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काव्यों का ऐतिहासिक सार उसका नाम शिवचन्द रखा गया। कुंवर दिनोंदिन वृद्धि प्राप्त होने लगा और जब उसकी अवस्था १३ वर्षकी हुई, उस समय उसी नगरमें गच्छनायक जिनधर्मसूरिका शुभागमन हुआ । संघने प्रवेशो
सत्व किया, और अनेक लोग गुरुश्रीके व्याख्यानमें नित्य आने लगे । सूरिजीके व्याख्यान श्रवणार्थ पदमसी और शिवचन्द कुमार भीजाने लगे और संसारकी अनित्यताके उपदेशसे कुमारको वैराग्य उत्पन्न हो गया, यावत् माता पिताके पास आग्रह पूर्वक अनुमति लेकर सं० १७६३ में गुरु श्रीकेपास दीक्षा ग्रहण की। मासकल्पके परिपूर्ण हो जानेसे सूरिजी नवदीक्षित शिवचन्द्रके साथ बिहार कर गये । ज्ञानावर्णी कर्मके क्षयोपशमसे नवदीक्षित मुनिने व्याकरण, न्याय, तर्क और आगम ग्रन्थों का शीघ्र अध्ययन कर विद्वता प्राप्त की।
जिनधर्म सूरिजी उदयपुर पधारे और वहां शारीरिक वेदना उत्पन्न होनेसे आयुष्यकी पूर्णाहुतिका समय ज्ञातकर सं० १७७६ वैसाख शुक्ला ७ का शिवचन्दजीको गच्छनायक पद देकर (वहीं) स्वर्ग सिधारे। आचार्यपदका नाम नियमानुसार जिनचन्द्रसूरि रखा गया। उस समय (राणा संग्राम राज्ये ) उदयपुरके श्रावक दोसी भीखा सुत कुशलेने पद महोत्सव किया और पहरावणी, याचकोंको दान आदि कार्योंमें वहुतसा द्रव्यका व्यय कर सुयश प्राप्त किया । आचार्य पद प्राप्तिके पश्चात् आपने, शिष्य हरिसागरके आग्रहसे वहीं चतुमास किया, धर्भप्रभावना अच्छी हुई। चौमासा पूर्ण होने पर आपने गुजरातकी ओर विहार कर दिया। सं० १७७८ में (गच्छनायकके) परिप्रहका त्यागकर विशेष वैराग्य भावसे क्रियोद्धार किया और
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