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________________ ४०२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह wimmawwarnawwwmarwarmer ॥ भास ॥ 'सिन्धु' देश 'पूरव' पमुह, बहु विह देस विहार । करइ सुगुरु देसण हरस, वरिसइ सुह फल कार ।। ३३ ।। अहे ऋमि क्रमि 'जेसलमेरु' नयरि, पहुंतउ विहरन्तउ । "कित्तिराय' उवझाय चन्द, तव तेउ फुरन्तउ ।। सिरि 'जिणभद्रसूरि' मुणिय, पात्र आचारिज कीधउ । मोटइ उलटि 'कित्तिरयणसूरि', नाम प्रसिद्धउ ।। ३४ ॥ सो सिरि 'कीरतिरयण सूरि' भवियण पड़िबोहइ । लबधिवन्त महिमानिवास, जिण शासनि सोहइ ।। खरतर गच्छि सुरतरुह जेम, वंछिय दाणेसर । __ वादिय मयंगल माण तिमिर, भर नाण दिणेसर ।। ३५ ।। एरिस सुहगुरु तणउ नाम, नितु मनिहि धरीजइ । तिमि तिम नव निहि सयल सिद्धि, बहु बुद्धि लहीजइ ।। ए फागु उछ रंगि रमइ, जे मास वसन्ते । तिहि मणिनाण पहाण कित्ति, महियल पसरन्ते ॥३६ ॥ ॥ इति श्री कीर्ति रत्नसूरि वराणां फागु समाप्तः । ॥ छः ॥ शुभं भवतु श्री संघस्य ।। छः ।। ॥लिखितं जयध्वज गणिना ।। 439 Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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