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श्रीकीतिरत्नसूरि फागु
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॥ श्री कीर्तिरत्नसूरि फागु॥
न०-१ ( त्रुटक) खिणि वाजिब घुम घुमइ ए, गयणंगण गाजइ।
छल छल छपल कंसाल ताल, महुरा-रवि वाजइ ।। २८॥ भास-आवइ कामिणो गहगहिय, गावइ मङ्गल चार ।
खेला खेलइ अमिय रसि. हरिषिउ संघ अपार ।। २६ ॥ अहे क्रमि क्रमि आगम वेद छन्द, नाटक गण लक्षण ।
पश्च वरिस विजा विचार, भणि हुअ वियक्खण ॥ पण्डिय मुणि तिणि गुरि पसाउ, करि "कीरतिराउ ।
वाणारी (स) पदि थापिउ, ए सो पयड़ पभाउ ॥ ३० ।। नयर 'महेवई' हेव तेम, जिणमह" सूरिन्द ।
उबझाया राय थापिउ ए, 'कीत्तिराय' मुणिन्द ॥ घरि घरि उच्छव बहुय रंगि, कामिणि जण गावई ।
'हरषि' 'देवल' देवि ताम, मनि हरषि (म) न मावई ॥ ३१ ॥ धारइ अङ्ग इग्यार सार, सुविचार रसाल ।
टालइ दोष कषाय जाय (ल?), उवसम-सिरि माल ॥ जिण शासन जे अवर, बहुय सिद्धन्त प्रसिद्धि।
ते जाणइ सवि भेय बेय, वपु दे पिग बुद्धि ॥ ३२ ॥
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