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________________ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह रत्न सूरिजीके ५१ शिष्य थे, सं० १५२५ बै० शु० ५ को आपका स्वर्गवास हुआ। आपने अपने कुटम्बियोंको ७ शिक्षायें दी जो इस प्रकार हैं:-१ मालवा, थट्टा, सिंध और संखवाली नगरी न जाना, २ गच्छभेदमें शामिल न होना, ३ पाटभक्त होना, ४ दीक्षा न लेना, ५ कोरटे और जैसलमेरमें देहरे बनवाना, ६ जहां बसो, नगरके चौराहेसे दाहिनी ओर बसना ७....... ..............। आपके रचित 'नेमिनाथ काव्य' प्रकाशित है एवं और भी कई स्तवनादि उपलब्ध हैं । आपकी शाखामें अभी जिनकृपाचन्द्र सूरिजी एवं कई यतिगण विद्यमान हैं। उ० जयसागर (पृ० ४००) उजयंत शिखर पर नरपाल संघपतिने 'लक्ष्मी तिलक' नामक विहार बनाना प्रारम्भ किया, तब अम्बा देवी, श्री देवी आपके प्रत्यक्ष हुई और सरसा पार्श्व जिनालयमें श्रीशेष, पद्माक्ती सह प्रत्यक्ष हुआ था। मेदपाट-देशवर्ती नागद्रहके नवखण्डा-पावचैत्यालय में श्री सरस्वती देवी आप पर प्रसन्न हुई थी। श्री जिनकुशल सूरिजी आदि देवता भी आप पर प्रसन्न थे, आपने पूर्व में राजगृह नगर ( उदंड) विहारादि, उत्तरमें नगरकोट्टादि, पश्चिममें नागद्रह आदि की राज सभाओंमें वादिवृन्दोंको परास्त कर विजय प्राप्त की थी आपने संदेहदोलावली वृति, पृथ्वीचन्द्र चरित्र, पर्वरत्नावली, ऋषभ स्तव, भावारिवारण · वृत्ति एवं संस्कृत प्राकृतके हजारों Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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