SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीजिनराज सूरि रास . . १६७ महियलि वादि बड बड़ा, ताता (तां लग?) गरब वहति । जां लगि 'राजसमुद्र' गणि, गरुआ नवि बुल्लति ॥ ३ ॥ मोटइ मुनिवर महियलइ, 'राजसमुद्र' अणगार । जे जे विद्या जोइयइ, तिणि नहु लाभइ पार ॥ ४ ॥ 'वाचनाचारिज' पद दीयउ, 'श्रीजिनचंद्र सूरिंद' । पाटोधर प्रतिपउ सदा, रलिय रंग आणंद ।। ५॥ वड वखती सुप्रसन्न वदन, जाग्यो पुण्य अंकूर । परतखी देवी 'अम्बिका', हुइ हाजरा हजूर ॥ ६ ॥ परतखि परतउ दिठ ए, 'अम्बा' नइ आधार । लिपि बांची 'घंघाणीयइ', जाणइ सह संसार ।। ७ ।। 'जेसलमेरु' दुरंग गढ़ि, राउल 'भीम' हजूर । __ वादई 'तपा' हराविया, विद्या प्रबल पडूर ॥ ८॥ इम अनेक विद्या बलइ, खाटया बडा बिरुद्द । विद्यावंत बडउ जतो, सोहइ 'राजसमुद्र' ॥६॥ ढाल दसमी-उलाला जाति । हिव श्री शाहि 'सलेम', 'मानसिंघ' सूधरि प्रेम । .... वड वडा साहस धीर, मूंकइ अपणा वजीर ॥ १॥ तुम्ह 'वीकाणइ' जावउ, 'मानसिंघजो' • बुलावउ । इक बेर 'मानसिंघ' आवइ, तउ मुझ मन (अति) सुख पावइ ॥ २ ॥ ते 'वीकाणइ' आया, प्रणमइ 'मानसिंघ' पाया। दीधा मन महिराण, 'पतिसाही-फुरमाण' ॥३॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002600
Book TitleAetihasik Jain Kavya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherShankardas Shubhairaj Nahta Calcutta
Publication Year
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy