उपदेश भविक निस्तारई । विचरइ महियल उप विहारइ, आप तरइ लोकां नइ तारइ ॥१२॥ हुवइ सबल तिहां पइसारइ, जिनशासनि रो वान बधारइ । कलिकालइ गौतम अवतारइ, पूजजी 'बीकानयर' पधारइ ॥१३॥ हरखित हुआ सहूको लोक, जिम रवि दंसणि थायइ कोक । बड़ा बड़ा श्रावक सुणइ अशेष, पूजजी एहवउ द्यइ उपदेश ॥१४॥ दोहा :-ए सायर गाजइ भलउ, अथवा गाजइ मेह । वाणी सांभलतां थकां, एहवउ थयउ संदेह ॥१॥ पोषइ 'नव रस' परगड़ा, करइ 'राग छतीस' । ___ सरस वखाण सुणी करो, सह को धइ आसीस ॥२॥ ढाल सातमी :-मेघमुनि कांइ डमडोलइरे । इणजाति । सहको श्रावक सांभलइजी, लोक सुणइ लख गान । “खेतसी" कुमर पधारियाजी, इणपरि सुणइ वखाण ॥१॥ भविकजन धरम सखाइ रे, जीवनइ सुखदाइ रे । कीजइ चित्त लाइ रे, भविकजन धरम सखाइ रे ॥आँकणी०॥ सदगुरुनी संगति लहीजी, लाधौ आरिज खेत । मानव भव लाधउ भलउजी, चेत सकइ तउ चेत ॥२॥ भविक०॥ इण जगि सरव अश्वाशतउजी, हीयइ बिचारी जोय । इम जांणिरे प्राणियाजी, ममता मां करउ कोय ॥३॥भविक०॥ माया मोह्या मानवीजी, धन संचइ दिन राति । वयरी जम पूठइ वहइंजी, जीव न जाणइ घात ॥४॥भविक०॥ दश दृष्टंते दोहिलउजी, लाधउ नर भव सार । तिहां पणि पुण्यइ पामियईजी, उत्तम कुल अवतार ॥५||भविक०॥ 2010_05 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनराज सूरि रास १६१ बत्रीस लाख विमान नउ जी, साहिब छइ जे इन्द्र । ते पणि श्रावक कुल सदा, वंछइ धरि आणंद ॥६॥भविक०॥ वरजीजइ श्रावक कुलईजी, अनंतकाय बत्रीस । मधु माखण वरजइ सदाजी, तिम अभक्ष बावीस ॥णाभविक०। सामायिक ले टालयइजी, त्रीस अनइ दुइ दोष । __ परनिंदा नवि कीजियइजी, मन धरियइ संतोष ॥८||भविक०॥ इक दिन दिक्षा पालीयइजी, आणी भाव प्रधान । तउ सिवपुर ना सुख लहइजी, निश्चय देव विमान पामविक०॥ इणि जगि सरब अशाश्वतोजी, स्वारथ नउ सहु कोय । निज स्वारथ अणपूजतइजी, सुत फिरी वयरी होय ॥१०॥भविक०॥ चिंतामणी सुरतरू समउजी, जिनवर भाषित धर्म । __ जउ मन शुद्धई कीजियइजी, तउ त्रूटइ सही कर्म ॥११॥भविक०॥ दोहा:-खेतसी कुमरई संभल्यउ, जिनसिंह सूरि बखाण । वाणी मनमांहे वसी, मिठ्ठो अमिय समाण ॥१॥ करजोड़ी एहवउ कहइ, आणि हरख अपार । तुम्ह उपदेशइ जाणियउ, मइ संसार असार ॥२॥ तिणि कारण मुझनइ हिवइ, दीजइ संजमभार । ___ कृपा करि मो उपरइ, इणि भविथी निस्तार ॥३॥ वलतउ गुरु इणि परि कहइ, मकरउ ए प्रतिबंध । मात पिता पूछउ जइ, करउ धरम सम्बन्ध ॥४॥ ढाल आठमी:-मांहके देह रंगीली चूनरी–इणजाति । अहो गुरु वांदी नइ उठियउ, आव्यउ माता नइ पास हो। • कर जोडिनइ इणि परि कहइ, आणी मन मांहि उलास हो ॥१॥ 2010_05 | Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मोनइ अनुमति दीजइ. मातजी, हुं लेइस संजमभार हो । जगि स्वारथ नउ सहु को सगउ, मिलीयोछइ ए परिवार हो॥२॥मो०॥ सहगुरु नी देसण सुणी, मन मांहि धरी अनुराग हो। हिव इणिभवथी मन उभगउ, मुझ नइ आव्यउ. वयरागहो ॥३॥मो०॥ अहो देस विदेश फिरी करी, खाटीजइ परिघल आथि हो। पणि परलोकइ जातां थकां, तो नावइ प्राणी साथि हो ॥४॥मो०॥ अहो इणभवि परभवि जीवनइ, सुख कारण श्रीजिनधर्म हो। जिणथी सुख सम्पति सम्पजइ, कीजइ तेहिज कर्म हो ॥५॥मो। अहो डाभ अणि-जल जेहवउ, जेहवउ चञ्चल नय (हय?) वेग हो । माता अथिर तिसउ ए आउखउ, आण्यउ इम जाणि संवेग हो॥६॥मो। अहो इणि जगि को केहनउ नहीं, परिजन नइ वलि परिवार हो । भगवन्तरउ भाख्यउ जीवनइ, इक धर्म अछइ आधार हो ॥णामो०॥ अहो जीव तणइ पूठइ वहइ, सर सान्ध्यइ बयरी काल हो । तिण कारण करसुं मातजी, पाणी आव्या पहलइ पाल हो ॥८॥ मो०॥ अहो ए सुख भोगवतां छतां, दुख थाय पछइ असमान हो। ते सोनउ केथउ कीजियइ, जे पहिरयउ तोडइ कान हो ॥६॥ मो०। अहो जेह बडा सुखिया अछइ, वलि हुस्यइ सुखिया जेह हो । ते सहु को पुण्य पसाउलइ, इहां कोई नहीं सन्देह हो ।।१०।। मो० । भेदाणी धरमइ करी, माता मुझ साते धात हो। मुनिवर नउ मारग मांहरइ, हियडइ वसियउ दिनरात हो ॥११ मो० । दोहा :-पुत्र वयण इम सम्भली, संजम मति सुविशाल । मुर्छाङ्गत माता थइ, पड़ी धरणी तत्काल ।।१।। 2010_05 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm श्रीजिनराज सूरि रास गंगोदक सुं छांटिनइ, बींझ्या शीतल वाय । सावधान हुइ तदा, इणि परि जम्पइ माय ॥२॥ तुं नान्हडियउ माहरइ, तुं मुझ जीवनप्राण । एक घड़ी पिण दिन समी, तोरइ विरह सुजाण ।। ३ ।। तुं सुकमाल सोहामण3, दोहिलउ संजम भार । बोल विचारी बोलियइ, संजम दुक्करकार ॥ ४ ॥ तन धन यौवन लही करी, विलसउ नवनव भोग । वलि वलि लहतां दोहिला, एहवा भोग संजोग ।।५।। वेलि (९):-लही एहवा भोज संजोग, विलसीजइ नवनवभोग । तुं “वोहिथरा" कुल दीवउ, तिणि कोडि वरस चिरजीवउ ॥१॥ सुत तुं सुकमाल सदाइ, तुं सिगलानइ सुखदाइ । जिणवर भासित ले दोक्षा, तुं किणी परि मांगिसी भिक्षा ॥२॥ तु पंडित चतुर सुजाण, तुं बोलइ अमृत-वाणि । तुज गुण गावइ सहु कोइ, तुज सरिखउ पुरिस न कोइ ॥३॥ दोहा :-सांमलतां पिण दोहिली, सुत संजमनी बात । श्रावक धरम समाचरउ, तुं सुकमाल सुगात ॥ १।। वेलिं:-सुत तुं सुकमाल सुगात, मत कहिजो संजम बात । इणि गरुअइ संजम भारइ, विचरेवउ खइडां धारइ ॥१॥ बहुला मुनिवर आगेइ, चूका छइ चारित लेइ ।। तिणी बात इसी मत कहिजो, डोकरपणि चारित लेज्यो ।।२।। इणि जोवनवय तु आयउ, तुं नन्दन पुण्यइ पायउ । घणा दुखित दीन सधारउ, 'बोहिथ कुल' वान वधारउ ॥३॥ 2010_05 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह दोहा :-वचन एहवउ सांभलि, इणि परि कहइ कुमार। ___ कायर कापुरिसां भणी, दुहिलउ संजम भार ॥ १॥ वेलि:-माता दुहिलउ संजम भार, जे कायर हवइ नर-नारि - जो सूर वीर सरदार, तिणनइ स्यु दुक्करकार ।। १ ।। गाथा:-ता(उ)तूं गोमेरुगिरी,मयरहरो(सायरो)तावहोइदुत्तारो। ता विसमा कजगइ, जाव न धीरा पवज्जति ॥ १॥ वेलि:-जे कुल ना जाया होवइ, ते कुलवटि साम्हउ जोवइ ।' तिण कारण ढील न कीजइ, माताजी अनुमति दीजइ ॥२॥ दोहा:-संजम उपर जाणियउ, सुत नउ निवड सनेह ।। हिव जिम जांणो तिम करउ, दोधी अनुमति एह ॥ १॥ वेलि :--हिव दीधी अनुमति एह, संयम सुं निवड सनेह ।। दिक्षा नउ उच्छव कीजइ, मुंह मांग्या धन खरचीजइ ।।१।। धरि रङ्ग 'धरमसी' शाह, इम उच्छव करइ उच्छाह । धरि मंगल वाजिन वाजइ, तिणि नादइ अम्बर गाजइ ॥२॥ बाजइ भुंगल नइ भेरी, बाजइ नवरंग नफेरी । ___ बाजइ ढोल दमामा ताली, गुण गावइ अबलाबाली ॥३॥ बाजइ सुन्दर सरणाइ, सुणतां श्रवणे सुखदाइ । बाजइ झलरि ना झणकार, पड़इ मादल ना दोंकार ॥४॥ बाजइ राय गिडगिडी रंग, विध विध बाजइ मुख चंग। गन्धर्व बजावइ वीणा, सुणइ लोक सहु तिहां लीणा ||५|| बाजइ त्रिवली ताल कंसाल, गीत गावइ बाल-गोपाल - आलापइ राग छत्तीस, इम उच्छ (व) थाय जगीस ।।६।। 2010_05 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनराज सूरि रास १६५ दोहा :-उष्णोदक सुं कुमर नइ, भलउ करायउ स्नान । अङ्गि शृङ्गार कीया सहु, वणियउ वेष प्रधान ॥१॥ वेलि:-हिव वणियउ वेश प्रधान, गंगोदक सुं कीया स्नांन । मोतीयडे कुमर बधायउ, आभरणे अंग बणायउ ।। १ ॥ मस्तकि भलउ मुकुट विराजइ, दोइ कानइ कुण्डल छाजइ । बिहुं बांहे बहरखा खंध, करि सोहइ बाजूबन्ध ।।२।। उर वर मोतिन कउ हार, पाइ घुघरिया घमकार अश्व उपरि थयउ असवार, याचक करइ जयजयकार ॥३॥ ताजां नेजां गयणइ सोहइ, वरनोलइ इम मनमोहइ। ........."||४|| दोहा:-हिव गुरु पासइ आवियइ, मिलीया माणस थाट। कुमर तणउ जस उचरइ, 'चारण' 'भोजिग' 'भाट' ।।१।। वेलि:-हिव 'चारण' 'भोजिगभाट',"धरमसी'शाह करइ गहगाट "खेतसी" गुरु पायइ लागइ, गुरु वांदी बइठउ आगइ ॥१॥ इम पभणइ “धरमसी” शाह, ए कुमर बडउ गज गाह । पूजजी हिव कृपा करोजइ, ए माहरि थापण लीजइ ॥२॥ हिव कुमर सुणे बालूड़ा, ले दिक्षा चलिजे रूड़ा। गुरुजीनो कह्यो करेजो, सूधउ संजम. पालेजो॥ ३ ॥ जिम दीपइ 'बोहिथ' वंश, तिम करिजो सुत अवतंश। क्रोधादिक वयरी दाटे, महियली बहुलउ जस खाटे ॥ ४ ॥ तुजनइ किसी सीख सीखांवा, स्युं दांत नइ जीभ भलावां । जिम सहुको कहइ धन धन्न, तिम करिज्यो पुत्र रतन्न ॥५॥ 2010_05 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Muv १६६ एतिहासिक जैन काव्य-संग्रह दोहा :-सोलहसय छपन्न' मई, संवछर सुखकार। 'मिगसर सुदी तेरसि' दीनइ, लोधउ संजम भार ॥१॥ माणक मोती माल सहु, हय गय रथ परिवार । छंडी संजम आदर्यो, जाण्यो अथिर संसार ॥२॥ दे दिक्षा नामउ कीयउ, 'राजसिंह' अणगार । हिव 'श्रीजिनसिंहसूरि' गुरु, करइ अनेथ विहार ॥३॥ वेलि:-हिब करइ अनेथ विहार, 'राजसिंह' हुओ अणगार । लीधर पंच महाव्रत भार, षट जीव नउ राखणहार ॥१॥ पंच सुमति भली परि पालइ, विषयारस दूरई टालइ । काइ धरम दश परकारइ, पाटोधर वान वधारइ ॥२॥ ग्रणा सेवन दुइ शिक्षा, सीखी संजम नी रिक्षा। मंडलि तप वहा जाणि, 'श्रीजिनचन्दसूरि' विनाणी ॥३॥ दीधी दीक्षा बड़इ विरुद, नामउ दीयउ 'राजसमुद्र' । हिव शास्त्र भण्यां असमान, ते गिणतां नावइ गान ॥४॥ उपधान बूहा मन रंग, 'उत्तराध्यन' नइ 'आचारंग' । तप कलप तणउ आरुहउ, छम्मासी तप पिण बहउ ॥५॥ वयसई बहु पंडित आगइ, लुलि लुलि सहि पाये लागइ । इम लोक कहइ गुणरागी, जयउ 'राजसमुद्र' सउभागी ॥६॥ दोहा :-आवइ 'आठे व्याकरण' 'अट्ठारह-नाममाल' । 'छए-तर्क' भणिआ भला, 'राग छत्रीस' रसाल ॥१॥ भलइ मेली भणिया वलि, 'आगम पैंतालीस' ।। सईमुख श्री 'जिनसिंह' गुरु, सीखि दीयइ निशदीस ||२|| 2010_05 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनराज सूरि रास . . १६७ महियलि वादि बड बड़ा, ताता (तां लग?) गरब वहति । जां लगि 'राजसमुद्र' गणि, गरुआ नवि बुल्लति ॥ ३ ॥ मोटइ मुनिवर महियलइ, 'राजसमुद्र' अणगार । जे जे विद्या जोइयइ, तिणि नहु लाभइ पार ॥ ४ ॥ 'वाचनाचारिज' पद दीयउ, 'श्रीजिनचंद्र सूरिंद' । पाटोधर प्रतिपउ सदा, रलिय रंग आणंद ।। ५॥ वड वखती सुप्रसन्न वदन, जाग्यो पुण्य अंकूर । परतखी देवी 'अम्बिका', हुइ हाजरा हजूर ॥ ६ ॥ परतखि परतउ दिठ ए, 'अम्बा' नइ आधार । लिपि बांची 'घंघाणीयइ', जाणइ सह संसार ।। ७ ।। 'जेसलमेरु' दुरंग गढ़ि, राउल 'भीम' हजूर । __ वादई 'तपा' हराविया, विद्या प्रबल पडूर ॥ ८॥ इम अनेक विद्या बलइ, खाटया बडा बिरुद्द । विद्यावंत बडउ जतो, सोहइ 'राजसमुद्र' ॥६॥ ढाल दसमी-उलाला जाति । हिव श्री शाहि 'सलेम', 'मानसिंघ' सूधरि प्रेम । .... वड वडा साहस धीर, मूंकइ अपणा वजीर ॥ १॥ तुम्ह 'वीकाणइ' जावउ, 'मानसिंघजो' • बुलावउ । इक बेर 'मानसिंघ' आवइ, तउ मुझ मन (अति) सुख पावइ ॥ २ ॥ ते 'वीकाणइ' आया, प्रणमइ 'मानसिंघ' पाया। दीधा मन महिराण, 'पतिसाही-फुरमाण' ॥३॥ 2010_05 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह मिलियड संघ सुजाण, वाच्या ते फुरमाण । तेडावा (या ? ) 'पतिसाह', सहु को धरइ उच्छाह ॥ ४ ॥ हिव श्री 'जिनसिंघ सूर', साहसवंत सनूर । चिंतइ एम उल्हासइ, जाइवउ 'पति साह' पासइ || ५ || 'बीकानेर' थी चलिया, मनह मनोरथ फलिया । साधु तणइ परिवारइ, 'मेडतइ' नयरि पधारइ ॥ ६ ॥ श्रावक लोक प्रधान, उच्छव हुआ असमान । श्री गच्छनायक आयउ, सिगले आनंद पायउ || ७ | तिहां रह्या मास एक दिन २ घधतइ विवेक । चलिवा उद्यम कीधउ, 'एक - पयाणउ' दीधउ ॥ ८ ॥ काल धरम तिहां भेटइ, लिखत लेख कुण मेटइ | 'श्री जिनसिंघ' गुरुराया, पाछा 'मेडतइ' आया ॥ ६ ॥ सई मुखि लीधड संथारउ, कीधउ सफल जमारो । शुद्ध मनइ गहगहता, 'पहिलइ देवलोक' पहुता ॥ १० ॥ संवत 'सोल चित्तरइ', 'पोषसुदि 'तेरस' वरतइ । सोग करइ सहि लोक, पूज पहुंता परलोक ॥। ११ ॥ हिव देही संसकार, कीधउ लोक आचार । बीजइ दिन धरि प्रेम, लोक विमासइ एम ।। १२ ।। आगम गुणे अगाध, मिलीया बड बड़ा साध । संघ मिल्यउ गजथाट, कुणनइ दीजियइ पाट ॥ १३ ॥ तब बोल्या सही लोग, 'राजसमुद्र' पाट जोग । दीजइ एहनइ पाट, जिम थायइ गहगाट ।। १४ ।। 2010_05 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनराज सूरि रास १६६ 'चवदह विद्या' निधान, मुनिवर मांहि प्रधान । एह हवइ गच्छइसर, तउ तूठउ परमेसर ॥ १५ ।। सायर जेम गंभीर, मेरु महीधर धीर । दीठां दालिद जायइ, वांद्या नवनिधि थायइ ।। १६ ।। 'राजसमुद्र' हवइ राजा, 'सिद्धसेन' हवइ युवराजा । तउ खरतरगच्छ सोहइ, संघ तणा मन मोहइ ।। १७ ।। दोहा-इम आलोच करि हिवइ, उठइ श्रीसंघ जाम । 'आसकरण' आवइ तिसइ, 'संघवी' पद अभिराम ॥ १॥ कुलदीपक श्री 'चोपड़ा', बड़ जेहइ विस्तार । लखमी रो लाहउ लीयइ, संघ माहे सिरदार ॥२॥ श्री संघ आगलि इम कहइ, ए मोरी अरदास । 'पद ठवणो' करिवा तणउ, यो आदेश उलास ॥३॥ इम अनुमति ले संघनी, धरइ चित्त उच्छरंग। पद ठवणउ संघवी करइ, आणी उलट अंग ॥ ४॥ संवत 'सोलचिहुत्तरई', सोमवार सिरताज । 'फागुणसुदि' 'सातम' दिनइ, थाप्या श्री जिनराज ।।५।। भट्टारक सोहइ भलउ, 'श्री जिनराज सूरिंद' । प्रतिपउ तालगि महियलइ, जां लगिध्र रवि चंद ॥६॥ सईहथ 'श्री जिनराज' गुरु, थाप्या प्रबल पडूर । आचारिज चढ़ती कला, 'श्री जिनसागरसूरि' ॥ ७ ॥ सूरिज जिम सोहइ सदा, 'श्री जि(न?)राज सुरिंद। श्री 'जिनसागर' सूरि गुरु, प्रतपइ पूनिम चंद ॥ ८ ॥ 2010_05 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह हिव श्री 'जिनराज सूरिश्वरु', महियल करइ विहार । थायइ उच्छव अति घणा, वरत्यउ जय जयकार ॥६॥ 'जेसलमेर' दुरंग गढ़ि, 'सहसफणउ-श्रीपास' । थाप्यउ श्री जिनराज गुरु, समर्या पूरइ आस ॥ १०॥ श्री 'विमलाचल' उपग्इ, जे आठमउ उद्धार । कीधी तेहनी थापना, जाणइ सहु संसार ।। ११ ॥ परतिख पास 'अमीझरउ' थाप्यउ 'भाणवट' मांहि । इम अवदात किला कहू, मोटउ गुरु गजगाह ॥ १२ ॥ परतिख देवी 'अम्बिका', परतिखि 'बावन बीर' । 'पंचनदी' साधी जिणइ, साध्या 'पांच पीर' ॥ १३ ॥ श्री खरतरगच्छ सेहरउ, महियलि सुजस प्रधान । प्रतपइ श्री 'जिनराज' गुरु, दिन २ बधतइ वान ॥ १४ ॥ ढाल इग्यारहमी-आयो आयउरी समरंता दादा आयउ । गायउ गायउरी जिनराजसूरि गुरु गायउ । 'श्री जिनसिंह सूरि' पाटोधर, प्रतपइ तेज सवायउरी ।जि०१आ० पूरब पश्चिम दक्षिण उत्तर, चिहुं दिसी सुजस सुहायउ । रंगी रंगीली छयल छबीली, मोती (य) वेगि बधायउरी ॥२॥जि०।। धन धन 'धर्मसी' शाह नो नंदन, धन 'धारलदे' जायउ । तू साहिब मैं तेरउसेवक, तुझ चल(र?)णे चित्त लायउरी जि०। 'सिंधु' देल विहार करोनइ, 'पांच पोर' वर ल्यायउ। उदय हवइ तिणि देसइ अधिकउ, जिणि दिशि पूज गवायउरी ।४।जि। श्री 'ठाणांग' नी वृति करिनइ, विषमउ अरथ बतायउ । सूरि मंत्रधारी परउपगारी, इंदु नउ बीजउ भायउरी ॥५॥जिन॥ 2010_05 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि रास सह को श्रावक रंजी 'नव खंड', निज नामउ वरतायउ । विद्यावंत बडउ गच्छ नायक, सहको पाय लगायंउरी || ६ || जिन० || सोहइ शहर सदा 'सेत्रावर ' 'मरुधर' मांहि मल्हायउ | संवत 'सोल इक्यासी', वरसइ, एह प्रबंध बणायउरी || ७ || जिन० ॥ 'आसाढ़ा बदि तेरसि' दिवसइ, सुरगुरु वार कहायउ ! श्री गच्छनायक गुण गावतां, 'मेह पिण सबलउ आयउ 'री ||८|| जि०|| 'रत्नहर्ष' वाचक मन मोहइ, 'खेम' वंश दीपायल । 'हेमकीर्ति' मुनिवर मन हरषइ, एह प्रबंध करायउरी || || जिन० ॥ श्री 'जिनराजसूरि' गुरु सुरतरु, मह निज चित्ति बसायउ । मुनि "श्रीसार" साहिब सुखदाइ, मनवांछित फल पायडरी || १० | जि० । इति श्री खरतरगच्छाधिराज सकल साधुसमाज वृंद वंदित पादपद्म निछद्म सदनेक मंगलसद्म श्री जिनराजसूरि सूरिश्वराणां प्रबंध शुभ बंध बंधुरतरो लिखितोयं श्री कालू ग्रामे || शुभं भूयात् पठक पाठकना मराठमनसां ॥ श्राविका पुण्यप्रभाविका धारां पठनार्थ ॥ श्री प्रथम दूहा २१, प्रथम ढाल गाथा १६ दूहा ५, बीजी ढाल गाथा १२ दूहा, ५ तोजी ढाल गाः १६ दुहा ३, चौथी ढालगा: ११ हा ५, पांचमी ढाल गाथा १५ दूहा ५, छठ्ठी ढाल गाथा १४ दूहा २, सप्तमी ढाल गाथा ११ दूहा ४, आठमी ढाल गाथा ११ दूहा ५, नवमी ढाल गाथा ३७ दूहा ६, दशमी ढालगाथा १७ दूहा १४, इगारमी ढालगाथा १० सर्व गाथा २५४, सर्व श्लोक ३२४ सर्व ढाल ११, (पत्र २ से ६, प्रत्येक पत्र में १५ लाइनें सुन्दर अक्षर, ज्ञानभंडार, दानसागर बंडल नं० १३ तत्कालीन लि० ) क 2010_05 १७१ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह ॥ श्री जिनराज सरि गीतम् ॥ 'श्री जिनराज सूरीश्वर' गच्छ धणी, धुरि साधु नउ परिवार । ग्रामानुग्रामइ विहरता सखि, वरसता हे देसण जल धार ।।१।। कइयइ सुगुरु पधा रिस्यइजी, इण नयरइ हे सखि पुण्य पडूर । सूहवि मोती बधारि (वि?) स्ये जी ।। आं॥ जेहनइ वंसइ बड़बड़ा, गच्छपति हुआ निरदोष । देवता जिहनी साखि सखि, तिण मुं हे कुण करइ मन रोष ॥२॥ 'श्री अभयदेवसूरि' जिहां हुआ, सखि नव अंग विवरणकार । चउसठि योगिणी जिण जीतली, 'जिनदत्तसूरि' हे जिहां सुखकार ॥३॥ जेहनी महिमा नउ नहीं सखि, पार एह निहाल । “श्री जिनकुशल सूरीश्वरु' सखि, दीपइ हे इणि जगि चउसाल ॥४॥क० पतिशाहि अकबर बूझब्यउ, जिणि अमृत वाणि सुणावि । "श्रीजिनचन्द्रसूरीश्वर' हुअउ सखि, इणि गच्छि हे जग अधिक प्रभाव ॥५॥क० 'लाहोरि' दीधी जेहनइ, गुण देखि आप हजूर । श्रीयुगप्रधान पदवी भली सखि, छानउ हे रहे किम जगि सूर ॥६॥ क० तेहनइ पाटइ प्रगटियउ सखि, 'श्री जिनसिंहसुरिन्द' । तसु पाटि परतखि थप्पियउ सखि, ए गुरु सोहगनउ कन्द ॥७॥ क० निर्मलइ वंश(इ) ऊपनउ, वजू स्वामि शाखि शृङ्गार । श्री'गुणविनय' सद्गुरु इसउ सखि, चाहिवा हे मुझ हर्ष अपाराक० 2010_05 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ श्रीजिनराज सूरि सवैया (२) श्री जिनराजसूरि सवैया। 'जिनदत्त' (सूर) अर 'कुशल' सूरि मुनिंद बंछित दायक जाकुं हाजरा हजूर जु । चारित पात (विख्यात) जीते (है) मोह मिथ्यात और जो अशुभ कर्म किये जिन दूर जु 'जिणसिंघ सूर' पाट सोहै मुनिवर थाट भणत सुजाण राय विद्या भरपूर जु । नछत्तन (नक्षत्र?) मांझ जैसे राजत निछतपति, सूरिन मैं राजे ऐसे 'जिनराज सूर' जु ॥१॥ जैसे बीच वारण(?)के गंगके तरंग मानो, कोट सुखदायक भविक सुख साजकी। गगन अना..."नकी ब्रह्म वेद विचरत । सब रस सरस सबल रीझ काजकी। गाजत गंभोर अ (घ?) न धार सुध खीर बंद, श्रवण सुणत धुन (ध्वनि?) ऐन मेघ गाज की। 'जिनसिंध सूर' पाट विधना सो घड़ी (य) घाट, __ अमृत प्रवाह वांनी(णी?) सूर 'जिनराज' की ।२। 'साहिजहां' पातिशाह प्रबल प्रताप जाको, अति ही करूर नूर को न सरदाखी (?)है। 'असी चउ गछ' सब थहराये जाके भय, ऐसो जोर चकतौ हुवौ न कोउ भाखी है। 2010_05 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह श्रीय 'जिनसिंघ' पाट मिल्येउ साहि सनमुख, ___ 'धरमसी' नंदन सकल जग साखी है। कहै 'कविदास' षट्दरशन उबारै, शासनकी टेक 'जिणराज सूरि' राखी है ।३। 'आग' तखत आये सबहीके मन भाये, विविध वधाये संघ सकल उछाह कुं। राजा 'गजसंघ' 'सूरसंघ' 'असरपखान', 'आलम' 'दीवान' सदा सुगुरु सराह कुं। कहै 'कविदास' जिणसिंघ पाट सूर तेज, अगम सुगम कीने शासन सुठाह कुं । 'मिगसर बहु (वदि?)चोथ' 'रविवार' शुभ दिन, मिले 'जिनराज' 'शाहिजहां' पतिशाह कुं।४। - - ॥ श्री गच्छाधीश जिनराजसूरि गुरु गीतम् ॥ (३)॥ ढाल अलबेल्यानी जाति माहे ॥ --***--- आज सफल सुरतरु फल्यउ रे लाल, आज सफल थयउ दीस । सुखदाइ गच्छ-नायक भेट्यो भलेरे लाल, 'श्रोजिनराज सूरीश' ॥शासु. सोभागी सवि सूरि मई लाल, समता लीन शरीर । सु०। दिनकर नी परि दोपतउ रे लाल, धरणीधर वर (परि?)धीर ।सु।।२।। तूठी जेहनइ 'अंबिका रे लाल, अविचल दोधो वाच । सु० । लिपि बांची 'घंघाणियई' रे लाल, सहुको मानइ साच सु०॥३॥सो०॥ 2010_05 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनराज सूरि रास १७५ राउल 'भीम' सभा भली रे लाल, 'जेसलमेर' मझार । सु० । परवादी जीता जियइ रे लाल, पाम्यउ जय-जयकार । सु०॥४॥सो० 'श्री जिनवल्लभ' सांभल्यउ रे लाल, कठिन क्रिया प्रतिपाल । सु० । इण जगि परतखि पेखियइ रे लाल, 'श्रीजिनराज'कृपाल ।सु०॥५॥सो० प्रतिपइ पुण्य पराक्रमइ रे लाल, मानइ सहुको आण । सु० । पिशुन थया सहु पाधरा रे लाल, दूरई तजि अभिमान ।सु०॥६॥सो० मईगल जिम गुरु माल्हतउ रे लाल, मोटा साथि मुणिंद । सु०। जन मन मोहइ चालतां रे लाल, पामइ परमाणंद । सु०॥णा सो०॥ क्रोध तज्यउ काया थकी रे लाल, दूरि कियउ अहङ्कार । सु०। मायानइ मानइ नहीं रे लाल, लोभ न चित्त लिगार । सु०॥८॥ सो०॥ श्री संघ सोभ बधारतउ रे लाल श्रीजिनराज मुनीश । सु०। प्रतिपउ गुरु महिमंडलइ रे लाल, 'सहजकीरति' आशीस ।सुहासो० ॥ इति श्री गच्छाधीश गुरु गीतम् ॥ (४)॥ ढाल, बहिनोनी जाति मांहि ॥ गच्छपति सदा गरुयड़ निलउ, पंच सुमति गुपति दयाल । सुविहित शिरोमणि साचिलउ, पंच महाव्रत पाल ।।१।। सद्गुरु वंदियइ, 'श्रीजिनगजसुरिन्द'। दरशन अधिकआगंद, जंगम सुरतरु कन्द ।। आंकणी संघपति शिरोमणि संघवी, श्री 'आमकरण' महन्त । पद उवणउ जिहनउ कियउ, खरची धन बहु भांति ।। २ ।। स०॥ 2010_05 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पहिरावियउ निज गच्छ सहुए, अधिकी करणी कीध । 'श्रीजिनसिंह' पटोधरु, जग मांहें अस लीध ॥ ३ ॥ स०॥ 'बोहित्थ' वंशइ वाधतउ, श्री 'धर्मशी' धन धन्न । 'धारलदे' धरणी परई, जायउ पुत्र रतन्न ॥४॥ स०॥ जसु देखि साधुपणउ भलउ, हरखि दियउ बहुमान । साबासि तुम्ह करणी भली, कहइ श्री 'मुकरबखान' ॥५॥स०॥ श्री संघ करइ बधामणा, जसु देखि करणी सार । ___ गुणवंत सगले ही लहै, पूजा विविध प्रकार ॥ ६॥ स०॥ जिण मांहि बहु गुण सूरिना, देखियइ प्रकट प्रमाण । वरणवो हुँ नवि सकू, जसु विद्या तणउ गान ॥ ७॥ स०|| श्री गच्छ खरतर चिरजयउ, जिहां एहवा गच्छराय । सीह अनइ वलि पाखर्यउ, कहु किम जीपणउ जाय ॥८॥ स०॥ जिहां लगे मेरु महीधरु, जिहां लगइ शशि दिनकार । __ प्रतिपउ तिहां लगि गच्छधणी, 'सहजकीरति' सुखकार स०॥ श्री जिनराजसूरि गुरु राजइ, सिरि जैन तणउ छत्र छाजइ । सद्गुरु प्रतपउ जी। दिन-दिन तेज सवायो, भविक लोक मनि भायउ॥ १॥ श्री०॥ गजगति गेलइ चालइ, पञ्च महाबत पालइ । स०। श्री॥ मुनिवर मुनि परवारइ, कुमति कदाग्रह वारइ ॥ २ ॥ साश्रीना श्रीजिनसिंह सूरि पाटइ, पूज्य सोहइ मुनि (वर)थाटइ ।स। श्री॥ महिमा मेरु समानइ, दिन-दिन चढ़तइ वानइ ।।३।। स० । श्री। 2010_05 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनराज सूरि रास 'धरमसी' शाह मल्हार, उरि 'धारलदे' अवतार । स० । श्री० रूपइ वइरकुमार, विद्या तणउ भण्डार ॥ ४॥ स० । श्री० वाद करी 'जेसाणइ', जस लीधउ सहुको जाणइ । स० श्री० पास वरइ जिण जाणी, लिपि बांची 'घंघाणी' ॥ ५॥ स०। श्री० बोलइ अमृत वाणी, सुरनर कइ मन भाणी । स० । श्री० । सुललित करिय वखाण, रीझविया रायराण ।। ६॥ स० । श्री० 'बोहित्थरा' वंसइ दीवउ, कोड़ि वरस चिरजीवउ ।।साश्री० जां लगि सूरज चन्द, 'आनन्द'प्रभु चिरनन्द ॥ ७ ॥ स० श्री० आवउजी माहरइ पूज इणि देसड़इरे, चीतारइ श्री 'करण' नरेश रे । चीतारइ नरनारि नरेश। मुझ मुख थी पंथीड़ा वीनवे रे, जाई जिण छइ पूज तिण देश रे ॥१॥ तीन प्रदिक्षण तू देइ करीरे, श्री जी रे तुं लागे पाय रे । वलि युवराजा 'रंगविजइ' भणी रे,इतरउ करिजे वीर पसाय रे।।२॥आ० जसु दरशनि दीठइ तन ऊलसइ रे,मेरु तणी पर पूजजी धीर रे । मिहर करि पूज माहरइ देसड़इ रे,आवउ पुहपां(?) केरा वीर रे ॥३॥ संवेग्यां मांहे सिर सेहरउ रे, कलि मइ गौतम नइ अवतार रे । जंगम तीरथ तारक जगतमई रे,जिण जीतउ वलि मदन विकाररे॥४॥ पूजजी जे किम मुझ नइ वीसरइ रे, जिणसुं धरम तणउ मुझ रागरे । ते गुरु वीसायी नवि वीसरइ रे, जेहनउ साचउ जस सोभाग रे ॥५॥ 'श्री जिनराजसूरीसर' गच्छ धणी रे, मानी मझनी ए अरदास रे । 'सुमतिविजय' कहि चतुर्विध संघनी रे पूजजी सफल करउ हिव आश ॥६॥ आ० --xxx-- १२ 2010_05 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि धर्मकोर्ति कृत # श्री जिनसागर सूरि रास दूहा:-श्री 'थंभणपुर' नउ धणी, पणमी पास जिणंद । श्री 'जिनसागर सूरि' ना, गुण गावं आणदि ॥ १॥ सरसति मति मुझ निरमली, आपउ करिय पसाय । आचारज गुण गांवतां, अविहड वर द्यो माय ।। २॥ वीर जिणिंद परम्परा, 'उद्योतन' 'वर्द्धमान' ।। सूरि 'जिणेश्वर' पाटवी, 'जिनचन्द्र' सूरि गुणजाण ॥३॥ 'अभयदेव' 'वलभ' गुरु, पाटइ श्री 'जिनदत्त' । 'जिनचंद सूरीसर' जयउ, सूरिसर 'जिनपत्ति' ।। ४ ।। 'जिणेसर सूरि' 'प्रबोध' गुरु, 'चंद्र सूरि' सिरताज । 'कुशलसूरि' गुरु भेटतां, आपइ लखमी राज ॥ ५॥ 'पदमसूरि' तेजइ अधिक, 'लबधि सूरि' 'जिनचंद'। पाटि 'जिनोदय' तसु पटइ, श्री 'जिनगज' मुणिंद ।।६।। 'जिनभद्र' श्री 'जिनचंद' पटि, 'जिनसमुद्र' 'जिनहंस' । नामइ नव निधि संपजइ, धन धन 'चोपड' वंश ॥ ७ ॥ मनवंछित सुख पुरवइ, 'माणिक सूरि' मुणिंद। 'रीहड' वंशइ गरजीयउ, युग प्रधान 'जिणचंद' ॥८॥ 2010_05 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनसागरसूरि रास १७६ श्री 'अकबर' प्रतिबोधीयो, वचने अमृत धार । श्री 'खरतर' गच्छराज नी, कीरति समुद्राँ पार ।। ६॥ 'युगप्रधान' पद आपीयो, 'अकबर' साहि सुजाण । निज हाथि श्री 'जिनसिंह' नइ, पदवो दीध प्रधान ॥१०॥ तिण अवसर बहु भाव सुं, देइ 'सवा कोडि' दान । 'वच्छावत' वित वावरइ, 'कर्मचंद' मंत्रि प्रधान ॥११॥ युगवर 'जंबू' जेहवउ, रूपइ 'वार-कुमार'। __ 'पंच नदी' साधी जिणइ, शुभ लगन शुभ वार ॥१२॥ संवत 'सोल गुणहत्तरई', बूझवि साहि 'सलेम' । 'जिनशासनि मुगतउ' कर्यो, 'खरतर' गच्छ मइ खेम ।१३। तासु पाटि 'जिनसिंह' गुरु, तासु शीस सिरताज । _ 'राजसमुद्र' 'सिद्धसेनजो', दरसणि सीझइ काज ॥१४॥ युगवर श्री 'जिनसिंह' नइ, पाटइ श्री 'जिनराज'। _ 'जिनसागरसूरि' पाटवी, आचारिज तसु काज ॥१५॥ कवण पिता कुण मात तसु, जनम नगर अभिहाण । कुण नगरइ पद थापना, 'धरमकीरति' कहइ वाणि ।।१६।। ढाल:- तिमरीरह 'जंबू' दीपह थाल समाण, 'लख जोयण जेहनो परिमाण । 'दक्षिण' 'भरतई' आरिज देस, 'मरुधरि' 'जंगलि' देस निवेस ॥१७॥ तिहां कणि राजइ 'रायसिंघ' राज, 'बीकानयर' वसइ शुभकाज । ठाम ठाम सोहइ हट सेरी, वाजिन वाजइ गावइ गोरी ॥१८॥ 2010_05 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह नगर मांहि बहुला व्यवहारी (व्यापारी), दानशील तप भावि उदारी। वसइ तिहां पुण्यइ बहु वित, साह 'वछा' नामइ थिर चित्त ॥१६॥ राग :-रामगिरी। दोहा-रयणी सोहइ चंद से, दिनकर सोहइ दीस । तिम 'वछा' 'बोहिथ' कुलइ, पूरउ मनह जगीस ॥२०॥ ___ ढाल:-पाछली तासु घरणि 'मिरगा दे' सती, रूपइ रंभा नु जीपति । 'चउसठि' कला तणी जे जाण, मुखि बोलइ सा अमृत वाणि ॥२१॥ प्रिय सुं प्रेम धरइ मनि घणउ, 'दसरथ' सुत जिम 'सीता' सुणउ । चंद्र चकोर मनइ जिम प्रीति, पालइ पतिव्रत धरम नी रीति ॥२२॥ पांचे इंद्री विषय संयोग, नित नित नवला वहुविध भोग । नव यौवन काया मद मची, इंद्र संघातइ जाणे सची ॥२३॥ रागः- आसावरी दहा-सुखभरि सूती सुंदरि, पेखि सुपन मध राति । ___ रगत चोल रत्नावली, प्रिउ नै कहइ ए बात ॥ २४ ॥ सुणी बचन निज नारि ना, मेघ घटा जिम मोर । हरख भणइ सुत ताहरइ, थासइ चतुर चकोर ।।२५।। हाल-आस फली माइडी मन मोरी, कूखइ कुमर निधान रे। ___ मनवंछित डोहलां सवि पूरइ, पामइ अधिकउ मान रे ।२६।आ०। संवत 'सोल बावन्ना' वरषई, 'काती सुदो' 'रविवार' रे। 'वउदसि'ने दिनि असिणि रिखइ(नक्षत्रइ?),जनम थयो सुखकार।।२७. 2010_05 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनसागरसूरि रास १८१ नित नित कुमर बाधइ बहु लक्खणि, सुरतरु नउ जिम कंद रे । नयणी अनोपम निलवट सोहई, वदन पूनम नउ चंद रे ॥२८॥ सहुअ सजन भगतावी भगतई, मेलि बहु परिवार रे । _ 'चोलउ' नाम दियउ मन रंगई, सुपन तणई अनुसारि रे ॥२६॥ सहिअ समाण मिलि मात पासइ, साह 'वछराज' कुलि दीव रे । 'सामल' नाम धरि हुलरावई, मुखि बोलइ चिरजीव रे ॥३०॥ रागः- मारु दोहा-रमइ कुमर निज हरखसुं, मात 'मृगा दे' पुत्र । गजगति गेलइ चालतउ, कुलमंडण अदभूत ।। ३१ ।। मीठा बोलइ बोलडा, काय कनक नइ वान । बालक 'बत्रीस लखणो', मात पिता द्यइ मान ॥ ३२ ॥ ढाल:-पाछली माइडी मनोरथ पूरइ, सुन्दर सुंखड़ी आपइ रे । बड़ा वचन नवि लोपीयइ, मन सुधि सीख समापइ रे ॥३३॥ आसा बांधी माइड़ी, सेवइ सुरतरु जेमो रे । पोसइ कुमर नइ बहु परइ, 'शालिभद्र' जिम प्रेमो रे ॥३४॥ ईग अवसरि तिहां आवीया, 'जिनसिंह सूरि' सुजाणो रे। श्री संघ वंदइ भावसुं, उछव अधिक मंडाणो रे ॥३५।। मात 'मृगादे' सुत सहू, निसुणइ अरथ विचारो रे । मन मइ वैराग उपनो, जांणी अथिर संसारो ॥ ३६ ।। दोहा-'गजसुकमाल' जिम 'मेघ मुनि', 'अइमतो तिण काले । 'सामल' ते करणी करइ, जाणइ बाल गोपाल ।।३७॥ 2010_05 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ऐतिहासिक जेन काव्य संग्रह ढाल :-केदारा गौडी सांभली वचन सहगुरु केरा, जोवादिक नवतत्व भलेरा । उपशम रस ध(भ?)र कायकलेसी, संजम सेवा बुद्धि निवेसी ॥३८॥ मात पासे जइ कुमर सोभागी, पभणइ संजमि लीउ मनरागी। अनुमति मोहि दीयउ मोरी माइ, नवि कोजइ चारित्र अंतराइ ॥३६॥ मात भणइ वछ सांभलि साचुं, इण वचनइ पुत्र हुँ नवि राचुं । लोह चणा मयण दांति चबायइ, तेहथी संजम कठिन कहायइ ।।४०॥ कुमर भणइ माता किं सूरे परचारइ, कायर हुइ ते हीयडुं हारइ । संजम लेवा बात कहेवी, मइ पिण निश्चइ दिक्षा लेवी ।। ४१ ॥ राग:-देसाख । दोहा :-बडभाइ 'बिक्रम' सहित, 'मात' भणइ मु(तु?)झसाथि । ____ करिसुं आत्माराधना, 'जिनसिंह सूरि' गुरु हाथि ॥४२॥ दूध मांहि साकर मिली, पीतां आणंद होइ। वचन सुणि निज मातना, हरखउ कुमर मनि सोइ ॥४३॥ 'विक्रमपुर' थी अनुकमइ, सदगुरु करइ (अ) विहार । 'अमरसरई' पउधारिया, 'श्रीजिनसिंह' उदार ॥४४॥ सामाइक पोसउ करइ, पडिकमणउ गुरु पासि । संजम लेवा कारणइ, कुमर मनइ उलासि ॥४५॥ श्री अमरसर' संघ तिही, हरखित थयउ अपार । वाजिन बाजइ नवनवा, वरनउलां सुप्रकार ।।४६।। 'श्रीमाल' वंशि सुहामणउ, 'थानसिंह' थिर चित्त । संजम उछव कारणइ, खरचइ तिहां बहु वित्त ॥४७॥ ___ 2010_05 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwmarimmwww जिनसागर सूरि रास संवत 'सोल इकसठइ' 'माह' मासि सुभ मासि । मात सहित दिक्षा लीयइ, पहुती मन नी आसि ॥४८॥ तिहाथी चारित लेइ नइ, सदगुरु साथि विहार ।। विद्या सीखइ अति घणी, धरता हर्ष अपार ॥४६॥ अनुक्रमि देस वंदावतां, आया 'जिनसिंह' राया। _ 'राजनगर' 'जिनचंद' ने, लागइ जुगवर पाया ॥५०॥ पांच समिती तीन गुप्ति जे, पालइ प्रवचन मात । छ जीवनी रक्षा करइ, न कर इ पर नी ताति ॥५१।। सामाचारि सूत्र अरथ, जाणइ सरव प्रकार।। _ 'सतावीस' गुणे करी, सोहइ 'सामल' सार ॥५२॥ तप वहा मांडलि तणा, वड दिखा तिहां दीध । 'श्रीजिनचंद्र सूरि' सइंहथइ, 'सिद्धसेन' मुनि कीध ॥५३।। बूहा उपधान उलटइ, आगम ना वलि जोग । 'छ मासी' 'विक्रमपुरई' सरिया सकल संयोग ॥५४॥ सुगुरु भणावइ चाह सुं, उत्तम वचन विलास । युगप्रधान बहु हित धरइ, पहुंचइ वंछित आस ।।५।। चउपइ :-पभणइ शास्त्र सिद्धांत विचार,मुणिवर सिद्धसेन सिरदा र गुरु नउ विनय साचवइ भलउ, 'सिद्धसेन' विद्या गुण निलउ ॥५६।। 'अंग इग्यारह' 'बार-उपंग', 'पयन्ना-दस भणइ मन चंग। 'छ छेद' ग्रन्थ मूल सूत्रह 'च्यारि', 'नन्दी', अनइ 'अनुयोगदुआर' ॥५॥ 2010_05 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'वदह' विद्या तण निहाण, सद्गुरु उत्तम करइ वखाण । उदयवंत अवसर नउ जाण, निज गुरु तणइ जे मानइ आण || ५८ ॥ खमावंत मांहे पहली लीह, सोहइ गुरु पासइ निसदीह । दस विध जातीधरम नउ धणी, तप जप संयम करुणा घणी ॥५६॥ यात्र करी 'सैत्रुज' तणी, साथइ 'जिनसिंह सूरि' दिनमणी । संघवी 'आसकरण' विख्यात, संघ करावी कारिअ जात ||६०|| 'खंभात' नइ 'अमदाबाद', 'पाटण' मांहि घणउ जसवाद । 'वडली' वंदया 'जिनदत्तसूरि', भेट्या पातक जायइ दूर ||६१ || इणि अनुक्रम 'जिनसिंह सूरि', 'सीरोहीयइ' गुरु सबल पडूरि । करिअ पइसारौ वंदइ संघ, राजा मान दियइ 'राजसिंह' ||६२ || 'जालउरइ' आवइ गच्छराज, वाजित्र बाजइ बहुत दिवाज । श्रीसंघ सुं वंदइ कामिनी, रूपइ जीति सुर भामिनी ॥ ६३ ॥ 'खंडप' नई 'द्र णाडा हेव, 'धंघाणी' भेटया बहु देव । अनुक्रम मन मइ धरिअ ऊलासि, आव्या 'बीकानेर' चउमासि ||६४॥ 'वाघम' पइसारो करइ, नीसाणइ अंबर थरहरइ | कीधा नेजां पोलि पागार, वसति आयां श्रीगणधार ||६५ || आनन्दइ चउमासउ करी (इ), आया 'मेवडा' बहु हित धरी । तेडावर श्रीशाहि 'सलेम', 'मेडता' आया कुसले खेम ||६६|| # राग:- वैराडी तिणि अवसर 'जिणसिंह' नउ, परवसि थयउ सरीर । देवगतइ छूटा नही, पुरष बडा बहु मीर ||६७ || दूहा 2010_05 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसागरसूरि रास · १८५ अवसर जाणी तिण समइ, श्रीसंघ कहइ विचारि । __ बोलइ सदगुरु चित धरी, वड वखती सिरदार ॥६८॥ अणशग आराधन करी, पहुंता गुरु सुर लोग। वाजिब बाजइ तिहां घणा, मांडवी तणइ संजोगि ॥६६॥ सोग निवारी थापीया, सखर महुरत लीध । भट्टारक गुरु 'राजसी', 'सामल' आचारज कीध । ७०॥ 'आसकरण' 'अमीपाल' वलि, 'कपूरचन्द' सुविलास । पद ठवणउ करइ रंग सुं, 'ऋषभदास' 'सूरदास' ॥७॥ राग:-आसावरी तब सिणगार्या पोलि पगारा, तंबू उंचा खचीयां । मस्तक उपरि मोती झुबइ,वहींचइ भारइ लचीयां ।। तेह तलइ बइठा बहु लोग, भूमि भाग नहिं माग। एक एक नइ वेल्हइ मेल्हइ, तिल पडिवा नहीं लाग ॥७२।। सबली नांदि मंडाइ तिहां कणि, वाजिव विविध प्रकार । सूरी मंत्र आप्यउ तिण अवसरि, 'हेमसूरि' गणधार ।। श्री 'जिनराज' सूरिश्वर नामइ, साधु तणा सिणगार । बालपणइ सूरि पद आपी, सुंप्यउ गच्छ नउ भार ॥ ७३ ।। तेहिज नांदि आचारिज पदवी, 'श्री जिनराज' समोपइ । : मन सुद्धइ सूरि मंत्र ज देइ, 'जिनसागर सूरि' थापइ । सजि सिणगारने कामिणी आवइ, भरि भरि मोतिन थल ।। सोवन फूलि बधावइ सदगुरु, गावइ गीत धमाल ।। ७४ ।। 2010_05 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह संवत 'सोल चउहत्तरि' वरसइ, 'फागुण सुदि' 'सनिवार' । शुभ वेला सुभ महूरत जोगइ, 'सातमि' दिवस अपार ।। संघ सहु हरखित थइ वंदइ, धइ बहुलउ बहुमान । 'आसकरण' संघवी तिण अवसरि, आपइ वांछित दान ॥७५|| भट्टारक 'जिनराजसूरि', वर्तमान गणधार । पाटइ 'जिनसागर' वरू, आचारिज अधिकार ।।७।। ढाल :-तेहिज विहिरिअ 'राणपुरई' 'वरकाणइ', 'तिमिरि' भेट्या पास । ____ 'ओइस' 'घंघाणी' यात्र करीनइ, 'मेडतई' करिअ चउमास । तिहाथी उच्छव कीध 'जेसाणइ', 'भणसाली' 'जीवराज' । 'राउल' 'कल्याण' सुं श्री संघ वंदइ, सीधा सगला काज ।।७७॥ अमृत वाणि सुणइ तिहां श्रीसंघ, बंच्या इग्यारह अंग । मिश्री सहित रुपइआ लाहइ, साह 'कुसला' मन रंग ।। लद्रुपुरइ पाउधारइ सदगुरु, श्रीसंघ साथइ आवइ । साहमोक्छल कग्इ साह 'थाहरु', 'श्रीमल' सुत वित्त वावइ ॥७८।। तिहाथी विहार करि 'जिनसागर', आचारज हितकार । ___ 'फलवद्धीयइ' आवइ ततखिण, थावइ बहुअ प्रकार ॥ उलट धरिअ तिहां कणि वांदइ, श्रीसंघ द्यइ बहुमान । पइसारउ करि 'झाबक' 'मानइ', दीधउ याचक दान ॥७६।। श्रीखरतर गच्छ सोह चडावइ, तिहाथी करिअ विहार । 'करणुंअइ' आया बहु रंगइ, संघ वंदइ गणधार । 2010_05 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनसागर सूरि रास १८७ बीकानयर वंदीइ पहुंचइ, 'श्रीजिनसागर सूरि'। ___ 'पासणीए' करयु पइसारउ, रंगइ बहुत पडूरि ॥८॥ राग:-सामेरी पासाणी बहु वित बावइ, पइसारउ साम्ही आवइ । __'सोलह सिणगारे' सारी, सिरि(श्री?) कलश धरि बहु नारी ॥८१।। सिरि 'भागचंद' सुत आवइ, 'मणुहरदास' निज दावइ । वलि संघ सहगुरु वंदइ, श्रीखरतरगच्छ चिरनंदइ ।।८२॥ तिहां वाजइ ढोल नीसाण, संख झालरनउ मंडाण । बहु उछवि वसतइ आयां, श्रीसंघ तणइ मनिभाया ॥८॥ सुहव मिली निउंछण कीजइ, निज जन्म तणउ फल लीजई। तंबोल भली पर दीधा, मन वंछिन कारिज सीधा ॥८४|| . राग :-धन्याश्री 'विक्रमपुर' थी संचरी ए, 'सर' मांहि करिअ चउमास । दिन दिन रंग वधामणाए पूरइ मननीआस ॥०॥ वधावउ सदगुरु ए, जिनसागरसूरि'वधावउ ।आखरतरगच्छपडूराव०॥ तिहां श्री गइ आवियाए, 'जालयसर' सुखवास ।व०। उच्छव सुगुरु वांदिआए, मंत्री 'भगवंत दास ॥८५॥०॥ विचरिय तिहां थी भावसु ए, 'डीडवाणउ' वंदावि ।। व०॥ 'सुरपुर' संघ सुहामणउ, भेटइ बहुलइ भावि । व०॥८६॥ 'मालपुरई' महिमा थइ ए, लोधउ लाभ विशेष ॥ व०॥ श्री संघ वंदइ. चाह सुं, प्रहसमि नयणे पेखि ।। व०॥८७॥ 2010_05 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ऐतिहासिक जन काव्य-संग्रह नयर 'बीलाडई' चित धरी ए, चतुर करइ चउमास ।। व०॥ - उच्छव करइ 'कटारिआ' ए, पाखी पारण खास ।। व ।। ८८ ।। अनुक्रमि सदगुरु पांगुरइ ए, 'मेदनीतटह' निहाली ॥ २० ॥ 'रायमल' सुत जगि परिगडउए, 'गोलवछा' 'अमीपाल' ॥८६॥३॥ बंधव जेहनइ अति भलउए, वड वखती 'नेतसीह' ॥ व०॥ बहु परिवारइ दीपताए, भात्रीजउ 'राजसीह' । व० ।।१०।। सबली नदिइ आदर्यो ए, व्रत उच्चार सवेर ॥ व०॥ रूपइए लाहण करिए, तंबोलइ नालेर ॥ व०॥ ६१ ।। 'रेखाउत' वित्त वावरइ ए, 'सीरीमाल' 'वीरदास' ॥व० ॥ ___ 'माडण' 'तेजा' रंगसुं ए, 'रीहड' 'दरडा' खास ।। व० ।। ६२ ।। सुंदर गुरु सोहामणउ ए, भावइ कीजइ सेव ।। व० ॥ तिहाथी विहरी अनुक्रमि ए, वंद्या 'राणपुर' देव ॥ व० ।। ६३ ।। 'कुंभलमेरइ' जिन थुणी ए, 'मेवाडइ' गुणगांन ।। व०॥ ___ 'उदयपुर' नउ राजीयउ ए, राणउ 'करण' द्यइ मान ॥१४॥०।। 'लखमीचंद' सुत परगडाए, 'रामचंद' 'रघुनाथ' ।। व० ।। _ चित्त धरि वंदइ प्रहसमइए, 'अजाइबदे' सुत साथि ॥६५||व०॥ साधु विहारइ पग भरइ ए, 'सोनगिरई' अहिठाण ।। व० ॥ श्री संघ उच्छव नित करइ ए, अवशर नउ जे जाण ।।६।। 'साचार' संघ सहु मिली ए, आग्रह हे 'हाथिसाह' ॥ व० ॥ । चउमासइ गुरु राखीयाए, 'जिनसागर' गजगाह ।। ६७ ।। व० ।। वर्तमान गच्छराजजी ए, 'जिनसागर सूरि' सुखकार ॥०॥ 'श्री जिनसागर' चिरजयउए, आचारिज पद धार ॥६८॥व०॥ 2010_05 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anwar श्रीजिनसागर सूरि रास युगवर खरतर गच्छ धणीए, 'जिनचंद सूरि' गुरुराय ॥२०॥ शीस सिरोमणी अतिभलाए, 'धरमनिधान' उवझाय ॥६॥०॥ तास शीस अति रंगसु ए, 'धरमकीरति' गुण गाइ ।। व०॥ संवत 'सोलइक्यासीयइए, 'पोस वदि' 'पंचमि भाइ ॥१००।। 'श्री जिनसागरसूरि' नउ ए, रास रच्यु सुखकंद । व०॥ सुणतां नवनिध संपजइ ए, गातां परमाणंद ॥ १०१ ।। व०॥ तां प्रतपउ गुरु महियलइ, जां गगनइ दिनईस ।। व० ।। "धरमकीरति" गणि इम कहइ ए, पूरे सकल जगीस ॥१०२॥व० इति भट्टारक जिनसागर सूरिणाम् रास (बीकानेर स्टेट लायब्रेरीमें पत्र ४) श्रीजिनसागर सूरि सवैया धुरा देस मरुधरा शहर 'बीकाण' सदाइ, 'बोहिथ' हरे विरुद इत वसइ 'वछउ' वरदाइ। 'मृगा मांत' मोटिम्म, सुपन सूचित सुत सुन्दर, 'आठ' वर्ष अधिकार कला अभ्यास कुलोधर । वैराग जोग मां रमतइ, लखमी तजी कोडे लखे, सूरीस श्री 'जिनसागर' सुगुरु, उपम इसडे आरखे ॥१॥ युगप्रधान 'जिनसिंह' वंस 'चोपडा' विसेखइ, श्रावक 'अकबर' शाहि लीध धर्मलाभ अलेखइ । सइहथ तेण गुरु पासि, सुकृत करि माता संगइ, 'अमरसरई' ऊनति आए मनरंगि अगइ ।। 2010_05 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह संग्रह्यो साधु मारग सरस, पूरण गुण पूरण पखे, सूरीस श्री 'जिनसागर' सुगुरु, उपम इसडे आरखे ॥२॥ विनय विवेक विचार वाणि सरसती विराजइ, 'विद्या चवद' निधान, सुजस जगि वाजा वाजइ । विषम वाणि विषवाद, विषयरस अंगि न बाधइ, वखतवंत वर विबुध वान दिन प्रति वाधइ ।। वाजणी थाट वादी विषइ, परि परि पूगउ पारखे । सूरीस श्री 'जिनसागर' सुगुरु, उपम इसडे आरखे ॥३॥ उछव रंग बधाइ दिवावत, सुंदर मंगल गीत सुहावत, मोतीन थाल विसाल भरि भरि, भामिनी भावसं आपि बधावत । गच्छ नायक लायक लाख गुणी, गुण गावत वंछित ते फल पावत । श्री 'जिनसागरसुरि' वइरागर, नागर रंगि देख्यउ गुरुआवत ॥४॥ प्रगट सोभाग साग विकट वइराग माग, राग हुं कउ लाग दोष दूरि होर हीयउ हइ । ततु तुम दृढ़धार अमृत ज्ञान आहार ___ कठिन क्रिया प्रकार काम जु वहीयउहइ । ललित ललाट नूर, तपति प्रताप सूर, 'सागर' सुरिंद गुरु गौतम कहायउ हइ ।।५।। सवाया छइ ( उपरोक्त बिकानेर स्टेट लायब्रेरी की प्रति में, तत्कालीन लि०) --x*x-- ___ 2010_05 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि सुमतिवल्लभ कृत श्री जिनसागर सूरि निर्वाणास दहा:-समरु सरसति सामिनी, अविरल वाणि दे मात । गुण गाइसुं गच्छराज ना, 'सागर सूरि' विख्यात ॥१॥ सहर 'बीकाणो' अति सरस, लखिमी लाहो लेत । 'ओस वंश' मंइ परगड़ा, 'बोहिथरा' विरुदेत ॥२॥ 'बच्छराज' घरि भारजा, 'मिरघा दे' सुत दोइ । 'बीको' नइ 'सामल' सुखो, अविचल जोड़ी जोइ ॥३॥ श्री 'जिनसिंघ सुरीश' नी, सांभलि देशन सार । मात सहित बान्धव बिन्हे, संज (म) लइ सुखकार ।।४।। 'माणिकमाला' मावड़ी, 'विनयकल्याण' विशेष । ___ 'सिद्धसेन' इम त्रिहुं तणा, नाम दीक्षा ना देखि ।। ५ ।। 'वादी राय' भणाविया, 'हर्षनंदन' करि चित्त । __ 'चवदह' विद्या सीखवी, सूत्र अर्थ संयुक्त ॥ ६॥ सूधो संयम पालतां, विद्या नउ अभ्यास। करतां गीतारथ थया, पुण्याइ परकास ।। ७ ।। 'सिद्धसेन' अभिनव थयो, 'सिद्धसेन' अवतार । बीजा चेला बापड़ा, 'सांमलिउ' सिरदार ।। ८ ।। श्री 'जिनचंद सुरीश' नउ, वचन विचारी एम। आचारिज पद थापना, कीधी कहिस्युं नेम ।।६।। 2010_05 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह ढाल १ (पुरन्दरनी चौपाइनी) 'मरुधर' देसि मझार 'मेड़तो' सहर भलोरी। ___'आसकरण' 'ओसवाल', 'चोपड़ा' वंश तिलोरी ।। १॥ पद ठवणो करि पूज्य, अवसर एह लही री। . खरचे द्रव्य अनेक, सुकृत ठाम सही री ॥२॥ सूरि मंत्र लह्यो शुद्ध, सहगुरु तेणि समे री। श्री 'जिनसागर सूरि' इन्द्रिय पांच दमे री ॥३॥ मोटो साधु महन्त, करणी कठिन करे री। श्री 'जिनसिंह' के पाट, खरतर गच्छ खरेरी ॥४॥ पालि पंच आचार, तारण तरण तरी री। पंच सुमति प्रतिपाल, खप संयम को खरी री ॥ ५ ॥ पृथिवी करिय पवित्र, साथि साधु भला री। अप्रतिबद्ध विहार, दिन दिन अधिक कला री ॥ ६ ॥ 'चौरासी गच्छ' माहि, जाकी शोभ भली री। __ चतुर्विध संघ सनूर, संपद गच्छ मिली री ॥ ७ ॥ ढाल २ (मनड़ो मान्यो रे गौड़ी पासजी रे) मनडु रे मोहयु माहरु पूजजी रे, श्री 'जिनसागर सूरि'। बड़ भागी भट्टारक ए भला जी, दिन दिन गच्छ पडूरि ॥१॥ सखर गीतारथ साधु भला भलाजी, मानइ मानइ पूज्य नी आण । 'समयसुन्दर' जो पाठक परगड़ाजी, पाठक 'पुण्य प्रधान' रे ॥ २ ॥ ___ 2010_05 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनसागर सूरि रास १६३ 'जिनचन्द्र सूरि ना' शिष्य माने सहुजी, बड़ा बड़ा श्रावक तेम । धनवंत धींगा पूज्य तणइ पखइजी, बड़भागी गुरु एम ॥३॥म० संघ उदयवन्त 'अहमदाबाद' नौ जी, 'बीकानेर' विशेष । 'पाटण' नइ 'खंभाइत' श्रावक दीपताजी, मुलताणी'राखी रेखाम० 'जेसलमेरी' श्रावक पूज्य ना परगडाजी, संघनायक 'संखवाल' । 'मेड़ता' मई गोलवच्छा' गह गहैजी, 'आगरा में 'ओसवाल' ॥५||म० 'बीलाड़ा' मई संघवी 'कटारिया' जी, 'जइतारणि' 'जालोर'। 'पचियाख'पाल्हणपुर"भुज्ज"सूरत'मइंजी, दिल्ली' नइ 'लाहोराम० 'लूणकरणसर' 'उच्च' 'मरोट' मई जी, नगर 'थटा' मांहि तेम । 'डेरा' में सामग्री साबती जी 'फलबधी' 'पोकरण' एम॥७॥ म० 'सागरसूरि' ना आवक सहु सुखीजी, अधिकारी 'ओसवाल' । देश प्रदेशे श्रावक दीपताजी, मर खंचण भूपाल ॥ ८ ॥ म० ढाल ३ (कड़खानी) 'करमसी' शाह संवत्सरी पोखिनै, 'महमद' दिइ अति सुजश लेवे । सुपुत्र 'लालचन्द'हर वरस संवत्सरी,पोखि ने संघर्नु श्रीफल देवे।।।। धन्य हो धन्य 'सागरह सूरिन्द' गुरु, जेहनो गच्छ दोपे सवायो। बड़ बड़ा श्रावक परगड़ा नवखंडे,पूज्य नौ सुयश त्रिहुंलोक गायो।।२।। शाह 'लालचन्द' नी, धन्य बड़ी मावड़ी,जे विद्यमान 'धनादे' कहीजइ । 'पूठीया' उपरा खंडनो 'पीटणी', सखर समराविनइ लाभ लीज॥३॥ बहुअ 'कपूर दे' जेहनो जाण, सुपुत्र 'उग्रसेन' नी जेह माता।। खरचवइ आगला गच्छ ना काम नइ,धर्म ना रागिया अधिक दाता।।४।। १३ 2010_05 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह साह'शान्तिदास' सहोदर 'कपूरचन्द' सुं, वेलिया हेम ना जेह आपै । 'सहस दोय रूपिया पाच शत' आगला, खरचिने सुजश निज सुथिर थापै ||५|| १६४ मात 'मानबाई ई' खंड इक पीटणी, करीय उपासरइ ( में ) सुजश लीधा । वरस ना वरस आसाढ़ चोमास ना, पोसीता पोखिवा बोल कीधा ॥ ६ ॥ शाह 'मनजी' तणो कुटुंब अति दीपतो, चिहुं खंडे चंद नामो चढायो । शाह 'उदेकरण' 'हाथी' खरो 'हाथियो', जेठमल 'सोमजी' तिम सवायो || || धरम करणी करें' शाह हाथी' अधिक, राय' बन्दी' छोड़नो विरूड राखे । जीव प्रतिपाल उपगार सहु नै करै, सुपुत्र' पनजी' भला सुजस दाखै ॥ ८ ॥ 'मूलजी संघजी ' पुत्र 'वीरजी, 'परोख' सोनपाल' 'सूरजी' बखाणो । पाखीयां'वीस नइ च्यारि' जीमाड़िने, पुण्य नौ वाहरु जे कहाणी ||६|| 'परीख' चन्द्रभाण'लालू' सदा दोपता, 'अमरसी' शाह सिरताज जाणो । 'संघवी' 'कचरमल्ल परीख' अखइ अधिक, बाछड़ा 'देवकर्ण' तिम वखाणौ ॥ १० ॥ साह 'गुणराजना' सुपुत्र अति सलहीई, 'रायचन्द गुलालचन्द ' साह दाखो । एम श्रीसंघ उदयवंत' राजनगर 'नो, भल भला श्रावक एम आखो ॥११ तेम 'खंभाइती' संघ नायक बड़ो, 'भंडशाली' 'बधू' सुतन कही । बड़ बड़ी धरम करणी घणी जे करी, लाख मोजां' ऋषभदास ' लहिए || १२ || दोहा- श्री 'जिनसागरसूरि' नो, उदयवन्त परिवार । वेला गीतारथ सहु, पालइ पक्ष आचार ॥ १ ॥ 2010_05 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसागर सूरि रास १६५ यथा योग जाणी करी, पाठक वाचक कीध । ___ श्री 'जिनधर्म'सूरीशने, गच्छ भार इम दीध ॥२॥ ढाल ३ इक दिन दासी दौडती, . आवै कृष्ण नइ पासे रे ।। एहनी ।। 'अहमदावाद' मइ आपणइ, सेंहथि संघ हजूर रे । प्रथम ओढाड़ी पछेवड़ी, श्री जिनसागरसूर' रे ।। १ ॥ अवसर लाखीणो लही, खरचे द्रव्य अनेक रे। . 'भणसाली 'बधू' भारिजा, 'विमला दे' सुविवेक रे ॥२॥ वलतुं पद थापन करो, सूर मन्त्र गुरु दीध रे ।। श्री जिनधर्म सूरीश्वरु', नाम थाषना इम कीध रे ॥ ३॥ संघवणि 'सहजलदे' तिहां, ल्यइ लिखमी नो लाह रे । पद ठवणो करइ परगड़ो, कहइ लोक वाह-वाह रे ॥४॥ पहिला पणि सुकृत जिके, कीधा अनेक प्रकार रे। .... शत्रुजय संघ कराविउ, खरची द्रव्य हजार रे ॥५॥ श्री 'जिनसागरसूरि' जी, सहगुरु साथे लीध रे । पाटंबरने पांभरी, जाचक जन ने दीध रे ॥६॥ 'भणसाली सधुआ' घरणि, ते 'सहिजल दे' एह रे। पद ठवणि जे 'पूज्य' नै, खरची नइ जस लेह रे ।।७।। ढाल ४ (कपूर हुवे अति ऊजलो रे) अवसर जाणी आपणउ रे, आगल थी अणगार | . जिण थी शिव सुख पामिइं रे, ते सांभलि अंग इग्यार ॥ १ ॥ 2010_05 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सुगुरु जो धन्य-धन्य तुम अवतार, ए माणस भव नुसार ।। आंकणी ।। आनुपूरवी एहवी रे, उपशम्यो पूरब रोग। श्री संघ 'अहमदाबाद' नो रे, गीतारथ संयोग ॥२॥ 'आखातीज' नइ द्याहड़ि रे, शिष्यादिक नइ सार । सीखामणि सहगुरु दि(य)ई रे, गुरु गच्छ नुं व्यवहार ।।३।। चारित फेरी ऊचरि रे, गच्छ भार सहु छोड़ि। ___उत्तम मारग आदरि रे, अशुभ कर्म दल तोड़ि ॥ ४ ॥ 'सुदि आठम वैसाख' नो रे, अणसण 'नो उच्चार । श्रीसंघ नी साखि करइ रे,त्रिविधि-त्रिविध विविहार ।।५।। पासे गीतारथ यति रे, श्री ‘राजसोम' उवझाय । 'राजसार' पाठक भला जी, 'सुमतिजी' गणि नी सहाय ।।६।। 'दयाकुशल' वाचक वलि रे, 'धर्ममन्दिर' मुनि एम । ___'समयनिधान' वाचक वरु रे, 'ज्ञानधर्म' मुनि तेम ॥ ७ ॥ "सुमतिवल्लभ" सावधान सुरे, आठ पुहर सीम तेम । शाह 'हाथी' धर्म हाथियो रे, निजरावि गुरु एम ॥ ८ ॥ ढाल (५) बिणजारानी मोरा सहगुरुजो, तुम्हें करज्यो शरणा च्यार । सहगुरुजी करज्योः अरिहन्त सिद्ध सुसाधुनो मो० केवलि भाषित धर्म, ए फल नरभव लाध नो ।। १ ।। मो०. जीव 'चुरासो' लाख, त्रिकरण शुद्ध खमाविज्यो । मो०। पाप अठारह थान, परिहरि अरिहन्त ध्यावज्यो ॥२॥ मो०. ____ 2010_05 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसागर सूरि निर्वाण रास १६७ परिहरि सगला दोष, बितालीस आहार ना । मो० जिन धर्म एक आधार, टालि दुःख संसार ना ।। ३ ।। मो० ए संसार असार, स्वारथ नो सहुको सगो। मो०। अथिर कुटुम्ब परिवार, धर्म जागरिया तुम जगो ॥ ४ ॥ मो० अथिर छइ पुत्र कलत्र, अथिर माल घर परिग्रहो । मो० । अथिर विभव अधिकार, अथिर काया तिमि ए कहो ॥५।। मो० तुम्हें भावज्यो भावन बार, मन समाधि मांहि राखज्यो । मो० । अथिर मात नइ तात, अथिर शिष्यादिक नइ भाखज्यो ।। ६ ।। मो० जीवत हाथ मई जाइ, राखी को न सकइ सही । मो०। ___ जेहवो संध्या वान, तेहवी संपद ए कही ।। ७ ॥ मो० एकलो आवइ जीव, जाई एकलो प्राणियो। मो० । पुण्य पाप दोइ साथ, भगवंत एम बखाणियो ।। ८ । मो० बाल मरण करी जीव, ठामि ठामि हुओ दुखी ।मो०। पंडित मरण ए जागि, जिण थी जीव हुवइ सुखी राधामो० इम भावना एकांत भाव, अरिहन्त धर्म आराधता ।मो०। पुंहता सरग मझारि, आतम कारिज साधता ॥१०॥मो०॥ दोहा :--'सतर(इ) सइ उगणीस' मई, मास 'जेठ बदि तीज' । ___ 'शुक्र' 'सागरसूरि' जी, सरग ना पाम्या चीज ॥१॥ ढाल ६-काया कामिनी वी वइ रे लाल, एहनी । अवसर लाखीणो लहीरे, साह हाथी सर्व जाण ।मेरे पूजजी। महिमा मोटी इम करइ रे लाल, पूज्य तणइ निर्वाण ।। १ ।। यासइ रहि निजरावियारे, दिन 'इग्यारह' सीम । मे०।। सुंस सबद व्रत आखड़ी रे लाल, नाना विधि ना नीम ॥२॥मे० 2010_05 | Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह wwvvvv चोवा चंदन अरगजा रे, सहगुरु तणइ सरीर । मे० । करि अरचा पहिराविया रे लाल, पांभरी पाटू चीर ॥मे०॥३॥ देव विमान जिसी करो रे, मांडवो अति श्रीकार । मे०। बाजे गाजे बाजते रे लाल, करि नीहरण विचार ।।मे०॥४॥ वयरचि सूकड़ि अगर सुं रे लाल, कस्तूरी घनसार । मे० । __ दहन दीइ घृत सींचता रे लाल, श्री पूज्य - तिणवार ।।मे।५।। जीव छुड़ावी (वे?)जुगति मुं रे, श्री संघ भेलो होइ । मे० । 'गायां' 'पाडा' 'बाकरी' रे लाल, रूपइया शत 'दोई॥मे०॥६॥ 'शान्तिनाथ' नइ देहरइ रे लाल, वांदी देव विशेष । मे० । - वचन सांभलि वीतराग ना रे लाल, मंकी सोग अशेष मेलाणा (हाल ८) धन्याश्रो-कुंवर भलइ आविया एहनी । श्री 'जिनसागर सूरि जी ए, पाटि प्रभाकर तेम । सुगुरु भले गाइयइ, श्री जिनधर्म सुरीसरुए, जयवंता जग एम ॥१॥ देस प्रदेशे विहरता ए, भविक जीव प्रतिबोह । स०। उदयवंत गच्छ जेहनो ए, महियल मोटो सोह ॥ स० ।। २॥ गुण गातां सगुरु तगा ए, पूज्यइ मन नी खांति । स०। मन वंछित सहु ना फलि ए, भांजि मन नी भ्रांति ।। स० ॥ ३ ॥ संवत 'सतर वीसोत्तरई' ए, 'सुमतिवल्लभ' ए रास । स०। - 'श्रावणसुदि पुनम' दिनि ए, कीधो मनह उल्लास ॥ स० ।। ४ ।। श्री 'जिनधर्म सुरीश' नो ए, माथि छै मुझ हाथ । स० । 'सुमतिवल्लभ' मुनि इम कहइ ए, 'सुमतिसमुद्र' शिष्य साथ ।स०५॥ ॥ इति श्रीनिर्वाणरास संपूर्णम ॥ ( हमारे संग्रह में, तत्कालीन लि०) 2010_05 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसागरसूरि अष्टकम् श्री जिनसागरसूरि अष्टकम् ( १ ) श्री मज्जेशल मेरुदुर्ग नगरे, श्री विक्रमे गुर्जरे । थट्टायां भटनेर मेदिनितटे, श्री मेदपाटे स्फुटम् ॥ श्री जावालपुरे च योधनगरे, श्री नागपुर्या पुनः । श्रीमल्लाभपुरे च वीरमपुरे, श्री सत्यपुर्यामपि ॥ १ ॥ मूलत्राण पुरे मरोट्ट नगरे, देराउरे, पुग्गले । श्री उच्चे किरहोर सिद्धनगरे, धींगोटके संबले ॥ श्री लाहोरपुरे महाजन रिणी, श्री आगराख्ये पुरे । " सांगानेरपुरे सुपर्व सरसि श्री मालपुर्या पुनः ॥ २॥ श्री मत्पत्तन नाम्नि राजनगरे, श्री स्थंभतीर्थे स्तथा । द्वीपे श्री भृगुकच्छ वृद्धनगरे, सौराष्टके सर्वतः । श्री वाराणपूरे च राधनपूरे, श्री गुर्जरे मालवे । ....॥३॥ १६६ सर्वत्र प्रसरी सरीति सततं सौभाग्यमाबाल्यतः । वैराग्यं विशदा मतिः सुभगता, भाग्याधिकत्वं भृशम् । नैपुण्यं च कृतज्ञता सुजनता, येषां यशोवादता । सूरि श्री जिनसागरा विजयिनो, भूयासुरेते चिरम ||४|| आचार्याः शतशश्च संति शतशो, गच्छेषु नाम्नां परम् । त्वं त्वाचार्य पदार्थयुग युगवरः, प्रौढ़ः प्रतापाकरः ।। 2010_05 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ऐतिहासिक जन काव्य-संग्रह भव्यानां भव सागर प्रतरणे, पोतायमानो भुवि । श्री मच्छ्री जिनसागरः सुखकरः, सर्वत्र शोभा करः ||५|| सौम्यश्री हिमदीधि तौ सुर गुरौ, बुद्धि र्द्धरायां क्षमा । तेजः श्री स्तरणौ परोपकृति धीः, श्री विक्रमे भूपतो ॥ सिद्धि गौरखनाथ योगिनि बहु, लभश्च लम्बोदरे । ラ संत्येवं विविधाश्रया गुण गणाः सर्वे श्रिता त्वां प्रभो ॥६॥ श्री बोहित्थ कुलांबुधि प्रविलसत्प्रालेय रोचि प्रभा । " भास्वन्मातृ मृगांसु कुक्षि सरसि श्री राजहंसोपमाः ॥ श्री मक्रिम वासि विश्व विदिताः, श्री वस्तराजां गजाः । संतु श्री जिनसागरा, खरतरे, गच्छे चिरंजीविनः ॥७॥ इत्थं काव्य कदम्बकं प्रवरकं, मुक्तापुरः प्राभृतम् । विज्ञप्त समयादिसुन्दर गणिर्भक्त्या विधत्तेभृशम् ॥ युष्मत्प्रौढतम प्रताप तपनो, देदीप्यतां सत्वरः । यूयं पूरयत स्व भक्त यतिनां शीघ्रं मनोवांछितम् ॥ ८ ॥ ( बिकानेर स्टेट लायब्रेरी ) 2010_05 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनसागर सूरि अवदात गीत २०१ ॥ जिनसागरसूरि अवदात गीत ॥ धूरउ पण्डित पूछीयउ रे, भामिणि आप सभावरे । जोसीड़ा । ' आखो टीपणो देखिने, मांडि लगन उपाय रे ।। १ ।। जो० "श्रीजिनसागरसूरिजी' रे, आज काल किण गाम रे । जो० । मो मन वांदण उमह्यो रे, सुणि अवदात नइ नाम रे । जो। _ 'श्रीजिनसागरसूरिजी रे लो० । आ० । "श्रीजिनकुशल' यतीश्वरइ रे लो, सुपन दिखाड्यो साच रे । जो० जन्म थकी यश विस्तर्यो रे, निकलंक काछ नइ वाच रे ।२। जो० राउल 'भीम' नरेसरइ रे लो, निरखी गुरु मुख नूर । जो०। __ केसर चन्दन चरची नइ रे, पामिसि पदवी पडूर रे । ३ । जो० उदय दिखाडयो 'अम्बिका' रे लो,श्री जिनशासन देव रे । जो० युगप्रधान 'जिनचन्दनी रे लो,करइ कृपा नित मेव रे । ४ । जो० मन मान्या वंछित फल्या रे, पूज्य पधार्या आप रे । जो०।। 'हर्षनन्दन' कहइ सर्वदा रे लो, वाधउ अधिक प्रताप रे । ५। जो० गाम नगर पुर विहरता पूजजी, 'श्रीजिनसागरसूरि'। कठिन क्रिया खप आदरो, पूजजी, पूहवि सुजस पडूरि ॥ १ ॥ पूजजी पधारउ सूरजी 'मेडतई' रे, श्रावक अति अविवेक । श्रावक चितारइ दिन प्रति चाह सुं, थापइ लाभ अनेक । श्रीसंघ श्रीसंघ वांदी हो, हरखित थाइस्यइ । आ० 2010_05 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ . ऐतिहासिक जन काव्य-संग्रह खरतर गच्छ शोभा दीयउ, पूजजी बोहिथरे वरदान । साहिब 'मुकुरबखानजी,' पूजजी पग लागे द्यइ मान ।। २॥पू०॥ रूप कला पण्डित कला, पू० वचन कला गुण देख । राय राणी मानइ घणु, पूजजी थाइ माहे विशेष ॥ ३ ॥पु०॥ कामण मोहन नवि करो पू० लोक सहु वसि थाय । ए परमात्म प्रोछवउ, पू० पूर्व पुन्य पसाय ॥ ४ ॥पू०।। चित्त चाहतां आविया, पू० श्रीसंघ मानी वचन । रंग महोच्छव दिन प्रतइ, 'हरपनन्दन' कहइ धन ॥ ५ ॥पू०।। ॥ जाति फूलडानी॥ श्री संघ आज वधावणी, हिव आज अधिक उछरंगो रे । आचारज पद पामियउ, 'जिनसागरसूरि' सुचंगो रे ।। १ ॥श्री०॥ खरतरगच्छ उन्नति थइ, हिव कीधा अनुपम कामो रे।। दुरजण मुहडा सामला, हिव साजण बाधी मामो रे ॥२॥श्री।। धन पिता 'वच्छराज' जो 'मृगा' पिण माता धनो रे। वंश धन 'बोहिथरा', जिहां उत्तम पुत्र रतनो रे ॥ ३॥ श्री वाजा बाज्या रूयड़ा, वलि तान मान सन्मानो । । सूहव गावइ सोहलउ, तिहां याचक पामइ दानो रे ॥ ४ ॥ श्री० नयण सलूणा पूजजी, हिव हुं बलिहारी नामइ रे । __ मोहनगारा मानवी. हिव हरषनन्दन'सुख पामइ रे ।। ५ ।। श्री० 2010_05 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसागरसूरि अवदात गीत २०३ चतुर माणस चित्त उलसइ रे, देखी पूज सरुप रे । हो पूजजी।। नान्हीवय गुण मोटका रे, उपजइ भाव अनूप रे ॥१॥ ए परमार्थ प्रीछज्यो रे। मान सरोवर लहुडोरे, राजहंस सेवइ तीर रे । लवणागर मोटउ धणुं रे, पंथी न चाखइ नीर रे ॥२॥ चंदा केरे चांदणे, सहुको बइसइ पास रे । सूर (सूर्य!) तपइ जो आकरो, जावइ सहुको नासि रे ॥३॥ उंचो लांबो अति घणउ, सरलउ पिंड खजर रे । नान्ही केलि कहावतो, छाया फल भरपूर रे ॥४॥ मोटा मइगल मद झरइ, विलसइ ता गर (लग?) राज। सीहणि केरो छावडोरे, गाजइ नही वन मांझ ५॥ नान्हा मोटा क्युं नहों, गुण अवगुण बंधाण । 'जिणसागर सूरि' चिर जयउ रे, हर्षनन्दन' गुण जाण ॥६॥ RSIRSAR PRO 2010_05 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री करमसी संथारा गीतम् । सदगुरु चरण नमी करी, गाइसु श्रीऋषिराइ । _ 'करमसीह' करणी करो, सांभलीयइ चित्तु लाइ ।। चित्तु लाइ संभलीयइ चरित, निज भावस्युं चारित लियउ। धन वंश 'कूकड़ चोपड़ा' नउ, सुयश प्रगट जिणइ कियउ ।। तप करी काया प्रथम शोधी, विगय षट् रस परिहरी। ___'करमसी' सुपरि कियउ संथारउ, सुगुरु चरण नमी करी ॥१॥ रीतइ गुरु कुल वास नी, मनि आणी संवेग। जाणी काया कारमी, करि निश्चल मन एक ।। मन एक निश्चल करी आपइ, अन्न समुंखइ परिहर्यउ । __ आहार त्रिविध त्रिविध संयोगइ गुरु मुखइ अणसण वर्यउ ।। आराधना करि संघ खामण, धरी विविध उल्हास नी। 'करमसी' तिणि विधि कियउ संथारउ, रीति गुरुकुल-वास नी ॥२॥ चड्यउ संथारइ तिणि परइ, जिणि विधि पूरब साधु । ___ करम भांजिवा सिंह हुवउ, भलइ 'करमसी' साधु ।। 'करमसी' साधु भलइ दीपायउ, गच्छ खरतर संघनइ । परभावना अम्मारि वरतो, उच्छव होई दिन दिनइ ॥ सिद्धान्त गीतारथ सुणावइ, साधु वेयावच करइ । धन कर्म करमट तिय खपावइ, चड्यउ संथारइ तिणि परइ ।।३।। 2010_05 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री करमसी संथारा गीतम् जन्म 'जेसाणई' जेहनउ, 'चांपा शाह' मल्हार । 'चांपलदेवि' उरि धर्यउ, 'ओसवंश' नउ सिणगार ।। 'ओसवंश' नउ सिणगार ए मुनि, दुकर करणो जिणि करी । अन्नेक जामन मरण हुंती, छटउ अणसण उच्चरी ।। 'करमसी' मुनि मन कीरयउ करड़उ नेह नाण्यउ देहनउ । ___मन मदन करडइ क्षेत्र जीत्यउ, जन्म 'जेसाणई' जेह नउ॥४॥ जेहनी प्रशंसा सुर करइ, मानव केहो मात्र । - सोम मुनीश्वर इम कहइ, धन धन एह सुपात्र । धनं एह पात्र सुसाधु सुन्दर, परतखि मुनि पंचम अरइ । धन जन्म जीविय जाणि एहनउ, परगच्छी महिमा करइ ।। मास की संलेखण करि नइ, अधिक दिन वीस ऊपरइ । ___ए अमर जग मई हुअउ इणि परि, प्रशंसा सुर नर कर।५ 'वइसाखई' संतोषस्युं, 'सातमि बदि' उच्चार । कियउ संथारउ करमसी, कलि मइं धन अणगार ॥ अणगार धन्ना शालिभद्र जिम, तप अनेक जिणइ किया । 'सइ अढी बेला निवी आंबिल' करी जिण अणसण लिया ।। चारित्र पंचे वरस पाली, सु ल्यउलाई मोक्ष स्युं । आणंद खरतर गच्छ वाध्यउ, वइसाखइ संतोष स्यु॥६॥ ॥ इति गीतम् ॥ --***- - 2010_05 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ऐतिहासिक जेन काव्य संग्रह कवि ललितकीर्ति कृत श्री लब्धिकल्लोल सुगुरु गीतम् ।। गुरु 'लब्धिकल्लोल' मुणिन्द जयउ, जाणे पूरव दिसि रवि उदयउ। मन चिन्तित कारिज सिद्धि थयउ, दुःख दोहग दुरई आज गयउ ।। 'सोलइ सइ इक्यासी' वर वरसइ, भवियण लोकण देखण हरसइ । गच्छपति आदेशई 'भुज' आया, चउमास रह्या श्री संघ भाया ॥२॥ "काती बदि छट्टि' अणसण सीधो, मानव भव सफल जिणे कीधो। ले परभव ना संबल बहुला, पहुंता सुर सुधरस(?) भुवन वहिला ॥३॥ आवी सुरपति नरपति निरखइ. 'मगसर बदि सातम' बहु हरखइ । पगला थाप्या चढतइ दिवसइ, निरखो तन वयन नयन विकशइ ॥४॥ थिर थान भलो 'भुज्ज' मई सोहइ, सुर नर किन्नर ना मन मोहइ । सद्गुरु परतिख परता पूरइ, सहु संकट विकट विघन चूरइ ।।५।। 'श्रीमाली' कुल कैरव चंदा, साह 'लाडण' 'लाडिम' दे नंदा । दउलति दायक सुरतरु कंदा, प्रणमइ पद पंकज नर वृन्दा ॥६॥ श्री 'कोरतिरतन सूरीश' तणी, शाखा मई अद्भुत देव मणी । वाचक 'लब्धिकल्लोल' गणी, दिन प्रति प्रतपउ जिम दिवस मणी ॥७॥ गणि 'विमलरंग' पाटइ छाजइ, अभिनव दिनकर जिम जगि राजइ । जसु नामइ अलिय विधन भाजइ, जसु अतिशय करि महियलि गाजइ। मन शुद्धई कीजइ गुरु सेवा, अति मीठी दीठी जिम मेवा । निज गुरु पद सेव करण हेवा, दिन प्रति वांछइ जिम गज-रेवा ॥६ 2010_05 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mannnnnnnnnnnnnnnnnnn श्रीलब्धिकलोल सुगुरु गीतम् तुम्ह देश देशन्तरि कांइ भमउ, गुरु सेव थकी दालिद्र गमउ ।। ईति अनोति कुनीति दमउ, घर बइठा लिखमो पामि रमउ ॥१०॥ साह 'पीथई' 'हाथी' 'रायसिंघई', 'मांडण' आदई करि 'भुज' संघइ । उद्यम करि धुंभ तणउ रंगइ, थाप्या पूरब दिशि मन संगइ ।।११।। मिज सेवक नइ दरसण आपइ, पगि पगि सानिध करि दुःख कापइ। गणि 'ललित कीर्ति' चढतइ दावइ, वंदइ गुरु चरण अधिक दावइ ।१२। ॥ इति गुरु गीतम् ॥ सुगुरु वंशावली भट्टारक 'जिनभद्र' खरउ, गच्छ नायक खरतर।। तसु पट्टहि 'जिनचन्द' सूरि, तप तेज दिवाकर ।। सहगुरु श्री जिनसमुद्र', तासु पट्टहिं श्रुत सागर । तसु पट्टहिं बुधिमंत सूरि 'जिनहंस' सूरीश्वर ॥ अभिनवउ इन्द्र रूपइ अधिक, संजम रमणो सिर तिलउ । गच्छपति तास पट्टहि गुहिर, 'जिनमाणिक' महिमा निलउ ।।१।। पारिख' वंश प्रसिद्ध, जुगति जिनधर्म सुं जोरी। कहु तसु पट्टि 'कल्याणधीर', वाचक धर्म धोरी ॥ भणशाली' कुल भाण शीस, तसु पट्टहि सुरतरु । वाचक श्री कल्याणलाभ' वाणी अनुपम वरू । याठक 'कुशलधीर' तासु सिसु, वदइ एम वंशावली । गुरु भगत शिष्य गुरु गुण यही सफल करउ रसनावली ॥२॥ (P. C. गुटका नं०६०) - - - 2010_05 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह AnnivvvvM ॥ श्रीविमलकीर्ति गुरु गीतम् ॥ प्रह ऊठी नित प्रणमियइ हो, 'विमलकीर्ति' गणि चंद। । तेज प्रतापे दीपता हो, प्रणमै सहु नर वृन्द ।। १ ।। भविक जन वंदियइ हो, नामे पाप पुलाय ॥ भ० ॥ आंकणी ।। खरतरगच्छ में शोभता हो, सर्व कला गुण जाण । जेहनइ मुखि भारती वसइ हो, जाणइ ज्ञान विज्ञान ।। २॥ भ०॥ 'हुबई' गोत्रे परगड़उ हो, 'श्रीचंद' शाह मल्हार । मात 'गवरा' जनमिया हो, शुभ मूरति(महूरत) सुखकार ॥३॥भ०।। संवत् 'सोलह चउप्पणई' हो, लीधी दीक्षा सार । ___ 'माह सुदि सातम' दिनइ हो, पालइ निरतिचार ॥ ४ ॥ भ० ।। 'साधुसुन्दर' पाठक भला हो, सकल कला प्रवीण । सइंहथ दीक्षा जेण दीधी हो, ध्यान दया जुण लीण ||५||भ०।। चउरासी गच्छ सेहरो हो, श्री 'जिनराज सुरिन्द'। वाचक पद सईहथ दियो हो, सेव करइ जन वृन्द ॥६॥०॥ 'सोलहसइ बाणू' समइ हो, श्री ‘किरहोर' सुठाम । आराधन अणसण करी हो, पहुंता स्वर्ग सुधाम ।। ७ ।। भ० ।। 'विमलकीर्ति' गुरु नाम थी हो, जायइ पातक दूर। 'विमलरत्न' गुरु सेवतां हो, प्रतपे पुण्य पडूर ।। ८ ।। भ० ।। 2010_05 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwcome श्री विमलकीर्त्ति गुरु गीतम् (२) राग - धन्याश्री ॥ २०६ वाचक 'विमलकीर्ति' गुरुराया, प्रणमो भवियण पाया वे । दरशन देखि नवनिधि थाइ, सुख संपति लील सदाइ बे || १|| बा० संवत 'सोल चउपन्ना' वरसे, चतुर चारित्र गहइ हरषइ बे । 'साधुसुन्दर' तसु गुरु सुवदीता, वादी गज मद जीता बे || २ || ब तासु शिष्य गुरु कमल दिणन्दा, भविक चकोर चित्त चंदा बे। सौभाग्य सवाइ बे || ३ || वा० ॥ अनुक्रम 'वाचक' पदवी पाइ, गुरु मूल चक्क 'मुलताण' कहावइ, तिहां चउमासइ आवइ बे । दान पुण्य ( तिहाँ ) अधिका थावइ, श्री संघ वधतइ दावइ बे || ४ || वा०॥ सिन्धु नगर 'कहिरोरइ' आया, लख चौरासी खमाया बे। अणसण पाली स्वर्ग सिधाया, गीत ज्ञान बहु गाया बे ||५|| वा०|| शिष्य शाखा प्रतपत्र रवि चंदा, जां लगि मेरु ध चंदा बे । 'आणंद विजय' इम गुण गावइ, चढ़ती दडलति पावइ बे || ६ || वा १४ 2010_05 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ऐतिहासिक जन काव्य-संग्रह साध्वी हेमसिद्धि कृत ॥लावण्यसिद्धि पहुतणी गीतम्॥ राग :-सोरठ दहा:-आदि जिणेसर पय नमी, समरी सरसति मात । गुण गाइसुगुरुणी तणा, त्रिभुवन मांहि विख्यात ॥१॥ वेलि ढाल:-जे त्रिभुवन माहि विख्यात, 'लावनसिद्धि' गुण अवदात ___ 'बीकराज' साहकी धीया, वइरागइ चारित्र लीया ॥२॥ 'गूजर दे' माता रतन्न, सहू लोक कहइ धन धन्न । शीलादिक गुण करि सीता, सहु दुनीया मांहि वदोता ॥३॥ जिण माया मोह निवार्या, भवियण भव-जलनिधि तार्या । सूधा पंच महाव्रत पालइ, त्रिण्ह गुप्ति सदा रखवालइ ।। ४ ।। दहा:-अढ़ार सहस शीलंगधर, टालइ सगला दोस । सुन्दर संजम पालती, न करइ माया मोस ॥ ५ ॥ न करइ तिहां माया मोस, वलि निज घट नाणइ रोस । धन धन ते श्रावक श्रावी, गुरुणी नइ प्रणमे आवी ।। ६॥ मीठी तिहां अमीय समाणी, सुन्दर गुरुगी नी वाणी। ___ सुणि सुणि बूझइ भवि लोक, दिनकर दंसणि जिम कोक ।। ७ ।। पहुतणी 'रत्नसिद्धि' पाटइ, दिन प्रति जस कीरति खाटइ । नवनिध हुइ गुरुणी नई नामइ, मनवंछित भवीयण पामइ ॥८॥ 2010_05 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लावण्यसिद्धि पहुतणी गीतम् दूहा:-अंग उपांग सहु तणा, जाणइ अरथ विचार । श्री 'लावण्यसिद्धि' पहुतणी, विद्या गुण भंडार ।।६।। सब विद्या गुण भंडार, महिमंडलि करइ विहार। तप करि काया उजवालइ, 'चंदनबाला' इणि काले ॥१०॥ "जिनचंद' सुगुरु आदेस, परमाण करइ सुविशेष । अनुक्रमि 'विक्रमपुरि' आवी, निज अंत समय परभावी ॥११॥ सवि जीवह रासि खमावी, उत्तम भावना मन भावी । अणशण आदरियउ रंगइ, सुर व(प्र?)णमइ धरमहु संगइ ॥१२॥ दूहा:-समकित सूधउ पालती, करती सरणा च्यारि । इण परि संथारो कीयउ, माया मोह निवारि ॥ १३ ॥ माया मोह निवारी, करइ संघ प्रभावन सारी । वाजइ पंच शब्द तिहां भेरी, नीसाण घुरंति नफेरी ॥१४॥ अपछर आरतीय उतारि, जिन शासन महिम बधारी । जिनवर नो ध्यान धरती, नवकार विधइ समरंती ॥ १५ ॥ दूहाः-संवत 'सोलहसइ बासठि', पहुती सरग मंझारि । जय जय रव सुर गण करइ, धन गुरुणो अवतार ॥ १६ ॥ धन धन गुरुणी अवतार, भवियण जन नइ सुखकार । थिर थान 'विक्रमपुरि' धुंभ, देखि मनि धरइ अचंभ ॥१७॥ परता पूरण मन केरी, कल्पतरु थी अधिकेरी। 'हेमसिद्धि' भगति गुण गावइ, ते सुख संपति नितु पावइ ॥१८॥ (तत्कालोन लि० हमारे संग्रह में ) 2010_05 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvs. RAJA २१२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पहुतणी हेमसिद्धि कृत सोमसिद्धि(साध्वी)निर्वाण गीतम्। राग:-मल्हार सरस वचन मुझ आपिज्यो, सारद करि सुपसायो रे । सहगुरणी गुण गाइसुं, मन धरि अधिक उमाहो रे ॥१॥ सोभागिण गुरुणी वंदीयइ, भाव धरी विशेषो रे ।सो०। आंकड़ी । गीतारथ गुरुणी जाणीयइ, गुणवंती सुविचारो रे। करूणा रस पूरी सदा, सब जन कुं सुखकारो रे ।।२।।सो. शीलइ सीता रूयडी, सोमइ चंद्र समानो रे। उग्र विहारइ तप करइ, महिमा सहित प्रधानो रे ॥३॥सो।। 'नाहर' कुल मांहि चंदलउ, 'नरपाल' जु गुण ठामो रे । तेहनी नारी जाणियइ, शील करी अभिरामो रे ॥४॥सो०॥ 'सिंघा दे' गुण आगली, तास पुत्री गुणवंतो रे। रूप करी अति शोभती, 'संगारी' नाम कहंतोरे ॥५॥सो०॥ योवन वय जब आवीयउ, पिता मन माहि चिंतइ रे । 'बोथरा' वंशे दीपतउ, 'जेठ शाह' सुहावइ रे ॥६॥ सो० ॥ तास पुत्र ‘राजसी' कहीजइ, परणावइ मन रंगो रे। वरष अढार हुआ जेभ(त?)लइ, उपदेश सुणी मन चंगो रे ॥णासो०॥ वइराग उपनउ तेहनइ, अनुमति मांगी तेमो रे । सासु श्वसरा इम कहइ, हुज्यो तूझ नइ खेमो रे ॥ ८॥सो०॥ 2010_05 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसिद्धि (साध्वी) निर्वाण गीतम् २१३ चारित्र पालतां दोहिलउ, सुकुमाल जु तुझ देहो रे । मत कहिज्यो कांइ तुम्ह वली, मुझ चारित्र ऊपर नेहो रे ॥६॥सो० उच्छव महोत्सव कीधा घणा, दीक्षा लीधी सारो रे । लावण्यसिद्धि' कन्हइ रहइ, सूत्र अर्थ ना ल्यइ विचारो रे ॥१०॥सो० 'सोमसिद्धि' नाम जु थापीयउ, गुणे करी निधानो रे । आपणइ पद थापो सही, चारित्र पालइ प्रधानो रे ॥११॥सो०॥ 'सैंत्रुज' प्रमुख यात्रा करी, तिम वलि तीर्थ उदारोरे। कीधी भावइ सदा सही, तप उपमा सारो रे ॥ १२ ॥सो०॥ 'श्रावण वदि चउदसि' दीनइ, 'वृहस्पतिवार' प्रधानो रे। अणसण लीधउ भावसं, सब कला गुण निधानो रे ।१३।सो। देव थानक पहुंता सही, श्री गुरुणी गुणवंतो रे। गुरुणी आस्या पूरी करउ, मुझ मन घणी खंतो रे ॥१४॥सो०।। विरला पालइ नेहडउ, तुंम सु (तो?) प्राण आधारो रे। तुम्ह बिना हुँ क्युंकर रहुं, दुखीया तुं साधारो रे ।१५।सो०। मोरा नइ वलि दादुरां, बाबीहा नइ मेहो रे. चकवा चिंतवत रहइ, चंदा उपरि नेहो रे ।। १६ ॥ सो० ॥ दुखोयां दुख भांजीयइ, तुम्ह बिना अवर न कोइ रे । सहगुरुणी गुण गावीयइ, वांदउ दिन दिन सोइ रे ॥ १७ ॥सो०॥ चंद्र सूरज उपमा, दीजइ ( अधिक ) आणंदो रे । पहुतोणी 'हेमसिद्धि' इम भणइ, देज्यो परमाणंदो रे ॥१८॥सो०॥ ॥ इति निर्वाण गीतम् ।। (तत्कालीन लि० हमारे संग्रहमें) 2010_05 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह साध्वी विद्या सिद्धि कृत ॥ गुरुणी गीतस् ॥ ---**- - ............ ....... करि आगली, सुमति गुपति भंडार ॥ प्र० ॥२॥ गोत्रज 'साउसखा' जाणियइ, 'करमचंद' साह मल्हार । ____भाव अधिक परिणामइ आदयों लीधउ संजम भार प्र०॥३॥ जणती (जाणीती ?) गछ माहे पहुतणी, क्रिया पात्र सुविचार । __ अहनिस जपतां नाम सुहामणउ, सुख संपति सुखकार ।४। प्र० श्री जिनसिंह सूरीसर' आपीयउ, “पहुतणी' पद सुविशाल । तप जप संजम रुडी परि राखती, जिम माता नइ बाल प्र०॥ साध्वी माहि सिरोमणि साध्वी, भणिय गुणिय सुजाण । . राति दिवस जे समरण करइ, प्रणमइ चतुर सुजाण । ६ । प्र० ।। 'सोलहसइ निआणू' बरस मई, 'भाद्रव बीज' अपार । . इम बोलइ 'विद्यासिद्धि' साध्वी, संपति हुवउ सुखकार ॥०॥७॥ (सं० १६६६ भा० ० ३ लि०) 2010_05 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुर्वावली फाग (१) श्री गुर्वावली फाग २१५ प्रणमति केवल लच्छि वरं, चडवीसमड जिणंदो । गाइसु 'खरतर' जुग पवर, आणिसु मनि आणंदो ||१|| अहे पहिलउ जुगवर जगि जयउ ए, श्री 'सोहमसामि' । वीर जिणंदह तणइ पाटि, सो शिवपुर गामी ॥ मोह महाभड तणउ माण, हेलि निरदलीयउ । 'जंबूस्वामी' सुस्वामि साल, केवलसिरि कलीयउ ||२|| सुयकेवलि सिरि 'प्रभवसूरि', 'सिज्जंभव' गणहर । दस पूर्वधर 'वरस्वामि', तयणुक्कमि मुणिवर ॥ तसु वंशि दियर जिसउए, तव तेय फुरन्तु । सिरि 'उज्जोयणसूरि' भूरि, गुण गणहिं वदीत ॥३॥ 'आबूयगिरि' सिहरि जेण, तप कीयउ छम्मासी । पयड़ीकय सिरि सूरि मंत्र, तसु महिम पयासी ॥ 'पउमावइ' 'धरणिन्द' जासु, पय क (य) मल नमंसिय । नंदउसो सिर 'वद्धमाण', मुणि लोय पसंसिय ||४|| भास 'अणहिलपुर ' मढ़पत्ति (जीपी) जेण, थापी मुणिवर वासो । रायंगण 'दुल्लह' ताई, पामी विरुद पयासो ॥५॥ अहे 'खरतर विरुद' पयासु जा (सु), दीघउ चउसालो । निर्मल संयम गुणहि जासु, रंजिय भूपालो ॥ 2010_05 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वारिय चेइयवास वास, थापिय मुणिवर केरु । सूरि 'जिणेसर' गुरुराय, दीपइ अधिकेरु ।।६।। 'श्रीजिणचंद' मुणिन्द चंद, जिम सोहइ सप्पह । विवरिय जेण नवंग चंग, पयडी थंमण पहु ।। निय वयणिहि गुण कहइ जासु, सीमंधर जिणवर । - सलहिज्जइ सिरि 'अभयदेव',सो सूरि पुरन्दर ।।७।। 'बागड़िया' 'दस स(ह)स' सार. सावइ पडिबोहिय । चित्रोड़ी' 'चामंड' चंड, जसु दरसणि मोहिय ॥ 'पिण्डविसोहो' विचार सार, पयरण निम्माविय । 'जिणबल्लह' सो जाणीयइ ए, जण नयण सुहाविय ।।८।। भास 'अंबा' एवि पयास करि, जाणी जुगहपहाणो । 'नागदेवि (व?)' जो मुणिपवर वाणी अमिय समागो ।।६।। अहे अमी समाण वखाण जासु, सुणिवा सु(र) आवइ । . चउसठि जोगणि जासु नामि, नहु तणु (किणि?) संतावइ ।। जुगवर श्री 'जिणदत्तसूरि', महियलि जाणीजई। निर्मल मणि दीपंति भाल, 'जिणचंद' नमिज्जइ ॥१०॥ राजसभा छतीस वाद, कियउ जइ जइ कारो। - 'बबेरक' पद ठवण जासु, सुप्रसिद्ध अपारो । सहगुरु श्री जिनपत्तिसूरि', गाजइ अलवेसर । सूरि 'जिणेसर' 'जिणपबोह', 'जिणचंद' जईसर ।।११।। 2010_05 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ श्री गुर्वावली फागः चंपक जिम वणराय मांहि, परिमल भरि महकइ । कस्तूरी घनसार कमल, केवड़उ वहक्कइ ।। तिम सोहइ 'जिनकुशल सूरि', महिमा गुण मणहर । तयणंतरि 'जिनपद्मसूरि', जिणशासणि गणहर ॥१२॥ भास लबधिवन्त 'जिनलबधि' गुरु, पाटिहिं सिरि 'जिणचंदो' । उदय करण जिण उदयवंत, श्री जिणराज'मुणिन्दो ॥१३।। अहे श्री जिनराज' मुणिन्द पाटि, गयणंगणि चंदो । खरतरगण सिंगार हार, जण नयणाणंदो ।। सायर जिम गंभीर धीर, आगम संपन्न । सहिगुरु श्री जिनभद्रसूरि', कलि गोयम मन्नउ ॥१४॥ तसु पाटि जिणचंद सूरि', जिनसमुद्र सूरिन्दो। तसु पाटिहिं 'जिनहंस सूरि', किरि पूनम चन्दो ॥ श्री जिनमाणिक सूरि' तासु, पाटिहि गुण भरियउ । चिरं जीवउ अगि विजयवन्त, संघहि परिवरियउ ।।१५।। 'जमंडलि अचल मेरू, दिणयर दोपंतउ । गिरउ खरतर संघ एह, तां जगि जयवंतउ ॥ वाणारसि सिरि 'खेमहंस', गणिवर सुपसाइ ! खेलाखेली फाग बंधि, सहगुरु गुण भाबइ ।।१६।। ॥ इति गुरावली फाग संपूर्णा ।। 2010_05 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह चारित्रसिंह कृत (२) गुर्वावली सिव सुखकर रे, पास जिणेसर पय नमउ, गोयम गुरु रे, चरण कमल मधुकर रमउ । कवि जननी रे, दिउ मुझ शुभ मति निरमली, रंगि गाइसुरे, सुविहित गच्छ गुरावली ॥ सुविहित गच्छ गुरावली किर, जेम भवियण गाइयइ । बहु सिद्धि रिद्धि निधान उत्तम, हेलि सिवपुर पाइयइ । जे नाण दर्शन चरण उज्जल, 'चउदसयवावन' बली । गणधार सवितं भावि वंदो, एह निर्मल मनि रली ||१|| सिव रमणी रे, वर सिरि वीर जिणेसरु, गुण गण निधि रे,' गोयम' स्वामी गणहरु | उपगारी रे सुखकारी भवियण तणइ, इक जोहा रे, तेहनां गुण कहु किम थुणइ || किम थुणइ तेहना गुण महोदधि, कबहि पार न पावए । जिसु मधुर ध्वनि कर देव दानव, किन्नरी गुण गावए ॥ जसु नाम जिह्वा झरइ अमृत, पढम मंगल कारणो, सो वीर जिनवर पढम गणधर, जयो दुख निवारणो ||२|| 'गच्छाधिप' रे, 'सोहम' सामी गुण निलो, तसु पाटहि रे 'जंबू सामी' जग तिलो । वर कंचण रे, कोटि 'नवाणूं' परिहरी, सुभ भावइ रे, परणी जिह संयम सिरी ॥ 2010_05 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ - ~ श्री गुर्वावली नं० २ २१६ संयमश्री जिहि हेलि परणी, चरण करण सु धारओ। मय अठ्ठ वारण मान गंजण, भविय दुत्तर तारओ। सोभाग सुन्दर सुगुण मन्दिर, मुक्ति कमला कामिनी । जिह नाथ पामी अतलेने? छइ, भइय शुभ गुण गामिनी ॥शा तदनन्तर रे, 'प्रभव स्वामि' श्रुतकेवली, सिव पद्धति रे, भवियह भाखी अति भली । 'सिजंभव' रे, सामी गुण गणधार ए, मिथ्या मत रे, पाप तिमिर भर वार ए॥ वार ए कुमत कुसंग दूषण, भाव भेय दिवायरो। 'जसभद्द' गणहर नाण दंसण, चरण गुणगण सायरो। 'संभूतिविजय' प्रधान मुनिपती, प्रबल कलिमल खंडणो । श्री 'भद्रबाहु' सुबाहु संजम, जैन शासन मंडणो॥४॥ श्री 'थूलिभद्र' रे, वाम कामभड भंजणो, उपसम रस रे, सागर मुनि गण रंजणो। जसु उत्तम रे, सुजस पडह जगि वाज ए, . अति निरमल रे, शील सबल दल गाज ए ।। गाजए दुक्कर सुविधि-कारी, जासु गुण पूरी मही। रवि चक्क तलि वर सील सुभ वलि, जेह सम सरिखो नही । प्रतिबोधि कोश्या मधुर वयणिहि, किद्ध उत्तम साविया । सो ब्रह्मचारी सुकृत-धारी, भावि प्रणमो भाविया ॥५॥ तसु अनुक्रमि रे, 'अज्जमहागिरि' जगि जयो, जिणकप्पह रे, तुलणाकारी सो भयउ । 2010_05 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह mmmmmmmmmmmmmmm तसु सविनय रे, 'अज सुहथी' जाणिये, 'संप्रति' नृप रे, सावय जासु वखाणियइ ।। वखाणिये जगि जासु उत्तम, लब्धि महिमा अति घणी। श्री 'अजसंती' थिवर कहियइ, तासु पाट्टिहि गच्छ धणो। 'हरिभद्र' आरिज सुमति वासित, 'साम अज' मुणीसरो। 'पन्नवण सुत' उद्धार कारी, जयो सो जगि जुगवरो॥६॥ हिव आरिजरे,'संडिल'नाम जइसरु,श्री रेवत रे मित्र'मुणिंद जुग्गेसरु । धर्मागिर रे धर्माचारिज सोहए,वर संजम रे सील सुगुण जग मोह ए । मोह ए रतनत्रय विभूषित, 'अजगुत्त' मुणीसरा, गुण रयण रोहण भविय मोहण, 'अजसमुद्द' गणीसरा । सिर 'अज्जमंगु' सुधम्म पयडण, पवर दिणयर दीप ए। सिरि 'अज्ज सोहम' थविर हरिबल, मोह कुञ्जर जीप ए ॥७॥ गुण सागर रे, 'भद्रगुप्त' मुनि नायगो, भवियण जण रे, समकित सुरतरु दायगो। 'सींहगिरि' गुरु रे, अंतेवासी राज ए, जा ईसर रे, देस पूरव-धर छाज ए ॥ छाज ए वाला मयणमाला, रुव दंसणि नवि चल्यो। वर कणय कोडि हेलि छोडी, मयण मय भड जिणि मल्यउ १ सिरि 'वयर स्वामी' सिद्धि धामी, फलिय सिव सुह आगमो। निकलंक चारित्र धवल निर्मल, सिंघ जुग पवरागमो ॥८॥ श्री आरिज रे, 'रक्षित' जिणमय भास ए, नव पूरव रे, साधिक शुभ मति वासए । 2010_05 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री गुर्वावली नं०२ २२१ दुर्बलिकापक्ष प्रधान दिगेसरु, श्री 'आरिजनन्दि' मुणिंद गणेसरू ।। गणेसरू सिर 'नागहत्थी' मान माया चूरणो, 'रेवंत' गणधर 'ब्रह्मदीपी' सूरि वंछिय पूरणो। 'संडिल' जइवर परम सुहकर, 'हेमवंत' महा मुणी । सिर 'नागअज्जुण' नाम वाचक, अमिय सम सुन्दर झूणी ॥ ६ ॥ 'श्रीगोविन्द रे वाचक पदवी हिव लहइ, ___सम दम खम रे, चरण करण भर निरवहइ। श्रुत जल निधि रे, 'दिन्नसंभूई' वायगो, 'लोकह हित' रे, सहुगुरु शुभ मति वायगो।। वायगो भासइ हियइ वासइ, 'दूष्यगणि' जगि निरमला। वर चरण खंती गुप्ति मुत्ती, नाण निश्चय उजला ॥ श्री 'उमास्वाति' सुनाम वाचक, प्रवर उपसम रतिधरो। 'पंचसय' पयरण परम वियरण, पसमरइ सुइ गुणधरो ॥१०॥ हिव 'जिनभद्र' रे, क्षमासमण नामइ गणी, श्री हरिभद्र' रे सूरीसर जगि दिनमणी ।। अंगीकृत रे, जिन मत 'देव सूरीश्वर'। श्री 'नेमिचन्द्र' रे, सूरिराय दुरयह हरू॥ दुरिय हरु सुखकरु सुविहित, सूरि 'उद्योतन' गुरो, श्री सूरिमंत्र प्रभाव प्रकटित, 'वर्द्धमान' गुणाकरो ।। दुह कुमत छेदी सुविधि वेदी, मिच्छतम तम दिणयरो, जिणधम्म दंसी अति जसंसी, भविय कयरवस सहरो. ॥११ 2010_05 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जे सुहगुरु रे, उग्र विहारे विहरता, 'अणहिल्लपुर' रे पाटणि पहुता विहरता ॥ चियवासी, रे महिमा खंडण तिह कियउ, 'दुर्लभ' नृप रे 'खरतर' विरुद तिहां दोयउ । तिह दियउ खरतर विरुद उत्तम, नाम जग मांहि विस्तरइ, आदरइ जिनमत भावि भवियण, सुविधि मारग विस्तरइ ।। चियवासो मयगल सबल दल छल, केसरी पद पाव ए, श्री 'जैनईश्वर सूरि' सुविहित, सुजस रेह रहावए ॥१२॥ "हिव सुविहतरे, चक्र चतुर चिन्तामणी, मिथ्याभर रे, तिमिर विहंडन दिनमणी ।। जिन प्रबचन रे, वचन विलास रसालए, वन मधुकर रे, अति संवेग रसालए । 'संवेगरंग विसाल साला', नाम प्रकरण जिह करो, भव पाप पंक पखालि निरमल, नीर संजम तप धरयो । 'जिनचंद्र सूरि' नवांग विवरण, रयण कोस पयास(ए)णो, श्री 'अभयदेव' मुणिंद दिनपति, परम गुण गण भासणो ॥१३॥ हिव तप जप रे, ज्ञान ध्यान गुण उजला, ___ आतम जय रे, चरणु सुधारसु निरमला। 'जिनवल्लभ' रे, सुबिहित मारग दाख ए, _ विधि थापक रे, कुमति उसूत्र वि दाख ए ।। दाख ए गंग तरंग सुवचन, अविधि तरु भंजण करी, संवेग रंग तरंग सागर, नवल आगल गुणसरी। तसु पाटि श्री 'जिनदत्त सूरि' गुरु, 'युगप्रधान' सुहायरो। 2010_05 | Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुर्वावली नं० २ २२३ चारित्र चूडामणि समुज्जल, 'जैनचन्द्र' सूरीसरो॥१४॥ सासु पाटिहि रे, वालइ चंद कि चंदणो, श्री 'जिनपति' रे, सूरीसर जगि मंडणो। 'जिनईश्वर' रे 'जिनप्रबोध' सूरीसरु, नव सुन्द(र)रे, श्री 'जिनचन्द्र' सुधा करू । श्री 'जैनचन्द्र' सुधाकरू जल, कुशल कमला कारगो, 'जिनकुशल सूरि' सुरिंद संकट, दुख दोहग वारगो। "जिनपदम' सूरि विलास अविचल, पउम आतम थाप ए। 'जिनलब्धि' लब्धि निधान 'जिनचन्द्र', सूरि सुभ मति आप ए ॥१५॥ 'उदयाचल रे, उदय 'जिनोदय' सुहगुरु, सुखदायी रे, श्री 'जिनराज' कलाधरु । भद्रंकर रे, श्री 'जिनभद्र' मुणोसरु, 'चंद्रायण' रे, 'चन्दसूरि' गुरु गणहरू । गणधार मोह विकार विरहित, 'जिनसमुद्र' यतीश्वरु । .. 'जिनहंस सूरीसर' सुमंगल, करण दुह दालिद हरू । श्री 'जैनमाणिक' सुगुण माणिक, खीरसागर अनुपमो, जय सुखकारी दुखहारी, कप्पतरु वर जंगमो ॥१६॥ श्री 'सोहम' रे, स्वामि ने अनुक्रम भयो, तेसठमइ रे, पाटइ ए जुगवर जयो । सूरीसर रे, श्री 'जिनचन्द्र' सुसोह ए, क्यरागी ए, उपसम धर मन मोह ए । 2010_05 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwww २२४ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह मोह ए भवियण जणह मानस, एह परम जगीसरु, वर ध्यान सुमति निधान सुन्दर, नवल 'करुणा रस भरु । पण विषय विषम विकार गंजण, भाव भड भय जीप ए। सो सुविधचारी शीलधारी, जैन शासन दीप ए ॥१७॥ गंभीरिम रे, उपमा सागर गुरु तणी, किम पावइ रे जिह तई महिमा अति घणी। मह मूलिक रे, रत्नत्रय जिह जाणीयइ, ___सम दम रस रे निरमल नीर वखाणियै ।।। वखाणियै जिह सबल संयम, रंग लहरी गहगहइ, . सुध्यान वडवानल सुगुण मय, नदी पूर जिहां बहै। एक इह अचरिज भयउ हम मनि, सुणहु कवियण इम कहइ । ___ 'जिनचंदसूरि' सुरिन्द पटतर, कहउ जलनिधि किम लहइ ॥१८॥ इह सुहगुरु रे, गुण गण वर्णन किम सके, बहु आगम रे, पाठी तउ पुणि ते थकै। इह कारणि रे, श्री गुरु सम को किम तुलइ, किह पीतलि रे, कंचन सम सरि किम मुलइ ।। किम मुलइ रयणी दिन समाणी, बहुय सरवर सागरा, ___ नक्षत्र ससहर सूर कातर, उखर भू रयणागरा, सोभाग रंग सुरंग चंगिम, चरण गुण गण निरमला, 'जिनचन्द्र सूरि' प्रताप अविचल, दिन दिनइ चढ़ती कला ॥१६॥ 'ढिलि' मंडलि रे, 'रुस्तक' नगर सोहामणो, तिहा श्री संघ रे, सोहइ अति रलियामणो। 2010_05 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुर्वावलो नं० २-३ २२५ ऊमाहो रे, निवसइ गुरु दंसण तणो, मन महि जिम रे, चातक घन तिम अति घणो । अति घणो भाव उल्हास उच्छव, सधन धन सो अवसरो, ___सा धन्न वेला सु धन मेला, जत्थ दीसइ सुहगुरो । जे भावि वंदइ तेह नन्दइ, दुख छन्दइ बहु परै, संग्रहइ समकित शुद्ध सोवन, सुगुरु उच्छव जे करइ ॥२०॥ मन मोहन रे, गुण रोहण धरणी धरु, पूर्व ऋषि रे, उजवालइ जगदीसरु । चिर प्रतपो रे, श्री 'जिनचंद्र' यतीसरु, जां दिनकर रे, ससहर सुर वर भूधरु ॥ सुर भूधर जां लगइ अविचल, खीरसागर महियलै, जयवन्त गुरु गच्छपति गणधर. प्रकट तेजइ इणि कलइ । 'मतिभद्र' वाचक सोस 'चारित्र,-सिंह' गणि इम जंप ए । गुरु नाम सुणतां भावि भणतां, होइ सिव सुख संप ए ॥२१॥ गुर्वावली नं०३ ढाल-गीता छन्द नी। . भारति भगवति रे, तुं वसि मुख कजे मेरइ, सहगुरु सुरतरु रे, गाइसुं सुजस नवेरइ । सहगुरु गाइसुं सुविहित यति पति, सिरि 'उद्योतनसूरि' वरो । तसु पाट पुरन्दर सोहग सुन्दर, 'वर्द्धमानसूरि' युग प्रवरो। 'अणहिलपुर' 'दुर्लभ' राय अंगणि, जिणि मठपत पण जीतउ । क्रिया कठोर 'जिनेश्वरसूर' ति, 'खरतर' विरुद वदीतउ ।।१।। 2010_05 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह www विधि सु विरचित रे, जिणि 'संवेगरंगशाला' । गुरु 'जिनचन्द सूरि' रे, तेज तरणि सुविशाला। सुविशाल सुथंभण पास प्रकाशक, नव अंग विवरण करण न(व?)रो। __ श्री 'अभयदेव सूरि' वर तसु पाटइ, श्री जिनवलभ सूरि' गुरो॥ 'अंबिका देवी' देसित युगवर, 'जिनदत्त सूरि' अदीणो। ___ नरमणि मंडित 'जिनचंद' पदि, 'जिनपति' सूरि प्रवीणो ॥२॥ 'नेमिचन्द' नन्दन रे, सूरि 'जिनेसर' सारा, सूरि सिरोमणि रे जिन प्रबोध उदारा। सुविचार उदारा 'जिनचन्दसूरि', 'जिनकुशल सूरि' 'जिनपद्म' मुणी श्री 'जिनलब्धि सूरि' 'जिणचन्द', 'सुगुरु जिणोदय' सूरि मुणो । 'जिनराज' मुनिप (ति) 'जिनभद्र' यतीसर, श्री 'जिणचन्द सूरि' 'जिनसमुद्र' वसी। श्री 'जिनहंस सूरि' मुनि पुंगव श्री 'जिनमाणिक सूरि' शशी ॥३।। तसु पदि परिगडउ रे, गुण मणि रोहण सोहइ। 'रीहड' कुलतिलउ रे, सकल सुजन मन मोहइ । मोहइ वचन विलास अमृत रस, 'श्रीवंत' साह जनेता। 'सिरियादे' उरि रत्न अमूलक, श्री खरतर गच्छ नेता 4 "नयरंग" भणइ विसद विधि वेदी, संघ सहित निरदंदी। श्री 'जिनचन्द' सूरि सूरीश्वर, चिर नन्दउ आणन्दी ।। ४ ।। 2010_05 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर गुरु पट्टावली नं० ४ कविवर समयसुन्दर कृत (४) खरतर गुरु पट्टावली प्रणमी वीर जिणेसर देव, सारइ सुरनर किन्नर सेव । श्री 'खरतर' गुरु पट्टावली, नाम मात्र प्रभणुं मन रली ॥१॥ उदयउ श्री ‘उद्योतन' सूरि, 'वर्द्धमान' विद्या भर पूरि । सूरि 'जिणेसर' सुरितरु समो,श्री'जिनचन्द सूरीश्वर'नमइ ॥२॥ अभयदेव सूरि सुखकार, श्री 'जिनवल्लभ' किरिया सार । युगप्रधान 'जिनदत्त सूरिंद', नरमणि मंडित श्री 'जिनचंद' ॥३॥ श्री 'जिणपति' सूरिश्वर' राय, सूरि जिगेसर प्रण, पाय । 'जिनप्रबोध' गुरु समरूं सदा, श्री 'जिनचन्द' मुनीश्वर मुदा ॥४॥ कुशल करण श्री 'कुशल' मुणिंद, श्री 'जिनपदम सूरि' सुखकंद । लब्धिवंत श्री 'लब्धि' सूरीस, श्री 'जिनचंद नमुं निसदीस ॥५॥ सूरि 'जिनोदय' उदयउभाण, श्री 'जिनराज' नमुं सुविहाण।। श्री 'जिनभद्र' सूरीश्वर भलउ, श्री 'जिनचंद सकल गुण निलउ ।।६।। श्री 'जिनसमुद्र सूरि' गच्छपती, श्री 'जिनहंस' सूरिश्वर यती। 'जिनमाणकसूरि' पाटे थयउ, श्री 'जिनचंद सूरिश्वर जयो ॥७॥ ए चउवीसे खरतर पाट, जे समरइ नर नारी थाट । ते पामइ मनवंछित कोडि, 'समयमंदर' पभणइ करजोडी ||८|| इति श्री खरतर २४ गुरु पट्टावली समाप्ता लिखिताच पं० समयसुंदरेण ।। सुन्दर बड़े बड़े अक्षरों में लिखित । ( जय० भं० नं० २५ गुटका) 2010_05 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह A/ V - -- - कविवर गुणविनय कृत (५) खरतरगच्छ गुवांवली प्रणमं पहिली श्री 'वर्द्धमान', बीजो श्री गौतम' शुभ वान । __ बीजो श्री 'सुधरम' गणधार, चोथो 'जंबू' स्वामि विचार ॥शा पंचम श्री 'प्रभव' प्रभु थुगुं, श्री ‘शयंभव' छठो भणुं । ___ 'यशोभद्र' सत्तम गणधार, श्री 'संभूतिविजय' सुखकार ॥२॥ 'कोसा' वेश्या वश नवि पडयो, 'थूलभद्र' मुझ मनमें चढयो। दशम 'सुहस्तिसूरि' उदार, 'संयति' नृप प्रतिबोधनहार ॥३॥ श्री 'सुस्थित' मुनि इग्यारमो, 'इन्द्रदिन्न' बारम नितु नमो। तेरम 'दिन्नसूरि' दोपतो, 'सींहगिरी' सुर गुरु जीपतो ।।४।। पनरम नरम वाणि जेहनी, रूप कला सोहइ देहनी। दस पूर्व धर धोरी जिस्यो, 'वयरिस्वामि' मुझ हीयडे वस्यो ॥५॥ सोलम लघुवय जिण व्रत लीध , 'वज्रसेन' स्वामि सुप्रसिद्ध । __ सतरम 'चन्दसूरि' मुणि चन्द, 'सामन्तभद्र सूरि' सुखकन्द ।।६।। 'देवसूरि' प्रगमुं सुपवित्त, 'कुमद्रचन्द्र'वादे जिण जित्त । वीसमो श्री 'प्रद्योतनसूरि',जगि उद्योत कियो जिणि भूरि ॥७॥ सप्रभाव 'शांतिस्तव' कारि, 'मानदेव' गुरु महिमा धारी। श्री देवेन्द्रसूरि'गुण निलउ, सिव पह जिण देखाड्यो भलो ।।८।। 'भक्तामर' 'भयहर' हित धरी, स्तवन कीयो जिण करुणा करी। ते श्री 'मानतुंगसूरीश', 'वीरसुरि' राजे निसदीस ॥६॥ 2010_05 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ खरतरगच्छ गुर्वावलों ढाल-श्री 'जयदेवसूरीसरु', पंचवीसम प्रभ जाणि रे। 'देवानन्द' वखाणियइ, छावोसम मनि आणी रे ॥ १०॥ए० एहवा सदगुरु गाइये, मन शुद्धि करीय त्रिकालो रे । ___ संयम सरवरि झीलता, षटकाया प्रतिपालो रे ॥११॥ ए० 'विक्रमसूरि' दिवाकरू, तसु पाटि 'नरसिंह सूरि' रे । श्री 'समुद्र सूरीश्वरु', महकइ सुजस कपूर रे ॥ १२ ॥ ए० 'मानदेव' त्रीसम हुयो, श्री 'विबुधप्रभसूरि' रे । 'जयानन्द' बत्रीसमो, राजइ सुगुण पडूरि रे ॥ १३ ।। ए० श्री रविप्रभ' रवि सारखो, तेजइ करि ‘मतिमद्र' रे । 'यशोभद्र' चउत्रीसमो, पइत्रीसम 'जिनिभद्र रे ॥ १४ ॥ ए० श्री 'हरिभद्र' छत्रीसमो, सइत्रीसम 'देवचन्द्र' रे। ___ 'नेमिचन्द्र' अडत्रीसमो, उदयो जाणि दिणन्द रे ॥ १५ ॥ ए० ढाल:-श्री 'उद्योतन मुनिवरु, श्री वर्द्धमान महन्तो रे। 'विमल' दण्डनायक जिणे, प्रतिबोध्यो जयवन्तो रे ॥१६॥ युगप्रधान गुरु जाणिवा ।। "खरतर' विरुद जिणइ लयो, 'दुर्लभ' राज नी साखइ रे। सूरि 'जिणेसर' जगि जयो, कीरति सवि जसु भाखइ रे ॥१७॥यु श्री 'जिनचन्द्र' यतीसरु, 'अभयदेव' गणधारो रे। नव अंग विवरण जिणि कीया, जिण शासन सिणगारो रे॥१८॥यु ढाल:-चामुंडा जिणि बूझवी, श्रुतसागर तसु पाटइ रे। श्री 'जिनवलभ' गुरु थया, महीयल मोटइ थाटइ रे ॥१६॥ यु०॥ जीती चौसठ योगिनी, जिणि श्री जिनदत्तसूरि' रे। नाम ग्रहण तेहनो कोयउ,विकट संकट सवि चूरइ रे ॥२०॥यु।। 2010_05 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह श्री 'जिनचन्द्र सूरीसर' सांभलो, नरमणि मण्डित भालोजी। तेहनइ पाटइ श्री जिनपति'थया,सकल साधु भूपाल जी।।२१॥धन०॥ धन धन श्रीखरतर गच्छ चिरजयो, जिहां एहवा मुनिराजो रे । शुद्ध क्रिया आगम में जे कही, ते भाखइ सिव काजो जी ।२२।धन। सूरि 'जिगेसर' सरस्वति मुख वसइ, जसु महिमा नो निवासो जी। 'जिनप्रबोध' प्रतिबोधन जे करइ,अमृत वचन विलासोजी ।।२३।।धन० 'श्रीजिनचन्द्र' यतीसर तेहथी, श्रीजिनकुशल' प्रधानोजी। जसु अतिशय करि त्रिभुवन पूरियो,कुण हुवइ एह समानोजी।।२४॥ध 'बाल धवल सरस्वती' विरुदइ करी, लाधी जिण विख्यातो जी।। 'पदम सूरीसर' तसु पाटइ थयो, लबधि सूरि सुबहोतो जो ।।२५।।धन श्री 'जिनचन्द्र' 'जिनोदय' यतीवरु, धीरम धर 'जिनरायो' जी। श्री 'जिनभद्र' थयो सुविहित धणी, भवसागर वर पाजो जी ॥२६॥ध 'जिनचन्द्र' 'समुद्र' सूरीसर सारिखो,कुण हुवइ रषि गुण पूरि जी। श्री 'जिनहंस' मुनीसर मानोयइ, श्रो 'जिनमाणिक' सूरि जी ॥२७॥ पातिसाहि अकवर प्रतिबोधीयो, अमर पडह जगि दिद्धो जी। पंचनदी जिणि साधी साहसइ, चन्द्र धवल जस सिद्धोजी ॥२८॥ 'युगप्रधान' पद साहइ जसु दोयो, श्री 'जिनचन्द' सूरिंदो। उबारी 'खंभायत' माछली, चिरजयो जां रवि चन्दो जी ॥२६॥धन वीर थकी अनुक्रमि पट्टइ हुआ, जे जे श्री गच्छ धारो जी। नाम ग्रही ते प्रभण्या एहना, कुण पामइ गुण पारो जी ॥३०॥धन०॥ 'जेसलमेरु' विभूषण 'पास' जी, सुप्रसादइ अभिरामो जी। श्री 'जयसोम' सुगुरु सोसइमुदा, 'गुणविनय'गणि शुभ कामो जी॥३१॥ ॥ इति ॥ 2010_05 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनरंगसूरि गीतानि २३१ श्री जिनरंगसूरि गीतानि ।। त ॥ ढाल-हंसला गीतनी जाति ॥ मनमोहन महिमा निलउ, श्री रंगविजय उवझायन रे । ___ सेवत सुरतरु सम वड़इ, सबहि कइ मनि भाय न रे ॥शाम०॥ संवत 'सोल अठहत्तरई', जेसलमेरु मंझारि न रे । फागुण बदि सत्तमि दिनइ, संयम ल्यइ शुभ वार न रे ॥२॥म०।। अनुपम रूप कला निला, ज्ञानचरण आधार न रे। भवियण नर प्रति बूझवइ, परिहर विषय विकार न रे ॥३॥०॥ निज गच्छ उन्नति कारणइ, श्री जिनराज सुरिन्द न रे । पाठक पद दीधउ विधइ, प्रणमइ मुनि ना वृन्द न रे ॥४॥ म०|| कुमति मतंगज केसरो, महिमागर मतिवन्त न रे । मानइ मोटा महिपती, महिमा मेरु महन्त न रे ॥५॥०॥ 'सिंधुड़ वंश दिनेसरू, 'सांकरशाह' मल्हार न रे । _ 'सिन्दूर दे' उर हंसलउ, 'खरतरगच्छ' सिणगार न ॥६॥ामा बड़ शाखा जिम विस्तरउ, प्रतपउ जा रवि चन्द न रे। . "राजहंस' गणि वीनवइ, देज्यो परम आणंदन रे ॥णाम०॥ ॥ इतिश्रो पाठक गोतम् , कृतं पं० राजहंस गणिना ।। 2010_05 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह खरतर गच्छ युवराजियउ, थाप्यउ श्री जिनराज न रे । पाठक रंगविजय जयउ, सब गच्छपति सिरताज न रे ॥१॥ भवियण वांदउ भावस्य, जिम पायउ सुख सार न रे । रूप कला गुण आगलउ, निर्मल सुजस भंडार न रे ॥२॥ भ० सरस सुकोमल देसना, मोहइ सहूय संसार न रे। कूड़ कपट हीयइ नहीं, सहुको नइ हितकार न रे ॥३॥ भ०॥ होडि करइ गुरु नी जिके, ते जायइ द्रह बोड़ि न रे । सुख पायइ ते सासता,जे सेव करइ कर जोड़ि न रे ॥४॥ भ०॥ गुरु गुण गावइ मन सूधइ, नाम जपइ निशि दोश न रे। _ 'ज्ञानकुशल' कहइ तेहनी, पूजइ मनह जगीश न रे ॥५॥ भ०॥ ॥ युगप्रधान पद गीतम् ॥ 'जिनराजसूरि' पाटोधरू, दसच्यार विद्या जाण । वचन सुधारस वरसतौ, मानै सहुको आण ॥१॥ मोरी सही ए वांदोनी, जिनरंग, आणी मनमें रंग । वाणी गंग तरंग । मो० पातिशाह परख्यो जेहने, दीधो करि फुरमाण । सात सोवे (सुबा ?) माहरो, करज्यो वचन प्रमाण ॥२॥ मो०।। तसु पुत्र दीपे पाटवी, 'दारा' स को सुलताण । युगप्रधान पदवी तणो, करि दीधो निसाण ॥३।। मो०॥ 2010_05 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन रंगसूरि गीतं 'नेमीदास' 'सौंधड' जाणीजइ, 'श्रीमाली' जाति सुजाण । मा (सा?)ह पंचायण अति भलउ, गुरु रागी गुण जाण ||४ |मो० || पैसारो भलिभांति सुं, कीयो निरूाण रे काज । हाथी सिणगार्या भला, घोड़ा मुखमली साज || ५ ||मो०|| वाजा बजाया तरा (?), नेजा वणाया तूर । दान देइ याचक भणि, दादाजी रे हजूर || ६ || मो०|| श्रीपूज आया उपासरे, श्री संघ सगले साथ | मन रंग महाजन लोकमें, नालेर दीधा हाथि ||७|| मो० || सूहव बधावै मोतीयै, गुहली गावै गीत । केइ उवारे कापड़ा, राखे कुल री रीत ||८|| मो०|| संवत 'सतरदाहोतरे', श्री संघ आनंद आण 'युगप्रधान ' पद थापीया, 'मालपुरे' मंडाण ||६|| मो०|| वादी तणा मद जीपतौ महिमा तणो भंडार । २३३ दूर कीया दुरजन जिणइ, खरतर गछ सिणगार ||१०|| मो०|| 'धन मात जस 'सिंदूर दे', धन पिता 'सांकरसीह' । धन गोत्र 'सिंधुड' परगडो, धन मोरी ए जीह || ११ || मो० || 'कमलरत्न' इम वीनवे, मुझ आज अधिक आनंद । चिरजीवो गुरु ऐ सही, जांलगि ध्रु रवि चन्द || १५ || मो०|| 2010_05 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ॥ श्री कमलहर्ष कवि कृत ॥ श्रीजिनरतनसूरि निर्वाण रास सरसति सामणि चरण कमल नमी, हीयड़इ सुगुरु धरेवि। श्री 'जिनरतन सूरीसर' गुरु तणा, गुण गाऊं संखेवि ॥१॥ _ 'श्रीजिनरतनसूरीसर' समरिये ।। महियल मोटउ 'मरुधर' देस मइ, 'शुभ सेरुणा' गाम । धूना(धनी?)लोक वसइ सुखीयां जिहां,धरमी अति अभिराम ।।श्री०॥ वसइ तिहां वर शाह 'तिलोकसी', चावउ चतुर सुजाण । 'ओसवाल' वंशे उन्नति करू, जुगति करइ वखांण ॥ ३ ॥श्री०॥ तासु घरणि 'तारा दे' (दी) पती, सीलवती सुचंग । रूपवन्त शोभा में आगलो, सरस सुकोमल अङ्ग ॥ ४ ॥श्री०॥ रतन अमोलख जिणइ जनमियो, कुल मण्डण कुल भाण । मात-पिता बन्धव सहु हरखिया, जाणइ राणो राण ॥ ५ ॥श्री०॥ 'आठ वरस' नइ मन माहि उपनो, लघु वय पिण वैराग । माया ममता सगली छांडिने, दिन २ चढ़तइ बान (भाग?) ॥६श्री।। श्री 'जिनराज सूरिश्वरु' गुरु कन्है, आणी मन आणन्द । निज 'बांधव' 'माता' तीने मिली, लोधी दीख मुणिंद ।। ७ ॥श्री०॥ शास्त्र अनेक भण्या थोडइ दिनइ, बुद्धि तणइ विस्तार । चउद वरस नइ संयम आदर्यो, सफल गिणी अवतार ।। ८॥श्री०।। 2010_05 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनरतनसूरि निर्वाण रास २३५ निज उपदेसइ भवियण बूझवइ, करइ अनेक बिहार। पाल (इ) मन सुधइ मुनिवर भलउ, चारित्र निरतीचार ।। ६ ॥श्री०॥ गुण अनेक सुणी श्री पुजजी, तेडावि निज पास । 'अहमदाबाद' नगर मांहे आपियउ, 'पाठिक पद' उल्हास ॥१०श्री०॥ जुगते भलिपर 'जयमल' 'तेजसी', अवसर लही एकन्त । आणंद सुं उच्छव कीधउ तिहां, खरच्यउ धन धरि खंत ॥११॥श्री०॥ 'पाटण' नगरई पूज्य पधारिया, चतुर रह्या चउमास । सूत्र सिद्धांत अनेक सुणावतां, सहु नी पूरइ आस ।। ११ ।। श्री०॥ संवत 'सतरइ सय' वरसइ भलइ, श्री 'जिनराज सूरिस'। .. सइंहथ रतन सूरोसर'थापीया,मनि धरि अधिक जगीस ॥१३।।श्री०।। 'अषाढ़ा सुदि नवमी' शुभ दिनइ, थिर निज पाटइ थापि । श्री 'जिनराज' सरगि पधारिया, त्रिविधि समावि पाप ॥१४॥श्री०॥ श्री 'जिनरतन' तणी मानी सहु, देस प्रदेशइ आण । ठामि २ सिंघइ तेडावीया, गणिता जन्म प्रमाण ॥ १५ ॥ श्री० ॥ ढाल:-तूगीया गिर शिखर सोहइ, एहनी। चउमासि पारण करी सदगुरु, कीयो तेथी विहार रे । आविया 'पाल्हणपुरइ' पूजजी, कीयउ उच्छव सार रे ॥ १॥ आज धन 'जिनरतन' वांद्या, गया पातक दूर रे। ... श्रीसंघ सगलउ मनि हरख्यउ, प्रकट पुण्य पडूर रे ।।२।। आ०॥ 'सोवनगिरी' श्री संघ आग्रहि, आवीया गणधार रे । पइसार उच्छव सबल कीधर, सीठ (सेठ?) पीथइ' सार रे ॥शाआ०॥ 2010_05 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह संघ नइ वांदिवि सुपरइ, पूज्यजी पटधार रे । विचरता 'मरुधर' देस मांहे, साधु नइ परिवार रे ।।४।। आ०|| संघ आग्रह आविया हिव, पूज्य 'बीकानेर' रे । 'नथमल' 'वेणई' उच्छव कीधउ, खरचीयो धन ढेर रे ॥५||आ०|| उपदेस निज प्रतिबोध श्रावक, करता उप्र विहार रे। 'वीरमपुरई' चउमास आव्या, संघ आग्रह सार रे ।।६।। आ०॥ चउमास पारण आविया हिव, 'बाहडमेर' सुजाण रे । चउमास राख्या संघ मिलकर, पूज्यजी परमाण रे ॥७॥ आल। तिहां थी विचरी 'कोटडई' मह, चतुर करी चउमास रे। . पारणइ 'जेसलमेरु' श्रावक, तेडीया उल्हास रे ।।८। आ०|| पइसार उच्छव 'गोप' कीधो, लीयउ लखमी साह रे । याचकां बहुलउ दान दोघउ, मन धरी उच्छाह रे ।।६।। आ०॥ संघ आग्रह च्यारि कीधा, पूजजी चउमास रे। धन-धन'जेसलमेरि'श्रावक,लोक मय (नइ?)साबास रे॥१०॥आ०॥ 'आगरा' नइ संघ आग्रह, घणा कीध विशेष रे । . 'आगरई' गच्छराज आव्या, श्राविकां मन देख रे ॥ १ ० ॥ हुकम 'बेगम' तणउ पामी, 'मानसिंह' महिराण रे । पइसार उच्छव अधिक कीयउ, मेलीया रायराण रे ।। १२ ।आ.. हरखीया मन मांहि सहु श्राविक, वरतीया जयकार रे । याचकां वांछित दान दोघउ, प्रबल पुन्य प्रकार रे ॥१३।। आ०॥ तप नियम व्रत पचखांण करतां, धारतां धर्म ध्यान रे । निज गुणे सगले श्रावकां मन, रंजीया असमान रे ॥१४॥आ०॥ 2010_05 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनरतनसूरि निर्वाण रास चउमास चावी तिन कीधी, पूजजी परसिद्ध रे । चउमास चौथी वले राख्या, संघ आग्रह किद्ध रे ॥१५॥ आ०॥ दिन दिन चढ़तउ सुजस महियल, गुण अधिकइ गच्छराज रे । दुत्तर दुखसायर पडतां, जगत जाणे जिहाज रे ।। १६ । आ०|| करजोडी इम विनबु एहनी ढाल:इण विधि इम रहतां थकां, पूजजी नइ होडोलइ असमाधि । कारण जोगइ उपनी, करमे पिण हो हिव अवसार लाध ॥ १ ॥ तुम्ह विण पूजजी किम सरइ । 'आषाढ़ा सुदि दसम' थी, वपु बाधी हो वेदन विकराल । ध्यान एक अरिहन्त नो, मनि राखइ हो छांडी जंजाल ॥ २ ॥ तु०॥ वइरागइ मन वालियउ, नवि कीधा हो ओषध उपचार । संवेगी सिर सेहरो, 'चउरासी' हो गच्छ मई श्रीकार ।। ३॥ तु०॥ अल्प आउखो जाणीनइ, पोतानउ हो पूजजी तिण वार । सईमुख अणशण आदर्यो, सवि छंडी हो पातक आचार ॥४॥ तु॥ क्रोध लोभ माया तजी, तजीया बलि हो आठे मद मोह । पापस्थानक सवि परिहा, जगमांहि हो अति बंधती सोह ॥५॥तु०॥ मन वचन कायाइं करी, वलि लागा हो व्रत ना दूषण जेह । ते आलोयां आपणा, गच्छ नायक हो गिरुआ गुण गेह ॥ ६॥ तु०॥ सरण च्यारे उच्चरी, आराधी हो सूधा गुरु देव । कलमल पाप पखालिनइ, षट् जीवन हो पाली नित मेव ।। ७ ॥ तु०॥ जीव अनेक छोडाविया, याचक मिली हो धन खरची अनन्त । दुखीयां दान दियउ घणो,धन २धन हो मुनि लोक कहन्त ॥८तु०॥ 2010_05 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ऐतिहासिक जैम काव्य संग्रह संवत 'सतरइ सय भलइ, इग्यारे' हो 'श्रावणि बदि सार। 'सोमवार' 'सातम' दिनइ, सोभागी हो पहले पहर मंझार ॥६॥तु०!! 'चउरासी' लख जीवनइ, खमावी हो आलोइ पाप । 'हरषलाभ'नइ हरखस्युं निज पाटइ हो अविचल थिर थाप ॥१०॥तु०॥ निरमल चित नवकार नउ, मुखि कहतां हो धरता सुभध्यान । श्रीपूज्यजी संवेगी हो, पहुंता अमर विमान ॥ ११ ॥ तु०॥ करे अनोपम कोकही, मांहों मुखमल हो बड़ सूफ विछाय । चोया चन्दन अरगजा, कस्तूरो हो केसर चरचाय ॥१२॥ तु०॥ विधि विधि वाजिन वाजता, वइसारी हो जाणे देव विमान । हयवर गयवर हीसतां, सहु लोकहु (हो)करता गुण गान ॥१३।।तु०॥ ढाल-वाल्हेसर मुझ वीनती गोडीचा राय एहनी। बइठो आमण दुमणो सोभागी,ए ताहरउ परिवार हो । सोभागी० । परदेसो जिमि छांडिने सो०, जइये किम गणधार हो । सो०।१। दरसण द्यो गुरु माहरां सो०, सहु श्रावक श्राविका । सो० । जोवइ तुमची वाट हो । सो० । ए वेला नहीं ढील नी सो०, सुन्दर रूप सुघाट हो । सो० । २ । वेला थइ वखाणनी सो०, मिलीया सहु रायरांण हो । सो०।। आवी वइसो पूठीयइ सो०, वार म ल्यावो जाण हो । सो० । ३ । आवी वइठा एकठा सो०, पंडित पूछण काज हो। सो०। वेगउ उत्तर द्यउ तुम्हें सो०, गरुआ श्री गच्छराज हो । सो७ । ४ । एक वेली सुविचार नइ, बोलउ बोल रसाल हो । सो०।। वाट जोवइ जिम मेह नी सो०, उभा वाल गोपाल हो । सो०।५। 2010_05 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... . ~ ~~ ~ ~ ~ virovom श्रीजिनरतनसूरि निर्वाण रास २३६ इतना दिवस लगइ हुंती सो०, मन मई सहु नइ आस हो । सो० । तई तउ भूल तिका करी सो०, चाल्या छोडी निरास हो । सो०।६। शिष्य सहु बोलावी नइ सो०, फेरयउ माथइ हाथ हो० । सो० । ते वेला स्युं वीसरी सो०, करि बीजा नउ हाथ हो । सो०१७ आवण अवधि न कही सो०, नाण्यउ मन मइ नेह हो । सो०। अनवइ (?) जेम विचारी नइ सो०, छनमें दीधी छेह हो ।सो॥८॥ चउमासु पिण जाणि नइ सो०, संक न आणी कांइं हो सो अधविचइ म मकी करी सो०, कुण कहु छांडो जाइ हो ।सोह। देव विमाने मोहीयउ सो०, पूठी खबरि न कोध हो । सो०। इहां तो लोभ न को हुंतो सो०, तिहां लोभइ चित दीध हो ।सो०।१०। आलस किण ही बात नउ सो०,नवि हुंतउ तिल मात हो । सो० । ___दोष तुम्हारउ को नहीं सो०....." .... ... ॥१॥ मन थी भावन मूंकतउ सो०, एक समइ पिण एम हो । सो० । ते पिण भाव विसारियउ सो०,बीजा सुंधरे प्रेम हो० ॥सो०।१२। पल भर (पिण) सरतो नहीं सो०, पूज पखइ निसदीस हो । सो० । ___ जमबारोकिम जाइस्यइ सो०, महि मोटा जगदीस हो ।सो०।१३। खिण २ मई गुण संभरइ सो०, आठ पोहर दिन राति हो । सो० । कुण आगलि कहि दाखवू सो०,तेहनी वीगत बात हो ।सो०।१४। वीसार्या निवि वीसरइ सो०, सदगुरु ना गुण गाम हो । सो० । समरइ सहु साचइ मनइ सो०, नित नित लेइ नाम हो ।सो०।१५। परतिख इग पंचम अरइ सो०,सूरि सकल सिरताज हो । सो०। तुझ सरिखउ जग को नहीं सो०,वइरागी मुनिराज हो ।सो०।१६। 2010_05 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह गच्छपति तो आगइ हुआ सो०, होस्यइ वलि छइ जेह हो ।सो। पिण तो सम संसार मइ सो०,नवि दीसइ गुण गेह हो ।सो०१७ वखतावर विद्यानिलउ सो०, सूत्र सिद्धांत प्रवीण हो । सो०। कलियुग माहे जुवतां सो०, अधिको धरम धुरीण हो ।सो०।१८। तई तउ ताहरउ निरवाहीयउ सो०, जनम लगइय समान हो सो०। शैहण पण व्रत आदर्यो सो०,पाल्यउ सीह समान हो ।सो०।१९। त्रिभुवन मइ ताहरी क्षमा सो०, साराहइ संसार हो० । सो०। ____ कलि मांहे इक तुं हूओ सो०, निरलोभो गणधार हो ।सो०।२०॥ महियल मइ यश ताहरो सो०, कहतां नावे पार हो । सो०। गुण अधिका गच्छराज ना सो०, केता करू वखाण हो ।सो०२१॥ रास सरस इम आदिस्यउ सो०, पूज्य तण निरवाण हो ।सो०। भाव घणइ परमोद सु सो०, करज्यो खेम कल्याण हो ।सो०।२२। 'श्रावण सुदि इग्यारसइ' सो०, थिर शुभ थावर वार हो । सो० । 'मानविजय' सीस इम भणइ सो०, कमलहरष'सुखकार हो ।सो०।२३। अति जयवंतउ 'आगरई' सो०, खरतर संघ सुखकार हो । सो०। सुख संपत देज्यो सदा सो०,धरि मन शुद्ध विचार हो ।सो०।२४। भणतां गुणतां भावस्यु सो०, रास सरस इक चित्त सो० । नवनिधि सिद्धि महिमां बधइ सो०,था(य)इ जन्म पवित्र हो ।सो०।२५ ॥ इति श्री श्री जिनरतनसूरि निर्वाण रास समाप्तम् ।। सं० १७११ वर्षे कार्तिक सुदि ७ दिने सोम वासरे लिखतं पाटण मध्ये मानजी करमसी कस्य लिखतं ॥ साध्वी विद्यासिद्धि साध्वीसमयसिद्धि पठनार्थ । पत्र ३ .. . (बीकानेर वृहद्-ज्ञानभंडार ) 2010_05 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनरतनसूरि गीतानि २४१ www श्री जिनरतनसूरि गीतानि काल अनन्तानन्त एहनी ढाल'श्री जिनरत्न सूरीश', पूज वांदेवा हो मुझ मन छइ सही। देखण तुझ दीदार, आवइ चतुर्विध हो श्रीसंघ सामउ उमही ॥ १ ॥ गुरुया श्री गच्छराजा, खरतर गच्छ मई...'पूज दीपइ सदा।। प्रतपइ अधिक पडूर, जिण मुख दीठइ हो सुख होवइ मुदा ॥ २ ॥ 'लुणिया' वंश विख्यात, साह 'तिलोकसी' हो कुल सिर सहेरउ । 'तेजल' देवि मल्हार, हंस तणी परि हो सहगुरु अवतयंउ ॥३॥ 'पाटण' नयर प्रसिद्ध, श्री 'जिनराजई' हो सई हथि थापीयउ । संवेगी सिरदार, अधिकउ जाणी हो गुरु पद आपियउ ।। ४ ॥ मुख जिसउ पूनिमचंद, वाणि सुधारस हो निज मुख वरसतउ । करतउ उग्र विहार, भव्य जोवानइ हो नित प्रतिबोधतउ ॥ ५॥ ताहरो त्रिभुवन माहि, मस्तक आणज हो मन सूधी धरइ । युगवर वीर जिणन्द, तेह तणी परि हो उत्कृष्टी करइ ।। ६॥ (प्रण) मइ भवियण लोक, तुझ मुख देख्यां हो पाप सबे टल्या । 'राजविजय' गुरु शिष्य, 'रूपहर्ष' भणि हो वंछित मुझ फल्या ॥ ७ ॥ (२) रागः-ढाल-नायकारी श्री गच्छ नायक सेवियइ रे, 'श्री जिनरतन' सूरिंद रे । सुगुरुजी। पूज्य नइ वधावउ मोतिया रे लाल, आणी मन आणंद रे ।सुगुरुजी।। 2010_05 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह आवउ तुम्ह इण देस मइ रे लाल० । आ० । 'लुणिया' वंसइ लखपती रे, तिलोकसी' साह मल्हार रे ।सु०॥ 'तारादे' उरि हंसलउ रे लाल, कामगवी अनुहार रे । सु०।२। आग श्री 'जिनराज सूरीसरई' रे, सइंहथ दोधउ पाट रे । स०। वड वखती वइरागीयउ रे लाल, कलि गौतम नउ घाट रे ।स०३।आ। शीलइ करि थूलभद्र समउ रे, रूपइ वइर कुमार रे ।स। पालइ पंच महाव्रत रे लाल, लोभ तउ नहीय लिगार रे ।स०४|| वाणी सुधारस वरसतउ रे, सजल जलद अनुहार रे । स०। आगम सूत्र अरथ भरयउ रे लाल, श्री खरतर गणधार रे ।स।आ. श्री संघ हरष अछइ घणउ रे, बंदिवा तुम्हारा पाय रे । स० । तुझ मुख कमल निहालिवा रे लाल, चाह धरइ राणाराय रे ।स०६। "जिनराज' पाटइ चिर जयउ रे, सूहव धइ आसीस रे । स० । 'खेमहरष' मुनि इम भणइ रे, लाल जीवउ कोडि वरीस रेस०आ (३) राग:-मल्हार, ढाल व दलोरी 'श्री जिनरतन' सूरिंदा, दीपइ मुख पूनिम चंदा। सहगुरु वंदड वे ॥१॥ 'लुणीया' वंस विराजइ, दिन २ ए अधिक दिवाजइ । स०१२ 'पाटण' मई पद पायउ, सब श्रावक जन मन भायउ । स०।३। 'तिलोकसी' शाह मल्हारा, 'तारा दे' उरि अवतारा । स०।४। गुणे गौतम गणधारा, गुरु रूपइ वइरकुमारा । स० ।५ । शीलइ तउ थूलभद्र सोहइ, छत्रीस गुणे मन मोहइ । स०।६। आगम अरथ भंडारा, जिण शासण मइ सिणगारा । स०।७। 2010_05 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनरतनसूरि गीतानि २४३ वाणी सुधारस वरसइ, सुणिवा कुं जन मन तरसइ । स०।८। इम 'खेमहरष गुण बोलइ, पूज्यजी के कोइ न तोलइ । स०।९। किरहोरमें श्राविका रजी पठनार्थ कविके स्वयं लिखित पत्र ३ संग्रहमें) (४) ढाल-पोपट पंखियानी सुण रे पंथिया कब आवइ गच्छराज, सफल विहाणउ आज । सरिया वंछित काज, भेट्या श्री गच्छराज । सुणि रे पंथिया कब (आवइ) गच्छराज । आंकणी। उभी जोवू वाटडी, आइ कहइ कोई मुझ्झ । सोवन जीभ वधामणी, देखें पंथो हो तुझ । १ । सु० । सुमति गुपति धरता थका, पालइ शुद्ध आचार । किरिया आचरता थका, साथइ बहु अणगार । २ । सु० । 'लुणोया गोत्रइ दीपता, साह तिलोकसी जाणि । 'तारादे' जननी भली, सुत जनम्या गुग खानि । ३ । सु० । भावइ संजम आदर्यउ, जननी सुत सुखकाजि । जिणवर भाषित मारगइ, दीख्या श्रा 'जिनराज' । ४ । सु० । संवत 'सतरहिसइ' भलइ, मास 'आषाढ़' प्रमाण । श्रो 'जिनराजई' थापिया, सुकलइ 'सप्तमि' जाणि । ५ । सु० । गामागर पुर विहरता, जलधर नी परि जाणि । भवियण नइ पडिबोधता, भेटउ ऊात भाण । ६ । सु० । 'कनकसिंह' गणिवर कहइ, दिन दिन यूं आसीस। श्री जिनरतन सुरिंदजी, प्रतपउ कोडि वरीस । ७ । सु० । इति श्री गुरु गीतम् ( पत्र १ हमारे संग्रहमें तत्कालीन लि०) ____ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह www.nxnwwwana निर्वाण गोतम् (८) ढाल-पोपट पंखीया जाति 'श्री जिनरतन' सूरीसरो, लघु वय संयम धार । उद्यत विहार संचर्या, 'उग्रसेन पुर' सिणगार ।। १ ।। सुहगुरु पूज्य जी, मुखि बोलउ इक बात । प्रीतम सहगुरू, कांइ निसनेह अपार । वल्लभ पूज्यजी तुं मुझ प्राण आधार । जीवण पूज्यजी तुम विण कवण आधार ॥ आंकणी ।। धन पिता 'तिलोकसी', 'तेजलदे' उर धार । जिणइ एहवउ पुत्र जनमीयउ, सयल जीव सुखकार ॥२॥ 'श्रावण बदि सातिम' दिनइ, कीध ( अणशण ) उच्चार । चउविहार सुध भावस्युं, पाल्यउ निरतीचार ॥३॥ श्रावक श्रावइ वांदिवा, ओसवाल अनइ श्रीमाल । दरसण दीठां सुख हुवइ, नावइ आल जंजाल ॥४॥ च्यार प्रहर लगि तिहां धरी, छोड्याज राग न (इ) द्वेष। सहु जीवसुतिहां खामणइ, पाम्या स्वग ना सुख ।।५।। आंसु जल चउसर वहइ, छोड्या केस कलाप । देह पछाडइ भूमिस्युं, शिष्य करे रे विलाप ।।६।। हिव पर्व पजूसण आवीया, धरम कहउ मन कोडि। श्री संघ जोवइ वाटडी, वांदणि उपरि कोडि ॥७॥ तुम्ह सरिखा संसार मइ, देख्या नहीं दीदार । लोचन तृपति पामइ नहीं, जुबुं हुं सउवार ।।८॥सहु० मी० ।। युग प्रधान श्री पूज्यजी, श्री 'जिनरतन' सुरिंद। सयल संघनइ सुखकरू, 'विमलरतन' आणंद ।।६।। (पं० मानजी लि० पत्र १ से) 2010_05 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनरतनसूरि गीतानि २४५ ॥ जिन रत्नसूरि पट्टधर जिनचन्द्रसूरि गीतानि ॥ 'श्री जिनचन्द सूरोसरू' रे, गच्छ नायक गुण जाण रे । सोभागी। महियल मई महिमा घणी रे लाल, जाणइ राणो राण रे सो०॥१॥श्री० सुन्दर रूप सुहामणो रे, बखतावर बड़ भाग रे । सो०।। 'बार वरस' नइ ऊपनउ रे लाल,लघुवइ मनि वह राग रे सो०॥२॥श्री श्री 'जिनरत्न' सूरीसर आपियउ रे, सई हथ संयम भार रे ॥सो॥ श्री संघइ उच्छव कियउ रे लाल, 'जेसलमेर' मझार रे सो० ॥३॥श्री गौतम जिम गुण गहगहइ रे, साह 'सहसमल' नन्द रे । सो० । 'गणधर गोतइ' गुग निलो रे लाल,दरसण परमानन्द रे । सो॥४॥श्री श्री 'जिनरत्न सूरीसरई' रे, दीधउ अविचल पाट रे । सो० । वधतइ वरस 'अढार' मइ रे लाल, सेवइ मुनिवर थाट रे ।सो।।५||श्री 'सिन्दूर दे' सुत चिर जयउ रे लाल, गच्छ खरतर सिणगार रे ।सो। शीतल चन्द तणी परइ रे लाल, संवेगो सिरदार रे । सो० ॥६॥श्रो० श्री 'जिनरत्न' पटोधरू रे, सहुनो पूरइ आस रे । सो० । धर मन हर्ष ऊमाहलउ रे लाल, पभगइ :विद्याविलास' रे।सो०॥७॥श्री ॥ इति श्री वर्तमान श्री जिनचन्द्र सूरि गीतम् ॥ ॥ साध्वी रत्नमाला वाचनार्थम् ।। श्री जिनचन्द' सूरीश्वर वंदीयइं रे, गरूयउ गछपति गुणमणि गेह रे। मोहनगारी मूरति ताहरी रे, घडोय विधाता सईहथि एह रे । १।श्री० बदनि कमल सरसति वासउ कीयो रे, अड सिद्धि आवि रही जसु हाथि रे । 2010_05 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह कर दाहिण सिर थापइ जेहनइ रे,ते नर पामइ वंछित आथि रे ।२।श्री० ईति उपद्रव को न हुवइ किहां रे, जिहां किणि विचरइ श्री गछराज रे। घरि २ मंगल होवइ नवनवा रे, जावइ भावठि सगली भाज रे ।।श्री० धन-धन श्रावक नइ वलि श्राविका रे, भावइ आवि सुणइ उपदेस रे । पामी धरमलाभ गुरु आसिकारे,शाता सुखनउ जाणि निवेस रे।४।श्री० जोतां नयणे बीजा गच्छपति रे, ते नावइ जुगवर ताहरी जोडि रे। खजूया कोडि मिलई जउ एकठारे,तउकिम थायइ सूरिज होडि रे।५।श्री० श्री जिनरतन' आदेसइ आविया रे, रंगइ 'राजनगर' चउमास रे। वयणे* सगुरु तणे पदवी लही रे,चिहु दिशि प्रगट्यउ पुण्य प्रकाश रे ।६। 'नाहटा'वंशइ'जइमल"तेजसी रे,देव गुरू भगती माता तास रे।। हरखई 'कसतूरां' उछव करी रे, शोभा वधारी जगमई खास रे।७।श्रीद कुल उजवालक 'गणधर' गोतमइ रे, सहस करण' सुपीयार दे' नंद रे। सुप्रसन्न हुइ जोवइ जिण सामुंहउ रे, तेहना जावइ दोहग दंद रे ।८। ध्र शशि गिर अविचल जांलगइ रे, तां लगि प्रतपउ गच्छाधीश रे । वाचक रूपहरष'सुपसाउले रे, हरषचन्द' पभणइ अधिक जगीस रेह। - इति श्री गुरु गीतम् (सं० १७३० आसू वदि ८ बीकानेरे लि० पत्र २ हमारे संग्रहमें) जोहो पंथी कहि संदेसडउ, जीहो पूज्य जी नइ पाइ लागि । जीहो। गुरु दरसण तू देखतां जीहो, जागस्यइ तुरा भागि । १ । *मानजीकृत गीतमें भी सहमुख (इ)श्रीपूजजी रे, अमृत एहवी वाणि । पाटइ एहनउ थापज्यो रे, करज्यो वचन प्रमाण । ४ । मे। 2010_05 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनरत्नसूरि पट्टधर जिन चन्द्रसूरि गीतानि चतुर नर वंदु श्री ' जिनचन्द्र' जीहो अमृत श्रावणी देस ना, जीहो सांभलता दुख जाय । जीहो ति कारण तूं जाई नइ. जोहो करेज्यो वचन प्रमाण | २|जी० ॥ ܟ २४७ वचन प्रमांण कीधा हुंता जी, घर माहि नवि निधि थाइ । जी० । गुरु प्रणम्यां सुख संपजइ, जीहो कुमति कदाग्रह जाइ । ३ । जी० 'बीकानयर ' जाणीयइ रे, जी० बहु रिधिनउ भंडार | जी० । तिणगाम मांहि दीपतउ जी, 'सहसकरण' सुखकार । ४ । जी० । 'राजलदे' कुखि उपनड जी हो, नामइ 'श्री जिनचन्द्र' । जीहो । वइरागि तिणि व्रत लीय, मनि धरि अधिक आनंद | ५ | जी० । विद्या सुरगुरु सारिखड जी हो, रूपइ वइरकुमार । श्री ' जिनरत्न' पाटइ सही, बहु सुखनउ दातार । ६ । व० । जी० । चिर जीवउ गछ राजीयउ, खरतर गछ नउ इन्द्र । जी० । पण्डित 'करमसी' इम कहइ जी, 'प्रतपड जां रवि चन्द्र | ( ४ ) सुगुरु बधावउ सूहव मोतियां, श्री 'जिणचंद' मुणिन्द । सकल कला करि शोभता, जाण कि पूनम चन्द ॥ १ ॥ सु० ॥ लघु वय संयम जिण लीयड, सूत्र अरथ नउ जाण । पूज पद पायउ जिण परगड़, पूरव पुण्य प्रमाण ॥ २ ॥ ० ॥ 'श्री जिनरत्न सूरि' सइ हथई, श्री संघ तणइ समक्ष । पाइथाप्या हे प्रेम सुं, मति मन्त जाणि नइ मुख्य ॥ ३ ॥ सु० ॥ 'चोपड़ा' वंशइ चिर जयड, 'सहिसू' शाह सुतन । मात 'सुपियारे' जनमिय, सहुको कहइ धन धन्न ॥ ४ ॥ ० ॥ श्री 'जिन कुशल सूरि' सानिधइ प्रतिपउ कोडि वरीस । बघत दावइ गुरु बधो, 'कल्याणहर्ष' द्यइ आशीस ॥ ५ ॥ सु० ॥ 2010_05 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह Mah ( ५ ) पंचनदी साधन कवित्त उछलती जल अकल बोल, कल्लोल छिलंतो। वलती वलती वेल झाग अत्थाग झिलंती। भमरेटे भयभीत भभकती तटे भिडंती । पडती जुडती पवन ज अनम जड उथेंडती । जप जाप आप परताप जप, सूरि मंत्र सानिध सबल । 'जिनरतन' पाट 'जिणचन्द' जुगत, 'पंच नदी' साधी प्रबल । १। । कवित्त पंचनदी साधी तिण समय रो ( १८ वीं शताब्दी लि०) बाचक अमरविजय गुण वर्णन कवित्त साच शील संतोष, साधु लछन सकजाई। बरषत अमृत बचन, विपुल विद्या वरदाई । 'उदयतिलक' गुरु आप, हरष सुं दीयो बोध हित । पुन्य थान निज परसि, चौपडै कीयो विमल चित्त । सज्जन सुभाव सुख मुं सदा, शास्त्र हेत बूझे सकल । वाचक वदां वखतैत वर, 'अमरसिंह' तुझ यश अचल ।।१।। (जयचन्दजी के भण्डारस्थ उपरोक्त पत्र से) 2010_05 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री जिनसुखसूरिजी (बाबू विजय सिंहजो नाहरके सौजन्यसे) 2010_05 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसुख सूरि गीतम् २४६ जिन सुखसूरि गीतम्. --**--- (१) ढाल:-रसोयानी सहु मिलि सूहव आवउ मन रली, गावो गुरु गच्छराय । सोभागी। विधि सुं वंदौ 'जिनसुख सूरि' नइ, जसुप्रणम्या सुख थाय ।सो०।१।स "बहरा' गोत्र विराजइ अति भला, 'रूपचंद' शाह मल्हार । सो० । "रतनादे' माता उर उपनउ, खरतरगछ सिणगार ।२। सो० सहु०। श्री 'जिनचंद्र' सूरीसर सइंहथइ, थाप्या अविचल पाट । सो० । "सूरत' विदर श्री संघ नी साखइ, सुविहित मुनि जन थाट ।।सो० चारित लघुवय माहे आदरयउ, तप जप सुबहु लीन । सो० । आगम अरथ विचार समुद समउ, विद्या चउद प्रवीण ४||सोना सोभागी गुण रागो अति घj, वड वखती गुण खाणि । सो० । कठिन क्रिया सुविहित गछ साचवइ, मीठी अमृत वाणि ॥५॥सो०॥ सोम पणइ करि चंद सुहामणा, प्रतपइ तेज दिणंद । सो० । रूप कला करि अधिक विराजतउ, मोहइ भवियण वृन्द ॥६॥सो॥ सूरि गुणे छत्तीसे शोभता, वड वखती वड मान । सो०। लोक महाजन माने वड वडा, राउ राणा सुलतान ॥॥सोसहु। दिन २ वधतो दउलति सुवघउ, कीरति देस प्रदेश । सो० । सुजस चिहुं खंड चावउ विसतरउ, आण अधिक सुविशेष । ८ सहु०। 2010_05 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह संघ मनोरथ पूरण सुरतरु, 'जिन सुखसूरि' महंत । सो० । इणपरि 'सुमतिविमल' असीस द्यइ, पूरवइ मननी रे खंति । सहु०॥ ॥ इति श्री ' जिनसुख सूरि' गीतम्, श्राविका जगीजी वाचनार्थ ॥ ( तत्कालीन लि० पत्र २ हमारे संग्रहसे ) ( २ ) उदय थयो धन धन दिन आजनो, प्रगट्य पुण्य पडूरो जी । वंद्या आचारिज चढ़ती कला, नामे 'जिनसुख सूरो' जी ||३०||१ 'सूरत' शहरे हो जिनचंद सूरिजी, आप्यो आपणो पाटो जी । महोत्सव गाजै बाजै मांडिया, गीतांरा गहगाटो जी ॥ उ० ॥ २ 'पारिख' शाह भला पुण्यातमा, 'सामीदास' 'सुरदासोजी' । पद ठवणो कीधो मन प्रेम सुं, वित्त खरच्या सुविलासो जी ||३०||३|| रूड़ी विध कीधा रातीजुगा, साहमी वत्सल सारो जी । पट्टकूले कीधी पहिरामणी, सहु संघ नइ श्रीकारो जी ॥ ३० ॥ ४ ॥ संवत 'सतरै बासठे' समै, उच्छव बहु 'आसाढो' जी । 'सुदि इग्यारस ' पद महोत्सव सज्यो, चंद कला जस चाढो जी ।।५. 'सहिलेचा ' 'बहुरा' जगि सलहिये, 'पीचो' नख परसंसो जी । मात पिता 'रूपचंद' 'सरूपदे', तेहनइ कुल अवतंसो जी || उ० ||६|| प्रतपो एहु घणा जुग गच्छपति, श्री 'जिनसुख सुरिन्दो' जी । श्रो 'धरमसी' करूं श्री संघ नइ, सदा अधिक करो आनंदो जी |०/७ 2010_05 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसुखसूरि निर्वाण गीतम् २५१ जिनसुखसूरि निर्वाण गीतम् ढाल-झबकडानी सहीयां चालौ गुरु वांदिवा, सजि करि सोल सिंगार । सहेली भाव सुं केसर भरीय कचोलडी, महि मेली धनसार ।स०१॥ 'सतरैसै असोय' समै, 'जेठ किसन' जग जाण । स० । अणशण करि आराधना, पाम्यौ पद निरवांण । स०।२। 'जिनचन्द सूरि' पाटोधरू, 'श्री जिनसुख सूरिन्द' । स०। दरसण दौलति संपजै, प्रणम्यां परमाणंद । स०।३। पढ़ थाप्यौ निज हाथ सुं, 'श्री जिनभक्ति' सूरीस । स०। खरचै संघ धन खांति सुं, इह कहै आसीस । स०।४। 'रिणी' नगर रलीयामणो, श्रावक सहु विधि जाण । स० । देस प्रदेशै दीपता, मन मोटें महिराण । स० ।५। थुम तणी थिर थापना, मोट करै महिराण । स०। हरष घणै संघ हेतु सुं, आसत अधिकी आण । स०।६। 'माह शुकल छ?' नै दिने, शुभ महूरत सोमवार । स० । 'श्री जिनभक्ति' प्रतिष्ठिया, हरख्या सहू नर नार । स०१७ सहीय सहेली सवि मिली, पहिर पटम्बर चीर । स०। गुण गावौ गछराय ना, मेरु तणी परे धीर । स०।८। नामै नवनिधि संपजै, आरती अलगी थाय । स०। कर जोड़ी 'वेलजी' कहै, लुलि २ लागे पांय ॥ सहेली भाव सुं०६॥ 2010_05 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जिनभाक्तसूरि गीतम् ढाल:-आषाढै भैरूं आवै ए देशी। "जिनभक्ति' जतीसर वंदौ, चढती कला दोपति चंदौरे । जि०। खरतर गच्छ नायक राजै, छत्रीस गुणे करि छाजे रे । १ । जिन० । श्रो 'जिणसुख सूरि' सनाथै, दीधौ पद आपणे हाथे रे । जि०। श्री 'रिणीपुर' संघ सवायौ, महोछव कीधो मन भायो रे । २ जि० । 'सेठीया' से सुखदाई, श्री जिन धर्म सोभ सवाई रे । जि० । 'हरिचन्द' पिता धर्मधीरौ, 'हरिसुखदे' उदरै हीरौ रे । ३ । जि० । लघुवय जिण चारित लोधौ, सद्गुरु नै सुप्रसन्न कीधी रे । जि०॥ विद्या जसु हुइ वरदाइ, पुन्यै गुरु पदवी पाई रे । ४ । जि० । प्रगटयौ जश देस प्रदेसै, वरते आज्ञा सुविसेसै रे । जि० । वांटै सहु देस बधाइ, खरतर गच्छपति सुखदाई । ५ । जिनः । संवत 'सतरै उगुण्यासी, जेष्ट वदि त्रीज' पुण्य प्रकासी रे। जि०। सहु सुजस रिणी संघ साध्या, इम कहै 'धर्मसी' उपाध्या रे । ६ जि० LAN 2010_05 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जलजिनताकतरिनी श्री जिनभक्तिसूरिजी (बाबू विजय सिंहजी नाहरके सौजन्यसे) ____ 2010_05 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचनाचार्य सुखसागर गीतम् २५३. ॥वाचनाचार्य सुखसागर गीतम्।। राग -कड़खारी वाचनाचार्य 'सुखसागर' वंदियै, . सुगुण सोभाग जसु जगि सवायो। अङ्ग उच्छरङ्ग धरि नारि नर नित नमै, ___ कठिन किरिया करण इलि कहायो ॥ १॥ वा०॥ पूज्य आदेश वलि 'थंभणो' वांदिवा, नयरि 'खंभाइतै' अधिक सुख वास । संघ नी आण सुप्रमाण करि पडिकम्या, चतुर चित चंग सं चरम चौमास ॥२॥वा०॥ करिय चौमास अति खाश आगंद सूं, निज वचन रंजव्या सकल नर नारी । ज्ञान परमाण निज आयु तुच्छ जाणिन, . साधु व्रत साचवइ वलिय संभारि ॥३॥ वा०॥ प्रथम पोरसि अनै बलिय (सं० १७२५) 'मिगसर', तणी कसिण चवदस' अनै 'सोम' (शुभ) वार । ऊंचो चढू एहवउ क्यण मुख सुं कह्यो, ऊंच गति जाणना एह आचार ॥ ४ ॥ वा०॥ करिय अणतण अनै वलिय आराधना, सकल जीव राशि शुभ चित खमावी । मन वचन काय ए त्रिकरण शुद्ध सुं, भाव धरि भावना बार भावी ।। ५ ॥ वा० ।। 2010_05 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह एक मन भजन भगवंत नउ करतहिं, सुणतहिं उत्तराध्ययन वाणि। सावचेत आप श्री संघ बैठा थकां, स्वर्ग गति लहिय पुण्यवन्त प्राणी ॥ ६॥ वा० ।। वादियां गंजणो सकल जण रंजणो, प्रगट घट ज्ञान बहु आण पूरो। दुःख दालिद्र हरि सुख संपति करइ, सुप्रसन्न सेवकां हुइ सनूरो ॥ ७॥ वा० ॥ भाग बड़ भेटयइ राग मन लाइ नइ, गाइ नइ सुगुण शोभा बड़ाई। कुंकमे केसर पूजतां पादुका अधिक, धरि ऋद्धि नव निद्धि आई ।। ८॥ वा० ।। संघ सुखदाय मन लाय सुख सागरा, नागरा नित नमइ शीस नामी । गणि 'समयहर्ष' नित सुगुरु गुण गावतां सिद्धि नव निद्धि बहु वृद्धि पामी ।। ६ ।। वा० ॥ ॥ इति गुरु गीतम् ।। 2010_05 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ हीरकीर्ति परम्परा हीरकीर्ति परम्परा ॥ कवित्त ॥ 'पदमहेम' गुरु प्रवर, सदा सेवक सुख आपै । 'दानराज' दिल साच, सेवतां संकट कापै ॥ "निलय सुन्दर' वाचक सुगुरु, साहिब सुखकारी। ___ हर्षराज' गुणवन्त, 'हीरकीरति' हितकारी । पांचे सुगुरु पांच मेरु सम, पंचानुत्तरनी परे। दीजियै सुख संतान रिद्धि, 'राजलाम' वीनति करे ॥१॥ वाचक प्रवर 'राम जो', बड़ो मुनिवर वखतावर । नामै नवनिधि होइ, 'राजहर्ष' गुण आगर ॥ पण्डित चतुर प्रवीण, जुगति जाणन जोरावर । ____ 'तिलक पद्म 'दानगज,' 'हीरकीरति' पाटोधर ॥ इम ऋद्ध वृद्धि आणंद करौ, सुख सन्तति द्यौ संपदा । 'राजलाम' कहै गुरु जी हुज्यो, सेवक नुं सुप्रसन्न सदा ॥२॥ । संवत् १७५० वर्षे मिती माघ सुदि ५ दिने । ॥ श्री गुरुभ्यो नमः ॥ 2010_05 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वा० हीरकीर्ति स्वर्गगमन गीतम् श्री 'होरकोरति' वाचक प्रणमो, सुर मणि सुरतरु सुरधेन समो। अरियण दुख दोहग दूरि गमइ, घरि नवनिधि लिखमो रंग रमइ ॥१॥ सुख संपति दायक उपगारी, सेवक जन नइ सानिध कारी । लबधइ गुरु गोयम गणधारी, नित ध्यान धरू हुं बलिहारी। २। गुरु चरण करण बह्म व्रत पालइ. तप जप करि अशुभ करम टालइ। पूरव मुनिवर मारग चालइ, निज देव सुगुरु मनि संभालइ । ३। श्री 'गोलवछा' वंसइ दीपइ, तेजइ करि दिनकर नइ जोपइ । महियल मंडल महिमा जागइ, सेवक लुलि पाये लागइ । ४ । सिद्धंत अरथ गुण भंडार, छ(व) काय वछल प्रति हितकार। सुमिती अजव मदव सार, मुत्ती संजम तप निरधार । ५ । अणदीधउ न लीयइ साच बदइ, आकिंचन (दश) विध सील हवइ । आहार तणा दूषण टालइ, वइतालीस सुद्धि क्रिया पालइ । ६ । शाखा जगगुरु जिनचन्द तणइ, महिमा जस वास संसार थुणइ। गणि 'दानराज' पाटै उदयो, वाचक वर 'हीरकीरति जयो । ७ ॥ संवत 'सतरइ गुणतोस' समइ, रहिया चौमासउ अंत समय । 'श्रावण सुदि चउदस' जोधाणई' ज्ञानइ करि आऊखो जाणइ । ८ ॥ चोरासी योनि खमावि सहू , लख पाप अठार आलोय बहू। अपनै मुख अणशण आदरीयो, निज चित्तमें ध्यान धरम धरीयो ।४। नवकार महामंत्र संभाली, गति असुभ करम दूरे टाली । अणशण पहुर बि आराधी, सुह झांणइ सुर पदवी लाधी । १० । 2010_05 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० हीरकीर्ति स्वर्ग गमन गीतम् २५७ सतरइ 'गुणतीसइ' 'माह' मासइ, 'तेरस' दिवसइ मन उल्हासइ । 'वदि' महुरत शशि सुभ वार, पंगला 'थाप्या' जयजय कार । ११ । श्री 'पदमहेम' वाचक प्रवरू, श्री 'दानराज' सोहाग करू । श्री 'निलयसुंदर' 'हरषराज' मुदा, प्रणमो श्री 'हीरकीरति' सदा ॥१२॥ पांचै गुरुना पगला सोहइ, (पंच) परमेसर जिम मन मोहै । समर्या सेवक दरसण दीजै, सुख संतति उदै उन्नति कीजै । १३ । पांचे गुरुणा पूज्यां ! पगला, दुख आरति रोग ! टलइ सगला । घरि बइठां आइ मिलइ कमला, गुरु तूठां थोक सहू सबला । १४ । पय पूजो गुरु हिय भाव करी, केसर चन्दन सु चित्त धरी । सदगुरु सुपसायइ रंगरली, लहे पुत्र कलत्र समृद्ध वली । १५ । दिन दिन आणंद सुमति दाता, गुरु चरणे अहनिस जे राता। मनवंछित पूरण कामगवो, सेवक सुखदायक अधिक छवी । १६ । साचउ साहिब तुहिज मेरो, हुं खिजमतगार भगत तेरो। सुपसायइ गुरु नव निह संप(ज)इ, गणि 'राजलाभ' सेवक जंपइ । १७॥ ॥ इति श्री॥ . . ४ 2010_05 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह उपा० भावप्रमोद स्वर्गगमन गीतम् २५८ नं० १ जिस भाव जोगी जती जोग तत्त जांणतौ, वैण वखाणतो अमृत वाणि । साझीयौ तिसौ अवसाण २ सिध, जंपें अरिहंति मनि अंति जाणी ॥ १॥ व्याकरण तर्क सिद्धंत वेदन्त री, जीह वदतौ सदा भेद जुओ । भाव शिष 'भाव परमोद' चो भाव सुद्ध, हुं तो आछौ तिसौ मरण हुआ | २|| छै चोरासीये न छै कोइ ईये गुणि, श्रवण सुनीयो न को एम सीधो । ( भावपरमोद) जिम मुखा भगवंत भणै, लीयां जस लाह स्वर्गलोक लीधो ||३|| वरस 'जुग वेद मुनि इंद १७४४ 'गुरु' 'माह वदि', बात अखियात जुग सात बचिसी । बड पाठक तभी घणी महिमा वसु, रात दिन वडा कवि पात रविसी ||४|| नं० २ कड़खा में बिरदेवखाणी जै जी 'भावपरमोद' कुल रो भाण । जग मांहि जाणिजे जी, परधान पुरुष प्रमाण । टेक परधान सुजस निधान प्रगड, वा मुखि वान । असमान मान गुमांन अमली, मांण दीयण सु दान | ऊधां नाथणा नडण अनडां, पूजतै निज प्रांण । दीपतो सरव गुण जाण दीप, खरतरै दीवांण || १ || बि० ॥ 2010_05 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० भाव प्रमोद स्वर्ग गमन गीतम् २५६ व्याकरण वेद पुराण वदतौ, सकल जैन सिद्धन्त । ब्रह्मज्ञान आतम धरम वित्त, उपधान जोग विधन्त । आगम पेंतालीस अरथे, कथे कांइ न कांण। पाठक पदवी धार पृथि(वि) में, एहवै अहिनाण ॥२॥ बि० ॥ थूलभद्र नारद जिसौ धीरम, सील सत्त सरुप । "जिनरतन' सूरि पडूरि जैनू, इखै बुद्धि अनूप । तिम 'चंद' रै पिण छंदि चलतौ, वडिम आगेवाण ।। पाट पति छत्रपति पाव पूजें, रीझवै रावराण ॥ ३ ॥ वि०॥ "जिनराज सूरि' जिहाज जिन धरम, भट्टारक मुनिभूप । शिष्य तास 'भावविजे' समो भ्रम, गच्छ चोरासी रूप । 'भाव विनय' तिणरै पाट भणिजै, वडिम गुण वखांण । एतलां वंस राजहंस ओपम, सलहिजै सुविहाण ॥४॥ वि०॥ बांचतो वाणि वखांणि अविरल, अमृत धारा एम । नव नवा नव रस वचन निरुपम, जलहरां ध्वनि जेम। जस सुजस पंकज वास पसरी, प्रथ्वी रै परिमाण । रवि चंद नै ध्र (व) मेरु रहिसी, सुजस रा सहिनांण ।। ५ ।। वि० ।। जिण बाल वय ब्रह्म चार चारित्र, लोयो जती व्रत योग। वय तरुण पण मन में न वंछया, भला वंछित भोग। . तत पंच साबत नेम जत सत, वाच रुद्र ब्रह्मांण । मुकीयो नहों अरिहंत मुखं हूं, अंत रै अवसाण ॥ ६॥ वि०॥ आराधना सीधंत उचर, शुद्ध सरणा च्यार। मनि क्रोध कपट मिथ्यातमं के , लोभ नहींय लिगार। 2010_05 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह नहीं कोइ बैर विरोध किणसु, मोह नहीं अतिमांण । परलोक इंद्रापुरि पहोतो, पचखि भव (पच)खाण ।। ७ ।। वि०॥ संवत 'सतरैसे चमाले', 'माह वदि' गुरुवार । 'पंचमि' तिथ वलि पहुर पिछलै, सीख मति करि सार । भरि वीख लांबी चरम भव चवी, देवता जिम डांण । तप जप चै परताप पर-भवि, पहुंचस्यै निरवाण ॥८॥ वि० ।। इति श्री भावप्रमोदोपाध्यायनामंत्यावस्थायामुपरि अष्टकं संपूर्ण । (कृपाचंद्र सूरि ज्ञान भंडारस्थ गुटकेसे ), * जैनयती गुण वर्णन * केइ तो समस्त न्याय ग्रन्थमें दुरस्त देखे, फारसीमें रस्त गुस्त पूरी छत्रपती है । किस्त करै तपको प्रशस्त धरै योग ध्यान, हस्त के विलोकवै कुं सामुद्रिक मती है । पूज के गृहस्तके वस्त्रके जु ग्राहक हैं, चुस्त है कलामें, हस्त करामात छती है । 'खेतसो' कहत षट्दर्शनमें खबरदार, जैनमें जबर्दस्त ऐसे मस्त 'जती' हैं । ( १८ वीं शताब्दी लि० पत्र जय० भ०) 2010_05 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह THESEAR Maigad MAHARASHTRA PERSONAKS S ERIES कविवर जिनहर्षजीकी हस्तलिपि (कविके स्वयं रचित स्तवनादि संग्रहकी प्रतिका मध्य पत्र) 2010_05 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर जिनहर्ष गीतम् २६१ V '- - ' कविवर जिनहर्ष गीतम् । ॥ दोहा ॥ सरसति चरण नमी करी, गास्युं श्री ऋषिराय । श्री 'जिनहरष' मोटो यति, समय अनुसार कहिवाय ।।१।। मंद मतोने जे थयो, उपगारी सिरदार । सरस जोडिकला करी, कर्यो ज्ञान विस्तार ॥२॥ उपगारी जगि एहवा, गुणवंता व्रत धार । तेहना गुण गातां थकां, हुइ सफल अवतार ॥३॥ वाडी ते गुडां गामनी ॥ देशी ॥ श्री जिनहरष मुनीश्वर गाईये, पाईयै वंछित सीद्ध। दुसम काल मांहिं पणि दीपती, किरिया शुद्धो कीध ॥१।। श्रीजि० ॥ शुद्ध क्रिया मारग अभ्यासता, तजता मायारे मोस । रोस धरइ नही केहस्युं मुनीवरू, सुंदर चित्तई नही सोस ॥२॥श्रीजि०॥ पंच महाव्रत पालै प्रेमस्यु, न धरै द्वेष न राग। कपट लपेट चपेटा परिहरइ, निरमल मन मैं वइराग ॥३॥श्री।। सरल गुणे दूरि हठ जेहनें, ज्ञाने शठता (र) दूरि। ममता मान नही मनि जेहने, समता साधु नुं नूर ॥४॥श्री।। 2010_05 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ऐतिहासिक जेन काव्य संग्रह मंदमती ने शास्त्र वंचावता, आपता ज्ञान नो पंथ । जोडिकला मांहि मन राखतो, निरलोभी निग्रंथ ॥५॥श्री।। शत्रुजयमहातम आदि भला, तेहना कीधा रे रास । जिन स्तुति छंद छप्पया चउपई, कीधा भल भला भास ॥६॥श्री।। निज शकति इम ज्ञान विस्तारीयु, अप्रमत्त गुणना निवास । ईया सुमति मुनिवर चालता, भाषासुमति स्यु भाष ॥णाश्री।। एषगासुमति आहारई चित्त धरयु, नही किहांई प्रतिबंध । निरीह पणै मन लूखू जेहनु, नही को कलेशनो धंध ॥॥श्री।। गच्छनो ममत्व नही पण जेहनें, रुडा निस्पृह वंत । शांतो दांत गुणे अलंकरु, शोभागी सत्यवंत ॥६॥श्री।। श्रीजिनहरष मुनीश्वर बंदीइ, गीतारथ गुणवंत । गच्छ चुरासीई जाणइ जेहने, मानइ सहु जन संत ॥१॥ पंचाचार आचारई चालता, नव विध ब्रह्मचर्यधार । आवश्यकादिक करणी उद्यमई, करता शकति विस्तारि ।।२।। आज कालिनारे कपटी थया, मांडी डाक डमाल । निज पर आतमने धूतारता, एहवो न धरयोरे चाल ।।३।। आज तो ज्ञान अभ्यास अधिकछ, किरिया तिहां अणगार ते 'जिनहरष' मांहि गुण पामीइ, निंदै तेह गमार ॥४॥ आप मती अज्ञान क्रिया करी, त्रा(द?)डूकइ जिम सांड । हुं गीतारथ इम मुख भाखता, खुलनु थाइरे षांड ।।५।। 2010_05 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर जिनहर्ष गीतम् कामिनि कांचन तजवां सोहिलां, सोहलु तजवु गेह । पणि जन अनुवृत्ति तजवी दोहली, 'जिनहरई' तजी तेह || ६ || श्रीसाहायक पणि सुभ आवी मल्या, श्री' वृद्धि विजय' अणगार | व्याधि उपन्नइरे सेवा बहु करी, पूरण पुण्य अवतार ॥७॥ आराधना करावs साधुनै, जिन आज्ञा परमाण | लख चुरासीरे योनि जोव मावतां, ध्याता रूडुंख ध्यान || || पंच परमेष्टीरे चित्तइ ध्याइतां, गया स्वर्गे मुनिराय । मांडवी कीधोरे रुडी श्रावके, निहरण काम कराय || || 'पाटण' मांहिरे धन ए मुनिवरु, विचर्या काल विशेष । अखंडपणे व्रत अंत समइ ताई, धरता सुभ मति रेख ||१०|| धन 'जिनहरष' नाम सुहामणु, धन २ ए मुनिराय । नाम सुहावइ निस्पृह साधनु', 'कवीयण' इम गुणगाय ॥११॥ 2010_05 २६३ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ wrrrrrrrrrrrrror ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह * कवियण कृत * देव विलास। (देवचंद्रजी महाराजनो रास) सुकृत प्रेमराजी वने,-प्रोल्लासन चिहंस ; ते तेम रि(हृ?)दये अक्षता, 'आदिनाथ अवतंस ॥ १ ॥ 'कुरु' देशें करुणानिधि, उत्पन्न 'श्रीजिनशान्ति', शांति थइ सवि जनपदे, कार्तस्वर जस कान्ति ॥ २ ॥ ब्रह्मचारोचूडामणि, योगीश्वरमें चंद , तारक राजुलनारिनो, प्रणमु 'नेमिजिणंद' ॥ ३ ॥ यशनामिक कृत्य ताहरु, पुरीसादाणी बिरुद्द, वामाकुल वडभागीयो, 'पारसनाथ' मरद ॥ ४ ॥ जिनशासननो भूपति, 'वर्द्धमान' जिनभाण, ___ दूषम पंचम आरके, सकल प्रवर्ते आण ॥ ५ ॥ पंच परमेष्ठि जिनवरा, प्रणमु हुं त्रिणकाल, अन्य एकोनविंशति जिना, तस प्रणमं सुविशाल ॥ ६ ॥ सरसती व(र)सती मुखकजे, 'माघ' कविने साध्य, 'कालिदास' मूरख प्रते, कीयो कवि कीधा पद्य ॥ ७ ॥ 'मल्लवादी' तुज सांनिधे, जीत्या बौद्ध अनेक, तुज दरिसणे पद लब्धिनी, उत्पन्न थइ विवेक ।। ८ ॥ 2010_05 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास तिम माताना सहाय्यथी, गाजी मर्द 'देवचंद्र', 'देवविलास' रचुं भलं, खरतरगच्छं दिणंद ॥ ६ ॥ कोइ देवाणुप्रिय कहे, ए स्तवना करे किम, स्या ? गुण जोइ वरणवे, इयं ? बोले जिम तिम ॥ १० ॥ पंचमकाले 'देवचंद' ना, गुण दाखिवनें यत्र, यथार्थपणे (कहो ) मुज प्रतें, तो सत्य मानु अत्र ॥ ११ ॥ सांभलि मूढशिरोमणि, अछता गुण कहे जेह, प्रशंस किम कोविद करे, गुण कहुं सांभलि तेह ॥ १२ ॥ पंचमकाले 'देवचंद्रजी ', गंधहस्ति जे तुल्य, प्रभावक श्री वीरनो थयो अधुना बहुमूल्य ॥ १३ ॥ रत्नाकर सिंधु सदृश, चतुर्विध संघ जिन भूप, कही गया ते सत्य छे, सांभल तास रुरूप ॥ १४ ॥ ढाल - कपुर होये अति उजलुंरे ए देशी । श्री देवचंद्रजीना गुण कहुंरे, सांभल ! चतुर सुजाण । घटता गुणनी प्ररूपणारे, कहेवाने सावधानरे । भविका सांभलो मूकी प्रसाद | टंक । ॥ १ ॥ प्रथम गुणे सत्य जल्पनारे १, बीजे गुणे वुद्धिमान । चीजे गुणे ज्ञानवंततारे३, चोथे शास्त्रमें ध्यानरे ४ | भविका० | सां० ॥२॥ पंचम गुणे निःकपटतारे५, गुण छठु नही क्रोध६ । संजल नो ते जांणीयेरे, नही अनंता नी योधरे | भवि०|| सां० ||३|| अहंकार नही गुण सातमेरे, ७ आठमे सूत्रनी व्यक्ति ८ । जीवद्रव्यनी प्ररूपणारे जाणे तेहनी युक्तिरे ॥ भ० ॥ सां० ॥४॥ , 2010_05 २६५ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सकल आगम हृदये रम्यारे, तेहना भांगा जेह । 'कर्मग्रंथ' 'कम्मपयडी' ना रे, स्वप्नमा अर्थना नेह रे । भासां० ५। नवमें सकल ते शास्त्रना रे, ६ पारंगामी पुज्य । .. अलंकार कौमुदी भाष्यजे रे, अष्टादश कोश ना गुह्यरे ।भ०। सां०।६। सकल भाषामें प्रवीणतारे, पिंगल कृत शेष नाग । काव्यादिक नैषध भला रे, स्वरोदय शास्त्रे अथाग रे । भ० । सां० १७॥ जोतिष सिद्धान्त शिरोमणि रे, न्यायशास्त्रे प्रवीण । साहित्य शास्त्रे सुरतरु रे, स्वपरशास्त्रे लीण रे । भ० । सां०।८॥ दशमे गुणे दानेश्वरी रे, १० दीनने करे उपगार । एकादशे विद्यातणी रे, ११ दानशालानो प्यार रे । भ० । सां०।६। गछ चोरासी मुनिवरु रे, लेवा आवे विद्यादान । नाकारो नही मुखथकी रे, नय उपनां विधान रे । भ० । सां० । १० । अपर मिथ्यात्वी जीवडारे, तेहनी विद्यानो पोस । अपूर्व शास्त्रनी वाचना रे, देतां न करे सोस रे । भ० । सां०। ११ । विद्यादानथी अधिकता रे, नही कोइ अवर ते दान । न करे प्रमाद भणावतारे, व्यसन ना नही तोफान रे । भ० सां०।१२। पुस्तक संचय द्वादश गुणे रे, १२ जीर्णने करे नूतन । स्वगणमें अपर गणे रे, प्रतिष्टाधारक जन रे । भ० । सां० । १३ । वाचक पदवी त्रयोदश गुणे रे, १३ चौदमे वादीजीत, १४ । पनरमे जेहना उपदेशथीरे, १५ चैत्यनूत(न)नो प्रोति ।भ०। सां० ॥१४॥ सोलमे वचनातिशयथो रे, १६ द्रव्य (ख)रचाव्यो धर्मथान । सप्तदशे राजेन्द्र पाय नस्यो रे, आज्ञा माने प्रधानरे । भ० । सां० ११५॥ 2010_05 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २६७ मारि उपद्रव टालीओ रे, अष्टादशे गुणे जेह १८ देश देशे गुण कीर्तिनी रे, प्रवर्त्त विख्यातनुं गेह रे । भ०। सां०। १६॥ एकोनविंशति गुणगणे रे, आजानबाहु देवचंद्र १६ । क्रिया उद्धार वीसमे गुणे रे, अवधि जाणे सुरेन्द्र रे । भ० ।सां० ११७॥ जिम शेषनागने शिरमणि रे, तेहना गुण छे अनन्त । तिम देवचंद्र मणि मंजुरे,(मस्तकेरे)एकवीस गुण महंत भासां०।१८। प्रभाविक पुरुष आगे थयारे, अधुना तेहने तुल्य । ए गुण बावीस स्थूलतारे, सूक्ष्म गुण बहुमूल्य रे । भ० । सां० । १६ । पढम ढाल ए गुणतणी रे, कवियणे भाखी जेह । अल्पभवी हस्ये ते सद्दहेरे, एहवा पुरिस थोडा जगरेहरे ।भ०सां०।२० प्रथल ढाल ए गुणतणी, कवियण भाखी जेह, विपक्षीने जाणवा, मनमें जाणे तेह। ॥ १॥ गुणतो सर्वत्र प्रगट छ, देश विदेश विख्यात , कवियणनी अधिकाइता, स्युं ? एहमे छे वात । ॥२॥ कवियण कहे एक जीभतें, किम गुणवर्णन जाय, सागरमें पाणी घणो, गागरमें (न) समाय ॥३॥ वली कोइ भवि पुछस्ये, कवण ज्ञाति कुण जाति, मातपिता किहां एहनां, ते संभलावो भांति ॥ ४ ॥ देश किहां किहां जन्मभू, कुंण गुरुना ए शिष्य, कुण श्रीपूज्य वारे हुवा, भली उलटे लीधि दीक्ष ।। ५ ।। ___ 2010_05 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह विद्याविशारद किहां थया, किम सरस्वती प्रसन्न, कहां साधना कीधी भली, सुणतां चित्त प्रसन्न ॥ ६ ॥ देवचन्द्रना वचनथी, किम खरचाणो द्रव्य, किम भूपति पाये नम्या, ते विरतंत कहु भव्य ॥ ७ ॥ सर्व गुण गणनी वारता, भाषे कवियण जेह, सांभलजो भविजन तुमे, पावन थाये देह ॥ ८ ॥ देशी हमीरानी । थाली आकारे थिर भलो, जंबुद्वीप विदीत | विवेकी । तेह भरतक्षेत्र रम्यता, आरज देश सुप्रतीत || वि० ॥ १ ॥ भवियण भाव धरी सुणो ॥ वि० ॥ मरुस्थल देश लिहां सुन्दरु, तेह में 'विकानेर' दंग || वि० ॥ तेहने निकट एक रम्यता, ग्राम अछे सुभ चंग ॥ वि० ॥ २ ॥ था० ॥ रिद्धिवंत महाजन घणा, रिद्धेकरी समृद्ध; 11 fão 11 अमारीशब्दनी घोषणा, सुखीआ जन सुबुद्धि || वि० ॥ ३ ॥ था० ॥ 'ओशवंशे' ज्ञाति जाणीये, 'लुंणीयो' गोत्र सुजात ॥ वि० ॥ साह श्री 'तुलसीदासनी', धर्मबुद्धि विख्यात ।। वि० ॥ ४ ॥ था० ॥ 'तुलसीदास' नी भार्या, 'धनबाई' पुन्यवंत | विवेकी । शील आचारे सोभती, सत्यवक्ता क्षमावंत || वि० ॥ ५ ॥ था० ॥ यथाशक्ति क्रय विक्रयता, व्यवहारनु जे धाम ॥ वि० ॥ दम्पती प्रीतिपरम्परा, धर्मे खरचे दाम || वि० ॥ ६ ॥ था० ॥ सुविहितगच्छमें जामली, वाचकमें शिरदार ||वि० ॥ 'वाचक 'राजसागर' सुधी, जैन काजी मनोहार || वि० || ७ ||था || 2010_05 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २६६ अनुक्रमे गुरु तिहां आवीया, वांदवा दम्पति ताम || वि० ॥ 'धनबाई' श्री गुरुने कहे, सुणो गुरु सुगुणर्नु धाम ॥ वि०॥ ८॥था। पुत्र हस्ये जेह माहरे, वोहरावीस धरी भाव ॥वि० ।। यथार्थ वयण नी जल्पना, सुगुरुये जाण्यो प्रस्ताव ॥ वि०॥था०॥ विहार करे गुरु तिहां थकी, गर्भ वधे दिन दिन ।।०॥ शुभयोगे शुभमुहूरते, सुपन लयु एक दिन । वि० ।। १० ।। था० ।। शय्यामें सुतां थकां, किंचित् जागृत निंद ॥ वि०॥ मेरु पर्वत उपरे, मिली चौसठ इन्द्र । वि० ।। जिन पडिमानो ओछव करे, मिलोया देव ना वृन्द ॥वि० ११ १था०1. अर्चा करता प्रभुतणी, एहबु सुपने दीठ ।। वि० ।। औरावण पर बेसोने, देता सहूने दान । वि० ।। १२ ।। था० ।। एहवुसुपन ते देखोने, थया जाप्रत तत्काल || वि०॥ अरुणोदय थयो तक्षिणे, मनमें थयो उजमाल ।। वि० ॥१३॥ था०॥ उत्तम सुपन जे देखीउ, पण प्राकृतने पास ॥ वि० ॥ कहेवुमुजने नवि घटे, जे बोले तेह फले आस ॥ वि० ॥१४ाथा०|| दृष्टांत इहां 'मूलदेव नो, सुपन लढ्यु हतुं चन्द्र ॥ वि० ॥ मुखकजमें प्रवेशतां, ते थयो नरनो इन्द्र ॥ वि० ॥ १५ ॥ था० ॥ जटिल एके ते चंद्रमा, मुखमें करतो प्रवेश | वि०॥ मूरखने फल पुछतां, भोजन रहयुसुविवेक ।। वि० ॥ १६ ॥ था० ॥ यादृश तादृश आगले, सुपन तणो अवदात ॥ वि०॥ कहे (ते)ने पश्चात्ताप उपजे, ए शास्त्रे विख्यात । वि० । १७ । था। 2010_05 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अनुक्रमे विहार करताथका, 'श्री जिनचंद' सूरीश। वि०॥ तेह गामे पधारोया, जेहनी प्रबल जगीस। ।वि० । १८ था। विधिस्यु वांदे दंपति, 'धनबाई' कहे तास । ।वि० । हस्त जूओ स्वामी मुजतणो, आगल सुखनुं धाम(वास?)।वि०। १६था० एक पुत्र विद्यमान छे, अन्य सगर्भा दीठ । ।वि। श्रुतज्ञाने जाणीओ, पुत्र दुजो हशे इष्ट । ।वि० । २० था। ए बीजा पुत्रने अम देज्यो, पण वाचकने दीधु वचन । वि० । बीजी ढालमें कवि कहे, मन मां(न्या) नानु मन्न । वि०। २१था। दूहा:-सोरठा दंपती श्री गुरुपास, करजोडी करे विनती, तुम उपर विश्वास, यथार्थ कहो श्रीस्वामीजी ।। १ ।। सुपनाध्यायना ग्रन्थ, काड्या गुरुए तत्खिणे, सत्य बोले निग्रन्थ, लाभानुलाभ ते जोइने ।। २ ।। श्री गुरु शिर धुणावीयुं, चमत्कृति थइ चित्त , . सामान्य घर ए सुपन स्युं ? पण इहां एहवि थीति ।। ३।। हे देवाणुप्रिय ! सांभलो, सुपन तणो जे अर्थ , शास्त्र अनुसारे हुं कहूं, नवि बोलु अमे व्यर्थ ॥ ४ ॥ देशी–मनमोहनां जिनराया तुम धरणीमे गजपतिदीठो, ते तो शास्त्रे कह्यो गरीठोरे । कंवर थास्ये लाडकडो, हारे सुपनप्रभाव थास्येरे । गज पर बेसीने दान, वलि अनमिष सेवे विधानरे। १ कुं०। 2010_05 | Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २७१ दोय कारण छे ए सुपने, देवे जो प्रभावे ए तप(म?)नेरे। कुं० छत्रपति थाये ए पुत्र के, पत्रपति धर्मनुं सूत्ररे। कुंभा२।। जो राज राजेसरी थास्ये, सर्वदेशनो ईश इलास । कुं० जो पत्रपति- पद पामे, तो देश विहार सुठामेरे । कुं०॥३॥ गुरु तब ते जाणो गजराज, तेपरि बेससें शिरताजरे। कुं देवतारूप जन चाकरीये, सिंह बालकने वली पाखरीयेरे । कुं०॥४॥ दान देस्ये ते विद्यादान, बुद्धि अभयदान निदानरे। कुं० जिन ओछव करता इन्द्र, दीर्छ वृन्दारक वृन्दरे । कुं॥५॥ जिनशासननो होस्ये थंभ, विद्यानो होस्ये सर कुंभ। कुं० चैत्य न्युतन पडिमा थापन, तेजस्वीमें तपननो तापनरे । कुं॥६॥ दंपति कहे मुनिराज, सांभलता न धरस्यो लाजरे। कुं क्रोधभाव न आणस्यो चित्त, पुत्र तेजस्विमें आदित्यरे । कुं०॥७॥ तुम रांक तणे घर रत्न, रहेस्ये नही करस्ये यत्नरे। कुं० दंपति मनमांहि चिंते, धार्य छे वोहरावानुं निमित्तरे। कुं०॥८॥ संवत सत्तर (४६)छेताला वरणे, जन्म्यो ते पुत्र छ(छे?) हरषेरे। कं० गुण निष्पन्न ते नाम निधान, 'देवचंद्र' अभिधानरे। कु०॥६॥ वरस थया ते पुत्रने आठ, धारे ते विज्ञानना पाठरे। कुं. कवियण भाखी त्रीजी ढाल, आगल वात रसालरे । कुं०॥१०॥ दहा अनुक्रमे विहार करता थका, आव्या पाठक तत्र, 'राजसागर शिरोमणि', अर्भक प्रसव्यो यत्र ॥ १॥ 2010_05 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह गुरु देखी हर्षित थया, वहुराव्यो पुत्र रतन, धर्मलाभ गुरु तव दीये, करजो पुत्र जतन ॥ २ ॥ वाचक श्री राजसागरु', कोविदमें शिरताज, दिन केतलाएक गया पछी, मन चिंत्यु शुभकाज ॥३॥ दीक्षा देवी शिष्यने, सुभ महुरत जोइ जोस, सुभ चीघडीए देखीने, तो थाये संतोष ॥ ४ ॥ संघ सकलने तेडीने, दीक्षानी कही वात, वचन प्रमाण करे तिहां, उलस्यां सहूनां गात्र ॥ ५ ॥ शुभ ओछव महोछवे, दीक्षा दीये गुरुराय, . संवत 'छपने' जाणोये, लघु दीक्षा दीये गुरुराय ॥ ६ ॥ श्री 'जिनचंदसूरीश्वरे', वडी दीक्षा दीये सार, 'राजविमल' अभिधा दीउ, श्रीजीनो घणो प्यार ॥७॥ 'राजसागरजी'ये हितधरी, सरस्वतीकेरो मंत्र, आपु शिष्य 'देवचंद ने', मनमें कीधो तंत्र ।। ८ ।। गाम 'बेलाडु' जाणीये, 'वेणातट' सुभरम्य. भूमिगृहमें राखीने, साधन करे तारतम्य ॥ ६ ॥ थइ प्रसन्न सरस्वती, रसनाने कीयो वास, भणवानो उद्यम करे, श्री गुरुसाहाज्य उलास ॥१॥ देशी-वारी म्हारा साहिबा देवचंद्र अणगारने हो लाल, सुभ शास्त्र तणा अभ्यासरे, देखीने ठरे लोयणा । प्रथम षडावश्यक भणे हों लोल,के(ते?)पछी जैनशैलीनो वासरे। दे॥१॥ 2010_05 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २७३ सूत्र सिद्धान्त भणावीया हो०, वीरजिनजोए भाख्या जेहरे । दे० स्वमार्गमें पोषक थया हो०, टाले मिथ्यामतनुं गेहरे । २ दे० अन्यदर्शनना शास्त्रनो हो०, भणवाने करता उद्यमरे । दे० वैयाकरण पंचकाव्यना हो, अर्थ करे करावे सुगम्यरे । ३ दे० नैषध नाटक ज्योतिष शिखे हो०, अष्टादश जोया कोषरे। दे० कौमुदी महाभाष्य मनोरमा हो०, पिंगल स्वरोदय तोषरे । ४ दे०. भाखा (भाष्य ?) ग्रन्थ जे कठिणता हो०, तत्वारथ आवश्यकबृहद्वृत्ति हो। दे०. 'हेमाचार्य'कृत शास्त्रनारे, हो०, 'हरिभद्र' 'जस' कृत ग्रन्थ चित्तरे।५दे०. षट्कर्मग्रन्थ अवगाहता हो०, कम्मपयडोये प्रकृति संबंधरे। दे०. इत्यादिक शास्त्रे भला हो०, जैन आम्नाये कीध सुगंधरे । ६ दे०. सकलशास्त्रे लायक थया हो०, जेहने थयुमइ सुइ ज्ञानरे। दे०. संवत् सतर चुमोतरे (१७७४) हो०,वाचक 'राजसागर' देवलोकरे।७ दे०. संवत् सतर पंचोतरे (१७७५) हो०, पाठक ज्ञानधर(म) देवलोकरे । मरट '(मरोट?)' ग्रामे गुरुये भलो होला०, 'आगमसार' कीधो प्रन्थरे । 'विमलदास' पुत्री दोय भली हो०, माइजी' 'अमाइजी' शुभ पुष्परे ।८दे०. दोय पुत्रीने कारणे हो, कीधो ग्रन्थ ते आगमसाररे। दे०. संवत् सतर सीतोतरे (१७७७) हो,गुजरात आव्या देवचंदरे ।। दे. पाटण मांहि पधारीया होग, व्याख्याने मिले जनवृन्दरे । १० दे०. कवियण कहे चोथी ढालमें हो०, कझो एह विरतंत प्रसिद्धरे। दे०. आगल हवे भवि सांभलोरे हो०, धर्मकरणीनी वृद्धिरे । ११ दे० ___ 2010_05 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह दूहा पाटणमें देवचंदजी, जैनागमनी वाणि, वांची भवीजन आगले, स्याद्वाद युक्त वखाण ॥१॥ "श्रीमाली' कुलसेहरो, नगरशेठ विख्यात, राय राणा जस आज्ञा करे, प्रमाण सर्वे वात ॥२॥ नामे 'तेजसी' 'दोसीजी', धन समृद्धे पूर, श्रावक 'पूर्णिमागच्छ' नो,-जैनधरमर्नु नूर ॥ ३॥ कोविदमें अग्रेसरी, श्री 'भावप्रभसूरि', पुस्तकनो संप्रदाय बहुल, छात्र भण्या जिहां भूरि ॥४॥ ते गुरुना उपदेशथी, भराव्यो सहसकूट, 'तेजसी' 'दोसीने' घरे, ऋद्धि समृद्ध असूट ॥ ५॥ ते सेठ 'तेजसी' घरे, 'देवचंद्र' मुनिराज, तव तिहां शेठ प्रत्ये कहे, हे देवाणुप्रिय ताज ॥ ६॥ सहसकूटना सहस जिन, तेहना जे अभिधान, गुरु मुखे तमे धार्या हस्ये, के हवे धारस्यो कान ॥७॥ मीठे वयणे गुरु कहे, सांभलीयुं तव सेठ, स्वामी हुँ जाणुं नहीं, चमत्कृति थइ द्रढ ।। ८ ।। एहवे अवसरे तिहां हता, संवेगी शिरदार, 'ज्ञानविमल सूरिजी', तिहां गया शेठ उदार ।। ६ ।। विधिस्युं वांदी पुछीयुं, सह(स)कूट सहस्रनाम, आगमें थी पृथकता, निकासो सुभधाम ।। १० ॥ 2010_05 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २७५ mmrrrrrrrm 'ज्ञानविमलमूरि' कहे, सहसकूटनां नाम, अवसरे प्राये जणावस्युं, कहेस्युं नाम ने ठाम ॥११ ।। सकलशास्त्र उपयोगता, तिहां उपयोग न कोइ, आगम कुंची जाणवी, ते तो विरला कोइ ॥ १२ ॥ ए देशी:-माहरी सहीरे समाणी। एक दिन श्री 'पाटण' मझार, 'स्याहानी पोलिं' उदार रे । सहसजिननो रसीयो, 'देवचन्द्र' वयगे उलसीयो रे ॥ १स०॥ टेक ।। ते पोलिं चोमुखवाडी पास, सहुनी पूरे आस रे ॥स०॥१॥ सतरभेदी पूजा रचाणी, प्रभु गुणनी स्तवना मचाणी रे ।स। 'ज्ञानविमल सूरि' पूजामें आव्या, श्रावकने मन भाव्या रे ॥स० २॥ तिहां वली यात्राये 'देवचन्द्र', आव्या बहुजनने वृन्द रे ।स। प्रभुने प्रणाम करीने बेठा, प्रभुध्यान धरे ते गरीठा रे ॥स० ३।। एहवे तिहां शठ दर्शन करवा, संसार समुद्रने तरवारे सा प्रश्न करे शेठ 'ज्ञानविमलने', सहसकूट नाम अमलनेरे ॥स०४॥ बहु दिन थया तुम अवलोकन करतां, इम धर्मनां कार्य किम सरतारास० प्राये सहसकूटना नामनी नास्ति, कदाचि कोइ शास्त्र अस्तिरे ।स० ५। ज्ञानसमसेर तणा झलकारा, देवचन्द्र बोल्या तेणिवाररे ।स। श्रीजी तुमे मृषा किम बोलो, चित्तथी वात ते बोलोरे (खोलोरे)।स०६॥ प्रभु मन्दिरमें यथार्थनी व्यक्ति, किम उपजे श्रावक भक्तिरे ।स।. तुमे कोविदमें कहेवाओ श्रेष्ठ, अयथार्थ कहो ते नेष्टरे। ॥स०७॥ 2010_05 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तव 'ज्ञानविमलजी' की बोल्या, तुमे शास्त्र आगम नवी खोल्यारे । तमे तो मरुस्थलीयाना वासी, तुमे वाक्य बोलोने विमासीरे || स०८|| शास्त्र अभ्यास कर्यो होय जेहने, पूछोये वाक्य ते तेहरे | स०| तुमे एह वार्त्तामां नही गम्य, अमे कहीये ते तुम निसम्येरे | || स०६ ॥ इम परस्पर वाद करतां, तब शेठ बोल्या हर्ष भरमारे | स०| श्रीजी तमे अयथार्थं न बोलो, एह बातनो करवो निचोलोरे || स०१० ॥ 'ज्ञानविमल' कहे सुणो 'देवचंद', तुमने चर्चानो उपछंदरे | स०| जो तुमे बोलो छो तो तुमे लावो, सहसकूट जिन नाम संभलावोरे ॥ ११॥ तब 'देवचंद' कहे सुगुरु पसाय, सत्य युक्ति हवे न खसायरे | स०| तव 'देवचंदजी' शिष्यने साहमुं, जोइ लावो सहसजिननुं नामुरे || स०१२ | सुविनीत सूलक्षने विद्वान, गुरुभक्तिमांही निधानरे | स०| 'मनरुपजी' रजोहरणथो, पत्र आपे गुरुजीने तत्ररे । ॥स०१३॥ 'ज्ञानविमलसूरि' तव वांची, एह 'खड ( र?) तरे' मारो फांचीरे |स०| सत्कुलगुरुनो एह छ शिष्य, जेहनी जगमांहि छे अभिख्यरे ॥ स० १४ ॥ शास्त्रमयादये सहसनाम, साखयुक्त ते नाम सुठामरे | स०| | स० १५ | मौन रहने पुछे ज्ञान, तुमे केहना शिष्य निवानरे 'उपाध्याय' राजसागरजोना शिष्य, मिंठी वाणी जेहवी इक्षुरे (स० । नम्रता गुण करी बोले ज्ञान, 'देवचंद्र' ने आप्या मानरे । स० १६/ तुम वाचकतो जैनना काजी, तुमे जैनना थंभ छो गाजीरे । स०| आदि घर छे ते ( त ?) मारु भव्य, तुमे पण किम न होये कव्यरे । स०१७/ इणिपरे परस्पर युक्ति मिलीया, शेठ 'तेजसी'ना कारज फलीयारे । सहसकूटनां नाम अप्रसस्ति (द्धि ?) देवचंद्रे कीधा प्रसस्तिरे । (प्रसिद्धि) 2010_05 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २७७ प्रतिष्टा तिहां कीधी भव्य, ओच्छव कीधा नवनव्यरे । स० । "क्रियाउधार' कीधो 'देवचंद्र', काड्या पाप परिग्रहफंदरे ।स० १६। ढाल कही ए पांचमी रुडी, ए वात न जाणस्यो कूडोरे । स० । कवियण कहे आगल संबंध, वली सोनुने सुगंधरे ।स० २०। दोहा। क्रिया उद्धार 'देवचंदजी', कीधो मनथी जेह, . ए परिग्रह सवि कारिमो, अंते दुःखनु गेह ॥ १ ॥ नव नंद नी नव डुंगरी, कीधो सोवनराशि, साथे कोइ आवी नहीं, जूठी धरवी आसि ॥२॥ धन धन श्री 'शालिभद्रजी', धन धन धन्नो सुजात, अगणित ऋद्धिने परिहरी, ए कांइ थोडी वात ॥ ३ ॥ बत्रीस कोटिसोवनतणी, 'धन्नो' काकंदी जेह,. मूकी श्री जिन 'वीरनी', दीक्षा लीधी नेह ॥४॥ देवचंद मनमें चिंतवे, हुं पामर मनमाहि, मूर्छा धरूं ते फोक सवि, सत्य प्रभु मारग बांहि (मांहि ?) ।। ५ ॥ संवत 'सतरसत्यासीये', आव्या 'अमदाबाद,' लोक सहु तिहा वांदवा, आव्या मन आल्हाद ॥ ६ ॥ 'नागोरीसरा(य)' जिहां अछे, तिहां ठवीया मुनिराज, निर्लोभी निष्कपटता, सकल साधुशिरताज ॥ ७ ॥ साधु श्री 'देवचंदजी', स्यादवादनो युक्ति, जीवद्रव्यना भावने, देखाडे ते व्यक्ति ॥ ८ ॥ 2010_05 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तेहवे देशना सांभलो, श्रावक श्राविका जेह । वाणी जल आषाढ सम, वरसे ध्वनि घन गेह पापस्थान अढार छे, ते मूको & II भविजन्न, जिनवरे भाष्यां जे अछे, ते सुणीये एक मन्न ॥ १० ॥ ढाल - अलगी रहेनी. ए देशी वीर जिणेसर मुखथी प्रकासे, पापस्थान अढार, तेहथी दूर रहो भवि प्राणी, मु (सु ?) णोये आगार अणगार ॥ १ ॥ जिनवर कहेजी, कहेजी, २ जिनवर कहेजी । टेक । पापथानिक पहिल तुमे जाणो, जीवहिंसा नवि करीये, बेंद्री तेंन्द्र चोरिद्री पंचंद्री, वध मां मन नवी धरीये ॥ २ ॥ जि० ॥ एकेंद्रियादिक अनंतकायादिक, तेहना करो पचखाण, एकेंद्रीय तो संसारि नी करणी, अनुमोदना नवि आण || ३ || जिना अणगारी ने सर्वनी जयणा, पटकायाना त्राता " उपजावे बहु साता ।। ४ ।। जि० ॥ मारे किम नवि होय, " कोइ जीवने दुःख नवि देवे, मरि कता दुख उपजे सहु ने रुद्रध्याने नरकगति पाम्यो, ब्रह्मदत्त चक्रवत्ति जोय ॥ ५ ॥ जि० ॥ मृषावाद पाप थानिक बीजुं, जुठु नवी बोलीजे वैर विखादें (विषवादे) मृखा बचन बोले, पतीयारो किम कीजे ॥६ जा झुठ बोल्याथी 'वसु' भूपतिनुं, सिंहासन भुइँ पडीयुं, काल करीने दुरगति पोहतो, झुठु मिंठु लागे जनने, आगारी अणगार मुखथी, झुठ वयण ते जडीयुं ॥ ७ ॥ जि० ॥ कडुयां फल छे तेह, झुठ न बोलस्यो रेह ॥ ८ ॥ जि० ॥ 2010_05 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास त्रीजुं थानिक कहे जिनवरजी नाम अदत्तादान, अणदीधी वस्तुनी जयणा, धरवानो करो स्थान ॥ ६ ॥ जि० ॥ चोरी व्यसने दुरगति पामे, तेहनो कोइ न साखी, द्रव्य खातां नृप जो जाणे, जिम भोजनमां माखी ॥। १० जि० ॥ तृण आच्युं कल्पे साधुने, नवि ले अदत्तादान, चोर तणो वली संग न कीजे, इम कहे जिन वर्धमान || ११ जि०॥ पापस्थानक चोथुं भवि जाणो, ब्रह्मचर्य मनमां धारो, रूपर्वत रामा देखीने, मन नवि कीजे विकारो ।। १२ ।। जि० ॥ विषयी नर रामाए राचे, ते दुःख पामे नरके, लोह पुतली धखावे अंगने, आलिंगावे धरके ॥ १३ ॥ ज० ॥ विषवल्ली सदृश छे ललना, तेहनो संग न कीजे, २७६. मनमां कपट चपट करे जनने, शुभ प्राणी किम रीझे ॥ १४ ॥ जि० ॥ रावण मुंज आदे देइ भूपा, नारी थी विगुआणा, सीता सुदर्शन सोल सतीना, जगमे जस गवाणा || १५ || जि० ॥ स्त्रीसंगे नव लाख हणाइ, जीवतणी बहुराशि, ब्रह्मचर्य चोखुं चित्त न धरे तो, पामे नरकनो वास || १६ || जि० ॥ पांच थानिक परिग्रहनुं, करीये तेहनो प्रमाण, ग्रन्थी नही ते निग्रन्थ कहीये, निःद्रव्ये मुनि सुजाण ॥ १७ ॥ जि०॥ क्रोध मान माया लोभ जाणो, राग द्वेष कलह न कीजे, अभ्याख्यान पैशुन रति वर्जो, अरति परपरिवाद न लीजे । १८ जि० पापथानक अढारमुं भाखुं, मिथ्यात्वशल्य नवि धरीये, सत्तरे थी ए भारे कहीये, मिध्यात्वे केम तरीये ॥ १६ ॥ जि० ॥ 2010_05 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मिथ्यात्वशल्य काढीने प्राणी, समकितमांहि भलीये, जिनवर भाषित वचन स ( र) दहीये, भव भव फेरा टलीए ||२०|| जि०॥ नैगम संग्रह आदे देइ, सप्तनयनी (ने?) (सप्त) भंगी, तेहनी रचना करता गुरुजी, अपवादने उत्संगी || २१ || जि०|| च्यार निखेपे सूत्र वाचना, नाम द्रव्य ठवण भाव, कुमति ठवणादिकने वेखे, किम निक्षेप जमाव || २२ || जि० ॥ जीव अजीव पुण्य पाप आदे देइ, 'श्री नवतत्त्वनी' वाचा, भेद भेद करीने भविने, समजावे अर्थ ते साचा || २३ || जि० ॥ गुणठाणां चतुर्दश कहीये, मिथ्या सास ( स्वाद ? ) न मीस्से 1 ए आदि प्रकृतियो बधी, कर्मग्रन्थथो लहीस्ये || २४ ॥ ज० || 'देशना वाणी देवचंद्र भाखे, भवियणने हितकारी, छठी ढाल ए कवि भाखी, सुगुरु मल्या उपगारी || २५ || जि०|| २८० दूहा भगवइ सूत्रनी वाचना, सांभले जनना बृन्द, वाणी मिठी पियुष सम, भाखे श्री देवचंद ॥ १ ॥ 'माणिकलालजो' जालिमी, ढुंढकनो मन पास, तेहने गुरुए बुझव्यो, टाली मिथ्यात्वनी का ( वा ? ) स ।। २ ।। नौ (नू ?) तन चैत्य करावीने, पडीमा थापी तासि (आवा) स, देवचंद उपदेशथी, ओछव हुया उलास ॥ ३ ॥ श्री 'शांतिनाथनी पोल' में, भूमिगृहमें बिंब, सहसफणा आदे देइ, सहसकोड जिनबिंब ॥ ४ ॥ 2010_05 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २८१ तेहनी प्रतिष्ठा तिहां करी, धन खरचाणां पूर, जैनधरम प्रकासीयो, दिन दिन चढते नूर ॥५॥ संवत सतर ओगगीस (एग्न्याऐंशो?) १७७६ में, चातुर्मास खंभात, तिहांना भविने बुझव्या, जेहना (बहु) अवदात ॥६॥ ढाल-रसीयानी देशी श्री देवचंद्र मुनोंद्र ते जैन नो, स्तंभ सदृश थयो सत्य । सुज्ञानी, देशना में श्री 'शत्रुजय' तीर्थनो, महिमा प्रकाशे नित्य । सु० । तीर्थ महिमा शत्रुजयनी सुणो ॥ १ ॥ श्री सिद्धाचल महिमा मोटकी, श्री ऋषभ जिणंदनी वाणी। सु० । मुक्ति गमनन तीरथ ए अछे, सास्वत तीर्थ प्रमाण ।सु० । २ तीरथा दुःखम आरो पंचमो जिन कह्यो, एकविसति सहस वर्ष । सु० । बार योजन श्री शत्रुजयगिरि, एहनुं कंण कहे रहस्य ॥३॥ ती० ॥ कांकरे कांकरे साधु सिद्ध थया, भरते कीयोरे उद्धार ॥ सु०॥ 'कर्माशा (ह)' आदे देइ जाणीए, सोल उद्धार उदार ॥ ४ ॥ ती० ॥ तीर्थ माहात्म्यनी प्ररूपणा गुरु तणी, सांभले श्रावकजन्न । सु० । सिद्धाचल उपर नवनवा चैत्यनी, जीर्णोद्धार करे सुदिन्न ।सु०५ ती० कारखानो तिहां सिद्धाचल उपरे, मंडाव्यो महाजन्न । सु० । . द्रव्य खरचाये अगणित गिरि उपरे, उलसित थायेरे तन्न ।सु०।६ ती० संवत सत्तर(१७८१)एकासीये, ब्यासीये त्र्यासीये कारीगरे काम। सु० चित्रकार सुधानां काम ते, दृषद् उज्वलतारे नाम ॥सु०॥णा ती० ॥ फिरीने श्री गुरु 'राजनगरे' भलां, तिहां भविने उपदेश । सु०। विनतो 'सुरति' बंदिर नी भली, चोमासानीरे विशेष ।सु०। ८ ।ती० 2010_05 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री 'देवचंदजी' 'सुरति' बंदिरे, कीधा भविने उपगार । सु० । 'पंचासिये' 'छयासीये' 'सत्यासीये', जाणीये बुद्धितणा जे भंडार ।सु०ाई 'पालीताणे' प्रतिष्ठा करी भली, खरच्यो द्रव्य भरपूर । सु० । 'वधुसाये' चैत्य 'शत्रुजय'उपरे, प्रतिष्टा देवचंद'नी भूरि ।सु०१०।ती। पुनरपि श्री गुरु 'राजनगर' प्रत्ये, आव्या चोमासु रे सार । सु० । संवत 'सत्तर(८८)अठ्यासीय'मांहि, पंडित मांहि शरदार सु०१११ती० वाचक श्री दीपचंदजी' प्रत्ये, उप(र)नी व्याधिनी (?)ब्याधी । सु० । 'आसाढ़' सुदि वीज दीने ते जाणीये, पुहता स्वर्ग प्रधान ।सु०११२ती। 'तपगच्छ' मांहे विनोत विचक्षण, श्री 'विवेकविजय' मुनींद्र । सु०। भगवा उद्यम करता विनयी घगुं, उद्यमे भणावे 'देवचंद्र' ।सु०।१३।तो० गुरुसदृश मन जाणे 'विवेकनी', खिजमतिमें निसदिन्न । सु० । विनयादिक गुण श्री गुरु देखीने, 'विवेकजी' उपर मन्न ।सु०१४ती। 'अमदावाद'मे एकसमे भलो, 'आणंदराम' साह श्रेष्ट । सु० । 'रतनभंडारी' ना अग्रेस्वरी, जेहना मनसेंरे इष्ट । सु० । १५ ।ती। श्रीगुरुने वली 'आणंदराम' ने, चर्चा थायरे नित्य । सु० । चर्चाए ते जीत्यो गुरुजीए, 'आगंदनी' गुरुपरि प्रीति ।सु०१६ ती०। 'कवियण' भाखी सातमी ढाल ए, पंचम आरारेमांहि । सु० । एहवा पुरुष थोडा प्रभुमार्गना, प्रकाश करवाने उछांहिं । सु०१७तीal दूहा शाहा श्री 'आणंदरामजी', गुरुनी गुरुता देखि, भंडारी 'रत्नसिंघ' आगले, प्रसंशा करी सुविशेष ॥ १ ॥ 2010_05 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २८३ गुरु ज्ञानी शिरोमणि, जिनधर्मे वृषभ समान, _ 'मरुस्थल' थी इहां आवीआ, सकलविद्यानु निधान ॥२॥ 'रतनसिंह' गुरु वांदवा, आव्यो आलय तास, नय उपनय संभलावीने, मन प्रसन्न कर्य तास ॥ २ ॥ देशी:-धन धन श्री ऋषिराय अनाथी पूजा अरचा 'रतन भंडारी', करता श्रीजिनवरनीरे । श्री 'देवचंद्रजी'ना उपदेशथी, शिवमंदिरनी निसरणीरे ॥१॥ धन धन ए गुरुरायने वयणे, जिनशासन दीपाव्योरे। पंचम आरे उत्तमकरणी, गुजरातिनो सो (सु?) बो नमाब्योरे । टेकर बिंब प्रतिष्टा बहुली थाये, सत्तर भेदी पूजारे। भंडारीजी लाहो लेता, ए गुरु सम नही दूजारे ॥धन० ॥३॥ विधि योगे ते 'राजनगर में, मृगी उपद्रव व्याप्योरे। गुरुने भंडारी सर्व व्यबहारी, अरज करी सीस नमाव्योरे ॥धन०।४ स्वामी उपद्रव 'राजनगर में, थयो छे सर्व दुःख कारे । तुम बेठा अमे केहने कहीये, तुमे छो दुःखना हारे । ॥धन० १५॥ जैनमार्गना मंत्र यंत्रादिक, करीने खीला गाड्यारे । मृगी उपद्रव नाठो दुरि, लोकना दुःख नसाड्यारे। ॥धन० ॥६॥ जिनशासननो उदय ते करता, दुःखम आरे 'देवचंद । प्रशंसा सघले शाशन केरी, टाल्यो दुःखनो दंदरे । धन०१७ एहवे समे 'रणकुंजी' आव्या, बहुलं सैन्य लेइनेरे।। युद्ध करवा 'भंडारी' साथे, आव्यो नगारु देइनेरे । ॥धन०८। 'रतनसिंघ' भंडारी तक्षिण, आव्यो श्री गुरु पासेरे।। कांइ करणो दल बहोतज आयो, में छां थांके विस्वासेरे । ॥धन० ।।। या 2010_05 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह फिकर मत करो 'भंडारीजी', प्रभुजी आछो करस्येरे । जीत वाद थाहरो अब होस्ये, करणो पार उतरस्येरे ॥धन०१० चमत्कार श्री जिन आम्नायनो, गुरुजीये ते दीधोरे । फतेह करीने आज्यो वहिला, थांको कारज सीधोरे ॥धन०।११। 'रतनसंघजी' सैन्य लेइने, युद्ध करवाने सांहमोरे । 'रणकुंजी' साथे तोपखाने, चाल्यो न करे खामोरे ॥धन०।१२। परस्परे युद्धे 'रणकुंजी' हार्यो, थई भंडारी नी जीतरे । ए सर्व 'देवचंद्र' गुरुपसाये, हेमाचार्य कुमारपाल प्रोतरे ॥धन०।१३। 'धोलका' वासी सेठ 'जयचंदे', 'पुरिसोतम' योगीरे। गुरुने लावी पायो लगाड्यो, जैनधर्मनो भोगीरे ॥धन०१४। योगिंद्र एक गिर 'पुरुसोत्तम'ने, (नो?) मिथ्यात्व शल्यने काठ्योरे। बुझविने जिनधर्म मार्गमां, श्रुतिये मन तस वाल्योरे ॥धन०।१५। 'पंचा[इ' 'पालीताणे' आव्या, 'छ-ये' 'सत्ता'ये' 'नवानगरे रे । 'ढुंढक' टोला 'देवचंद्रे' जीत्यां, चैत्य चाल्यां सर्व झगरेरे ॥धन०।१६ 'नवानगरे' चैत्य जे मोटा, ढुढके जे हता लोप्यारे । अर्चा पूजा निवारण कीधी, ते सघला फिरी थाप्यारे ॥धन०१७ 'परधरी' गाम में ठाकुर बुझव्यो, गुरुनी आज्ञा मानेरे। 'कवियणे' आठमी ढाल ते रुडी, ए वात न जाणो कुडिरे धन०।१८। दोहा। पुनरपि पालीताणे' गुरु, पुनरपि 'नुतन' नन मांहि । संवत (१८०२-३) अढार 'दोय' 'त्रिणमा', 'राणावाव' उछांहिं ॥ १ ॥ 2010_05 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २८५ ~~~~~~~~ तत्रना अधीशने, रोग भगंदर जेह । टाल्यो तत्र्तिण गुरुजिइं, गुरु उपर बहु नेह ॥ २॥ संवत 'अष्टादश च्यार' में, भावनगर' मझार । मेता 'ठाकुरसी' भलो, दुढकनो बहु पास । (प्यार ? ) ॥ ३ ॥ श्री 'देवचंद्रे' बुझवी, शुभमार्गिनो बास, तत्रना ठाकुर तणी, मत कीधी जैन पास ॥४॥ संवत 'अष्टादश च्यार मे, 'पालीताणो' गाम । मृगी टाली गुरुजीये, श्रीगुरुजीने नाम । संवत 'अष्टादश' 'पंच' 'षष्ठ'में, 'लोंबडी' गाम उदार । ___ 'डोसो वोहोरो' साहा 'धारसी', अन्य श्रावक मनोहार ॥ ६॥ साहा श्री 'जयचंद' जाणोये, साहा 'जेठा' बुद्धिवंत । 'रहो कपासी' आदि देइ, भणाव्या गुरुइं तंत ॥ ७ ॥ गुरुई सहु प्रतिबोधीया, जैनधर्ममें सत्य । गुरु उपगार न वीसारता, धर्मे खर्चे वित्त ।। ८ ।। 'लिंबडी' 'ध्रागंद्रा' गाम ए, अन्य 'चुडा' वली गाम; प्रतिष्ठा त्रिण थइ बिबनी, द्रव्य खरच्या अभिराम ।।६।। 'धांगद्रे' जिनबिंबनी, थइ प्रतिष्ठासार, 'सुखानंदजी' तिहां मल्या, 'देवचंद्र'नो प्यार ॥ १० ॥ देशी:- ललनानी छे॥ संवत 'अढारने आठमें', गुजरातिथी काड्यो संघ ललना। श्रीगुरुना गुरु उपदेशथी, शत्रुजयनो अभंग ॥ ल० ॥१॥ 2010_05 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ऐतिहासिक जेन काव्य संग्रह गुरुवयणां ते सदहो ।टेक।। गिरि उपर उछव थया, खरच्यां बहुलां द्रव्य । पूजा अरचा बहुविधि, अनुमोदे ते भव्य ॥ ल० ॥२ गुरु०॥ उभी सोरठ जानरा, करता ते भविजन्न । ल० । “अष्टादश' 'नव' 'दशमें', श्री गुजराति चोमास । ल० ॥३ गुरु० ॥ संवत 'दश अष्टादशे', 'कचरासाहाजीई' संघ । ल० । श्री शत्रुजय तीर्थनो, साथे पधार्या देवचन्द्र ।। ल० ॥४ गुरु०॥ साह 'मोतीया' 'लालचंद', जाणीइ जैनमारगमें प्रवीण । ल । श्राविका अवल ते भक्तिमां, दानेश्वरीमा नहीं खीण ॥ल० ॥५ गुरु०॥ ....""॥६॥ संघमें श्री 'देवचन्दजी', अन्य व्यवहारीया साथ । ल० । श्री 'शत्रुजय' गिरि आवीया, लेवा धर्मनुं पाथ ।। ल० ॥७ गुरु०॥ प्रतिष्ठा जिनबिंबनो, गुरुजिई किधी तत्र । ल० । साठी सहस्त्र द्रव्य खरचीयो, गुरु वचनें ते यत्र ॥ ल०॥८ गुरु०॥ संवत 'अढार इग्यार'में, प्रतिष्ठा 'लोंबडी' मध्य । ल । "वढवाणे' श्रावक ढुंढकी, बुझव्या खरची रुद्धि ॥ ल० ॥६ गुरु०॥ चैत्य कराव्यां सुंदर, जिन अर्चाना ठाठ । ल । प्रभाविक पुरुष 'देवचन्द्रजी', धन्य एहनी मात ॥ल० ॥१० गुरु० शिष्य सुविनीत पासे भला, श्री 'मनरुप' जी दक्ष । ल० । विजयचन्द' बुद्धिये प्रबलता, न्याय शास्त्रना पक्ष ल०।११ गुरु०॥ वादी अनेक ते जीतीया, गच्छ चोरासीना साध । ल० । भणे तर्कवादी भलो, . श्री 'देवचन्द्रनो' हाथ ॥ल० ॥१२ गुरु०॥ 2010_05 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २८७ 'मनरुपजी' ना शिष्य दोउं, 'वक्तुजी' 'रायचन्द' । ल०। गुरुभक्ति आज्ञा धरे, सेवामें सुखकन्द ॥ ल० ॥ १३ गुरु० ॥ संवत 'अढार ना बारमें', गुरु आव्या 'राजद्रंग' । ल० । राछनायकने तेडावीआ, महोछव कीधा अभंग ।। ल० ॥१४ गुरु०॥ “वाचकपद' 'देवचन्द'ने, गछपति देवे सार । ल । महाजने द्रव्य खरच्यो बहु, एह संबंध उदार ।।ल० ॥१५ गुरु०॥ नवमी ढाल सोहामणी, कवियण भाखी एह । ल० । एक जीभे गुण वर्णतां, कहितां नावे छेह ।। ल० ॥ १६ गुरु० ॥ ॥दूहा ॥ वाचक श्री 'देवचन्द्रजी', देशना पीयूष समान; __ जीव द्रव्यना भेदस्युं, नय उपनय प्रधान ॥ १ ॥ अंथ भला 'हरिभद्र' ना, वाचक 'जस' कृत जेह; 'गोमटसार' 'दिगंबरो', वाचना करे हित नेह ॥२॥ “मुलताने' 'देवचन्द्रजी', वली अन्य 'वीकानेर'; चोमासां गुरु तिहां करी, ज्ञानतणी समसेर ॥ ३ ॥ नवाग्रन्थ ज्हेने कर्या, टीका सहित तेह युक्त; 'देसनासार' 'नयचक्र', शुभ 'ज्ञानसार'नी भक्ति ॥४ ।। 'अष्टकटीका' युक्तिथी, 'कर्मग्रंथ' वली जेह; तेहनी टीका आदि देइ, ग्रन्थ कर्या बहुनेह ॥ ५ ॥ 'राजनगरे' 'देवचन्दजी', 'दोसीवाडा' मांहि; थोका लोक व्याख्यानमें, सांभलता उछाहिं ॥ ६ ॥ 2010_05 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह एकदिन बायुप्रकोपथी, वमनादिकनी ब्याधि, ___अकस्मात उत्पन्न थइ, शरीरे थइ असमाधि ॥७॥ शास्त्र मरण दोउ कह्यां, पंडित मरण छे जेह, बाल मरण तो दुसरो, उत्तम पण्डित मृत्यु बेह ॥ ८ ॥ तव शरीरनि क्षीक्षणा, (क्षोणता?) शिथिल थयां अंगोपांग, , बुद्धि करीने जांणीइं, अनित्य पदारथरंग ।। ६ ।। पुद्गल तो अनित्यता, अनादिनो स्वभाव, मूरख तेपरि रंग धरे, पण्डित धरे विभाव ।। १० ।। निज शिष्योने तेडीने, दे शिक्षा हितकार, . मुज अवस्था क्षीण छे, ए पुद्गल व्यवहार ॥ ११ ॥ ढाल:--निंदलडी बैरण हुय रही, ए देशी शिष्य शिरोमणी जाणीई, 'मनरूपजी' हो वाचक गुणवंत, चतुर चाणाक्य शिरोमणि, गुरु उपर बहु भक्तिवंत, धन धन ए गुरु वंदीए ॥१॥ धन्य एहनी चतुराइने, गुरु बेठां हो श्रावक करे सेव, ___ पदकज सेवे जेहना, आज्ञा माने हो नित नित मेव ॥२०॥ विनयी विचक्षणे पण्डिते,गुणालंकृत हो जेहनु भयुं गात्र, श्रीगुरु मनमें चिंतवें, मुझ 'मनरूप' हो शिष्य घणु सुपात्र ।३ । ध० । 'मनरूप' शिष्य विद्यमानता, 'रायचंदजी' हो दुजला पूज्य, गुरुसेवामें विनयी घj, विद्याना हो जेह जाणे गुह्य । ४ । ३० । श्री 'रूपचंद' शिष्य सुशीलता, 'विजयचंदजी' हो पाठक गुणयुक्त, विद्या भरे हस्ति मलपतो, मेघध्वनि सम हो उद्घोषणा छंद, द्वितीय शिष्य 'विजयचंदजी', तर्कवादे हो जीत्या वादीवृन्द । ५ धि०॥ 2010_05 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विलास २८४ तस सीस दोय सुसीलता, पूज्य पूजा हो 'सभाचंद' 'विवेक', गुरुनो प्रेम शिष्य उपरे, गुरु विद्यमाने हो वादी कीया भेक ॥ध०।। शिक्षा देवे उपाध्यायजी, सर्वशिष्यने हो कहे धारी प्रेम , समयानुसारे विचरज्यो, पापबुद्धि हो नवि धरस्यो वेम ॥७०॥ पग प्रमाणे सोडि ताणज्यो, श्री संघनी हो धारज्यो तमे आण , वहिज्यो सूरिनी आज्ञा, सूत्र शास्त्रे हो तुमे धरज्यो ज्ञान ॥८॥ तूज समरथ छो मुज पुठे, मुझ चिंता हो नास्ति लवलेस , सपरिवार ए ताहरे खोले छे, हो मुक्या सुविशेष ॥४०॥ तव 'मनरूप' जी गुरु प्रत्ये, कहे वाणी हो जोडी हाथ , गुरुजी तूमे वडभागीया, पामर अमे हो पण शिर तुम हाथ ॥१०॥ सकल शिष्य भेला करी, गुरुजोये हो सहुने थाप्यो हाथ । प्रयाण अवस्था अम तणी, वाणी केहवी हो जेहवो गंगापाथ ॥१११०।। दशवैकालिक उत्तराध्ययननां, अध्ययनने सांभले गुरुराय । यथार्थ सर्व मन जाणता, अरिहंतनोहो ध्यान धरे चित्तलाय ॥१२॥ संवत 'अढार बारमे', 'भाद्रपद' मासे हो 'अमावस्या' दिन , प्रहर एक रजनी जातां, देवगति लहे 'देवचंद्र' धन धन्य ॥१३०| मोटे आडंबरे मांडवी, चोरासो गच्छना हो श्रावक मल्या वृन्द, अगर चंदने काष्टे भली, चिता रचिता हो महाजन सुखकंद ॥१४३०॥ प्रतिपदाए दहन दीयुं, गुरु पूठी द्रव्य घणो खरचंत , तिथियो जमाडि बहोलता, जाणे अषाढो हो घने करो वरसंत ॥१५३०॥ ए देवचंद्रना वयणथी, द्रव्य खरच्या हो अगणीत सुभठाम , धा धन खरचाइयुं, एहवा गुरुना हो कीधा गुणग्राम ॥१६ध०।। १६ 2010_05 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह दशमी ढाल सोहामणी, नाम धरीयं हो गायो देवविलास । आसन्न सिद्धि जे थया, कोइक भवे होस्ये मुक्तिनो वास । १७ ध० सात आठ भव एहवा, जो धरसें एह जीव , भाव बाल्यकाल विध्वंसना, धर्म योवनमें सदीव ॥१॥ अनुमाने करी जाणीये, द्रव्यथको विशेष , सात आठ भव उलंघीने, शिव कमलाने पेख ।।२।। प्रभु मारग विस्तारवा, द्रव्य भावथी शुद्ध , विश्व आल्हादकारी थयो, जिनवाणीनी बुद्ध ॥३॥ श्री जिनबिंबनी थापना, करवा निज सुबुद्धि , च्यार निक्षेपा युक्तस्युं, स्याद्वाद भाखे शुद्ध ॥४॥ एक पाइए साचे सकल, तस चाले करामात , गाजी मर्द ए जैननो, मिथ्यात्वी कीया महात ॥५॥ रागः-धनाश्री पांमी ते प्रतिबोध ए देशी श्री देवचंद्र ऋषिराय स्वर्गेरे (२) पहोता ते सुभ ध्यानथीरे ।। सूरय (सूर्य?)चंद्र ने इंद्र अवधिरे (२) देखी मन चिंते एहव॒रे ।२। जिनशासननो थंभ देवचंदरे (२) अमरपुरीमें अवतारे । देश देशमा वात पोहोतीरे (२) सांभली भवि विलखा थयारे ।४। कल्पतरुसम एह देवचंदरे (२) सरिखा पुरुष थोडा हस्येरे ।५। मस्तकें मणि हती जेह गुरुनेरे (२) दहन समय उछली पडीरे ।६। ते गइ पृथ्वी मध्य कोइनेरे (२) हाथे ते आवो नहीरे १७॥ महाजन शिष्य समुदाय भेला थइरे(२)स्तुप कराव्यो गुरुतणीरे ।८। 2010_05 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . ... .. . . . देव विलास २६१ प्रतिष्टा करी तत्र पादुकारे (२) पूजा प्रभावना बहु विधिरे । केतले दिन वाचक 'मनरूप' रे २) स्वर्ग गति गुरुने मिल्यारे १० 'रम्यचंद' शिष्य निधान गुरुनारे (२) विरह खम्यो जाये नहीरे ॥११॥ मन चिंते 'रायचंद' ए सविरे (२) अनित्यता श्री गुरुये कह्योरे ।१२। पल्योपम पुरव आयु ते पण रे (२) पूरां थयां शास्त्रे कह्यारे ।१३। आ पण प्राकृत जीव जुठारे (२) स्नेह धरवो ते मूढ़तारे १४। तित्थयर गणधर जेह सुरपतिरे (२) चक्की केसवराम एहनेरे ॥१५॥ कृतांते संहार्या सर्व का गणनारे (२) इयर जननी जाणवीरे ।१६। इम मन चिंती रायचंद गुरुनीरे () स्तवना नामनो मन धरेरे ।१७ गुरु सरखो नही इष्ठ दीवोरे (२) गुरुइ ज्ञान देखाडीयुरे ।१८। गुरु पुठे 'रायचंद' पद्धतिरे (२) चलवे व्याख्याननी संपदारे ।१६। गुरु जेहवी किहांथी बुद्धि गुरुनारे (२) ज्ञान बिंदु किंचित स्पर्शतारे। जैनशैलीमा प्रवीण रायचंद्र' रे (२) गुरुपसाये तादृश थयारे ।२१॥ मनमां नही शंक्लेश कोइथीरे (२) बागवाद कोइथी नवि करेरे ॥२२॥ सुविहितमार्गनो जाण 'रायचंद' रे (२) शीलादिक गुण संग्रह्योरे ।२३। आठ मां मोहनीकर्म व्रतमें रे (२) चोथु व्रत जीत दोहिलंरे ।२४। शील तणेरे प्रभाव संकट (सवि)टले (२) नासे तक्षिण ए थकीरे ।२५। जनमा जेहनो सोभाग्य अक्षयरे (२) रिद्धि वृद्धि अणगणिततारे ।२६। एक दिन श्री 'रायचंद' कविनेरे(२)कहे अम गुरु स्तवना कगेरे ॥२७॥ अमे जो करीयें स्तव एह अणघटेरे (२) स्वकीर्ति करवी अयोग्यतारे ते माटे कहयुं तुम्ह स्तवनारे (२) तुम बुद्धि प्रमाणे योजनारे २६। "कवियणे' 'देवविलास' कोधो (२) मन हर्षित उल्लस्योरे १३०। 2010_05 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह कीधो 'देवविलास' शुभदिनेरे (२) जयपताका विस्तरी रे। ३१ संवत १८२५ अढार पचीस आसोसुदिरे (२) अष्टमी' रविवारे रच्योरे स्तोकमें देवविलास कोधोरे (२) किंचित् गुण ग्रहीने स्तब्योरे । ३३ बोहोलो छे अधिकार जोतारे (२) ग्रंथ थाये मोटो घणोरे। ३४ भणस्ये 'देवविलास' सांभलेरे (२) तस घरे कमला विस्तरेरे। ३५ कलस श्री 'वीर' जिनवर 'सोहम' गणधर, 'जंबु' मुनिवर अनुक्रमे, 'खरतरगच्छ' उद्योतकारक, श्री 'जिनदत्त' सूरयोपमे । तास पाट 'जिनकुशल' सूरि, 'जिनचंद्र' (१) सूरि तसपटे , 'युगप्रधान' नो बिरुद जेहनो, नामथी दुःकृत कटे ॥१॥ गच्छ स्तंभक उपाध्यायजी, 'पुण्यप्रधान' (२) प्रधानता , सुमति धारी 'सुमति' (३) पाठक, 'साधुरंग'(४) वाचक भृता । श्री 'राजसागर' (५) उपाध्यायजी, 'ज्ञानधर्म' (६) पाठक थया , सुकृती 'दीपचंद' (७) पाठक५, 'देवचंद्र' (८) पाठक जय जया ।।२।। 'मनरूप' वाचक (6) 'विजयचंदजी', पाठकनो पद भाग्यता , 'मनरूप' पदकज मेरुगिरिवर, 'रायचंद' (१०) रवि उद्गता। सुज्ञानतायें विनयवंते, बुद्धि युक्ति सुरगुरु , चंद्र सूर ध्रु तार तारक, रहो अविचल जयकरु ॥ ३ ॥ इति श्री देवचंद्रजीनो निर्वाण रास संपूर्ण 2010_05 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (बाब विजय सिंहजी नाहरके सौजन्यसे ) AAREETROO श्री जिनलाभसरिजी ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 2010_05 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनलाभ सूरि गीतानि २६३ ॥श्री जिनलाभ सूरि गीतानि ॥ ढाल-ऊंची-नीची सरवरीयैरी पाल, एदेसी लहकमें । आज सुहावो जी दीह, आज नै बधावोजी अम्ह घर आंगणैजी । अंग उमाहो जो आज, सहगुरु हे आया आणन्द अति घगै जी ॥१॥ आवो हे सहियर साथ, सजि सजि हे सोल शृङ्गार सुहामणाजी। जंगम तीरथ एह, वंदन कीजइ हो छीजइ दुख घणा जी ॥२॥ धन धन सोइज देश, धन धन गाम नयर ते जाणियइ जी। जिहां विचरै गच्छ राण, भाण प्रतापी हे सुजस वखाणियइ जी ॥३॥ धन 'पंचाइण' तात, धन ‘पदमा दे' हो मात महीतलै जी। 'बोहित्थ वंश' विख्यात, कुल उजवालण पूज जी इण कलैं जी ॥४॥ सवि सिणगार्या हे हाट, प्रोलि रचाई हो च्यारु फावती जी। वदै सकोइ जीह, श्री जिन-शासन महिमा दीपती जी ।।५।। मिलीया हे महाजन लोक, उच्छव मंड्यो हो अति आडम्बरे जी। दे मन वंछित दान, याचकजन धन धन जस उच्चरै जी ॥६॥ गोरी गावै जी गीत, फरहर गयणंगणि धज फरहरइ जी। कोतिल वलि गन वाजि, खुरिय करता हो आगल संचरै जो ॥७॥ दुन्दुभि ढोल दमाम, झलरि भुंगल भेर नफेरीयां जी। बाजै वाजिब सार, फलई बिछाई हो 'वीकपुर' सेरिया जी ॥८॥ हीर अनै वलि चीर, माणिक मोती हो वारीजै छता जी। पथरीजै पटकूल, मुनिपति आवै हो गज गति मलपता जी ।।६।। 2010_05 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पूज पधार्या हे पाट अमिय समाणी हो वाणी उपदिसें जी । सुणि सुणि श्रवण सहेज बहु नर नारी हे हियड़उ उल्लसै जी ||१०| जां शशि सायर सूर जां धुर मेरु महीधर थिर रहै जी । श्री 'जिनलाभ' सूगेश, तां चिर प्रतपो हो मुनि'माणक' कहै जी ॥ १२॥ ( २ ) एक सन्देश पंथी माहरो, जाइनें वीनविजे करजोड़ । गरुआ पूजजीहो महिर करोन गच्छति आविजै, वांदणरौ म्हांने कोड़ ||०||१| वहिला पधारो 'थलवट' देशमें, श्री संघ जोवै थांरी वाट | ० | ढोल न कीजै हो पूज इण वात री, साथै मुनिवर थाट ||०||२|| 'कच्छ' धरा सुं हो पूज्य पधारि नै, नाइसक्या इण ठाइ | ग० म्हे पण जाण्यो जिण थानै राखिया, विचही में विलमाइ ||०||३| 'जेसलमेरा' श्रावक जोइने, पूत्र रह्या लोभाइ |०| * मुंह मीठां सुं मनड़ो मोहियो जी, दूजा नावे दाइ ||०||४|| म्हां तो कागल साहिबा जी मोकल्या, लिख लिख अरज अछेह | Tol तौ पिण पाछौ जा ( ब ) ब न आवियो, पूज खरा निसनेह || ग०णा५॥ मनमें ऊमाहो गच्छपति छै घणुं, सुणिवा थांहरी वाणि | ग०। नाम तुम्हीणो खिण नहीं वीसरु, वंदावौ हित आणि ॥६॥ पाटोघर मानीजै माहरी वीनति, श्री खरतर गच्छ ईश | ग०। 'बीकाणै' चौमासो कीजिये, श्री 'जिनलाभ' सूरीश ||०|| अरज अम्हीणी पूज्य अवधारिज्यो, सूरीसर सिरि इंद | ग० | बेकर जोड़ी त्रिकरण भाव सुं, वंदै मुनि 'देवचंद ' ॥०॥८॥ ॥ इति श्री पूज्यजारी भास सम्पूर्णम् ॥ लिखितं पं० जीवन० छोटै स्याला मध्ये कोठारियां रे खण मध्ये || शुभं भवतु, कल्याण मस्तु ॥ 2010_05 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रो जिनलाभ सूरि गीतानि २६५ mm जिण शासन शिणगारा, वंदो खरतर गणधार हे । सहियां सद्गुरु वेग बधावो । सद्गुरु वेग बधावो, मिल मङ्गल भास मल्हावा हे ।।स०॥१॥ धन धन 'मारू' देश, धन थलवट मांडल वेश हे ।।स०॥ धन 'पंचाइण' तात, धन धन पदमादे' मात हे ।।सगा२॥ 'बोहित्थ' वंश सवायो, जिहां पुरुष रत्न ए जायो हे ।।स०॥ 'मांडवो' नगर मझार, होय रद्या जय जयकार हे ।।समा३।। घुरय निसाणे छाई, बांट श्री संघ बधाई हे ।।स०॥ गोरी मंगल गावें मोत्यां, भर थाल बधावें हे ॥स०॥४॥ श्री 'जिनभक्ति' सुरिन्दा, पाट थाप्या जाणै इन्दा हे ॥स०॥ निलवट चढतै नूर, जाणे ऊगो अभिनव सूर हे ॥स०॥५॥ लघु वय चारित लोनौ, गुण देखी गुरु पद दीनौ हे ।।स०॥ सद्गुरु हुंती सवायौ, जिण खरतर गच्छ दीपायो हे ।।स०॥६॥ पूरबली पुण्याइ, एतो मोटी पदवी पाइ है ।स०॥ पंच महाव्रत धारो, थारो रहणोरी बलिहारी हे ।साथ। रूपे देव कुमार, एतो लबधि तणा भण्डार हे । स० । पालै पंचाचार, गुरु गोतम रै अवतार हे । स० ॥८॥ ...............। मीठो सदगुरु वाणी, सांभलता चित्त समाणी हे । स० ।।६।। 'श्री जिन लाभ' सुरिन्द, प्रतपो जिम सूरिज चंद हे ।स। चित धरि अधिक जगोश, इम 'वसतो' दे आशीस हे ॥स० ॥१०॥ - -** ---- 2010_05 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह (४) * श्री जिनलाभ सूरि निर्वाण गीतम् * ढाल-आदि जिणिंद मया करो एहनी। देश सकल सिर सौभतौ, थलवट सुथिर सुजाणो रे । जिहां विक्रमपुर' परगडौ, तिहां प्रगट्या मुनि भाणो रे। १॥ गुणवन्ता गुरु वंदोयै । आंकड़ी० । सुमती शाह 'पंचायण', 'पदमादेवी' नन्दा रे। 'वोहिथ' वंश विभूषण, लाल अमोल अमंदा रे । २ गु०। श्री 'जिनमक्ति' सूरीसरु, श्री खरतर गछराया रे । ___ तासु संयोगे आदर्यो, संजम शोभ सवाया रे । ३ । गु० । अरथ सहित सदगुरु दीयउ, 'लक्ष्मीलाम' सुनामो रे । वरस 'अढार चउडोत्तरै', पाम्यौ पाम्यौ पद अभिरामो रे।४। श्री 'जिनलाभ' सूरीसरू गछनायक गुणरागी रे। पंचम काले परगड़ा, श्रुतधर सीम सोभागी रे । ५ । गु०। देश विदेशे विचरता, बहु भवियण प्रतिबोधी रे। सकल कलुषता टालता, आतम धरम विरोधी रे।६। गु०, नगर "गुढे' गुरु आवीया, 'चउतीसै' चउमासै रे। तिहां निज समय प्रकाशने, पहुंता सुर आवासै रे । ७ । गु०। चरण कमलकी थापना, अतिसयवंत विराजै रे। दास 'क्षमाकल्याण' नौ, वंदन हुओ शुभ काजै रे । ८ । गु० । इति श्री जिनलाभ सूरि सदगुरु सिझाय (पत्र १ तत्कालीन, संग्रहमें) 2010_05 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनलाभ सूरि पट्टधर जिनचन्द्र सूरि गीतानि २६७ ॥जिनलाभसूरि पट्टधर जिनचन्द्रसूरि गीत ॥ ढाल-आज रो सुज्ञानी स्वामी जोर वण्यो राज । "जिनचंद्र सूरि' गुरु वंदियै जी राज, बंदिय बंदिय वंदिय जी राजजि० सहु गच्छपति सिर सेहरोजी राज, खरतर गच्छ सिणगार म्हाराराज। श्री 'जिनलाभ' पटोधरूजी राज, 'ओस वंश' अवतार म्ह|१|जि०। लघु वय संयम आदर्योजी राज, 'मरुधर' देश मझार । म्हारा। अनुक्रम गुरु पद पामियाजी राज, सूत्र सिद्धंत आधार |म्हां०२।जि० देश घणा वन्दावतांजी राज, गया 'पूर्व के देश' । म्हां०। 'समेत शिखर' 'पावापुरी' जी राज, कीनी जात्र अशेष म्हां ।।जि०। चौमासो कीनौ तिहां जो राज, 'अजीमगंज' मझार म्हां। भव्य जन कुं प्रतिबोधताजी राज, मोटोजे नगर उदार म्हा०जि०४। आचरज पद शोभता जो राज, छत्तीस गुण अभिराम । म्हां। सुमत पांच कुं पालता जी राज, तीन गुपतिका धाम म्हां।जि०१५॥ छ काय का पीहर भलाजी राज, सात महाभय वार । म्हां० । आठ प्रमाद महाबलो जी राज, दूर किया सुविचार । म्हां ।जि०।६।। श्रावक 'वीकानेर' का जो राज, वीनति करै वारो वार । म्हां । पूज जी इहां पधारियें जी राज, महर करी गणधार । म्हां ॥जि०७॥ 'बच्छावत' कुल दीपताजी राज, 'रूपचंद' जी को नंद । म्हां० । 'केसर' कूखे ऊपनानी राज, राज करो ध्रुव चंद । म्हां ॥जि०८॥ वरस 'अठार पचास' में जी राज, 'वद वैसाख' मझार । म्हां० । 'चारित्र नंदन' वीनवइ जी राज, 'आठम' तिथि 'गुरुवार' म्हांजि०९। 2010_05 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ढाल: म्हारो सहियां हो अमर बधावो गज मोतियां म्हांग पूजजी हो, श्री 'जिनचन्द्र सूरि' राजियां, खरतर गच्छराभाण । म्हारा पूजजी हो, दिन दिन तुम चढती कला, प्रतपोजी कोड़ि कल्याण श्री 'जिनचन्द्र' सूरि पदधरू । आंकणी ॥१॥ म्हां० धन धन धन वेला घड़ी, धन सायत सुप्रमाण । दरसण सदर रु निरखस्यां. सुणम्यां मुख नी वाण ॥२॥म्हां।।श्रीका म्हां० पूरब नैं पुण्ये पामियौ, श्री सद्गुरु नौ पाट । शील गुणे करि शोभता, बरतावे धर्म वाट ॥३॥म्हां०॥श्री०॥ 'ओस वंश' अति दीपतौ, 'बच्छावत' वलि गोत्र । पिता 'रूपचंद' गुणनिलो, मात 'केसरदे' पुत्र ।। ४ ।। म्हां ।। श्री ।। म्हां० मरुधर देश सुहामणो, 'गुढा नगर' मझार। म्हां० श्री 'जिनलाभ' सैंहथ दियौ, सूरि मंत्र गणधार ।म्हांलाश्री।। म्हां० संघ सकल उत्सव कियो, वरत्यो जय जयकार । म्हां० सूहव बधावै गज मोतियां, सजि सजि सोल श्वङ्गार म्हां०॥६॥ म्हां० चंद चंद चढती कला, वखत विलंद गच्छगज । म्हां० गौतम ज्यु गुणनिध सही, प्रतपो अविचल राज ।।म्हां०श्री॥७॥ म्हां० वाणि सुधारस वरसतां, हरखै भवि जन मोर ।। म्हां० धर्मगुरु दै धर्म देसना, नासै करम कठोर ॥म्हां०॥श्री०॥८॥ म्हां० वर्तमान गुरु विचरता, 'श्री जिनचन्द्र सूरीश' । म्हां० दर्शन देखण अलजयो, पूरो मनह जगीश म्हां०॥श्रीमा 2010_05 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनलाभ सूरि पट्टधर जिनचन्द्र सूरि गीतानि २६४ म्हां० 'सिन्धु देश' में दीपतौ, हालां नगर' निमेव । म्हां० शुद्ध मन श्रावक श्राविका, देव सुगुरु करै सेव ।।म्हां॥श्री०१० म्हा० धन धन ग्राम नगर जिके, जिहां विचरै गच्छराण । म्हां० धन श्रावक ने श्राविका, श्री मुख संभलै वाण ।।म्हां०।श्री०।११ म्हां० अम्ह मन हरख घणो अछ, सद्गुरु सुणवा वाण । म्हां० साधु समक्षे परिवर्या, आवो श्री गच्छराण ॥म्हां०॥श्री०१२।। म्हां० श्रीमुख कमल निहारवा, अम्ह मन छै बहु आश । म्हां० श्री सदगुरु हिव पूरजो, आवेजो चउमास ॥म्हां०॥श्री०१३॥ धन दिन ते सफलो घड़ो, मुख नी सुणस्यां वाण । म्हां० सद्गुरु सेवा सारस्यां, जीवत जन्म प्रमाण ।।म्हां०॥श्री०॥१४॥ म्हां० संवत 'अढार चौतीस' में, 'माधव' मास मझार । म्हां० वर्तमान सद्गुरु तणा, गुण गायां निस्तार ।।म्हां०।१५।।श्री०।। इम बहुविध वीनति करी, अवधारो गच्छराय । म्हां० "कनकधर्म' कहैं बंदणा,अवधारो महाराय।।म्हां०॥१६॥श्री०॥ PARA 2010_05 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जिनहर्षसूरि गीतम् ढाल :-जाति सोहिलानी पहिरी पोसाखां सखियां पांगुरी रे, सुन्दर सजि सिणगार । गिरुआजी गच्छपति आया इकड़ारे, देखण हर्ष अपार ॥२॥ चालो हे सहेली पूजजी नै वांदस्यां हे, 'श्रीजिनहर्ष' सूरिन्द्र । चंद पटोधर गच्छ चौरासियां हे, दीपत जेमदिणन्द ।।२।।चा०|| पूज्य सामेलै श्रावक श्राविका हे, हय गय बहु परिवार । सिणगार्या सारा रूड़ी परै हे, मारग हाट बाजार ॥शाचा॥ कौतुक देखण बहु भेला थया हे, अन्य मती पिण लोक । दर्शन देखत सहु राजी थया हे, रवि दर्शन जिम कोक ॥४॥चा०॥ चहल घणी 'बीकाणैरे चोहटै हे, लोक मिल्या लख कोड़। अंग ऊमाहो पूजजो नै वां दवा हे, लाग रह्यो मन कोड़ ।।५।।चा०॥ उत्सव देखी मन हर्षित थयो हे, रथव्यां च्योतरणिंद (?) शास्त्र यथोक्त गुणेकर ओलख्थारे, एतो धरम नरेन्द्र ॥६॥चा 'बोहरा' गोत्र जगतमें दोपता हे, सेठ 'तिलोक चन्द' धन्न । धन माताये 'तारादे' जनमियारे, अनुपम पुत्र रतन्न ।।ाचा०।। भावे वधावो माणक मोतियां हे, दे दे प्रदिक्षण तीन । बारे आवर्त पूजजीने वांदणा हे, क्रोधादेक होय छीन ॥८॥चा०|| पूज पधारो 'बीकाणे' रे पूठिये हे, बांचो सूत्र वखाण । भाव बधारो............ ...... हे ज्यं होय परम कल्याण ॥धाचा०॥ वांदो देव 'बोकाणै' दीपना हे, पूजो चिन्तामणि पाय । आदीसर बाबो नित भेटिये हे, ज्यु तृषणा दूर नसाय ॥१॥चा। सज्जन बधज्यो पूज पधारता हे, दुर्जन होवो रे विध्वंश । राज करो पूज ध्र लग शाश्वतो हे, विनवै 'महिमाहंस'।।११।।चा०।। 2010_05 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री जिनहर्षसूरिजी (बाब विजय सिंहजी नाहरके सौजन्यसे) ____ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ श्रीजिन सौभाग्य सूरि भास श्रीजिन सौभाग्यसूरि भास। ढाल-घोड़ी तो आइ थांरा देसमें एहनी देशी 'करणा दे' कूखे ऊपना, सद्गुरुजी पिता 'करमचंद' (वि)ख्यात हो । गच्छ नायक 'सौभाग्यसूरि' हो सद्गुरुजी आ० ॥१॥ श्री जिनहर्ष' पाटोधरु सद्गुरुजी, श्री जिनसौभाग्य' सूर हो।।२।।गक चीठी घातण चालीया सद्गुरुजी, थे वचनां रां सूर हो ।।ग०॥३॥ उवां तो कूड़ कपट कियो सद्गुरुजी,थे कूड़कपट सुं हुवा दूर हो।।ग०४ 'बीकानेर' पधारज्यो सद्गुरुजी, थांसं कौल कियो ‘रतनेश'हो।ग०५ थांका पुण्य थांके खनै सद्गुरुजी, पुण्य प्रबल जग मांहि हो।ग०॥६॥ 'बीकानेर' पधारिया सद्गुरुजी, थांसुं एकांत किया 'रतनेश' हो।।ग०७. भलाइ विराजो पारियै सद्गुरुजी, थे म्हारा गुरुदेव हो ।ग०॥८॥ तखत दियो गुरु वचन थी सद्गुरुजी, श्रीसंघ मिल रतनेश' हो।।ग०६ नोबतखाना बाजिया सद्गुरुजी, बाज्या मङ्गल तूर हो ।ग०॥१०॥ गोत्र 'खजानची' दीपता सद्गुरुजी, 'लालचंद' बुधवान हो।ग०।।११।। महोच्छव कीनो अति भलो सद्गुरुजी, दोनो अढलक दान हो।ग०१२।। कोड़ वरस लगै पालज्यो सद्गुरुजी, बड़ खरतर गच्छ राज हो।ग०१३ 'कोठारी' बंश दीपावज्यो सद्गुरुजी, ज्यां लंग सूरज चंद हो ।।ग१४ बीजानै वादां नहीं सद्गुरुजी, थे म्हारा गच्छराज हो ॥ग०॥१५।। संवत् 'अढारै बाणवे' सद्गुरुजी, 'सुदसातम' गुरुवार' हो।ग॥१६।। 'मिगसर' पाट विराजिया सद्गुरुजी, खूब थया गहगाट हो।।ग०॥१७॥ ॥ इति श्री भास सम्पूर्णम् ॥ 2010_05 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्रीजिन महेन्द्रसूरि भास । (१) ढाल-आज नौ हजारी ढोलो पाहुणो। वारि जाऊं पूज म्हारी वीनति,सुणजो अधिके चाव ।सुगुरु म्हारा हो। म्हां दिश थे करज्यो मया, धरो पद्म सकोमल पाव ।।सु०॥१॥ पूजजी पधारो म्हारा देशमें।। लायज्योजी मुनिवर लाजरा, सूरतवंत सज्योत घण जाणीता गुण घणा, दिल रजण चै स्योत ॥सुना२॥ वादल तंबू चंपा बागमें, म्हेतो खड़ा किया इण खात ।सुन धूप पड़े धरती तपै, गच्छपति गोरै गात ।सु०॥३॥ राज सभामें राजता, नित नित चढते नूर ।सु०।। गावै यश याचक घणा, हिन्दूपति आप हजूर ॥सु०॥४॥ लिख 'परवानो' मोकले, थानै 'उदयापुर' नौ 'राण' ।सुन कई दिनां रौ कोड़ छै म्हाने, भेटण 'खरसर' भाण ॥सु०॥५।। हाथीड़ा तो मेलुं राणे रावरा, ओठोड़ा सज सिणगार ।सु०। पग पग मेलु पूजजीने पालखी, पग पग रथ असवार ॥सु०॥६॥ मोह्य रेयाजी 'मरुधर' मेड़ते', अधिका गढ़ 'अम्बेर' ।सु०॥ “बीकाणेरी आइ पूजजी नै वोनति, झाला दे 'जेसलमेर।सु०॥॥ लुल लुल लेसां थारा वारणा, थारे पग पग करतां पेश ।सु०॥ एकरस्युं म्हारे आइज्यो थेतो, देखोनी 'जोधाणे' रो देश!|सु॥८॥ 2010_05 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिन महेन्द्रसूरि भास ३०३ पाटोधर पांव पधारिया, सूरीश्वर मिरताज सु०। गहरो गुमानी ज्ञानी गच्छपति, म्हारी मानी अरज महाराज।।सुहा जालम 'खरतर' राजवी गुरु, साचो गच्छ सिणगार |सु० भलके हे सहियां चंपो भालमें, मैं तो दीठो अजब दीदार ॥सु०॥१०॥ सूरज गच्छ चौरासिया, थानै भलाइ कहै बड़ भाग ।सु०। आज सवाइ अभिमानमें, म्हारो रीझयो मन घणो राग ।।सु०॥११।। अमीय रसायन आपरो, मीठी वाण मुणिन्द ।सु०॥ तखत तपे जिनहर्ष रै, श्री ‘जिनमहेन्द्र' सुरिन्द ॥सु०॥१२॥ दिलभर दर्शन देखनै, सफल करै संसार ।सु०। "राजकरण' नितराजरे, पाय लागै हर्ष अपार ।।सु०॥१३॥ आज बधाई आवियो म्हारे, मारू देश मझार हो राज। दीधी बधाई दौडनै म्हारे, पूजजी आप पधारो हो राज ।। आज बधावो हे सखी, गहरो गच्छपति गज मोतीड़े हो राज।।१ आ० मांगी दूबधावणी तोने, पथोड़ा लाख पसाव हो राज। वले संघ जोतां बाटड़ी, थे तो आवी आज सुणाय हो राजा।।अ०॥ घण थट हरिया बागमें, एतो भलहलीयो जश भाण हो राज। आवो हे सहेली आपे निरखस्यां, एतो खरतरगच्छ रोराणहो राज॥३आ० .......................। धवल मङ्गल करण ढोलमें ऐतो जंगी ढोल घुराया हो राज ॥आ०॥४॥ 2010_05 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पुर पैसारे पधारिया, एतो पूजजी पौषध शाला हो राज। गहमाती अति घणो आतो, कूहक रही करनाल हो राज |आ०||५|| भाभल भोली भामणी, एतो गौराङ्गी चढी गोख हो राज । दर्शन सद्गुरु देखवा, एतो झांख रहीय झरोख हो राज |आ०॥६॥ भांभल नैणा भालीयो, एतो गच्छषति गुण रो गाढ़ा हो राज । पालै चारित निर्मलो, एतो लाइक चौरास्यां रो लाडो हो राजा।।आ०७. रतिपति रूपे रीझिया, एतो नरनारी ना थाट हो राज । शील शिरोमणि सेहरो, प्रतपो जिनहर्ष पाट हो राज ||आ०॥८॥ 'सुन्दरा' देवी जन्मियो, लाखीणो नग लाल हो राज। सुत 'रुघनाथ' शाहरौ, गाहे दोयण गज ढाल हो राज ॥०॥९॥ रहणी करणी राजरी, आतो म्हारे मनड़े मानी हो राज। खीर सायर भारी क्षमा, तो गौतम जेहड़ा ज्ञानी हो राजाआ०१०. चिरजीवो राजस करो, श्री जिनमहेन्द्र' सूरिन्द्र हो राज। 'राज'सदाइ राजनै, एतो इसड़ी दै आशीस हो राज ||आ०॥११॥ ॥ इति भास सम्पूर्णम् । AKSama PA 2010_05 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय राजसोमाष्टकम् ३०५ महोपाध्याय राजसोमाष्टकम् श्रेयस्कारि सतां यदाशु चरितं, सामोदमाकर्णितं । . कर्णाभ्यां सततं मतं मतिभृतां, सद्भूत भावान्वितम् ।। बिभ्राणास्तदनन्त कांति कलिताः कारुण्य लीलाश्रिताः । श्रीमत्पाठक राजसोमगुरवस्ते संतु मोदप्रदाः ॥१॥ येषां चारु मुखोद्गताः सुललिता वाचो निशम्योल्लस द्र.पं वीक्ष्य पुनः प्रमोद जनकं लावण्य लोलागृहम् ।। प्राप्तानंद कदंबकेन मनसा स्वस्य श्रुतीनां दशा मष्टानांच विनिर्मितं फल युतां मेने ध्रुवं शाश्वतः ॥२॥ चित्तं सर्व सुपर्वणामपि विशद्वाचस्पतेर्भाषितं । माधुर्येण तिरश्चकार सहसा नादीनवं यद्वचः ॥ शास्त्रासक्तधियां सदैव सुधियां चेतश्चमत्कारकृत् । दुर्वादि द्विरदौघ दर्प दलने शार्दूल विक्रीडितम् ।।३।।शा० छंद।। प्राप्त प्रदोषोदयमंकगर्भितं ? चंद्र दधच्चारु तयैकमम्बरम् । आमोद संदोह मनारत मत चैतन्य भाजां वितनोति चेतसि (यदितिशेषः) ॥४॥ संभाव्यते तन्मधुरं निराश्रवं नित्योदर तद्वितयं विराजते । श्रीराजसोमोत्तम नाम विश्रुते यत्रास्पदे किं खलु तस्य वर्णनम् ।।५।। वंदे समयावयवानवद्यतां वीक्ष्यानुरक्त रिव पेशलगुणैः । हित्वामिथो द्वेषमलंकृत स्थितीन योगीन्द्र वंशाहितलक्षणान्गुरून् ॥६॥ इन्द्रवंशावृत्तम् ॥ २० 2010_05 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह विशद गुण निधानं साधुवर्ग प्रधानं । कृत कुमत पिधानं सत्कृतौ सावधानम् ।। धृतिरुचिर विधानं, सर्व विद्या दधानं । गुरुमनघ विधानं प्राप्यतं सन्निधानम् ॥७॥ पद्मबंध ॥ प्रणमत गुरुभक्त्या भक्तलोका विशुद्ध रति निभृत यशोभिः शोभमानं विमानम् ।। विजित निखिल लोकोदाम कामस्य जेतुः । स्फुट शुभ मति माला मालिनी यस्य वृत्तिः ॥८॥युग्म।। मालिनीकृत्तम् ।। इत्थं श्रीराजसोमाख्या महोपपद पाठकाः । संस्तुताः संतु चिहान क्षमाःकल्याणकांक्षिणाम् ॥६॥ इति विद्यागुरूणामष्टकम् । पं० रायचंद्रजिदूहर्षचंद्र जित्कृतेऽष्टक मिदं लिखितं पं० खुस्यालचंद्रेण ( पत्र १ महिमा० बं० नं० ७४) 2010_05 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचनाचार्य अमृत धर्माष्टकम् ३०७ वाचनाचार्य-अमृत धर्माष्टकम् । श्रीवाचनाचार्यपद प्रतिष्ठा गणीश्वरा भूग्गुिणैर्गरिष्ठाः । सत्य प्रतिज्ञामृतधर्म संज्ञाः जयन्तु ते सद्गुरवो गुणज्ञाः ॥१॥ गणाधिप श्रोजिनभक्तिसूरि, प्रशिष्य संघात सुविश्रुतानाम् । येषां जनिः श्रीमति वृद्धशाखे उकेश वंशेऽजनि कछदेशे ॥ २ ॥ भट्टारक श्री जिनलाभ सूरयः श्रीयुक्त प्रीत्यादिम सागराश्च ये । आसन सतीर्थ्याः किल तद्विनेयतामवाप्य यः प्राप्तमनिंदितं पदम् ।।३।। शत्रुजयाग्रुत्तम तीर्थयात्रया सिद्धांतयोगोढहनेन हारिणा । संवेग रंगाहत चेतसा पुनः पवित्रितं यनिजजन्म जीवितम् ॥ ४ ॥ जिनेन्द्र चैत्य प्रकरो मनोरमो वरेण्य हेम्नः कलशैविराजितः । व्यधापि(यि?) संघेन च पूर्व मंडले येषां हितेषामुपदेशतः स्फुटम् ।।५।। प्रभूतजंतून प्रतिबोध्य ये पुनः स्वर्गगता जेसलमेरुसत्पुरे । समाधिना चंद्र शराष्टभूमिते संवत्सरे माघ सिताष्टमी तिथौ ॥६॥ स्थानाङ्ग सूत्रोक्त वचोनुसाराद्विज्ञायते देवगतिस्तुयेषाम् । यतो मुखादात्म विनिमोभूत्साक्षात्तु विज्ञानभृतो विदंति ॥ ७ ॥ एवं विधाः श्रीगुरुवः सुनिर्भरं कृपापराः सर्वजनेषु साम्प्रतम् । क्षमादि कल्याण गणिं प्रति स्वयं प्रमादकृद्राग् ददतु स्वदर्शनम् ।। ८॥ इति श्रीमदमृतधर्म गुरूणामष्टकम् । 2010_05 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह उपाध्याय क्षमा कल्याणाष्टकम् । चिदब्धः पारज्ञः स्फुरदमल पङ्क रुह मुखो, मुदानंत ध्यायी मुनि गणवरो मारशमनः । सदा सिद्धांतार्थ प्रकटन परो वापति समः, क्षमाकल्याणोऽसौ नयनमृतिगामी भवतु मे ॥१॥ गुरो तवांघ्रिदर्शनं मदीय मानसे मुदे । भवेद्यथैव केकिनां गिरौ पयोद लोकनम् ॥२॥ महोकलायदीयगां निपीय कर्ण संपुटैः। भवंति मोदसंयुताः जनाः सुशर्म भागिनः ॥३॥ तपः पुंज युजोऽजस्रं ध्यान संमग्न चेतसः । क्षमाकल्याण सन्नाम्नो गुरून्वन्दे गुरुधु तीन् ॥४॥ गुरु ज्ञानप्रदं नौमि सद्धर्माचार चंचुरं। ___ यदक्षि करुणा दृष्टैः पूतोऽधर्मी भवत्वरं ।।५।। विरामं विपदां शश्वत्स्मरतां भूमि मण्डले । वन्दारु नर मन्दारमुपासे गुरु पत्कजं ॥६।। मोह मास्थत्सदा सेन्योहृद्वाक् संहननैर्मया । योयं गांयेयं वर्णाभः सौजन्याद वनौचिरं ॥७॥ काम मोह राग रोष दुष्ट दाव वारिदस्य । दर्शनं जनाघहारि अस्तुमे सुपाठकस्य ।।८।। 2010_05 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह - उपाध्याय क्षमाकल्याणजी (श्रीहरिसागरसूरिजीकी कृपासे प्राप्त) 2010_05 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय क्षमा कल्याणाष्टकम् ३०६ यद्वाणी मुदमातनोति कृतिनां, पूतात्मनां नित्यशः । सद्धीवृषशाखिनः सुरसरिन्नीरार्जुना सन्ततं ॥ योगारूढ़ मुनीद्र मानस सरो वासं विधाय स्थिता । तां पीत्वा जलदाम्बु चातक इवहृन्मे यथाहृष्यति ॥६॥ * परलोक गतानां श्री गुरूणां स्तवः * सर्व शास्त्रार्थ वक्त णां, गुरूणां गुरु तेजसाम् । क्षमा कल्याण साधूनां, विरहोमे समागतः ॥१॥ तेनाहं दुःखितोजऽस्त्रं विचरामि महीतले। __ संस्मृत्य तद्रोिगुर्वी, धैर्य्य मादाय संस्थितः ॥२॥ वीकानेर पुरे रम्ये, चातुर्वर्ण्य विभूषिते । क्षमाकल्याण विद्वांसो, ज्ञान दीप्रास्तपखिनः ॥३॥ अग्न्यद्रि करि भू वर्षे, (१८७३) पौष मासादिमे दले*। चतुर्दशो दिन प्रांते सुरलोक गतिंगताः ॥४॥युग्मं ।। वन्देहं श्रीगुरून्नित्यं भक्ति नम्रण वर्मणा । मदुपकार कृताः श्रेण्यः स्मर्यन्ते सततं मया ॥५॥ गृह पवित्री कुरुमे दयालो, गुरो सदापाद सरोजन्यासैः। लुनोहि जाड्य मनसिस्थित वै, संस्कारवत्या च गिरा सदात्वं श्रीःस्तात सतां सदा ॥६॥ * कृष्ण (भव्य) चतुदशी प्रांते । 2010_05 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सेवक सरूपचन्दरो कह्यो उपाध्याय जयमाणिक्यजीरो छंद ------ - - -- दोहा सरस सबुध दिये शारदा, सुंडाला सप्रसाह(द?)। गुण गाउं 'घमडो' जती, बुध समपो वरदाह ॥ १॥ चैत्य प्रसाद चिणाविया, कर जिण इधका कोड़। चहुं कुंटां लग नाम चढ, हुवे न किण सुं होड ।। २ ।। जैन धरम धारया जुगत, साझण शील सनाह । 'हरखचंद' पाट 'जीवण जी' हुवा, सिंघ सहु करै सराह ।३। खरतर बंश ओपम खरा, बांचे सका बखाण । पण धारी 'जीवणदास' पट, साचो 'घमंड' सुप्रमाण ॥ ४ ॥ ॥ छंद जाति रोमकंद ॥ पण धारीय 'जीवणदास' तणे पट, थाट घणे 'घमड़ेश' जती । सरसत सकत उकत समापण, नीत पत दीयण सुमत नीती ।। जस वाण सचांण सचाण सहवाचै, परदेश प्रवेश कीरत केती। नर नार उच्छाव करै व्हो नारद, वारद ज्युं इधकार भती ॥१०॥ संवत् 'अढार वरस पचीस ही'. मास 'वैशाख सुद छठ' मोती। परवाण वाखाण पतष्ठा हो पुरतः, पेख रहे दस देस पती ।। नीरख परख करै वहु नाईक, वाइक पढ़े कवराव बती ।। प० ।। 2010_05 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय जयमाणिक्यजीरो छंद पूजा अरचा मंड पाट पटंबर, बाजत झालर संख वती । परानी ऐमस कोई पयपै, न्यात कहै धन धन नीती ॥ बड़वा रस को सार वखाणौ, जस जोर हुवो चहुं कुंट जेती ॥ प० ॥ कर कोड सहोड करै कव कोरत, ध्यान धरै को ग्यान ध्रती । दी दान घणा सनमान सदताही, पुज जणेसुर ईधकार करे जोणवार सुजाणे, आण न कोईण ॥ कवित्त ॥ खरतरगच्छ जस खटण, पाट उजवाल बड़े प्रव (ण ? ) । 'हरखचंद' हरा हेत, वरा 'जीवण' जी वाटण ॥ 'सुन्दरदास' सपूत, वले 'वस्तपाल' वखाणुं । ३११ 'दीपचंद ' दरियाव ओपमा 'अरजन' जाणुं ॥ 'जीवणदास' पुठ खटण सुजस, वड़ शाखा जिम विस्तरौ । परवार पुत 'घमडेश' रो, रवि जितरौ अविचल रहौ ||१|| ॥ श्री ॥ उ० ॥ श्री जयमाणिक्य जीरौ ए कवित्त छै । पाइ वती ॥ ईढ इनी ॥ प० ॥ ॥ जैन- न्याय ग्रन्थ पठन सम्बन्धी सवैया || स्याद वाद में (जय ?) पताका 'नयचक्र' 'नैं (नय ? ) रहस्य' 'पंच अस्तिका यं' 'रत्नआकरावतारिकां' | कठिन 'प्रमेय कौल मारतंड' 'सम्मति' सं, 'न्याय कुसुमाञ्जलि' जु 'तरकरहस्यदीपी (का)', 'अष्टसहस्त्री' वादि गजकी विदारिका । केइ 'किरणावली' से तर्क शास्त्र जैन मांझि, 'स्यादवाद - मंजरी' विचार युक्ति धारिका । 2010_05 कहा नैयायिकादि पढो शास्त्र पारका || १॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह * ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह * द्वितीय विभाग (खरतरगच्छको शाखाओं सम्बन्धी ऐतिहासिक काव्य ) वेगड खरतरगच्छ गुर्वावली पणमिय वीर जिणंद चंद, कय सुकय पवेसो। ___ खरतर सुरतरु गच्छ स्वच्छ, गणहर पभणेसो। तसु पय पंकय भमर सम, रसजि गोयम गणहर । तिणि अनुक्रमि सिरि नेमिचंद मुणि, मुणिगुण मुणिहर ॥१॥ सिरि 'उद्योतन' 'वर्द्धमान', सिरि सूरि 'जिणेसर'। थंभणपुर सिरि 'अभयदेव', पयडिय परमेसर । 'जिणवल्लह' 'जिनदत्त' सूरि, 'जिणचंद' मुणीसर । 'जिणपति' सूरि पसाय वास, पहु सूरि 'जिणेसर' ॥ २॥ भवभय भंजण 'जिणप्रबोध', सूरिहिं सुपसंसिय । आगम छंद प्रमाण जाण, तप तेउ दिवायर । सिरि 'जिन कुशल' मुणिंद चंद, धोरिम गुण सायर ॥ई।। भाव(ठ)-भंजण कप्प रुक्ख, 'जिन पद्म' मुणीसर । सब सिद्धि बुद्धि समिद्धि वृद्धि, "जिणलद्धि' जइसर । पाप ताप संताप ताप, मलयानिल आगर । सूरि शिरोमणि राजहंस, 'जिणचंद' गुणागर ।। ४ ।। 2010_05 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेगड खरतरगच्छ गुर्वावली ३१३ बोहिय श्रावक लाख साख, सिव मुख सुख दायक । महियलि महिमामाण जाण तोलइ नहु नायक । 'झंझण' पुत्त पवित्र चित्त, कित्तिहिं कलि गंजण। सूरि 'जिणेसर' सूरि राउ, रायह मण रंजण ॥ ५ ॥ 'भीम' नरेसर राज काज, भाजन अइ सुंदर । वेगड नंदन चंद कुंद, जसु महिमा मंदर। सिरि 'जिनशेखर सुरि' भूरि, पइ नमइ नरेसर । काम कोह अरि भंग संग जंगम अलवेसर ॥ ६ ॥ संपइ नवनिध विहित हेतु, विहरइ मुहि मंडलि। .. थापइ जिणवर धम्न कम्म, जुत्तउ मुणि मंडलि। जां गयणंगणि 'चंद सूरि', प्रतपई चिर काल । तां लग सिरि 'जिणधम्म सूरि', नंदउ सुविशाल ॥ ७ ॥ 4 2010_05 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ॥ श्री जिनेश्वर सूरि गीत ॥ सूरि सिरोमणि गुण निलो, गुरु गोयम अवतार हो । सदगुरु तुं कलियुग सुरतरु समो, वांछित पूरणहार हो ॥१॥ सदगुरु पूर मनोरथ संघना, आपो आणंद पूर हो । सद०। विधन निवारो वेगला, चित चिंता चकचूर हो ॥ सद० ॥ २ ॥ तु 'वेगड' विरुदे वडो, 'छाजहडां' कुल छात्र हो। गच्छ खरतर नो राजियो, तुसिंगड वर गात्र हो ।सद०॥३॥ मद चूर्यो 'मालू' तणो, गुरु नो लीधो पाट हो। सम वरण ! लोधो सहु, दुरजन गया दह वाट हो ।सद०॥४॥ आराधी आणंद सुं, वाराही त्रि राय हो । धरणेन्द्र पिण परगट कियो, प्रगटी अति महिमाय हो ।सदा५।। परतो पूर्यो 'खान' नो, 'अणहिल वाडई' मांहि हो । महाजन बंद मुकावीयो, मेल्यो संघ उछाह हो । सदा।। 'राजनगर' नई पांगुर्या, प्रतिबोध्यो 'महमद' हो। पद ठवणो परगट कियो, दुख दुरजन गया रद हो । सदाणा सींगड सोंग वधारिया, अति ऊंचा असमान हो। धोंगड भाइ पांचसई, घोडा दीधा दान हो ।सद०॥८॥ सवा कोटि धन खरचीयो, हरख्यो 'महमद शाह' हो। विरुद दियो वेगड तणो, प्रगट थयो जग मांहि हो ॥सद०॥।। 2010_05 | Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनेश्वरसूरि गीत. गुरु श्रा (सा?) वक बहु वेगड़ा, वलि वेगड पतिशाह हो । विरुद धर्यो गुरु ताहरो, तुझ सम बड कुण थाय हो || सद० || १० श्री ' साचउर' पधारीया, मुं (पुं)हता गच्छ उछरंग हो । .' 'वेगड' 'थूलग' गोत्र बे, मांहो मांहि सुरंग हो || सद०|| ११|| 'रोही' थी आवीया, 'लखमसीह' मंत्रीस हो । संघ सहित गुरु वंदीया, पहुंती मनह जगीस हो || सद० ||१२|| 'भरम' पुत्र विरावीयो, राखण कुल नी रीत हो ! च्यार चौमासा राखीया, पाली धर्म नी प्रीत हो || सद० || १३|| 'संवत 'चउद श्रीसा' समै, गुरु संथारो कीध हो । सरग थयो 'सकतीपुरै', वेगड धन जस लीध हो || सद० ||१४|| पाटे थाप्यो 'भरम' नें, कर अधिको गहगाट हो । ३१५ थंभ मंडाव्यो ताहिरो, जा 'जोसा (धा?)ण' री वाट हो || स०॥१५॥ लोक खलक आवे घणा, दादा तुझ दीवाण हो० । जे जे आस्या चिंतवइ, ते ते चढ़इ प्रमाण हो || सद० || १६ || पट पुत्री उपर दियो, 'तिलोकसी' नइ पुत्र हो । पूर्यो परतो मन तणो, राख्यो घर नो सूत्र हो ||सद०||१७|| तूं 'झाझण' सुत गुण निलो, 'झबकु' मात मल्हार हो । 'जिणचंद्र' सूरि पाटइ दिनकरु, गच्छ वेगड सिंणगार हो । सद० || १८|| स (ह) गुरु 'जिणेसर सूरजी', अरज एक अवधार हो । सदगुरु उदय करेज्यो संघ मई, बहु धन सुत परिवार हो । सद०|१६| 'पोस सुदि तेरस' नइ दिनई, यात्रा कीधी उदार हो । श्री 'जिनसमुद्र' सरिंद नई, करज्यो जयजयकार हो । सद०.२० ॥ 2010_05 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ . ऐतिहासिक जेन काव्य संग्रह ॥श्री जिनचंद्र सूरि गीत ॥ राग:-मारू आज फल्यो म्हारई आंबलोरे, परतख सुरतरु जाण । कामधेनु आवी घरे रे, आज भले सुविहाण । पधार्या पूज्यजी रे। श्री 'जिणचंद सूरिंद' पधार्या पूजजी रे । श्री चंद कुलांबर चंद पधार्या, श्री खरतर गच्छ नरिंद ।पू०॥१॥ श्री वेगड गच्छ इंद पधार्या पूज्यजी रे । ढोल दमामा वाजीया रे, वाज्या भेर निसांण ।, सुमति जन हरषित थया रे, कुमति पड्यो भंडाण ॥ प० ॥२॥ घरि घरि गूडी ऊछलइ रे, तलीया तोरण बार। पाखंडी कांनई कीया रे, वेगड गच्छ जयकार गच्छ खरतरजू।३. सूहव बधावो मोतीयइ रे, भर भर थाल विशाल । खोटा कूड कदाग्रही रे, ते नाठा तत्काल | प०॥ ४ ॥ वडई नगर ‘साचोर' मई रे, श्री पूज उग्यो भाण । तारां ज्यु झाखां थया रे, खोटा अ(उ)र अजाण ।। प० ॥ ५ ॥ पाटि विराज्या पूजजीरे, सुललित वाण (वखाण)। अशुद्ध प्ररूपक मयलडा रे, त्यांना गलोयां मांण ।। प० ॥ ६ ॥ 'बाफणा' गोत्र कला निलोरे, शाह 'रूपसी' नो नंद। “श्री जिन समुद्र" कहइ पूज्यजी रे, प्रतपो ज्यु रविचंद ।प०१७ 2010_05 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसमुद्रसूरि गीतम् ३१७ ॥ जिनसमुद्र सूरि गीतम् ॥ ढाल-कडखउ, राग गुंढ रामगिरि सोरठ अरगजो सुधन दिन आज जिन समुद्र सूरिंद आयो, सूरिंद आयो। वडो गच्छराज सिरताज वर बड वखत, तखत 'सूरेत' मई अति सुहायो ॥ १ ॥ आवीयई पूज्य आणंद हुआ अधिक, इन्द्रि पिण तुरत दरसण दिखायो । अशुभ दालद्र तणी दूर आरति टली, सकल संपद मिली सुजस पायो ।॥ २॥ उदय उदयराज तन सकल कीधो उदय, वान वेगड गछइ अति वधायो । जांचकां दान दीधा भली जुगत सुं, सप्त क्षेत्रे वलि सुवित्त वायो ॥३॥ सबल साम्हो सजे स गुरु निज आणीया, शाह 'छतराज' मनमइ उमायो । गेहणी सकल हरषइ करी गह गही, विविध मणि मोतीया सुं बधायो॥४॥ 2010_05 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पूज पद ठवण संघ पूज पर भावना, करे निज वंश 'छाजहड' सुभायो । गंग गुण दत्त राजड जिसा कृत करी, चंद लग सुजस नामो चढायो ।॥ ५ ॥सु०॥ छहां वरणां दीयई दान दानी छतो, कलियुगइ करण साचो कहायो । सगुरु 'जिनसमुद्र सूरिंद' गौतम जिसौ, ___ धरमवंतइ खरई चित ध्यायो ॥६॥ चतुर जिण चतुर विध संघ पहिरावीया, जगत्र मई सुजस पडहो बजायो। मूल धर्म मूल पख चित मई धारता, जैन शासन तणो जय जगायो ।। ७ ।। गुरे 'जिनसमुद्र सूरिंद' साचो गुरु, - शाह 'छत्रराज' सेठइ सवायो । विह्म वड शाख ध्रौ जेम वाधो सदा, गुणीय "माइदास" इम सुजस गायो सासु०।। SOM 2010_05 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुपट्टावली चउपइ ३१६ खरतरगच्छ पिप्पलक शाखा ॥ गुरु पट्टावली चउपइ॥ समरु सरसति गौतम पाय, प्रणमुं सहिगुरु खग्तर राय । जसु नामई होयइ संपदा, समरंता भावइ आपदा ।। १ ।। पहिला प्रण, 'उद्योतन' सूरि, बीजा वर्द्धमान' पुन्य पूरि । करि उपवास आराहि देवी, सूरि मंत्र आप्यो तसु हेवि रा. वहिरमाण 'श्रीमंधर' स्वामि, सोधावि आव्यउ शिर नामि । गौतम प्रतई वीरइं उपदिस्यउ, सूरि मंत्र सुधउ जिन काउ ॥३॥ श्री ‘सीमंधर' कहइ देवता, धुरि जिन नाम देज्यो थापतां । तास पट्टि 'जिनेश्वर सूरि', नामइं दुख वली जाइ दूरि ॥४॥ 'पाटण' नयर 'दुल्लभ' राय यदा, वाद हूओ मढपति स्युं तदा। संवत 'दस असीयइ' वली, खरतर विरुद दीयइ मनिरली ||५|| चउथइ पट्टि 'जिनचंद सूरिंद', 'अभयदेव' पंचमइ मुणिंद । ___ नवंगि वृति पास थंभणउ, प्रगटयउ रोग गयुं तनु तणउ ॥६॥ श्री 'जिनवल्लभ' छठूइ जाणी, क्रियावंत गुण अधिक वखाणी । श्री 'जिनदत्त सूरि' सातमउ, चोसठि योगणी जसु पय नमइ ॥७॥ वावन वीर नदो वलि पंच, माणभद्र स्युं थापी संच । __ व्यंतर बीज मनावी आंण, धुंभ 'अजमेरु' सोहइ जिम भाण ||८| श्री 'जिनचंद्र सूरि' आठमइ, नरमणि धारक 'दिल्ली' तपइ । तास शीस 'जिनपति' सूरिंद, नवमइ पट्टि नमुं सुखकंद ॥६॥ 'जिन प्रबोध 'जिनेश्वर सूरि', श्री 'जिनचंद्र सूरि' यश पूरि । वंदु श्री 'जिनकुशल' मुणिंद, कामकुंभ सुरतरु मणिकंद ॥१०॥ 2010_05 | Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'चउदसमइ 'जिनपद्म सूरिस', 'लब्धि सूरि' 'जिनचंद' मुणीश | सतर ( स ) मइ 'जिनोदय' सूरि, श्री 'जिनराज सूरि' गुण भूरि | ११ | पाटि प्रभाकर मुकुट समान, श्री 'जिनवर्द्धन सूरि' सुजाण । शीलइ सुदरसण जंबू कुमार, जसु महिमा नवि लाभइ पार || १२ || श्री 'जिनचंद सूरि' वीसमइ, समता समर ( स ) इंद्री दमइ । वंदो श्री 'जिनसागर सूरि', जास पसाइ विघन सवि दूरि ||१२|| चउरासी प्रतिष्ठा कीद्ध, 'अहमदाबाद' थूभ सुप्रसिद्ध । तासु पदइ 'जिनसुंदर सूरि', श्री 'जिनहर्ष सूरि सुय पूरि ||१४| पंचवीस मइ 'जिनचंद्र सूरिंद', तेज करि नइ जाणइ चंद | श्री ' जिनशील सूरि' भावइ नमो, संकट विकट थकी उपसमउ || १५|| श्री ' जिनकीत्ति' सूरि सुरीश, जग थलउ जसु करइ प्रशंस । श्री 'जिनसिंह' सूरि तसु पट्टइ भणुं, धन आवइ समरंता घणुं ॥ १६ ॥ वर्त्तमान वंदो गुरुपाय, श्री 'जिनचंद' सूरिसर राय । जिन शासन उदयउ ए भाण, वादी भंजण सिंह समाण ||१७| - खरतर गुरु पट्टावली, कोधी चउपइ मन नी रली । ओगणत्रीश ए गुरुना नाम, लेतो मनवंछित थाये काम ||१८|| प्रह उठी नरनारी जेह, भणइ गुणइ रिद्धि पामइ तेह | 'राजसुंदर' मुनिवर इम भाइ, संघ सहु नइ आणंद करइ || || इति श्री गुरु पट्टावली चउपइ समाप्त ॥ श्र० कील्लाइ पठनार्थे ॥ मो० द० दे० ॥ यह पट्टावली श्री जिनचंदके शिष्य पं० राजसुंदरने देवकुल पाटन में सं० १६६६ वैशाख वदि ६ सोम श्र० थोभणदे के लिये लिखी है। (देवकुलपाटक तृतीयावृत्ति पृ० १६) 2010_05 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिन शिवचन्द सूरि रास ३२१ शाह लाधा कृत श्री जिन शिवचंद सूरि रास (रचना संवत १७६५ आश्विन शुक्ल पंचमी, राजनगर ) दूहा :शासन नायक समरीये, श्री 'वर्द्धमान' जिनचंद । प्रणमुं तेहना पद युगल, जिम लहुं परिमाणंद ॥ १ ॥ 'गौतम' प्रमुख जे मुनिवरा, श्री (सोहम) गणराय । 'जंबू' 'प्रभवा' प्रमुखने, प्रणमंता सुख थाय ॥ २ ॥ श्री वीर पटोधर परमगुरु, युगप्रधान मुनिराय । यावत् 'दुपसह सूरो' लगें, प्रण, तेहना पाय ।। ३ ।। तास परंपर जाणीये, सुविहित गच्छ सिरदार। 'जिनदत्त' ने 'जिनकुशल' जी, सूरि हुवा सुखकार ॥ ४॥ तस पद अनुक्रमे जांणीये, 'जिन वर्द्धमान सुरिंद। 'जिन धर्म सूरी' पाटोधरू, 'जिनचंद सूरी' मुणिंद ।।५।। 'सिवचंद सूरि' जाणीये, देश प्रदेश (पाठा० प्रसिद्ध) छे नाम । खरतरगच्छ सिर सेहरो, संवेगी गुणधाम ॥६॥ तस गुण गण नी वर्णना, धुर थी उत्पति सार । नाम ठाम कही दाखवू, ते सुणज्यो नर नारि ॥७॥ 2010_05 | Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ढाल (१) — श्रेणिक मन अचरज थयो । ए देशी । मरुधर देश मनोहरू, नगर तिहां 'भिनमालो' रे । राजा राज करे तिहां, 'अजित सिंघ' भूपालो रे मरु० || १|| गढ़ मढ़ मंदिर शोभता, वन वाड़ी आरामो रे । सुखीया लोक वसे तिहां, करे घरमा ना कामो रे || मरु०||२|| तेह नगर मांहे वसे, साह 'पदमसी' नामो रे । 'ओश (बाल) वंश' साखा बडी, 'शंका' गोत्र अभिरामो रे || मरु०॥३॥ तस घरणी 'पदमा ' सती, श्राविका चतुर सुजाणो रे । सुत प्रश्रव्यो शुभ योग (ति) थी, 'सिवचंद' नाम प्रमाणो रे | मरु० |४| कुमर वधे दिन दिन प्रतइ, सेठजी हृदय विमासे रे । पूत्र निसाले मोकलूं, अध्यापक ने पासे रे ।। मरु० ॥ ५ ॥ भणी गुणी प्रोढा (पाठा० मोटा ) थयां, बोले मधुरी भाषो रे । संसारिक सुख भोगना, कुमर नें नहीं अभिलाषो रे | मरु० |६| इणे अवशर गुरु विचरता, तिणहीज नगरीमें आव्या रे । श्री ' जिनधर्म सूरिंद' जी, श्रावक जन मन भाव्या रे | मरु०|७| पइसारो महोछव करी, नगर मांहे पधरावे रे | श्रावक श्राविका तिहां मिली, गीत ज्ञान गुण गावे रे | मरुट। धन धन ते दिन आज नो, धन ते वेला जाणो रे । जेणे दिन सदगुरु वांदीयइ, कीजिये जन्म प्रमाणो रे | मरु० |हा दूहा - थिर चित जाणी परषदा, गुरूजी दीये उपदेश । जीवाजीव स्वरूप ना, भाख्या सकल विशेष ॥ १ ॥ 2010_05 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन शिवचन्द सूरि रास ३२३ वाणी श्री जिनराज नी मीठी अमीय समाण । दीधी सदगुरु देशना, रीझ्या चतुर सुजाण ॥ २ ॥ शाह 'पदमसो' कुंअरे, धर्म सुणी तिणि वार।। वयरागें चित वासीयो, जाणी अथिर संसार ।। ३ ।। कुमर कहे श्री गुरु प्रते, करजोड़ी मनोहार । दीक्षा आपो मुझ भणी, उतारो भवपार ॥४॥ जिम सुख देवाणुप्रिये, तिम कीजे सुविचार । अनुमत लेइ कुमरजी, हवे लेसे संयम भार ॥५॥ ढाल बीजी-जी रे जी रे स्वामी समोसर्या० । ए देशी० । अनुमति द्यो मुझ तातजी, लेसं संजम भारो रे । ए संसार असार मां, सार धरम सुखकारो रे । अनु०।१। वचन सुगी निज पुत्र नां, मात पिता दुख पावे रे । संयम छै वछ दोहिलं, सु होय नाम धरावे रे । अनु०।२। अति आग्रह अनुमति दीयइ, मात पिता मन पाखै रे । ___ उछव सुं व्रत आदरे, संघ चतुरविध साखै रे । अनु० । ३ । संवत 'सतर बहसठे', लीये दीक्षा मन भावे रे। _ 'तेर वरस' ना कुमर पणे, नरनारि गुण गावै रे । अनु० । ४ । मन वच काया वश करी, रंगे चारित्र लीधो रे । पाले व्रत निरमल पणे, मनह मनोरथ सोधो रे । अनु० ।५। मासकल्प तिहां किण रही, श्री पूज्य कीधो विहारो रे । गाम नगर प्रतिबोधता, करता भवि उपगारो रे । अनु० । ६ । कुमर भणे अति उलट, गुरु पासै मन खांत रे।। ज्ञानावरणी क्षय उपशमे, भणीया सूत्र सिद्धान्तो रे । अनु० । ७। 2010_05 | Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह व्याकरण नाममाला भण्या, वलि भण्या काव्य ना ग्रन्थो रे । न्याय तर्क सवि सीखीया, धरता साधुनो पंथोरे । अनु०॥ ८॥ गीतारथ गणधर थया, लायक चतुर सुजाणो रे।। क्यरागें मन भावता, पाले श्री गुरु आणो रे । अनु० । । । दहा-पाट योग जाणी करी, श्री गुरु करे विचार । ___ पद आ' 'सिवचंद'ने, तो होय जय जयकार ॥ १॥ निज समय जाणो करी, श्री गुरु कीध विहार । 'उदयपुरे' पाउधारीया, उच्छव थया अपार ।।२।। निज देहे बाधा लही, समय (पाठा० संयमें) थया सावधान । अणशण आराधन करो, पाम्यां देव विमान ।। ३ ।। संवत 'सतर छहोत्तरे', 'वैशाख' मास मझार । 'सुदि सातम' शुभ योगे तिहां, आपुं (प्यु) पद श्रीकार ॥४॥ श्री 'जिनधर्म सूरिंद' ने, पाटे प्रगट्यो भाण । श्री 'जिनचंद सूरीश्वरू', प्रतपे पुण्य प्रमाण ।। ५ ।। ढाल ३-नींदलडी वयरण हुइ रही । ए देशी०। भावे हो भवियण सांभलो, 'सिवचंदजी'नो हो (भलो) रास रसालके । जे नित गावे भाव सुं, तस बाधे हो घर मंगल मालके ॥ १ ॥ . अवशर लाहो लीजिये । आंकणी० । श्रावक 'उदयापुर' तणा, पद महोछत्र हो करवा मन रंग के। समय लही निज गुरु तणो, धन खरचे हो धरमे दृढ़ रंग के ।अ०१२॥ 'दोसी भिक्षुसुत तिणे (समे) करे, वीनति हो कुशल संघ एमके । रे हरे श्रीगुरू नो अवसर कीहां, अमो करसुं हो पद महोछव प्रेमके।३॥ 2010_05 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन शिवचन्द सूरि रास ३२५ संवत 'सतर छीउतरे', मास 'माधव हो सुदि सातम' सारके । राणा संग्राम' नाराज्य में, करे उछव हो श्रावकतिण वार के अ०१४। श्री संघ भगति करे अति भलो, बहु विधना हो मीठा पकवानके। शाल दाल घृत घोल सुं, वली आपे हो बहु फोफल पानके अ०५। पहेरामणी मन मोद सुं, 'कुशले' 'जोये हो कीधा गहगाट के। जस लीधो जगमें धणो, संतोषीया हो वली चारण भाट के अ०६। श्री 'जिनचंद' सूरीश्वरू, नित्य दीपे हो जेसो अभिनव सूर के। वयरागी त्यागी घणु, सोभागी हो सज्जन गुणे पूर के । अ०। ७ । तिहां शिष्य 'हीरसागर' कीयो, अति आग्रह हो तिहां रह्या चौमासके। श्री गुरु दीये धर्म देशना, सुणतां होये हो सुख परम उलासके ।अ०८ धरम उद्योत थया घणा, करे श्राविका हो तप व्रत पचखांण के। संघ भगति परभावना, थया उछव हो लह्या परम कल्याण के अ०६। दोहा-चार्तुमास पूरण थये, विहार करे गुरु राय । ___ 'गुर्जर देश' पाउधारिया, उछव अधिका थाय । १। संवत 'सतर अठोतरे' को क्रिया उद्धार । ___ वयरागे मन वासीयउ, कीधो गछ परिहार । २ । आतम साधन साधता, देता भवि उपदेश । करता यात्रा जिणंदनी, विचरे देश विदेश । ३ । जस नामी 'सिवचंद' जी, चावू चिहुं खंड नाम । ... संवेगी सिर सेहरो, कीधा उतम काम । ४ । 2010_05 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ढाल (४):-नयरी अयोध्या थो संचर्या ए देशो। गुज्जर देशथी पधारीयाए, यात्र करण मन लाय। मनोरथ सविफल्या ए, __'शत्रुजय' गिरवर भणी ए, भेटवा आदि जिन पाय, मनो० । १। चार मास झाझेरड़ा ए, रह्या 'विमल गिर' पास । मनो०। नव्याणु यात्रा करी ए, पोहोती मन तणी आस ।मनो०।२। तिहां थी 'गिरनारे' जइ ए, भेटीया नेमि जिणंद । 'जुनेगढ़' यात्रा करी ए, सूरी श्री 'जिनचंद' । म० । ३ . गामाणुगामे विहरता ए, आवीया नयर 'खंभात' । म । चोमासुं तिहां किण रह्या ए, यात्रा करी भली भांति ।म।४। चरचा धर्म तणी करे ए, अरचे जिनवर देव । म० । समझू श्रावक श्राविका ए, धरम सुणे नित्य मेव ।म०।५। तप पचखाण घगा थया ए, उपनो हरष अपार । म० । तिहां थी विचरता आवीया ए, 'अहमदाबाद' मझार ।म०६। बिम्ब प्रतिष्ठा घणी थइ (पाठा० करी) ए, वली थया जैन विहार म ते सवि गुरु उपदेश थी ए, समझ्या बहु नर नारि ।म०७१ तिहां थी 'मारुवाड' देश मां ए, कीधी 'अबुद' यात्र । म० । समेत सिखर' भणी संचर्या ए, करता निरमल गात्र ।म०1८५ कल्याणक जिन वीसना ए, वीसे टुंके तेम (पाठा० तास) । म० । __ यात्रा करी मन मोद सुं, बाध्यो अति घणो प्रेम । म० ।।। दोहा-'समेतसिखर' नी यातरा, कीधी अधिक उछाह । श्री पार्श्वनाथ जिन भेटीया, नगरो 'बणारसी' मांह ॥१॥ 2010_05 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन शिवचन्द सूरि रास 'पावापुरी' में पाउधारोया, जिहां श्री वीर निर्वाण । 'चंपापुरी' मांहे वांदीया, श्री वासपूज्य जिनभाण । २॥ 'राजग्रही' वैभारगिरि, यात्रा करी संघ साथ । 'हथीणापुर' जिन वांदीया, शांति कुंथु अरनाथ । ३। 'दि(द)ली' चौमासुं रही, करता यात्र विशेष । विहार करतां पुनरपि, आव्या वली 'गुर्जर देश' । ४ । ढाल (६):-पाटोधर पाटीये पधारो । ए देशी। जिन यात्रा करी गुरु आव्या, श्रावक श्राविका मन भाव्या । पटोधर वांदोये गुरूराया, जस प्रगमे राणाराया। प०।१ । आं०। 'भणसालो' 'कपूर' ने पासे, तिहां 'सिवचंद' जी चौमासे । पटो०। जस प्रणमें राणा राया, पटोधर वांदीचे गुरुराया। आंकणी०। देशना दीये मधुरी वाणी, सुणतां सुख लहै भवि प्राणी । पटो० । बांचे 'भगवती' सूत्र वखाणे, समझ्या तिहां जाण सुजाण । प०।२। ज्ञान भगति थइ अति सारी, जिन वचन की जाऊं बलिहारी प०॥ मली श्राविका जिन गुण गाबे, भरी मोती ए थाल बधावे ।१०।। ३। गहुंली करे गुरूजी ने आगे, शुद्ध बोध बीज फल मांगे। प० । श्रावक करे धर्म नी चरचा, जिहां जिन पद नी थाये अरचा प०४। नव कल्पे कीधो विहार, शुद्ध धरम तणा दातार । प० । ईति उपद्रव दूरें कीधो, 'सिक्चंदजी' ये यश लीधो । प० ।५। पुनरपि मन मांहे विचारे, करूं यात्रा सिद्धाचल सार । प० । 'राजनगर' थी कीधो विहार, करी यात्रा सेठेज' 'गिरनार' । प०१६॥ ____ 2010_05 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तिहां थी रह्या 'दीवे' चोमासुं, जेहनुं धरमें चित वासुं ।प०। पुनरपि 'सिद्धाचल' आवे, गिर फरस्या मन ने भावे । प०।७। थई यात्रा जिनेश्वर केरी, गुरू मुगति रमणी कीधी नेरी। प० । जिनगुण निरख्या नित्य हेरी, टाली भव भ्रमण नी फेरी। प० । ८ । 'घोघे' बन्दिर जिन वांदी, करो करम तणी गति मंदी।प०। 'भावनगरे' देव जुहार्या, दुख दालिद्र रे निवार्या । प० ।।। दोहा। संवत ‘सतर चोराणुं', 'माह' मास सुखकार । 'भावनगर' थी आवीया, नयर 'खम्भात' मंझार ॥१॥ गुरु गुणरागी श्रावके, दीधो आदर मांन । गुरुजी दीये धर्म देशना, तात्विक सुधा समान ॥ २ ॥ द्वेष करी (पाठा० धरि) कोइ दुष्ट नर, कुमति दुर्भवी जेह । यवनाधिप आगल जइ, दुष्ट वचन कहे तेह ॥३॥ सुणीय वचन नर मोकल्या, गुरुने तेडी ताम । यवन कहें अम आपीये, तुम पासे छै दाम ॥ ४ ॥ दाम अमे राखू नहीं, राखु भगवंत नाम । कोप्यो यवनाधिप कहै, खींचो एहनी चाम ॥५॥ पूरव वयर संयोग थी, यवन करे अति जोर । ध्यान धरे अरिहंत नु, न करे मुख थी सोर ॥ ६ ॥ संचित कर्म विपाकनां, उदयागत अवधार । - सहे परिसह शिवचन्दजो', ते सुणजो नरनार ॥ ७ ॥ ढाल (६):-बेबे मुनिवर विहरण पांगुर्याजी । एदेशी० । 'जिनचन्द सूरी' मन मांहे चिन्तवेरे, हवे तुं रखे थाय कायर जीवरे । 2010_05 | Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ / // / / / / / / / श्री जिन शिवचन्द सूरि रास एह थी नरग निगोद मांहे घणीरे, तेंतो वेदन सही सदीवरे ॥१॥ धन धन मुनी सम भावे रह्या रे, तेह नी जइये नित्य बलिहार रे । दुःकर परीसह जे अहियासने रे, ते मुनी पाम्या भव नो पारध२।। 'खंधग' मुनीना जे शिष्य पांचसैरे, पालक पापीयें दीधा दुःखरे । 'घाणी घाली मुनीवर पोलीयारे, ते मुनि(प्रणम्या)अविचल सुख रे॥धना३ 'गजसुकमाल' मुनी महाकालमें रे, स्मसाने रहीया काउसग्गजो। 'सोमल ससरे' शीस प्रजालियोजी, ते मुनि प्रणम्या ( पाठा० पाम्या) सुख अपवर्ग जो ॥१०॥४॥ 'सुकोशल' मुनिवर संभारीयेजो, जेहना जीवित जन्म प्रमाण रे । बाघणे अंग विदार्य साधुनुंजी, परिसह सही पहुंता निरवाण हो॥५॥ 'दमदन्त' राजऋषि काउसग रह्माजी, कौरव कटक हणे इंटाल जो। परिसह सही शुद्ध ध्याने साधुजी रे, ते पण मुगते गया ततकाल जो ॥०॥६॥ 'खंधग' ऋषिने खाल उतारतांजी, कठीन अहीयासे परिसह साधु जो । ते मुनी ध्याने कर्म खपावीनेजी, पाम्या शिवपद सुख निरबाध जो ॥०॥७॥ इत्यादिक मुनिवर संभारताजी, धरता निजपद निरमल ध्यान जो। जड चेतन नी भावे भिन्नताजी, वेदक चेतनता सम ज्ञान जो॥ध०८।। तत्वरमण निज वासित वासनाजी, ज्ञानादिक त्रिक शुद्ध जो । जडता ना गुण जडमें राखताजी, जेहनी आगम नैगम बुद्धजोध०॥६॥ पुदगल आप्पा (थप्पा) लक्षणे जी, पुद्गल परिचय कीनो भिन्न जो । अन्त समय एहवी आत्मदशाजी, जे राखे ते प्राणी धन्न जोध०१०॥ 2010_05 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह कोपातुर यवने रजनी समे जी, दीधा दुख अनेक प्रकार जो । तोहे पण न चल्या निज ध्यान थी जी, सहेता नाडी दंड प्रहार जो।११ हस्त चरण ना नख दुरे कीया जी, व्यापी वेदन तेण अनेक जो। हार्यो यवन महादुष्टात्मा जी, जो राखी पूरव मुनी नी टेक जो ध०१२ जिम जिम वेदन व्यापे अति घणोजी, तिम सम वेदे आतमराम जो। इम जे मुनिवर सम(ता) भावे रमे जी, तेहने होज्यो नित परणाम जो दूहा:--प्रात समय श्रावक सुगी, पासे आव्या जाम । यवन कहै झांखो थइ, ले जाउ निज धाम ।११ 'रूपा वोहरा' ने घरे, तेडी लाव्या ताम। हाहाकार नगरे थयो, दुष्ट ना मुख थया स्याम ।२।। 'नायसागर' नीझामता, नीरखि परिणिति शांति । उत्तराध्यन आदे बहु, संभलावे सिद्धांत ॥३॥ सकल जीव खमाविनइ, सरणा कोधा च्यार । सल्य निवारी मन थकी, पचख्या चारे अहार ।४। अणशण आराधन करी, चड़ते मन परिणाम । समतावंत धीरज गुणे, साध्यं आतम काम ५५ चो, व्रत कोइ आदरे, कोइ नीलवण परिहार । __अगडी नीम केइ उचरे, केइ श्रावक व्रत बार ६॥ संघ मुख्य 'सिवचन्द' जो, वचन कहे सुप्रसिद्ध । 'हीरसागर' ने गछ तणी, भली भलामण दीध १७॥ संवत 'सतर चोराणुयें', वैशाख मास मझार । षष्ठि दिन कविवार तिहां, सिद्ध योग सुखकार ।८। 2010_05 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिन शिवचन्द्रसूरि रास प्रथम पोहोर मांहे तिहां, धरता जिननुं ध्यान | काल करी प्रायें चतुर पाम्या देव विमान || ढाल ७ :-माइ धन सम्पन्न ए, धनजीवी तोरी आज । ए देशी० । धन धीरज दृढ़ता, धन धन सम परिणाम । जेणे परिसह सही ने, राख्युं जग मांहै नाम ॥१॥ बलिहारी तोरी बुद्धि ने, बलहारि तुम ज्ञान । जेणे आतम भावे, आराध्यं शुभ ध्यान बलिहारी तुम कुल ने, बलिहारी तुम वंश | शासन अजुआली, अजुयाल्यो निज हंस ||३|| गुरु कुमर पणे रह्या, तेर वरस घर वास । शिष्य विनय पणें रह्या, तेर वरस गुरू पास ॥ गच्छनायक पदवी, भोगवी, वरस अढार । आयु पूरण पाली, वरस चुमालीस सार धन धन 'शिवचन्दजी', धन धन तुझ अवतार | इम थोके थोके, गुण गावे नर नार । करे श्रावक मली तिहां, मांडवी मोटे मंडाण । कंचनमय कलसे, जाणें अमर विमाण तिहां जोवा मलोया हिन्दु मलेछ अपार । जय जय नन्दा कहे, लीये डंडा रस सार | वली अगर उखेवे, सोवन फूलें वधावे । ३३१ गाय धवल मंगल, दीये ढोल तणा ढमकार || ||२|| सुकडने अगर सुं, कीधो देही संस्कार | 11811 भेर भूगल साथै, सरणाइ रणकार ||६|| ॥५॥ 2010_05 इम उछव थाते, वन मांहे लेइ आवे || निरबाण महोछत्र, इणि परे कीधो उदार ||७|| Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ VAA- - ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पुरषोत्तम पूरो, सूरो सयल विवेक । - जेणे गछ अजुयाली, राखी धर्मनी टेक ॥ तिहां थूभ करावी, श्रावके उछव कीधो। . वली पगला भरावी, 'रूपे वोहरे' जस लीधो ॥८॥ तिम 'राजनगर' में, धुंभ करी अति सार। तिहां थाण्या पगला, 'बहिरामपुर' मंझार ।। अति उछव थाये, भगति करे नर नार । इम गुरूगुण गावें, तस घर जय जयकार ।। अति आग्रह कीधो, 'हीरसागरे' हित आणी । करी रासनी रचना, साते ढाल प्रमाण ।। "करूया मति' गछपति, साहजी 'लाधो' कविराय । तिणे रास रच्यो ए, सुणत भणत सुखथाय ॥१०॥ कलश:इम रास कीधो सुजस लीधो, आदि अन्त यथा सुणी। 'शिवचन्द्रजी' गछपति केरो, भावजो भवि गुणमणी ।। संवत 'सतरेसें पंचा"', 'आसो' मास सोहामणो। - 'सुदि पंचमी' सुरगुरू वारे, ए रच्यो रास रलीयामणो ।। निरवांण भाव उलास सार्थे, 'राजनगर' मांहि कीयउ। कहे शाहजी 'लाधो' 'हीर' आग्रह थी, रास एह करी दीयउ॥१॥ इति श्री शिवचन्दजी नो रास समाप्त ॥छ।। प०५ नि० म० ला० ॥ प्रति नं० २ पुष्पिका लेख सम्बत् १८४० ना आसु बदि ४ दिने श्री भुजनगर मध्ये लिखते । गाथा १०५ लिखतं देवचन्द गणिनां लिखतं श्रीवृहत्खरतरगच्छे खेम शाखायां श्रीकच्छदेशे श्रीशांति प्रसादात् वाच्यमान हेतवे । मेरु महीधर जां लगे जां लग उगत सूर, तां लग ए पोथी सदा रहे जो ए सुख पूर ॥ श्री रस्तु । कल्याणमस्तु ॥ श्री श्री (पत्र ६ अंजारसे विद्वद मुनिवर्य लब्धि मुनि जो द्वारा प्राप्त) 2010_05 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनचन्द्र सूरि पट्टधर श्रीजिनहर्षसूरि गीतम् आद्यपक्षीय ( खरतरगच्छीय ) आचार्यशाखा जिनचंद सूरि पट्टधर श्री जिनहर्ष सूरि गीतम् ३३३ सखि देख्यउ हे सुपनउ मई आज, श्री गच्छराज पधारिया । सखि सगलां हे साधां सिरताज, श्री 'जिनहरख' सूरिश्वरु ॥१॥ सखि चालउ हे करनी गज गेलि, ढेल तणी पर ढलकती । खिम्हांका सद्गुरु मोहनवेलि, वाणि अमीरस उपदिसइ ||२|| सखि सजती हे सोलह श्रृंगार, ओढी सुरंगी चूनड़ी । सखि शीसह घर कलश उदार, मोत्यां थाल बधामणउ ! | ३ || सखि जुगवर चवद विद्या रा जाण, जाणी तल सारइ जगइ | सखि मानइ हे सहु राजा राण, पाटइ श्री 'जिणचंद' कइ || ४ ||| सखि दीपइ 'दोसी' वंश दिणन्द, 'भगतादे' उयरइ धर्या 1 सखि जीवउ 'भादाजी' रउ नद, 'कीरतवर्द्धन' इम कहइ ||५|| 2010_05 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह - ~ ~ - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~~ ~ __ लघु आचार्य शाखा ॥ श्री जिनसागर सूरि गीतम् ॥ श्री संघ करइ अरदास हो ,बेकर जोड़ी आपणै भावसुं हो । पूनजी। पूरे मननी आस हो, एकरसउ वंदावउ आविनइ हो ।। पू० ॥ १।। तई जाण्यउ अथिर संसार हो, संयम मारग 'लघुवय' आदर्यो हो ।पू. आगम नउ भण्डार हो, जाण प्रवीण क्रिया नी खप करइ हो ।पू०।२। तुं साधु शिरोमणि देखिहो, पाट तणइ जोगि 'जिनचंद सूरि' कह्योहो। तई राखी जगभई रेख हो, पाट बइसतां उपसम आदर्यो हो ।पू०॥३॥ ए काल तणउ परभाव हो, गुण करतां पिण अवगुण ऊपजइ हो ।पूछ। दूध भजइ विष भाव हो, विषधर मुख खिण मांहि जातां समोहो ।पू०४ नगर 'अहमदाबाद' हो, दोषी माणस दोष दिखाडियो हो । पू० । धरम तणइ परसाद हो, निकलङ्क कनक तणी परि तूं थयो हो ।पू०५। थारउ सबलो जस सोभाग हो, चिहुँ खंड कीरति पसरी चौगुणी हो। तुम्ह उपरि अधिको राग हो, चतुर विचक्षण धरमी माणसां हो ।पू०६॥ जे बेचइ मणिका काच हो, ते सी कीमत जाणे पाचिनी हो । पू। कदाग्रही मिथ्या वाच हो, कुगुरु न छंडइ सुगुरु न आदरइ हो ।पू०१७) तूं शीलवन्त निर्लोभ हो, श्री 'जिनसागर सूरि' सुगुरु तणी हो ।पू० "जयकोरति' करइ सुशोभ हो, अविचल मेरुतणी परिप्रतपज्यो हो ।८। 2010_05 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिन सागर सूरि गीतम् ॥श्री जिनधर्म सूरि गीतम् ॥ १ ढाल :-सोहिलानी आया श्री गुरु राय, श्री खरतर गच्छ राजिया । श्री 'जिन धर्म सुरिन्द', मङ्गल वाजा बाजिया ॥१॥ पेसारे मंडाण, 'गिरधर' शाह उच्छव करइ । ____ 'बीकानेर' मझार, इण विध पूज जी पग धरइ ।।२।। श्री 'संघ' साम्हो जाइ, आणी मन उल्लट घणे। लुलि लुलि वांदइ पाय, सो दिन ते लेखै गिणे ।।३।। सिर धर पूरण कुंभ, सूहव आवै मलपती। भर भर मोती थाल, बधावे गुरु गच्छपती ॥४॥ पग पग हुवे गहगाट, घर घर रंग बधामणा । झालर रा झणकार, संख शब्द सोहामणा ॥ ५॥ कीधी प्रोल उत्तङ्ग, नर नारी मन मोहनी । नाना विघि नाग, तिण कर दोसइ सोहती ॥६॥ सिणगार्या सब हाट ऊंची गुडी फरहरइ। _दूधे बूढा मेह, याचक जण यश उच्चरइ ॥७॥ प्रथम जिणेसर भेटि, आया पूज उपासरे। . सांभलि गुरु उपदेश, सहुको पहुंता निज घरे ।।८।। सोहलानी ए ढाल, मिल मिल गावे गोरड़ी। 'ज्ञान हर्ष' कहै एम०, सफल फलो आश मोरड़ी ॥६॥ 2010_05 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह २ ढाल : - बिछुआनो महिर करो मुझ ऊपरै, गुरुआ श्री गणधार रे लाल । 'भणशाली' कुल सेहरो, मात 'मिरगा' सुखकार रे लाल || १||म०॥ सुन्दर सूरति ताहरी, दीठां आवै दाय रे लाल । मधुकर मोह्यो मालती, अवरन को सुहाय रे लाल || २ || म० ॥ सूर गुणे करि सोहता, षट् जीव ना प्रतिपाल रे लाल । रूपे वयर तणी परे, कलि गौतम अवतार रे लाल || ३ || म० ॥ साधु संघाते परिवर्या, जिहां विचरै श्री गुरू राय रे लाल । सुख सम्पति आणन्द हवइ, वरते जय जय कार रे लाल ||४||म० || श्री ' जिनसागर सूरि' जी, सई हथ थाप्या पाट रे लाल । श्री 'जिन धर्म सूरीश्वरु', दिन दिन हवइ गहगाट रे लाल ||५||०|| 'राजनगर' रलियामणो, पद महोछव कीयो सार रे लाल । 'विमला दे' ने 'देवकी', गुण गण मणि आधार रे लाल || ६ || म० ॥ गच्छ चौरासी निरखिया, कुण करें ए गुरु होड रे लाल । 'ज्ञानहर्ष' शिष्य वीनवै, 'माधव' वे कर जोड़ रे लाल || ७ || म० ॥ 2010_05 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनधर्मसूरि पट्टधर जिनचन्द्र सूरि गीतम् ३३७ जिनधर्मसूरि पट्टधर जिनचंद्रसूरि गीतम् । १-देशी दरजणरा गोतरी ॥ सुणि सहियर मुझ बातड़ी, तुझ नै कहुं हित आणी । हे बहिनी । आचारज गच्छ रायनी, सुणिवा जइयइ वाणि । हे बहिनी ॥१॥ सूरतड़ी मन मोही रह्यउ ॥ आंकड़ी ।। सहगुरु बेसी पाटियइ, वाचे सूत्र सिद्धन्त । हे बहिनी । मोहन गारी मुंहपत्ति, सुन्दर मुख सोहन्त । हे बहि नी ॥२॥ गहूंली सद्गुरु आगलै, करियै नवनवी भांति । हे बहिनी। सुगुरु बधावां मोतीये, मन मांहि धरि खांति । हे बहिनी ॥३॥ बैसी मन विहसो करी, सांभलां सरस बखाण । हे बहिनी । __ भाव भेद सूधा कहै, पण्डित चतुर सुजाण । हे बहिनी ॥४॥ साधु तणी रहणो रहइ, पालै शुद्ध आचार । हे बहिनी । सूरि गुणे करि शोभतो, श्री खरतर गणधार । हे बहिनी ॥ ५ ॥ 'बुहरा' वंश विराजतो, 'सांवल' शाह सुविख्यात । हे बहिनी । रतन अलिक उर धर्यो, 'साहिबदे' जसु माता । हे बहिनी ।। ६॥ श्री जिनधर्मसूरि' पाटवी, श्री 'जिनचन्द्रसूरीश' । हे बहिनी। अविचल राज पालो सदा, पभणै 'पुण्य' आशीस । हे बहिनी ॥ ७॥ लिखितं सम्बत् १७७६ वर्ष वैसाख सुदी १२ भौमे । जिन युक्ति सूरि पट्टधर जिनचंद्र सूरि गीतम् । पूजजी पधार्या मारू देशमें, दूधांबूठाजी मेह । गुणवन्ता हो गच्छपति। श्रोसंघ वांदे हो अधिक उच्छाह सुं, मन धरि धर्म सनेह ॥१॥ २२ 2010_05 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह गुणवन्ता हो गच्छपति, श्रीजिनचन्द्र सूरी सुखकरू ।। आंकडो ॥ मिलि मिली आवो हे सखर सहेलियां, भरि मोतियड़े थाल ।गु०॥ वांदण जास्यां हे खरतर गच्छ धणी, जीव दया प्रतिपाल ॥२॥गु०॥ संघ साम्हेले हो साम्हा संचरै, मन धरि अधिक आणन्द ।गु०। बाजा बाजै हो गाजै अम्बरै, गच्छपति ना गुण वृन्द ॥३।।गु०॥ गुणियण गावे हो गुण पूजजो तणा, बोले मुख जै जै बोल ।गु०॥ कीरति थांरी हो गंगाजल जिसी, दस दिशि करै कल्लोल ॥४॥गु०॥ पग पग कीजे हो हरखं गूंहली, दीजै वंछित दान ।गु०। सूहव गावै हो मङ्गल सोहला, ग्डि. धूं धूं घुरे निसाण ॥५॥ गु०॥ नर नारी ना हो परिकर बहु मिलै, वंदण भणी विशेष ।गु०॥ आय विराज्या हो पूजजी पाटिये, ये धर्मरा उपदेश ॥६॥गुणा नवरस सरस सुधारस वरसती, गरजती जलद समान |गु० सुणतां लागै हो श्रवण सुहामणो, इसी म्हारै पूजजीरी वाण ॥७॥गु०॥ नित नित नवला हो हरख बधामणा, पूरव पुण्य प्रमाण ।गु०॥ जिण दिशि देशे हो पूज्य समोसरे, तिण दिश नवे निघान ॥८॥गु०॥ पंचाचार हो पूज्य सदा धरै, पूज्य सुमति गुपति सोहन्त ।गु०॥ गुण छत्तीसे हो अंग विराजता, पूज भविजन मन मोहन्त ॥६॥गु०॥ चद ज्युं दीसे हो नित चढती कला, 'जिन युक्ति सूमि' जी रे पाट |गु०॥ श्री गौयम जिम बहु लब्धे भर्या, सोहे मुनिवर थाट ॥१०॥गु०॥ धन 'बीलाड़ा' हो संघ सराहिये, पूज रह्या चोमास ।गु०॥ जिन शासन नी हो थई प्रभावना, सफल फली सहु आश ॥११॥॥ मात “जसोदा" हो नन्दन जाणिये, 'भागचन्द' सुत सुविचार (गु०। युगप्रधान हो जगमें अवतर्या, गोत्र ‘रीहड़' सिणगार ।गु० पूज प्रतपो हो जा रवि चन्द्रमा, हो पूज जोवो कोड़ बरीस गु०। इम निज मनमें हो हरख धरी घणो, 'आलम' चे असीस ॥१३॥गु०॥ ॥ इति श्री पूज्यजी गीतम् ॥ 2010_05 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शित्रचूला गणिनी विज्ञप्ति ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तृतीय विभाग ( तपागच्छीय ऐतिहासिक काव्य संचय ) || शिवचला गणिनी विज्ञप्ति ॥ TAR ३३६ शासनदेव ते मन धरिए, चउवीस जिन पय अणुसरीए । गोयमस्वामि पसायलुए, अमें गा (इसि श्री गुरुणी विवाहलुए ॥ १ ॥ 'प्रागह' वंश सिंगारुए, 'गेहा' गण गुणह भंडारुए । दानिहिं मानिहिं उदारुए, जसु जंपय जय जयकारुए || २ || तसु घरणी 'विल्हण दे' मति ए, सदाचार संपन्न शीयलवती ए । जिणहि जाया वयरागरु ए, स्त्री रयणहिं गुण मणि आगरूए ॥३॥ कुंअर गुणह भंडारुए, 'जिनकीरति सूरि' सा वीरुए । 'राजलच्छि ' बहन तसु नामुए, लोह पवतणि करु पणामुए ||४|| 'सिवचूला' सति सिंगारुए, जसु विस्वर जगि उदारुए । रुप लावण्य मनोहरुए, तप तेजिहिं पाव तिमिर हरुए ||५॥ चारित्र पात्र गुरु जाणिए, श्री गच्छह भार धुरि आणीए । तिणे अवसर श्री संघ मन रुलीए, विचार जोई ते मनि रुलीए || ६ || 'महत्तर' पद उच्छा हुए, तवखिण पतउ 'महादे' साहूए । विनव्या श्री गुरुराउए, मउ मनि घणउ उमाहूए ॥७॥ किड पसायो श्री संघ मिलीए, आनंदिउ नाचइ वली वलीए । लिलुग्र न 'वैशाखुए ' ' चउद त्र्याणुइ' ति पहिले पाखीए ||८|| 'मेदपाट' महोत्सव करोए, 'देउलपुरी' जंग सुवि (चि?) विस्तरुए । आवइ श्रीसंघ दह दिशि तणाए, आवरा जइ साहमा अति घणाए ॥ ६ ॥ 2010_05 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मंडप मोटा मंडाणाए, तिहां बइसइ चतुर सुजाणुए। नाचइए निरुपम पात्रुए, जसु जोतां गहगहइ गात्रुए ॥१०॥ चउरी चउहि पखि चमर ढलइए, पोसालइना दिशि विस्तरइए। मंगल धवल महलावइए, श्री शवचूला' महत्तर गायसिंए ॥११।। च्यारइ भगवन् आणंदपूरे, तेहवे वास खिवइ 'सोमसुन्दरसूरे'। महत्तर उवज्झाय पदवीए, वित विचय 'महा दे' संघवीए ॥१२॥ सुभासु लकुटा र(रा?)सुए, गुण गाइए 'शवचूला' महत्तरीए । 'रत्नशेखर' वाचक वरुए, पन्यास गणीश अति विस्तरुए ॥१३॥ दीक्षा महोत्सव अपारुए, तिहिं वरतइ जयजयकारुए। पंचशब्द तिहां बाजइए, तिणे नादें अम्बर गाजइए ॥१४॥ बन्दिय जन जय उच्चरइए, तिहिं मांगतजन दालिद्द हरुए। तलीया तोरण उच्छलइए, तिहां घरघर गुडि विस्तरइए ॥१५॥ श्रीसंघ मन पुगि रुलीए, गुणगाइ गोरडी सवि मिलिए। दक्षीण देव सिरि महलावइए, साह सुपत्र खेत्रे धन वावरइए ॥१६॥ देवहिं गुरुभक्ति युणीए, खेत्र 'शाहपुर' आपणीए । दरसणस्युं गुणधारुए, वस्तु पहिरावइ अतिहिं अपारुए ॥१७॥ श्रीसंघ पंचंगि मडदीए, साह 'महादे' इणिपरे जस लीए । रंजिय सयल सभा जणुए, संतोषिय साहमि भगत जनुए ॥१८॥ करणी अनुपम ते करइए, तस किरति दह दिसि विस्तरीए। महत्तर नाम विशालुए, तस उपमा चन्दनबालए ।।१९।। द्र पदि तारा मृगावतीए, सीता य मन्दोदरी सरसतीए । _सोल सती सानिध करइए, भणयवाघ (भणवार्थी') श्रीसंघ दुरिया हरइए ॥२०॥ [इति श्री जिनकोर्ति सूरि महत्तरा श्रोशवचूला गणि प्रवर्तिनो राजलच्छी गणिविज्ञप्तिकाः, श्राविका हीरादे योग्यं] (खरतर गच्छीय प्रवर्तक मुनिवर्य सुखसागरजोसे प्राप्त ) New2bM 2010_05 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास ३४१ कवि गुणविजय कृत विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास प्रथमनाथ पृथ्वी नगो, प्रणमुं प्रथम जिणंद । माता 'मरु देवो' तणो, नन्दन नयणानन्द ॥१॥ “सीरोही' मुख मण्डणो, दुख नो खण्डणहार । 'ऋषभदेव' साहिब सबल, वांछित फल दातार ॥२॥ गजगति जिनपति जे धरइ, गज लांछन निसदीस । 'हीर विजयसूरि' हाथस्युं, वे थाण्यो जगदीस ॥३॥ 'अजितनाथ जग जीपतो, दोलतीकर दोदार । 'ओसवंश' नइ देहरइ, जपतां जय जयकार ॥४॥ 'शांति' शांतिकर सोलमो, परम पुण्य अंकूर । नगर शिरोमणि 'शिवपुरी', सूहवि शिर सिन्दूर ॥५॥ 'कमठ' काठ थी काढ़िओ, जिणि अलतो भुजङ्गिद । लाख च्युआलीस घर धणी, ते कीधो 'धरणींद ॥६।। ते दुख चिन्ता चूरणो, पूरण पूरइ आस । प्रहउठि प्रभु प्रणमिइ, श्री'जीराउलि' पास ॥७॥ शासन साहिब सेवीयइ, समरथ साहस धीर । 'बंभणवाडि' मंडणो, वीर वाड महावीर ॥८॥ वचन सुधारस वरसती, सरसति दिउ मति माय । 'कमल विजय' गुरु पद कमल, प्रणमुं परम पसाय ॥६॥ 2010_05 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ३४२ 'होर' पाटि 'जेसिंगजी', पाटि प्रगट जगीस । श्री ' विजयदेव' सूरिसरु, जीवो कोडि वरीस ||१०|| तिणि निज पाटि थापीओ, कुमति मतंगगज सीह । 'विजयसिंह सूरीसरु', सकल सूरि सिर लीह ॥ ११ ॥ रास रचुं रलीयामणो, मनि आणी उल्लास । 'विजयसिंह सूरि' तणो, सुणयो 'विजय प्रकाश' ॥१२॥ सावधान सज्जन सुणो, पहिला दिउ दुइ कान | खंडानी पृथ्वी कही, विद्यानां छइ दांन ॥ १३॥ ढाल :- राग देशाख । अढ़ार कोडा कोडि सागर जेह,, युगला धरम निवारक जेह । 'ऋषभदेव' हुआ गुण गेह, धनुष पंचसइ सोवन देह ॥ १४ ' आदीश्वर' निं सुत शत एक, 'भरतादिक' नामिं सुविवेक । आप पाट 'भरतेसर' आप्यो, 'बहली देश' 'बाहूबलि' थाप्यो ॥ १५ ॥ 'मरत' तणा अठाणुं भाइ, तेमां एक 'मरुदेव' सवाई | तिणि निज नामि वसाव्यो देश, तेह भणी भणियइ 'मरु देश' ||१६|| ईति अनीति नहीं लवलेश, धर्म तणो ते कहिइ देस । चोर चरड नी न पडइ धाडि, बड़ा बड़ा जिहां छइ व्यवहारी, सत्रुकार करइ अनिवारी । मोटा तीरथ नी जिहां सेवा, मोतीचूर मिठाइ मेवा || १८ || राजा पिण जिहां धरम करावइ, परमेसर नी पूजा मंडावइ । सहजिं जीव अमारि पलावइ, आहेडा उपरि नवि आवइ ||१६|| सूर सुभट मांटी मुंछाला, करि झलकइ करवाल कराला । व्यापारी दीसइ दुदाला, घरि घरि सुभित्र सुगाला ||२०|| 2010_05 **।।१७ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास ३४३ देस मोटो तिम मोटा कोस, भोला लोक नहीं मनि रोस । बोलइ भाषा प्राहिं अटारी, कडि बांधइ बहु लोक कटारी ॥२१॥ लोक धरइ हाथि हथिआर, वाणिग पणि झूठा झूझार। रणं विढतां पणि पाछा पग नापइ, साहमो साहमणिं नइ थिर थाप।।२२ कपट विहूणी बोलइ गाढिइं, गरढो पणि जिहां धुंघट काढइ । विधवा पणि पहरइ करि चूडि, राव रसोइ राधई रूड़ी ॥२३॥ प्रहो पाहुणई सबल सजाइ, राय राणा नी परि भुंजाइ । पाटभक्त मनमां नहीं द्रोह, स्वामिभक्त स्यु अधिको मोह ॥२४॥ पुण्यवन्त प्राहिं नहि खुंट, वाहण साहण चढ़वा ऊंट । जिहां थाकइ तिहां लिइ विश्राम, चोर चखार तणुं नहीं नाम ॥२५।। लोक लाख लोलाई चालइ, सोना रूपी (या) हाथि उछालइ । दुस्मन नइ सिर देवा दोट, मोटा 'मारूआडि' नवकोटा॥२६॥ प्रथम कोट 'मंडोवर' ए ठाम, हव (गां) 'जोधनयर' अभिराम । बोजो 'अबुद' गढ़ ते जाण्यो, त्रीजो गढ़ 'जालोर' वखाण्यो ॥२७॥ चोथो गढ ते 'बाहडमेर', पांचमो 'पारकरो' नहीं फेर। 'जेसलिमेरि' छठो कोट, जिणि लागइ नहिं बहरी चोट ॥२८॥ 'कोटडई' सातमो कोट वडेरो, आठमो कोट कह्यो 'अजमेरो'। कोइ 'पुष्कर' कोइ कहइ ‘फलबद्धी, नवकोटी 'मारू आडि' प्रसिद्धी ॥२६ दोहा धन 'मंडोवर' मरुधरा, जिहां 'मंडोवर' 'पास' । 'गुणविजई' कहइ प्रभु पूजतां, पूरइ मननी आस ॥३०॥ आज सफल दिन मुझ हु(योउ, अबहुं हु(य)उ सनाथ । "गुणविजय' कहइ जब मुझ मल्यो, 'फलवधि' 'पारसनाथ ॥३१॥ 2010_05 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ढाल :-चौपाइ। 'मरू' मण्डल मांहि 'मेडतु', दालिद्र दुख दूरि फेडतउ । तेहनी कीरति जग मां घगी, एहवी लोक बात मई सुणी ॥३२॥ जिन शासन मांहि बोल्या बार, चक्रवर्ती 'भरतादिक उदार । तिम शिव सासनि चक्रो होइ, च्यार उपरि अधिका वलिदोइ ।।३३।। तेमा धुरि 'मांनधाता' भण्यो, चक्रवर्ती ते मूलिं जण्यो। तव माता पहुती परलोक, राजलोक सघलइ तव शोक ॥३४॥ किम ए बाल वृद्धि पावस्यइ, इंद्र कहइ मुझ निधा(श्रा?) वसइ । __ तिण कारणि 'मांनधाता' कघउ, चक्रवर्ती पहलिउ गहगह्यो ।।३५।। दान देवा घरि साम्हो जाय, ते मोटो हुउ महाराय । कोडा कोडि बरस तसु आय, प्रजा त{ पीहर कहवाय ॥३६|| कृत युग मां ते (हुयउ) प्रसिद्ध, इन्द्रइ राज्य थापना किद्ध । तिणिं नगर वास्युं 'मेडतुं', लीलाई लखमी तेडतुं ॥३७॥ 'मेडतुं'ते 'मानधाता पुरी', जेहथी लाजी 'अलकापुरि'। जे मांटइ तिहां धनपति एक, इणि नगरि धनवन्त अनेक ॥३८॥ लोक वात एहवो सांभलि, साच्यु ते जाणइ केवली। 'मेडता' नी महिमा अति घणी, तिग वेला 'मेडतोंआ' घणी ॥३हीं। चउपट चहुटां केरि ओली, गढ़ मढ़ मन्दिर मोटी प्रोलि। घरि घरि उछरंग कल्लोल, बाजइ मादल भुगल ढोल ॥४०॥ चिहु दिसि सजल सरोवर घणां, देराणी जेठाणी तणां । कुंडल सरवर सोहामj, जाणे कुण्डल धरणी तपे ॥४॥ 2010_05 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास गाजइ गयवर हय (व)र घट्ट, व्यवहारी नणा गज घट्ट । ___ वनवाडी ओपइ आराम, पासइ 'फलवधि' तीरथ ठाम ॥४२।। देश देश ना आवइ लोक, दादइ दीठइ नासइ सोक । परता पूरइ ‘पास कुमार', राति दिवस उघाडा बार ॥४३।। इस्युं तीरथ नहीं भूमोतलई, माणस लाख एक जिहां मिलइ । पोस दसमी जिन जन्म कल्याण, 'मेडता' पासि इस्युं अहिनाण ॥४४॥ 'मेडतुं' दीठइ मन उलसइ, देवलोक ते दूरि वसइ । 'मेडतुं' देखी लंका खिसी, पाणी आणइ 'वाणारसी' ॥४५।। शिखर बद्ध ऊंचा प्रासाद, नन्दीश्वर स्युं मांडइ वाद । सतरभेद पूजा मंडाण, रसिया श्रावक सुणइ बखाण ।।४।। महाजन नि मनि मोटी दया, रांक ढोक उपरि बहु मया । ठामि २ तिहां सत्रुकार, तिणि नगरी नित दय दयकार ॥४१॥ तेणिं नगरि महाजन मां बडो, 'चोरवेडिया' कुल नु दीवडो। 'ओसवाल' अति अरडकमल्ल, साह 'मांडण' नन्दन 'नथमल्ल' ॥४८॥ तस घरि लक्ष्मी वासो वसइ, रूपि रति पति नइ ते हसइ । नाथू नइ घर गज गामिणी, 'नायक दे' नामि कामिनी ।।४।। मणि माणक मोटा मालिआ, सोना रूपां नी थालियां। सालि दालि सखरां सालणां, उपरि घल घल घी अति घणां ॥५०॥ "फुलां' दादी दिइ बहु दान, साहमी साहमणि नई सन्मान । ____ साधु साधवी घरि आवंती, पाणी नो परि घी विहति ॥५१॥ मीठाई मेवा भरपूर, चोआ चंदन अगर कपूर । 'नायक दे' नवयौवन नारिं, 'नाथू' सुख विलसइ संसारि ॥५२।। 2010_05 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पुण्यइ पामों ऋद्धि अपार, जग जण जंपइ जै जैकार। - 'सालिभद्र' सम सुख भोगवइ, सुखि समाधि दिन जोगवइ ।।५३ 'नायक दे' नंदन दुइ जण्या, सकल कला गुण सहजि भण्या। 'जेसौ' नइ 'केसौ' तिस नाम, 'दशरथ घरि जिम 'लखमण' 'राम'५४। त्रीजो सुत जायौ तिण वलि, मात तात पुहती मनरलो। - 'मेडता' मांहि हुआ आणंद, 'कर्मचंद' नामइ कुल चंद ।। ५५ ॥ 'कपूरचंद' चोथा नुं नाम, 'पंचायण' ते पंचम ठाम । 'नाथू ना नंदण गुण भर्या, जाणिकि पांच पांडव अवता ।।५६।। दोहापांडव पांचई मांहि जिम, विचलो सुत सिरदार । तिम 'नाथू' नंदन विचिं, 'कर्मचंद' सुविचार ||५|| विक्रम संवत सोलसई' उपरि 'च्यु आलीस'। शाके 'पनर नवोत्तरई' पूरइ सजन जगीस ॥ ५८ ।। उजल पखि फागुण तणइ, बोज दिवसि रविवार । . उत्तर भद्र पदा तणइ, चोथा चरण मझार ।। ५६ ।। राजयोग रलीयामणइ, फाग रमइ नर नारि । 'कर्मचंद' कुंवर जण्यो, जगि हुआ जय जयकार ।।६०|| कर्क लगन मूरति भवनि, तिहां गुरु उंचइ ठामि । . बइठो तिणि तूठो दिई, गुरु पदवी अभिराम !!६१।। त्रीजइ राहु सु खेत्रीउ, कन्या राशि निवास । भाई भुज बलि दीपतौ, दुसमन थाइ दास ॥६२।। रवि कवि बुध ए आठमइ, कुंभि लगन बईट्ठ।। नवमई भवनिं केतु कुज, पूरण चंद्र पइट्ट ॥६३।। 2010_05 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास ३४७ मेखिं शनि नीचउ काउ, दशमइ भवनि उदार । पणि फल उचान दिई, केंद्र ठामि सुखकार ॥६४।। ए शुभ वेला अवतर्यो, 'कर्मचंद' सुखकंद। सुखि समाधि वाधतुं, बीज थकी जिम चंद ।।६।। ढाल :-राग गौडो । इक दिन इम चिंतइ, नायक दे भरतार, ___ सुख सेजिं सूतो, जाग्यो रयणि मझार । मई पूर्व भव काइ, कीधां पुण्य अपार, तेणिं सही पाम्यां, सुख सघला संसार ।। ६६ ।। मुझ मंदिर मइडी, मणि माणक ना हार, नित नवां पहरवा, नित नवला आहार । नितु २ घर आवइ, अरथ गरथ भंडार, वलि पाम्या परिघल, पुत्र कलत्र परिवार ॥ ६७ ॥ इणि भविनवि कोधउ, सूधो श्री जिन धर्म, विष (य) रसि हुंसी, कीधा कोड कुकर्म । 'धन्नो' 'कयवन्नो', 'सालिभद्र' सुकमाल, ___ जोउ धर्मिइ तरिया, वलि 'अवंति सुकमाल' ।। ६८ ।। ए विषय तणि रसि, प्राणी नई बहु रंग, जिम नयण तणइ रसि, दीवइ पडइ पतंग । रागि करि वेध्यो, बींध्यो वाण कुरंग, अम्बाडी पाडइ, करिणी मद मातंग ॥ ६६ ॥ 2010_05 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह nmomrani खारा नइ खोटा, मीठां मधुरा भक्ष, काचा नइ कोरां, कंदा मूल अभक्ष । रयणि भोयण घण, परदारा गम(न) किद्ध, तोहि तृपति नहीं मुझ, जिम खारइ जलि पिद्ध ॥७०॥ ए जरा धूतारी, धोइ देस विदेस, विण साबू पाणी, उज्जल करस्यइ केस । तिणि विण आव्यइ जे, मई कीधा बहु पाप । ते मुझ मनि जाणइ, जिम मा जागइ बाप ॥ ७१ ॥ कोइ सुगुरु मिलइ सुं, निज पातिक आलोउं, गुरु वाणी गंगा, पाप तणां मल धोऊ। एहवई 'मेडता' मां, आव्या बड अणगार । श्री 'कमल विजय' गुरु, सकल शास्त्र भंडार ।। ७२ ।। साह 'नाथू' हरख्या, निरखी तस दोदार, धन २ ए मुनिवर तपा गछ शृङ्गार । जाव जीव एहनि द्रव्य सात आहार । मीठाइ मेवा, विगइ पंच परिहार ॥ ७३ ॥ ए गुरु संवेगी, वैरागी धन धन्न । ए मोटो पंडित, ठाणे पंचावन्न । आवी वंदी नइ, कही 'नायक दे' कंत । गुरुजी आलोयण आपो, मुझ एकंत ।। ७४ ॥ चलता पंडित कहइ सुणिं तु 'नाथूमाह', _ आलोयण लेयो, जब वंदउ गछनाह । 2010_05 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसंहसूरि विजयप्रकाश रास आलोयण नी विधि, गीतारथ समझाइ | आलोयण काजि, वीस वरस पडखीजइ, तिम जोअण सातसइ, गीतारथ शोधीजइ । तिणि कारणि तप गछ नायक गुरु निं पासि । दिई अगीतार्थ तु, साम्हो पाप भराइ || ७५ ॥ वलतु तव बोलइ, 'नायकदे' नु नाथ | ते दूर देशान्तरि, छइ तपगछ ना नाथ ॥ तुम्हें पणि गछ मांहि, मोटा पण्डित राय । यो आलोयण, अवसरि मनि उल्लास ||७६|| 'नायक दे' नायक, तब 'कमल विजय' गुरु, शास्त्र शाखि सब जाणी । C देस्यो आलोयण, तर छोडुं तुम्ह पाय ॥७७॥ आलोयण दीधी, ( मनधरी) बहु जगीस | ३४६ 'नाथ' मति दीठी, धर्म राग रंगाणी || उपवास छट्ट बहु, अट्ठम तिम एकवीस ॥७८॥ जोडी दुइ निज पाणी । तब बोलइ करस्युं, ए प्रमाण तुम्ह वाणी || वलि तुम्ह पसायई, हु ( 4 ) उ निर्मल प्राणी | आज थकी अभिग्रह, ठामि भात नइ पाणी ॥ ७६ ॥ आलोयण करतां चेत्यो, चतुर सुजाण । पूछइ निज नारी, तिम भाइ 'सुरताण' || मुझ का करी नइ, लीजइ संजम जोग । जेहथी पामीजइ, अजरामर सुर भोग ||८०| 2010_05 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह दोहा । 'साह 'मांडण' कुल जलधि नुं, हस्तिमल 'नथमल्ल' | विषम विषय रसि नवि छल्यो, चोखइ चित्त छयल ||८१|| निज कुटम्ब तेडी करी, 'नाथू' कहइ निरधार । तुम्हे सहु (हुव) उ इकमना, लेस्युं संयम भार ॥ ८२॥ "कर्मचन्द' कुअर प्रमुख, सहु कहइ ए बात । अम्ह प्रमाण छइ तातजी, न करू धर्म विघात || ८३ || जिम आलोयण अवशरि, मिल्या सुगुरु निकलङ्क | तिम हवि गछ नायक मिलइ, तो व्रत ल्युं निशङ्क || ८४|| ढाल राग तोडी: ३५० इसा अवसर 'लाहुर' सहरि करि दुइ वउमासि । 'विजयसेन सूरि' 'मेडतइ', आव्या जित कासी ॥ " नाथू' पांचइ पुत्र लेइ, गुरु नइ बढ़ावइ । 'कर्मचन्द' मुख चन्द, देखि गुरुजी बोलावइ || ८५ || गछपति जंपति ए उदार, बालक शुभ लक्षण । जे चारित्र लेस्यइ सही, तो थास्यइ विचक्षण ॥ 'नाथू' शाह चो भात्र, संभलि मुनि नाथ । हरख्या चित मांहि ज्यं, चढइ चिंतामणि हाथ ||८६|| गुरु कहइ 'नाथ' साह ! सुणो, चौमासा मांहि । 'हीरजी' दर्शन तइ हेतु, पहुंचं उद्याहिं ॥ 'कर्मचन्द्र' कुंअर कुटम्त्र सहु, साथ समेला । 'समय लेइ तु आवयो, थायो अह भेला ॥८७॥ 2010_05 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास सीख देइ 'मेडता' थकी, 'सादडी' पधारइ | पर्व पण पारण, 'राणपुर' जोहारइ || जंगम थावर तीर्थ दोइ, मिलिआ 'वरकांणइ' । 'जालोरउ' संघ वंदवा, आव्यो जग जाणइ ||८८|| 'कमल विजय' गुरु तिहां चउमासि, पूज्यना पग वंदइ । 'बीझो' वानु संघ रंगि, नाचइ नव छंद ॥ 'तिहां थी गुरु 'जेसंघजी', 'सीरोही' आवइ । अनुक्रम साम्हो संघ आवि, 'पाटण' पधरावइ ॥८६॥ पुण्यवन्त 'पाटण' प्रसिद्ध, नगरी सिरताज । तिहां 'हीरजी' निर्वाण जाणी, रहइ 'तप' गछ राज || हवइ सुणउ जे 'मेडतइ', हुआ मंडाण । चारित्र लेतां 'कर्मचन्द्र', उदयउ जग भांग ||६|| जीमणवार जलेबीई, बहु गाम जीमाडइ । 'नायक दे' पति पांति खंति, करि मोटी मांडइ ॥ सोना रूपा ना कचोल, थाली सुविशाली । सालि डालि शुचि सालणां, घल घल घी नाली ॥ ६१ ॥ दही करम्बड घोल झोल, उपरि तम्बोल । नागरवेलि सोपारी पारी, यलि कुंकुम रोल ॥ चन्दन केसर छांटणा, माणस लख मिलीया । ३५१ वागा लाल गुलाल जाणि, केसूडा फलिआ ||२|| मिल्या महाजन मांडवइ, वइठा बहु टोला | चालीसां दिवसां लगइ लीधा बन्नउला ॥ 2010_05 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ऐतिहासिक जेन काव्य संग्रह देव तणो धन भक्ति युक्ति, गुरु गुरुणो तेड्या । साहमी साहमिणी संविभाग, करि पातक फेड्या ॥६॥ सणगार्या सब हाट पाट, चहुटा चउरासी । ___ रूडो गूडी बहुत तेज, नेजा उल्लासी ॥ 'मेडतीआ' म हरांण तेणि, दीधा नीसाण । वाजइ मङ्गल तूर पूर, पडइ कुमती प्राण ॥१४॥ धवल गीत गाई अपार, गोरो गुण उ(ओ?)री। 'कर्मचन्द्र' मुखचन्द्र देखि, नाचंति चकोरी ।। भड (१) भोजिग बहु भट्ट नट्ट, बोलइ बिरुदाली। ____ लंख मंख खेलन्ति खग्र, कर देता ताली ॥६५॥ 'कर्मचन्द' कुंअर उदार, शृङ्गार करावइ । तिम बिहु बांधव मात तात, 'सुरताण' सुहावइ ।। माथइ मउड विसाल भाल, कुण्डल दुइ दोपइ । हियडइ मोती तण (उ) हार, गंगाजल जीपइ ॥६६|| बाजू बंधन बहरखा, कर कंकण जडोआ। दीख्या लेवा काज सज, सिंधुर शिरि चढ़िआ । बोलइ इम गुण लोक थोक, परदेसी पाथू । . छत्रीसे वरसे छयदा, धन २ ए नाथू ।।६।। धन २ कुअर 'कर्मचन्द', धन २ ए भाइ । धन २ शाह 'सुरताण' धन, 'नायक' दे माइ ।। भुगल भेरि नफेरी नाद, बाजइ सरणाइ । एक भणइ ए 'वस्तुपाल', ए भोज' सवाइ ॥१८॥ 2010_05 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास ३५३ थानकि २ थाकणे, दीजइ जे मागइ । पंच वर्ण दयां भरी, वलि चालइ आगइ । कपड कीधा कोट चोट, दमामे दीधी । 'ओसवाल' भूआल धन, इम कीरति कीधी ॥१६॥ याचक नई धन कन कनक दान, देइ दालिद खंडइ । इम आडम्बर परिवर्या, आव्या वन खंडइ । त्रिण प्रदक्षिण समोसरण, विधिस्युं गुरु वंदद। 'कर्मचंद' सकटुंब लेइ, चारित्र आणंदइ ॥१०॥ दोहा:'कर्मचंद' रवि ऊगतइ, तप गण गयण उद्योत। दुरित तिमिर दूरि किआ, तिम कुमती खद्योत ॥१॥ 'मांडण' कुल मंडण करइ, 'मरुमंडलि' उलास । __ संवत 'सोलइ बावनइ, बीज' दिवसि 'माह' मास ॥ २॥ 'जेसौ' थिर थापी घरे, तिम पंचायण' पुत्र । छती ऋद्धि छांडी लिउँ, छइ (६) माणसे चारित्र ॥३॥ ढाल राग धन्याश्री:तिहां थी ते मुनि चालइ, विषय कषाय नइ पालइ । आव्या गूजर देस, पाटणि कीद्ध प्रवेस ।।४। 'विजयसेन' सूरिराय, प्रणमि पातक जाय । ते छइ नई(६) दीधी दिक्षा, ग्रहणा सेवना शिक्षा ।।५।। 'नेमिविजय' 'नाथू' जाण, 'सूरविजय' 'सुरतांण' । _ 'कर्मचन्द' मुनि नाम, 'कनकविजय' गुणधाम ।। ६ ।। 2010_05 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'केसा' मुनि तणुं नाम, 'कीर्त्ति विजय' अभिराम । 'कपूर चन्द' ते लहि (य) इ, 'कुंअरविजय' मुनि कहि (य) इ ||७|| सघला मां सिरदार, 'कनक विजय' अणगार । ए मोटउ महाभाग, श्रीआचारज लाग ॥ ८ ॥ पोतानु' पटधारी, 'विजयदेव' गणधारी | तेहनइ ते शिष्य दीनो, जडिउ कनक नगीनो ॥ ६ ॥ 'कनक विजय' मुनि चेलो, कल्पलता तणु वेलो 'विजयदेवसूरि' पासि, सगला शास्त्र अभ्यासि ॥ १० ॥ | गुरु नुं पास न मुकइ, विनय बड़ा नो न चूकइ । नाममाला नइ व्याकरण, कीधा कंठ आभरण ।। ११ ।। जोतिष तर्क विचार, जाणइ अंग इग्यार । 'पण्डित' पदवी विशिष्टा, 'सोल सत्तरि' प्रतिष्ठा ।। १२ ।। 'विसा' 'वदो' वित्त वावइ, 'अम्हदावाद' सोहावइ । खरची अति घणी आथि, 'विजयसेन सूरि' हाथि || १३ || 'जेसिंग' नुं निरवांण, 'खंभाइति' जग भाण । पाटि पटोधर पूरो, 'विजयदेव सूरि' सूरज ॥ १४ ॥ 'जेसिंगजी' पाट दीपइ, तेजि सूरज जीपइ । पूरइ संघ जगीस, 'श्रीविजयदेव सूरीस' ॥ १९ ॥ भलउ भटारक भावइ, 'पाटणि' चउमासु आवइ । सोल तिहुतरा वर्षि', 'लाली' श्राविका हर्षी ॥ १६ ॥ प्रौढ़ प्रतिष्टा ते मंडई, दानि दालिद खंडइ | पोस बहुल छट्ठि सार, नहीं जिहां दोष अढार ||१७|| 2010_05 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास "श्रीविजयदेव' सूरिंदइ, सकल संघजि आणंदइ। _ 'कनकविजय' कविराय, कीधा श्री उवझाय ॥ १८ ॥ इम जे गुरु नि आराधइ, ते सुख संपति साधइ । विजयदेव' गणधार, भूतलि करइ विहार ॥ १९ ॥ साहि 'सलेम' उदार, करवा सुगुरु दीदार। 'मांडवगढ़' गुरु तेड्या, कुमति ना मद फेडया ॥ २० ।। देखी 'तपगछ नाह', खुसी भयो पातिसाह । जगगुरुके पटि पूरे, बड़े 'विजय देव' सूरे ॥ २१ ॥ शाहि 'जहांगीरी थापइ, नाम 'महातपा' आपइ । चंइके गुरु मोटे, तोडि करइ तेहु खोटे ॥ २२ ॥ गुहिरा निसाण गाजइ, पातिशाही बाजा बाजइ। मिलीया 'मालवी' संघ, 'दक्षिणी' श्रावक संघ ॥ २३ ॥ पांभरी दोइ पग लागा, केइ केसरि आदिई वागा। मिसरू मलमल साइ, पगि पटकूल विछाइ ।॥ २४ ॥ वीटी वेढ़ गांठोडा, वलि दोधा घणा घोड़ा। श्रावक श्राविका आवइ, मोती थाले वधावइ ।। २५ ।। लोक लाख गुरु पूजइ, तेहना पातिक धूजई। गुरुजी नइ पटिं दीवउ, 'विजयदेव' चिरंजीवउ ॥ २६ ।। दोहा 'विजय देव' गुरु गाजता, 'गूजर' देशि विहार । अनुक्रमि करता आविया, 'सोरठ' देश मंझार ॥ २७ ॥ 'विमलाचल' तीरथ बडउ, सकल तीर्थ श्रृंगार । जिहां श्री'ऋषभ' समोसर्या, पूर्व नवाणुं वार ॥२८॥ 2010_05 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह - - - .- ~ ~ ~ 'गुण विजय' कहइ श्री सिद्धगिरि', ध्यान धरत गत पाप । ___ बलवन्त बइठो जिहां धणी, 'बाहूबलि' नुं बाप ॥ २६ ।।। जे नर घरि बइठा करइ, श्रीशचुंजय जाप । - 'गुणविजय' कहइ तेहना टलइ, सहस पल्योपम पाप ।। ३० ।। 'गुणविजय' कहइ शेजूंज तणी, आखडी मोटो मर्म । लाख पल्योपम संचिया, टलइ निकाचित कर्म ।। ३१ ।। "गुणविजय' कहइ 'विमलाचलिं', पंचकोड़ि परिवार । चैत्री दिन केवल लाउ, 'पुण्डरीक' गणधार ॥३२॥ 'गुणविजय' कहइ जग मां बडा, 'शत्रुजय' 'गिरिनारि'। इक शिरि 'आदिसर' चव्यङ, इक शिरि 'नेमि' कुमार ।। ३३ ।। ढाल-राग सामेरी 'शत्रुजय' जिनवर वंदइ, गुरुजी निज पाप निकंदई। . . दुइ 'दीव' करी चोमास, पूरी 'सोरठनी' आस ॥ ३४ ॥ 'हीरजी' नी परि पूजाणो, तिहां 'तप गछ' केरो रांणउ । 'गिरनार' देखी(दुःख) मेटइ, राजलि (धि?) राजा जिन भेटइ ॥३५॥ वलि 'नवइ नगरि' गुरु आवइ, सामहिआं संघ करावइ । जामी दुइ सहस वखाणी, इक साम्हेलि खरचाणी ॥ ३६ ।। तिहां थी ववि (चलि?) पूज्य पधारइ, शत्रुजय' देव जुहारइ । __ 'खंभाइति' अति उल्लासि, तिहां थी आव्या चउमासइ ॥ ३७ ।। तिहां त्रिण प्रतिष्ठा सार, रुपइआ चउद हजार । खरच्या 'खंभाइत' मांहि, श्रीसंघ अधिक उछाहिं ॥ ३८ ॥ 2010_05 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास " तिहां थी आग्य उल्लासइ, 'साबली' नगरि 'माह' मासि । 'अजुआली छट्ठि' वखाणी, तीन मास लगइ गुरु मौनी, अमारि पलावइ 'सोनी' । संघ मुख्य 'रतनसी' साह, लीधो लखमी नु लाह ॥ ४० ॥ 'श्री' कनक विजय' उवझाय, वखाण करइ मुनिराय । पालइ निज गुरुनो आण, थास्यइ ते तपगछ भाण ॥ ४१ ॥ गुरुजीह विधानं बइठा, पातक पायालिं पइठा । -छट्ट (अ) ठुम करइ अनेक, उवपवस (उपवास?) घणा सुविवेक ॥। ४२ ॥ afar करी धवल धानि, पूरव दिसि बइसइ ध्यानि । पचखाण जणावा माटिं, आप अक्षर लिखी पाटि || ४३ ॥ श्रावक तिहां अगर कपूर, उगाहइ परिमल पूर । इण परि आचारय मंत्र, आराधइ पूज्य पवित्र ॥ ४४ ॥ वैसाख मास जब आवइ, सुहिणइ सुर वात जणावइ । वाचक निं निजपट आपउ, गछ भार 'कनकजी' नइ थापड || ४५ || ए वाणि सुणी गुरु हरख्या, जिम शीतल जल थी तरस्या । मह (य) लि बहु मंगल कीजइ, गुरु आया 'आखातीजई' ||४६ || आवइ तिहां संघ अपार, अंग पूजा ना अंबार । ३५७ 2010_05 ॥३९॥ दुखं दालिद दूरी गमाया, याचक घर सुभर भराया ||४७॥ 'सावली' नइ 'इडरि' जुइ, प्रासाद प्रतिष्ठा हुई । 'राय' देशि शोभा लोधी, गुरु दोइ चौमासी कीधी ||४८ || हवइ 'राजनगरि' गुरु आवर, चउमासुं संघ करावइ । बीजुं 'बीबीपुर' मांहि, गुरु चतुर चउमासु चाहइ ||४६ || Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'पारणि पुंजाउत ' आवइ, 'सीरोही' सोह चडावइ । अभिनव उदयो 'तेजपाल, प्रागवंश तिलक 'तेजपाल ' ॥५०॥ राय 'अखयराज' बडह बीर, तेहनि घरि जेह वजीर । ते शाह तिहां किणि आवइ, गुरुनि वंदइ मनि भावइ || ५१|| करइ यात्र 'विमल गिरी' केरी, जिणि भाजइ भवनी फेरी । आवइ 'कमीपुर' फेरी, ढमकावर ढोल नफेरी ॥५२॥ ॥ पूज्य जी नइ कहइ परधान, एतलुं दिउँ मुझनिं मान । करि मेल वधारो वानो, गुरुराज कयुं ए मानो ॥५३॥ गुरु कहइ अम्ह मनि नहीं खेस, टालउ तुम्हे सयल किलेस | तिहां लिखित भाषित करि लीधा, साहि सहु को निंदीधा || ५४ ॥ ए लिखित थकी जे चूकइ, तेहनिं जगदीसर मुकइ | मांहो मांहि मेल कराव्यउ, पुण्यइ भंडार भराव्यउ ।। ५५ ।। आचारज 'विजयादि', गुरु जी वांद्या आणंदइ । श्री 'नंदीविजय' उवझाय, जेहनु मोटउ भडवाय ॥ ५६ ॥ ॥ 'धनविजय' 'धर्मविजय' नाम, वाचक दुइ अति अभिराम । इत्यादिक मुनि जग जाण्या, पुर्णि गुरु चरणे आण्या ||५७|| साह कहइ 'सीरोही' पधारउ, बलि वीनति ए अवधारो | 'तेजपाल' सीरोही आवइ, 'श्रीविजय देव' गुण गाव३ ॥ ५८ ॥ दोहा 'राजनगर' थी विचरता करता संघ कल्याण । 'यदेसि गुरु आविया, जिहां राजा 'कल्याण' ॥ ५६ ॥ 'विजयदेव सूरि' वड वखत, वाचक पंच समेलि । 'ईडरगिरि' शिर 'ऋषभ जिन', भेटयइ हुइ रंग रेलि ||६०|| 2010_05 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास ३५६ 'इडरगढ़' मुख मंडणउ, साहिब सुख दातार । ___ 'गुणविजय' कहइ मंगल करउ, 'सुमंगला' भरतार ।।६।। 'रायदेश' रलिआमणउ' 'ईडरगढ़' सिरदार । घरि २ उत्सव अति घणा, फाग रमइ नरनारि ॥१२॥ ढाल-फागनी तपगछको गुरु राजीयो, रमइ पुण्यनुं फाग ललना। परणी समता सुन्दरी, जिनआंणा वर वाग । ललनां पुण्य फाग गुरु जी रमइ ॥६३।। पहिलं पाप पखालवा, नेम तप निर्मल नीर ।ल। चुआं चंदन चित भलु, छांटइ चारित्र चीर लापु०६४॥ परंपरा आगम वडउ, चढवा तुंग तुरंग ल०) ज्ञान ध्यान नेजा घणा, लीला लहरि तरंग ल०६५।। सकल संघ सेना मिली, वाजइ जग जस ढोल ।ल। ___वाचक पंडित उंबरा, सूरा साधु अडोल ल० । पु०६६।। इक दिनि गुरुनि वीनवइ, 'तपागछ' परिवार ल०। एक अम्हारी वीनति, अवधारउ गणधार ल० (पु० । ६७॥ तपगछ मेल तुम्हे करी, कीधु उत्तम काज ।ल। ___ हवइ एक इहां थापीइ, आचारिज युवराज ॥लापु०६८॥ आज अंबा रायण फल्या, आयउ मास वसंत । ___ चंपक केतक मालती, वासंती विकसंत लपु०॥६६॥ तिम अम्ह आशा वेलडी, सफल करउ मुनिराज ।ल। 'कनकविजय' वाचक वरु, करउ पटोधर आज ॥लापु०७०॥ 2010_05 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वलता गछ भूपति भगइ, जोउ महुरत सुद्धि ।ल। आचारय वाचक वलि, वलि जोसी बहु बुद्धि लापु०७१।। मन मान्यु महूरत मल्युं, शकुनादिक नी शाखि लि 'अजुवाली छट्टि' अति भली, वडि मास 'वैशाखि' लापु०७२।। गुरुजी नइ सहु वीनवइ, ए छइ दिवस पवित्र ला सोमवार सुहामणा, रुडु पुष्य नक्षत्र ॥लापु०।०३।। 'ईडर'संघ शिरोमणि, 'सोनपाल' 'सोमचन्द' । __ अधिकारी सा 'सूरजी', सुत 'सार्दूल' अमंद ।। ल० पु०७४।। 'सहसमल' 'सुन्दर' भला, 'सहजू' 'सोमा' जोडि ।ल०। 'धन जी' 'मनजी' 'इंदुजी', 'अमीचंद' नहि खोडि 'लापु०७५|| वासी 'राजनगर' तणा, संघवी 'कमलसीह' । ल । 'पारिख' 'अहमदपुर' तणा, 'वेला' सुत 'चांपसींह' ।ल०।पुण्य०७६। 'पारिख' 'देवजी' 'सूरजी', 'थान सींग' 'रा(य)सींग' । ल०। साह 'भामा' 'तोल्हा' भला, साह 'चतुर्भुज सिंघ' ।ल०।पुण्य०। ७७ । 'जागा' 'जसू 'जेठा' भला, भाई गुरु ना होइ । ल० । _ 'कोठारी' 'मंडण' मुखी, 'बछराज' रहिआ जोइ ।लापुण्य०७८१ 'कर्मसीह' नइ 'धर्मसी', 'तेजपाल' समउ न कोइ । ल०। . 'अखयराज' राचा वरू, मंत्री ‘समरथ' सोइ ।लापुण्य०७४ मंत्रि 'लखू नइ 'भीमजी', 'भामा' 'भोजा' जोइ ।ल०। 'फडिआ' 'मालजी' 'भाणजी', 'लखा' 'चोथिआ' दोइ ।ल०।पुण्य०८० 'गांधी' 'वीरजी' 'मेघजी', तिम वलि 'वोरजी' साह ।ल०। 'देवकरण' 'पारिख' 'जसू', उ करडि उछाह ।ल०,पुण्य०८१॥ 2010_05 | Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास 'भाणजी' शाह 'सूरजी', तिम वली 'तेजपाल' ल०॥ __ इत्यादिक 'इडर' तणउ, मिल्यउ संघ सुविशाल ल०पुण्य०१८२। 'द्यावड' संघ.सहु मिल्यो, 'अहिम नगर' नुं संघ । "'सावली' नुं संघ सामठउ, ‘पदमसिंह' 'चांपसीह' ।लापुण्य०८३। साह 'नाकर' सुत हवि तिहां, 'सहजू' साह उदार ।ल। दानि मानि आगलउ, 'ईडर' शोभाकार ।लापुण्य०८४। शिणगारी निज घर घगुं, तेड्या 'तपगछ' नाथ ।ल। पट्ट देवानि कारणिं, संघ चतुर्विध साथि लापुण्य०।८५। इण अवसरि बोलविआ, 'धर्मविजय' उवझाय ल० 'लावण्यविजय' नामई वलि, वारू वाचक कहाय ल०|पुण्य०।८६। वर चारित 'चारित्रविजय', वाचक कुल कोटीर ल०। ..चोथा पण्डित परगडा, 'कुशलविजय' वजीर ल०।पुण्य०८७ 'कनकविजय' वाचक तुम्हो, तेडउ एणिं आवासि ल०। ... तब ते च्यारे मलपता, पुहता वाचक पास लापुण्य०८८। ऊठउ तुम्ह तुठउ गुरु, निज पद दिइ सुविवेक । ल० । .. विजयवंत वाचक वदइ, गुरुनि शिष्य अनेकालापुण्य०८६। तुम्हे कहउ छउ ते सही, पणि तुम्ह पुण्य अपार । ल० । लछि आवती लीजीई, गुरुजी धइ गछ भार लिपुण्य०६०। इम गुरु चरणे आणिया, माणस देखइ थाट ल०१ ___'होरई' जिम 'जेसिंघजी', तिम थाप्या गुरु पाटि ल०।पुण्य०६१ वास थाल तब आणीउ, सा० 'सहजू' अभिराम ।ल०। । वास ठवइ गुरुजी करई, 'विजयसिंह सूरि' नाम ।ल०।पुण्य०६२ 2010_05 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'कोरतिविजय' 'लावण्यविजय', वाचक पद दोइ दोद्ध । आठ विवुध पद थापीआ, मया सुगुरु इम कीद्ध ल०।पुण्य०६३। श्रीफल करी प्रभावना, जीमण वार अवार। महमूदी 'सहजू' तिहां, खरची पंच हजार ।ल०।पुण्य०६४। 'कल्याणमल्ल राय रजिआ, 'इडर नगर' मझार ।ल। सा० 'सहजू' उत्सव करइ, वरत्यो जयजयकार ।लपुण्य०६५॥ वलि ज्येठ मांहि तिहां, बिम्ब प्रतिष्टा एक । ल० । सा० 'रहीआ' उत्सव करइ, खरचइ द्रव्य अनेक ।लापुण्य०६६। बीजइ पखवाडइ वली, अमराउत जस लिद्ध ल०। ___'पारिख' 'देवनो' नी घरि, पूज्य प्रतिष्टा किद्ध लापुण्य०६७) संवत 'सोल इक्यासो(य)इ', उत्सव हुआ आणंद ।ल। 'विजय देव सूरि' थापीआ, 'विजयसिंह' सूरिंद ।लापुण्य०६८ धवल मंगल दिइ कुल वहू, बाजइ ढोल नीसाण ।ल०। 'विजय देव' गुरु पाटवो, प्रगटिउ तप गछ भाण ।ल०।पुण्य०६६। गुरु आचारज जोडली, 'इडरगढ़' चउमासि ।ल०। राय 'कल्याणई राखीआ, पहुंचाडो मन आसि ।ल०|पुण्य०।२००५ दोहा :एहवइ 'सीर (ही)' थकी, तेडइ सा 'तेजपाल' . 'आबू' पूज्यं पधारिइं, चैत्र मास सुर साल ॥१॥ तेह वोनति मन धरी, गुरुजी करइ विहार । संघ लोक बहुला मिलइ, उत्सव करइ अपार ॥२॥ साम्हा आवइ 'साहजो', 'दोसी' 'जोधा' जोडि । संघवी. 'मेहाजल' मिली, गुरु पूजइ कर जाडि ||३|| 2010_05 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसिंहसूरि विजयप्रकाश रास गुरु उपरि करइ लूंछणा, साह दिइं तरल तुरंग । घणा संघ स्युं गुरु करइ, 'आबू' यात्रा जंग ॥४॥ 'गुण विजय' कहइ जग जस लि(य)उ, धन २ 'विमल' नरिंद। ___जिण 'अबुय' गिरि थापीउ, 'मरु देवी' नुं नंद ।।५।। 'अबंद' गिरि तीरथ करी, 'बंभणवाडि' वीर । सुगुरु 'सीरोही' आविया, जाणे अभिनवौ'हीर' ।।६।। चौमासुं गुरुजी करइ, 'सीरोही' सुखठाम । 'तेजपाल' शाह प्रमुख सहु, संघ करइ शुभ काम ॥७॥ विजय दसमी दिन दीपतुं, 'विजयदेव' गुरु पास । 'विजयसिंह सूरी' तणो, गायउ 'विजय प्रकाश' ॥८॥ राग :-धन्याश्री। महावीर जिनपाटि धुरंधर, स्वामि 'सुधर्मा' सोहइजी । 'जंबू' 'प्रभव' ‘शय्यंभव' सूरीय, 'यसोभद्र' मन मोहइजी ।। इम अनुक्रमि 'जगचंद्र' महामुनि, च्युंआलोसमि पाटिजी । 'तपा' विरुद तस राणइ थाण्यु, मेदपाटि 'आघाटिं ।।६।। तिणि तप गणि गुणवन्निं पाटिं, 'देवसुंदर' सुखकारीजो । पंचासम पाटिइं गुरु सुन्दर, 'सोमसुन्दर' गणधारोजी ।। तेह थकी छपन्नमि पाटिं, 'आणंदविमल' मुणि इंदोजी । 'तपागछ' जेणि निरमल कोधउ, जिसो आसोइ चंदोजी ॥१०॥ सत्तावनर्मि पाटि परम गुरु, 'विजयदान' वैरागीजी। अट्ठावनमि पाटि हीरो, हीरजी' गुरु सोभागीजी ।। 2010_05 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह उगुणसट्टमि पाटि पुरन्दर, 'विजयसेन' गछ धोरीजी । पाटि साट्ठमइ 'विजयदेव' गुरु, गुण गावइ सुर गोरीजो ||११|| 'हीर' 'जेसंगजी' पाट दीपावइ, 'विजयदेव सूरि' सोंहोजी । पूजा नाम कर्म तप धर्मिइ, राखइ तप गछ लोहोजी ॥ तस पट दीपक रति पतिजी, एक 'विजयसिंह' सूरीसोजी । इकसठमि पार्टि पुरषोत्तम, पूरइ संघ जगीसोजी ॥१२॥ 'सोलयासी' वर्षि हर्षि, 'सीरोही' सुख पायउजी । 'ऋषभदेव' प्रभु, पाय पसायई, 'विजयसिंह सूरि' गायोजी ॥ " कमल विजय' जय मंडित पंडित, 'विद्याविजय' गुरु चेलोजी. 1 'गुणविजय' पण्डित एम पपई, वाघ तपगछ वेलोजी ॥१३॥ इति श्रीविजयसिंह सूरि विजय प्रकाश नाम रासि ( संपूर्ण ) ( पत्र ११ श्री तत्कालीन लिखित, जयचंद भण्डार बं० नः ६६ ) 2010_05 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह चतुर्थ विभाग ( विभाग नं० १ की अनुपूर्ति ) कवि पल्ह विरचिता जेसलमेरभाण्डागारे ताडपत्रीया खरतर पट्टावली ॥ श्री जिनदत्त सूरि स्तुतिः॥ जिण दिट्टई आणंदु१ चडइ अइ२ रहसु चउग्गुणु । जिण दिई झड़हड़ह पाउ तणु निम्मल हुइ पुणु ।। जिण दिट्ठइ सुहु होइ कट्ट, पुव्वुक्किउ नासइ । जिण दिट्ठइ हुइ रिद्धि दूरि दारिदु पणासइ३ ।। जिण दिइ हुइ सुइ४ धम्ममइ अबुहहु काइ उइखहु५ । पहु नव फणि मंडिउ 'पास' जिणु 'अजयमेरि' किन पिक्खहु६ ।।१।। मयण मकरि धरि धणुहु बाण पुणि पंच म पयडहि । रूविण७ पिम्म पयावि बंभ हरि हरु मन(त) विनडहि ॥ रूउ८ पिम्मु ता बाण मयण ता दरिसहि थणुहरु । नम(व) फणि मंडिउ सीसि जाव नहु पक्खहि जिणवरु ।। १ आनंद, २ अहरहस, ३ पनासइ, ४ सुह, ६ उह खहहु, ६ पिक्खहहु, ७ भूविण, ८ भूउ 2010_05 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ . ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जइ पड़िहसि 'पास' जिणिंद वसि नाणवंतह निम्मल रयण । न सु धणुहरु बाण न रूव१० नहि न रूय११पिंमु हुइ हइमयण ।।२।। नम (व) फणि 'पास' जिणिंदु गढिउ अन्नलि जु दिट्ठउ । _ 'अजयमेरि' 'संभरि१२नरिंदु' ता नियमणि तुट्ठउ ।। कंचणमउ अइ१३ कलसु सिहरि साणउ रखविअउ । जणु सुतरणि तउ१४ तवइ तिव्वु (त्थु) आयासि सउन्नउ ।। जा वुक्कमिसिण ढक्कारविण करु१५ उब्भिवि फरहरइ धय१६ । 'जिणदत्तसूरि' धर धम(व)लि जसि तापसिद्धि सुर भुयणि१७ कय ॥३ 'देवसूरि पहु' 'नेमिचंदु' बहु गुणिहिं पसिद्धउ । 'उज्जोयणु' तह 'वद्धमाणु' 'खरतर' वर लद्धउ । सुगुरु 'जिणेसरसरि' नियमि 'जिणचंदु' सुसंजमि१८ । 'अभयदेउ' सव्वंगु नाणि 'जिणवल्लहु' आगमि ।। “जिणदत्तसूरि' ठिउ पट्टि तहि जिण उज्जोइउजिण-वयणु । सावइहिं परिक्खिवि परिवरिउ मुल्लि महग्घउ जिव१हरयणु ॥४॥ घणुहर धयवड२० वरिय सारि सिंगार सुसज्जिय । सोहग्गिण गुडगुड़िय पंच(व)र पडिम निमज्जिय ॥ ति(नि)यड़ (रू)अ तेअ ग्गलिय२१ पिंम पडिकार निरुत्तिय । रइ रणरह सुच्चलिय२२ गरुय माणिण म अमन्निय२३ ।। करि कडयड२४ मुणि महिवइहिं रहिय रूवय संपुन्न भय । 'जिणदत्तसूरि सीहह' भयण मयण करडि २५ घड विहडि गय ||५|| ९ दंत, १० भूव, ११ भुय, १२ संभारि, १३ अह, १४ तओ, १५ कर उज्झिवि, १६ धर, १७ भवणि, १८ सुसंयमि, १९ जिम २० धरय, २१ ...। आगलिय, २२ सुचलिय, २३ मइ अन्निय, २४ कडसड, २५ हकर घियड़, 2010_05 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनदत्त सूरि स्तुतिः तव तलफ भीसणह धम्म धीरिमसुरिम२६ सुविसालह । संजम सिर भासुरह दुसहद (व)य दाढ़ करालह || नाण नयण दारुणह नियम निरु२७ नहर समिद्धह । ३६७ कम्म कोय (a) निट्टरह२८ विमलपह पुंछ पसिद्धह || उपसमण उयर२६ धर दुव्विसह गुण गुंजारव जीहह । 'जिणदत्तसूरि' अणुसरहु पय पावक - रडि - घड - सीहह ||६|| जर - जल-बहुल- रउद्दु लोह -लहरिहि गज्जंतउ । मोह मच्छ उच्छलिउ कोव कल्लोल वर्हतउ ॥ मयमयरिहि परिवरिड वंच बहु वेल दुसंचरु । गव्व३० गरुय गंभीरु असुह आवत्त भयंकरु ॥ संसार समुहु३१ जु एरिसउ जसु पुणु पिक्खिवि दरिया | 'जिणदत्तसूरि' उवएसु मुणि पर तरंडइ३३ तरियइ ||७|| सावय किवि कोयलिय केवि खरह३४ (?) रिय पसिद्धिय । ठाइ ठाइ लक्खियइ३५ मूढ़ निय वित्ति विरुद्धिय ॥ 'दरहिं न किंपि परत्र३६ वेविसु परुप्परु जुज्झहि । सुगुरु कुगुरु मणि मुणिवि न किवि पट्ट तरु बुज्झहिं ॥ 'जिणदत्तसूरि' जिन नमहि पय पउम मच्चु ३७ (गव्वु ) नियमणि वह हि संसार उयहि तरि पडिय 'तिनहु ' ३८ तरंडइ चडि तरिहि ||८|| तव - संजम - सय नियम-धम्म- कंमिण वावरियउ । लोह - कोह मय - मोह तहव सव्विहि परिहरियउ | २६ सूचि, २७ सनहर, २८ निट्ठ रह, २९ उपर, ३० गंथ, ३१ समुहु, ३२ सुणित, ३३ सुतरियइ, ३४ खरतरिय, ३५ लक्खियर्हि, ३६ परत्त, ३७ सच्चु, ३८ जिनहु 2010_05 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह विसम छंदलक्खणिण सत्थ अत्थत्थ विसालह । 'जिणवल्लह' गुरुभत्तिवंतु पयड़उ कलिकालह ।। अन्निहि वि गुणिहि संपुन्न तणु दीन दुहिय उद्धरणु धर । _ 'जिणदत्तसूरि' 'पर पल्हभ(?)णु तत्तवंतु सलहियइ धर ॥६॥ वक्खाणियइ त परम तत्तु जिण पाउ पणासइ । ___ आरहियइ त 'वीरनाहु' कइ 'पल्हु' पयासइ ॥ धम्मु तु दय संजुत्तु जेण वरगइ पाविज्जइ । चाउ त अणखंडियउ जु बंदिणु सलहिज्जइ ।। जइ ठाउ३६ त उत्तिमु मुणिवरहवि (पवर वसहिहो चउर नर । तिम सुगुरु सिरोमणि सूरिवर ‘खरतर सिरि' 'जिणदत्त' वर ॥१०॥ १ इति श्री पट्टावली षट् पदानि। संवत् ११७० वर्षे अश्व युगाद्य पद्ये ११ तिथौ श्री मद्धारानगयीं श्री खरतर गच्छे विधिमार्ग प्रकाशि वसतिवासि श्री जिणदत्त सूरीणां शिष्येण जिनरक्षित साधुना लिखितानि । ___ २ इति श्री पट्टावली ॥ संवत् ११७१ वर्षे पत्तन महानगरे श्री जयसिंह देव विजयिराज्ये श्री खरतरगच्छे योगीन्द्र युगप्रधान वसति वासि जिनदत्त सूरीणां शिष्येण ब्रह्मचंद्र गणिना लिखिता ।। शुभ भवतु श्री मत्पार्श्वनाथाय नमः सिद्धिरस्तु । ३९ ठाइ। 2010_05 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 12 444 विद्वत् शिरोमणि जिन बल्लभसूरिजी ( जैसलमेर भाण्डागारीय प्राचीन वाडपत्रीय प्रतिके काष्टफलक पर चित्रित ) Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनवल्लभ सूरि गुरुगुण वर्णन ३६६ ॥ श्री नेमिचन्द्र भण्डारि कृत ॥ जिन वल्लभ सूरि गुरु गुणवर्णन ** ।।६०॥ पणमवि सामि वीरजिणु, गणहर गोयमसामि । सुधरम सामिय तुलनि, सरणु जुगप्रधान सिवगामि ॥१॥ तित्थु रणुद्ध स मुणिरयणु, जुगप्रधान क्रमि पत्तु । जिणवल्लह सूरि जुगपवर, जसु निम्मलउ चरित्तु ॥२॥ तसु सुहगुरु गुणकित्तणइ, सुरराओवि असमत्थो । तो भत्ति-भर तर लिओ, कहिउ कहिसु हियत्थु ॥३।। कह भवसायर दुहपवरु, कह पत्तउ मणुयत्तु । कह जिणवल्लहसूरि वयां, जाणिउं समय-पवित्तओ॥४॥ कह सुबोह मणउल्लसिय, कह सुद्धउ सामन्नु । जुगसमिला नाएण मइए, पत्तउ जिण-विहि-तत्तु ।।५।। जिणवल्लहसूरि सुहगुरुहे, बलिकिज्जउ सुरगुरुराय। जसु वयणे विजाणियइ, तुट्टइ कम्म-कसाय ।।६।। मूढा मिल्हहु मूढ पहु, लागहु सुद्धइ धम्मि । जो जणवल्लहसूरि कहिओ, गच्छहु जिम सिवघरंमि ॥७॥ अथीर माय-पिय-बंधवह, अथोर रिद्धि गिहासु । जिणवल्लहसूरि पय नमओ, तोडइ भव-दुह-पासु ॥८॥ 2010_05 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह परमप्पणय न केवि गुरु, निम्मल धम्मह हुंति । सव्व तिस पुर मन्नियई, जे जिणवयण मिलति ॥ ६ ॥ गुरु गुरु गाइवि रंजियई, मूढा लोउ अयाणु | न मुइ जं जिण आण विणु, गुरु होइ सत्तु समाणु ॥ १०॥ जिम सरुणाईय माणुसह, कोइ करइ शिरछेओ । न मुणइ जं जिण-भासियओ, तिम कुगुरुह संजोओ ||११|| हुंडा अवसप्पणि भसम गहु, दूसम काल किलिट्ठ । जिणवल्लहसूरि भड्डु नमहु, जेण उसुत्तु न सिट्ठउ ॥१२॥ जो जिह कुलगुरु आइयउ, तहि ते भक्ति करंति । विरला जोइवि जिणवयणु, जहिं गुण तहिं रच्चति ॥ १३ ॥ हाहा दूसम काल बलु, खल-वक्कत्तण जोइ । नामेगइ सुविहिय तणइ, मित्तु वि वयरिओ होइ ॥ १४ ॥ तिहि चेडाहि विहउं नमओ, सुमुणिय परम उछाह । हिres जिण विहिक्कु पर, अनुसुद्धउ गुण जाह || १५ || जे जिणवरु पहु होलियइ, जणु रंजियइ हयासुं । सो वि सुगुरु पणमंतह, कुट्टिल हियइ हयासु ॥ १६ ॥ मरिय भवे जिओ वीर जिणु, इक्कि उसुत्त वेणु । कोडाकोडि सागर भमिओ, किं न सुणहु मोहेण ॥ १७ ॥ तव संजम सुत्तरेण सउ, सव्ववि सहलउ होइ । सो वि उसुत्तलवेण सउ, भव- दुह लक्खहं देइ ॥ १८ ॥ माया मोह चएउ जण, दुलहउं जिण विहि-धम्मं । जो जिणवल सूरि कहिओ, सिग्घं देइ शिव-संमुं ॥ १६ ॥ 2010_05 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनवल्लभ सूरि गुरुगुण वर्णन संसओ कोइ म करहु मणि, संसइ हुइ मिच्छत्तु । जिणवल्लहसूरि जुग पवरु, नमहु सु त्रिजग-पवित्त ॥२०॥ जई जिणवल्लहसूरि गुरु, नय दिठओ नयणेहिं । जुगपहाणउ विजाणियए, निछई गुण-चरिएहिं ॥२१॥ ते धन्ना सुकयत्थ नरा, ते संसार तरंति । जे जिणवल्लहसूरि तणिय, आणा सिरे वहति ॥ २२ ॥ तेहिं न रोगो दोहग्गु तहु, तह मंगल कल्लाणु । जे जिणवल्लहसूरि थुणिहि, तिन्नि संझ सुविहाणु ।।२३।। सुविहिय मुणि चूडा-रयणु , जिणवल्लह तुह गुणराओ। इक्क जीह किम संथुणेउ, भोलओ भक्ति सुहाओ ॥ २४ ॥ संपइ ते मन्नामि गुरु, उग्गइ उग्गइ सूर । जे जिणवल्लह पउ कहहि, गमइ अमग्गउ दूरि ॥ २५ ॥ इक्क जिणवल्लह जाणियइ, सठुवि मुणियइ धम्मुं। अनसुहु गुरु सवि मानयइ, तित्थ जिम धरइ सुहंमु ॥२६॥ इय जिणवल्लह थुइ भणिय, सुणियइ करइ कल्लाणु । देओ बोहि चउवीस जिण, सासय-सोक्खु-निहाणु ॥ २७ ॥ जिणवल्लह क्रमि जाणियइ, हिवमइ तसु सुशीसु । ___ जिणदत्तसूरि गुरु जुगपवरो, उद्धरियउ गुरुवंसो ॥२८॥ तिणि नियपइ पुण ठावियओ, बालओ सींह किसोरु । ___ पर-मयगल-बल-दलणु, जिणचंदसूरि मुणीसरु ॥ २६ ॥ तस सुपट्टि हिव गुरु जयओ, जिणपति सूरि मुणिराओ। जिणमय विहिउज्जोय करु, दिणयर जिम विक्खाओ ॥३०॥ 2010_05 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पारतंतुविहि विसयसुहु, वीरजिणेसर वयणु। जिणवइ सूरि गुरु हिव कहओ, मिच्छइ अन्नुन्न कवणु ॥३१ ।। धन्न तईपुरवर पट्टगई, धन्न ति देश विचित्त । जहिं विहरइ जिणवइसुगुरू, देसण करइ पवित्त ॥३२॥ कवण सु होसइ देसडओ, कवण सु तिहि स मुहुत्त । जहिं बंदिसु जिणवइ सुगुरु, निसुण सुधम्मह तत्त ॥३३॥ सल्लुद्धार करेसु हउ, पालि सुदड्ढ सम्मत्तो। नेमिचंद इम विनवइए, सुहगुरु-गुण-गण-रत्त(तो) ॥३४॥ नंदउ विहि जिण मंदिरहि, नन्दउ विहि समुदाओ। नंदउ जिणपत्तिसूरि गुरु, विहि जिण धम्म पसाओ ॥३५॥ इति नेमिचंद भंडारि कृत गुरु गुणवर्णन ॥ Our 2010_05 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनदत्तसूरि अवदात छप्पय ३७३ कवि ज्ञानहर्ष कृत श्रीजिनदत्तसूरि अवदात छप्पय - - .........''बत ज्ञान रिक्ख थिर ।।२।। जनम भयउ जातकउ, नामदियउ चाचक ताकउ । दुआदस वरस जब भए, कर्यउ राज 'कनवज' अवाकउ ।। चढे 'सीह' 'द्वारिका', जाति करणण कुं निश्चल । ___ लयउ कुंयर 'आसथान', राणी जादुकउ अट्टल ।। राव 'वरनाथ' साहसीक मणि, जाति चले ‘सीह 'द्वारिका' । __ 'ज्ञानहर्ष' लहे पंचसै सुहड़, परभु पर दल मारका ॥२२।। अस्सुवार सइ पंच लेहु, 'सीहउ' यू चल्ले । पट्ट थप्पि लहु अनुज, सुहड़ संग रक्खे भल्ले ।। सबहु सुं करि भिक्ख,....स 'द्वारामति' डेरे । दिद्ध 'सीह' महाराज, सुप्भ(ब्ब?) महुरत सबंरे । 'आसथान' कुंवर आसाढ़ सिधि, लेहु संग दरकूच चलि । 'ज्ञानहर्ष' कहइ तिस वार बिच, भयउ इक्क अचरिज्ज इलि ॥२३॥ 'सिंह' आए 'मरुदेस', सुपन इक देख्यउ रानी। वृक्ष पाहर सब देस, हम्म अन्तरि बीटानी ।। वयण सुणि 'सीह' यू, चोट वाही हुइ समुहां । दिवस ऊगत 'सीह' कहत, हुइगउ केर अपणउ जहां तहां ॥ मम करहु राणो क्रोध हम, नींद गमावण हेत हूय । ज्ञान हर वदति तिस हेत करि, भए राव वर सव्व भूय ।।२४।। 2010_05 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अत्र आख्यान कवित्त । 'मारुयारि' कइ देसि, सहिर 'पल्लीपुर' अक्टुं । ___ तहां हइ पुर नाह, वं(बं?)भ 'जस्सोहर' दक्खं ।। 'खेरनगर' 'महेश', 'गुहिल-वंशी' हइ राजा । मारण 'पल्लीनगर', चट्यउ सो करत दिवाजा ॥ तिनवार 'बंभ जस्सोहरू', वदइ क्युं हि 'पल्ली' रहइ । ___ कोऊ र आणि आषाढ़ सिधि, 'ज्ञानहर्ष' कवि यूं कहइ ।।२५।। 'पल्लिनगर' चउमास, रहे खरतर गच्छ नायक ।। तिन गुरु कउ जस बहुत सुण्यउ, विप(प्र ? लोकां वाइक ॥ ताकउ नाम 'जिनदत्त सूरि', मंत्र धारी सूर वर । पंच नदी पंच पीर, साधि लिद्धउ सुर कउ वर ।। 'माणभद' जक्ख हाजर रहइ, तरउ खरउ सेवा करइ । 'ज्ञानहर्ष' कहइ गुरु कित्त बहु, पार न सुर गुरु नहु करइ ॥२६॥ गुरु पहुंचे 'मुलतान', पीर पंच आए नाम सुणि । पत्थर पारे पीर, गुरु वरसे कंचण मणि ।। पीर ग्रहे गुरु पाइ, संघ पइसारउ कीनउ । मूयउ मुगल कउ पूत, जीउ गुरु घाले दीनउ ।। सहु लोग देखि अचरिज भए, इन गुरुका अवदात बहु । 'ज्ञानहर्ष' कहत 'जिणदत्त' की, करत देव कीरत सहु ॥२७॥ गुरु करत बखाण, धरे आगे चउसठि गिणी। छोटेसे पाटले, आइ बइठी तिहां जोगिणि ।। 2010_05 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनदत्तसूरि अवदात छप्पय ३७५ चउसठि तिय कइ रूप, आई गुरु छलवइ कुं। गुरु यू तिण कू छली, लेहु उठो पटलइ कुं । पट्टले रहे आसण चढ़े, करामत गुरुकी वड़ी। 'ज्ञानहर्ष' कहत कर जोड़ि कर, रही देव चउसठ खड़ी ॥२८॥ करहु दूर पाटले, गुरु हारे हम तुम्ह पइ। चाहीजइ कछु बात, लेहु गुरु यू तुम हम पइ ।। कहइ गुरु हम साधु, लोभ ममता नहीं करना । परतिख भइ तब देव, रूप बहु चउसठि भइनां ।। वर सात दइत हरखित भइ, सहु लोगां सुणतां समुख । 'ज्ञानहर्ष' कहत अवदात यउ, परसिध हइ सब लोक मुख ॥२६॥ हइ हइ देव वर सत्त, नाम गुरु लेतां बिजुरी । परइ नहों किस परइ, प्रथम अयउ वर घइ सगरी ।। गाम नगर मणिमत्थ, एकु हुइगउ तुम्ह श्रावग । तुम श्रावग 'सिन्धु' गयउ, ख.ट ल्यावइ व्यापारग। वर चउथउ भूत प्रेत ज्वर, आधि व्याधि सबही टरइ । 'जिणदत्तसूरि' मुखि जप्पतां, 'ज्ञानहर्ष' कवि उच्चरइ ॥३०॥ चोर धाड़ि संकट्ट मिटति, गुरु नामे पञ्चम वर । ___ छट्ठउ जलहुं तरइ, जउ लूं मुख समरइ सदगुर । सातमउ वर साधवी, ऋतु नावइ खरतर की। अयउ वर दे पग परी, बात सहु कही कइ उरकी ॥ समरतां आइ खड़ी रहइ, वीर बावन्ने परवरी । 'ज्ञानहर्ष' कहत निस निति प्रतइ, करइ नृत्य चउसठ सुरी ॥३१॥ 2010_05 | Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'उन्जेनी' गुरु गए, देखि थांभउ गुरु हरखे । ____जप्यउ मन्त्र करि ध्यान, लिद्ध पोथी आकरखे ।। तिस बिच सोवन सिद्ध, गुरु बहु विद्या पाइ । 'चित्रोर' कइ भण्डार, तहां गुरु जाइ रखाइ ।। उस पोथी की बात, 'कुंयरपाल' राजा सुणी। 'ज्ञानहर्ष' कहइ 'पाटणनगर' नवलख असवारां धणी ||३२|| 'कुंयरपाल' जिनधर्म, हइ श्रावक पूनम गच्छ । श्रावक सर्व बुलाइ, संघ नायक खरतर गच्छ ।। गुरु यू कुं तुम लिखउ, हेम मिध पोथी आवइ । कागद संघ दरहाल, भेज पोथी मंगावइ ।। गुरु लिख्यउ वचन पोथी परइ, छोर न पोथी बांचनी । . 'ज्ञानहर्ष' कहइ भण्डार बिच, रख कइ पोथी पूजनी ॥३३॥ गुरु 'कुंयरपाल' कर, 'हेम' नामइ आचारिज । तिण पइ पोथी धरी, छोरि बांचउ गुरु आरिज ।। कहत गुरु हम वतइ, अया छोरी नवि जावइ ।। साधवी गुरु की भइन, छोगितां आँख गमावइ ।। पुस्तक्कि उड़ि भण्डार बिच, 'जेसलमेरन' कइ परी। _ 'ज्ञानहर्ष' कहत तिस जाइगा, रक्खइ बहु चउसठ सुरी ||३४|| परकमणइ बिच बीज, परत रकवी गुरु ततत्रिण। 'बिपुर' परो मृगी, गमी गुरु स्तोत्र तंज्यउ भण ।। पतरइसइ गृह तहां, महेसरी डागा लूण्या । परबोधे श्रावक, ... ......॥ १७वीं शताब्दी लि० ( इस प्रतिका सातवां मध्य पत्र हमारे संग्रहमें ) 2010_05 Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मदायी वायुस श्रीमा सीडा BURSEDEDA श्री जिनेश्वर सूरिजी Copyright Sarabhai M. Nawab. mielnajara ADSUFIOR बडारा VERLIG गड्डा ( श्री जिनपति सूरि शिष्य ) Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाह वर्णन रास ३७७ कवि सोममूर्ति गणि कृत श्रीजिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाह वर्णन रास। चितामणि मण१ चिंतियत्थे,२ सुहियइ३ धरेविणु पास जिणु । जुगपवरु 'जिणेसरसूरि' मुणिराउ,थुणिसु हउँ४ भत्ति आपणउपगुरु । निय हियइ६ ठवहु वर ७मोतिय हारु, सुगुरु-जिणेसरसूरि' चरियं । भविय जण जेण सा मुत्ति वर कामिणी, तुम्ह वरणमि उक्कांठियए८॥२ नयरु 'मरुकोटु' मरुदेसु सिरिवर मउडु, सोहएह रयण कंचण पहाणु । जत्थ वज्जति नय भेरि भंकारओ,१० पड़िउ अन्नस्स११ हियए धसक्को१२ ॥॥ कंत दसण कला के लि आवासु१३, महुर वाणी (य) अभियं झरंतो। __ रेहए तत्थ भण्डारिलो पुन्निमा,१४ चंद जिम 'नेमिचंदो' ॥४॥ सयल जण नयण आणंद अमिय-छडा, रूव लावण्ण सोहग्गचंग१५ । पणइणी 'लखमिणी' तासु वक्खाणि,१६ . पवर गुण गण रयण एग१७ खाणि ॥५॥ - १० मणि, २c वि वियत्थे, ३c सुहियय, ४८ हुड, ५a आपणउं, ६० हियय, ७a. मोतिया, मोतियं ८as, ९bसोहइ, १०aभकारउ, ११८अ नय. हस, १२bcध्रसको, १३cा तासु, १४८राउ पुनिम, १५८चंद, १६०वरकाणि, १७b एक थाणि । 2010_05 Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह बार पञ्चताल१८ विकम्म१६ संवच्छरे, मग्गसिर सुद्ध एगारसीए२० । 'लखमा'ए विहि पुत्तु उपन्नु, नेमिचंद कुल मंडणउ [ए+] ॥६॥ 'अंबा'ए विहि सुमिणउ२१ दिन्नु,२२ । एउ२३ अम्हाणउ२४ मणि२५ धरिवि२६ + । 'अंबडु'२७ नामु२८ तसु कियउं२६ पियरेहि, रंग भरि गरूय-वद्धावणाए३० ॥७॥ घात:-अत्थि पुहविहि अस्थि पुहविहि नयरु 'मरुकोटु',३१ भंडारिउ तहि३२ वसए, 'नेमिचंदु' गुण रयण सायरु । तस भत्ता 'लखमिणि', पवर सील+[वंत] लावन्न मणहर ।। तह३३ उप्पन्नउ पुत्तु वरो,३४ रूविणि३५ देवकुमारू। - 'अंबडु' नाउं३६ पयट्ठियउ,३७ हूयउ जय जय कारू ॥८॥ अन्नि३८ दिसहो अंबडु कुयरु, पभणइ३६ मायह४० अग्गइ धीरु । इहु संसारु दुहह४१ भंडारु, ता हउं४२ मेलिहसु४३ अतिहि४४ असारु४५ ॥६॥ परणिसु संजम४६ सिरि वरनारी, माइ माइए४७ मज्झु४८ मणह पियारी । १८b पंचेताल, १९b विक्कर a विकम, २०b इकारसीए, २१b समिणए, २२b दोनु, २३bc एहु, २४b cअम्हारउ, २५ मगु मिनि, २६bcधरेवि, २७b cअंबडो, २८b नाउँ, २९b कियड, ३०b cवद्धावणए । ३१० गरुकोट, ३२४ तह, + ab प्रति, ३३० तसु उपन्न, ३४३ पुत्तुवरु, ३९a bरूविण, ३६ नामु, ३७a पयहिउ, ३८b अन्निहि दिवसिहि अंबडु कुमर, अन्निदिवसिहुउ अंबडु कुमरो, ३९३ पभणय, ४०b माया आगइ धीरु (c रोरु), ४१३ b दुह, ४२a c ता हउ, ४३३ मिलिहसु, ४४३ अत, ४५० असारो, ४६० संयमसिरि, ४७० माए b माइ, ४८b मुझ, 2010_05 Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाह वर्णन रास जासु पसाइण वं छेउ४९ सिज्झए, ५० वलिवन संसारंमि पड़िज्जए५१ ॥ १० ॥ इहु निसु विणु 'अंबड़' वयणु, पभणइ माया संभलि लाडण । तुहु नवि५२ जाणइ बालउ भोलड, ३७६ इहु५३ ऋतु होइसइ५४ खरउ५५ दुहेल ।। ११ ॥ मेरु धरेविणु५६ निय भुयदं डिहि, ५७ जलहि तरेवउ५८ अप्पुणि बाह हि५९ । हिंडेवड असिधार६६० उय (?) रि, लोह चिणा चावेत्रा इणिपरि ||१२|| ता तुहु६१ रहि घर कहियइ लागि, जं तुह भावइ६२ वच्छ६३ तु मागि । किंपि न भावइ६४ विणु संजमसिरि, माइ६५ भणइ जं रूड़उ६६ तं करि ।। १३ ॥ घातः — भणइ 'अंबडु' भणइ 'अंबडु' एहु संसारु । गुरु दुक्ख भरिपूरियड, ६७ माइ माइ ता वेगि मिल्हिसु६८ । परणेविणु६६ दिक्खसिरि, ७० विषिह भंग हउ सुक्ख माणिसु । माइ७१ भणइ दुक्करु चरणु, तुहु पुणि अइ सुकुमालु । कुमर भणइ दुक्करह७२ विगु, नहु छलिय३७३ कलिकालु७४ ॥ १४ ॥ २९a b वंछिओ, ५०० सिज्झए b सीझए, ५१० पड़िज्जय b पड़ीजए, ५२४ तुह b तुहुं, ५३० एहु, १४b होस३, ० होसए ५०० खरओ दुहेलओ, ५६b c धरेवउ, ५७३ भूयदंडहि, ५८४ तरेवओ, १९४ अप्पण बाहर C आपुण बाहुहि, ६०० धारा उयरि c धारहं उवरे । ६१० तु तुहुं, ६२० भाषि, ६३९ वंछित ६४० भावए, ६५० माय, ६६b.cरूयड़उं, ६७b भरिपूरिवड, ६८० मल्हिसु मिल्हिमु, ६९b परिणवा, ७०० दिक्खसिरे, ७१० माय, ७२० दुक्कर, ७३० छलिइ, ७४a किलिकालु, 2010_05 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह "अंबडु' पभणइ माइ७५ सुणि, परिणिसु संजम लच्छि। इक्कु जुए पुहविहि७६ सहयइ, जायउ 'लखमिणि' कुच्छि७७ ॥१५।। अभिनव ए चालिय जानउत्र, 'अंबडु' तणइ वीवाहि । अप्पुगु७८ ए धम्मह चकवइ,७६ हूयउ८० जानह माहि ।।१६।। आवहि आवहि रंगभरि, पंच-महन्वय राय। गायहि गायहि महुर सरि८१, अट्ठय८२ पवयणमाय ।।१णा अढार८३ सहसह८४ रहवरह,८५ जोत्रिय८६ तहि सीलंग। चालहि चालहिं खंति सुह,८७ वेगिहिं८८ चंग तुरंग ।। १८ ।। कारइ कारइ 'नेमिचंदु',८६ 'भंडारिउ' उच्छाहु । वाधइ वाधइ जान६० देखि, 'लखमिणि' हरषुः१ अबाहु ॥ १६ ।। कुसलिहिह२ खेमिहि९३ जानउत्र, पहुतियह४ 'खेड' मज्झारि । उच्छवु हूयउह५ अइ ६६पवरो, नाचइ फरफर नारि ।। २० ।। 'जिणवई सूरिण मुणि७ पवरो, देसण अमिय रसेण। काग्यि जीमणवार६८ तहि, जानह हरिस भरेगह ।। २१ ।। 'संति जिणेसर' वर भुयणि,१०० मांडिउ१०१ नंदि सुवेहि । ___ वरिसह भविय१०२ दाण जलि, जिम गयणंगणि मेह ।। २२ ।। ७५८ म य, ७६३ जुपउविहि, ७७b कुक्खि , ७८b अप्पुणि. c आपुणु, ४९. चकवय, ८०० हूयय, ८१a रंगभरि. ८२a अट्ठ, ८३a अट्ठार. ८४a सहस, ८५a रहवर, ८६a जोत्रिया, ८७b.c मुह, ८८३ वेगह। ८९b नेमिचंद्र, ९०a जानह, ९१३ हर्ष, ९२a कुशलहि. ९३३ खेमहि, ९४३ पहुतो. ९५३ हुयउ, ९६a पवरु, ९७a पवर, b. पवरि, ९८b जोवणवार, ९९b भणो, १००a भुवणि-१०१b.c मंडिय, २b भाविय C. भविया, 2010_05 Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनेश्वरसूरि संय श्री विवाह वर्णन रास ३८१ तहि अगयारिय३ नीपजइ,४ झाणानलि पजलंति । तउ संवेगहि५ निम्मियउ, हथलेवउ६ सुमहुत्ति७ ।। २३ ।। इणि परि 'अंडु' वर कुयरु८. परिणइह संजम नारि । बाजइं१० नंदीय११ तूर घण१२, गूडिय१३ घर घर बारि ॥२४|| घात:-कुमरु चल्लिउ कुमरु चल्लिउ गरुय विछोड्ड। परिणेवा दिक्खसिरि,१४ 'खेडनयरि' खेमेण पत्तउ१५ । सिरि 'जिणवई' जुगपवरु१६ दिट्ठ, (हु), तत्थ निय-मणहि१७ तुट्ठउ१८१ परिणइ संजमसिगि१६ कुमरु,२० वज्जहि नंदिय२१ तूर । 'नेमिचंदु'२२ अनु 'लखमिणि'-हि, सव्वि२३ मणोहर पूर ।।२५।। 'वीरप्पहु'२४ तसु ठवियउ२५ नामु,२६ जिण वयणु२७ अमिय रसु झरंतो२८ । अह सयल नाण समुद् दु२६ अवगाहए, 'वीरप्रभु'३० गणि [ निय+] गुरु पसाए ॥२६।। क्रमि क्रमि 'जिणवइ सूरिहि'३१ पाटु, उद्धरिओ३२ ['जिणेसरसूरि' नाम । विहरए भविय लोयंच पडिबोहए, अवयरिउ] किरि 'गोयम' गणिंदो ॥२७॥ ३b.c अगियारोय, ४० नीपजए, ५b.c संवेगिहि, ६० हघ लेवउ, ७b.c समुहुत्ति, ८b कुमरु, c. कुमरो, ९a.c परिणइ, १०a.b वाजहि, ११. नंदी, १२b.c घणा, १३३ गूडी । १४३ दिक्खसिरे, १५३ पत्तभो, १६bcजुगपवरो, १७be मणिहि, १८० तुट्ठओ, १९० संजमसिरी, २०० कुमर, २१ नन्दीतूर, b नन्दियत्तर, २२ be नेमिचंद,२३a bपछव, २४a cवीरपहु, २५३ ठवियओ, २६ नाउ २७b श्रवण, २८a b झुरंतो, c किरि झरतो,. २९० संमुद्द , ३०a b वीरप्रभ xbप्रति, ३१३ वय, ३२a उद्धरिगो, [२४] be प्रति, 2010_05 Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'अनसुइत्थि'३३ जिम जिण भवण३४ मंडियं, महियलं निम्मियं अरिरि जेहिं । सिरि 'वयरसामि' जिम तित्थ३५ उन्नइ कया३६, कटरि अच्छरिय सुचरिय पहूंणं ॥२८॥ घातः-जेण जिणवर जेण जिणवर भुवण उत्तुंग । किरि भवियण ववहारियह, पुन्न हट्ट संठविय३७ पुरि पुरि । जणु दुग्गइ३८ उद्धरिउ, धम्मरयण दाणेण बहुपरि ।। नाण चरण दंसण जुबइ, केलि विलासु३६ पहाणु४० । साहु-राउ४१ सो वन्नियइ४२, 'जिणेसरसूरि'४३ जगि४४ भाणु ॥२६॥ सिरि 'जावालपुरंमि' ठिएहिं, जहि४५ निय अंत समयं मुणेवि४६ । नियय४७ पट्ट मि सई हत्थि संठाविओ, वाणारिउ४८ 'पब्बोहमुत्ति'४६ गणि ॥३०॥ सिरि 'जिणपब्बोह सूरि'५० दिन्नु तसु नामु, तउ भणिउ५१ सयल संघस्स अग्गे ।। अम्ह जिम एहु नमेवउ५२ संघि, जुगपवरु 'जिणपबोहसूरि' ५३ गुरु ॥३१॥ ३३a महुत्थि, ३४० भुवण, ३५४ उन्नय, ३६b कय, ६७a संटियउ, ३८३ दुग्गय उद्धरिय, दुग्गइउ दूरिउ। ३९b c विलास, ४०b पहाण, ४१३ राय, ४२a वन्नियह, वंनियइ, ४३० सुरि, ४४aजग, ४५ b-c जे है, ४६० मुयं मुणेवि, ४७b नियइ, ४८ b वाणारी, ४९b प्रवोहमूर्ति, . प्रबोधमूर्ति, ५०३ जिण पबुह, b जिणप्रबह, जिण प्रबोध, ५१३ भणि, ५२b मानेवव c मानेवओ, ५३b जिण प्रबोधह सूरि, c जिणप्रबोधसूरि, 2010_05 Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाह वर्णन रास ३८३ अणसणु लेवि५४ सुह झाणु धरेवि, अरिरि सुहडत्तु इम भाणिऊणं । [तेर इगतीस आसोज५५ बदि छट्ठि, जिणेसरसूरि सग्गंमि' पत्तु ॥x] 'जिणेसर सूरि' सग्गंमि संपत्तु५६ पूरउ संघ मण बंछियाई५७ ॥३२॥ एहु वीवाहलउ५८ जे पढइ, जे दियहि खेला खेली५६ रंग भरे६० । ताह जिणेसर सूरि सुपसन्नु६१, इम भणइ भविय गणि 'सोममुत्ति'६२ ।। ३३ ।। ॥ इति श्री जिनेश्वर सूरि संयमश्री विवाह वर्णन रास समाप्तः ॥ ५४३ लेविणु [x] abप्रति, ५५b आसोय ५६b-c संपत्तओ, ५७b वंछियाइ, ५८b वीवाहडउ, c वीवाहुलउ, ५९ bic खेलिय, ६० b-c भरि, ६१. सुपसुन्न ६२b सोममूर्ति, c सोममुत्ती। 2010_05 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ॥ कवि ज्ञानकलश कृत ॥ श्री जिनोदय सूरि पट्टाभिषेक रास संति करणु सिरि संतिनाह, पय कमल नमेवी । कासमीरह मंडणिय१ देवि, सरसति सुमरेवी२ ।। जुगवर सिरि 'जिणउदयसूरि', गुरु३ गुण गाएसू । पाट महोच्छवष्४ रासु रंगि, तसु हउँ पभणेसू ॥ १॥ चन्द्र गच्छि सिरि वयर ५साखि, गुणमणि भंडारू । 'अभयदेवु'६ गुरु गहगहए, गरुयउ७ गणधारू । सरसइ८ कंठाभरणु [त(न?)यण], जण नयणाणंदू । 'जिणवल्लह' सूरि चरण कमलु, जसु नमइ सुरिंदू ।। २ ।। तासु पाट्टि 'जिणदत्तसूरि', विहि मग्गह मंडणु । ___ तउ 'जिणचंद' मुणिंद रूवि, मयणह मय खंडणु ।। वाईय१० मयगल११ कुंभ दलणु, कंठीर समाणू । सिरि 'जिणपत्ति' मुणिंदु१२ पयडु, महियलि जिम भाणू ॥ ३ ॥ तसु पय कमल मराल सरिसु१३, भवियण जण सुरतरु । सुरि 'जिणेसर' कटरि पुन्न, लच्छी केलीहरु । निम्मल सयल कला कलाव, पउमिणि वण दिणमणि । सुहगुरु सिरि 'जिणपत्रोह सूरि', पंडियह सिरोमणि ॥४॥ . १b कसमीरह मंडणीय, २३ समरेवी, ३a गुर, ४३ महोच्छव, ५b साख, ६ अभयदेव, xa प्रति, ७a. गुरयउ, ८a सर य, ९b पाटि, १०b वाइय, ११ मंगल, १२b मुपिंद, १३b सूरिसु । 2010_05 Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN जिनोदयसूरि पट्टाभिषेक रास ३८५ चंद धवल निय कित्ति धार१४, धवलियह१५ बंभंडू। तयण सुगुरु 'जिणचंदसूरि', भवजलहि तरंडू ।। सिंधु देसि सुविहिय विहारु जिण धम्म पयासणु । सुगुरु राउ 'जिणकुसलसूरि', जगि अखलिय सासणु ॥ ५ ॥ तासु सीसु 'जिणपदमसूरि', सुरगुरु१६ अवतारू। न लहइ सरसति देवि, जासु विद्या गुण पारू ।। तयणंतरु विहि-संघ, नीरु-निहि१७ पूनिमचंदू । जिण सासणि सिंगारु हारु, 'जिणलबधि' मुर्णिदू ॥ ६॥ तासु पाटि जिणचंदसूरि तव तेय फुरंतउ । जलहर जिम घणु नाण नीरु, पुरि पुरि वरिसंतउ१८ ।। 'खंभनयरि' संपत्तु तत्थ, गुरु वयणु सरेई। गच्छ सिक्ख नियपट्ट सिक्ख१६, आयरियह देई ॥ ७॥ ॥ घात ॥ गच्छ मंडणु गच्छ मंडणु, साख सिंगारु२० । जंगमु किरि कप्पतरु, भविय लोय संपत्ति कारणु२१ । तव संजम नाण निहि, सुगुरु रयणु संसार तारण । सुहगुरु सिरि 'जिणलबधिसूरि', पट्ट कमल मायंडु२२ । झायहु २३सिरि, जिणचन्दसूरि', जो तव तेय पयंडु ॥८॥ १४b वार, १५b धवलिय, १६b सुरगुर, १७b निसमिहि, १८ वरसंवड, १९३ सिख, २०b सिणगारु, २१ कार ।२२b मायंडू, २३६ शायह, 2010_05 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह महि मंडलि 'ढीलिय नयरे',२४ कंचण रयणु विसालु२५ । तउ 'रूदपाल'२६ नीब' 'सधरो', निवसइ तहि 'श्रीमालु' ॥६॥ तसुनंदणु बहु गुण कलिउ, संघवइ 'रतनउ' साहु । :... तxसयल महोच्छव धुरि धवलो, 'पूनिग' मनि उछाहु ॥१०॥ सुहगुरु२७ वंदण 'खंभपुरे', दीण दुहिय साधारु । _ 'रतनसीह' 'पूनिग' सहिउ, आवइ सपरिवार (रु) ॥११।। वंदवि सुहगुरु विन्नविउ, 'तरुणप्पह' सुरि राउ। तxगुरु पय-ठवणह२८ कारणिहि,२६ तिणि लाधउ सुपसाउ ॥१२॥ तxपाट ठवणि सुहगुरु३० तणए, आवइ विहि समुदाउ । __त नयर लोउ३१ जोयण मिलए, खरतर विहि जसवाउ ॥१३॥ 'आसाढ़ पनरोतरए, तेरसि पहिलइ पक्खि ' । तउ३२ नंदि ठविय 'अजियह भुवणि', सलहीजइ नर स्लक्खि ॥१४।। 'तरुणप्पह' सुहगुरु रयणु, वाणारिउ सुविचार। त ठविउ ३३पाटि गणि 'सोमप्पहो',३४ सयल गच्छ सिंगारु ।।१५।। त दिन्नु नामु 'जिणउदयसरि', सवणह अमिय पवाहु३५ । त+जय जयकार समुच्छलिउ, हूउ३६ संघु सणाहु ।।१६।। ॥घात ॥ सयल मन्दिर सयल मन्दिर लच्छि गेहमि । 'खम्भाइत'३७ वर नयरि,३८ अजियनाह मन्दिरी मणोहरि । तहि मिलिउ संधु घणु३९ पंच, सब्द४० वज्जति बहुपरि ।। २४b दिलियनयरो, २५b विसाल, २६b त रूदपाल, xa प्रति, २७b सहगुर, २८b पयठवणा, २९a कारणहि, ३०b उहगुर, ३१३ नयरलोय ३२३ ।। ३३b ठविय, ३४b सोमपहो, ३१b प्रवाहु a xप्रति, ३६a हूंयउ, ३७० खंभाईत, ३४ नयरे, ३९b बगू, ४०b संबद, 2010_05 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोदयसूरि पट्टाभिषेक रास 'रतन' 'पून' संघवइ, सुहगुरु४१ तणई पसाइ । पाट महोच्छवु कारवइ४२, हिइडइ हरषु न माइ ॥१७॥ इणि४३ परि ए गुरु आएसि, सुहगुरु पाटिहि४४ संठविउ । तिहुयणि ए मंगलचारु, जय जयकारु समुच्छलिउ ॥१८॥ वाजए४५ नंदिय तूर, मागण जण कलिरवु करए । सीकरि ए तणइ झमालि,४६ नंदि मंडपु जण मणुहरए ॥१६॥ नाचईए नयण विसाल, चंद बयणि मन रंग भरे।। नव रंगिए रासु रमंति, खेला खेलिय४७ सुपरिपरे ॥२०॥ घरि घरिए वन्दरवाल,४८ गीतह झुणि रलियावणिय । तहि पुरिए हुयउ जसवाउ, खरतर रीति सुहावणिय ॥२२॥ सलहिसु५० ए विहि समुदाय 'खम्मनयरि' बहु गुण कलिउ । दीसई ए दाणु दीयंतु, जंगमु सुरतरु करि५१ फलिउ ।।२२।। संघबई ए 'रतन५२ साहु, 'वस्तपाल'५३ 'पूनिग' सहिउ । घणु जिमए वंछिय धार, धनु वरिसन्सउ५४ गहगहिउ५५ ॥२३।। अहिणवु ए कियउ विवेकु, रंगिहि५६ जीमणवार हुय । गाईए५७ मनहि आणदि, पउविह संघह५८ पूय किय ॥२४॥ 'तिनिगु' ए 'पूनिगु' बेवि, दाणु दिर्यतउ नवि खिसए । माणिक ए मोतिय दानि, कणय कापडु५६ लेखइ किसए ।।२५।। ४१b सुहगुर, १२b कारवई, ४३b इण, ४४a पाटहि, ४५ वजए, ४६b मालि, ४७b खेलखिलिप,४८bबंदुरवासी, ४९वहुउ । ५०bसलाहिर्मु, _५१b किरि, ५२ a रतन, . ५३b वस्त्रपाल, १४३ बरसंबर, ५५a गहगहए, ५६३ रंगहि, ५७b गरूपह, ५८b संघह ५९. कापड, 2010_05 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'रत निगु' ए 'पूनिगु ' ६० बेवि, बंधव प्रीतिहि६१ संमिलिय६२ । झालिहि६३ ए संघह भारु, निय निय६४ पूरहि मनि रलिय ||२६|| ॥ घात ॥ सहि६५ जि उच्छवि तहि जि उच्छवि, रणइ घणतूर । वर मंगल धवलु६६ झुणि, कमल नयणि नच्चंति६७ रस भरि ॥ तहि 'साल्हिगु' धुरि धवलु६८, दियइ दाणु 'गुणराजु' बहुपरि । मागण जण कलिवु करइ, चमकिय चित्ति सुरिंदु | पाट ठवणि सुहगुरु६६ तणए, ७० संघि सर्यालि आनंदु ||२७|| संघु सयलि आणंदु, दंसण नाण चारित्त धरो । सिरि' जिणउदय' मुणिंदु, जर दीठउ नयणिहि७१ सुगुरो ||२८|| घरि घरि मंगल चारु, भविय कमल पड़िबोह करो । संजमसिरि उरि हारु, उदयउ ७२ सुहगुरु सहसकरो ||२६|| 'माल्हूय' ७३ साख सिंगारु, 'रूदपाल' कुल मंडणउ । 'धारलदेवि' मल्हारु, सुहगुरु भव दुह खंडणउ ||३०| जिम जिण बिम्व विहारि नंढणवणि७४ जिम कष्पतरो । " सुरगिरि गिरिहि मझारि, जिम चिंतामणि मणि पवरो ||३१|| जिम धणि वसु भंडारू, फलह मांहि जिम धम्म फलो । राज माहि गज सारु, कुसुम माहि जिम वर-कमलो ||३२|| ६०० पूनिग, ६१० प्रीतहि, ६२० संमिलय, ६३b झालहि, ६४० नितु नितु, ६५४ तह, ६६३ धवलु, ६७b नवंति, ६८० धवल, ६९b सुहगुर, ७०b तण, ७१ नयणहि । ७२३ उदय, ७३७ माल्हय, ७४७ विणि, 2010_05 Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोदयसूरि पट्टाभिषेक रास ३८६ जिम माणससरि हंस, भाद्रव घणु दाणेसरह७५ । जिम गह मंडलि हंसु, चंद६ जेम तारा-गणह७७ ॥३३॥ जिम अमराउरि इन्दु, भूमंडलि जिम चक्कधरो। ... संघह माहि मुणिंदु, तिम सोहइ 'जिणउदय' गुरो ॥३४॥ नवरस देसण वाणि, घणु७८ जिम गाजइ गुहिर सरे । नाणु नीर वरिसंतु८०, महिमंडलि विहरइ सुपरे ।।३५।। नंदउ विहि८१ समुदाउ, नंदउ सिरि 'जिणउदयसूरे'। . नंदउ 'रतनउ' साहु, सपरिवार 'पूनिग' सहिउ८२ ॥३६॥ सुहगुरु गुण गायंतु, सयल लोय वंछिय लहए । ... रमउ रासु इहु रंगि, “ज्ञान-कलस" मुनि इम कहए ॥३॥ ॥ इति श्री जिनोदय सूरि पट्टाभिषेक रास समाप्त ॥ ७५b दाणेसरहु, ७६b चांदु, ७७b तारागणहु, ७८३ घण, ७९a नाण, ८०b वरसंतु, ८१b विह, ८२b सहियउ । 2010_05 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ॥ उपाध्याय मेरुनन्दन गणि कृत ॥ ॥श्री जिनोदयसूरि विवाहलउ॥ सयल मण वंछिय१ काम कुम्भोवम, ___ पास पय-कमलु पणमेवि भत्तिर । सुगुरु 'जिणउदयसूरि' करिसु वीवाहलउ, . सहिय ऊमाहलउ मुज्झ चित्ति ।।१।। इक्कु३ जगि जुगपवरु अवरु नियदिक्खगुरु, थुणिसुं हउं तेण निय ४ मइ बलेण, । सुरभि किरि कंचणं दुद्ध५सकर घणं, संखु किरि भरीउ गंगाजलेण ।।२।। अत्थि 'गूजरधरा' सुंदरी सुंदरे६, उरवरे रयण हारोवमाणं । लच्छि केलिहरं नयरु 'पल्हणपुरं' ७ सुरपुरं जेम सिद्धाभिहाणं ॥३॥ तत्थ मणहारि ववहारि चूडामणि निवसए साहु वरु 'रूदपालो'८ । 'धारला'९ गेहिणी तासु गुण रेहिणी, __रमणि गुणि१० दिप्पए जासु भालो ॥४॥ १a.c.d वंछिये, २b भत्ते, ३b एकु, ४b मय, ५d सुट्ठ, ६b सुंदरा, ७b पल्हणपरं, c पल्हुणपुरं, ८d रुहपालो, ९d धारलादेवी, १० गणि, 2010_05 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनोदयसूरि विवाहल तासु कुच्छी सरे पुन्न जल सुब्भरे, ११ अवयरिउ कुमरवरु १२ रायहंसो । 'तेर पंचहुत्तरे' सुमिण संसूईड, आय १३ पुत्तु निय कुल वयंसो ||५|| करिय१४ गुरु उच्छवं सुणिय जय जयरवं, दिन्नु तसु नामु सोहग्ग सारं । 'समरिगो' भमर जिम रमइ निय सयण-मणि, १५ कमलवणि दिणि रयणि १६ बहु पयारं ॥६॥ लोय लोयण दले अमिउं वरसंत १७ वद्धए शुद्ध १८ जिम बीय चंदो । ३६१: निच्चु१६ नव नव कला धरइ गुणनिम्मला, ललिय लावन्न सोहग्गकंदो ॥७॥ घातः अस्थि ' गुज्जर' अत्थि गुज्जर, देसु सुविसालु । जहि२० 'पल्हणपुरु' नयरो, जलहिं जेम नर रयणि मंडिउ । तर्हि नित्रसइ साहु - वरो २१, 'रूदपालु' गुणगणि२२ अखंडिउ२३ । तसु मंदिर 'धार' उयरे, उपन्नउ सुकुमारु । 'समर' नामि सो समर जिम, वद्धइ रूपि अपारु२४ ||८| ११b सोभरे, १२b कुमरवर c. कुमरुबरु, १३b जाइड c. d जायउ, १४d करिउ, १५ सयलगणि d. अंगणि, १६b बोह, १७b.c.d अमिय वरिसंतर, १८ मुट्ट । १९c.d. नित्त, २०b तर्हि, २१b. सावरो, २२७ सण, २३७ अखंडिय २४. d रुवि अमरु, ु 2010_05 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अह अवर वासरे 'पल्हणे-पुर' वरे, भविय जण कमल वण बोहयंतो । पत्तु सिरि 'जिण कुशलसुरि' सूरोवमो महियले मोह तिमरं हरंतो ।।६।। वंदए भत्ति रंगेण उक्कंठिउ 'रूदपालो', परिवार जुत्तो।। धम्म२५ उवएस दाणेण आणंदए, सादरं सूरिराउ विन्नतो२६ ॥१०॥ अह सयल लक्खणं जाणि२७ सुवियक्खणं, सूरि दळूण२८ 'समरं कुमारं'। भवय तुह नंदणो नयण आणंदणो, परिणओरह अम्ह दिक्खाकुमारि ॥११॥ इय भणिय पत्तु गुरु 'भीमपल्लीपुरे' तं वयणु३० रयण जिम 'रूदपालो' । धरिवि ३१ निय चित्ति सयणिहिं आलोचए, तं सुरूवं३२ सुणय सोजि बालो ॥१२॥ तयणु ३३ निय जणणि उच्छंगि निवड़ेवि, ____ मंडए ३४ राहड़ी विविह परि ३५ । भणइ 'जिणकुसलसूरि' पासि जा अच्छए, __ माइ परिणावि मू३६ सा कुमारि ३७, ॥१३।। २५० धन, २६b.c.d वितत्तो, २७b.c.d वाणि २८३ दहण, २९b.c.d परिणउ, ३०b बयण, ३१b.d. धरवि, ३२b.d सरुवं । ३३b तयण, ३४d संखए, ३५bd परें, ३६३ जाणइ (परिणावि)सुं, ३७ कुमारी, 2010_05 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wr.rramanaanaam 'श्रीजिनोदयसूरि विवाहलउं ३६३ माइ भणइ निसुणि वच्छ भोलिम ३८ धणो, त नवि ३६ जाणए ४० तासु सार । रूपि न रीजए मोहि न भीजए, दोहिली जालवीजइ अपार ।।१४।। लोभि न राचए मयणि न माचए, - काचए चित्ति४१ सा परिहरए । अवर नारी अवलोयणि४२ रूसए, ___ आपणपइं४३ सयि४४ सत वरए ।।१५।। हसिय४५ अनेरीय वात विपरीत, तासु तणी छई घणी सच्छ । सरल४६ सभाव४७ सलणडा बाल,४८ कुणपरि रंजिसि४६ कहि न वच्छ ।।१६।। तेण कल कमल दल कोमल५०हाथ, बाथ५१ म बाउलि देसितउं । रूपि अनोपम उत्तम वंश५२, परणाविसु वर नारि हउं ॥११ नव नव भंगिहिं पंच पयार५३, भोगिवि भोग वल्लह कुमार । क्रमि ऋमि अम्ह कुलि कलसु५४ चडावि, होजि संघाहिवइ५५ कित्तिसार ॥१८॥ इय जणणि वयण सो कुमरु निसुणेवि, कंठि आलंगिउं५६ भणइ५७ माइ। जा ५८सुहगुरि कहि साजि मूं मु (म?) नि रही, अवर भलेरीय न सुहाइ५६ ।।।।१।। ३८b भूलिम, ३९॥ तं, ४०d. ४१ वित्ति, ४२b अवलोयणे, ४३b पय, ४४d रूपि, ४५b इसी ४६b सरण ४७b सम्भाव, ४८। बाला, ४९b रंजसि, ५०d कोमला, ५१d बाम, ५२d बरु, ५३d पयारइ, ५४० कलस, ५५b संघाहिब, १६b आलिगिय ५७b भणय, ५८c जास, ५९b सहाए । 2010_05 Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ३६४ तर कुमर निच्छयं जणणि जाणेवि, ढणहण नयणि नीरं झरंती । करिन तं६० वच्छ जं तुज्झ मण६१ भावए, अच्छए६२ गद गद सरि भणंती ||२०| ॥ घात ॥ अन्न वासरि अन्न वासरि, तम्मि नयरंमि । 'जिण कुसलु' ६३ मुणिंद बरो, महियलंमि विहरंतु पत्तउ । तहि बंदइ६४ भत्ति भरि, 'रूदपालु' परिवार जुत्तउ ॥ गुरु पक्खवि 'समरिगु'६५ कुमरो६६ आनंदिउ६७ नियचित्ति । भइ अम्ह दिक्खाकुमरि परिणावउ६८ सुमुहति ||२१|| तंच सुक्यणु तं च सुवयणु, धरिवि नियचित्ति । निय मंदिर आवियड, 'रूदयालु', सयणिहि विमासइ । तं जाणि कुमर वरो, आगहेण६६ निय जणणि भासइ || मं परिणावि न दिक्खसिरि७० माइ भणइ वरनारि । कुमर भइ विणु दिक्खसिरि अवरन मनह७१ मझारि ||२२|| ॥ भास ॥ अह जाणे विणु 'समरिंग' निच्छउ, ७२ काराव३७३ वय सामहणी तउ७४ । ६०० तर, ६१ मनि ॥ मणि, ६२० अच्छर, ६३b कुलक, ६४, वंदय, ६५) समरग, ६६० कुमर, ६७७ आनंदिय, ६८ परिणावहु, ६९b आगद्देणि, ७०b दिक्खसिरे, ७१० मनहं ।७२७ निच्छओ. ७४ तओ. ७३० कार विथि . 2010_05 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ war . ......... .~ ~ ~ ~ ~ ~ श्रीजिनोदयसूरि विवाहल ३६५ मेलिय७५ साजण७६ चालइ नियपुरे,७७ धवल७८ धुरंधर जोत्रिय रहवरे ।।२३।। चालु चालु हल सही७६ वेगिहिं८० सामहि, धारल' नंदण वर८१ परिणय महि । इम पभणंतिय सुललिय सुन्दरी, गायई ८२ महुर सरि गीय८३ हरिस८४ भरि ॥२४॥ ऋमि ऋमि जान पहू तिय,८५ सुहदिणि, 'भीमपलो पुरे'८६ गुर८७ हरसिउ मणि । अह८८ सिरि वीर जिणिंदह मंदरि, मंडिय वेहलि८६ नंदि सुवासरिह० ॥२५।। तरल १ तुरंगमि चडियउ लाडणु, मागण वंछिय दाण दियइ घणु । कोल्हूयह२ अण६३ वरिस 'समरिग' वर, जिम 'सरसई'१४ किरि 'कालिग' कुमर ॥२६॥ आविउ जिणहरि वरु मणहरवउ, . दीख कुमारिय सह५ हथलेवउह६ । 'जिणकुसलसूरि' गुरो आपुण पइ जोसिउह७, होमइ झाणानलिह८ अविरइ घिउ ॥२७॥ ७५८ मिलिय. ७६d साजय, ७७d नियपुर, ७८८ धवल, ७९० हलि सिहि. ८०b वेगइ. ८१b वरु. ८२b गाइ. c गाइहि d. गायहि, ८३d, श्रीय. ८४b हरसि, ८५d पहतिय, ८६b भीमपल्लीय, ८७b गुरु. ८८b अम्हिहि. ८९ बेहिकि. c.d वेहकि, ९०b सुवासरे. deधारि ९१० तुरल. ९२किल्हूय. ९३) आणु. ९४ । सरस य,९५b सं० ९६b हथिलेवओ. ९७b.c जोसिय. ९८॥ कालानलि 2010_05 Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जेन काव्य संग्रह ३६६ वाजइ मंगल त्तूर गुहिर सरि दियs धवल वर नारि विविह परि । SEE परि 'तेर बियासिय' १०० वच्छरि 'समरिगु१०१ लाडण १०२ परिणइ१०३ वय १०४ सिरि ||२८|| ॥ घात ॥ तयणु१०५ चल्लवि तयणु चल्लवि, 'भीम वरपल्लि', सामहणी जान सउं 'रूदपालु' आविउ सुवित्थरि१०६ । परिणाविउ दिक्खसिरि, 'समरसिंहु' १०७ 'जिणकुसल ' सुहगुरि ।। जय जय रवु घणु८ उच्छ लिड, ९ उद्धरिउ१० गुरु वंसु । 'रूदपालु' अनु 'धारलह', नश्चइ जगि जस हं सु११ ||२६|| दिन्नु 'सोमप्पहो' मुणि तसु नामु, सवण आणंदणं अमिय जेम१२ । जिम जिम चरण आचार १३ भरि सोहए, मोहर दिक्खसिरि तेम तेम ||३०|| पढ़इ जिनागम पमुह विज्जावली, रलिय १४ सेविज्जए गुण गणेहिं । अह ठवि१५ वाणारिउ१६ 'जेसलपुरे', 'चउद छडुत्तरे' १७ सुहगुरेहिं १८ ||३१|| eed इणि. १०० विहासियइ. १०१०समरिंग १०२७ लाडण, १०३ परिणय. १०४ व १०५ तयण d. वयण. १०६ वच्छरि । १०७b समरसिंघु d. समरसिंह. cb वण. ९b उच्छलिय. १०३ उद्धरियउ. ११७ निच्छद्द जड़ जगि हंस, १२० जिम । जेण. १३६. d आधार. १४b सेवज्जए. १५d ठविय. १६० वाणारिय. १७७ छढ़ोत्तरे, १८० गुरंहि. d 2010_05 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ श्रीजिनोदयसूरि विवाहल सुविहियाचारि१६ विहारु२० करतंउ, वाणारिउ गणि 'सोमप्पहो'२१ । दुविह सिक्खो२२ सुगीयत्थु२३ संजायउ, गच्छ गुरु भार उद्धरण२४ सीहो२५ ॥३२॥ तयणु२६ जिणचंद सुरि' पट्टि, संठाविउ२७, . सिरि२८ 'तरुणप्पह' (आ) यरियराए२६ । 'चउद पनरोतरे'३० 'खंभतित्थे'पुरे, मास 'असाढ़ वदि तेरसीए'॥३३॥ सिरि 'जिणउदयसूरि' गुरुय नामेण, उदयउ भाग सोभाग निधि । विहरए 'गूजर' 'सिंधु' 'मेवाड़ि ,३१पमुह देसेसु रोपइ३२ सुविधि ॥३४॥ ॥घात॥ नामु३३ निम्मिउ नामु निम्मिउ, तासु अभिरामु । 'सोमप्पहु' मुणि रयणु३४ सुगुरु, पास सो पढइ अहनिसि । वाणारिउ क्रमि (क्रमि३५ हूयउ, गच्छ भारु३६ धरु३७ जाणि गुण वसि३८ । सिरि 'तरुणप्पह' आयरिए३६ सिरि 'जिणचंदह' पाटि । थापिउ सिरि 'जिणउदय', गुरु४० विहरइ मुनिवर थाटि४१ ॥३५॥ १९b.d सुविहि आधारि, २०b विहार, २१३.cd सोमपहो. २२a सिक्ख. २३b.c सुगियत्य, २४b भारू d भारूद्धरण, २५a.c.d सहो, २६b तयण, २७d संताविउ, २८d सिर, २९b तरुणप्पह आयरिय. d. तरुणप्पहायरिष. राए, ३० पनोतरे ३१d सिन्धु मेवाड़ गूंजर. ३२b रोविधि। ___ ३३६ तासु निमिउ (२) नामु अभिरामु. c तासु नियउ (२) मामु अभिरामु. d भालु निम्मित (२) मामु अभिरामु. ३४b रयण, ३६b.d ३६० भार, ३७d धरि, ३०d वंसि, ३९b आयरिय, ४०d सूरि, ४१b थट्टि 2010_05 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पंच पइट्ठ४२ जिणि४३ सोस तेवीस, चउद साहुणि घण संघवइ रइय । आयरिय उवज्झाय वाणारिय४४ ठविय, मह महत्तरा पमुह पयि४५ ॥३६॥ जेण रंजिय मणा भण४६ पंडिय जणा, वलि बलि धूणिवि४७ नियसिरायं४८ । कटरि गांभीरिमाह कटरि वय धीरिमा, _ कटरि लावन्न सोहग्ग जायं ॥३७॥ कटरि गुण संचियं५० कटरि इंदिय जयं, कटरि संवेग निव्वेय रंगं । बापु देसण कला बापु मइ निम्मला, बापु लीला कसायाण भंग ॥३८॥ तस्स५१ एह५२ गुण गणं ओम तारायणं, कहिउ किम सकाउं५३ एक जीह । पारु न५४ पामए सारया देवया, सहस मुहि भणई जइ रत्ति५५ दीह ।।३।। ॥ घात ॥ अह अणुचमि अह अणुकमि, पत्तु विहरंतु । सिरि ‘पट्टणि' सूरिवरो, पवर सीसु जाणेवि नियमणि । 'बत्तीसइ भदवइ५६.पढ़म, पक्खि इकारसी' दिणि ।। ४२३ एइछ । पहा, ४३b. 1.जिण, ४४b वाणारिय, ४६b पय d पह, ४६) भणय, ४७॥ धूणिविमिय, ४८a.cd सिराई ४९b-ci गम्भीरिमा. ५०३ .c सश, d सम्भव, ५१ तास ५२६ पहc d पहु ५३b सकए ५४३ पार ५५३. रति b राति १६b cd भद्दवए . 2010_05 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोदयसूरि विवाहलउ ३६६ सिर 'लोगहियायरि' यर५७ अप्पिय५८ निय पय५६ सिख्म६० । . संपत्तउ सुरलोयि६१ पहु, बोहेवा सुर वखा६२ ॥४०॥ धन्न६३ सो वासरो पुन्न भर भासुरो, साजि६४ वेला सही अमिय ६५वेला । जत्थ निय सुहगुरु भाव कप्पतरू, भत्ति गाइज्जए हरिस हेला६६ ॥४१॥ सहलु६७ मणुयत्तणं ताण लोयाण, लहइ ते सुक्ख संपत्ति भूरि । सुद्ध६८ मण संठियं थूभ६६ पड़िभट्ठियं, जेय झायंति 'जिणउदयसूरि' ॥४२।। एहु सिरि 'जिणउदयसूरि' निय सामिणो, __ कहिउ मंइ चरिउ७० अइ मंद७१ बुद्धि । अम्ह सो दिक्ख गुरु देउ सुपसन्नउ, ७२६सण नाण४चारित सुद्धि ॥४३।। एहु गुरु राय वीवाहलउ जे पढइ, जे सुणइ७३ जे थुणइ जे दियति । उभय लोगेवि ते लहई७४ मणवंछियं, "मेरुनंदन"७५ गणि इम भणंति ॥४४॥ ॥ इति श्री जिनोदय सुरि गच्छनायक बीवाहलउ समाप्त ।। ५७b लोगह आयरिय d लोग आपरिय ५८b आपिय ५९b निर्यानय d नियमय ६०bc b सिक्ख ६१b सुरलोय d सुरलोड ६२b c d लक्ख ६३a d धनु ६४b साज ६५ad वेल ६६३ हेल ६७b सहल d सुहल ६८d सुहमणि सढियं ६९d एति ७०d वरिउ ७१b इप ७२० देसण ७३ जे गुणइ जे सुगंति cd जे गुणइ जे सुण जे हियंति (d देयन्ति) ७४ लहय ७५b मेरुनन्दण । 2010_05 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ॥श्रीजयसागरोपाध्याय प्रशस्तिः॥ संवत् १५११ वर्षे श्री जिनराजसूरि पट्टालङ्कारे श्रीमजिनभद्र सूरि-पट्टालङ्कार राज्ये ॥ श्री उज्जयन्त शिखरे, लक्ष्मीतिलकाभिधो वर विहारः । 'नरपाल' संघपतिना, यदादि कारयितुमारेभे ॥ १ ॥ दर्शयति तदाचाम्बा, श्रीदेवी देवतां जन समक्षम् । - अतिशय कल्पतरूणा, 'जयसागर' वाचकेन्द्राणाम् ।। २॥ 'सेरीषकाभिधाने', प्रामे श्री पार्श्वनाथ जिन भवने । श्री शेषः प्रत्यक्षो येषां पद्मावती सहितः ।। ३ ।। श्री 'मेदपाट' देशे, 'नागइह' नामके शुभ निवेशे । - नवखण्ड पार्श्व चैत्ये, सन्तुष्टा शारदा येषाम् ॥४॥ तेषां श्री 'जिन कुशल सूरि' प्रमुख, सुप्रसन्न देवतानाम् पूर्व देशवर्ति 'राजद्रह' नगरोद्दण्ड विहारादि । स्थानोत्तर दिग्वर्ति नगरकोटादि' स्थान पश्चिम दिग्वत्र्ति वलपाटक 'नागद्रहा'-दिषु । राज सभा समक्षं निर्जित पूर्व भट्टाद्यनेक वादि स्तंबेरमाणां। विरचित 'सन्देह दोलावली वृत्ति' लघु 'पृथ्वीचन्द्र चरित्र' 'पंच पर्वी' ग्रन्थ रत्नावली प्रमुख मेहा वृषभनाथ स्तवः श्री 'जिन वल्लभ सूरि' कृत 'भावारिवारण स्तव वृत्ति' ।संस्कृत प्राकृत बन्ध स्तवन सहस्त्राणाम् स्थापितानेक संघपतीनां कवित्व कला निर्जित सुर गुरूणां पाठितानेक शिष्य वर्गाणाम् इत्यादि 2010_05 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकीतिरत्नसूरि फागु ४०१ ॥ श्री कीर्तिरत्नसूरि फागु॥ न०-१ ( त्रुटक) खिणि वाजिब घुम घुमइ ए, गयणंगण गाजइ। छल छल छपल कंसाल ताल, महुरा-रवि वाजइ ।। २८॥ भास-आवइ कामिणो गहगहिय, गावइ मङ्गल चार । खेला खेलइ अमिय रसि. हरिषिउ संघ अपार ।। २६ ॥ अहे क्रमि क्रमि आगम वेद छन्द, नाटक गण लक्षण । पश्च वरिस विजा विचार, भणि हुअ वियक्खण ॥ पण्डिय मुणि तिणि गुरि पसाउ, करि "कीरतिराउ । वाणारी (स) पदि थापिउ, ए सो पयड़ पभाउ ॥ ३० ।। नयर 'महेवई' हेव तेम, जिणमह" सूरिन्द । उबझाया राय थापिउ ए, 'कीत्तिराय' मुणिन्द ॥ घरि घरि उच्छव बहुय रंगि, कामिणि जण गावई । 'हरषि' 'देवल' देवि ताम, मनि हरषि (म) न मावई ॥ ३१ ॥ धारइ अङ्ग इग्यार सार, सुविचार रसाल । टालइ दोष कषाय जाय (ल?), उवसम-सिरि माल ॥ जिण शासन जे अवर, बहुय सिद्धन्त प्रसिद्धि। ते जाणइ सवि भेय बेय, वपु दे पिग बुद्धि ॥ ३२ ॥ 2010_05 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह wimmawwarnawwwmarwarmer ॥ भास ॥ 'सिन्धु' देश 'पूरव' पमुह, बहु विह देस विहार । करइ सुगुरु देसण हरस, वरिसइ सुह फल कार ।। ३३ ।। अहे ऋमि क्रमि 'जेसलमेरु' नयरि, पहुंतउ विहरन्तउ । "कित्तिराय' उवझाय चन्द, तव तेउ फुरन्तउ ।। सिरि 'जिणभद्रसूरि' मुणिय, पात्र आचारिज कीधउ । मोटइ उलटि 'कित्तिरयणसूरि', नाम प्रसिद्धउ ।। ३४ ॥ सो सिरि 'कीरतिरयण सूरि' भवियण पड़िबोहइ । लबधिवन्त महिमानिवास, जिण शासनि सोहइ ।। खरतर गच्छि सुरतरुह जेम, वंछिय दाणेसर । __ वादिय मयंगल माण तिमिर, भर नाण दिणेसर ।। ३५ ।। एरिस सुहगुरु तणउ नाम, नितु मनिहि धरीजइ । तिमि तिम नव निहि सयल सिद्धि, बहु बुद्धि लहीजइ ।। ए फागु उछ रंगि रमइ, जे मास वसन्ते । तिहि मणिनाण पहाण कित्ति, महियल पसरन्ते ॥३६ ॥ ॥ इति श्री कीर्ति रत्नसूरि वराणां फागु समाप्तः । ॥ छः ॥ शुभं भवतु श्री संघस्य ।। छः ।। ॥लिखितं जयध्वज गणिना ।। 439 2010_05 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कीर्तिरत्नसूरि गीतम् ४०३ ॥श्री कीर्तिरत्नसूरि गीतम् ॥ न०-२ नवनिधि चवद रयण आवइ, तसु मन्दिर सम्पति रिति(द्धि?) पावइ । दृझै कामगवी भाव, श्री 'कीतिरत्न सूरि' जे ध्यावै ॥ न । आं० ।। सुरतरु अंगणि सफल फले, सुर-कुंभ सिरोमणी हेली मिलइ । जागती जोति अमृत सघल, दुख दारिद दोहण दूर हलै ॥१ । न० ।। अविहड उल्लट उछव घणा, थिण दविण एवत्थण कामुकणा । 'पसरइ महियल विमल गुणा, चंगइ गुरु ध्यावो भविक जणा ॥रना महिम प्रतीति सुधर लगई, डाइण साइण कबहु न लगे। प्रीति सुं नीति बधइ त्रिजगई, नहु नंदि चलइ तसि पूठि अगई ॥३न।। श्री 'संखवालह' वंस वरइ, 'देपा' सुत 'देवल' दे उयरइ । दीक्षा'वर्द्धनसूरि'गुरई, संजम वासिरि उ(ध?)रियउ धवल धुरई॥४न।। आचारिज करणी वृनणा, जिन भुवन पय?ण पद ठवणा । सीस नांदि मालारुहणा, गुरु पीर न होइ इगरि-सणा ॥ ५ । न० ॥ मूत(ल?) 'महेवइ' थिर ठाणइ, पगला 'अरबुद-गिरि' 'जोधाणे'। पूज करइ जे इकठाणइ, ते सदा सुखी सहुको जाणे ॥ ६ । न०॥ दीप दिवस अतिसइ सोहइ, सुर नाद संगीत भुवण मोहई। झिग मिग दीप कली बोहइ, गुरु जां मलीउ एरकाब व कोहइ॥७न०॥ प्रगट प्रभात्र प्रताप त(प,इ, नर नारि नमी कर जोड़ जपइ । अबलाह सा(सब?)वला धार धपा, श्री खरतरगच्छ प्रभुता सुमपइन। 2010_05 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह दीण हीण दुखिया सरणे, विपुला कमला सथ वर परणइ । असुभ करम आरति हरणइ, जे लोन चतुर सदगुरु चरणे ॥ ६ न० कुंटंब कलत्र सुत मर्यादा, चालइ शुभ कारिज अप्रमादा । भोग संयोग सुजस वादा, करि 'कीर्तिरत्न' सहगुरु दादा ॥१०॥न०॥ भाग सुमाग सुमति संगइ, सुभ देस सुवास वसे रंगइ । पाप संताप न के अंगइ, न्हावो गुरु ध्यान लहरि गंगइ ।। ११ ।नव०॥ चाट उचाट उदेग अरी, ऊप (भूत?) पलीत आनीत बुरी। चावति कूड कलंक मरी, नासे तत्क्षण गुरु नाम करी ।। १२ । न० ॥ भास विलास उल्हास सबहु, आनन्द विनोद प्रमोद लहु । भोगवइ सुर समृद्धि सहु, सुप्रसन्न सुदृष्टि सुगुरु पहु ।।१३ । नव० ।। सुहगुरु थ(स्त?)वणा पढ़इ गुणइ, वाचंता आपण बवण(वयण?)सुणइ । कुशल मंगल तसु फ(पु?)ण्य थुणइ, श्री 'साधुकीरति' पाठक पभणइ॥१४॥ ॥ इति श्री कीतिरत्न सूरि गीतं ॥ न०-३ 'कीतिरत्न सूरि' बंदिये, मूल महेवै थांन । संयमिया सिर सेहरो, 'संखवाल' कुलभाण ॥ १। को० ॥ संवत् 'चवदे उपरै, उगुणपचासै' जास । .. जन्म थयो 'दीपा' धरे, 'देवल दे' उल्हास ।। २ । की० ॥ 'डेल्ह' कुमर हिव नेम ज्युं, मंकी निज घर वास । 'तेस' संयम लियो, श्री जिनवर्द्धन' पास॥३। की। 2010_05 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कीर्त्तिरनसूरि गीतम् 'वाचक पद हिव 'सत्तरे', 'असिये' पाठक सार । आचारज सताणवें 'जेसलमेर' मंझार ॥ ४ । की० ॥ सुर नर किन्नर कामिणी, गुण गावे सुविशाल । 1 साधु गुणे करी सोहता, हार बिचे जिम लाल || ५ | की०|| पगला 'अरबुद गिरि' भला, 'जोधपुरे' जयकार | 'राजनगर ' राजे सदा, थुम सकल सुखकार । ६ । की० ॥ माथे गुरु कर ठवै, ते श्रावक धनवंत । सीस सिद्धान्त सिरोमणी, 'राजसागर' गरजन्त || ७ | की | अणसण लेइ रे भावस्युं, संवत् 'पनर पचीस ' । अमर विमाने अवतर्या, श्री 'कीर्त्तिरत्न सूरीस' || ८ | की० ॥ अमीय भरै भल लोयणे, तं मुझ दे दीदार | पाठक 'ललितकीर्त्ति' कहै, दिन प्रति जय-जयकार ||६|| न०-४ श्री 'कीर्त्तिरत्न सूरिंद' तणी, महिमा बाधइ जग मांहि घणी । धरि ध्यानै धावइ भूमि-धणी, महियल मुनिजन सिर मुगट मणि ॥१॥ तेजै कर जिम दीपई तरणी, सद्गुरु सेवा चिन्ता हरणी । भंडार सुधन सुभर भरणी, कमला विमला कांमित करिणी ॥२॥ अड वडीया संकट उद्धरणी, वरदायक जसु शोभा वरणी । घर पावै नर सुधरि घरणी, प्रेम अधिकइ तरिणी परिणी ||३|| सब दोहरा दूरइ संहरणी, फोटक न हुवइ धरिणी फिरणी । अग (लं?) गी अटवी थांनक डरणी, साचउ तिहां गुरु असरण सरणी ||४|| साहि सरोमणि 'देव' घरे, 'देवल दे' जनम्यो उवरि धरौ । 2010_05 ४०५ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह संवत 'गुणपंचास तरौ', श्री 'संखवाल' कुल सहसकरौ ॥५॥ संवत 'चवदै त्रयसठि' वरसै, 'आसाढ़ इग्यारीस' बहु हरसै। श्री 'जिनवरधन सूरि' गुरु पास, संयम लीधो मन उल्हासैं ।।६।। 'सितरई' वाचक पद गुरु पायउ, 'असीयइ' उवझायक पद आयउ । 'सताणूयई" वरस दीयउ, आचारिज श्री 'जिनभद्र' कीयो ॥७॥ 'लखई' 'केल्हई तिहां मन लाइ, 'जेसलगिर' पुर तिहां किण जाई । 'मा(हो)घ सुकल दसमी' आइ, महोछव करि पदवी दिवराइ ।।८।। 'पनरइ पचवीसई' तिण वरसइ, 'आसाढ़ इग्यारस' बहु हरसै । अणसण लीधो मन नै हरसै, सुभगति पांमी सुरवर सरसइ ॥६॥ 'वीरमपुर' बधतें वान, थाप्यो थिर धुंभ भला थांनइ । . महीयल सहु को नइ मन मानइ, जस सोभा जग सगलौ जानै ॥१०॥ सम्रयो सदगुरु सांनिधकारी, सकलाप सजन जन साधारी। नरवर सुर वै) वर नै नरनारी, थंभे आवे जात्रा धारी ।।११।। भूत प्रेत डर भय नावइ, जंजाल सबे दूरई जावई। गणि 'चन्द्रकीर्ति' गुरु गुण गावै, श्री 'कोरतिरत्नसूरि' ध्यावइ ॥१२ ॥ इति गुरु गीतं ॥ 2010_05 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ NA....nrrnhRNAA. . श्रीकी तिरत्नसूरि ( उत्पत्ति ) छन्द कवि सुमतिरंग कृत श्रीकीर्त्तिरत्न सूरि (उत्पत्ति) छन्द न०-५ सुमति करण सारद सुखदाइ, सांनिध कर सेवकां सदाइ। 'कीर्तिरत्न सूरिन्द' कहाइ. उत्पति तास कहण मति आइ ११ 'जालंधर' देसैं सवि जाणे, 'संखवालो' नगरी सुख मांणै । ____ 'कोचर' साह संसार वखाणे, दै दैकार घर खाणे दानें ॥२॥ दोय घर घरणी दौलित दावै, कामणि लघु सुत एक कहावै । 'रोल' रीति सुजस रहावें, पिता प्रेम धरि करि परणावें ॥३॥ आधी रातै 'रोलू' अङ्गण, डस्यो साप कालै जम डंडण। मूवौ जांणिले चाल्या दङ्गण, सन्मुख मिल्या खरतर गच्छ' मंडण ।४। 'जिनेश्वर सूरि' कहै गुण जाणी, विषधर भख्यो लोक सुणि वाणी। खरतर करो जिम ए सही जोवै, कोचर' खरतर हुवो तदीवै ॥५॥ जहर कहर गुणगै करि जावे, सावधान हुआ सहि सुख पावै । आप पगे (रोलू ) घर आवै, खरै राग खरतरा कहावै ।। ६॥ दूहा-तेरै सै तेरोत्तरे,'कोचर' खरतर किद्ध । आदि प्रासाद प्रतिष्ठियो, सूरि जिनेश्वर सिद्ध ।। ७ ॥ 'कोचर' साह 'कोर' वसियौ, सत्तूकार दीयै जस रसीयो । कुलगर (गुरु ?) आय घणे ही कसोयो, खरतर विरुद थकी नवि खसीयो ॥ ८ ॥ 2010_05 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'रोलू' सुत दोय कह्या रसीला, 'आपमल्ल' 'देपमल्ल' असीला । 'देप' घरे 'देवलदे' वाला, चार सुत अनम्यां चौसाला ।।६।। ॥ छन्द मोतियदाम ।। 'लखो' तिम 'भादो केल्हो' साह, 'देल्हो' चोथो गुणे अगाह । 'लखा' नैं लिखमी तूठी लेह, परिया तिण सात तणो वर देह ॥११॥ 'वीसलपुर' वसियो 'लखो' वास, 'जेसाणे' 'भादो' करै विलास। . ___ 'मेहेवै' 'केलो' मोटी मांम, चोथो तिण चारित लीधो आम ॥२॥ चवदै गुण पचासैं' जम्म, धर्यो तिण बालक वय थो धम्म । तेरै वरसै जब हुयो तेह, 'राडद्रह' माग्यो राखण रेह ॥३॥ 'चवदेसे तेस?' चाल्या चूंप, विवाह करण जग राखण रूप । खीमज थल के पास जान, आवी ने उतरी तिण थांन ।।४।। सरली एक खेजड़ी देखी सोर, जुवांने जानी मांड्यो जोर । इण ऊपर बरछी काढे कोय, परणावं पुत्री मेरी तोय ||५|| रजपूतै एकण कहियो आम, 'केले' नै सेवक लीधी ताम । उलाली वरछी नांखी एम, तीर तणी पर काढ़ी तेम ॥६॥ आंतरै तिहां जोर आयो असमान, परलोक गयो ते छूटा प्राण । 'दैलहै' सो देखी मन दिलगीर, नर भव अथिर ज्यु डाभै नीर ।।७।। 'खेमकीरति'वांदै मन (बैठो) खांत,भांगी सहु मन(को)तन की भ्रांत । ___साह सगा सहुनै समझाय, "जिनवर्द्धनसूरि' पासे जाय ॥८॥ दीक्षा तब लीधी 'देल्है आप, पुराणां तोडण पाप सन्ताप । मांमां ते पारख मोटे मन्न, धरा सहु आखै धन हो धन्न ॥६॥ 2010_05 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कीर्त्तिरत्नसूरि (उत्पत्ति ) छन्ड इग्यारह अंग पढ्या इण रीत, गोतम स्वामी ज्यूं वीर वदीत । वारस कीयो गुरु गुरु वार, 'चवदैसैसत्तरे' चित्त विचार ||१०|| 'जेसाणें' खेतरपाल को जोर, उधापी मांड्यो बाहिर ठौर । आचारज क्षेत्रपाले मेल, भट्टारक काव्या गच्छ थी ठेल ||११|| दोहा - 'नाहै' साह निकालने, थाप्यो 'जिनभद्र सूरि' । दोस दियौ को देवता, भावी मिटै न दूर ||१२|| 'पींपलीयो' गच्छ थापीयो, शुभ बेला सुभ वार । 'साहण' साह्रै सतकरी, वादी वाद विचार ||१३|| 'जिनवर्द्धन सूरि' जांण के, शिष्य सदा सुविनीत । आप दिसा आग्रह कियो, गुरु गच्छ राखण रीत || १४ || आधी राते आदि के, वीर कही ए बात । ४०६ आखो गुरुनो अल्प, मास छ मास कहात || १५ || 'महेवे' मैं सांमठी, च्यार करो चौमास । 'जिनभद्रसूरि' बोलाविया, आवो हमारे पास ||१६|| अनुमानें करि अटकल्यो, उदयवंत गच्छ एह । आबि मिल्या आदर सहित, पाठक पदवी देह ||१७|| 'ववदेसे असी' वरस, पाठक पदवी पाय । 'जिनभद्रसूरि' 'जेसलनगर', तेडाव्या तिहां जाय ||१८|| ॥ छन्द सारसी ॥ लखपति 'खो' साह 'केल्हो', 'महेवे' थीं आविया । 'जेसलमेरें' करी वीनती, पूज्य नै विधि वंदिया || 'जिनभद्र सूर' मया करके, 'चवदेसै सताणवें । 'कीर्त्तिरत्नसूरि' आवीय, दीध पदवी तिण हेवे || १ | की० || 2010_05 Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह बहु खरच कीया दान दीया, विविध लखमी वावरी । 'संखवाल' साचा विरुद खाटै, धर्मराग हीये धरी ॥ 'सैत्रुज' संघ कराय साथै, संघ सहुको भ्रम धवै ॥ २ की० ॥ 'संखैसरे' 'गिरनार' 'गोड़ी', देस 'सोरठ' संचरी । चितलाय चैत्यप्रवाडी कीधी, लाहिणां जिहां तिहां करी । घर आय घणा घमंड सेती, संघ पूज करी लवै ॥ ३॥की ० || आचारजां सुं अरज करिने, चतुरमासक राखिया । गोत्रजा कुलगुरु दूर कीधा, भेद आगम भाखिया । समझावीया सिद्धांत सुवचन, वांणि जांणी अमी श्रवै ||४| की 'मालवै' 'थट्टा' 'सिंध' सनमुख, 'संखवाल (चा) ' मत जावजो । पाट भगत हुइज्यो सुगुरु भाख्यो, गच्छ—-फाट में नावजो । दीक्षा न लेज्यो, संघ पद पिण, हलद्र ओषद (ध?) मत खवै | |५| की० || 'कोरटै ' 'जेसलमेर' देहरा, कराविजो गुरु इम भणै । नगर चोहटा थकी जिमणै, पास वसज्यो धन घणै । सीख सात मानै साह सहुको, सुखी हुइ इह परभवै || ६|की ० || पंचास एक शिष्य पंडित, 'कीरतिरतनसूरि'नं । गुरु गुणे गौतम ज़ेम गिणियै, जुगति सुमति जगीसनै । वासक्षेप जेहने सीस उपरि, करै तसु दालिद गमै ||७ की २ || कलस — आऊखा नै अंतपक्ष, अणसण पाली नै, संवत 'पनरपचीस ', मन वैराग वाली नै । 'वैसाख सुदी पंचमी', सुगुरु सुरलोक सिधाहे । अण कीधे उद्योत हुवो, जिनभवनत मांहे । सुखकार सार शृंगार मणि, “सुमतिरंग" सानिध सदा । रखवाल वाल गोपाल कूं, वाट घाट यदा तदा ||८|| 2010_05 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कीर्तिरत्नसूरि गीतम् ४११ .......... न०-६ सोहे गुरु नगर 'महेवे', परचा पूरै नित मेवे । सो० । 'संखवाल' कुले गुरु राजै, 'दोपचन्द' पिता घर छाजै हो ॥ १ सो०।। 'देवल दे' जसु वर माता, जनम्या मुलाख्य विख्याता हो । सो० ॥ 'चत्रदैसय तेसठ वरसै,' 'आषाढ वदी' शुभ दिवसै हो । २ । सो०। 'इग्यारसै', दीक्षा लोधी 'जिनवरधन सूरे' दीधी हो । सो०। तप जप कर करम खपाया, नवि राखी काइ माया हो । ३ । सो०। नामै जसु नावै रोगा, सुख संपत पामे भोगा हो । सो० । 'जिनभद्र सूरि' तेडाया, 'जेसाण नगर' में आव्या हो । ४ । सो ॥ 'चवदसै सताणत्रे' वरसै, सुरि पद दोधो मन हरसै हो । सो०। संवत पनरेसे पचीसे, 'वैशाख पंचम' शुभ दिवसै हो । ५ । सो०। ईसाणे सदगुरु पहुंता, मनमें शुभ ध्यान ज धरता हो । सो०। साइण डाइण वेताला हो, भूत प्रेत न आल जंजाला हो ६ । सो सद्गुरु गुण पार न पावै, मुनिजन वर भावना भावै हो । सो०। 'जयकीति' सदा गुण वोले, सदगुरु गुण कोइ न तोले हो । ७ । सो न०-७ 'कीति रतन' सुरीन्दा, वंदै नरनारी ना वृन्दा हो ।सदगुरु महिरकरो। महिर करो गुरु मेरा, हुतो चरण न छोड़ तेरा हो । स० । १ । नगर 'महेवे' राजे, सेवतां सब दुख भाजै हो। स०।२। वंछित पूरण दाता, नित करिजो संपति साता हो। ३। स० । नव नव देसमें सोहे, पूरै परचा जन मोहे हो । ४ । स० । 2010_05 | Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह चौरादिक भय वारे, सेवक ना कारिज सारे हो । स०।५। बंध्या पुत्र समापै, निरधनीयां धन सब आपै हो । ६ स । अलगा थी यात्री आवे, देखतां चरण सुहावै हो । स०१७। इम अनेक गुणधारी, प्रतिबोध्या नर ने नारी हो ।८।स। "अढ़ारेसे गुणयासी', 'अषाढ़ दसम' परकासो हो । स०। । गांम 'गडालय' थाप्या, सेवक ना संकट काप्या हो ११०स। तासु प्रसाद करायो, देसां मैं सुजस सवायो हो । स० । ११ । 'जयकीरति' गुण गावै, मन वंछित पद पावै हो ।स०।१२। न०-८ सदगुरु चरण नमो चितलाय, जिण भेटयां दुख दालिद जाय । आज करो रे उछाह सदगुरु चरण कमल आगै । आ । नगर 'महेवै' 'दीपमल्ल' साह, 'देवलदे' घरणी जनम्यां सुनाह ।आ। संवत् 'चवदे गुणपचास', 'डेल' नाम दियो शुभ जास । आ० । यौवन वय आव्यो तिण वार, कीनी सगाई हर्ष अपार । आ२ जान सजाय करी रे तैयार, चलतां आव्या 'राडद्रह' वार । आ० । तिहां इक खीमस्थल सुविशाल, जां बिच सोहे समीय रसाल । ३ । तिण ही ठामें उतरी जान, रंग रली कीना सन्मान । आ० । किणे इक ठाकुर बाह्यो बोल, इण पर बरछी काढे तोल । आ० । ४ । देवं पुत्री तिणे परणाय, ऐसो वचन सुण्यो चितलाय । आ० । 'केल्है' रो सेवक उठ्यो तांम, काढी वरछी छूटा प्राण । आ० ।५। डेल्है' दीठौ ए विरतंत, सदगुरु वचने भागी भ्रन्त । आ० । 'तेसठे' शुभ संयम लीद्ध, श्री 'जिनवरधन सूरे' दीध । आ० ६। 2010_05 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कीर्तिरत्नसूरि गीतम् ४१२ नेम तणी परे छोडो रिद्ध, जगमें सुजस हुवो परसिद्ध । आ० । इग्यारे अंग हुया जाण, तेजै करी प्रतपे जिम भांण । आ०१७ ॥ गौतम स्वामी ज्युं करय विहार, प्रतिबोधे सहु नर ने नार । आ० । सिंघे तेडाव्या 'जेसलमेर', सदगुरु आया सुर नर घेर । आ० । ८ । "सताणवे' सूरि पदवी जास, श्री 'जिनभद्रे' दीधो वास । मा०। तप जप तीरथ उग्र विहार, करतां आव्या 'महेवे' वार । आ० ।।। सिंघ सकल पेसारो कीन, गुएँ पिण सखरी देशना दीन । आ० । संवत् 'पनरेसे पचवीस', वदी बैशाख पंचमि शुभ दीस । आ०।१०।। अणसण कर पहुंतां सुरलोक, नर नारी सब देवे धोक । आ० । गुरु परचा जग सगलै पूर, दुखिया आपे सुख भरपूर । आ० । ११ ।। विरुद कहता नावै पार, इण कलि में सुरगुरु अवतार । आ० । नगर 'महेवे' मलगो थान, ठाम ठाम दीपे परधान । आ० । १२ । 'कीर्तिरतनसूरी' गुरुराय, महिर करो ज्यु संपति थाय । आ० । 'अठारेसे गुण्यासीये' वास, 'दि वैशाख दसमी' परगास आ०११३॥ रच्यो प्रासाद 'गड़ालय' मांहि, दोय थान सोहे दोनूं बांहि । आ० । सुगुरु चरण थाप्या घणे प्रेम, सुजस उपायो 'कांतिरतन' एम आ०१४ भलै दिहाडो उग्यो आज, भेटया सदगुरु सार्या काज । आ० । 'अभैविलासरी विनती एह, नित प्रति करजो आनंद अछेह ।आ०।१५. वधारो कुल वेल, महिर मेघमाला मंडै । _ वित्त वादल विस्तार, दुख दालिद विहंडे । दोलत कर दामिनी, सुवाय संचारी। गुण गरजारव करे भरे, सरवर नरनारी। बाल सुगाल तत्काल कर, संखवाल घर घर सही । 'कोतिरत्नसूरि' कीजीये, गरथ अरथ गुण गहगही ॥१॥ 2010_05 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री जिनलाभ सूरि विहारानुक्रम (सं० १८१५ से सं० १८३३) ॥दोहा॥ गच्छ नायक लायक गुणे, सागर जेम गम्भीर । निज करणी कर निरमला, जाण गंगा नीर ॥११॥ तपसी तालावर तणे, गच्छपति किसी गरज। आसंगायत आपणा, इण परि करै अरज ॥२॥ 'पांच बरस रहिया प्रथम, दिन दिन वधतै डाण। गच्छ नायक 'जिनलाभ' गुरु, बड़ बखती 'बीकाण' ॥३॥ ५वाण १चन्द्र ८बसु १शशि' वरस, सरस भलौ श्रीकार । शुभ वेला 'वीकाण' सु, वारु कियौ विहार ||४|| सधन घरे समझू सकल, घण श्रावक जसु वास । गुणवंतौ 'गारब शहर', तिहां कीधौ चौमास ॥५।। आठ मास तिहां थी उठे, वंदावी थल देश। _ 'जेसाणै' गुरु जाय नै, परगट कियौ प्रवेश ।।६।। च्यार वरस लगि चाहतूं, नित नित नवल नेह । ___ बड़ वखती श्रावक जिके, जतने राखै जेह ॥७॥ तिहां तीरथ छै 'लौद्रवौ', जूनौ जगहि वदीत । तिहां प्रभु पारस परसिया, सहसफणा शुभ रीत ।।८।। सीख करे तिहां थी सुमन, पुलिया पच्छिम देस । सुख विहार आया सुगुरु, प्रणमेवा पासेस ।।६।। 2010_05 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनलाभसूरि विहारानुक्रम ४१५ विधि सुं गौड़ी-राय नै, वांदी कियौ विहार। गच्छपति चलि आया गुढे, चौमासौ चित धार ।।१०।। रहि चौमासौ रंग सुं, विहलौ करै विहार । माती धरा महेवची, वंदावी तिण वार ।।११।। नगर 'महेवै' आय नै, नमिवा नाकौड़ौ पास । जाये कीध 'जलोल' में, चित चोखै चौमास ॥१२॥ मिगसरमें वलि मलपिया, गज ज्यूं श्री गुरुराज । आवै 'आबू' अरचिया, जगनायक जिनराज ।।१३।। जस खाटै दाटै पिशुन, उर दुयणां पर दीध ।। __'बीलाई बहु रंग सुं,चतुर चौमासौ कीध ॥१४॥ "खेजड़लै' नै 'खारिये', रहिया वलि 'रोहीठ'। पिशुन किया सहु पाधरा, धरमें होता धीठ ॥१५।। "मंडोवर' महिमा घणी, 'जोधाणे' री जोइ । मुनिपति आया 'मेड़ते', हित सुं तिमरी होइ ।।१६।। च्यार महीना चैन सुं, झाझे जतने जार। 'जैपुर' आया जुगति सुं, सहिर बड़े श्रीकार १७॥ सहिर किनां सागे सरग, इलमें वसियौ आय । वरस थयौ वासर जितौ, वासर घड़ी विहाय ॥१८॥ हठ कीधौ घण हेत सुं, पिण नवि रहिया पूज। मुनि-पति जाय 'मेवाड़ में, वरतायो नामंज ॥१६॥ 'उदयापुर' हुंती अलग, कठिन अठा कोस । 'रिसहेस' नै रंग सुं, नमन कियौ निरदोष ॥२०॥ चलता 'उदयापुर' वले, गहिरा कर गहगाट । वीनति घणै विराजिया, "पालीवालै' पाट ॥२॥ अटकलता आसो अवस, निरख विचै 'नागौर। पिण मन बसियो पूज रै, सहिर भलो 'साचोर' ॥२२॥ 2010_05 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह तिण वरसे 'सूरेत' ना, असपति अवसर देख । तिडावै सहगुरु तुरत, लायक मूंकी लेख ॥२३॥ दया लाभ देखी घणौ, ऊपजतो उण देस । सुमति गुपति संभालता, पुर तिण कीध प्रवेश ॥२४॥ सरस वर जुग श्रावके, करतां नव नव कोड़। सुपरै सेवा साचवी, हित सुं होडा होड़ ॥२५॥ कर राजी श्रावक सकल, जग सगलै जस खाट । _ 'राजनगर' आया रहण, वहता पगवट वाट ॥२६॥ तिहां पिण तालेवर तुरत, उच्छव करै अपार । दोय वरस लगि राति दिन, सेवा कीधी सार ॥२७॥ मन थिर कर साथे थई, श्रावक सहु परिवार । सत्रुजनी सेवा करे, गुरु चढ़िया गिरनार ॥२८॥ उतर तिहां थी आविया, 'वेलाउल' वंदाय । महिमा मोटी 'मांडवी', पूजण सद्गुरु पाय ॥२६॥ कोडी-धज तिण नगर में, लखपति तणा लंगार । सहु श्रावक सुखिया जिहां, वारधि सुं विवहार ॥३०॥ वरस लगै तिहां वायर्यो, धन अगिणत धर्म काज। _ चोखे दिन 'भुज' चालिया, राजी हुए गुरुराज ।।३१।। 'भुज' तणे श्रावक भलो, सेवा कीध सवाय। ___भाग बली जिहां संचरै, थट सगला तिहां थाय ॥३२॥ इण विधि अट्ठारै वरस, दीन (दिन दिन?) नव नव देस । परचिया श्रावक प्रघल, वाणी तणै विशेष ॥३३॥ हिव वहिला विनती सुणी, करिज्यो पूज प्रयाण । 'बीकानेर' वंदाविज्यो, सेवक अपणा जाण ||३४।। 2010_05 Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनराजसूरि गीतम् श्री जिनराजसूरि गीतम् ढाल:-कपुर होवइ अति उजलुंए । गछपति वंदन मनरली रे, गरुओ गुणह गंभीर । 'श्रीजिनराजसूरीसरू' रे, सवि गछ कइ सिरि हीर रे ।। वंदउश्री 'जिनराजसुरींद' । आंकणी। श्री जिनसिंघसूरि' पटोधरू रे, उन्नतिकार महंत । चारित्र चंगई मन रमइ रे, सेवइ भविजन संत रे ।२।। 'जेसलमेर जिनंद नी रे, कीधी प्रतिष्ठा चंग। 'भणसाली' 'थिरू' तिहां रे, धन खरचइ मन रंग रे ।३।वी 'रूपजी' संघवी 'सेजई' रे, आठमउ कीध उद्धार । 'मरुदेवीटुंकई' भलउ रे, चउमुख आदि विहार ।४।०। मोटी मांडी मांडणी रे, देहरा प्रोलि प्राकार । सबल महोछव तिहां सजी रे, प्रतिष्ठा विधि विस्तार रे ।५।०। चित चोखइ सा(ह) 'चांपसी' रे, 'भाणवडई' भल भाव । सुगुरु प्रतिष्ठा तिहां करी रे, जस बोलइ जन आवि रे ।६।। संघपति 'आसकरण' सही रे, ममाणीमइ कीध प्रसाद । विंब महोछव मांडोया रे, 'मेडता' महा जस-वाद रेणवं०। धन 'खरतर' गछि दोपता रे, श्रावक सब गुण जाण । आण मानइ गछराज नी रे, ते जइ जाणे भाण रे ।८।। 'धरमसी' नन्दन दिन दिनइ रे, दीपइ जिम रवि चंद । 'हरषवलभ' वाचक कहइ रे, आपइ परमाणंद रे हावा 2010_05 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री जिनरतनसूरि गीतम् ढाल:-विलसे ऋद्धि समृद्धि मिली। श्री 'जिनरतनसूरिंद' तणी, महिमा जागइ जग मांहि घणी। जसु सेवा सारइ स्वर्गधणी, मन वंछित पूरण देव मणी ।११ जसु नामइ न डसइ दुष्टफणी, टलि जायइ अरियण जुड्या अणी । अहिनिसि जे ध्यावइ सुगुरु भणी, तसु कीरत वाधइ सहस गुणो ।२। निरमल व्रत सील सदा धारी, षट काया तणौ रक्षाकारी । _ कलियुग मई 'गौतम' अवतारो,गुण गावइ सहु को नरनारी ।। घसि केसर चंदन सुविचारी, फल ढोवइ नेवज सोपारी । विधि जे वंदइ आगारी, ते लच्छि तणा हुवइ भरतारी ।४। जसु जम्म नगर 'सेरूणाण', तिहां वसइ 'तिलोकसी' साहाणं । गोत्रइ अति निरमल लूणीयाणं, तसु घरिणी 'तारादे' विधि जाणं ॥५॥ जसु उयर सरोवर हंसाणं, तिण जायउ पुत्ररतनाणं । सोलह सइ सत्तरि वरसाणं, पुनवंत पुरष दीवाणं ।। चउरासीयइ चारित लीघउ, गुरुमुख उपदेस अमीय पीधउ । सुभकारिज सतरइसइ कीधउ, सहगुरु सइंह थि निज पट दीधउ 19 सतरइसइ इग्यार सही, श्रावण वदि सातमि सुगति लही। पग पूजण आवे जे उमही, गुरु आस्या पूरइ त्यां सबही !८ 'उग्रसेनपुरई' सदगुरु राजइ, जसु धुंभ तणी महिमा छाजइ । _ 'खरतर' श्री संघ सदा गाजइ, गुरु ध्यानइ दुखदोहग भाजइ हा श्री 'जिनराजसूरीस' तणउ, पाटोधर श्री 'जिनरतन' भणउ । महियल मई सुजस प्रताप घणउ, प्रहसमि ऊठी नित नाम थुणउ ।१० एहवा सदगुरु नइ जे ध्यावइ, चित चिंता तास सवे जावइ । दिन-दिन चढती दउलति पावइ, 'जिनचंद' सगुरुना गुण गावइ ।११॥ इति श्री जिनरतनसूरि गीतं (संग्रहमें, ६३ प्रति नं० १३ ) 2010_05 Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दयातिलक गुरु गीतम् ४१६ श्री दयातिलक गुरु गीतम् राग-आसावरी सरद ससी सम सुहगुरु सोहइ, सयल साधु मन मोहइ । देसना वारिद जिम बरसइ, जन मयूर चित हरसइ रे ।। भाव स्युं भवीयण जण पणमउ, 'श्री दयातिलक' रिषराया । दीपंता तपकरि दिणयर जिम, नरवर प्रणमइ पाया रे ।शभा०। नवविध परिग्रह छंडि भली परि, संयम स्यु चितलाया । दोष बयाल निरंतर टालइ, मनमथ आण मनाया रे ।२। भा०। पंच महाव्रत रंगइ पालइ, पंच प्रमाद निवारई । . नितु नितु सील रयण संभालइ, भव सायर थी तारइ रे भा० चरण करण गुण सुहगुरु धारइ, आठ करम कुं वारइ । क्रोध मान मद तजइ मुनीसर, मुनिवर धर्म संभारइ ।४।भा०। "श्री क्षेमराज' पाटइ अति दीपइ, वादि विबुध जन जीपइ । वांणो श्रवणि सुहाणी छाजइ, खरतर गछि गुरु राजइ रे ।५।भा०। “वाल्हादे' उरि मानसरोवर, रायहंस अवयरिया । 'वच्छा' कुल मंडण ए सुहगुरु,गुण गण रयणे भरिया रे ।६।भा०। पूरव मुनि नी रीति भली परि, आगम करिय विचारइ । जाणि करी सूधीपरिए गुरु, गुण गरुआना धारइ रे भा०। इति श्री गुरु गीतं । (पत्र १ संग्रहमें) ... 2010_05 Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वा० पदमहेम गीतम् - -*--- ढाल:-विलसइ ऋद्धि समृद्धि मिली, ए ढालः । 'पदमहेम' बाचक वैदइ, ते भवियण दिन-दिन चिरनंदइ । सुरतरु सम वडि गुरु कहियइ, जसु नामइ मन वंछित लहियइ ११५० 'गोलवछा' वंसइ छाजइ, खरतर गछि सुरमणि जिम राजइ। आगम अरथ तणा जाण, पालइ जिणवर केरी आण राप० लघुवय जे संयम लीणउ, उपसम रस मधुकर जिम पीणउ । सुमति गुपति सहजइ पालइ,वलि दोष बयालिस नितु टालइ ३५० चरण करण सत्तरि सार, वलि धरइ महाव्रत ना भार । ध्यान विनय सिझाय करइ, इम असुभ करम मल दूरि हरइ ।४।१० (श्री) जिन वचनइ अनुसारइ, देसन करि भवियण नर तारइ । निरमल शोल रयण पालइ, पूरव मुनि मारग उजवालइ ।५।१०। युगप्रधान 'जिणचंद, गुरू, विहरइ महियलि महिमा पवरू । धन ते जिण सय-हथि दिख्या, सीखावी वलि संयम सिख्या ६०प०। धन 'चोलग' जसु कुलि आयड, धन धन 'चांगादे' जिण जायउ । 'तिलककमल' गुरु धन्न जयउ,जसु पाटइ दिनकर जिम उदयउ ७प०॥ व्रत सईतीस बरिस जोगइ, विहरी दिन दिन वधतइ जोगइ । ससि रस काय ससि वरिसइ,आया 'वालसीसर' चित हरिसइ।८।१०। अन्त समय जाणि नाणइ,बलि करि आराधन सुह झाणइ । पहर छ अणशण पाली, माया ममता दूरइ टाली ।।प। 2010_05 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ वा० पदमहेम गीतम् पंच परमेष्टि तणइ ध्यानइ, विरुई गति मिगली करि कांनइ । अम्मावसि भादव मासइ, मध्यानइ पहुतासुर वासइ ।१०।१०। भाव भगति गुरु पय पूनइ, तसु आस्या रंग रली पूजइ । पुत्र कलत्र धन परिवार, गुरु नामई दिन दिन जयकार १०प०। उदय सदा उन्नति कीजइ, परतिख दरसन भगतां दीजइ । महियलि महिमा विस्तारउ, सेवकनइ साहिब संभारउ ।१२।१०। चित्त तणी चिंता चूरउ, सुख सम्पत्ति मन चितित पूरउ । "सेवकसुन्दर' इम बोलइ, तुझ सेवा सुरतरु सम तोलइ ।१३।१०। इति श्री पदमहेम गणि वाचक गीतं, मं. रेखाँ पठनार्थ ॥शुभं भवतु।। चन्द्रकीर्ति कवित । पामीजै परमत्थ अत्थ पिण सयणा पावै, पामी सब सिद्धि ऋद्धि पिण आफे आवे । पामे सोस सकज सखर सुख सेज सजाई, पामे तेज पडूर वलि बल बुद्धि बड़ाई। कहि 'सुमतिरंग' सुण प्राणिया, ग्रहि २ गुरु गुण गाइये, श्री चन्द्रकीति' सदगुरु जिसा, प्रभु इसा कद पाइये ॥१॥ संवत सतरे-सात पोष बदी पडिवा पहली । अणशण लेइ आप, वली उत्तम मति वहिली ॥ नगर 'बिला?' माहि, कांम गुरु अपणो कीधो । ___ गीत गान गावतां, सुगुरु नो अणसण सीधो । शुभ ध्यान ज्ञान समरण करि, सुर सुलोक जइ संचरै। __ वदै 'सुमतिरंग' हियडा विचै, घडी घडी गुरु संभरै ॥२॥ 2010_05 | Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह विमल सिद्धि गुरुणी गीतम् । गुरुणी गुणवंत नमीजइ रे, जिम सुख सम्पति पामीजइ रे। दुख दोहग दूरि गयीजइ रे, परभवि सुर साथि रमीजइ रे ॥१॥ जसु जन्म हूओ 'मुलताणई' रे, प्रतिबूधा पिण तिण ठाणइ रे । महिमा सहु कोइ वखाणइ रे, दुक्कर किरिया सहिनाणइ रे ॥२॥ काकउ कलिमइ अवतारी रे, 'गोपो'लघुवय ब्रह्मचारी रे। तिणरइ प्रतिबोधइ दिख्या रे, मनमांहि धरी हित सिख्या रे ॥३॥ 'विमल सिधि' वड वयरागइ रे, बालक वय ऊपसम जागइ रे । 'लावण्य सिधि' गुरुणी संगइ रे, चारित लीधउ मन रंगइ रे ॥४॥ आगम नइ अरथ विचारइ रे, परवीण चरण गुण धारइ रे । मिथ्या मत दूरि निवारइ रे, कुमती जन नइ पिण डारइ रे ॥५॥ मद मच्छर मुकी माया रे, जिण कीधी निरमल काया रे। तप जप संजम आराधी रे, नरभव निज कारिज साधो रे ॥६॥ अणसण करि धरि सुह झाणइ रे, पहुता परभव 'बीकाणई' रे। पगला अति सुन्दर सोहइ रे, थाप्या धुंभइ मन मोहइ रे ॥७॥ श्री 'ललितकीरति' उवझायई रे, परतिष्ठ्या शुभ वेलाई रे। सुख साता परता पूरइरे, सेवक ना संकट चूरइ रे ॥८॥ धन धन्न पिता जसु माया रे, 'जयतसी' 'जुगतादे' जाया रे । 'माल्हू' वंसय सुविसाला रे, कलिकालइ चन्दनबाला रे ॥९॥ मन शुद्धई श्रावक श्रावी रे, वंदइ गुरुणी नइ आवो रे । तसु मन्दिर दय दयकारा रे, नितु होवइ हरष अपारा रे ॥१०॥ 'विमलसिधि' गुरुणी महीयइ रे, जसु नामइ वंछित लहीयइरे । दिन प्रति पूजइ नर नारी रे, 'विवेकसिद्धि' सुखकारी रे ॥११॥ __इति विमलसिद्धि गुरुणी गीतं ॥ समाप्त। . ( पत्र १ संग्रहमें) 2010_05 Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुणप्रभसूरि प्रबन्ध ४२३ द्वितीय विभागकी अनुपूर्ति। श्री गुणप्रभ सूरि प्रबन्ध दुहा :___ मनधरि सरस्वती स्वामिनी, प्रणमी 'गोयम' पाय । गुण गाइस सहगुरु तणा, चरिय 'प्रबन्ध' उपाय ॥१॥ 'वीर' जिनेसर शासने, पंचम गणि 'सोहम्म' । 'जंबू' अन्तिम केवली, तास पाटे अतिरम्म ॥२॥ तिण अनुक्रमे उद्योतकर, 'श्री उद्योतन सूरि'। 'वर्धमान' वधते गुणे, वन्दो आणंद पूरि ॥३॥ ढाल फागनी :'जिनेश्वर' 'जिनचन्द्र' गुणागर, 'अभय' मुणीन्द । 'जिनवल्भ' 'जिनदत्त', युगोत्तम नमे नरीन्द ॥ 'श्री जिनचन्द्र' 'जिनपत्ति', 'जिनेसर' संभारि, ___'जिनप्रबोध' 'जिनचन्द्र'"कुशल गुरु', हिव सुखकार ॥४॥ श्री जिनपदम' विशारद, सारद करे वखाणि । 'श्री जिन लब्धि' लब्धि गौतम सम, अमृतवाणि ॥ 'श्री जिनचन्द्र' 'जिनेसर', 'जिनशेखर' 'जिनधर्म'। . 'श्री जिनचन्द्र' गणाधिप, प्रगटित आगम मर्म ॥५॥ 'श्री जिनमेरु' सूरीश्वर, सागर जेम गंभीर। संवत पनर बिडतरे, देवगति हुऔ धीर ॥६॥ 2010_05 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ढाल:- अढियानी : तव आचारिज इंद 'श्रीजेसिंह मुणोंद' हिवे विमासियो ए । भट्टारक पद ठामि, 'छाजेडां' कुलि काम, बालक आपिसे ए, गुरुपद थापिस्यांए ॥ ७ ॥ श्रावक जन सुविचार, मिलिया मन्त्री उदार, बालक जोइये ए, परिजण मोहि ( ये )ए । 'ओशवंश' शृङ्गार, 'जूठिल' साख मझार, मन्त्री 'भोदेवरू' ऐ, तसु देदागरूए ॥ ८ ॥ तसु सुत बुद्धि निधान, मन्त्री 'नगराज' प्रधान, सावय जिनवरू ए, धर्मधुरन्धरू ए । 'नगराज' घरिणी नाम, 'नागलदे' अभिराम 'गणपति' साह तणी ए, पुत्रीसहु भणीए ॥ ६ ॥ तसु उरि जिस्या रतन्न, मन्त्री 'वच्छागर' धन्न, कुमर 'भोजागरू' ए, चतुर हां सायरू ए । मन आणी उछाह, जाणी धरमह लाह, संघ आगल रहे ए, 'वछराज' इम कहेए ||१०|| - ढाल:- उलालानी : महाजन सहित खमासमण, 'वछराज' करीय बिमासण, उत्तम महूरत आणी, बतीस लक्षणो जांणी ॥ ११ ॥ 'जयसिंहसूरि' उत्संगे, आप्या आपणे रंगे, 'भोज' भाई तिणवार, हरण्या स्वजन अपार ||१२|| 2010_05 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुणप्रभसूरि प्रबन्ध ४२५ ढालः-धवल एक गाहीनी:संवत पनर पइसठे जांण, शाके चवदे इकत्रीस सम, मिगसर सुदि चउथी गुरुवार, रात्री गत घटीय इग्यार जनम ॥१३॥ . पल इग्यारह ऊपरे तास उतराषाढ ऋष्य योग वृद्धि । कर्क लग्ने गण वर्ग ग्रह योनि, जन्मपत्री तणी इसी सिद्धि ॥१४॥ ढाल:-उलालानी :पनर पंचुहतिरिवर्षे, विहां मन तणे हौं । शुभदिन दीधीय दीख, सीख्या गुरु नी सीख ॥१५॥ दिनदिन बाधए ताम, बीज कलानिधि जाम । क्रमे क्रमे विद्या अभ्यास, करेतसु सुहगुरु पास ॥१६।। सूधो संजम पाले, मयण सुहड मद टाले । रायहंस गति हाले, वयणे अमृत रसाले ॥१७॥ ढाल:-भमरआलीनी:'योधनगर' रलियामणो, तओ भ० राज करे 'गंगेव' । 'राठोड' वंशे सिरि तिलो, तओ भ०, रिद्धि जिसो सुरदेव ॥१८॥ छाजेड गोत्रे वखाणिये, तओभ०, गांगाओत्र 'राजसिंघ' । 'सता', 'पता' नोता गुरु तओ भ०, चोथनी आणि अलंघ ॥१६॥ चाचा देवसूर'नंदनु तओ भमरालो०, सता' पुत्र 'दुल्हण सहजपाल'। ('सहजपाल' सुत गुणनिलो-तो 'मानसिंघ' पृथिवीराज' । 'सुरताण" कसतूर दे तणा तो भ० सारे उत्तम काज । 'सुरताण' सुत तीन भला, तो भ० 'जेत' 'प्रताप' 'चांपसीह' । मात 'लीलादेवी' तणा, तीने सीह अबीह * ) मिली सकुटुम्ब विमासियो तो भमराली०,बीनव्यो'गंग महिपाल ॥२०॥ * किनारेकी नोट। ___ 2010_05 Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह निपुण 'नेतागर' इम कहे तो भ०, सुणज्यो श्री नरनाह । गुरुपद मह मंडियां आ रे ! तो भ० मांगाइ तुम बोलवाह || २१॥ पामी तसु आएस लो, तो भ०, चिहिदिशि मोकली लेख । संघ लोक सहु आवीया तो भ०, याचक वलोय विशेष ||२२|| सप्तक्षेत्र वित वावर्यो तो भ०, आरिम कारिम रीत । कीधी विगति सोहामणी तो भ०, सुहव गावे गीत ||२३|| लगन दिवस जब आवियो तो भ०, 'बडगछि' 'पुण्यप्रभसूरि' । सूरि मन्त्र गुरु आपियो भ०, वाजे मंगल तूर ॥ २४ ॥ 'जिनमेरु सूरि' पाटे जयो तो भ०, 'जिनगुणप्रभुसूरि' नाम । गच्छ नायक पद थापियो तो भ०, दिन-दिन अधिकी मांग ||२५|| संवत् (१५८२) पनर बियासीए तो भ०, फागुण मास सुचंग । धवल चोथ गुरु वासरे तो भ०, थाप्या मन तणे रंग ||२६|| संघ पूज करि हर्ष तो भ०, मागणां दीधा दान । 'गंगराय ' भेटण करे तो भ०, आपे ते बहुमान ||२७|| ढाल: - वाहणरो : (A) संवत् पनर पंच्यासिये ए संघसाथे शत्रुंजे सुरयात्रा करी ए । 'जोध नयरे' श्रापूज भवियण बूझवेरे ||२८|| चउमासा बारह क्रमें ए हुआ अतिशय गणनाथ आकारण ऊमह्याए । बात करे मिली एम, 'जेसलमेरु' मन्त्री घणा ए ॥ २६ ॥ धन धन वत्सर मास, धन धन ते दिनु ए । चरण कमल गुरुराय तणा, जिण दिन भेटसु ए । नामे हुए नव निद्धि, भय सब मेटीसु ए ॥ ३०॥ थासे जनम सुकयत्थ, सुगुरुनी देसणा ए । सुणतां सूत्र विचार, नहीं कीजे मनां ए ॥३१॥ 2010_05 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुणप्रभ सूरि प्रबन्ध 'देवपाल' 'सदारंग', 'जीया' 'वस्ता' वरू ए । 'रायमल्ल' 'श्रीरंग', 'छुटा' 'भोजा' परू ए। इण परे लघु समवाय, साखे लेख आवियो ए। पठवायां 'जण पंच', सुजस तिहां व्यापियो ए ॥३२॥ विधि सुवंदी पाय, सुगुरु ने वीनती ए। करि आपी कर लेख, वदति उलसी छती ए ॥३३॥ मानसरे जिम हंस, पपीहा जलधरु ए। तिम समरे तुम्ह नाम, दंसण सावय हरु ए ॥३४॥ ढाल:-गीता छंदनी:हिवे शुभ दिन रे, गच्छपति गजपति चालता, ... पुर ग्रामो रे वादी गय मद गालता। मरुदेसे रे 'जेसलमेरु' महि मालता, गुरु आया रे, पंच सुमति प्रतिपालता ॥३५॥ पालता पंचाचार अनुपम, धर्म सूधो भासीए । ___ आषाढ़ वदि तेरसी गुरु दिनि, संवत् पनर सत्यासीए । परमट्टि विजय सुवेल वाजिन, गीत गायति श्राविया नर नारि सु मोटे मंडाणे, पोषहशाले आविया ॥३६।। नित नव नव रे, सरस सधा देसण अवे, सेवय जण रे वंछिय आशा पूरवे । राय रांणा रे, तप जप चारित्र गुण स्तवे, गुरु इण परी रे चन्द्र गछ कु सोभवे ॥३०॥ सोभवे पूनिमचन्द परगट, वदन नाशा सुर गिरू । नवखंड नाम प्रसिद्ध सुणिये, तेज दीपे दिणयरू । कलिकाल लब्धि निधान गोयम, जेम महिमा मंदिरू । - मोतीयां थाल भरी वधावे, सूहव रंभा अणु सुदरू ॥३८॥ 2010_05 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ढाल :- संवत् पनरे चउराणुंइ, 'लूणकर्ण' भूपाला रे । । जल अभावे जन सीदता, देखी कराला रे | ३६ | संवत् पनर चउराणु ए, ( भाग्यवंत भूमंडले) गच्छनायक बोलाया रे । कर जोडी ने वीनवे वांदी पूजजीराय (? पाया) रे | सं० ॥४०॥ श्री खरतरगच्छ राजिया, तेरो सुजस अपारू रे । कृपा करो सहु जीव नी, वरसावो जलधारू रे | सं० ॥४१॥ मोटी वात मने मनीं, धर्मलाभ आशीसे रे । उपाश्रये गुरु आवीने, श्रावक तणी जगीसे रे । सं० ॥४२॥ अट्ठम तप मंत्र साधना, आसन तणे प्रकंपे रे । मेघमालि सुर आवीयो, करू काज इम जंपे रे ||४३|| करि घट अंबर छाइयो, वरषि वरिष घन गाजे रे । I तामे चमके बीजली, जगि जस पडहो बाजे रे | सं० ||४४ || सर तलाव द्रह पूरीया, नीर निवाण न माई रे । धर्मवृक्ष वधता हुआ, पापज घास सुकाई रे । सं० ||४५ || भाद्रव सित पडिवा तिथे प्रथम पहुर सर पूर्यो रे । सुहगुरु इण तप जप करी, काल निशाचर चूर्यो रे । सं ॥४६॥ दया धर्म दीपाववा, राय पास मुकाये रे । बंदी वांणिक गुन्हें पड्यो, निगड बंध भंजावे रे | सं० ||४७ || भेरी नफेरी झल्लरी, ढोल दमामा बाजे रे । पंच शब्द जिन परवर्या, गयणि पटोला राजे रे । सं ॥४८॥ रूपवती सूहव नारी, धवल मंगल मिली गावे रे | संखनाद दिशि पूरिने, उपासरे गुरु आवे रे | सं ॥ ४६ ॥ 2010_05 Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुणप्रभ सूरि प्रवन्ध ४२६ ढाल:-अंग दुवालस जांण, आण माने सवे,मुनिवर मोटा गछपती ए। गुरुगुण धरे छत्रीस,खरो क्षमा गुणे, वदन कमल वसे सरसती ए।५०। चारित चंगो देह, मोह महाभड, जे जग गंजण वस कीयओ ए। चो कषाय मद अट्ठ, अंतर अरि दल, खंडी सुजस सदा लीयो ए ५१॥ 'जंबू' जेम सुशील, 'वयर स्वामी' वली, तिण ओपमे कवियण तुले ए। आठ प्रभावक सूरि,जिनशासन क(ह)या,महिमा तमु समजण कलीए।५२ सायण डायण वीर वावन, ऋषिपति, सूरि मंत्र बले साधिया ए। प्रगट्यो सदगति पंथ, रुधिओ दुर्गति राहू साहू, संघ वाधिया ए ।५३। ढाला-कोडी जाप एकासण तप सदा रे, करि इंद्रो वश पंच । सारणारे २ सीस समापी गण मुदा रे ॥५४॥ काल ज्ञान अने आगम बले रे, जाणी जीविय अंत । खांमे रे २ चोरासी लाख प्राणिया रे ॥५५॥ संवत सोलसे पंचावने रे, राध अट्ठमि वदी (सु)र । वारे रे २ आहार त्रय अणसण निय मने रे ॥५६॥ संघ साखि पचखाण इग्यारसे रे, आरुही डभ्रा संथारे । भावे रे २ भरत तणी परिभावना रे ॥५४॥ पूजक निन्दक बिहुपरि सम मने रे, अरिहंत सिद्ध सुसाध । ध्याइरे २ पनर दिवश, जिनधर्म संलेखने रे ।।५८॥ सूत्र अरथ चिंतन चितलाईओ रे, आलोइय पडिकंत । सुहगुरु रे २ कालमास, इम पंचतु ( त्व) पाइयो रे ॥५६॥ 2010_05 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वस्तु:-वरस नेऊ २ मास वलि पंच, पण दिन उपरि तिहां गणिय । सुदि नऊमी वैशाह मासे प्रहवि, हसीय? अमृत घटिय सोमवार। सुरलोक वासे जय २ कार करंति जण, गुण गावे सुर नारि । _ 'श्रीजिनगुणप्रभुसूरि' गुरु, सयल संघ सुहकार ॥६॥ इम गच्छ नायक कला गुणगण रयण रोहण भूधरो। संथार चारों तंगवारण, खंधवास स चोवरो। "श्रीजिनमेरु सूरींद्र' पाटे, 'जिनगुणप्रभु सूरि' गुरो। तसु धवल 'जिनेसर सूरि' जंपे, ऋद्धि-वृद्धि शुभंकरो ॥६१।। , जिनगुणधवास स चोली तमु धवल श्री जिनचन्द्रसूरि गीतम् 'ढाल:-सकल भविक जिन सांभलो रे । 'मरुधर' देशे मंडणो रे, श्रीपुर 'बोकानेर' । 'रूपजी शाह'वसे तिहां रे, धनकर जेम कुबेर धनकर जेम कुबेर रे साचो, 'रूपा दे' तसु घरणी वाचो। जायो पुत्र रतन्न जिण (जा)चो, भवियण लुल लुल चरणे राचो। जी हो 'जिणचंद' जी जी हो , तू जिण सासण सिणगारके । गिरुओ गच्छपती हो तूं तो संवेगी सिरदारके । सेवे सुरपतोजी ।। कल्पवृक्ष जिम वाधतो रे, सरव कला परवीण। बालक वये धर्मनी दिसा, समता रस लवलीण रे । समता रस लवलीण रे जाणी, मात पिता मन उल्लट आणी। गुरुने विहरावे शुभ वाणी, बात एह श्रोसंघ घणी सुहाणी ।२। मतिसागर विहरी करी रे, 'श्री जेसलमेर' गिरि आया । 'वीरजी' ने देखी करी, श्रीपूज्य घणु सुहाया। श्री पूज्य घणु सुहाया रेभाइ, सें हथ चारित्र दे सुखदाइ । 'वीरविजय' ओ नाम सवाइ, आपणी विद्या सयल भणाइ । ४ । 2010_05 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्रसूरि गीतम् ४३१ अवसर जांणी आपियो रे, सहर्ष आपणो पाट । श्रीसंघ 'जेसलमेरु' में रे, कोधो अति गहगाट । कीधो अति गहगाटो रे वंडो, 'श्रीजिणचन्दसूरि' गच्छ चंदो। ___ कुमति ना मत दूरे निकन्दो, मेरुतणी परे निंदो । ५। सोभागी जंबू जिसो रे, रूपे 'वयरकुमार'। शोले थूलभद्र सारिखो रे, लब्धे गोयम अवतारो। लबधे 'गोयम' अवतारो रे ऐसो, दूणकी हे केसौ........ । सूरके आगे खजुओ जेसौ, इण आगे सभ कुमती तैसो ।६। "श्रीजिनेश्वर सूरि' ने रे, पाट प्रगट भाण । 'बाफणा' गोत्र कला निलो, गच्छ 'वेगड़ सुलताण । गच्छ 'वेगड़' सुलताण रे साचो, ओर कुमति कहावे काचो । ... 'महिमसमुद्र' गुरु चरणे राचो, कवियण इम गुरुना गुण वांचो । _नं. २ राग गौडी भावननी 'परम संवेगो परगडो रे, चावो जस चिहुं खंडो रे । चीतारे वडा छत्रपती रे, नाम जपे नवखंडो रे। कहो किम वीसरे, ते गुरु जुगपरधानो रे । 'जिनचन्द सूरिजी' साधु सिरोमणि जाणो रे ।। पंच महाबत पालता रे, करता उग्र विहार । भविक जीव प्रतिवोधता रे, कूड न कपट लिगारो रे ।का। सूधो धरम सुणावता रे, अविरल वाण वखाण । मेघतणी परे गाजतो रे, साचा चतुर सुजाणो रे ।का। सुधा संशय भांजता रे, प्रवचन वचन प्रमाण । कुमति मति कु खंडता रे, धरता नित धर्मध्यानो रे ।का४। शुद्ध प्ररूपक साधुजी रे, हुंता धरम जिहाज । गुणियोंने आश्रय हुंता रे, लेखवता सहु लाजो रे । क ५। 2010_05 Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह nama पंडित ना पालक वडा रे, दोनो तणा आधार । तेहने तुरत तेडाविया रे, कोधो सुकिरतारो रे । क ।। हंस तणी पर हालता रे, पंच सुमति प्रतिपाल । ते गुरु सां सइया नहीं रे, बालतणी परिकालो रे । का चन्द्रगच्छ ना चन्द्रमा रे, गच्छ 'खरतर' सिणगार । __वेगड विरुद धरण वडा रे, जिनशासन जयकारो रे ।क 11 गच्छनायक दोसे घणा रे, पिण कुण तारा सरोख । तारागण सहुए मिली रे, कहो किम सूरि सरीखो रे । क ।। धन 'रूपा दे' मावडी रे, धन 'वाफणानो 'रे' वंश । धन कुल 'भरत' नरोन्दनो रे, जिहां उपना गुरुराय हंसो रे ।क।१०। सुगुरु 'जिनेश्वर सूरिजी' रे, थाप्या जिण निज पाट । ठाम ठाम धर्म दीपव्यो रे, वरताच्या गह गाटो रे ।का११॥ संवत् सतर तिरोतरे रे, भृगु तेरस पोष मास । करे अणशण स्वर्गे गया रे, धर जिन ध्यान उल्हासो रे। का१२॥ 'श्री जिनचद्र सूरोन्द्र' ना रे, गुण गावे नर नार । तिण घरि रंग वधामणा रे 'महिमसमुद्र' जयकारो रे ।क।१३॥ श्री जिनसमुद्रसूरि गीतम् रागः-तोडी:आज सफल अवतार । सखीरी। श्री 'जिनसमुद्र' सूरिश्वरं भेट्यो 'बेगड' गच्छ सिणगार। स०।१। श्री 'ओश वंश' 'श्रोमाल' प्रमुख सहु श्रावकां सिरदार। आदर सहित सुगुरु आप्या, तिण श्री 'सांस 'नगर' मझार ।२। 'श्री श्रीमाल' 'हरराज' को नंदन * जिनचन्द्रसूरि पटधार । 'महिमा हर्ष' कहे चिर प्रतपो, जिन शासन जयकार । ३ । * अन्य गीतमें माताका नाम लखमादे लिखा है। 2010_05 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ம || जगमा समाजिनराया।देशी।विकाशवति प्रवि न्याश्री श्रिवण्यसुविलाश्रारे जगजीवनाजिल राया तोरान्नरामिणारे जगजी र उज्वला युपांम्पातूनुमो मुण्टकेमनमोहरे जगुती जगकोतजापरे जग २. उपअमच्या रितिकोठनिक शेरे जगह सवामणी कृतिनो को दनिकंदौरे जग ३ समताक्षरात्रमवारी मनल जयजयकारीर जगः क्रमवारीमधारी तिकारीऽण्टागर जग६४ प्रतीत नागतिग्पाता मोपविष्णनारे जगह प्रतिदतिमुश विवादेरेज विजगत्रानाजग जाता ज्ञानादिकयुगणनादातारे जः वनभारेनीव दीयेधनीय गुणाधारक खुजगीरे जग ६ वा नंदनवरदाई उमधुनिजरमुखमारे जगजी झोन मारक है व्यापदे जिनदेवरनंदेरे जंगल ३०७ इतिश्रीपार्श्वजिन लिपीकृतंज्ञान रेसा सूरतिविंदरम ॥ ॥ श्ररक्क द मस्तयोगी ज्ञानसारजी - हस्तलिपि ( मूल पत्र हमारे संग्रह में ) 2010_05 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह FOREME जादाजीला माना। ॥ नानी की यह लिक्षिा 2010_05 मस्तयोगी ज्ञानसारजी व वाचक जयकीर्ति जी ( मूल चित्र-श्रोजिन कृपाचन्द्रसूरि ज्ञान भंडार-बीकानेर ) Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीमद् ज्ञानसार अवदात दोहा ॥ वार ॥ ३ ॥ उदैचन्द्र सुत ऊपज्यौ, लीयो विधाता लोच । देवनरायण दाखवं, को अजब गति आलोच ॥ १ ॥ अढारै इकडोतरै, छाक मैल री छांड । मात जीवण दे जनमीया, सांड जात नर सांड || २ || वास जेगले पैंत सुं, दोवां जनम उदार । वरस बार बौली गया, बारौतरै री श्री जिनलाभ सूरिसरू, भट्टारक भूपाल । बीकानेरज बंदोयै, चढ़ती गति चौसाल ॥ ४ ॥ सीस वडाला वडमती, वडभागी वडरीत । रायचन्द राजा ऋषि, प्रगट्यो पुण्य प्रवीत ॥ ५ ॥ तिण पाटै इण कलि तपै, जांण्यौ थो निरहेज | वायै डम्बर वोखरै, तरुण पसारै तेज ॥ ६ ॥ प्रणमें सूरतसिंह पय, मिल्यो जनम से मींत । ज्ञानसार संसार में, आखै लोक अदीत ॥ ७ ॥ सीस सदासुख साहरै, चलि आवै चौराज । श्रवणे तौ में सांभल्यो, आंगर दीठौ आज ॥ ८ ॥ बाबाजी वायक अखै, अखै राठौडौ राज । खरतर गुर सगला अखै, रतन अखै महाराज ॥ ६ ॥ २८ 2010_05 Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ इति ॥ 2010_05 Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन शब्द-कोष अणभिडिउ ३४ सामने नहीं हुआ, भिड़ा नहीं। अकयथ ९५ अकृतार्थ, निष्फल ३९८ अनुक्रम । अखियात २५८ चिरस्थायी | अणुक्कमि अखीणमहाणसि ३० वह शक्ति जिससे अणसरहु ३६७ अनुसरण करो। भिक्षान्न सैकड़ों अणुसरीए ३३९ अनुसरण । अत्थथ ३६८ अर्थ-अर्थ । लोगोंको खिलाने अस्थि ३७८ अस्ति , है। पर भी कम न अनडॉ २५८ अनम्र । हो जब तक कि अन्नलि(गढिउ)३६६ अन्नल राजालानेवाला स्वयं का गढ़ । भोजन न करे । अनिमिष ५५ बराबर, एकटक, अखोड ११५ अखरोट अगडी ३३० नहीं किया हुआ, अनेरिय ३९३ दूसरी । कठोर अभिग्रह । अप्पियउ १६ अर्पित किया, अगंजिउ ३४ अपराजित । दिया । अघोरा ९१ जो घोर (विकट) अबलिय १८ बलहीन । नहीं है। अबुहहु ३६५ अबोध । अज्जवि १ आज भी। अबंझ ५ अबन्ध्य ,सफल । अजुआली ३३१ उज्ज्वल । अभ्याख्यान २७९ मिथ्या कलङ्क। अड ३३ आठ । अभिग्रह ३४९ प्रतिज्ञा । अडगनिया १५७ कानका आभूषण अभिधा २७२ नाम । विशेष । अभिनवेरउ ९५ नया, अभिनव । अडोल ३५९ अटल । अभिहाण १७९ नाम । अढलक दान ३०१ प्रचुर दान ।। | अमग्गउ ३७१ कुमार्ग, मिथ्यात्व अणगार ६२,१६६ घर रहित, मुनि अमलीमान ८९ निर्मल मानवाला ___ 2010_05 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अमारि १०२ अहिंसा। असराल ९० वक्र, जहरीला अमी ४१० अमृत । असिणि १८० अश्विन अमीझरउ १७० अमृत झरनेवाले असिय ३२ अशित, भक्षित अमूलिक ३३७ अनमोल। असिव ५६ अमङ्गल अयरावइ ३२ ऐरावत, हाथी अहिनाण ३४५ अभिज्ञान, अयाण ४० अज्ञान, मूर्ख पहचान, अरगचा ८४ अरगजा निशानी। अरचा १९८ पूजा अहियासने ३२९ वेदते, अनुभवते अररि ३२ अरेरे | अहिठाण अधिष्ठान अर्भक २७१ बालक अंग १८३ जैन शास्त्र अलजयो २९४ मनोरथ अंगोल अलजो ८७ विरहस्मरण, अंबाड़ी ३४७ हाथीकी अंबारी ओर्लेआना (हौदा) अलिअ ८६ अलीक,अप्रिय, अंबाएवि ३० अम्बा देवी बुरा । अलीय १०० अलीक,मिथ्या अवगाहए ६ अवगाहनकरना ३० आयुष्य अवडा १७ अयोध्या | आउखो २५६, ४०९ आयुष्य अवदात १७०,२६९ गुण, चरित्र, | आएसि ३८७ आदेश निर्मल । आकरा १४८ अत्यन्त कठिन अवधारो २९९ स्वीकार करो आखडी ३१६ निषेधात्मक अवयरिउ २२ अवतार लिया प्रतिज्ञा, व्रत अवरोह ३० अन्तःपुर,घेरा आखातीजइ ३५७ अक्षयतृतीया प्रतिबन्ध, आगर ८ १ घर, निवास रोकना। आण,आणा३७०,३७१ आज्ञा अवल ३३ अबला, नारी आणदिणि १ आनन्ददायक(में) अवहरइ १ दूर करता है। आदेशकार १०६ आज्ञाकारी अविहड़ १७८ अटल, अविहत आनुपूरवी १९६ कर्मका एक भेद, असमानो ८४ असमान अनुक्रम आ आउखउ 2010_05 , Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ चक्र चलना कठिन शब्द-कोष ४३७ आपै ९७ देता है इलि २५३,३७३ पृथ्वीपर आम ४०८ इस प्रकार इसडे १९० ऐसे आम्नाय२७३,२८४ परम्परा, सम्प्र-इंटाल ३२९ ईटोंसे दाय। इंदा २८५ इंद्र आम्बिल ११६ तपस्या,(६विगयों का त्यागविशेष) ईति आयरिय ३२७ धान्यादिको २६ आचार्य आरखे हानि पहुंचाने १९० प्रकार वाले चूहादि आरा प्राणी। आराहण ५५ आराधन आरिज १६०,३७६ आर्य ईर्या (मुमति) २६२ विवेकपूर्वक आरुहर १६६ चढ़ा आलंगिउ ३९३ आलिङ्गन आलि २४ व्यर्थ उइखहु ३६५ उपेक्षा करना आलीजा १०८ प्रेमी उकेश ३०७ उपकेश,ओसआलोयण ३४८ आलोचन वाल आवतिया १०४ आ रहे हैं उक्कंठित ३९२ उत्कण्ठितहुआ आवर्त ३०० दोनों हाथ गुरु उखेवे ३३१ खेना के पैरोंपर लगा उग्गमणे २८ उदय होनेपर कर अपने मस्तक उच्छंगि ६८,३१५,३४४ गोद पर लगानेकी उच्छरंग उत्साह, उत्सव उजवालण २९३ उज्ज्वल करना आसन्नसिद्धि २९० निकट मोक्षगामी उज्जोइउ १, ३६६ प्रकाशित किया आसंगायत ४१४ आश्रयवर्ती, उणइ ४९ उसने आधीन उत्तंग ३३५ ऊचा उत्थपिय २९ उखाड़ा उत्सूत्राविधि २६ उत्सूत्रऔरअविधि ३३ एक-एक उथप्पिय ४५ उखाड़ा 2010_05 | Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह एरिस पनल उदेग ४०४ उद्वेग ऊनविउ १४ उमड़ना उद्गता २९२ उदय हुए ऊभविय १८ ऊंचा किया जाना उदघोषणा २८८ घोषणा, ढंढोरा | ऊमाहो २२५ उमंग उत्साह उपदिसि ९४ उपदेशकर, कहकर | एकरस्यु ३०२ एक बार उपधान ८७ तप विशेष ३७ ऐसे उपनले ११ उत्पन्न हुए एषणामुमति २६२ एषणा समिति, उपशम ६२,१३०, निर्दोष आहार ३२०,३२३ शान्ति का ग्रहण । उपसमण ३६७ उपशमन उप्पल २७ उत्पल कमल | ऐरावण २६४ हाथी उबरन ३२ उदुम्बर ओ उभगउ १६२ उद्विग्न हुआ, ओठीडा ३०२ ऊंट सवार उम्मूलिय ३९ उन्मूलित किया | ओलगइ ८४ सेवा करता है उयरइ३३३,४०३,२२ उदरमें ओसउ १५४ औषध उलट १४५ हर्षोत्साह उल्लास ३५२,४०६ प्रसन्नता क उघडझाय२८,५६,५७ १ कृत, किया १३४,१३५, कइयइ १५७ कब २३१,३५५, १ करनेपर ३४०,४०२ उपाध्याय कचकडउ ११४ वस्तु विशेष उवसांग २० उपसर्ग कचोल ३५१ कटोरा उसभ २ ऋषभ कजारंभ ५ कार्यारंभ। उस्सासहि ४० आनन्दित, कटरि ३९८ आश्चर्य और उत्साहित प्रशंसा बोधक उबरा ८७ उमराव अव्यय कटारिआ १८८ गोत्रका नाम ऊगाहउ ५६ ढोकना, चढ़ाना ३६५ कष्ट ऊनधां (थां) २५८ उद्दड कडयड ३६६ कडकडी आवाज कए 2010_05 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन शब्द-कोष ४३६ mewwwam प. कथा कय कणय ३८७ कनक, सोना,गेहूं काप्या ४१२ काटे कणयाचल ३५ कनकाचल, मेरु | कामगवी१२३,२५७ कामधेनु कथीपानइ ५३ वस्त्रविशेष, गुरुके | कामकुंभोपम ८ कामकंभके चलनेके समय पैर समान धरनेके लिये वस्त्र कामित ९५,१२३ इच्छित बिछाया जाता है कारवइ ३८७ कराता है कदाग्रही ३१६ दुराग्रही कार्तस्वर २६४ स्वर्ण ! कप्पड ३५३ कपड़ा कित्ति ३८५ कीति कप्पयरु ४० कल्पतरु,कल्पवृक्ष किन्न १७ कृष्ण कप्पतरो १७ " " किवाणि ३२ कृपाण कप्पम् १ कल्प, कथा किसण १ कृष्ण पक्ष कमला ३५४ लक्ष्मी किंपि ३६७,३७९ किमपि, कुछ २१५ कृतः किया किलिटु ३४० क्लिष्ट कम्मपयडी२६६,२७३कर्म प्रकृति कीलइ ११३ कीली करट ३८ हाथीका गंडस्थल कुग्गह १६ कुग्रह, दुष्ट ग्रह करटि ३८ हाथी ३९१ कुक्षि करतउ ३९७ करता हुआ २८४ मिथ्या कुणंति कल्याणु ३७१ कल्याण १ कहना कुंकउती कवराव ३१० कविराज १७ कंकुम पत्रिका १ काव्य ३११ कोने कव्वट ३ कवित्त, काव्य केदारा १०४ राग विशेष कषाय ३५३ क्रोध, मान, माया केरउ १०४ का लोभ (४ संसार | केसूडा ३५१ केसूके फूल वृद्धि हेतु) कोटीर ३६१ श्रेष्ट, अग्रणी कसबोको १५७ जड़ाऊ, चित्रित । कोड ३११ कौतुक कहर ४०७ मौत कोडि ८७,९९ कोटि कंख ६४ चिन्ता, दुविधा कोडीधज ४१६ करोड़पतिः काउसग्ग ३२९ कायोत्सर्ग कोतिल २९३ कोतल तेज घोड़े कागल १३३ कागज | कंचूअउ १५७ कंचकी कुच्छि कव्व कुंट 2010_05 Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० कंठीर (व) कंपिनइ कंमिण कंसाल क्रमि क्रिया उधार खाटै खांत खान ऐतिहासिक जन काव्य संग्रह खित्तवाल खिसए खिहाला ३८४ सिंह खाभो खिजमति १२ कांपकर कृत्य ३६७ कर्म, ३,१६४ कांसीका वाद्य विशेष ३६९ चलकर, क्रमसे २७७ शुद्ध मार्गका उद्धार खइड खग्ग खटण खपाया खमाया २०९ क्षमा करवाया खमाविनइ ३३० क्षमा करवाकर खरड ३७९ सचा, खरा खरहरय खंति खंति क्खर खम्यो खाटीजइ ख १६३ खङ्ग "" ३५२ ३११ प्राप्त करना ४११ पूरे किए, नाशकिए ३६७ खरतर ३८० ध्यान ३४ क्षांति, तेज २९१ सहन करना १६२ संचय करना, प्राप्त करना ४१०,४१६ स्थापित करना ४०८ ध्यान, क्षांति ५३ मुसलमान सरदार २८४ कमी, त्रुटि २८२ खिदमत सेवा खोरह खेतरपाल खोणि गच्छ गजगाह गजगति गेलि गजघाट गणहरु गय गयणु गरट्ठि गरढी गरीठो गरुयड गलिय गहगहइ refor गहगाट ४ क्षेत्रपाल ३८७ हटना गउड १०६ गौडी रागणी गउ (ड) यड़इ ३७ गिडगिडाना गउरी 2010_05 १५४ खाद्य वस्तु विशेष ३० क्षीर, दुग्ध ४०९ क्षेत्रपाल ३६ क्षोणी, पृथ्वी ग १०४ गौरी २८६ समुदाय १६५ हाथियोंकी घटा १५९ हाथोकी चालके समान चलना १६८ हाथियों का समूह २ गणधर ३३ गज २ गगन ३३ गरिष्ठ, बड़ा ३४३ वृद्धा स्त्री २७० बड़ा १७५ बड़ाभारी ३३ गल गया. ३४० प्रसन्न होना ४०१ होकर "" १६५,१६८, ३०१,३१५ प्रसन्नता सूचक शोर Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहिर गहूंली गंजण गाएस् गासिए गाल्यउ गिडगिडी गिरुआ गुरुपसाये गुली ३ गहरा ३३७, ३३८ गेहूं की ढगली गुरुगीत गूडिय गूडी गोइक गुजरी गुणनिलो ९७, १४७ गुणोंका ४९ गंजनकरनेवाला ३८४ गाऊंगा ३४० घट्ट (हि) घणतूर धरणि "" ८० गलाया बिताया १६४ वाद्यविशेष ३०० बड़ा १०५ रागका नाम गुणनहाण गुदराणी गुपति ११६,१७५,२९७ संयमित १४२ अरज की ४१६ करना २९७ गुरु प्रसादसे १५७ नजर नहीं लगनेके लिये बांधा जाता है कठिन शब्द-कोष आवास ३१ गुणनिधान ३८१ पताका १८, ३१६,, घ ३४ गाय औरआक २९ ठाठ ३८८ बहुतसे बाजे १७ ग्रहिणी घातण घुराया घुरे घोल चउपर्वी चउसठि चउसाल चकरडी चक्करो चमकिय चंग चारण चारित चियवास चूका चूडावयंसु चूनडी चो चोल चोवा छछेद ४४१ 2010_05 ३०१ डालना ३०३ बजाये ३३८ बजे १५६ कपड़े से छाना हुआ दही च १४३ ४ पर्व तिथी १८० चौसठ १०० चौसाल, चतुः शाला चारों ओर १५८ चकरी ३८९ चक्रधर, चक्रवर्ती राजा ३८८ चमका ३७७ अच्छा १६५ जाति १६३ चारित्र ४५ चैत्यवास १६३ भृष्ट होना विचलित होना २१] चूडावतंश ३३३ वस्त्र विशेष २५८ का १५८,१८० मजीठ ८४ सुगंधित पदार्थ विशेष छ १८३ आगम ६छेद सूत्र Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जिणिंदु जीपद जईसू जेत्र ३७७ छटा, छांटा जालवइए ११३ जलाना छपदा ३५२ षट्पद्, छप्पय जालवीजइ ३९३ सुरक्षित छयल १५०,३५० रसिक रखना संभाछलियइ ३७९ छलना लना छविह २४ छ प्रकार जाह ३७० जिसके छातिया १०४ छाती,वक्षस्थल जिणवरु ३६६ जिनवर जिगवय २५ जिनपति जइणा २४ यतना ३६६ जिनेश्वर देव जईसर ३१२ यतीश्वर ३५२ जीतता है १६ यतीश जीह २५८ जिह्वा जउख ८२ आनंद, विश्राम जुग पवरु ३ युग प्रवर जगत्र ३१८ जगत जुग पहाण २२ युगप्रधान जगीश ८२,१०७,४१० इच्छा जुगवर २४ युगमेंश्रेष्ठउत्तम जत्थ २४ जहां ९७ जय सूचक जमाडि २८९ जिमाकर जोइणि २ योगिनी जम्पइ १६३, ३३९ कहता है जोडली ३६२ युगल, जोड़ी जम्बुय ३४ गीदड़ जम्मक्खणि ३४ जन्मक्षण ज्ञानावरणी ३२३ कर्मका नाम, २३ जन्म ज्ञानको आजयतसिरो १०५ रागका नाम वरण करनेवालजयपत्त २ जयपत्र झड़हड़ ३६५ गिरना झडना ३६९ जिसका झावों ३३० झांकी,आभास जाइना ३७६ जाह झाझेरडा १२०,३२६ अधिक, विशेष जागरि १५३ जागरण झाडाया (ला) १०० छुड़ाया जान ४१२ बरात झाण १ ध्यान जानउत्र ३८० बरात ३८५ ध्यावो जानह ३८० बरातको झालर ३११ झालर, वस्त्र जामणहि ३१ यामिनी विशेष (रात्रि ) में | झाला ३०२ जाति विशेष जसु झायहु 2010_05 | Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन शब्द-कोष ४४३ झालिहि ३८८ संभलता झीलता ६२ अवगाहन क हक्क,बुक्क १७ वाद्य विशेष रना, नहाना, ढक्कारविण ३६६ ढक्का (वाय) गरकाब होना के रव शब्दसे ३८७ ध्वनि ढणहण ३९४ झरझर झोल ११३ झोली, झोला ढलकती ३३३ धीरे धीरे चलती हुई ट्टियउ २ स्थित ढाल ६० रागकी रीति विशेष २७२ ठण्डा होना ढीक ३४५ गरीब ठवणादिक २८० स्थापनादि ४ ढकडा ३०० पहुंचे, पास निक्षेपाल ३३३ ढेलनो, मयूरी (पय) ठवणुछव२१,२२ पदस्थापनोत्सव ठविउ २ स्थापित किया तक १ तर्क ठविज्जय ३६ स्थापितकिया| ३६८ तत्त्ववान जाता है तत्थ ३९० वहां, तत्र ठलिय २७ स्थापित करके तपला १४१ तपा गच्छीय ठवीया २७७ स्थापित किया तयणु ३९५, ३९६ तब ठिकरि १५४ ठीकरा तयणंतरु १६ तदनंतर तरणि ३६६ सूर्य डमडोलइरे १६० चंचल होना तरतउ १५७ तैरता हुआ डमर ५,१०४ उपद्रव तरंडय ३६७ नौका तलीया ३१६ विस्तृत (झाकझमाल) ३८५ तप डांण २६०,४१४ तेज तसपटे २९२ उसके पाटपर डोकरपणि १६३ वृद्धावस्थामें | तह ३७१ तथा १५७ गिराना तहति १५३ तथेति, ठीक डोहला १५४,१८० दोहद है ऐसा तत्तवंतु डाकडमाल आडम्बर तव डोहइ 2010_05 Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह त थलवट थयउ तित्थु तिय तिसंझ थिवर ३०१ उसके ताणज्यो २८९ पसारना २९५ थली प्रदेश, तिडावे ४१६ बुलाना, मरुस्थल आमंत्रित करना १३३ हुआ ३६९ तीर्थ थाकणे ३५३ ठहराव ३५ त्रिया, स्त्री थाप्या ३३२ स्थापित किया तियस २९ त्रिदश, देव थानकि ३५३ स्थानमें तिलउ १२,२४,२७ तिलक थापण १६५ स्थापण, धरोहर तिलो १९२ " थापना ८९ स्थापना तिघु (त्यु) ३६६ तीव्र, तीर्थ, थाल १७९ बड़ी थाली त्रिसंध्या २२० स्थिवर तिहुअण २,६ त्रिभुवन ३७१ स्तुति करता है तिहुयणि ३८८ त्रिभुवनमें थणइ ३९९,४०० ,, ,, तुंगत्तणि ३३ ऊंचाई थुणवि १ स्तुति करके ३१ रात्रि थणस्सामि २४ स्तुति करूंगा तूठी ४०८ प्रसन्न हुई थुणहि १,३७१ स्तुति करते हैं तूंगीया २३५ पर्वतका नाम थणि ३३ " तूर ३०१ बाजा थंभ ९७,२०७ स्तूप तेगदार १५९ तलवार वाला | थूभ ३२०,४०६ " ३८५ तेज थोक २५७ काम, बात तोरणबार ३१६ द्वार २७६ तडककर २६२ दड़कता है, दळूण ३९१ देखकर दहाड़ता है दमणा १५२ फल विशेष त्रिकरण ९९,२९४ तीन करण दरसणियां ८१ दर्शनी (करना कराना (दर्शन शास्त्री) अनुमोदन) (कमल) दलावल ९ कमल दलकीपंक्ति त्रिवली १६४ तीन बलय दव २४ द्रव्य वाद्य विशेष दसूट्टण १५६ दसोटण तुंगी तेय त्रटकी बाडूकइ 2010_05 | Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन शब्द-कोष ४४५ दादइ दंगणु ४०७ जलाना | दोंकार १६४ तबलेकीआवाज दसण ३८८ दर्शन दोगंदक १५१ देवताकी जाति दाखवू ३२१ कहूं दोहग्गु ३७१ दौर्भाग्य ३४५ दादेने दोहिला१६३,३२३,३९३ दुष्कर दिक्खा ३९ दीक्षा द्रग २६८ दुर्ग दिणि १ दिन दू(?)यमणि ३३ रुक्मिणी दिवाजउ ६७ शोभा दिवांने १४७ दरबार धखावे २७९ सलगावे,जलावे. दिवायर ७ दिवाकर, सूर्य धनदाण ५१ धन देनेवाला दिवायरु धणुहरु ३६५,३६६ धनुर्धर दीठेली १२ देखी हुई दीदार ३०३,३४८ आंख, दर्शन घम्ममई ३३५ धर्ममति दीवंमि १ दीपक घय २२ ध्वजा यवड दुक्कर ३६६ ध्वजपट ध्वजा दीस ४१३ दिन धवरावह १५७ लडाना, दुक्करकार १६३,१६४ दुष्कर कारक प्यार करना दुग्गय ४० दुर्गति धवल मंगल३६२,३८८ मंगल गायन ४ दुष्टदल धाडि ३७७ डाका दुडवडी १५५ जल्दी धींगड ३१४ मोटे, जबरदस्त ३६७ दुस्तर मजबूत, पुष्ट १६४ दुस्तार धींगा १९३ , १६७ किला, दुर्ग धुयरय ३१ धुतरज: ? १५ दुर्लभ धुरहि ३५ प्रथम आदिमें दुविस्सह ३६७ दुर्विषय धूतारी ३४८ धूर्त स्त्री दुसम २६१ कठिन, बुरा धोक ४१३ साष्टांग प्रणाम दुहेलउ ३७९ दुष्कर देवाणुप्रिय २६५,३२३ देवानांप्रिय नगीनो ३५४ जवाहिरात देशना ११६ व्याख्यान । नन्दी १८३ सूत्र देसण ४९,८९ " नमेवी ३८४ नमस्कार करके दुत्तरि दुतारो दुरंग 2010_05 Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह नयनिमल ३२ नीतिमें निर्मल निद्धड़इ ३६ परास्त करना नयरि १ नगर निब्भंत ३३ निर्धान्त नरभव २४ मनुष्यभव १६ निज नरवय २ नरपति नियुमणि ३६७ अपने मनमें नवगीय २९ नव ग्रैवेयक नियमन ६२ निज मन नव्याण ३२६ निनानवे ९९ नियरू १ निकर, समूह नही १० नहीं निरीहो १३ अनाशक्त नाइसक्या २९४ नहीं आ सके निरुत्तउ ३५ निश्चित नाडय १ नाटक निलउ ६,१७५ निलय, घर नाण १,६,३८५ ज्ञान निलो ३१४, ३१६ " नाणवंत ३६६ ज्ञानी निलवट १८१, २९५ ललाट नाणिहि ४९ ज्ञान रूपी निवड १५५ घनिष्ट नाथणा २५८ नाथ डालना, निवेस १७९ स्थान वशमें करना निष्पन्न २७१ सम्पन्न ८० आवाज निसम्ये २७६ सुनकर नान्हडियउ १६३ छोटा निसाले ३२२ पाठशाला नामा १६६ नाम निसियरु ३३ निशाचर,राक्षस नारिग ३२ नारिंग, मीठा निसुणवि २१ सुनकर नीबू निसुणेवि निकाचिय ३५६ निविड रूपसे । निहतरइ १५६ नोतरना, आमं बन्धन त्रित करना निगोद ३२९ अनन्त जीवोंका नोकर ११८ अच्छा, भला एक साधारण नीगमउ । २४ गमादो शरीर विशेष नीझामता ३३० पार पहुंचाता निग्रंथ २७० परिग्रह रहित नीलवण ३३० लीलोती, निच्चु ३०१ नित्य हरियाली निजणवि ३५,३९ जीता जीवाणो १३० नीचा स्थान निजिणिउ ३१,४९ जीता नेजा ३५३ भाले निटोल ५१,१२० व्यर्थ न्यात ३११ ज्ञाति, जाति नादौ ३९३ " 2010_05 Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्हवरावइ पउम परमपवि पं मह पइसरह पखरिय पचख्या पजूसण पंचआचार पञ्चं गि पञ्च विषय कठिन शब्द कोष पञ्चाणणु पञ्चासम पञ्चुत्तर १५७ नहलाता है प ३६७ पद्म १५ पद्मादेवी ३२ पद्मप्रभ पगला २५७,३३२,४०५पादुका पचखाण ११३,३२६, २ प्रवेशके समय ३२ पाखरना ( प्रक्षरितः ) ३५७ प्रत्याख्यान ३३० प्रत्याख्यान किया ३५१ पण पर्व ४९ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार, वीर्यार्चार | ३४० पांच अंग ४९ पांच इन्द्रियोंके ५ बिषय ३३ पंचानन, सिंह ३६३ पचासवां २९ पांचअनुतर विमान विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित, ५ सर्वार्थसिद्ध पच्चक्खु पट्टतरु पटोरु पटोला पडखीजई पडह पडाग पडिकमण पडिकार परिवण पडीमा पड़र पणासइ पणासणु पडिपुन्न पडिबिम्ब पडिबोह २,१९,२७, पत्त पतीठी पतीनउ पत्ति पन्तु पद्म १५ प्रत्यक्ष ३६७ उपमा १७६ पट्ट (पद) को धारण करनेवाले ५३ रेशमी वस्त्र ३४९ प्रतीक्षा करना ३,३१८ पटह वाजा २२ पताका १८२,१३३ प्रतिक्रमण ३६६ प्रतिकार ८९ प्रतिपन्न, पूर्ण ४ प्रतिविम्ब ४४७ ३८८, ४०२ प्रतिबोध १० प्रतिरवसे, प्रतिध्वनिसे २८० प्रतिमा ६८,७७,२५९ प्रचुर ! 2010_05 २०,३६२ नाश करता है १६ प्रनाश करने वाला ४ प्राप्त १४१ प्रतिष्ठि १४१ प्रतीति हुइ ३३ बृक्षके पते ३६९,३१२ पहुंचा, प्राप्त किया १५७ पद्म कमल Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ऐतिहासिक जैन काब्य-संग्रह परत परत्र तली पधरावा ३५१ स्थापित क- परणालियां १३० प्रणाली, पररता है नाले पभई ४०४ कहता है ३७६ पड़ती हुई पभणेसो ३१२ कहूंगा परत्थी २४ परस्त्री पमुह १,११८,४०२ प्रमुख, आदि ३६७ परलोकमें पमुहाणं १ पमुखानां पखाली ८१ पखाली, पानी पमोउ २२ प्रमोद भरनेवाला पयड १,२,१५,३१, परषद ७ परिषद ५१,२१५,३६५, परि,पर ४१४,४०८ भांति, तरह ४०१, प्रकट परिकर ३३८ परिवार पयडिय ३१२ प्रकृति परिक्खिवि ३६६ परिषदि पयंडिहि . ३५ पांडित्यसे पग्रिह २७७ धन,वस्तु सञ्चय पयतलि ३७,६३ पदतल, पग परिघल ३४७ खब परिणिति ३३० प्रवृत्ति पयन्ना (दप) १८३ प्रकरण १० परिवर्या २९९,३३६ परिवेष्ठित, पयार ३९१,३९३ प्रकार परिवार सहित पयावि ३६५ प्रतापी, प्रजा | परिहरवि १ छोड़कर । पति परुप्परु ३६७ परस्पर, अ६,३६ प्रकाशित न्योन्य करता है ४१३ भांति पयासणु ३८५ प्रकाशन । पल्योपम २९१ ३५६ कालका प्रमाण करनेवाला विशेष । पल्हभ(?)णु ३६८ पल्हकवि पयासिउ २ प्रकाशित किया कहता है पयंडु ३८५ प्रचण्ड पवज्जति १६४ प्रवर्त्त होते हैं परगडा९७,२९६,३६१ प्रधान, पव(य) द्वरत्ति ३१ रात्रिको प्रतिष्ठा चतुर, कुशल पवतणि ३३९ प्रवर्तिनी १४१ अन्यगछीय (पदविशेष) परघल १०० खूब ३६९ प्रवर पयासह पवर 2010_05 Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन शब्द-कोष ४४४ Paranormourna ANNANA पिक्ख पवरपुरि १ प्रवर नगरी पाडल १५२ पाटल' पवरो २२,३८८ प्रवर पाथरइ ५३ विछाता हैपचय २७ पर्वत पाथ ३५३ पथिक पवित्तिग १ पवित्र होकर | पावरा ४१५ सीधा पसंसिजइ १ प्रशंसा को पांभरी १९५,१९८,३५० वात्रविशेष जाती है पारका ३११ पराया पसाउ (य) ४,१७७ प्रयाद, कृपा । पाव ६ पाप पसायलु ३३९ प्रादसे पावरोर २० भयानक पाप पासद्ध . १ प्रसिद्ध पासु ३६. पाश्वनाथ २७ प्रभु पासेस ४१४ पार्श्वनाथ पहाण २४,४०२ प्रधान ३६५ देखो! पहिल २७८ पहला पिक्वहि १ प्रभु पिक्विवि ३६७ देखकर पहुत्तउ ४. प्रभूत, पहुंचा पिवणय २२ प्रेक्षगक, दृश्य हुआ पिवेवि ३३ देखना . पहुतगी २१४ प्रवत्तिनो,पद- पिग ४५ भो, पर विशेष | पिम्म ३६५,३६६ प्रेम पहुवा ४ प्रभवति, समर्थ पिम्मु होता है पिउन ४१५ दुष्ट पहुविष्पयर २ पृथिवी प्रसिद्ध पीलीया ३२९ पीले (कोल्हूमें पहूतिय ३९५ पहुंवा पोल दिये) पाखर ११३ पलान, हौदा १ पवित्र करताहै पाखर्यउ १७६ सज किया पुदगल २८८ षद्रव्यों में सेएक पांगरउ ६४,८६,९८, पुराउ १०६ पूर्ण करो १८८,३००,३१४ विहार करना १९ बहुपरिवार १५८ पट्ट. सुन्दर वस्त्र या पुत्र, पतिपाटोघर १६६,२९४ पदधारक, वालो स्त्रिय पदका उद्धारक पुरोसादाणी २६४ पुरुषों में प्रधान, पाडइ ३४७ गिराता है । प्रसिद्ध २६ ____ 2010_05 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह पुहवि पूय पैशुन पैसारे पुलिया. ४१४ चले प्रहफाटी १३३ पौ फटी पुखुक्किउ ३६५ पूर्वकृत प्रहसमि __ ९७ प्रभात समय पुछपां १७७ पुष्प प्ररूपीयो १४८ प्ररूपा, कहा १ पृथ्वी प्राहि ३४३ प्रायः पुठो १४८ पीछे प्रोल ३३६ प्रतोली, दरवाजा ३८७ पूजा पैसारो ४१३ प्रवेश फरहर २९३ फहरानेवाली २७९ निन्दा . पताकायें ३०४ प्रवेश कराया फासूय ३१ फासू , प्राशुक पोसड १५४,१८२ पौषध फडवि ३६ स्पष्ट, व्यक्त, पोलहा ११४ पौषध विशद । पोहोती २९० पहुंचो फेड्या ३५२ नष्ट किये। पौषधशाला ३०४ उपाश्रय फोक १४३,२७७ व्यर्थ पंथीड़ा ३०३ पथिक, यात्री फोफल ६७ नारियल पंकय ४९ पंकज ब पंडिया १ पण्डित बईठ . ३४६ बैठा प्रघल ४१६ खूब बजडाव्या १४६ बजवाये प्रजालियो ३२९ जलाया बड आरू ३२ बड़का फल प्रतई १५६ तरफ बडवखती १४६,४१४ बड़भागी प्रतिबोधीयो १४८ समझाया, बत्रीस १५७ बत्तीस ज्ञान दिया वन्न उला ३५१ बनोला . प्रभावना ३३८ जिस कार्यके बरास ११४ कपूर मिर्मित सुगन्धित द्रव्य द्वारा प्रभाव पड़े ३३० वर्ष प्ररूपणा. २६५ कथन, वक्तव्य बहरखा ३५२ बाहूका गहना प्रवरू २५७ प्रवर भुजबन्ध प्रसन्यो ३२२,२७१ पैदा हुआ बंभ . ३६५ ब्रह्मा,ब्राह्मण प्रह ३२० पौ, प्रभात । बाकुला १२० बाकले बरीस 2010_05 Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाजू बंधन बाटडो Maratest बाबोहा बालाणए बालूडा बाल्हेसर ८६ प्याग बीकाण बया बोटानी बुक 6 बुल्लति बेवि बोहइ बोहयतो बोहिय हो भण्डारउ भत्तिवंतु भमिग भराव्यो ३५२ गहना विशेष ३०३ वाट, प्रतीक्षा, राह, मार्ग १३० पपीहा २१३ पपीहा : कठिन शब्द-कोष भलके भलद्दलीयो भवणिडिय १६७ बोलते हैं वूश ३३७ वर्षा हुई चेकर २९४, ३३४ दोनों हाथ लाडु ३९ बाल्यावस्था में १६६ ( प्यारे) बालक ४१४ बीकानेर १६३ दुलाना, हवा डालना ३७३ वेष्टित हो गया १७ वाद्य विशेष २७२ बिलाड़ा ग्राम ८५ भंडारा ३६८ भक्तिवन्त ३० भ्रमण करके २७४ भराया भवियण हु भलेरीय भवियण १,६७,११६,२६८,४०२ भविकजन, भव्य व्यक्ति २४,३१ 99. ॐ ३९३ भला ३७८ भार्या भज्जा भंभी भाखसो भाट भाण भांभल भाठि का नाम ३८७ दो, दोनो २ बांधना, शिक्षादेना भृंगली ३९२ बोध (ज्ञान) देते हुए भइरवी ७ बोध देकर भेक ३१० बहु, बहुत भ भासुरह ਮਿਲ भेय ३६७ चमकता : १ भिक्षा भुंगल २९३,३३१,३४४ ३५२ वाद्य विशेष भूवलए ३७ पृथिवा में ७५ वाद्य विशेष १०५ भैरवी रागका नाम २८९ मेंढक ४०१ भेद भाजिग भोयण भालिम मइडी ८४०१ ३०३ चमके ३०३ चमका १ भवनमें स्थित 2010_05 १०५ वाद्य विशेष ८१ कैद, अंधेरी कोठरी १६५ जाति विशेष २९८ भानु, सूर्य : ३०४ पागल, भोली १५९ कष्ट, दुख म १६५,३५२ भाजक जाति ३४८ भाजन ; ३९३ भोलापन, अज्ञानता : ३४७ कमरा : ; Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मंडए मउड ३५२ मौड़, मुकुट | महन्वय ५ महाव्रत ३६५ मत | महंमद ११ मुहम्मद मंख ३५२ चित्रपट दिखा- महाणसि ३० महानस कर जीवन-निर्वाह करने | . रसाई वाला एक भिक्षुक जाति महियलि २८ महीतल पर मच्चु. __ ३६७ मृत्यु महिर ४११ महेर, कृपा मढति ३१९ माधीश महिराग मगछि - २ मन वांछित महीयले ९ पृथ्वो तलपर मगयतु ३६९ मनुष्यत्व महुर ३९५ मधुर मगमगा १५. बालकको भाषा महअर ४९ मधुकर मणिमय ९५ शिरोमणि | महूय ३२ मधूक,महुवा मणु २ मन ३९२ मांडना, मणुय २३ मनुज रचना करना मदान्ति ३६ वेदान्ती, | माकंद १५७ इन्द्र! वेदान्त ज्ञाता मागण ३८७ याचक मद्दल १४४ तबला. वाद्य | माणिण ३६६ गर्वसे विशेष | मांडवइ ३५१ मंडपमें मधुमाधवइ १०५ रागिणी मांडो १५७ बनाकर मनभिंतरि २७ मनके भीतर | मादल १६४,३४४ वाद्य विशेष मनरली. ३४६ मनको उग मायंड ___२३ मार्तण्ड, सूर्य __ आनन्दित मनसे मारण १०५ रागका नाम, मयगल ३७ मदाल, हाथी - मरु यसको मयम ३४ मदन मालिया ३४५ महल मयरहरो १६४ समुद्र मालोवम १५ मालोपम मलपिया ४१५ चले मिछन ११,३७ मिथ्यात्व मलइपाउ.. १५० चलता हुआ मितुवि ३७० मित्र भी मल्हार १७७ राग विशेष .. मिथ्यात्वशल्य २८, मिथ्यात्व मल्हारु रूपी शल्य महावइए ३४० व्यय करना | मिसरू ३५५ वस्त्र विशेष 2010_05 Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिठु मिस मुकीयो सुखदलि मुक्या मुगह मुनिंद मुणिवि सुनियग्य मुरंगी मुरमंडले मुंहपत्ति मुंछाला म मूं की मेरउ कठिन शब्द-कोष २७८ मीठा ३६६ मिश्र, युक्त २५९ छोड़ा २९ मोक्ष स्थल २८९ छोड़े ३७० कहता है मोह्यरेयाजी यशनामिक युगवर २, ३८५ मुनींद्र ३६७ कहकर ७ मुनिका पद ९१ मृदुअंगी - स्त्री ८ मरु मंडल ३३७ मुख वस्त्रिका ३४२ मूछोंवाला वीर ३९२ मुझे ४१६ छोड़कर १०४ मेरा ३९५ मिलकर मेलिय मेवड़ा ३२१,६३ दूत मोकलं ३२२ भेजूं मोटिम, मो टेम्म ८५, १८९ गौरव, मोरउ ९८ मेरा मोस मोहण लि -२६१ मृषा १०८ माहनेवालो बेल, मनोहर वेल ३०.२ मोह रहे हैं । थ २६४ यशस्वी १७९ युगमें प्रधान रज्ज रंज वियउ रं जया रच्वंति रणकार रतनागर taraली रमझोल रमिज्जइ रम्म रथणागरा रयणायर रयणाह रलिआतो र लिय रली रह रांक रांधइ र ४५३ 2010_05 ३५ राज्य ३६६ प्रसन्न किया ३६२ "" ३७७ राग करते हैं ३८८ बजता है ३३१ आवाज विशेष २८ रत्नाकर, शाह का नाम १८० रनोंकोअवली (समूह) १५५ हर्षोल्लास २४ रमण करना २४ रम्य ३२४ रत्नाकर ९ ग्नाकर २३ ग्ल १४७ आनन्द ३३, ३८८ उमंग ११६, ४१२ उमंग, इच्छा, हर्ष रलियावणिय ३०७ सुन्दर, मनोह रलियामणउ ३,३३२, ३३६ सुन्दर, रमणीय ६७, ३९५ रथ २७१ गरीब ३४३ गंधना, पकाना Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४. रायस्स रिक्षा रुडी रुणऊणइ रुद्धि रुलिय रूड़ी रूड रुव अ ख्वय रुविण रुसण ऋषिमती रेलो रेहिणी: रोल ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह लेख ३१ राजाके १६६ रक्षा २६३, २८४ अच्छी ४९ मंडराते हैं | लाइक २८६ ऋद्धि, धन ३७ रुला, पड़ गया, ३६६ रूप ३७९ सुन्दर, अच्छा १६५ ३४३ २६३ अच्छा ९, ३६६ रूप "" "" अच्छी ३६६ रूपक ३६५ रुपसे १५७ रोसकर १४१ तपोंका उप नाम १३१ प्रवाह ३९० रोहिणी ४०७ नाम ल ३६८ लक्षणोंके ज्ञाता १५७ लक्षण १५९ लक्षण्वन्त लक्खfor लखण लखणवन्तो लकि २९, ३६१ लक्ष्मी लद्विवर लबधिवन्त ३० उत्तम लब्धि ४०२ लब्ध ( शक्ति लाखपसाव लाsast २७० प्यारा लाडो ३०४ स्वामी लाहिण ६४,६८,११६,४१० लभ निका लिगार लिह व (च) क्कु वखतवन्त वछ वछरि बडउ वत्थु वदत लुललुल ३०२, ३६५ झुक झुककर लू छणा ३६३ न्यौछावर ? लेखइ ३८७ हिसाब ' लोह २ लोग लोकणरओ १०४ लोकोंका लोह न वद्ध ए वधारो ३५२ बड़े बांसपर खेल करनेवाली नटजाति ३०४ लायक ३०३ एक दानविशेष वनभृङ्ग वनियां वन्निज्जइ २५९ थोड़ा, किञ्चित १४० लिया विशेष ) सम्पन्न लवण्ड १५४ लेवड़े, दीवालकी पपड़ी 2010_05 1 व २ चक्र, १९० भागवान ३२३ पुत्र २१,२९,३९६ वत्सर, वर्ष ९२ लोभ नहीं ३५९ बड़ा ३५ वस्तु ९८, ४४ प्रसिद्ध मंडल ३९१ वृद्धिं पाता है ३५८ वृद्ध करो ९४ वनका भ्रमर १५७ आभूषण विशेष ३५ वर्णन किया जाता है । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... . कठिन-शब्द कोष वरतइ १६८ वर्तमान, चल वाणारिस १७ बनारिस, वाचक रही हो | वाणारी(स)४०१ वाचनाचार्य वरनोलइ १६५ बनोला घांदवा २६९ वंदना करनेको वरीय ६ वरकर, अडी- वांइस्यां ३०० वंदना करेंगे कार, स्वीकार ३७ वाद करनेवाला चलग्गि २९ अवलम्बनकर, वादाजात | वादीजीत २६६ वादियों को पकड़कर जोतनेवाला वलतु ३४९ प्रत्युत्तरमें, वान ९२,१६६,३५८४०६, शोभा लौटता हुआ वांदवा २६९ बंदना करनेको वलि १७६, ४१५ फिर, लौटकरवाया ३०० वंदना करेंगे वली २५७ फिर वारउपंग १८३ १२ उपांग वले ३०३ फिर (आगमसूत्र) वशाखि (षि)का ३६ वैशेषिक दर्शन | वालीने ४१० लाकर, वसहि ४५ वसती वाव १३० बोना वसीट्ठी १४१ दूर ! वावरह ३४० व्यय करना, वहिरमाण ३१९ विचरने वाले उपयोग करना महादिदेह क्षेत्र वावरियउ ३६७, ४१६ व्यय किया के तीर्थङ्कर वाविय ३३ वापी वहिरउ १८ बहरा हो गया वावं १५४ व्यय करूं वहिला ४१६ जल्दी वास १ आवाप, घर । वहुराव्यो २७२ वहराया,प्रदान विगुआणा २७९ बिगोये गये। किया वहुरिवा ११४ लेनेको,लानेको १ विनोंको वहन्ति विचरेवउ ३७१ चलता है? १६३ विहार करना, वाइ १६ वादी चलना विजावलीय ९ विद्याका समूह वाइक ३१० कथन योग्य! (प्रशंसात्मक विजा १,४०१ विद्या काव्य) विट ३८ भांड वाइमल्ल १४२ माम, वादियों । वित्तिकरु १५ वृत्तिकर्ता .. में मल्ल वित्थरि २७ विस्तारसे विग्यत्त 2010_05 Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह विनडदि ३६५ विडम्बित चक्क ३६. वाय-विशेष करता है वृन्दारक २७१ देवता विनाण ३३ विज्ञान | वे उचिय ३३ विकुना को विन्नागी १४, १६६ विज्ञानी वेगड़ ३१३,३१४ विरुद्ध और विप्फुरइ ५ प्रगद होना, नाम स्फुगयमान वेढ़ ३५५ लड़ाई होना, स्फुटत वेयावच्चसार ११५ वैयावृत्य रूपी होना। सेवा विभूपीय ४ विभषित वेहलि. ३९५ विलम्ब न विमा गइ १६८,३९४ विमर्श करता है करके,शीघ्र विमासे ३२१ सोचकर श विन्हें ३१० दोनों विहोत १९१ विहावाला शाश्वतो ३०० शाश्वत विवहप्परि ३१ विविध प्रकारसे | शीयल ६२ शील विविह २ वि वध ४१० श्रवना, गिरना विवहु . २७ वि वध टपकना, बरमना विवाहल ३३९ विवाह का श्रीकार ४१५ उत्कृष्ट, उत्तम काव्य श्रतज्ञाने २७० श्रत (शास्त्रीय) विश्वानर ८५ वैश्वानर ज्ञानसे विष पद १९० कलह, विरोध विसहर ५६ विषधर | षटकाया १०० छ शरीर, विहलो ४१५ शीघ्र षडावश्यक २७२ सामायका द विहाणु ३७१ प्रभात छ आवश्यक कार्य विहि १ विधि विहिमग्ग ३६ विधिमार्ग विहूणा .८४ रहित वीटी ३५५ वेष्टित किया सइंहथ १४६ अपने हाथसे वीवाहलउ ३९० विगहलो, वह काव्य जिसमें सउन्नउ ३६६ सदा उन्नत किसी विवाह सकर्ड १,३९८ सकना, शक्त का वर्णन हो । सखर १९५ अच्छा श्रवै 2010_05 Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सखरो समवडि | समापै कठिन शब्द-कोष ४५७ ४१३ अच्छी संथारउ २०४,३१६ संस्तारक सखाइ १६० मित्रपना, संथुणिउ ५ संस्तव किया मित्रता, सहा सन्नाणह २८ सदज्ञानसे यक समकित ४९,१३०,२२५,२८० सगलौ ४०६ सारा सग्गहि,सग्गि ४,२६,३६ स्वर्ग में सम्यक्त्व संखेवि समग्ग २१ समग्र .. ५१ संक्षेपसे संघव समगह ३१ श्रमण १३,१८ संघपत संघात १४२ साथमें समरणी १५९ माला सवांण ३०१ बाज? समर्य ५६ याद किया संजम ६ संयम ९४,१३४ समान : ३६८ संयुक्त, सहित समवाय संजुत्तु ५६ समूह संश ४१२ देता है ३९१ सन्ध्या संठविउ ३८७ संस्थापित समिद्धह ३६७ समृद्ध किया समोभ्रम २५९ भ्रम संठाविड ३९५ " समोसरे ३३८ समवसरे,पधारे संठित १ संस्थित सम्मुखइ २०४ सामने संठियठ संपत्तु ३८५ पहुंचा संतुट्ठ १ संतुष्ट संपय २५ संप्रति सट्ट वि ३७१ सुष्टु, श्रेष्ट संवेग ११६ संसारसे उदासतर . १५४,१५६ सतरह सीनता. वैराग्या सतरभेदी २७५ , प्रकारकी मोक्षाभिलाषा, ३७० सत्व संवेगी १७७,३२५ सवेगवाले सत्य ३६८ सार्थ, संघ | सयल ६,१३४,३३२,३५८ सकल सदीव . ३२९ हमेशा, सदैव सग्णा २५९ शरण सद्दहणा. ११४ श्रद्धा . सरणाइ ३३१,३५२ वाद्य विशेष सदहे २६.. ६ को सरभरि १४३ बराबरी सहि . . . २ शब्दसे ३९४ स्वर सनूर, सनूरी ६८, ८९ दीप्तमान, | सरे. ३८९ स्वरसे सुरूप, सुन्दर | सलहिउ १३ प्रशंसित . सतु सहि 2010_05 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ऐतिहासिक जन काव्य संग्रह | सिज्झइ सलहियइ ३५,९६,३६८,३८६ प्रशंसा साम्हेले ३३८ सामेला नामक की जाती है • कृत्य, सामने सवट्ठसिद्धि २९ सर्वार्थसिद्ध । सावय १,२२० श्रावक सासण ८९ शासन (अनुत्तरविमानो) साहमीनी १५४ स्वधर्मी बन्थुकी सलूणंड़ा ३९३ सलोने साहम्मिय २३ स्वधार्मिक सवि २७७ सब साहिय ४ साधन किया सव्व ३० सर्व साहुणि ३० साध्वो सव्वरिय ३१ रातमें सिजवाला ६८ पालखी, पाहण ससहरु . ३५ शशधर, चंद्र विशेष सहलउ २३,३७० सुगम ३० सिद्ध होजाना सहसकूट २७४ हजार शिखर- सिझंत ३५ सिद्धांत, सिद्ध वाला मन्दिर होना सहसक्कर १५ सूर्य, १००० सिझाय ११३ वाध्याय किरणवाला सिरतिलौ ५८ सिरमौर सहिए ९८ ठीक, निश्चय, | सिरि ३२ सिरमें हे सखी | सिरीय ६ श्रीको (सं जम रूपी सहियर २९३ सखो सहुनडिया लक्ष्मीको) ४४ सब नष्ट हुए मिय १ शित, शुक्खः । साचवड १३३ सम्हालो | सिंधुया साचवी १०५ सिन्धुराग ४१६ सम्हाली सीखविय १३४ सिखाया साता ४११ कुशल सीझइ १७९ सिद्ध होता है साते ११७ सातों सीलि ३४ शील सानिध ३४० सान्निध्य सीस, सीसि २,१४५ शिष्य साबू . ३४८ साबुन सीह, सीहो १७६,३९७ सिंह सुइ ३६५ श्रुति सामाइक १६१ १८२, सामायिक सुकड ३३१ सुगन्धित द्रव्य सामि ३६९ स्वामी विशेष 2010_05 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ सुहु कठिन शब्द-कोष सुकडि : ११४ घिसा चन्दन सुरंगी ३३३ अच्छे गंगवाली सूखनेपर सुरहम ५१ सुरद्रम-कल्पवृक्ष सुकयत्य ३७१ सफल सुरवर २९ उत्तम देव, इन्द्र सुकलोणी ६७ कुलोन, कोमल गाववाली सुरसाल २६२ उत्तम सुकिय ३३ सुत सुरूव ३९२ सरूप सुजगीश १४६ सुन्दर, इच्छा सलताण ८९ सुलतान सुणय ३९२ नोतिमान्, सुविहिय २४,२८,४९,२६ सु-विहित सदाचारी मुनिछ १ सुनिश्चित! सुहम २ सुधर्मा-स्वामी १८९ स्वप्न सुहिणइ ३५७ स्वप्नमें सुपनाध्याय २७० स्वप्नाध्याय ३७२ सब सुपरपरि .. .१ अच्छी तरह सुंखड़ी १८१ मीठाई सुपवित्तिण २ सुपवित्र सूरयोपभ २९२ सूर्यके समान सुपसंसिय ३१२ स-प्रशंसित सूरिमंतु ३ सूरिमन्त्र सुपसाउ २५७,८९ सु-प्रसाद, सहवि ३४१ सधवा सदनुग्रह सुप्रस ह (द) ३१० शोभन कृपासे सूहव ६७,३१६,१३४ सुभग, सौभासुमति ११६ इर्यासमिती ग्यवती आदि सोगत ३६ सुगत, बौद्ध सुमरिजजंत १ स्मरण किये सोस २६१,२६६ अफसोस, खेद जानेपर सुमरेवि सोहम्माइवहंद ३० सौधर्म देव ३८४ याद करके सुमिगत ३७८ स्वप्न लोकका इन्द्र सुयदेवि ४ श्रुतदेवी सोहामणो १३० सुहावना सुरगवि १४५ कामधेनु सौध ३६ महल, प्रासाद सुरगुरवि . १ वृहस्पतिके स्तुप २९० स्तूप, थूम समान १६५ से 2010_05 Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६०१ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह umman हीला ८१ अवहेला ? इइमयण ३६६ हत मदन हिलियइ ३७० निन्दा करताहै इथलेवउ .. ३९५ पाणिग्रहण हुइगउ ३७५ होगा संस्कार हुंसि ९९ हौंस,अभिलाषा इयांस, हयास ३७० हताश हुसेनी १११ रागका भेद हरि . ९८ सूर्य विशेष हरिस.. ३९९ हर्ष हुंडाअव पप्पणि ३७० हुंडावसर्पिणी, हधालइ १४२ सुपुर्द ___वर्तमान हीन. हारिय: ३३ हार जाना समय हिव ३७२ अब ३७० से, की अपेक्षा हीचइ १५७ हीडे (पर) हेला ३९९ उच्च स्वर हंति 2010_05 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कामोंकी सू की १८४,१९२,१९९.२१६,२२२,२२५ अइमता १८१ २३६,२४१,२४२,२६ ,२७४,२७५ अकार ६१,६२ ६३,६४,६९७०, ३१४,३५१,३५४,३७४,३९८ ७१,५२,७३,७४,८०,८१,०१,९२, अनिरुद्ध १४२ ९४,९५.९७,९९,१००,१२,१०७, अनेकान्त (स्यादुवाद) जयपताका३११ १.८,१००,११,१२२,१२३.१२५, अनुयोगद्वार (सूत्र) १८३ १२६,१२८,१२९,१३,१३०,१३७, अभयकुमार १३०.३९,१५४,१४६१४७,१५९, अनयतिलक ... ३०,३१ १७२,१७९ १८९,२३० अभय वसूरि ११,२०,२४३१,४१,४५ अखपराज __ ३५८,३६० ५९,११९,१७२.१७८ २१६,२२२,२२६ २२७,२२९३१२,३१९,३६६,३८४ अजमेर ४,९,३१९,३४३,३६५,३६६, अभय वलान ४१३ अजाइबदे १८८ अमरमाणिक्य १४४,१४५ अजिनाथ २७,३४१,३८६ अमरसर १८२,१८९ अजितसिंघ अमरपिंह (विजय) : २४८ अजीमगंज अमरनी १३,१९४ अजमोहम २२० अम्बिका ( अम्बा)३०,४६,१६७, अपहिल्लपुर (पाटण)१५,१६,१७,१८,१९ १७०,१७४,२०१,२१६,४०० २६,२७.२९,४४,४७,५८,५९,६,६४ अम्बेर ३०२ ९०,१०१,१०३ ११८,११९,१२०,१३८, अमाइजी २७३ 2010_05 | Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ १७७ ३२१ ४६२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अमीउ (भंडारी) ११ । आणंदविमल अमीचन्द ३६० आदीनाथ (आदिम) १८,२२,४४ अमीझगे १७० अमीपाल १८५,१८८ आदीश्वर(ऋषभदेव) ११०,२६४ अमृतधर्म. २८१,३००,३४१,३४६,३५५,३५६, अयोध्या (अवडा) नगरि १७,५५ ३५८,३६४,४०० अरजन आद्यपक्षीय अवंती सुकमाल आनंद अष्टकटीका २८७ आपमल्ल ५१,४०८ अष्टसहस्त्री आव ( अबुदिगिरि ) ४४,१०१, असरफखान १७४ । १०३,१५४,२१५,३२६,३४३,३६२, अहमदपुर (अहमदनगर) ३६०,३६१ .३६३,४०३,४०५ अहमदाबाद ५९,६०,६४,७८,१४९, आर्यगुप्त २२० १८४,१९२,१९५,१९६,२३५,२४६, | आयधर्म ४१ २७०,२८१,२८२,२८३,२८७,३२०, आयनागहस्ति ४१,२२१ ३२६,३५४ आर्यनंदि ४१,२२१ आर्यमहागिरी ४१२१९ आगमसार २७३ आर्यमंगू ४१,२२० आगरा ५३,८१,९८,१३७,१३८, आर्यरक्षित ४१,२२० १४०,१७४,१९३,१९९,२३६,२४४, आर्यसमुद्र ४१,२२० ४१८ आर्य सहस्ति ४१,२१९,२२८, आचाराङ्ग आणंदराम २८२ | आर्यसंभूति (संभूतिविजय) . आणंदविजय २०९ २०,४१,२१९,२२८ आ १६६ ૨૮૨ 2010_05 Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामोंकी सूची आपकर इ इंद्र आरामण १०१ उदयतिलक २१८ आलम ३३८ | उदयपुर १८८,३०२,३२४,४१५ आवश्यकवृहदवृत्ति २७३ | उदयसिंह ६७ १७४,१८४,१८५, । उयातनसूरि २४,४१,४४,१७८, १८६,१९२,४१७ २१५,२२१,२२५,२२७,२२९३१२, भासथांन ३७३ ३१९,३६६,४२३ उमास्वाति (वाचक) ४१,२२१ ३५७,३६८,३५९, ३६०,३६१,३६२ ऋषभदास १८५,१९४ इलानंद १४० ऋषभदेव देखो आदिनाथः ऋषिमत ८०,११९,१३७, इन्द्रजो ३६० १४१,१४३ इन्द्रदिन्ना २२८ ओ उग्रसेन . ओइस (ओशिया) १८६ उग्रसेनपुर देखो आगरा | ओसवाल (ओसवंश, उकेश ) १६, उञ्चनगर ८८,९७,१९३,१९९ ५१,५५,६०,८७,८९,९३,१३३, उजित ३०,४०० १३९,१९१,१९२,१९३,२०५, उज्जयन्त- देखो गिरनार २३४,२६८,२९७,२९८,३०७, उज्जैण २,३०,३१,३७६ ३२२,३४१,३४५,३५३,४२३ उत्तमदे ५७. अं उत्तराध्ययन १६६,२८९ । अंगदेश उदयकरण १९४ | अंजार उदयचन्द्र ४३३ । अंबड . . 2010_05 | Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ३४७ अब (निरव पूरि (२)का बास्था | कमलसोह वस्याका नान) ३७८,३७९,३८०, कमलहर्ष ३८१ कमीपुर आंबड कयवन्ना करण (दानी) कंचग्मल १९४ करण (उदयपुरके नरेश) १७७,१८८ कचराशाह २८६ करणादे ३०१ २९४,३०७ करमवन्द (भणशाली) ५५ कटारिया (गोत्र) ८२,१८८,१९३ करमद (वछावत) ६०,६१,६६, १३० ६७,७२,७४,७५,७६,८०,९४, कनकधर्म २९९ १००,१०७,१०९,१२५,१२६ कनकविजय ३५३,३५४,३५५,३९७, १२७,१२८,१५०,१५१,१७९ ३५९,३६१ कामवन्द(माउसुखा) , . .२१४ कनसिंह २४३ करमवन्न(कोठार।) ३०१ कन रूपोम ७०,९०,१४०,१४९ करमचन्द (चोग्वेडीया) ३४६,३४७, कनागा ( कन्यानपन ) पुर १४ ३५०,३५१,३५२,३५३ कपूर ३२७ करमसिंह ५३ कपूरवन्द १८५,१९४,३४६,३५४ करमसी १९३,२४०,२४७ करदे करमसो (मुनि) २०४,२०५, कर्म ग्रंथ कम्मरयडो २६६,२७३ कर्माशाह २८१ कमळ (तापप) करुण कमलग्न करुयामती कमलविजय ३४१,३४८,३४९, कल्याण (जेपलमेरके राउल) १८६ ३५१,३६४ | कल्याण (ईडरके राजा) ३५८,३६२ १९३ १८६ 2010_05 Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकमल कल्याणचन्द्र कल्याणधीर कल्याणलाभ कल्याणहर्ष कलिङ्गदेश कविरा कवियण कस्तूरां कसतुरदे कसूर काकंदी कालीदास (कवि ) काशी कास्मीर कान्तिरत्न किरणावली किरहोर कीको कीतिवद्धन कीति विजय विशेष नामों की सूची १०० कील्हूय ५१,५२ कुतुबुद्दीन २०७ कंथुनाथ २०७ कुमुदचन्द्र २४७ कुमारपाल ९४ कुरुदेश १७४ | कुलतिलक २६३,२८२,२८४,२९० कुचरा २७७ कालिकाचार्य (कालककुमर) ३०, कोलाह ४२५. कुशललाभ ६९ कुशलविजय २६४ १३६ ५२ २९१ | कुशलकीर्ति (जिनकुशलसूरि) १७ २४६ | कुशलधीर २०७ २९५ | कुंवरविजय २६४ | कुंभलमेरु ८० केलइड ७४,१२६,१२८,३८४ केसरदे ४१३ | केसो ३११ कोचरशाह कोटखा कोटीवाल २०८,२०९,२४३ कुशला कुशला (शाह) २२ ३३३ | कोठारी कोडा ३५४,३६२ कीर्त्तिविमल १४० कीर्त्तिरत्नसूरि (कीर्त्तिराज) ५१, ५२,२०६,४०१,४०२, ४०३, ४०४, ४०६,४०७,४०९,४१०,४११,४१३ कोडिमरे कोणिक (राजा) कोरटा कोशा (वेश्या) ३२० | कौमुदी महोत्सव ४६५ ३९५ १२,१६ ३२७ २२८. 2010_05 २,७१,२८४,३७६. ५१,५२,४०६,४०८,४१२ ११७ ३६१ ३२५ १८६ ३५४ १८८ ९७ २९८ ३४६,३५४ ५१,४०७ २३६,३४३ १४३ ३०१,३६० १३६ १३६ ६५ ४०७,४१० २१९,२२८ २७३ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह कौरव ३३२ २४२, खजानची ३२९ खेतसी २६० क्षमाकल्याण २९६,३०६,३०७, खेतसी (जिनराजसूरि) १५६,१६० ३०८, ३०९ १६१,१६५ क्षेमकीर्ति ४०८ खेतसीह क्षेमशाखा खेम (वंश) १७१ क्षेत्रपाल खेमलदे १३९,१४५ खेमराज १३४, ४१९ देखोः-क्षेमराज खइपति १३८ खेमहर्ष ३०१ खेमहंस २१७ खरतरगच्छ २,७,९,१३,२४,३६, खंडिल्ल ४१,२२१ ४३,४५,४८,४९,५२,५३,५४,५६, खंधग ३२९ ५८,५९,६१,६२,६४,६८,८२,८९, | खंभात (खंभायत, खंभपुरि) २६, ९३,९६,९९,१०१,१०४,१०७,१०८, ५९,६०,६३,७६,७८,९३,९५,९९, ११०,११२,११३,११८,११९,१२०, १००,१०२,१०६,१०७,११०,११३, १२१,१२४,१२९,१३२,१३४,१३७, १७८,१८४,१९२,१९४,१९९,२३०, १३८,१४०,१४२,१४३,१४४,१४५, २५३,२८१,३२६,३२८,३५६,३७५, १४८,१७०,१७१,१७९,२१५,२२२, '३८६,३८७,३९७ २२५,२२७,२२९,२३१,२९२,३०२, ३१९,३३२,३६६,३६८,३७४,३८६, ४०३, ४०७, ४१७, ४१८, ४२०, गजसिंह १७४ ४२८,४३२ गजसुकुमाल ३२९,१८१ खारीया ४१५ गडालय ४१२,४१३ खांडप १८४ गढमल १४३ खीमड (कुल) २२ गणपति ४२४ खुस्यालचंद्र | गणधर(चोपड़ा)गोनेर ४५,२४६,२४७ खेजड़ले (देखो चोपड़ा) खेडनगर __. ३८०,३८१ / गर्दभिल्ल (गदभिल्ल) ३० खेतसर ८९ / गवरा २०८ ४१५ 2010_05 | Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामोंकी सूची ४६७ wr m ___ १९४ गारब (देसर) शहर ४१४ | गोल (व) छा १८८,१९३,२५६, गांगाओत्र ४२५ .४२० गांधी (गोत्र) ३६० । गोविन्द ४१,२२१ मिरधर गंगदासि १३७, १४३ गिरनार (उज्जयंत)१०१,१०३,१५४, | गंगराय ४२५,४२६ ३२६,३२७,३५६,४१० गंधहस्ति गुजरदे २१० ज्ञानसार ४३३ गुणराजु गुणविजय ३४३,३५६,३५९, घोघा (बन्दरगाह) ३६३,३६४ घोरवाड (गोत्र) गुणविनय ७०,७५,९३,९९,१००, १२५,१७२,२३० घंघाणी १६७,१७४,१७७,१८४,१८६ गुणसेन गुलालचंद चतुर्भुज ३६० गुजरात (गुजर देश) १६,१८,२९, चाइमल्ल १३८,१४२,१४३,१४४ ४४,५८,६२,८०,८१,९२,९४,११८, चाणाइक (नीतिशास्त्र) १५८ १९९,२७३,२८३,२८५,२८६,३२५, चामुण्डा (देवी) १५,३६,४५,२१६, ३२७,३५३,३५५,३९०,३९१,३९७ गुढा (नगर) २९६,२९८,४१४ गेहा | चारित्रनंदन गोडी (पार्श्वनाथ) . ४१० चारित्रविजय गौतम स्वामी (गोइम, गोयम) १५, चितौड (चित्तकोट) १,१५,२५,४६, १६,३०,३५,४०,४८,६७,९६,१००, २१६,३७४ १०९,११०,११९,१२५,१६०,२१८, चुडा (ग्राम) २८५ २२८,३१९,३२१,३६९,३८१,४०९, चत्यवासी २९,४५,२२२ ४१८,४२३ चोथिया गोप | चोपडा (कृकड-गणधर) ७६,८६ गोपो ४२२ १२८,१३२,१८९,१९२, २०४ गोम्मटसार २८७ | चोरवेडिया (गोत्र) २२९ - । चारण २९८ ३४६ 2010_05 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ३२७ . २,७,९,२२९ चोली (जिनसागर सूरि) १८१ छोटास्याला (लघूपाश्रय !) चोलग ४२० (कोठारीखण) चौगसी गच्छ ४३,८१,९२,१०१, १२७ चंद्रकीर्ति ४०६,४२१ जगच्चंद्र सूरि ३६३ चंद्रगच्छ (कुल) १,१६,१८,२१,२७, जगी (श्राविका) २५० ३५,४३,४३२ जयकीर्ति ३३४,४११,४१२ पंदनबाला ४२२ जयचन्द्रजी भं० २४८,३६४ चंद्रवेलि जयचन्द्र (धोलकावासी) २८४,२८५ चंद्रमाण जयतश्री चंद्रसूरि २२८ जयतली ४२२ चंपापुरी जयतारण ६७,१९३ चांगादे जयतिहुअण चांपा (चांपसी)(चोपड़ा) ७६,१२६, जयदेवसूरि १२७,१२८,१२९,१३२ जयध्वजगणि ४०२ चांपशी (संखवाल) ५२ जयमल २३५,२४६ चांपशी . १४४,४१७ जयमाणिक्य (धमडाजी) ३१० चांपसी (छाजेड) ४२५ जयवल्लभ चापसिंह (साबलीके) ३६०,३६१ जयसागर ४३,४०० चांपलदे ७६,१२६,१२७,१२८,१२९, जयसिंह ७,९,३१,३६८ १३२ जयसिंहसरि ४२४ जयसोम ७०,७५,११८,२३० चांपानेर जयानंद जल्ह जलोल! ३१७ छतराज जशोदा ३३० छाजमल जसू छाजहड ३१४,३२८,१३४,४२४ जहांगीर बादशाह-देखो सलेम छुटा ४२६ जागा २२९ १३८ ه سه ३६० 2010_05 | Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामोंकी सूची ४६६ १७ जालपसर १८७ जिनचन्द्रसूरि (४) २५,२६,२८, जालहण ४७,१५८,२१७,२२३,२२६,२२७, जालंधरा (देवी) ७,९,४०७ २३०,३१२,३१५,३२०,३८५,३९७ जालोर (जावालपुर, जालउर) ३, जिनचन्द्रसूरि (५) ४८,१३४,१७८, • २६,६६, १४५,१८४,१९३,१९९, २०७,२१५,२२३,२२६,२२७,२३० ३४३,३५१,३८२ जिनचन्द्रसूरि (६) ५२,५८,६०, जावडशाह ११५ १९,६२,६४,६७,७२,७४,७५,७७, जिनकीर्तिसूरि (खरतर) ३२० ७८,७९,८०,८१,८९,९०,९१,९२, जिनकीर्तिसूरि (सपा) ३३९ ९३,९४,९६,९७,९९,१००,१०१, जिनकुशल सूरि १५,१७,१९,२१, १०२,१०३,१०५,१०६,१०७,१०८, २३,२५,२६,२७,२९,३४,४७,५९, १०९,११३,११५,११८,१११,१२१, ६२,८६,९७,१२१,१४४,१७२,१७३, १२२,१२३,१२५,१२६,१२७,१२८, १७८,२०१,२१७,२२३,२२६,२२७, १२९,१३८,१४४,१४५,१४६,१४७, २३०,२४७,२९२,३१२,३१९,३२१, १४८,१५१,१६६,१६७,१७२,१७८, ३८५,३९२,३९५,३९६,४००,४२३, । १८३,१८९,१९१,२०१,२११,२२३, जिनकृपाचन्द्र सूरि भं० ४८,२६० . २२५,२२६,२२७,२३०,२९३,३३४, ४२० जिनगुणप्रभसूरि ४२६ जिनचन्द्रसरि (७) २४५,२४७, जिनचन्द्रसूरि (१) १५,२०,२४, २४८,२४९,२५०,२५१,२५९,२७०, ३१,४१,४५,१७८,२१६,२२२,२२६, २७२,४१८ (रत्नपट्टे) २२७,२२९,३१२,३१९,३६६,४२३ जिनचन्द्रसूरि (८) २९७,२९८ जिनचन्द्रसूरि(२) २,३,५,६,७, (लाभप?) ९,११,१६,२०,२५,२६,३१,३२,४१, जिनचन्द्र सूरि (वगड शेखरसरिपट्टे) ४६,१७८,२१६,२२३,२२६,२२७, । ३१३,३१६,४२३ २३०,३१२,३१९,३७१,३८४,४२३, जिनचन्द्रसूरि (बर्द्धनपट्टे) ३२० जिनचन्द्रसूरि (३) १५,१६,१७, (पीपलक) १९,२०,२१,२५,२६,३४,४७,१७८, जिनचन्द्रसूरि (हर्षपट्टे) ३२० २१६,२२३,२२६,२२७,२३०,३१२, ! जिनचन्द्रसूरि (सिंहसूरिपट्टे) ३२० ३१९,३८५,४२३ ! जिनचन्द्रसूरि (आद्यपक्षीय) ३३३ 2010_05 Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह जिनचन्द्रसूरि (धर्मपट्टे) ३३७ जिनप्रभसूरि ११,१२,१३,१४, - सागर सुरिसाखा ४२,५३ जिनचन्द्रसूरि [युक्तिपट्टे] ३३८ , जिनभक्तिसूरि २५१,२५२,२९५, जिनचन्द्रसूरि बेगड २] ४:०,४३१, २९६,२९७ ४३२ जिनभद्र (क्षमाश्रमण)४१,२२१,२२९ जिनदत्तसूरि १,२,३,४,५,११,१५, जिनभद्र (जिनभद्द) सूरि २५,२७, २०,२५,३०,३१,४१,४६,५४,६२, ३५,३६,३७,३८,४८,५१,११९, ७४,८६,९७,११४,११९,१७२.१७३ । १४४,१७८,२०७,२१७,२२३,२२९, १७८,१८४,२१६,२२२,२२६,२२७, २३०,४००,४०१,४०२,४०६,४०९, २२९,२९२,३१२,३१९,३२१,३६६, ४११,४१३ ३६७,३६८,३७१,३७५,३८४,४२३ जिनमहेन्द्रसरि ३०३,३०४ जिनदेवसुरि ११,१३,१४,४२ जिनमाणिक्यसरि ५८,७९, ८९, जिनधर्मसूरि (वगड) ३१३,४२३ ९०,९१,९२,९३,९४,९५,९७,१००, जिनधर्मसूरि (सागरसूरि साखा) १०१,१०२,१०८,१०९,१२१,१२३, १९४,१९८,३३५,३३६,३३७, १३६,१७८,२०७,२१७,२२३,२२६, जिनधर्मसूरि (पिप्पलक) ३२१,३२२ २२७,२३० जिनपतिसूरि .२,३,६,७,८,९,१०, जिनमेरुसूरि (वेगड) ४२३,४२६ ११,१६,२०,२५,२६,२७,३१,३२, जिनमेरुसूरि ३३,४१,४६,४७,१७८,२१६,२२३, जिनयुक्तिसरि २२६,२२७,२७०,३१२,३१९,३७१, जिनरक्षित ३६८ ३७२,३८०,३८१,३८४, जिनरतनसूरि २३४,२४१,२४२ जिनपद्मसूरि २०,२२,२३,२५,२६, २४३,२४४,२४५,२४६,२४७,२४८, ३२,३४,३५,४७,१७८,२१७,२२३, २५९,४१७ २२६,२२७,२३०,३१२,३२०,३८५, जिनराजसूरि (१) २५,२७,२८, ४२३ ४७,५०,२१७,२२३,२२६,२२७ जिनप्रबोधसूरि १६,२०,२५,२६, २३०,३२०,४०० २९,३४,४७,१७८,२१६,२२३,२२६, जिनराजसूरि (२) १३३,१६९,१७०, १७१,१७२,१७४,१७५,१७६,१७७, २२७,२३०,३१२,३१९,३८२,३८४, १७८,१७९,१८५,१८८,२०८, ४२३ २३२,२३४, 2010_05 Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN विशेष नामोंकी सूची २३५,२४१,२४२,२४३,२५९,४१७, जिनसिंहसूरि (जिनचन्द्र पट्टे) ७५, ४१८ ७६,८४,८६,१०६,१०९,१२५, जिनलब्धिसूरि २५,२६,३२,३५ १२६,१२७,१२८,१२९,१३०,१३१, ४७,१७८,२१७,२२३,२२६,२२७, .१३२,१३३,१४८,१५१,१५९,१६१, .: २३०,३१२,३२०,३८५,४२३ १६६,१६८,१७०,१७२,१७३,१७४, जिनलाभसूरि २९३,२९४,२९५, । १७६,१७९,१८१,१८३,१८२,१८४, २९६,२९७,२९८,३०७,४१४ १८९,१९१,१९२,२१४,४१७ जिनबल्लभसूरि १,३,४,११,१५,२०, जिनसुन्दरसूरि ३२० २५,३१,४१,४६,१०२,१७५,१७८, जिनमुखसूरि २५०,२५१,२५२ २१६,२२२,२२६,२२७,२२९,३१२, जिनसौभाग्यसूरि ३०१ ३१९,३६६,३६९,३७०,३७१, जिनहर्षसूरि ३००,३०१,३०३,३०४ ३८४,४००,४२३ । निनहर्षसूरि (पिपलक) ३२० जिनवर्द्धनसूरि ५१,३२०,४०३, जिनहर्षसूरि (आद्यपक्षीय) ३३३ ४०४,४०६,४०८,४०९,४११,४१२ जिनहर्ष (कवि) २६१,२६२,२६३ जिनशीलसूरि ३२० जिनईससूरि ५३,५४,५७,१७८,२०७, जिनशेखरसूरि ३१३,४२३ २१७,२२३,२२६,२२७,२३० जिनसमुद्रसूरि (१) १७८,२०७, जिनहितसूरि २१७,२२३,२२६,२२७,२३० जिनेश्वरसूरि (१) ११,१५,२०,२४, (जिनचन्द्रपट्टे) २९,३१,४१,४५,११९,१३८,१७८, जिनसमुद्रसूरि (बेगड़) ३१५, २१६,२२२,२२५,२२९,२२७,३१२, ३१६,३१७,३१८,४३२ ३१९,३६६,४२३ जिनसागरसूरि (जिनराजपट्टे)१३३, जिनेश्वरसूरि (२) २,११,१६,२०, १६९,१७८,१७९,१८५,१८६,१८७, २५,२६,२७,३१,४१,४७,१७८, १८८,१८९,१९०,१९२,१९३,१९४, २१६,२२३,२२६,२२७,२३०,३१२, १९५,१९७,१९९,२००,२०१,२०२, ३१९,३७७,३८१,३८२,३८३,३८४, २०३,३३४,३३६ ४०७ जिनसागरसूरि (पीपलक) ३२० जिनेश्वरसूरि(बेगड़)३१३,३१४,४२३ जिनसिंहसूरि . (') ३२० जिनेश्वरसूरि (बेगड़ नं २) ४३०, जिनसिंहसूरि(लघुखरतर)११,१४,४२ ४३१,४३२ ४२ 2010_05 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह २९४ स ४२४ जिनोदयसूरि २५,२७,२८,३५,३८, ६६,१९९,३०२,३४३,३१५,४०३, ४०,४७,१७८,२१७,२२३,२२६, ४०४,४१५,४२५,४२६ • २२७,२३०,३२०,३८६,३८८,३८९, जोधा ३६२ ३९०,३९७,३९९ जंगलदेस जीया ४२७ जंबद्वीप २६८,१७९ जीवणजी (पति) ३१०,३११ अंबस्वामी १०,२०.४१,४८,१७९, जीवणदे । २१५,२१८,२२८,२९२,३२१,३६३, जीवन ४२३,४२८ जुगतादे ४२२ जुनागढ़ ३२६ झंझण ३१३,३१० जुठिल झाबक.. जेठाशाह २१२,२८५,३६० जेठमल १९४ ४२५ ठाकुरसी (मेहता) जेल्हा ठाणांग जेसलमेर १९३,१९९,२०५,२३१, २३६,२४५,२९४,३४३,३७६,३९६, डाकिणी २३०,३०२,३०७,४०२,४०४,४०६, डीडवाणउ ४०८,४०९,४१०,४११,४१३,४१४, डूंगरसी ४१७,४२६,४२७,४३०,४३१ डोसो (वोहरो) जेसिंगजी ३४२,३५०,३५१,३५३, ३५४,३६१,३६४, (विजयसेनसूरि) जेसो दिल्ली-देखो दिल्ली ३४६,३५३ जेगलावास ढुंढक २८०,२८४,२८५,२८६ जेत २८९ जैपुर जैतशाह ११५ तत्वार्थ (सूत्र) २७३ जीरावलिपाश्र्ध ३४१ | तपागच्छ . १३७,२८२,३४९,३५१, जोगीनाथ ५९,८०, ३५५,३५९,३६३ महातपाः-३५५ जोधपुर (शक्तिपुर, योधनगर) २५७, तर्करहस्यदीपिका ... :३११ 2010_05 | Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामोंकी सूची ४७३ तरुणप्रभसूरि २१,२२,३८६,३९७ ३४० दमयंत १४३ ३०० ९१ २६८ तारादे २३४,२४१,२४२,२४३,२४४ । दयाकलश १३८,१३९ (तेजलदे) ३००,४१८ सारंग १०१,१०२ दयाकुशल १९६ तिमरी दयातिलक ४२० दरगह तिलोकचन्द दरडा . १८८ तिलोकसी ३१५,२३४,२४१,२४२, दशरथ ३४६ दशवकालिक २८९ . २४३,२४४,४१८ तिलंग दशारणभद्र (दसणभद्द) ३२,३३ तिहुअणगिरि द्वारिका ३७३ तुलसीदास दानराज २५५,२५७ तेजपाल १६,१७,१८,१९,३५८,३६०, दारासको २३२ ३६१,३६२,३६३ दिल्ली (दिल्ली) ११,१३,१४,१५ १८८ २२४,३१९,३२७ तेजसी (दोसोजी) २७४,२७६ ___अवशेष देखो योगिनीपुर तेजसो १४१,२३५,२४६ दीपचंद्र (वा.) २८२,२९२ दीपचन्द्र (यति) दोव ३२८ बंबावती-देखो-खंभात दुप्पसहसूरि दुर्षलिकापक्ष (पुष्य) थटा १९३,१९९,४१०, नगर दुर्लभ ११८,१३८,२१५,२२२,२२५, थलबट (देश) २९४ २२९ (दुल्लह) . थानसिंह १८२,३६० ३१९,१५,२९,३६,४४,४५ थाहरू গা थिरह (शाह) ६६ दुल्हण थूला (गोत्र) 'थोमणदे ३२० दूष्यसूरि ४१,२२१ तेजा तोला ३११ २२१ ६६,१८४ wom द्रपदी 2010_05 Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह देदो २८७ ,w m rum ० www देउलपुरी ३३९ देवसुन्दर ३६३ ५५ देवसूरि २२८,४१,४४,२२१,२२९, देपा ५१,४०३,४०४,४०५,४०८, ३६६,४२५ ४११,४१२ । देवानन्द २२९ देल्हउ (डेल्हउ) ५१,४०४,४०८, देवेन्द्रसूरि २२८ ४११,४१२, देशनासार २८७ देल्हणदे दोसी ३२४,३३३,३६२ देराउर २१,२२,२६,४७,९७ दोसीवाडा देवकमल द्यावड़ देवकरण (पारिख) देवकी देवकीर्ति धणराज देवकुलपाटक ३२० धनजी देवचन्द्र २६५,२६७,२६८,२७१, धनबाई २६८,२६९,२७० २७२,२७३,२७४,२७५,२७६,२७७, धनविजय ३५८ २८०,२८१,२८२,२८३,२८४,२८५, धन्ना ५२,३४७ २८६,२८७,२८९,२९० धनादे १९३ देवचन्द (२) २९४,३३२, (१९ वीं) धन्नो २७७ देवजी ११५,३६०,३६२ धरणीधर १५२ देवतिलकोपाध्याय ५५,१६ धरणेन्द्र ४,१५,१८,४४,४५,२१५, देवीदास १४७ ३१४, (श्रीशेष) ४०० देवपाल ४२७ धर्मकलश १५, १९ देवभद्रसूरि १७९, १८८ देवरतन १३६ धर्मनिधान १८९ देवराज धर्ममन्दिर देवलदे ५१,४०१,४०३,४०४,४०५, धर्मविजय ३५८ ४०८,४११,४१२ - धर्मसी ३६०, १५१, १५२, १५४, देवविलास (रास) २६५,२९० १५५, १५६, १६५, १७०, १५६, २९१,२९२ १७७. ४१५ १ धर्मकोति 2010_05 | Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ धोधू विशेष नामोंको सूची ४७५ धर्मसी (धर्मवर्द्धन) २५०, २५२ / नवखण्डापार्श्व ४०० ध्रागंद्रा २८५ नवहर (पार्श्व) ९७ धारलदे १५१, १५२, १५३, १५५, नव्वा १५६, १५७, १७०, १७६, १७७ नवानगर (उतननग्र) २८४ धारलदेवी ३८८, ३९०, ३९५ नाकर धारसी २८५ नाकोडा (पाव) ४१५ धारनगर नागजी धारानगरी ३६८ नागदेव ३०, २१६ धारां (श्राविका) १७१ नागलदे १३७, १४३ नागद्रह ४०० धोलका २८४ नागार्जनसरि ४१, २२१ नागोर ६८, १९९, ४१५ नागोरी सराय २७७ नगरकोट नानिग नगराज ४२४ नायकदे ३४५, ३४६, ३४८, ३४९, नथमल ३५१, ३५२ नथमल (नाथू) ३४५, ३४८, ३४९, नायसागर ३५०, ३५३ नारायण (कृष्ण) नयचक्र २८७, ३११ नाल्हा शाह नयरहस्य ३११ नाहटा नयरंग नाहर (गोत्र) २१२ न्याय कुसुमांजली निलयसुन्दर २५५, २५७ नरपति ६,८,९ नींबड नरपाल नेतसी १३८, १४३ नरपाल (नाहर) | नेतसोह १८८ नरवर्म (राजा-नरवंम) नरसिंहमूरि नेमविजय ३५३ नवइनगर ३५६ नेमि (मु) चन्द (भंडारी) ७, ३७२, नवअंगवृति ३७७, ३७८,३८०, ३८१ m २२९ 2010_05 | Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ नेमिचन्द्रसूरि नेमिदास नेमीदास नेमिनाथ नैयाक नैषधकाव्य पडिहारा पता पनजी पन्नवणा पदममन्दिर नोता ४२५ ( नेतानगर ) नन्दी विजय नन्दीश्वर ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पर्व रलावली पल्ह ४१,४४,२२१,३१२, पयठाणपुर परधरी पर्वत : पर्वतशाह ३६६ १४३, १४४ २३३ १८, ११०, २६४, ३५६ ३६ २७३ ४२६ ३५८ ર प ૬. ४२५ १९४ २१९ ५५, ५६ पहुराज पञ्चनदी पाटण ३९८ देखो -- अणहिलपुर पामदत्त ५३ पाहणपुर ( प्रल्हादनपुर) ७, ९, १०, ६४,६५,१९३,२३५,३९०,३९१,३९२ पाली पालीताणा पावापुरी ६७, ३७४, ४१५ २८४, २८५ २९७, ३२७ पारकर ३४३ पारख २०७, १९४,२५०, ३६०,३६३ पारस साह १४३ पार्श्वनाथ 300 ३६८ ३१, ४० १७९ १८,५४,५५,६८,२१८, २३०,२६४,३४३,३६५,३६६,४०० पदमराज पदमसिंह ११५, ३२२, ३२३ पाण्डव पदमसी परमसुन्दर १४१, १४२, १४३ पिंगल (शास्त्र) पदमहेम २५५, २५७, ४२०, ४२१ | पिंड विशुद्धि पदमादे २९३, २९६, २९६ | पीचो 'पद्मावती (पदिमणी देवी) १३, १५ पीथइ ४५, २१५, ३८४, ४०० पीपलीयो गच्छ ३० २८४ १४३, १४४ | पुण्यविमल ७२ नमचन्द पासाणी ९७ पांच पीर ९१,९३,१०३,१७०,३७४ ३६१ | (पंचनदीपती) पुञ्जाउत पुण्य 2010_05 1 १८७ ३४६ २७३ '४६, २१६ २५० २०६, २३५ ४०९ ३५८ ३३.७ १४० २१ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामोंकी सूची ५,६७ ७,९ पुरसोतम (जोगी) २८४, फलवधी ६८,३४३,१८६,१९३ गुष्कर ३४३ फुला ३४५ पुण्यप्रधान ८३, १९२, २९२ । पुण्यप्रभसूरि ४२६ पुण्यसागर बडगछि ४२६ पूर्णिमागक २७४ बढवाण बबेर (बबेरइ) पुर पूनमगछ २,७,९,२६ पूनिग ३८६,३८७,३८८, पृथ्वीचन्द्र चरित्र बहली देश ३४२ पृथ्वीराज बहरा २४९,२५० पृथ्वीराज (छाजेड) बहिरामपुर पोकरणः बाफमा ४३१,४३२ पोरवाड १४६, १४७ ब्रह्मचन्द ३६८ पञ्चनदी ८०,१२२,१२३,९३,१०२, ब्रह्मदोपि (शाखा). २२१. १०३,१४६,१७०,१७९,२३०,३७४ पाहडगिरि पंचाइण २९३, २९५, २९६, बाइट देवी पञ्चायण २३३, ३४६, ३५३ | बाहडमेर . पंडव १५९ बाहुबलि १०७, ३४२, ३५६ प्रताप ४२५ बीकानेर (विक्रमपुर) ६०, ६६, ६८ प्रद्योतनसरि ९६, १४३, १५९, १६०, १६७, प्रबोधमूर्ति १७९, १८१, १८३, १८४, १८६, प्रभवसूरि २, ४१, २१५, २१९, १८९, १९३, १९९, २११, २३५, - २२८, ३२१, ३६३ २४६, २४७, २६८, २८७, २९३, प्रमेय कौल मासण्ड ३११ २९४, २९६, २९७, ३००, ३०१, प्राग (वाट) वंश ३५८, ३३९ ! ३०२, ३०९, ३३५, ४१४, ४२२, प्रीतिसागर ३०७ बीबीपुर फडिआ ३६० बीलाडा (बैनातट) ८२,८३,६७, ३५७ 2010_05 Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ १४३ २५८ ४७८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह १८८,१०३,१९३,२७२,३३८, भरही (श्रविका) ४१५,४२१ भागचन्द ३३८ बुद्धिसागर १३७, १४०,१४२,१४३ भाग्यचन्द्र ६७,१६८ बेगम भाट १६५ बोहिथरा (बोथरा) १५१, १५२, भाणजी ११५,३६०,३६१ १६३, १६५, १७६, १७७, १८०, भाणवट १७०,४७१ १८९, १९१, २००, २०२, २१२, भाणसल्लिनगर २७ २९३, २९५, २९६ भादाजी ५१,३३३,४०८ बङ्गदेश (पूर्व) ९४,११८ भामा ३६० बंभ (ब्राह्मण) भारहू बंभणवाड ३४१, ३६३ भावनगर ३२८,२८० भगतादे भावप्रमसूरि (खर०) ४९,५० भटनेर भावप्रभसूरि (पूनमीयागछी) २७४ भणशाली ५५,१८८, १८५, १९४, भावप्रमोद १९५, २०७, ३२७,३३६,४१७ भावारिवारणवृत्ति भण्डारी ७,३७२,३७७,३७८ भावविजय २५९ ३८०,२८४ भावहर्ष १३५,१३६ भगवती (सूत्र) २८०,३२७ भिनमाल ३२२ भगवंतदास (मंत्री) १८७ भीम (राउल) ९८,१०९,१४६,१६७ भक्तिलाभ ५३,५४ १७५,२०१,३१३ भक्तामर भीमजी भीमपल्लीपुर भत्तउ ६,९,३९२,३९५,३९६ भद्रगुप्त ४१,२२० ३२४ भद्रबाहु ... २०,४१,२१९ भुजनगर ३३२,१९३,२०६,४१६ भमराणी भूतदिन्न ४१,२२१ भयहर २२८ भृगुकच्छ (भरोंच) १८,३४२,४३२ ३५२,१४३ भरतक्षेत्र १७९,२६८ भोजा ३६०,४२७ भरम ३१५ / भोजग १६५ 2010_05 २२८ भिक्षु भोज Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामोंकी सूची ४७४ ५२ मदांति ४३२ भोजागरू ४२४ महतिआण १६,१८ भोदेवरू ४२४ महमद ११,१३,१४,१४८ महादेव (शाह) ३३९,३४० महावीर देखो-वीर मकुरबखांन १३२,१३३,२०२ महिम ६९,१४३ मखनूम १५६,१४७ महिमराज (मानसिंह-जिनसिंहसूरि) मण्डोवर ६०,३०५,४१५,८२,१४६ ६३,७०,७४,७५,१२६,१६७, मणुहारदास १८६ महिमावती मतिभद्र २२४ महिमासमुद्र ८८,४३१,,४३२, १३६ महिमाहर्ष मनजी १९४,३६० महिमाहंस मनरूप (मुनि) २७६,२८७,२८९, | महुर २८८,२९१,२९२ महेवचा १४३ मनुअर ११५ महेवा ५१,४०१,४०२,४०४,४०८, मनोरमा (ग्रन्थ) २७३ ४ ०९,४११,४१२,४१३,४१५, मल्लवादी २६४ म्हेसाणा मरहट्ठदेश माइजी मरूकोट (मरोट) ७,१९३,१९९ माइदास ३७७,३७८ मांडण २०६,३४५,३५०,३५३ मरुदेव (भरतपुत्र) ३४२ मांडण (भंडारी) मरुदेवी ३४१,३४२,३६३ मांडवगढ़ मरूमण्डल (मारवाड़ मरुधर) ६,८. मांडवी ९४,११८,१७९,१९२,२३४,२७३ माणक २७६,२८६,२९७,२९८,३२२,३२६, माणभट्ट (पक्ष) ३४२,३४४,३५३,३७३,३७४,३७७ १०२,३१ ४३१ माणिकमाला मरोट देखो महकोट माणिकलाल (जालिमी) २८० महाजन ६६,१९९ माधव महादे (मिश्र) १४२ मानजी ६४ २७३ ३१८ ११५ ur. 0 २९४ 0 2010_05 | Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ३६३ १८६ ४८० ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मानबाई १९४ । मेरह (शाह) मानतुङ्गसूरि - २२८/ मेरुनन्दन मानदेव (सूरि) २२८,२२९ । मेवाड़ (मेदपाट) ९७,१८८,१९९, मानधाता ३३९,३६३,३९७,४००,४१५ मानविजय मेहाजल मानसिंह मेहा मानसिंह (छाजेड) मोतीया २८६ माना मण्डण माल (देव राउल) मालजी यशकुशल १८७,१९९२३३, १४००,१४९ मालपुर यशोधर ३७४ माल्हू ७,२८,५०,४२२ यशोभद्र मालव (देश) ९४,११८,१९९,४१० २०,४१,२१९,२२८, मिरगादे १८०,१८१,१८९, २२९,३६३ यशोवर्द्धन १९१,२००,२०२,३३६ मीमांसक यशोविजय २७२, २८८ (जस) ९८,११० मुल्तान यादववंश २८७,२०९,९६,१९२, युगप्रधान ४,४६,८८,८३,८६,९२, १९९,४२२,३७४ ९४,९५,९६,९७,९८,९९,१०३, मूलजी १०८,१२२,१२१,१२९,१३२,१४८, मूलदेव १७२,१७८,२२६,२३०,२३२,२९२ मृगावती मेघजी योगिणी २,४,१५,४६,१४ मेघदास (मेघइ) १३८,१४३,१४४ योगिनीपुर ५,१९३,३८६ . मेघमुनि देखो-दिल्लो २० १८१ मेडता ६७,८२,८३,१३२,१६८, १८४,१८६,१८८,१९२,१९९, रणकुजी २८३,२८४ ३०२,३४४,३४८,३५०,३५१, रतनउ (रतनसोह) ३८६,३८७. ३५२, ४१५, ४१७ ३८८,३८९ मेढमण्डलि ११ रतनचन्द १३० 2010_05 | १९४ م ع ३६० Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतनसी रतनादे (सरूपदे) रतनेश (रतन सिंहजी ) tararaarfar रत्नभण्डारी रत्ननिधान रत्नशेखर रत्नसिद्धि हर्ष रमणशाह रविप्रभ रहीआसा रहीकपासी राकाशाह शंका (गोत्र) राजपाल राजुल राजलछि राजलदे राजलदेसर रामजी (मुनि) राम विशेष नामोंकी सूची रामचन्द राजलाभ ३५७ राजविजय राजविमल २४९,२५० ३०१ ३११ राजकरण राजगृ (ह) ह राजनगर ६२,१०३,१८३, १९४, १९९,३१४,३२७,३३२, ३३४,३५७, ३५८, ३६०, ४०४, ४१६ २८२, २८३,२८४ ७०,७५,१०३, १२३ ३४० २१० १७१ राजसीह राजसिंह (छाजेड ) राजसी ६,७ २२९ ३६३ राजसुन्दर २८५ राजसोम ११५ राजहर्ष ३२२ राजहंस ३०३,३०४ | राजेन्द्रचन्द्र सूरि ४०० rots राजसमुद्र १३२,१६६,१६७,१६८, १६९,१७९,२६८,२७१, २७२ २७६,२९२ राजसार १९६ राजसिंह ( सिरोही नरेश ) १८४ राजसिंह १८५ राउद्रह राणपुर ४८१ राणावाव राणुनगर (सिन्ध ) राधणपुर २४१ २७२ १८८ ४२५ ३१ 2010_05 २१२ ३२० १४९,१९६,३०५ २५५ २३१ १७ ३१५,४०८,४१२ १०१,१८६,१८८, ३५१ २८४ १५० २१ १९९ २६४ ३३९,३४० ५० ६८ २५६ रायमल १७, १८०, ३४६ रायसिंह (राजा) ६०,१६०,१५१, १८८ २५५,२५७ | रायसिंह (शाह) रायचन्द ३०६,१९४ रायचंद ( मुनी ) २८७, २८८,२९१ २९२ ४२७ १७९ २०६,३६० Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह mmM Nwo १९४ १४८ रूपजी ० २२ 9 रूपहर्ष रूपादे रासल लखमसीह रीणीपुर ६८,१९९,२५१,२५२ लखू रीहड (वंश) ७७,७९,९२,९३,९५, लब्धिकलोल ७८,१२३ १०१,१०२,१०७,११९, लब्धिमुनि १७८,१८८,२२६,३३८,२१ | लब्धिशेखर ९८,१२१,१२२,१२३, रुघनाथ १८८,३०४ रूदपाल १६,१८,३८६,३८८,३९० ललितकीर्ति २०७,४०५,४२२ ३९१,३९२,३९४,३९६ लालू रूपचन्द २४९,२५०, २८८,२९७, लकेर लक्ष्मीचन्द ६७,१८८ ४१७,४३० लक्ष्मीतिलक (बिहार) रूपसी ३१६,१४६,१४७,३३०,३३२ लक्ष्मोधर २४२,२४६ लक्ष्मीप्रमोद ४३०,४३२ लक्ष्मीलाभ २९६ रूस्तक लाहण २०६ रेखां ४२१ लाडिमदे २०६ रेखाउत लाधोशाह ३३२ १४३ लालचन्द्र १९३,२८६,३०१ ४१,२२० लावण्यविजय ३६१,३६२ रेवतीमित्र २२१ लावण्यसिद्धि २१०,२११,२१२,४२२ रोल | लाहोर (लाभपुर) ६१,६३,६६,७३ रोहीठ ६६,४१५ ७४,७६,८०,९२ रङ्गाकुशल १४० ९६,१००,१२५,१२६, रङ्गविजय १७७ १२८,१४६,१४८,१५१, १७२,१९३,१९९,३५० लखाउ __५१,४०६,४०८ लांबिया लखमण लीबडी २८५,२८६ लखमादे . ४३२ लीला (दे) १३४,३५४,१४७ लखमिणी ३७७,३७८,३८०,३८१ । लीला दे ४२५ २२४ १८८ रेडर्ड रेवंत 2010_05 Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामोंकी सूची ४८३ लूणकर्ण ४२८ ४१,४४,१७८,२१५,२२१,२२५,२२९ लूणिग (कुल) ५० २२७, ३१२,३१८,३६६,४२३ लूणिया (गोत्र) २४१,२४२,२४३, | वध (भणशाली) १९४,१९५ २६८,४१८ वरकाणा १०१, १८६, ३५१ लोकहिताचार्य २७,३९९ वरसिंघा लोहच्चिय (हित) ४१,२२२ वस्तपाल ३११,३८७ लोद्रवा ४१४,१८६ वस्तिग १३९,१४५ लंका वस्तुपाल वस्तो (मुनि) वाछिग (मंत्री) वकतुजी (मुनि) २८७ वागडदेश वखतावर २५५ वाघमल वछराज वाछडा वछराज (छाजेड) ४२४ वाराणपुर १९९ बछा ११५,१८०,१८१,१८९,१९१ बालसीसर ४२० २००,२०२,४१९ । वाल्हादे वछावत ६०,१००,१७९,२९७,२९८ वाहड वज्जयाणंद वाहडमेर वज्र (वइर-वयर) (कुमार, स्वामी) विक्रम (वीको) १८२,१९१ ४१,४३,४८,९४,१०२,१७२,१७७, विक्रमपुर ( वीकमपुर) २,५,६,८ १७९,२०५,२२०,२२८,३८२,४२८ वज्रसेन विक्रमसूरि २२९ वध (छ?)राज १४० विक्रमादित्य वडनगर (वृद्धनगर) विजयचन्द (मुनि) २८८,२९२ वडली १८४ विजयदान सूरि ३६३ वणारसी __ ३२६,३४५ वद्धमाण--देखो-बीर विजयदेव सूरि ३४२,३५४,३५५, वर्द्धमान शाह ३५८,३६२,३६३,३६४ वर्धमानसूरि ११,२०,२४,२९,३१, विजय सिंह ९,१६,१७,१८ Gooo MOM Mov १५९ १९९ 2010_05 | Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ विजयसिंह सूरि ३४२,३६१,३६२, ३६३, ३६४ देखो - जेसिंग विजयसिंह सूरि विजयाणन्द विजयानन्दाचार्य विठलदास विदो विद्याविजय ( खर० ) विद्याविजय (तपा) विद्याविलास विद्यासिद्धि विधिसङ्घ ( वसतिमार्ग ) विनयकल्याण विबुधप्रभ सूरि विमल (मन्त्री) विमल कीर्ति विमल गिरिन्द ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह विमलदास विमलादे विमलरत विमलरङ्ग विमलसिद्धि विल्हणदे विवेकविजय विसो वीकराज वीर (वर्द्धमान स्वामी) १८, २०, २४, ३२,४२,५८,९५,१०९, ११०,२१५, २१८, २२७,२६४, २६६, २७७, २७८, २९२,३१२,३२१,३४१,३६३,३६९, ३१ ३५८ | वीरजी (भण्डारी) १५२ वीरजी ३५४ ८८ ३६४ २४५ वीरजी (वीर विजय ) वीरदास वीरदेव वीरपाल २१४,२४० | वीरमपुर ३ वीरप्रभ १९१ वीरसूरि २२९ | वीसलपुर ४४,२२९ वृद्धि विजय २०८, | बेगड़गच्छ ६०,४१६, देखो वेगड (गोत्र ? ) शत्रुञ्जय | वेगइ २७३, वेलजी वेला वेलाउल वैशेषिक वैभारगिर वोहरा ११५, १९४, ३६०, ४३०, १८८, १८, 66, ४०६,२३६,६२,१९९,. ३८१, २२८, ४०८, २६३, ३३६, १९९, २०८,२४४, ७८, २०६, ४२२, ३३९, २८२, विवेक समुद्र (विवेउसमुद्र ) १७, विवेकसिद्धि ४२२, ३६३, ३५४, | शत्रुञ्जय ( विमलगिरि - देखो - सोरठगिरि) २१०, ४२,५९,६०,१०१,१०३, 2010_05 ३१६,४३१,४३२, ३१४, ३१५,. २३६,. २५१, ३६०, ४१६, ३६, ३२७, ३००,३३०,३३२, ३३७, श शय्यम्भव २८, ४१, २१५,२१९,२२८ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामोंकी सूची. ४८५ ४३२, २२८, १०४,१५४,१७०,१८४,२१३,२८१, ९४,९५,९८,१०२,१०४,१०७,११२ २८५,२८६,३०७,३२६,३२७,३२८, १२१,१२२,१२६, ३५५,३५६,३५८,३६३,४१६,४१७, श्रीसार १७१, शाकंभरी श्रीसुन्दर ९१,९४, शालिभद्र २७७,१८१,३४६,३४७, श्रीपुर ७४,१२६, शालिवाहण ३०, श्रेणिक १८,६१,३२२, शान्तिनाथ २७,३१,७८,८५,८६, श्रीमंधर (विहरमाण) ४५,११०, ९७,११०,१४५,१९८,२६४,२८०, २१६,३१९, ३२७,३४१,३८०,३८४, श्रीरङ्ग ४२६, शान्तिदास १९४, श्रीश्रीमाल शान्तिस्तव शान्तिसूरि (अञ्जशान्ति) ४१,२२०, सकलचन्द १०६,१४६,१४७, शासनदेवता ११०,३३९, सचिन्ती (गोत्र) १३९,१४५, शाहजहां १७३,१७४, सता शाहपुर सतीदास शिवा सत्यपुर १९९, देखो, साचोर शीतपुर १४७, (सिद्धपुर) १४८, स्तम्भनपार्श्व २०,४५,५९,१०६, ११०,१२०,१७८,२५३, श्रावकाराधना स्थूलिभद्र २०,४०,४१,४८,४९,९८ श्रियादे ७७,८९,९३,९५,९८,१०२, | २१९,२२८,४३१, ११२,२२६, सदारङ्ग श्रीचन्द १४३,२०८, सधगे श्रीघर १५१, सन्देहदोलावली श्रीपूज्यजी सं० ६२, सभाचन्द श्रीमल १८६, सम्मति (सूत्र) ३११, श्रीमाल ५३,८७,१३३,१८२,१९८, सम्मेत सिखर १५४,२९७,३२६, २०६,२३३,२७४,४३२, समरथ ३६०, श्रीवच्छ १४३ समुद्रसूरि २२९ श्रीवन्त ७७,८९,९०,९१,९२,९३, समयकलश ४२६, १४०, ३८६, mmd v० o 2010_05 Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ३६, १९९, ३११ २१९, २७५, साडूल समयनिधान १९६, सहज ३६०,३६१,३६२, समयप्रमोद सहसकूट २७५,२७६, समयसिद्धि २४०, सहसफणा पार्श्व १६९,२८०, समयसुन्दर ७०,७१,८८,१०६,१०७, सहसमल (करण) ३६०,२४५,२४७ १०८,१०९,१२६,१२७,१२८,१२९, सांउसुखा (गोत्र) २१४ १३१,१४६,१४७,१४८,१९२ २००, साकरशाह २३१, २३३, २२७, सांख्य (मत) समयहर्ष २५४, सागरचन्द्राचार्य २७,५०, समरिग३९१,३९३,३९४,३९५,३९६, सांगानेर स्याणि ४८, साचोर ३१५,३१६,४१५,१४६,१४७, स्यादवादमञ्जरी १४८, स्यामाचार्य सादड़ी ३०१, स्याहानीपोल ३६०, सर (लूणकरणसर) १८७,१९३, साधुकीर्ति ४०३, सर्व देवसूरि सव्वएवसुरि ३, साधुकीर्ति ९२,९७,१३७,१३८,१३९, सव्वड १४०, १४१, १४२,१४४,१४५, सरस्वती (साध्वी) ३०,३९५, साधुरंग २९२, सरसा ६९, साधुसुन्दर २०८,२०९, सरसती ३४०,४२३, सामल १८१,१८५,१९१, सराणउ सामल (वंश) १८, सरूपचन्द (सेवग) ३११, सामीदास १४३, २५०, सलेम (जहांगीर) ८१,८७,९८,१०३, सामन्तभद्रसूरि २२.८, १०९,१२३,१३२,१६७,१७९,३५५ सारमूर्ति २०, २.३, सव्वडशाह ५०, साल्हिगु ३८८, सहजकीर्ति १७५,१७६, सांवल सहजपाल ४२५, सावक्ति सहजलदे सांसनगर ४३२, सहजसिंह १४३, साहणशाह सहजीया ११५, साहिबदे ५०, ३३७, 2010_05 | Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामोंकी सूची ४८७ ५४, १७७ २९२ साहिबी १३९, सुन्दरदास (यति) साहु (शाखा) ४८, सुन्दरादेवी ३०४ सिकन्दरशाह सुमतिकल्लोल ९०, (८!) सिंघादे २१२, सुमतिजी १९६ सिन्दूरदे २३१,२३३,२४५-२४६,२४७ सुमतिरङ्ग ४१०,४२१ (सुदीयारदे राजलदे) सुमतिवल्लभ १९६,१९७ सिद्धपुर ६४,१९९ सुमतिविजय सिद्धसेन १६९,१७९,१८३ सुमतिविमल २५० सिन्ध १०९,११८,१४६,१४८,२१, सुमतिसमुद्र १९८ ९४,२९९,३७५,३९७,४०२,४१० सुमतिसागर सिंघड (वंश) २३१,२३३ सुमङ्गला सिवचूला ३३९,३४० सुयदेवि (श्रुतदेवी ) ४,२०,५१,५८, सिवचंदसूरि ३२१,३२२,३२४,३२५, १०१,३८४,४००, शारदा, सरस्वती ३२७,३२८,३३०,३३१ सुरताण (छाजेड) ४२५ सिवपुरी ६५,३४१ सुरताण (सुलतान)५२,६५,७९,८९, सिंहगिरी २२८,२२० ९०,१०१,३४९,३५२,३५३ सीता ३४०,१८०,५१ | सुरदास २५० सीरोही ६५,१८४,३४१,३५१.३५८, सुरपुर १८७ ३६२,३६३,३६४ । सूयगडांग (वीरस्तव) १११ सीह (राजा) ३७३ | सुस्थित २२८ सुकोसल ३२९ सूरजी ३६०,३६१,१९४ सुखरत्न १४९ । सूरत ६०,१९३,२४९,२५०,२८२, सुखसागर २५३,३४० ३१७,४१५ सुखानन्द २८५ सूरविजय ३५३ सुदर्शन सूरसिंह १०९,१७४ सुधर्मा, सुहम (स्वामी) २,४,८,२०, सूहवदेवी ६,८ २४,४१,५८,२१५,२१८, २२८,२९२, सेठीया (गोत्र) २५२ ३२१,३६३,३६९,४२३ सेरीसा सुन्दर ३६० | सेरूणा २३४,४१८ 2010_05 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ सेवकसुन्दर सेनाas सौगत (बौद्ध) सोझित सोमप्रभ सोममुनि सोमल सोनगिरह सोनपाल सोमकु जर હેર सोमचन्द ३६० सोमजी १९४,६०,८०,१०३,१०९, १२२ सोमध्वज १३४ सोमसिद्धि सोमसुन्दर सूरि सोरठ सोरठगिरि देखो सोवनगिरि ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ४२१ संघजी १७१ संडिलसूरि संप्रतिनृप ३६ सोहम्म (स्वामी) सोइण (देवी) ६७ संभरो १८८ संवेगरङ्गशाला संखवाली नगरी संखेश्वर पार्श्व संगारी संग्राम (मन्त्री) संग्रामसिंह (राजा) ३६०,१९४ ६०,१९९,११८,३५६,४१० ३८६,३९६,३९७ २०५ ३२९ २१३ ३४०,३६३ ६५,२३६ ४२३, ५५ सौधर्मेन्द्र (सोहम्म) ४,२४,३० सौरीपुर १०१,१०३ संखवाल (गोत्र) ५१,५२, १४३,१९३, ४०२,४०४,४०६,४१०,४११,४१३ ४०७,४१० १०१,४१० २१२ ७६ ३२५ इथणाउर हरराज दरखा हष कुल हरषचन्द (यति ) हर्षचन्द्र हर्षनन्दन ह हरिचन्द हरिपाल ( साधुराज ) हरिबल हरिभद्रसूरि (१) हरिभद्र सूरि (2) हापाणइ हालांनगर १९४ ४१,२२० २१९,२२८ ३६६ १५,२२२,२२६ १०१,१०३,३२७ 2010_05 ४३२ ११५ ५७ ३१०,३११ २५२ २५२ २१, २३ २२० _४१,२२० ४१,४४,२२१ १२४,१३२,१३३,१४६, १४७,१४८,१९१,२०१,२०२,२०३ २२९,२७३, २८७ ३०६,२४६ हर्षराज हर्षलाभ हर्षवल्लभ हस्तिमल हाथी (शाह) १९९४,१९६,१८८,२०६ २५५,२५६ २३८ ४१७ ३५० ६९ २९९ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामोंको सूची ४८६ - - हीररंग हिमवंत ४१,२२१, हेमसिद्धि २११,२१३, हीरकीर्ति २६५,२५६,२५७ हेमसूरि १८५, हीरजी हंसकीर्ति १३९,१४०, १४० हीरादे हीरविजय सूरि ३४१,३४२,३५०, ज्ञानकलश ३८९, ३५१,३५६, ३६१,३६३ । ज्ञानकुशल २३२,१४०, हीरसागर ३२५,३३०,३३२ ज्ञानधर्म १९६,२७३,२९२, हुंबड २०८, १३६, | ज्ञानविमलसूरि २७४,२७५,२७६, हुँमाऊ १००, १२१, हेमकीर्ति १७१, ज्ञानहर्ष ३३५,३३६,३७३,३७४, हेमचन्द्राचार्य २७३,२७४,३७६; ३७५, ३७६, M .. USA . 2010_05 Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि-पत्रक नहि वैशाखह -- -** -- पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध . पृष्ट पंक्ति अशुद्ध १ १० आवि अविहि । १२ १४ ढाल ढोल २ २ मच्छिउ मणिच्छिउ १३ ३ जिणप्रभु जिणप्रभ २ ३ दिनु दिन्नु १३ ४ जिणवासण जिणशासण २ ७ वक्कु चक्कु १६ ११ निहि ३ १० दिगण दिणण १६ ११ निहि नहि ५ ६ समि भद्दमि १७ १७ किन्नग किन्न ६ ९ वैशाखाह १८ १३ वार चार ५ १६ अबंझ ___ अवंझ १८ १७ जइस अइस ५ १९ संथिणित संथुणित १९ १४ बिंबिबि विवि ६ १२ बधाविउ वधाविउ १९ १८ ज्ञा जा ६ १४ बाधा वाध २० ६ सवर्णजल सवणंजलि ७ २२ अन्न २० ८ जिण जण ८ १७ बधावीउ वधावीउ २० ११ अनुकमि क्रमि १० ११ ०नो जनंदा नौ जिनंवा २० १७ कण्ठीर कण्ठीरव १० १२ क्षोरे नीरे क्षीरैनीः २१ १ संघयण संथवण १० १२ स्नपयसुतरां स्नपयतुतरां २१ ८ धत्ता १० १४ गौतमाश्रीसुधर्मा- २१ १३ तिहुपति तिहुयणि गौतमश्रीसुधर्म २१ १९ चन्दि वंदि १० १७ कलशराध्या कलशराज्या २१ २२ पाट ठवण पाठवए ११ ९ ०वोहण बोहणु ११ १३ मन २१ २२ कुंकुवत्रिय कुंकुमपत्रिय १२ ११ सास सीसउ २१ २३ वच्छरि वित्थरि १२ १२ कंपि . किंपि २२ १३ धत्ता पत्ता ० अन्न ० ० ० पत्ता नमइ 2010_05 Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Annnn Nnnnnnnnn सूरि विस शुद्धाशुद्धि पत्रक ४६१ पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ट पंक्ति अशुद्ध २३ १२ सहलउ किउ इत्थु ३० ६ पख पक्खी कलि तिह ३० ५ वहियं विहियं सहलउ तिहि किट ३० ५ पंचमि(घाउ) पंचमियाओ इत्थु कलि ३० ८ उज्जेण उज्जेणी ३० १३ जिणदत्त :जिणदत्त सूरि २४ ५ विसम ३० १३ सुपहु सुपहू २४ १३ परकरिय पखिरिय ३० १४ विन्नाउ विन्नाओ २५ १० गच्छाहवद गच्छाहिवइ ३० १८ सय सोय २५ १७ जेता जिता० ३० १८ जवाईय जु वाईय २५ १७ इग्यारह इग्यारहसय ३० २१ फुग्गण फरगुण २६ १ वइसाखयइ वइसाख्यइ ३० २२ वजयाणंदो विजयाणंदो २६ ७ आसोज आसोजवदि ३० २२ निज्जणिय निज्जिणिय २६ ८ अनुतर अनुतेर ३१ ५ ता(?)उन्हउं ताउन्हडं २७ १ वत्थिरि वित्थरि ३१ ६ ति(लि) हि लिवि २७ ७ लोपआयरिय लोगह ३१ ७ रमनरमणि नरमणि आयरिय ३१ ८ जिणेसर(७वीं पंक्तिमेंपढ़ो) २७ १६ सूरि सूर ३१ ८ नं दिन २८ ८ झदाउत सुखसंसि ३१ ९ पवठ्ठ पय रूदाउत सुपसंसि ३१ ११ अवहि अविहि २८ ९ पनरेतिरइ पनरोतिरइ ३१ २२ स स हंस २८ १० रतनागरवरसि ३२ ३ पट्ट पहु रतना पुन्निग उच्छव रसि | ३२ ५ एने एन २९ ६ सूरहि ३२ ८ बडआरुय बडयारू २८ १८ अठारहवी पंक्तिको ३२ १० वंच चंच । सोलहवीं पंक्ति पढ़ो ३२ ११ नसि • निसि २९ १४ सुविह तह सुविहि तह ३२ २० वडवि चडवि ३० ३ तिलउ निलउ ३२ २० धितिहि वितिहि ३० ३ लठिवर लब्धिवर ३३ १ गुडिर गुडिय ur urv9 9 नंदिन 2010_05 Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह गुरो पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध । पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ३३ ४ न(?ना)विय ठाविय ४२ ६ विजय० विजिय० ३३ ५ घड पयड ४२ ६ सूर० सुर० ३३ ६ बत्तास ४२ ७ पहोदय पट्टोदय ३३ ११ मुणिहु उहारिय ४२ १० कुम० मुणिहुउ हारिय ४२ ११ परंपरा परंपर० ३३ १२ आणग थुणि अणेगे पुणि ४२ ११ ०मिण जो मिणं जो ३४ १ सऊहिं मझिहिं ४२ १२ ०जतो जणो ३४ १ वंदु ३४ ६ वरण चरण ४७ ७ देरउरि देराउरि ३४ ९ एररिसर एरिसउ ४७ १८ नदेन नवीन ३४ १५ सघोस सुघोस ४८ ३ गुरि ३५ ३ निजणवि निजिजणिवि ४८ १४ गुरुगा गुरूणां ३५ ५ पटटुद्धरणु पटुद्धरणु ५० १२ मुवर० सुवर० ३५ १८ जिम तिम ५१ ६ सुरद्दम सुरहुम ३५ २१ अगाइ अग्गइ ५१ ९ रुपइ रूप ३६ १२ व्रजा ५३ ७ बेची खरची ३७ १३ नरनाह नरनाहा ५३ ९ पामदत्त पासदत्त ३९ ६ दुग्ग दुग्गम ५३ २० सव नारी सवइ नारी ३९ ७ वितु वित्त ६४ ५ जणियइ जाणियह ३९ १० विन्न विन्नविडं ५९ २१ भटेता ३९ २० निवारइ निवारउ ६३ ९ अविया आविया ४० ४ तूय तुय ६३ १२ हर्प ४० ५ दिजय ६४ १७ घणो धणी ४० ६ ०वित्ति चित्ति ७० १ गौड़ा गौड़ी ४१ ५ नंदि ७३ १४ ऐकज रोकज ४१ १२ लोहच्चिय लोहिञ्चय ७६ ११ विधि निधि ४१ १४ देहि वंदेहं ७७ १९ रि ४२ ३ तिहऊय० तिहुय० । ७७ १९ लगइ लगइ ए भेटता दिजइ नंदि सुरि 2010_05 Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि-पत्रक ४६३ शुद्ध साची (ज्ञा !) सोलोत्तरइ स्थ आव्याउ चाइमल्ल वाज सुन्दर सुंदरो० पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध | पृष्ट पंक्ति अशुद्ध ९३ ६ चिणचन्द जिणचंद १३१ १७ साचा ९४ १७ कलाल कलोल १३२ ८ (झा ?) ९६ १ समय माद समयप्रमोद । १३४ १० सोलेतरइ ९६ १ समुल्लसा समुल्लसी १३६ २१ हथ ९६ १८ पुष्प पुष्य १३८ १४ आ० यउ १०४ २ गर्भित् गर्भित १४२ ४ वाइमल्ल १०६ १२ १२(२) १४३ ९ वाव १०८ २१ जनचन्द जिनचन्द १४६ २ ०सुदर ११० ८ जिणिद दिणिंद । १४७ १८ मुंदरों १११ ८ विने विते १४८ ७ पूछो ११२ ९ विहु चिहु १४९ ६ जिरं " २० आझा आज्ञा १५४ १५ खिहाला ११२ २२ वारह बारह १५६ १२ सहू ११३ १ करूणा करुणा १५९ १५ लखत० ११५ १३ प्रमु प्रभु " " गेति ११५ १९ जाबड जावड १६१ २ सदा ११९ ८ रिगमता रिगमती १६२ ६ तो ११९ १० गुणधा गुणधी १६३ ९ भोज १३० ८ छीतर छीलर १६४ ५ तूंगो " १३ उग्धाडा उग्घाडा " ६ कजगइ १२१ ९ दली टाली १७० १० पंच १२३ ७ प्रथान प्रधान १७१ १२ ०निछन १२६ १६ चापडां चोपडां " " सूरिश्वरा १२७ १५ जिन जिम | " १३ प्रबंध १२८ ६ पेच १७२ २० शृङ्गार " १५ असुश जसु जश १७५ २१ उवणउ १३० १४ आसू आस आ मास १८० २ वित आसा | १८१ २१ काले चिरं लिहाला साजन सहू लखण० गति सदाजी भोग तुंगो कजगई पंच निःछद्म सूरीश्वरा० प्रबन्धः शृङ्गार ठवणउ वित्त काल 2010_05 Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह नी द्र पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध | पृष्ट पंक्ति अशुद्ध १८८ १९ साचडार साचउरि | २२१ १७ दुरयह दुरियह १९० ६ दिन दिनदिन २२२ ९ सुविहव सुविहित १९५ १० सूर सूरि " १३ करो कों " ११ थापना थापना २२७ ६ नमः नमउ १९७ १८ ०ना | " ९ सूरिश्वर सूरीश्वर १९८ २२ संपूर्णभ संपूर्णम् २२८ ८ संवति संप्रति १९९ ५ जावालपुरे जावालिपुरे " १५ कुमद्र कुमुद " ११ स्तथा तथा २३० १ श्री० ढाल:-श्री. " १२ द्वोपे द्वीपे " ११ जिनरायो जिनराजो " १३ पुरे २३६ ११ साह लाह " २० प्रौढः प्र० प्रौढ प्र० २३७ ६ हीडोलइ होडोलह " १९ नाम्नां नाम्ना " ७ अवसार अवसर २०० ६ त्वां ०स्त्वां २३९ ३ बालावी बोलावी " १० सागरा सागराः | " ८ ०विचइम विचमह २०१ ४ देखिने देखिने रे " ८ मको मूकी " १० नूर नूर रे २४० ६ सोहणपण सीहपणइ २०२ ६ परमात्म परमा २४१ ६ पूज्य श्रीपूज्य २०३ ६ धj घणं | " ८ सहेरउ सेहरउ २०९ ६ ब वा० २४२ ४से१३ स० __ सु० २१२ ५ अधिक अधिक २४३ १५ श्रा० श्रो० २१८ १६ मधुर मधुर | २४४ १६ स्वग स्वर्ग २१९ ४ अतले अवर २५३ १३ जाणिन जाणिनइ " ४ ने (?) छह नेछई २५४ ११ पादुका अधिक पादुका " ६ पद्धति पद्धति " १२ धरि अधिक घरि " " जाइसर जईसर २५६ ९ लुलि लुलि लुलि २२० १६ देस दस २६० ७ ०पाध्याय० ०पाध्याया० २२१ १ दुर्बलिकापक्षः दुर्बलिका २६३ ६ मावतां, रुडुंख खमावतां, पुष्प २५६ 2010_05 | Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि-पत्रक ४६५ कह्यो गभितं पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध | पृष्ट पंक्ति अशुद्ध २६५ १६ प्रसाद प्रमाद | ३०० १४ ओलख्था ओलख्या २६७ ३ आजान आजानु ३०२ ८ रजण रंजण २७२ ६ चीघडीए चोघडीए ३०३ १५ पथीडा पंथीडा २७३ २१ कह्मो ३०४ ५ गच्छषति गच्छपति २७४ ३ स्याद्वाद स्याद्वाद ३०५ ८ दशा० हशा० २७५ १३ शठ शेठ ३०५ ९ विनिर्मितं विनिमिति २७६ ११ सूलक्ष सुलक्ष " १३ ०द्वि० द्वि० २७८ २० जडीयं नडीयं " १४ गभितं २८१ ३ ओगणीस ओगणीसी ३०६ ५ ०बन्ध बन्धः २८४ ४ आज्यो आवज्यो ३०७ ३ संज्ञाः संज्ञा २८४ १० पायो पाये " ५ उकेश ऊकेश २८८ १ ब्याधि व्याधि " "कछ कच्छ " १३ उपर उपर हो " १६ गुरुवः गुरवः २८९ ९ हाथ बे हाथ ३०८ ९ महोकला महोत्कलां २८९ २२ धम् __धर्म " १४ दृष्टः दृष्टः २९० २ भवे भवे हो " " भवत्वरं भवत्परं २९० २२ गुरुतणी गुरुतणो " १८ गांगेयं गान्य० २९१ १४ शंक्लश संक्लश ३०९ ८ साधूनां साधनां " १४ बाग्वाद वागवाद | " ९ जऽस्त्र अजस्र " १७ टले टलेरे " १२ ०स्तपखिनः स्तपस्विनः " २२ कीधो कीधोरे " १८ लुनोहि लुनीहि २९५ ८ रद्या रह्या ३११ ३ जेती जतो २९६ १२ पाम्यो पाम्यो पाम्यो ३१५ १ बहु सहु २९७ ४ वंदिय वंदिय ३१५ १२ जोसा (धा?)ण जेसाण २९७ १३ आचरज आचारज ३१६ ६ पू० २९८ ७ सदग्रु सद्गुरु ३१६ ११ खरतरजू खरतर ज०प० २९८ १५ श्वंगार शृङ्गार ३२४ ७ जाणों जाणी ३०० १३ व्यांचो थंभ्यो ३२४ २२ रे हरे । एह रे प० 2010_05 Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह वूठा पक्षे पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध | पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ३२६ ६ जिणंद जिणंद ।म। ३६३ १५ थाण्यु थाप्यु ३२८ २३ 'जिनचंद 'शिवचंद | ३६३ १५ आघाटि आघाटिंजी ३२९ ११ रह्मा रह्या । ३६५ १५ थणुहरु धणहरु ३२९ २१ आप्या (थप्पा) अप्पा ३६५ १६ पक्खहि पिक्खहि ३३२ ६ थाण्या थाप्या ३६६ १५ घणुहर धणुहर ३३५ १४ विधि विधि | ३६७ ६ पावक-रदि पाव-करढि ३३५ १६ बुढा ३६७ १३ को यलिय कोवलिय ३३७ १५ अलिक अमूलिक " १५ वेवि वेवि ३३८ १५ निघान निधान ३६८ १२ पद्ये ३३८ १८ चद चंद ३६९ ५ तित्थुरणुद्ध तित्थुद्धरण ३३८ २४ हो पूज " १६ पतरइ पनरइ ३३९ २० लिलयन लिओ लग्न ३७७ ९ नयभेरि जयभेरि० ३३९ २२ आवरा आवए ३८५ ९ [त (न)यण] तयणु ३४० ४ शवचला शिवचूला ३८८ १५ कष्पतरो कप्पतरो ३४० ३ ना दि नांदि ३९२ ९ भवय भविय ! ३४० २१ द्रपदि पदि ३९४ ३ ०न तं त ४०० २ पट्टालंकारे पट्टालङ्कार. ३४१ ८ ब्रे थाण्यो जे थाप्यो ७ ०तरूण ०तरूणां ३४१ १३ भुजिङ्गिन्द भुजगिन्द १० 'नागइह' 'नागद्रह' ३४३ ३ झूठा जूठा " १३ 'राजह' 'राजगृह' ३४३ ४ विढतां चिढतां " १७ स्तवः ०स्तव. ३४४ ८ निधा(श्रा?)व० निंधाव. ४०३ ५ हलै ३४४ १७ घणी . धणी ४०३ ९ नहु ३५१ ६ 'बीझो'वा ०'वोझोवा' ४०४ १८ धरे घरे ३५२ १० खग्र खिंग ४०५ ५ थुम ३५३ १७ पालइ बालइ ४०५ २० फोटक फोकट ३५६ १८ पधारइ पधार ४०५ ८ राजसागर राजसभा ३६१ ९ बोल० बोला० ४१५ ६ 'जलोल' 'जसोल' ३६२ १८ सी र (ही) सिरोही ४१७ १७ विंब बिंब ३६२ २३ जाडि जोडी ४७३ २० दुर्षलिकापक्ष दुर्बलिकापक्ष , टले थुम 2010_05 Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि पत्रम् ४६७ xvvvvnirm wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwws कर पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ११ १७ प्रतिबोध प्रतिबोध प्राप्तकर १७ १ मेरुसदन मेरुनन्दन १८ १ विद्याध्यन विद्याध्ययन १८ ९ प्राप्त प्राप्ति पृ० १९ १६ लोकहिता- लोकहिता चार्थ चार्य २२ २२ सातड सातउ २४ १० * * फुटनोट पृ० २६ पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ४७३ २४ द्रणाडइ द्रुगाड़ ४७६ २९ नमचन्द पुनचन्द ४७९ २५ महकोट महकोट ४८१ १७ राजगृह)ह,राजगृ(द)ह ४८२ ८ लकेरइ लवेरइ ४८५ २२ श्रोघर श्रीधर ४८६ २५ सावक्ति सावलि ४८८ ९ इषकुल हर्षकुल प्राक्कथन-प्रस्तावना III ११ विपय विषय IV ६ अपभ्रंश अपभ्रंश XVII १ खिजली खिलजी XVII ७ जिनदत्तसूरि जिनहससूरि XVII १७ १६२८ १६५८ XVIII१४ भविसत्त- भविसयत्तXXIII ११भुद्रित मुद्रित सूची-अनुक्रमणिका II ७ राजलोमा राजसोम। II २३ सरि सूरि v १३ सरि सूरि V १५ अभयतिक- अभयतिलक VIII १५ राजसमुद राजसमुद्र - राससार २ २२ शान्तिस्तष शान्तिस्तव ८ १९ देहल्णदे देल्हणदे १ १४ अिनचन्द्र जिनचन्द्र १० ६क्ल्याण कल्याण को . आसकरण बाला० तेजसीx शुक्ला ९x थाहरु तेजसी २५ १३ क २५ १५ असकरण २६ १४ बीसी २७ ११ तेजसी २७ १५ शुक्ला ९ २७ १९ धाहरु २७ २२x २७ २२ तेजस २७ २२ नी २७ २२ सदामी २८ २२ क्षमणा ३० १५ सूर ३१ १५ गुढ़ ३२ २२ आब ३३ १ द्रव्य ४० ५, ७... सप्तमी क्षामणा सूरि गुढा आबू द्रव्य व्यय ७ औषधि 2010_05 Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध निमित्त हल्दी ७१ १९ विरुद्ध विरुद्ध न लेवे ७३ १० महोत्सव पट्टोत्सव ४१ ३ शिक्षा दीक्षा ७६ २२ घर्ष वर्ष ४९ १ लधि लब्धि ७७ १९ हरिसागर हीरसागर ५३ ११ मेताराज मेतारज ७९ १८ इवदन्त दवदन्त ५३ १३ सम्यक्ख सम्यक्त्व ७९ २२ सरिजी सूरिजी ५४ १ लक्ष्मीचंद लक्ष्मीचंद्र ८५ २१ जपकोति जयकीर्ति ५४ ११ कुशललाम कुशलधीर ९०६ चका चूका ६४ ६ संवेगेरग संवेग रंग ९१ २२ छोटा छोटे ६६ १६ श्वास सास ९२ १७ मुन्दर सुन्दर ६८ ४ शय्यंभद्र शय्यंभव १०४ ६ चारित्र चरित्र ७१ ४ पट्टा पट्ट १०७ ५ लाधशाह लाधाशाह __ हाल ही में "श्रीजिनरत्नसूरि निर्वाणरास' की एक प्रति उपलब्ध हुई है-जो हमारे संग्रह (नं० ३६१०) में है। उस प्रतिके पाठान्तर यहां लिखे जाते हैं :२३४ ९ जुगति जगत २३६ गाथा ४ के बाद अतिरिक्त गाथा: २३४ ११ शोभा में सोभागइ "पालता पांचे सुमति, भावना २३४ १५ बान भाग । मन भाव रे। जोधपुर नौ संघ सगलौ, देव२३५ १६ तेथी तिहांथी। झर वंदावरे॥" ३५ २१ सीठ सेठ २३६ १ वांदिवि वंदावि २३९ गाथा ११ वींका चतुर्थपाद: "किण हा घावी घात" ३६ ४ वेणइउच्छव उच्छवसखर २३८ ७ बड़ २३६ ११ साह लाह २३९ २ भूल तिका- मूल न का२३६ १४ साबाश जशवास । करी करो २३७ २१ याचक श्रावक २३९ ६ अनवइ अनवड़ २३७ २२ मुनि मुखि २३९ १८ विगत वीतग २३८ ६ श्रीपूज्यनी सुविध श्री २४० १० बखाण विचार पूज्यजी २४० ११ आदिस्यउ उपदिस्यउ ____ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकोंकी साहित्य प्रगति (प्रकाशित लेखादिकोंकी सूची ) स्वतन्त्र ग्रन्थ विधवा कर्तव्य सती मृगावती युग प्रधान जिनचन्द्र सूरि ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह अन्य ग्रन्थोंमें मूर्तिपूजा विचार पल्लोवालगच्छ पट्टावली जिन कृपाचन्द्र सूरि गहुँलो २२ गहूंली संग्रह जिन कृपाचंद्र सूरि स्तवन ७ प्रकाशन स्थान अभय जैन ग्रन्थमाला पुष्प ४ , ३ 99 39 "" "" "" 95 "3 99 "" "" "" "" जिनराज भक्ति आदर्श श्री आत्मानन्द शताब्दी स्मारक ग्रंथ 29 ३ 39 19 पूजा संग्रह अ० जै० ग्र०-पु-२ 3, "" "3 95 "" स्तवन ४ प्रश्नोत्तर १८-९-३१ सामयिक पत्रोंमें बीकानेर के जैन मन्दिर, आत्मानंद (गुजरांवाला) वर्ष ३ अंक ११,१२ अ०भ० वर्ष ४ अंक १, २ सादा अने सरल प्रश्नोत्तर भाग २ ७ 99 ८ "" "" वर्ष ४ अंक १ भ० 55 19 वर्ष ७ अंक ६ अ० भ० "" भूषण भैसाह મ श्रीनगरकोटतीर्थ वीनवि बीकानेर के ज्ञान मन्दिर, ओसवाल नवयुवक सं० १९९० पो-मा०फा०, अ०भ० महत्तियाण जाति ओसवाल जाति वर्ष ७ अङ्क ७ ओसवाल वस्ती पत्रक वर्ष ७ अंक ११ जैन समाज के सामयिक वर्तमान पत्र, ओसवाल नवयुवक वर्ष ८ अंक १ अ मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र (यु० जिनचन्द्रसूरिसे उद्धत ) वर्ष ८ अं० २ अ०भ० ओसवाल नवयुवक वर्ष ८ अं० ३ अ० अ० 99 "" वर्ष ८ अं० ५ अ०भ० कलकत्तेके जैन पुस्तकालय सती प्रथा और ओसवाल समाज पूर्वकालीन ओसवाल ग्रन्थकार जैन साहित्यका प्रकाशन ६ लेखक अ० भ० अ० भ० अ० भ० 2010_05 अ० अ० अ० भ० अ० भ० अ० "" ( प्रेषित ) अ० भ० "" "" ओसवाल सुधारक वर्ष २ अं० ३ अ० Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० अ० अ०भ० ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह लेखोंको हड़प जानेको गजबकरामात, ओस० सुधारक वर्ष २ अं० १९ अ० महावीर जयन्ताकी सार्थकता , वर्ष २ अं० २१ अ० भ्रमात्मक इतिहास जैन सन् १९३० भ० कविवर समयसुन्दर साहित्य जैन, पुस्तक ३३ अंक २३, २५ अ, भ. पट्टावलियों में संशोधनकी आवश्यकता जैन पु. ३३ अंक २८ अलभ्य ग्रन्थों की खोज (अपूर्ण प्र.) जैन पु० ३३ अंक ४० सतो वाव सम्बन्धी एक गम्भीर भूल, जैन पु० ३५ अक अ० भ० वा० मो० शाहको महत्वपूर्ण भूल जैन १९।१२।३७ भानुचन्द्र चरित्र परिचय जैनजागृति (मासिक) अ० कविवर बिनयचन्द्र जैनज्योति (मासिक) सं० १९८८ अंक ९ अ० भ० पुजा ऋषिरास जैन ज्योति सं० १९८८ अंक ११ अ० भ० जैन कवियों का हीयाली साहित्य , सं० १९८९ अंक ३ अ० भ० महाराष्ट्री और पारसी भाषामें दोस्तवन, जैनज्योति सं० १९८९ अंक ७ भ० बाल्यकाल और धार्मिक शिक्षा, जैनज्योति (साप्ताहिक) सं० १९९० भ० विचार प्रकाश , वर्ष १ अंक २८ अ० स्थानक वासी इतिहास परिचय जैनध्वज वर्ष २ अक ८ अ० सती चन्दनबाला-आलोचना , वर्ष २ अंक १४ भ० सिन्ध प्रान्त और खरतरगच्छ जैनध्वज अ० भ० प्रश्नोत्तर ३० जैनधर्मप्रकाश पुस्तक ४७ अंक ११ अ० प्रश्नोत्तर ११, १४, १४, २६ जैनधर्म प्रकाश पुस्तक ४८ अंक ४,५,८ भ० प्रश्नोत्तर २०, २१ २५ , ,, ४९ अंक १,४,६ अ० प्रश्नोत्तर २७,२२,११,१५,१५,२०,८,, ,, ५० अं० १,३,५से ९ अ० प्रश्नोत्तर १९ ,, ५१ अंक ६ अ० प्रश्नोत्तर ३१ , ५३ अंक ८,९ अ० देवचन्द्रजी कृत अप्रकाशित स्तवनपद ,, ,, ४९ अंक ४,८ अ० " " , , ५० अंक ४,८ " " ,, ५१ अंक ६,७ अ० मस्तयोगी ज्ञानसारजी कृत ४ पद ,, ,, ४८ साधु मर्यादा पट्टक . जैन सत्य प्रकाश वर्ष २ अंक ३ अ० श्री महावीर स्तव ( कविता) , वर्ष २ अंक ४-५ अ० अ० अ० 2010_05 Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकोंकी साहित्य प्रगति जैन सत्यप्रकाश जैन ग्रन्थों की सूची लुप्तप्राय दो ऐतिहासिक रासोंका सार 19 ( सौभाग्यविजय और तपा देवचन्द्र रासका ) युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि और सम्राट अकबर दो खरतरगच्छीय ऐ० रासोका सार (जिन सिंहसूर, जिनराजसूरि रासका ) "" 19 कोचरशाहका समय निर्णय प्रेषित अ० भ० 35 दूत काव्य सम्बन्धी कुछ ज्ञातव्य बातें, जैन सिद्धान्तभास्कर भा० ३कि० १२० जैन पादपूर्ति काव्य साहित्य भाग ३ किरण २, ३ अ० लौका शाद और दिगम्बर साहित्य, जैन ज्योतिष और वैद्यक ग्रन्थ क्या दिगम्बर सम्प्रदाय में खरतरगच्छ तपागच्छ ये ? राजस्थानी भाषा और जैन कधि धर्मवर्द्धन, राजस्थान कविवर लक्ष्मीवल्लभ 95 23 "" "" "" "" "" 33 अलवर के शिलालेखपर विशेष प्रकाश वीर सन्देश जिनदत्तसूरि जयन्ती और हमारा कर्तव्य तोर्थ गिरिराजोंके रास्ते 99 59 बुद्धि वर्द्धक प्रश्न शिक्षण सन्देश श्वेताम्बर जैन बाल्यकाल और धार्मिक शिक्षा कविवर विनयचन्द्र (कृत राजुल रहनेमि गीत ) ;, "" भ्रमात्मक इतिहास ( जैन में भी ) जैन साहित्यकी वर्तमान दशा सिन्धी भाषामें जैन साहित्य (अपूर्ण प्र०) फलौधी पार्श्व जिन स्तवन (विनयसोमकृत) श्वेताम्ब मिथ्यात्वो और अपात्र हैं ? साम्प्रदायिकताका उग्र विष -दादाजीको वीनती ( कविता ) जैन साहित्यका महत्व ( अपूर्ण प्र० ) अ० 95 99 और भी कई लेख जैन, जैन ज्योति, वीर, जैन धर्म प्रकाश आदिके सम्पादकों को भेजे हुए हैं पर वे अब तक प्रकाशित नहीं हुए हैं 1 39 39 33 "" अ० भाग ४ किरण १ अ० वर्ष ४ कि० २, ३ ( प्रेषित ) वर्ष २ अंक २ अ० "" अ० वर्ष १ अ० अ० 99 वर्ष वर्ष २ अंक १ अ० बर्ष ३ अंक २,३,४ अ० भाग ४ अंक ३१ अ० भाग ४ अंक २५ भ० वर्ष २ अंक १०, ११ अ० वर्ष २ अंक १२ "" "" वर्ष ३ अंक २-३ अ०भ० वर्ष ३ अंक ४, ५ अ०भ० "; ५०१ 33 2010_05 भाग ५ संख्या ३० भ० भाग ६ अंक १९ अ० भाग ६ अंक २१ अ० भाग ६ संख्या ३० अ० भाग ८ अंक ३१ अ० भाग १० अंक ११ अ० भ० Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह - अप्रकाशित विशिष्ट निबन्धादि सांकेतिक शब्दाङ्क कोष जैनेतरग्रन्थोंपर जैन टीकाए सिन्ध प्रान्त और खरतरगच्छ ( विस्तृत इतिवृत्त ) कविवर जटमल नाहर और उनके ग्रन्थ लोकामत और उसकी मान्यताएँ बीकानेर नरेश और जैनाचार्य श्रीजिनदत्तसुरि चरित्र योकानेर जैन लेख संग्रह प्राचीन तीर्थमाला संग्रह अभय जैन पुस्तकालयका प्रशस्ति संग्रह खरतर विरुद प्राप्ति खरतरगच्छ साहित्य सूची खरतरगच्छाचार्यादि प्रतिष्ठित लेख सूची खरतरगच्छकी ८४ नन्दियें भूतकालीन जैन सामयिक पत्रोंका इतिहास जैन पूजा साहित्य, कल्पसूत्र साहित्य सम्यक् दर्शन, मनुष्यभवकी दुर्लभता कविवर लक्ष्मीवल्लभ और उनका साहित्य मस्तयोगी ज्ञानसारजी और उनका साहित्य कविवर समयसुन्दर और उनका साहित्य, उपाध्याय क्षमाकल्याणजी कविवर धर्मवद्धन (साहित्य) कविवर जिनहर्ष (साहित्य) कविवर रघुपति (साहित्य) छतीसीये ४, स्तवन, पद, चन्द्रदूत काव्य आदि श्रीकीतिरत्न सूरि, सागरचन्द्रमूरि आदि शाखाओंका इतिहास, अनेक भण्डारोंके सूचीपत्र और अनेकों ग्रन्थोंकी प्रेस कॉपियां इत्यादि । 2010_05 Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवश्य पढ़िये ! अभय जैनग्रन्थमालाको प्रकाशन श्रीअभय जैनग्रन्थमालाको सस्ती, सुन्दर और उपयोगी पुस्तकें ५०३ शीघ्र खरीदिये !! १ अभयरासार २ पूजा संग्रह - पृष्ठ ४६४ सजिल्दका मूल्य १) मात्र । भिन्न-भिन्न विद्वान कवियोंके रचित १७ पूजाओंके साथ कविवर समयसुन्दर कृत चौबीसी एवं स्तवनोंका संग्रह । अभी मूल्य घटाकर 1) कर दिया है । मंगाने की शीघ्रता करें | I ५ स्नात्रपूजादिसंग्रह ६ जिनराज भक्ति आदर्श अलभ्य ३ सती मृगावती - ले० भंवरलाल नाहटा | प्रातः स्मरणीय सती मृगावतीका सरल और रोचक भाषामें मनोहर चरित्र इस पुस्तकमें बड़ी ही खूबीके साथ अङ्कित है । पृ० ४० मूल्य =) ४ विधवा कर्तव्य - ले० अगरचन्द नाहटा । ताड़पत्रीय " विधवा कुलक" का सरल विस्तृत विवेचनात्मक भाषान्तरके साथ विधवा बहनोंके सभी उपयोगी विषयों और कर्त्तव्योंपर प्रकाश डाला गया है। विधवाओंके मार्गदर्शक ६८ पृष्ठ के ग्रन्थरत्नका मूल्य =) अल्भ्य अलभ्य ७ युगप्रधान श्र जिनचन्द्रसूरि - सजिल्द पृ० ४५० सचित्र मूल्य १) 1 यह ग्रन्थ हिन्दी जैन साहित्य में अद्वितीय है। किसी भी जैनाचार्यका 2010_05 जीवन चरित्र अब तक इस शैलीसे हिन्दोमें प्रकट नहीं हुआ है । इस ग्रन्थकी प्रशंसा बड़े-बड़े विद्वानोंने मुक्तकण्ठले की है । सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ रायबहादुर महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचन्द ओझाने इसपर सम्मति Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह ~ और वकील मोहनलाल दलीचंद देसाइ बी० ए०, एलएल० बी० ने विद्वत्तापूर्ण विस्तृत प्रस्तावना लिखी है। इसकी उपयोगिताके विषयमें इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि अल्पकालमें ही १००० प्रतियोंमें केवल ६० प्रतियां रहो हैं और इसका संस्कृत काव्य निर्माण होनेके साथ साथ इसके आधारसे बम्बईसे ५००० गुजराती ट्रेक्ट भी प्रकाशित हो गये हैं। अनेक विद्वानों और पत्र-सम्पादकोंकी संख्याबद्ध सम्मतियोंमेंसे केवल "जैन ज्योति" के विद्वान सम्पादक शतावधानी श्रीधीरजलाल टोकरसी शाहको सम्मतिका कुछ अंश उद्धृत करते हैं "सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रमाण, उक्तिने आधार ग्रन्थो ना अवतरणो थी भरेलो छ। ऐतिहासिक ग्रन्थो केवी रोते रचावा जोइए तेनो आ एक नमूनो छ। एम कही सकाय । अने आ नमूनो जोतां ऐतिहासिक ग्रन्थो केटलो परिश्रम मांगे छे ते स्पष्ट तरी आवे छे x x आवा ग्रन्थ नी. कीमत एक रुपियो जरूर सस्ती लेखाय ।" ८ ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह-आपके कर-कमलोंमें विद्यमान है। . ९ संघपति सोमजी शाह-लेखक तेजमल बोथरा।। ' इसमें अहमदाबाद के सेठ शिवा, सोमजीके आदर्श साहमीवच्छल व धर्म कार्योंका वर्णन बहुत ही रोचक और सुन्दर शैलीसे अंकित है। निकट भविष्यमें ही खरतरगच्छ गुर्वावली अनुवाद :एवं श्रीजिनदत्तमुरि चरित्र आदि अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थ प्रकाशित होंगे। समाप्त कर 2010_05 Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05