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उपाध्याय जयमाणिक्यजीरो छंद
पूजा अरचा मंड पाट पटंबर, बाजत झालर संख वती । परानी ऐमस कोई पयपै, न्यात कहै धन धन नीती ॥ बड़वा रस को सार वखाणौ, जस जोर हुवो चहुं कुंट जेती ॥ प० ॥
कर कोड सहोड करै कव कोरत, ध्यान धरै को
ग्यान ध्रती ।
दी दान घणा सनमान सदताही, पुज जणेसुर ईधकार करे जोणवार सुजाणे, आण न कोईण
॥ कवित्त ॥
खरतरगच्छ जस खटण, पाट उजवाल बड़े प्रव (ण ? ) ।
'हरखचंद' हरा हेत, वरा 'जीवण' जी वाटण ॥ 'सुन्दरदास' सपूत, वले 'वस्तपाल' वखाणुं ।
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'दीपचंद ' दरियाव ओपमा 'अरजन' जाणुं ॥ 'जीवणदास' पुठ खटण सुजस, वड़ शाखा जिम विस्तरौ ।
परवार पुत 'घमडेश' रो, रवि जितरौ अविचल रहौ ||१|| ॥ श्री ॥ उ० ॥ श्री जयमाणिक्य जीरौ ए कवित्त छै ।
पाइ वती ॥ ईढ इनी ॥ प० ॥
॥ जैन- न्याय ग्रन्थ पठन सम्बन्धी सवैया || स्याद वाद में (जय ?) पताका 'नयचक्र' 'नैं (नय ? ) रहस्य' 'पंच अस्तिका यं' 'रत्नआकरावतारिकां' | कठिन 'प्रमेय कौल मारतंड' 'सम्मति' सं,
'न्याय कुसुमाञ्जलि' जु 'तरकरहस्यदीपी (का)',
'अष्टसहस्त्री' वादि गजकी विदारिका ।
केइ 'किरणावली' से तर्क शास्त्र जैन मांझि,
'स्यादवाद - मंजरी' विचार युक्ति धारिका ।
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कहा नैयायिकादि पढो शास्त्र पारका || १॥
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