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श्री गुर्वावली नं० २
२१६ संयमश्री जिहि हेलि परणी, चरण करण सु धारओ।
मय अठ्ठ वारण मान गंजण, भविय दुत्तर तारओ। सोभाग सुन्दर सुगुण मन्दिर, मुक्ति कमला कामिनी ।
जिह नाथ पामी अतलेने? छइ, भइय शुभ गुण गामिनी ॥शा तदनन्तर रे, 'प्रभव स्वामि' श्रुतकेवली,
सिव पद्धति रे, भवियह भाखी अति भली । 'सिजंभव' रे, सामी गुण गणधार ए,
मिथ्या मत रे, पाप तिमिर भर वार ए॥ वार ए कुमत कुसंग दूषण, भाव भेय दिवायरो।
'जसभद्द' गणहर नाण दंसण, चरण गुणगण सायरो। 'संभूतिविजय' प्रधान मुनिपती, प्रबल कलिमल खंडणो ।
श्री 'भद्रबाहु' सुबाहु संजम, जैन शासन मंडणो॥४॥ श्री 'थूलिभद्र' रे, वाम कामभड भंजणो,
उपसम रस रे, सागर मुनि गण रंजणो। जसु उत्तम रे, सुजस पडह जगि वाज ए, .
अति निरमल रे, शील सबल दल गाज ए ।। गाजए दुक्कर सुविधि-कारी, जासु गुण पूरी मही।
रवि चक्क तलि वर सील सुभ वलि, जेह सम सरिखो नही । प्रतिबोधि कोश्या मधुर वयणिहि, किद्ध उत्तम साविया ।
सो ब्रह्मचारी सुकृत-धारी, भावि प्रणमो भाविया ॥५॥ तसु अनुक्रमि रे, 'अज्जमहागिरि' जगि जयो,
जिणकप्पह रे, तुलणाकारी सो भयउ ।
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