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________________ nxnrmmmmm काव्योंका ऐतिहासिक सार (६ नायकदे) ६ व्यक्तियोंने सं० १६५२ माघ (शुक्ला) २ को पाटणमें विजयसेनसूरिके पास दीक्षा ग्रहण की। उनके दीक्षाके नाम इस प्रकार रखे गए-ना) = नेमविजय, सुरताण-सूरविजय, कर्मचन्द्र = कनकविजय, केशा कीर्तिविजय, कपूरचन्द्र = कुंवरविजय, इनमें कनकविजयको सुयोग्य समझकर विजयसेनसूरिने खशिष्य विजयदेवसूरिको सौंप दिया, उन्होंने इनको विद्याध्ययन कराया, श्रीविजयसेनसूरिने अहमदाबादमें सं० १६७० में पंडितपद से विभूषित किया। वीसा और वदाने महोत्सव किया। खंभातमें श्रीविजयसेनसूरिका स्वर्गवास हो जानेसे उनके पट्टधर विजयदेवसूरि हुए, उन्होंने सं० १६७३ में पाटणमें चौमासा किया, पोष वदी ६ को लाली श्राविकाने इनके हाथसे प्रतिष्ठा करवाई, इसी समय कनकविजयको उपाध्याय पद भी दिया गया। सम्राट जहांगीर विजयदेवसूरिसे माण्डवगढ़में मिले और प्रसन्न होकर "महातपा" पद दिया। विजयदेवसूरिने गुर्जर देशमें विहार करते हुए श्री शत्रुजयकी यात्रा की, उसके पश्चात् दो चौमासे दीवमें करके गिरनारकी यात्रा कर नवानगर पधारे, वहां संघने. २०००) जामी व्ययकर साम्हेला किया। तत्पश्चात् उन्होंने पुनः शत्रुजयकी यात्राकर खंभात चातुर्मास किया, वहां तीन प्रतिष्ठाओंमें चौदह हजार खर्च हुए। वहांसे माघ शुक्ला ६ को सावली पधारे । ३ मास तक मौन रहे, वहां सोनी रतनजीने अमारि पालन कराई, उस समय उ० कनकविजयजी ही व्याख्यान देते थे। गुरुने बहुतसे छ? अठ्ठमादि किए और वे आंबिल करके पूर्वदिशिकी ओर ध्यान Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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