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________________ श्रीकीतिरत्नसूरि फागु ४०१ ॥ श्री कीर्तिरत्नसूरि फागु॥ न०-१ ( त्रुटक) खिणि वाजिब घुम घुमइ ए, गयणंगण गाजइ। छल छल छपल कंसाल ताल, महुरा-रवि वाजइ ।। २८॥ भास-आवइ कामिणो गहगहिय, गावइ मङ्गल चार । खेला खेलइ अमिय रसि. हरिषिउ संघ अपार ।। २६ ॥ अहे क्रमि क्रमि आगम वेद छन्द, नाटक गण लक्षण । पश्च वरिस विजा विचार, भणि हुअ वियक्खण ॥ पण्डिय मुणि तिणि गुरि पसाउ, करि "कीरतिराउ । वाणारी (स) पदि थापिउ, ए सो पयड़ पभाउ ॥ ३० ।। नयर 'महेवई' हेव तेम, जिणमह" सूरिन्द । उबझाया राय थापिउ ए, 'कीत्तिराय' मुणिन्द ॥ घरि घरि उच्छव बहुय रंगि, कामिणि जण गावई । 'हरषि' 'देवल' देवि ताम, मनि हरषि (म) न मावई ॥ ३१ ॥ धारइ अङ्ग इग्यार सार, सुविचार रसाल । टालइ दोष कषाय जाय (ल?), उवसम-सिरि माल ॥ जिण शासन जे अवर, बहुय सिद्धन्त प्रसिद्धि। ते जाणइ सवि भेय बेय, वपु दे पिग बुद्धि ॥ ३२ ॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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