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ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह मोह ए भवियण जणह मानस, एह परम जगीसरु,
वर ध्यान सुमति निधान सुन्दर, नवल 'करुणा रस भरु । पण विषय विषम विकार गंजण, भाव भड भय जीप ए।
सो सुविधचारी शीलधारी, जैन शासन दीप ए ॥१७॥ गंभीरिम रे, उपमा सागर गुरु तणी,
किम पावइ रे जिह तई महिमा अति घणी। मह मूलिक रे, रत्नत्रय जिह जाणीयइ,
___सम दम रस रे निरमल नीर वखाणियै ।।। वखाणियै जिह सबल संयम, रंग लहरी गहगहइ, .
सुध्यान वडवानल सुगुण मय, नदी पूर जिहां बहै। एक इह अचरिज भयउ हम मनि, सुणहु कवियण इम कहइ । ___ 'जिनचंदसूरि' सुरिन्द पटतर, कहउ जलनिधि किम लहइ ॥१८॥ इह सुहगुरु रे, गुण गण वर्णन किम सके,
बहु आगम रे, पाठी तउ पुणि ते थकै। इह कारणि रे, श्री गुरु सम को किम तुलइ,
किह पीतलि रे, कंचन सम सरि किम मुलइ ।। किम मुलइ रयणी दिन समाणी, बहुय सरवर सागरा,
___ नक्षत्र ससहर सूर कातर, उखर भू रयणागरा, सोभाग रंग सुरंग चंगिम, चरण गुण गण निरमला,
'जिनचन्द्र सूरि' प्रताप अविचल, दिन दिनइ चढ़ती कला ॥१६॥ 'ढिलि' मंडलि रे, 'रुस्तक' नगर सोहामणो,
तिहा श्री संघ रे, सोहइ अति रलियामणो।
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