________________
२१७
श्री गुर्वावली फागः चंपक जिम वणराय मांहि, परिमल भरि महकइ ।
कस्तूरी घनसार कमल, केवड़उ वहक्कइ ।। तिम सोहइ 'जिनकुशल सूरि', महिमा गुण मणहर । तयणंतरि 'जिनपद्मसूरि', जिणशासणि गणहर ॥१२॥
भास लबधिवन्त 'जिनलबधि' गुरु, पाटिहिं सिरि 'जिणचंदो' ।
उदय करण जिण उदयवंत, श्री जिणराज'मुणिन्दो ॥१३।। अहे श्री जिनराज' मुणिन्द पाटि, गयणंगणि चंदो ।
खरतरगण सिंगार हार, जण नयणाणंदो ।। सायर जिम गंभीर धीर, आगम संपन्न ।
सहिगुरु श्री जिनभद्रसूरि', कलि गोयम मन्नउ ॥१४॥ तसु पाटि जिणचंद सूरि', जिनसमुद्र सूरिन्दो।
तसु पाटिहिं 'जिनहंस सूरि', किरि पूनम चन्दो ॥ श्री जिनमाणिक सूरि' तासु, पाटिहि गुण भरियउ ।
चिरं जीवउ अगि विजयवन्त, संघहि परिवरियउ ।।१५।। 'जमंडलि अचल मेरू, दिणयर दोपंतउ ।
गिरउ खरतर संघ एह, तां जगि जयवंतउ ॥ वाणारसि सिरि 'खेमहंस', गणिवर सुपसाइ !
खेलाखेली फाग बंधि, सहगुरु गुण भाबइ ।।१६।। ॥ इति गुरावली फाग संपूर्णा ।।
Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org