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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह संवत 'गुणपंचास तरौ', श्री 'संखवाल' कुल सहसकरौ ॥५॥ संवत 'चवदै त्रयसठि' वरसै, 'आसाढ़ इग्यारीस' बहु हरसै। श्री 'जिनवरधन सूरि' गुरु पास, संयम लीधो मन उल्हासैं ।।६।। 'सितरई' वाचक पद गुरु पायउ, 'असीयइ' उवझायक पद आयउ । 'सताणूयई" वरस दीयउ, आचारिज श्री 'जिनभद्र' कीयो ॥७॥ 'लखई' 'केल्हई तिहां मन लाइ, 'जेसलगिर' पुर तिहां किण जाई । 'मा(हो)घ सुकल दसमी' आइ, महोछव करि पदवी दिवराइ ।।८।। 'पनरइ पचवीसई' तिण वरसइ, 'आसाढ़ इग्यारस' बहु हरसै । अणसण लीधो मन नै हरसै, सुभगति पांमी सुरवर सरसइ ॥६॥ 'वीरमपुर' बधतें वान, थाप्यो थिर धुंभ भला थांनइ । . महीयल सहु को नइ मन मानइ, जस सोभा जग सगलौ जानै ॥१०॥ सम्रयो सदगुरु सांनिधकारी, सकलाप सजन जन साधारी। नरवर सुर वै) वर नै नरनारी, थंभे आवे जात्रा धारी ।।११।। भूत प्रेत डर भय नावइ, जंजाल सबे दूरई जावई। गणि 'चन्द्रकीर्ति' गुरु गुण गावै, श्री 'कोरतिरत्नसूरि' ध्यावइ ॥१२
॥ इति गुरु गीतं ॥
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