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ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह
सं० १७७४ में वाचक राजसागर और १७७५ में उपाध्याय ज्ञानधर्मजी स्वर्ग सिधारे । मरोटमें देवचन्दजीने विमलदासजी की पुत्री माइजी, अमाइजीके लिये 'आगमसार' ग्रन्थ बनाया ।
सं० १७७७ में आप गुजरात-पाटण पधारे, वहां तत्वज्ञानमय स्यादवाद युक्त आपके व्याख्यान श्रवणार्थ अनेकों लोग आने लगे । इसी समय श्रीमाली ज्ञातीय नगरसेठ तेजसी दोसीने जो कि पूर्णिमा गच्छीय श्रावक थे, अपने गुरु श्रीभावप्रभसूरि ( जिनके पास विशाल ग्रन्थ भण्डार था, और अनेकों शिष्य पढ़ते थे) के उपदेश से सहस्त्रकूट जिनालय निर्माण कराया था। एक बार देवचन्द्र जी उक्त नगर सेठ जीके घर पधारे और उनसे सहस्त्रकूटके १०००जिनोंके नाम आपने अपने गुरुश्रीसे श्रवण किये होंगे ? पूछा । श्रेष्ठिने चमत्कृत होकर प्रत्युत्तर दिया कि भगवन् ! नहीं सुने । इसी अवसरपर ज्ञानविमल सूरिजी पधारे । श्रष्टिने उन्हें वन्दन कर सहस्त्रकूटके १००० नाम पूछे। उन्होंने नाम व उल्लेख-स्थान फिर कभी वतलानेका कहकर श्रेष्ठिकी जिज्ञासा शान्ति की । अन्यदा पाटण - साहीपोलके चौमुख वाड़ी पार्श्वनाथजीके मन्दिरमें सतरह भेदी पूजा पढ़ाई गई उसमें श्रीदेवचन्द्रजी और ज्ञानविमल सूरिजी भी सम्मिलित हुए । इसी समय सेठ भी दर्शनार्थ वहां पधारे और मूरिजीको देख फिर पूर्व जिज्ञासा जागृत हुई, अतः सूरिजीको सहस्रकूट जिन के नामोंकी पृच्छा की, उन्होंने उत्तर में 'प्राय: सहस्त्रकूट जिन नामोंकी नास्ति ( विच्छेद ) ज्ञात होती है, सम्भव है कोई शास्त्रमें हो, कहा' । इन बचनोंको श्रवण कर देवचन्द्रजीने उनसे कहा
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