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________________ २०८ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह AnnivvvvM ॥ श्रीविमलकीर्ति गुरु गीतम् ॥ प्रह ऊठी नित प्रणमियइ हो, 'विमलकीर्ति' गणि चंद। । तेज प्रतापे दीपता हो, प्रणमै सहु नर वृन्द ।। १ ।। भविक जन वंदियइ हो, नामे पाप पुलाय ॥ भ० ॥ आंकणी ।। खरतरगच्छ में शोभता हो, सर्व कला गुण जाण । जेहनइ मुखि भारती वसइ हो, जाणइ ज्ञान विज्ञान ।। २॥ भ०॥ 'हुबई' गोत्रे परगड़उ हो, 'श्रीचंद' शाह मल्हार । मात 'गवरा' जनमिया हो, शुभ मूरति(महूरत) सुखकार ॥३॥भ०।। संवत् 'सोलह चउप्पणई' हो, लीधी दीक्षा सार । ___ 'माह सुदि सातम' दिनइ हो, पालइ निरतिचार ॥ ४ ॥ भ० ।। 'साधुसुन्दर' पाठक भला हो, सकल कला प्रवीण । सइंहथ दीक्षा जेण दीधी हो, ध्यान दया जुण लीण ||५||भ०।। चउरासी गच्छ सेहरो हो, श्री 'जिनराज सुरिन्द'। वाचक पद सईहथ दियो हो, सेव करइ जन वृन्द ॥६॥०॥ 'सोलहसइ बाणू' समइ हो, श्री ‘किरहोर' सुठाम । आराधन अणसण करी हो, पहुंता स्वर्ग सुधाम ।। ७ ।। भ० ।। 'विमलकीर्ति' गुरु नाम थी हो, जायइ पातक दूर। 'विमलरत्न' गुरु सेवतां हो, प्रतपे पुण्य पडूर ।। ८ ।। भ० ।। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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