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श्री कीर्तिरत्नसूरि गीतम्
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॥श्री कीर्तिरत्नसूरि गीतम् ॥
न०-२ नवनिधि चवद रयण आवइ, तसु मन्दिर सम्पति रिति(द्धि?) पावइ । दृझै कामगवी भाव, श्री 'कीतिरत्न सूरि' जे ध्यावै ॥ न । आं० ।। सुरतरु अंगणि सफल फले, सुर-कुंभ सिरोमणी हेली मिलइ । जागती जोति अमृत सघल, दुख दारिद दोहण दूर हलै ॥१ । न० ।। अविहड उल्लट उछव घणा, थिण दविण एवत्थण कामुकणा । 'पसरइ महियल विमल गुणा, चंगइ गुरु ध्यावो भविक जणा ॥रना महिम प्रतीति सुधर लगई, डाइण साइण कबहु न लगे। प्रीति सुं नीति बधइ त्रिजगई, नहु नंदि चलइ तसि पूठि अगई ॥३न।। श्री 'संखवालह' वंस वरइ, 'देपा' सुत 'देवल' दे उयरइ । दीक्षा'वर्द्धनसूरि'गुरई, संजम वासिरि उ(ध?)रियउ धवल धुरई॥४न।। आचारिज करणी वृनणा, जिन भुवन पय?ण पद ठवणा । सीस नांदि मालारुहणा, गुरु पीर न होइ इगरि-सणा ॥ ५ । न० ॥ मूत(ल?) 'महेवइ' थिर ठाणइ, पगला 'अरबुद-गिरि' 'जोधाणे'। पूज करइ जे इकठाणइ, ते सदा सुखी सहुको जाणे ॥ ६ । न०॥ दीप दिवस अतिसइ सोहइ, सुर नाद संगीत भुवण मोहई। झिग मिग दीप कली बोहइ, गुरु जां मलीउ एरकाब व कोहइ॥७न०॥ प्रगट प्रभात्र प्रताप त(प,इ, नर नारि नमी कर जोड़ जपइ । अबलाह सा(सब?)वला धार धपा, श्री खरतरगच्छ प्रभुता सुमपइन।
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