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________________ wwwcome श्री विमलकीर्त्ति गुरु गीतम् (२) राग - धन्याश्री ॥ २०६ वाचक 'विमलकीर्ति' गुरुराया, प्रणमो भवियण पाया वे । दरशन देखि नवनिधि थाइ, सुख संपति लील सदाइ बे || १|| बा० संवत 'सोल चउपन्ना' वरसे, चतुर चारित्र गहइ हरषइ बे । 'साधुसुन्दर' तसु गुरु सुवदीता, वादी गज मद जीता बे || २ || ब तासु शिष्य गुरु कमल दिणन्दा, भविक चकोर चित्त चंदा बे। सौभाग्य सवाइ बे || ३ || वा० ॥ अनुक्रम 'वाचक' पदवी पाइ, गुरु मूल चक्क 'मुलताण' कहावइ, तिहां चउमासइ आवइ बे । दान पुण्य ( तिहाँ ) अधिका थावइ, श्री संघ वधतइ दावइ बे || ४ || वा०॥ सिन्धु नगर 'कहिरोरइ' आया, लख चौरासी खमाया बे। अणसण पाली स्वर्ग सिधाया, गीत ज्ञान बहु गाया बे ||५|| वा०|| शिष्य शाखा प्रतपत्र रवि चंदा, जां लगि मेरु ध चंदा बे । 'आणंद विजय' इम गुण गावइ, चढ़ती दडलति पावइ बे || ६ || वा १४ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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