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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
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॥ भास ॥ 'सिन्धु' देश 'पूरव' पमुह, बहु विह देस विहार ।
करइ सुगुरु देसण हरस, वरिसइ सुह फल कार ।। ३३ ।। अहे ऋमि क्रमि 'जेसलमेरु' नयरि, पहुंतउ विहरन्तउ ।
"कित्तिराय' उवझाय चन्द, तव तेउ फुरन्तउ ।। सिरि 'जिणभद्रसूरि' मुणिय, पात्र आचारिज कीधउ ।
मोटइ उलटि 'कित्तिरयणसूरि', नाम प्रसिद्धउ ।। ३४ ॥ सो सिरि 'कीरतिरयण सूरि' भवियण पड़िबोहइ ।
लबधिवन्त महिमानिवास, जिण शासनि सोहइ ।। खरतर गच्छि सुरतरुह जेम, वंछिय दाणेसर ।
__ वादिय मयंगल माण तिमिर, भर नाण दिणेसर ।। ३५ ।। एरिस सुहगुरु तणउ नाम, नितु मनिहि धरीजइ ।
तिमि तिम नव निहि सयल सिद्धि, बहु बुद्धि लहीजइ ।। ए फागु उछ रंगि रमइ, जे मास वसन्ते ।
तिहि मणिनाण पहाण कित्ति, महियल पसरन्ते ॥३६ ॥ ॥ इति श्री कीर्ति रत्नसूरि वराणां फागु समाप्तः ।
॥ छः ॥ शुभं भवतु श्री संघस्य ।। छः ।।
॥लिखितं जयध्वज गणिना ।।
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