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काव्योंका ऐतिहासिक सार था और गर्भवती थी। लक्षणोंसे गुरुश्रीने उनके फिर भी पुत्र होने का निश्चय किया और "इस द्वितीय पुत्रको हमें देना” कहा, पर धनबाई वाचकश्रीको इससे पूर्व ही वचन दे चुकी थी।
सं० १७४६ में पुत्र उत्पन्न हुआ, गर्भके समय स्वप्नमें इन्द्र आदि देवों द्वारा मेरु पर्वतपर प्रभुका स्नात्र महोत्सव किये जानेका दृश्य देखा था। उसीके स्मृति सूचक नवजात बालकका शुभ नाम. 'देवचन्द्र' रखा । अनुक्रमसे वृद्धि पाते हुए जब वह बालक ८ वर्षका हुआ, उस समय वा० राजसागरजीका फिर वहीं शुभागमन हुआ दम्पत्ति (धनबाइ) ने अपने वचनानुसार अपने होनहार बालकको मुरु श्रीके समर्पण कर दिया । गुरु श्रीने शुभ मुहूर्त देख सं० १५५६ • में लघु दीक्षा दो। यथासमय जिनचन्द्र सूरिजीके पास बड़ी दीक्षा दिलाई गई, सूरिजीने नव दीक्षित मुनिका नाम 'राजविमल' रखा। राजसागरजीने प्रसन्न होकर आपको सरस्वती मन्त्र प्रदान किया, श्रीदेवचन्द्रजीने बेनातट ( बिलाड़ा ) ग्रामके भूमिग्रहमें रहकर उस का साधन किया, देवी सरस्वती आपपर प्रसन्न हुई जिसके फल स्वरूप थोड़े ही समयमें आप गीतार्थ हो गये।। ___ गुरुश्रीने स्वपरमतके सभी आवश्यक और उपयोगी शास्त्र पढ़ाकर आपके प्रतिभामें अभिवृद्धि की। उन शास्त्रोंमें उल्लेखनीय ये हैं -षडावश्यकादि जैन आगम, व्याकरण, पञ्चकल्प, नैषध, नाटक, ज्योतिष, १८ कोष, कौमुदीमहाभाष्य, मनोरमा, पिङ्गल, स्वरोदय, तत्वार्थ, आवश्यक बृहदवृत्ति, हेमचन्द्रसूरि, हरिभद्रसूरि और यशोविजयजी कृत ग्रन्थ समूह, ६ कर्म ग्रन्थ, कर्म प्रकृति इत्यादि ।
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