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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह विमल सिद्धि गुरुणी गीतम् । गुरुणी गुणवंत नमीजइ रे, जिम सुख सम्पति पामीजइ रे। दुख दोहग दूरि गयीजइ रे, परभवि सुर साथि रमीजइ रे ॥१॥ जसु जन्म हूओ 'मुलताणई' रे, प्रतिबूधा पिण तिण ठाणइ रे । महिमा सहु कोइ वखाणइ रे, दुक्कर किरिया सहिनाणइ रे ॥२॥ काकउ कलिमइ अवतारी रे, 'गोपो'लघुवय ब्रह्मचारी रे। तिणरइ प्रतिबोधइ दिख्या रे, मनमांहि धरी हित सिख्या रे ॥३॥ 'विमल सिधि' वड वयरागइ रे, बालक वय ऊपसम जागइ रे । 'लावण्य सिधि' गुरुणी संगइ रे, चारित लीधउ मन रंगइ रे ॥४॥ आगम नइ अरथ विचारइ रे, परवीण चरण गुण धारइ रे । मिथ्या मत दूरि निवारइ रे, कुमती जन नइ पिण डारइ रे ॥५॥ मद मच्छर मुकी माया रे, जिण कीधी निरमल काया रे। तप जप संजम आराधी रे, नरभव निज कारिज साधो रे ॥६॥ अणसण करि धरि सुह झाणइ रे, पहुता परभव 'बीकाणई' रे। पगला अति सुन्दर सोहइ रे, थाप्या धुंभइ मन मोहइ रे ॥७॥ श्री 'ललितकीरति' उवझायई रे, परतिष्ठ्या शुभ वेलाई रे। सुख साता परता पूरइरे, सेवक ना संकट चूरइ रे ॥८॥ धन धन्न पिता जसु माया रे, 'जयतसी' 'जुगतादे' जाया रे । 'माल्हू' वंसय सुविसाला रे, कलिकालइ चन्दनबाला रे ॥९॥ मन शुद्धई श्रावक श्रावी रे, वंदइ गुरुणी नइ आवो रे । तसु मन्दिर दय दयकारा रे, नितु होवइ हरष अपारा रे ॥१०॥ 'विमलसिधि' गुरुणी महीयइ रे, जसु नामइ वंछित लहीयइरे । दिन प्रति पूजइ नर नारी रे, 'विवेकसिद्धि' सुखकारी रे ॥११॥ __इति विमलसिद्धि गुरुणी गीतं ॥ समाप्त।
. ( पत्र १ संग्रहमें)
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