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________________ ~ ~ काव्योंका ऐतिहासिक सार । प्रसिद्ध हुए । आपने अनेक देशोंमें विहार कर बहुतसे भव्यात्माओंको प्रतिबोध दिया। इस प्रकार धर्म प्रचार करते हुए आप जालोर पधारे और अपने आयुष्यका अन्त निकट जानकर अपने सुशिष्य वाचनाचार्य प्रबोध मूर्तिको अपने पदपर स्थापित कर जिनप्रबोध सूरि नाम स्थापना की और वहीं अनशन आराधना कर सं० १३३१ के आश्विन कृष्णा ६ को स्वर्ग सिधारे । जिन प्रबोध सूरि उल्लेख :-गुर्वावलियोंमें जिनचन्द्र सूरि , " श्री जिन कुशलसूरिजी विरचित 'जिनचन्द्र सूरि चतुःसप्ततिका' प्राप्त हुई है। ग्रन्थ विस्तार भयसे उसे प्रगट नहीं की गयी, मात्र उसका सार नीचे दिया जाता है । मारवाड़ प्रान्तमें समीयाणा (सम्माणथणि ) नगरके मन्त्री देवराजकी पत्नी कोमल देवीकी रत्नगर्भा कुक्षिसे सं० १३२४ मार्गशीर्ष शुक्ला ४ को आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम खंभराय रखा गया। खंभराय क्रमशः वयके साथ-साथ गुणोंसे भी बढ़ते हुए जब ६ वर्षके हुए तब श्री जिबप्रबोध सूरिकी देशना श्रवणका सुअवसर मिला। उनके उपदेशसे प्रतिबोध कर सं० १३३२ के जेठ शुक्ला ३ को गुरुश्रीके समीप प्रव्रज्या ग्रहण की। पूज्य श्रीने आपका नाम "क्षेमकोति” रखा । दीक्षाके अनन्तर आपने व्याकरण, छंद, नाटक, सिद्धान्त आदिका अध्ययन कर विद्वता प्राप्त की। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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