________________
६८
ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह
किया करते थे । सूरि मंत्रके आराधनसे वैशाखमें स्वप्न में देवने कनकविजयजीको पद स्थापनका निर्देश किया, उसके बाद पूज्य सावली और ईडर पधारे। वहां दो चौमासे किये, प्रासाद प्रतिष्ठा हुई। उसके बाद राजनगर चातुर्मास करके एक चातुर्मास बीबीपुर में किया । चातुर्मासके अनन्तर सीरोहीके पंजावत तेजपाल और राय अखैराजके पोरवाड़-मंत्री तेजपालने गुरु वन्दना की, गुरुश्री पुनः श्री सिद्धाचलजीकी यात्राकर कमीपुर पधारे । तेजपाल ने पारस्परिक झगड़ा मिटाकर मेल कर लेनेकी विज्ञप्ति की उन्होंने भी स्वीकार कर समझौतेका पत्र लिखा, आचार्य विजयानन्दसूरि उ० नन्दिविजय वा० धनविजय, धर्मविजय आदिने विजयदेवसूरिकी पुनः आज्ञा शिरोधार्य की, तेजपाल पूज्यश्रीको सिरोही पधारनेकी विज्ञप्तिकर वापिस आ गया । पूज्यश्री राजनगरसे विहारकर ईडर आये, वहां तपागच्छीय संघके आग्रह से श्री उ० कनकविजयजीको वै० शु० ६ सोमवारको पुष्प नक्षत्र के दिन सूरिपद देकर स्वपट्ट पर स्थापन किया । उस समय ईडर संघ मुख्य सोनपाल, सोमचन्द्र, सुरजीके पुत्र सार्दूल, सहसमल, सुन्दर, सहजू, सोमा, धनजी मनजी, इन्दुजी और अमीचंद, राजनगर के संघवी कमलसिंह, अहमदपुरके पारख बेलाके पुत्र वापसी, पारख देवजी, सूरजी, थानसिंह, रायसिंह, सा०भामा, तोला, चतुर्भुज, सिंह, जागा, जसु, जेठा - जो गुरुश्रीके भाई थे, कोठारी वच्छराज, रहीआ, कर्मसिंह, धर्मसी, तेजपाल, अखयराज मंत्री समरथ मं० लखू भीमजी, भामा, भोजा, फड़िया मालजी भाणजी लखा चौथिया, गांधी वीरजी, मेघजी
Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org