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________________ ७८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह आत्म गुणोंकी साधना करते हुए भव्योंको उपदेश प्रदान आदि द्वारा स्वपर हित साधनमें तत्पर हुए। गुजरातमें विचरते हुए शत्रुजय तीर्थ पधारे और वहां ४ महीने की अवस्थित कर हह यात्राएं की। वहांसे गिरनारमें नेमनाथकी यात्राकर जूनागढ़की यात्रा करते हुए खंभात पधारे, वहांकी यात्रा कर चतुर्मास भी वहीं किया। वहां धरम-ध्यान सविशेष हुआ। वहांसे मारवाड़की ओर विहारकर आबू तीर्थकी यात्रा करके तीर्थाधिराज सम्मेतशिखर पधारे । वहां वीश तीर्थंकरोंके निर्वाण स्थानों को यात्रा करके, विचरते हुए बनारसमें पार्श्वनाथजी की यात्राको। रास्तेमें पावापुरी, चम्पापुरी, राजग्रही, वैभारगिरिकी भी संघके साथ यात्राकी और हस्तिनापुरमें शान्ति, कुन्थु और अरिनाथप्रभु की यात्रा कर दिल्ली पधारे, वहां चतुर्मास करके विहार करते हुए पुनः गुजरातमें पदार्पण किया। वहां भणशाली कपूरके पास एक चतुमांस किया और पंचमाङ्ग भगवतीसूत्रका व्याख्यान देने लगे, इति उपद्रव दूरकर सुयश प्राप्त किया। ज्ञान-भक्ति और धर्म प्रभावना अच्छी हुई, शत्रुजयतीर्थकी यात्रा की, यात्राकी भावना पुनः उत्पन्न होनसे राजनगरसे विहारकर शत्रुजय और गिरनाथतीर्थकी यात्राकर दीवबंदरमें चौमासे रहे। वहांसे फिर शत्रुजयकी यात्रा करके घोघारबंदर, भावनगर आदिकी यात्रा करते हुए भी १७६४ के माह महीनेमें खम्भात पधारे । वहांके गुणानुरागी श्रावकोंने आपका अतिशय बहुमान किया, उनके उपकारार्थ आप भी धर्मदेशना देने लगे। इसी समय किसी दुष्ट प्रकृति पुरुषने वहांके यवनाधिपके समक्ष Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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