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________________ श्री गुर्वावलो नं० २-३ २२५ ऊमाहो रे, निवसइ गुरु दंसण तणो, मन महि जिम रे, चातक घन तिम अति घणो । अति घणो भाव उल्हास उच्छव, सधन धन सो अवसरो, ___सा धन्न वेला सु धन मेला, जत्थ दीसइ सुहगुरो । जे भावि वंदइ तेह नन्दइ, दुख छन्दइ बहु परै, संग्रहइ समकित शुद्ध सोवन, सुगुरु उच्छव जे करइ ॥२०॥ मन मोहन रे, गुण रोहण धरणी धरु, पूर्व ऋषि रे, उजवालइ जगदीसरु । चिर प्रतपो रे, श्री 'जिनचंद्र' यतीसरु, जां दिनकर रे, ससहर सुर वर भूधरु ॥ सुर भूधर जां लगइ अविचल, खीरसागर महियलै, जयवन्त गुरु गच्छपति गणधर. प्रकट तेजइ इणि कलइ । 'मतिभद्र' वाचक सोस 'चारित्र,-सिंह' गणि इम जंप ए । गुरु नाम सुणतां भावि भणतां, होइ सिव सुख संप ए ॥२१॥ गुर्वावली नं०३ ढाल-गीता छन्द नी। . भारति भगवति रे, तुं वसि मुख कजे मेरइ, सहगुरु सुरतरु रे, गाइसुं सुजस नवेरइ । सहगुरु गाइसुं सुविहित यति पति, सिरि 'उद्योतनसूरि' वरो । तसु पाट पुरन्दर सोहग सुन्दर, 'वर्द्धमानसूरि' युग प्रवरो। 'अणहिलपुर' 'दुर्लभ' राय अंगणि, जिणि मठपत पण जीतउ । क्रिया कठोर 'जिनेश्वरसूर' ति, 'खरतर' विरुद वदीतउ ।।१।। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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