________________
श्री जिनचन्द्रसूरि अकबर-प्रतिबोध रास
बोलइ कूड़ बहुत ते नर मध्यम,
इण परभवि दुख लहइ ए! चोरी करम चण्डाल चिहुं गति रोलवइ,
परम पुरुष ते इम कहइ ए ॥११॥ पर रमणि रस रंगि सेवइ जे नर,
. दुरगति दुख पावइ वही ए। लोभ लगी दुखहोय जाणउ भूपति,
सुख संतोष हवइ सही ए ॥२॥ पंचइ आश्रव ए तजे नर संवरइ,
भवसायर हेलां तरइ ए। पामइ सुख अनन्त नर वइ सुरपद,
कुमारपाल तणी परइ ए ॥६॥ इम सांभलि गुरु वाणि रंजिउ नरपति,
___श्री गुरु ने आदर करइ ए । धण कंचन वर कोड़ि कापड़ बहु परि,
गुरु आगइ अकबर धरइ ए ॥१४॥ लिउ टुक इहु तुम्ह सामि जो कुछ चाहिये,
सुगुरु कहइ हम क्या करां ए। देखि गुरु निरलोभ रंजिउ अकबर,
बोलइ ए गुरु अणुसरां ए॥१५॥ श्रीपुज्य श्रीजी दोय आव्या बाहिरि,
सुणउ दिवाणी काजीयो ए।
Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org